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Friday, October 30, 2015

सेंगर राजपूतो की शौर्य गाथा

*****हिंदुओं का अंतिम गणतंत्र*****
The Last Republic of Hindus
—-लखनेसर के सेंगर राजपूतो की शौर्य गाथा—
Sengar Rajputs of Lakhnesar
_/\_कृपया कर के पोस्ट पूरी जरूर पढ़े और कमेंट करने के साथ शेयर जरूर करे।
जैसा की सभी को पता है की 1947 में विभाजित होकर बचे भारत को 26 जनवरी 1950 को गणतंत्र घोषित किया गया। हालांकि भारत में गणतंत्र की व्यवस्था का चलन बहुत पुराना है। प्राचीन काल में भारत छोटे छोटे विभिन्न राज्यो में बटा हुआ था जिनमे अनेको क्षत्रिय वंश शाशन करते थे। इनकी शाशन पद्धति दो तरह की थी-
बहुत से राज्यो में वंशानुगत राजतांत्रिक शाशन व्यवस्था थी जिनमे राज्य का एक सर्वशक्तिमान शाशक होता था जो उस राज्य में शाशन करने वाले क्षत्रिय वंश का प्रमुख भी होता था। इन राज्यो में मगध, कौशल, काशी, हस्तिनापुर आदि प्रमुख थे।
दूसरी राजनितिक व्यवस्था गणतंत्र की थी जिसमे राज्य में एक क्षत्रीय वंश के सभी सदस्य शाशन में बराबर के भागीदार होते थे और शाशन से संबंधित निर्णय क्षत्रियो की सभाओँ में किये जाते थे। इन राज्यो को गणराज्य या संघ कहा जाता था। इस प्रणाली पर चलने वाले अनेक राज्य थे जैसे उत्तर बिहार का वृज्जि संघ जिसमे भगवान महावीर पैदा हुए, कपिलवस्तु का राज्य जिसमे गौतम बुद्ध ने जन्म लिया, मल्ल राज्य आदि। उत्तर पश्चिमी भारत के तो अधिकतर राज्य गणराज्य ही थे।
लेकिन अधिकतर लोगो को आश्चर्य होगा की आज से करीब 150 साल पहले तक भी एक छोटे से गणराज्य का अस्तित्व इस देश में था। यह गणराज्य था सेंगर राजपूतो का लखनेसर राज्य जो बलिया जिले में पड़ता है। बलिया जिले का लखनेसर परगना सेंगर राजपूतो के अधीन था लेकिन इनका कोई एक वंशानुगत नेता ना होकर सम्प्रभुता सभी सेंगर राजपूतो में निहित थी। जब भी कोई निर्णय लेना होता था तो सभी राजपूतो की सभा में निर्णय लिया जाता था। कोई भी अकेला व्यक्ति जमीन का स्वामी ना होकर पूरे लखनेसर परगना के सेंगर राजपूत जमीन में बराबर के साझेदार थे। 13वीं सदी में स्थापित हुआ यह गणतंत्र लगभग 500 साल तक जीवित रहा।
***जगमनपुर के राजपूत***
सेंगर राजपूतो के इतिहास आदि के बारे में हम अपनी पुरानी पोस्ट में बता चुके है। सबसे ज्यादा सेंगर राजपूत जालौन, औरैया, इटावा क्षेत्र में मिलते है जो उनके नाम पर सिंगारत(सिंगार राष्ट्र) या सिंगारघर के नाम से जाना जाता है। इस क्षेत्र से ही लखनेसर के सेंगर राजपूतो का निकास हुआ है।
प्राचीन काल में सेंगरो की एक धारा ने जालौन के कनार में आकर राज्य स्थापित किया। इस राज्य में 12वीं सदी में बिसुख देव या सुखदेव नाम के राजा हुए जिन्होंने कन्नौज के गहरवार राजा जयचंद की पुत्री देवकली से विवाह किया। इस विवाह सम्बन्ध की वजह से बिसुख देव की ताकत में वृद्धि हुई और राजा जयचन्द की चंदावर के युद्ध में गौरी के द्वारा हार और मृत्यु के बाद वो और ताकतवर बनकर उभरे और वर्तमान इटावा और औरैया जिले के हिस्सों को भी उन्होंने जीत लिया। यहाँ तक की बसिंध नदी का नाम भी सेंगर रख दिया गया।
बिसुख देव के बाद असाजीत हुए और उनके बाद मदनदेव, मदनदेव के रातहरा देव और उनके बाद सिंगीदेव। सिंगी देव की दो रानीया हुई- पहली इटावा की चौहाननी थी जिनसे मरजद देव हुए जो भरेह के सेंगर राजाओं के पूर्वज है। दूसरी रानी गौड़नी थी जिनसे 6 पुत्र हुए जिनके पट्टी नक्कट, पुरी धर, रूरू के राजा, ककौतु के राव और कुर्सी के रावत वंशधर है। बाद में कनार से बदल कर पास में ही जगमनपुर को राजधानी बनाया गया। आज भी जगमनपुर के राजा सेंगर राजपूतो के प्रमुख माने जाते है। इस क्षेत्र को पाँच नदियोँ के होने के कारण पंचनद भी कहा जाता है।
13वी सदी तक सेंगर राजपूतो ने जालौन से लेकर इटावा के बड़े हिस्से में मेवो को भगाकर पूर्ण नियंत्रण स्थापित कर लिया था। तुर्क हमलावरो के आगमन के बाद यहाँ के सेंगर राजपूतों का तुर्को से संघर्ष शुरू हुआ। सेंगरो ने तुर्को को कभी लगान देना पसन्द नही किया जिस वजह से निरन्तर उनका संघर्ष चलता रहा।
***लखनेसर राज्य की स्थापना***
इसी दौरान इस क्षेत्र के फफूंद से सेंगर राजपूतों का एक साहसिक दल हरी शाह उर्फ़ सूर शाह और बीर शाह नाम के दो भाइयो के नेतृत्व में अपनी किस्मत आजमाने पूर्वांचल की तरफ चला। इन लोगो ने गंगा और घाघरा नदियो के मध्य स्थित क्षेत्र में पहुँचकर अपना राज्य स्थापित करने का निर्णय लिया। इस क्षेत्र के घने जंगल से आच्छादित होने और एकांत में स्थित होने के कारण राजपूतो को ये उपयुक्त स्थान लगा और उन्होंने अपना राज्य स्थापित किया।
सूर शाह और उनके साथियों ने भरो से लखनेसर परगने को जीतकर राज्य स्थापित किया जबकी उनके भाई बीर शाह के वंशज भी पास ही सिकंदरपुर और जहानाबाद परगना में बसे जिन्हें आज बिरहिया राजपूत कहा जाता है।
***लखनेसर की शाशन व्यवस्था***
लखनेसर में स्थापित राज्य में किसी एक नेता का शाशन होने की जगह सभी सेंगर राजा थे और राज्य के शाशन में बराबर के हिस्सेदार थे। सभी सेंगर समान थे, उम्र के अलावा छोटे बड़े का कोई अंतर नही था। शाशन के सभी कार्यो में वरिष्ठ सेंगर मिलकर निर्णय करते थे लेकिन युद्ध के समय सभी पुरुष सेंगर जो हथियार उठाने में सक्षम होते थे हिस्सा लेते थे जिसमे उम्र का कोई भेद नही था।
वो हमेशा अपने को युद्ध के लिये तैयार रखते थे और हर तीसरे वर्ष बैसाख के महीने में सभी समर्थ सेंगर राजपूत पूरी तरह हथियारों से सज्जित होकर रसड़ा(ये उनकी राजधानी थी) में इकट्ठे होते थे जहाँ वंश के वरिष्ठ लोग संघ के योद्धाओं की सामूहिक ताकत का निरीक्षण करते थे। वहा पर वो तरह तरह के युद्ध आधारित खेल और युद्ध कलाओं का प्रदर्शन करते थे। इस वृहत सम्मेलन के गवाह बनने दूर दूर से लोग आते थे और सेंगर राजपूतो की एकता और ताकत से प्रभावित होकर जाते थे।
रसड़ा में सेंगरो के कुलदेवता श्रीनाथ जी का धाम है जिनका असली नाम अमर सिंह था। सम्मेलन के दौरान इसी धाम के चारो तरफ वंश के सभी लोग जमा होते थे। श्रीनाथ जी के प्रति लखनेसर के सेंगरो में अगाध श्रद्धा है और अपने सभी संघर्षो में विजय के लिये श्रीनाथ जी के आशीर्वाद और ताकत को ही जिम्मेदार मानते हैं। उस समय राज्य के राजस्व का भी एक हिस्सा श्रीनाथ जी को समर्पित किया जाता था।
राज्य की शाशन व्यवस्था बहुत साधारण थी। कृषक और व्यापारिक जातियो से जमीन उपयोग के बदले सामान्य कर लिया जाता था। ब्राह्मण, मजदूरो आदि को उनकी सेवा के बदले जमीन या और तरह के दान दिये जाते थे। बदले में सम्पूर्ण शाशन व्यवस्था और राज्य की सुरक्षा की जिम्मेदारी सेंगर राजपूतो के हाथ में होती थी। न्याय का काम ग्राम पंचायते करती थी जिनमे त्वरित और सस्ता न्याय होता था।
***मुग़लो से संघर्ष***
मध्यकाल में दिल्ली में मुस्लिम सत्ता स्थापित होने के बावजूद देश के अधिकतर हिस्सों में राजपूतो का शाशन बना रहा। राजस्थान के राजपूतों ने ऊची पहाड़ियों पर स्थित किलों से कई सदियों तक तुर्क, पठान, मुग़लो से संघर्ष किया और सफल प्रतिकार किया। इसी तरह उत्तर भारत के मैदानी इलाको में भी अधिकतर राजपूतो ने अपनी स्वतंत्रता अंतिम समय तक बनाए रखी।
मध्यकाल के इतालवी यात्री मनूची के अनुसार राजपूत जमींदार कभी भी मुग़लो को लगान देना पसन्द नही करते थे और जब सरकारी सेना लगान वसूलने भेजी जाती थी तो सभी राजपूत घने जंगलो में मौजूद अपने किलों/गढ़ीयो में शरण लेकर उनका प्रतिकार करते थे।
मैदानी इलाको में ऊँचे पहाड़ तो नही होते थे जिनका सहारा लेकर प्रतिकार किया जा सके इसलिये यहाँ के राजपूत वंश घने जंगलो का सहारा लेते थे। इसिलिये एक तरफ तो यहाँ राजपूतो द्वारा प्राकृतिक जंगलो का संरक्षण किया जाता था और दूसरी तरफ बांस के घने जंगल बड़ी संख्या में लगाए जाते थे। इन जंगलो के बीचों बीच किले होते थे जिनके चारोँ तरफ गहरी और दलदल से भरी खाई होती थी। इस जंगल को पार कर घुड़सवार सेना और तोपो का आना नामुमकिन होता था। किले के चारों और बांस की इतनी घनी आबादी होती थी की उनसे तोप के गोलों का पार होना संभव नही होता था जबकि किले के राजपूत आक्रमणकारी सेना पर आसानी से निशाना साध सकते थे जिससे वो अपने को सुरक्षित रखकर दुश्मन को ज्यादा से ज्यादा नुक्सान पहुँचाने का सामर्थ्य रखते थे। इन किलों से निकल कर राजपूत बादशाही सेना पर गुरिल्ला हमले भी करते थे।
इस तरह राजपूत अपने से काफी बड़ी और ताकतवर सेना का सफलतापूर्वक सामना करते थे और अधिकतर समय बादशाही सेना राजपूतों को दबाने में विफल रहकर राजपूतो से संधि कर के जो की राजपूतो के पक्ष में होती थी, वापिस जाने में ही अपनी भलाई समझती थी। इस तरह राजपूत अपनी सत्ता बनाए रखते थे और स्वतंत्र रूप से शाशन करते थे।
उपरोक्त रणनीति को राजपूतो ने 1857 के संघर्ष में अंग्रेज़ो के विरुद्ध भी इस्तमाल किया था। गौरतलब है की 1857 की क्रांति में सबसे ज्यादा सक्रीय भाग अवध और पूर्वांचल के राजपूतो ने ही लिया था जहाँ पर सैनिक विद्रोह जनविद्रोह बन गया था। अवध में इस रणनीति से अंग्रेज इतने परेशान हो गए थे की बगावत को दबाने के बाद अंग्रेज़ो ने बड़े पैमाने पर जंगलो को काटने और जलाने का अभियान चलाया। जंगल काट कर खेती करने वालो को कई ईनामो की घोषणा करी गई।
इसके अलावा सिर्फ अवध में ही एक साल के अंदर 1783 किलों/गढ़ियों को ध्वस्त किया जिनमे से 693 तोप, लगभग 2 लाख बंदूके, लगभग 7 लाख तलवारे, 50 हजार भाले और लगभग साढ़े 6 लाख अन्य तरह के हथियारों को अंग्रेज़ो ने जब्त करके नष्ट किया। इसके बाद शस्त्र रखने के लिये अंग्रेज़ो ने लाइसेंस अनिवार्य कर दिया जो बहुत कम लोगो को दिया जाता था। इसका परिणाम यह हुआ की अवध के राजपूत शस्त्रविहीन हो गए।
बहरहाल मध्यकाल में उत्तर भारत के मैदानी इलाको के राजपूतो ने जिनमे आज के हरयाणा, उत्तर प्रदेश और बिहार के राजपूत शामिल है ने सदियों तक इसी तरह तुर्क, मुग़लो का सामना किया लेकिन इनमे रोहिलखण्ड के कठेरिया राजपूत, अवध के विभिन्न राजपूत वंशो के अलावा लखनेसर के सेंगर राजपूतो का प्रतिरोध सफल होने के साथ साथ उल्लेखनीय भी है।
लखनेसर के सेंगर राजपूतो को कभी कोई ताकत झुका नही पाई और पूरे मुस्लिम काल में वो ना केवल पूर्ण रूप से स्वतंत्र जीवन जीते रहे बल्कि अपनी अनूठी गणतंत्र प्रणाली को बनाए रखा। लखनेसर के सेंगर राजपूतो को उनकी एकता और बंधुत्व की भावना और अपनी स्वतंत्रता के प्रति असीम लगाव होने के कारण कितनी भी बड़ी ताकत द्वारा झुका पाना बहुत मुश्किल था। खून की नदिया बहाए बगैर और हजारों प्राणों का बलिदान देने के बगैर जिनमे राजपूतानियो का बलिदान भी शामिल होता था, उनको झुकाया नही जा सकता था।
इसीलिए अकबर के समय मुग़लो से भीषण संघर्ष के बाद भी आइन-ए-अकबरी के अनुसार लखनेसर के राजपूतो को बहुत मामूली कर देना पड़ता था और उनकी आंतरिक स्वतंत्रता और उनका गणतंत्र बरकरार था। साथ ही उन्हें कोई सैन्य बल भी बादशाही सेना में नही भेजना पड़ता था। अगली सदी में तो क्षेत्र के बाकि राजपूतो की तरह लखनेसर गणराज्य पूर्ण रूप से स्वतंत्र ही रहा।
18वीं सदी की शुरुआत में अवध में सआदत अली खान का राज्य स्थापित होने और पूर्वांचल भी उसके अधिकार क्षेत्र में आने के बाद उसने पूर्वांचल के राजपूतों की ताकत को कुचलने और अपने अधीन करने के लिए अनेको प्रयत्न किये लेकिन वो इस प्रयोजन में असफल ही रहा। पूर्वांचल के अनेको नाज़िमो को राजपूतो को नियंत्रण में रखने में विफल होने के कारण वापिस बुलाना पड़ा।
***बनारस के जमींदार बलवंत सिंह से संघर्ष***
18वीं सदी के मध्य में पूर्वांचल का क्षेत्र एक भूमिहार जमींदार बलवंत सिंह के अधीन आ गया। भूमिहार पूर्वी उत्तर प्रदेश और बिहार की ताकतवर जाती है जो अपने को ब्राह्मणों से निकला बताते है। बलवंत सिंह का पिता मनसा राम बनारस के नाज़िम रुस्तम अली खान की सेवा में आकर सम्पन्न हो गया और कस्वर का जमींदार बना दिया गया। रुस्तम अली खान के बाद अवध के नवाब ने मनसा राम को बनारस का नाज़िम बना दिया और साथ ही मनसा राम ने अपने पुत्र बलवंत सिंह के लिये पूर्वांचल के जिलो की जमींदारी मंजूर करा ली। मनसा राम के बाद बलवंत सिंह ने कस्वा के राजा की उपाधि धारण की और बनारस का नाज़िम बना। जब बनारस क्षेत्र अवध के नवाब को अंग्रेज़ो को देना पड़ा तो राजा बलवंत सिंह अंग्रेज़ो के अधीन शाशन करने लगा।
पूर्वांचल में बनारस गाजीपुर बलिया आजमगढ़ मऊ सोनभद्र मिर्जापुर और इससे लगता हुआ सारा इलाका राजपूतो का था। काशी के भूमिहार बलवन्त सिंह ने अपनी सत्ता बचाने के लिए इलाके के राजपूत जमीदारो की शक्ति नष्ट करने की नीति अपनाई और अंग्रेज़ सेना की सहायता से जौनपुर के रघुवंशी,पूर्वांचल के गौतम,अगोरी, बिहार के चन्देल आदि राजपूतो पर हमले किये और उनकी शक्ति को काफी आघात पहुंचाया। वो देर रात के समय राजपूत गाँवो पर हमला कर उन्हें नष्ट कर देता था।
क्षेत्र के अधिकांश राजपूत वंश उसकी शक्ति का एकजुट होकर मुकाबला नही कर पा रहे थे। लेकिन हमेशा की तरह बलिया के लखनेसर के सेंगर राजपूतो ने ना केवल डटकर उसका सामना किया बलकि बलवन्त सिंह को उनसे हार माननी पड़ी। लखनेसर के सेंगर ना केवल उसकी राजस्व देने की माँगो को एकदम नकारते थे बल्कि खुलेआम बगावत कर उसके खजाने को लूटने का काम भी करते थे।
इन सबसे बलवंत सिंह ने आग बबूला होकर एक विशाल सेना सेंगरो के खिलाफ झोंक दी और उनकी राजधानी रसड़ा पर आक्रमण कर दिया। सेंगरो ने ब्रह्म हत्या के पाप से बचने को कहते हुए बलवंत सिंह को अपने फैसले पर पुनर्विचार करने को कहा क्योंकि भूमिहार को ब्राह्मण ही माना जाता है, लेकिन बलवंत सिंह नही माना। वो इस बार सेंगरो की ताकत को कुचलने को दृढ़प्रतिज्ञ था और उसने एक के बाद एक कई हमले किये।
मुकाबला बिलकुल असमान था। एक तरफ आधुनिक हथियारों से सज्जित और अंग्रेज़ो द्वारा समर्थित बलवंत सिंह की विशाल सेना थी, वही दूसरी तरफ साधारण हथियारों से लड़ने वाले कुछ हजार सेंगर। इसके बावजूद सेंगर शेरो की तरह लड़े और सभी आक्रमणों को विफल कर दिया। उनका सदियों का स्वतंत्र अस्तित्व खतरे में था और वो किसी भी कीमत पर अपनी स्वतंत्रता की रक्षा करना चाहते थे। उनकी स्त्रियों ने भी वीरतापूर्वक इस संग्राम में भाग लिया और अपने पतियो के साथ हजारो की संख्या में सती हुई। आज भी इन सती होने वाली देवियो के मन्दिर सैकड़ो की संख्या में रसड़ा के श्रीनाथ जी बाबा के धाम के करीब मौजूद है।
ये खूनी संघर्ष 2 दिन तक चला। दो दिन के आमने सामने के संघर्ष में इतनी जबरदस्त चुनौती के मुकाबले में सेंगर राजपूतो का कितना खून बहा होगा, इसका अंदाजा लगाया जा सकता है। इसके बावजूद सेंगरो ने हथियार नही डाले और दृढ़ रहे जिससे बलवंत सिंह को अपनी रणनीति बदलनी पड़ी। जब लड़ाई में राजपूतो को नही हरा पाया तो बलवंत सिंह ने धोखे का सहारा लिया और कायरता से रसड़ा कसबे को आग के हवाले कर दिया। इससे कस्बे के सामान्य और निर्दोष निवासी बड़ी संख्या में मारे गए और सेंगरो को अपने पाँव पीछे खीचने पड़े। लेकिन सेंगर आखरी दम तक मुकाबले का प्रण कर चुके थे क्योंकि ये उनके स्वतंत्र रहने की आकांक्षा और अपनी पुरखो की सैकड़ो साल की परम्परा को बनाए रखने का सवाल था।
आखिरकार बलवंत सिंह को सेंगरो की अदम्य इक्षाशक्ति के सामने घुटने टेकने पड़े और समझौता करने पर विवश होना पड़ा। उसने मामूली शुल्क के बदले लखनेसर परगने में सेंगरो की संप्रभुता स्वीकार कर ली। सेंगरो द्वारा दिया जाने वाला राजस्व पूरे पूर्वांचल क्षेत्र में सबसे कम था। सेंगरो को परगने के आंतरिक मामलो में पूरी छूट दी गई। उनको लगान वसूलने करने के तरीकों और खर्च को खुद तय करने का अधिकार था। लगान वसूलने के लिए अधिकारी नियुक्त करने का अधिकार भी उन्हें हासिल था। यहाँ तक की लखनेसर का अपना अलग तहसीलदार और शराइस्तदार होता था जिसे सेंगर राजपूतों का भाईचारा खुद नियुक्त करता था। यह अपने आप में एक अनूठा प्रयोग था।
***अंग्रेज़ो का शाशनकाल***
सेंगरो ने अपनी आंतरिक स्वतंत्रता को अंग्रेज़ो के शाशन के शुरुआती काल में भी बरकरार रखा। समस्त पूर्वांचल क्षेत्र में लखनेसर के सेंगर राजपूतो को अत्यधिक स्वतंत्रता प्रेमी और बागी राजपूतो के रूप में जाना जाता था। अंग्रेज़ो के शाशन के पूर्व उन्होंने अपने लिये जो सबसे साहसी, स्वतंत्रता और उन्मुक्त जीवन पसन्द की ख्याति अर्जित की थी उसका लाभ उन्हें अंग्रेजी शाशन में मिला इसीलिये उस वक्त तय किया गया लखनेसर परगने की राजस्व की दर भारत की आज़ादी तक बरकरार रही, जो की एक अभूतपूर्व उपलब्धि थी।
हालांकि अंग्रेज़ो ने कई बार लखनेसर के आंतरिक मामलो में दखल देने की कोशिश की लेकिन हर बार राजपूतों के साहसिक विरोध को देखते हुए उन्हें अपने कदम वापिस खीचने पड़े।
एक बार अंग्रेज़ो ने रसड़ा के व्यापारियों पर सेंगरो द्वारा लगाए हुए कर को हटाने की कोशिश करी जिसके खिलाफ सेंगरो ने जंग की तैयारी कर ली। खुद व्यापारियों ने बीच बचाव कर के समझौता कराया और कर का समर्थन किया। इससे पता चलता है कि सेंगर भाईचारे का राज क्षेत्र के निवासियो में कितना लोकप्रिय था।
लेकिन बाद में एक समय लखनेसर की राजस्व मांग अंग्रेज़ो ने दोगुना कर दी और बलवंत सिंह के पोते को वहा का जमींदार बनाकर राजस्व वसूलने की जिम्मेदारी दे दी लेकिन अपने दादा की तरह वह भी सेंगरो के सामने विफल रहा। इसलिये अंग्रेज़ो को लखनेसर परगना पुरानी राजस्व दर से कुछ कम पर ही सेंगरो को वापिस करना पड़ा।
सेंगर अपने राज्य की सीमा में अंग्रेज़ अधिकारियों या किसी और बाहरी ताकत का घुसना भी पसन्द नही करते थे। कई बार अधिकारियों के सिर्फ भ्रमण के लिये आने पर विवाद हो जाता था और राजपूत उस अधिकारी को पकड़ लेते थे लेकिन अंग्रेज़ समझौता करके विवाद से पीछा छुड़ाने में ही भलाई समझते थे।
लेकिन धीरे धीरे लखनेसर गणराज्य आर्थिक कठिनाइयों की वजह से धीरे धीरे कमजोर होने लगा और आखिरकार 1841 में लखनेसर को मिला हुआ अलग राजस्व तंत्र का अधिकार खत्म कर दिया गया और कंपनी के राजस्व तंत्र को लखनेसर में लागू कर दिया गया। इस तरह 500 साल के गणतंत्र की समाप्ति हुई और सेंगर सिर्फ जमींदार बन कर रह गए। हालांकि अभी भी सेंगर गणतंत्र वादी थे और उनका भाईचारा बना हुआ था। अभी भी जमीन के मालिकाना हक में और समस्त आय में सभी सेंगरो की हिस्सेदारी होती थी और कोई भी सेंगर राजपूत अकेला किसी जमीन का मालिक नही था।
इस तरह से 5 सदी पुराना गणतंत्र जिसके अस्तित्व के लिए सेंगर राजपूतो ने अप्रतिम बलिदान दिये वो भले ही खत्म हो गया लेकिन सेंगरो का वर्चस्व क्षेत्र में बना रहा और आज भी सेंगरो का शौर्य, बलिदान और स्वतंत्रता प्रेम की कहानियां क्षेत्र के निवासियो के लिये गर्व करने का विषय है और उनको प्रेरणा देने का काम करते है। सेंगर राजपूतो का गणराज्य होना और अद्वितीय भ्रातत्व की भावना और एकता ही उनकी सफलता का सबसे बड़ा कारण था। गणराज्य भले ही खत्म हो गया हो लेकिन उससे लखनेसर के सेंगरो की महानता कम नही होती और उनकी स्वतंत्रता के लिए अदम्य आकांक्षा और इक्षाशक्ति और जबरदस्त एकता की भावना ने कई पीढ़ियों को प्रेरणा देने का काम किया है।
शायद उन्ही के संघर्ष से प्रेरणा लेकर बलिया की जनता ने स्वाधीनता आंदोलन में अंग्रेज़ो की ईट से ईट बजा दी थी। 1942 में अंग्रेज़ो से स्वाधीन होने वाला बलिया देश का अकेला जिला था। इसीलिए बलिया जिले को बागी बलिया भी कहा गया और आज भी उसकी पहचान इसी रूप में है।
पढ़ने के बाद शेयर जरूर करे और कमेंट में अपने विचार अवश्य रखे।
सन्दर्भ-
1. https://www.google.co.in/url…
2. https://books.google.co.in/books…
3. http://en.m.wikipedia.org/wiki/Narayan_dynasty
4. http://en.m.wikipedia.org/wiki/Benares_State
5. http://ballia.nic.in/pages/page3.asp
6. https://www.google.co.in/url…

Thursday, September 24, 2015

राजपूत अनजाने सच, Some Truth about Rajputs

राजपूत भाइयों कुछ अनभिज्ञ, अनजाने सच जरूर पढ़े व् गर्व से शेयर कर देना।
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1) राजपूतो में पहले सिर के बाल बड़े रखे जाते थे जो गर्दन के नीचे तक होते थे युद्ध में जाते समय बालो के बीच में गर्दन वाली जगह पर लोहे की जाली डाली जाती थी और वहा विषेस प्रकार का चिकना प्रदार्थ लगाया जाता था इससे तलवार से गर्दन पर होने वाले वार से बचा जा सके।
2) युद्ध में धोखे का संदेह होने पर घुसवार अपने घोड़ो से उतर कर जमीनी युद्ध करते थे ।
3) मध्य काल में देवी और देव पूजा होती थी जंग में जाने से पूर्व राजपूत अपनी कुलदेवियो की पूजा अर्चना करते थे जो ही शक्ति का प्रतिक है मेवाड़ के सिसोदिया एकलिंग जी की पूजा करते ।
4) हरावल - राजपूतो की सेना में युद्ध का नेतृत्व करने वाली टुकड़ी को हरावल सेना कहा जाता था जो सबसे आगे रहती थी कई बार इस सम्माननीय स्थान को पाने के लिए राजपूत आपस में ही लड़ बैठते थे इस संदर्भ में उन्टाला दुर्ग वाला चुण्डावत शक्तावत किस्सा प्रसिद्ध है ।
5) किसी बड़े जंग में जाते समय या नय प्रदेश की लालसा में जाते समय राजपूत अपने राज्य का ढोल , झंडा ,राजचिन्ह और कुलदेवी की मूर्ति साथ ले जाते थे।
6) शाका - महिलाओं को अपनी आंखों के आगे जौहर की ज्वाला में कूदते देख पुरूष जौहर कि राख का तिलक कर के सफ़ेद कुर्ते पजमे में और केसरिया फेटा ,केसरिया साफा या खाकी साफा और नारियल कमर कसुम्बा पान कर, केशरिया वस्त्र धारण कर दुश्मन सेना पर आत्मघाती हमला कर इस निश्चय के साथ रणक्षेत्र में उतर पड़ते थे कि तो विजयी होकर लोटेंगे अन्यथा विजय की कामना हृदय में लिए अन्तिम दम तक शौर्यपूर्ण युद्ध करते हुए दुश्मन सेना का ज्यादा से ज्यादा नाश करते हुए रणभूमि में चिरनिंद्रा में शयन करेंगे । पुरुषों का यह आत्मघाती कदम शाका के नाम से विख्यात हुआ ।
7) जौहर : युद्ध के बाद अनिष्ट परिणाम और होने वाले अत्याचारों व व्यभिचारों से बचने और अपनी पवित्रता कायम रखने हेतु अपने सतीत्व के रक्षा के लिए राजपूतनिया अपने शादी के जोड़े वाले वस्त्र को पहन कर अपने पति के पाँव छू कर अंतिम विदा लेती है महिलाएं अपने कुल देवी-देवताओं की पूजा कर,तुलसी के साथ गंगाजल का पानकर जलती चिताओं में प्रवेश क अपने सूरमाओं को निर्भय करती थी कि नारी समाज की पवित्रता अब अग्नि के ताप से तपित होकर कुंदन बन गई है और राजपूतनिया जिंदा अपने इज्जत कि खातिर आग में कूद कर आपने सतीत्व कि रक्षा करती थी । पुरूष इससे चिंता मुक्त हो जाते थे कि युद्ध परिणाम का अनिष्ट अब उनके स्वजनों को ग्रसित नही कर सकेगा । महिलाओं का यह आत्मघाती कृत्य जौहर के नाम से विख्यात हुआ। सबसे ज्यादा जौहर और शाके चित्तोड़ के दुर्ग में हुए ।
8) गर्भवती महिला को जौहर नहीं करवाया जाता था अत:उनको किले पर मौजूद अन्य बच्चों के साथ सुरंगों के रास्ते किसी गुप्त स्थान या फिर किसी दूसरे राज्य में भेज दिया जाता था ।राजपुताने में सबसे ज्यादा जौहर मेवाड़ के इतिहास में दर्ज हैं और इतिहास में लगभग सभी जौहर
इस्लामिक आक्रमणों के दौरान ही हुए हैं जिसमें अकबर और ओरंगजेब के दौरान सबसे ज्यादा हुए हैं ।
9) अंतिम जौहर - पुरे विश्व के इतिहास में अंतिम जौहर अठारवी सदी में भरतपुर के जाट सूरजमल ने मुगल सेनापति के साथ मिलकर कोल के घासेड़ा के राजपूत राजा बहादुर सिंह पर हमला किया था। महाराजा बहादुर सिंह ने जबर्दस्त मुकाबला करते हुए मुगल सेनापति को मार गिराया। पर दुश्मन की संख्या अधिक होने पर किले में मौजूद सभी राजपूतानियो ने जोहर कर अग्नि में जलकर प्राण त्याग दिए उसके बाद राजा और उसके परिवारजनों ने शाका किया। इस घटना का जिकर आप "गुड़गांव जिले के गेजिएटर" में पढ़ सकते है।
10) युद्ध में जाते से पूर्व "चारण/गढ़वी" कवि वीररस सुना कर राजपूतो में जोश पैदा करते और अपना कर्तव्य याद दिलाते कुछ युद्ध जो लम्बे चलते वह चारण भी साथ जाते थे चारण गढ़वी और भाट एक प्रकार के दूत होते थे जो राजपूत राजा के दरबार में बिना किसी रोक टोक आ जा सकते थे चाहे वो दुश्मन राजपूत राजा ही क्यों ना हो 11राजपूताने के ज्यादातर किलो में गुप्त रास्ते बने हुए है आजादी के बाद और सन 1971 के बाद सभी गुप्त रस्ते बंद कर दिए गए है।

Thursday, May 7, 2015

रणजीत सिंह जी जाडेजा,RANJIT SINGH JADEJA

Rajputana Soch  राजपूताना सोच और क्षत्रिय इतिहास's photo.टेस्ट क्रिकेट और अंतर्राष्ट्रीय क्रिकेट खेलने वाले प्रथम भारतीय
***महाराजा जाम साहेब रणजीत सिंह जी जाडेजा***
आज हम आपका परिचय उस हस्ती से करवाएंगे जिसे भारतीय क्रिकेट का पितामहः कहलाने का गौरव प्राप्त है और साथ ही भारत के घरेलू क्रिकेट सत्र के सबसे बड़े टूर्नामेंट रणजी ट्रॉफी का नामकरण भी उनके नाम पर किया गया है। गुजरात में नवानगर रियासत के महाराजा रहे जाम साहेब रणजीत सिंह जी जाडेजा पहले भारतीय थे जिन्होंने प्रोफेशनल टेस्ट मैच और अंतर्राष्ट्रीय क्रिकेट खेला। उन्हें अब तक दुनिया के सर्वश्रेष्ठ बल्लेबाजो में से एक माना जाता है। क्रिकेट की दुनिया में कई नए शॉट लाने का श्रेय उन्हें ही दिया जाता है। क्रिकेट की दुनिया में लेग ग्लांस शॉट का आविष्कार और उसे लोकप्रिय बनाने का श्रेय उन्हें ही जाता है। साथ ही बैकफुट पर रहकर अटैक और डिफेन्स, दोनों तरह के शॉट लगाने का कारनामा भी दुनिया के सामने सर्वप्रथम वो ही लेकर आए।
रणजीत सिंह जी का जन्म 10 सितम्बर 1872 को नवानगर राज्य के सदोदर नामक गाँव में जाडेजा राजपूत परिवार में हुआ। उनके पिता का नाम जीवन सिंह जी और दादा का नाम झालम सिंह जी था जो नवानगर के महाराजा जाम साहेब विभाजी जाडेजा के परिवार में से थे। जाम विभाजी की कोई योग्य संतान ना होने की वजह से उन्होंने कुमार रणजीत सिंह जी को गोद ले लिया और अपना उत्तराधिकारी बना दिया। लेकिन बाद में विभाजी के एक संतान होने की वजह से उत्तराधिकार को लेकर विवाद उतपन्न हो गया जिसकी वजह रणजीत सिंह जी को कई साल संघर्ष करना पड़ा।
Rajputana Soch  राजपूताना सोच और क्षत्रिय इतिहास's photo.कुमार श्री रणजीत सिंह जी को राजकोट के राजकुमार कॉलेज में शिक्षा लेने के लिये भेजा गया। वहां स्कूली शिक्षा के साथ उनका क्रिकेट से परिचय हुआ। वो कई साल कॉलेज की क्रिकेट टीम के कप्तान रहे। उनकी पढाई में योग्यता से प्रभावित होकर उन्हें आगे की पढ़ाई के लिये इंग्लैंड की कैम्ब्रिज़ यूनिवर्सिटी में पढ़ने भेजा गया। वहॉ पर रणजीत सिंह जी की रूचि क्रिकेट खेलने में बढ़ने लगी जिसकी वजह से वो शिक्षा पर ध्यान नही दे पाए। उन्होंने पूरी तरह क्रिकेट को अपना कैरियर बनाने का निर्णय लिया। पहले वो कैम्ब्रिज यूनिवर्सिटी की ओर से खेला करते थे। इसके बाद वे ससेक्स से जुड़ गए और लॉर्डस में पहले ही मैच में 77 और 150 रन की पारियां खेली। काउंटी क्रिकेट में बल्ले से धमाल के बाद उन्हें इंग्लैंड की राष्ट्रीय टीम में चुन लिया गया और 1896 में ऑस्ट्रेलिया के खिलाफ रणजीत सिंह ने पहला टेस्ट खेला। इस मैच में उन्होंने 62 और 154 नाबाद की पारी खेली। उल्लेखनीय बात है कि इस टेस्ट की दूसरी पारी में रणजीत सिंह के बाद दूसरा सर्वाधिक स्कोर 19 रन था। बल्ले से उनके इस प्रदर्शन की न केवल इंग्लैण्ड बल्कि ऑस्ट्रेलिया में भी जमकर तारीफें हुई। उन्होंने लगभग चार साल क्रिकेट खेला। इसमें उन्होंने 15 टेस्ट में 44.95 की औसत से 989 रन बनाए। इसमें दो शतक और छह अर्धशतक भी शामिल है। प्रथम श्रेणी क्रिकेट में रणजीत सिंह ने 307 मैच में 72 शतकों और 109 अर्धशतकों की मदद से 56.37 की औसत से 24692 रन बनाए। उनकी बल्लेबाजी औसत 1986 तक भी इंग्लैंड में खेलने वाले किसी बल्लेबाज की सबसे बढ़िया औसत थी।
हालांकि इस दौरान उन्हें नस्लभेद का भी शिकार होना पड़ा। लगातार अच्छा प्रदर्शन करने के बाद भी उन्हें भारतीय होने के कारण राष्ट्रीय टीम में शामिल नही किया जाता था। उस वक्त अन्तर्राष्टीय क्रिकेट सिर्फ इंग्लैंड और ऑस्ट्रेलिया के बीच में खेला जाता था। एक भारतीय को अंग्रेज़ो के साथ क्रिकेट खेलने के लायक नही समझा जाता था। लेकिन रणजीत सिंह जी अपने अच्छे खेल की वजह से दर्शको में इतने लोकप्रिय हो गए थे की अंग्रेज खेल प्रशासक उन्हें ज्यादा दिन अनदेखा नही कर सके।
नवानगर में घरेलू जिम्मदारियों और उत्तराधिकार में विवाद के चलते उन्हें भारत लौटना पड़ा। इसके कारण उनका क्रिकेट कॅरियर प्रभावित हुआ और लगभग खत्म सा हो गया। उन्होंने अंतिम बार 1920 में 48 साल की उम्र में क्रिकेट खेला। लेकिन बढ़े हुए वजन और एक आंख में चोट के चलते वे केवल 39 रन बना सके। निशानेबाजी के दौरान उनकी एक आंख की रोशनी चली गई थी।
रणजीत सिंह जी को अब तक के विश्व के सर्वकालिक महान बल्लेबाज में से एक माना जाता है। विस्डन पत्रिका ने भी उन्हें 5 सर्वश्रेष्ठ क्रिकेट खिलाड़ियो में जगह दी थी। नेविल्ले कार्डस ने उन्हें "midsummer night's dream of cricket" कहा है। उन्होंने यह भी कहा है कि जब रणजीत सिंह खेलने के लिये आए तो जैसे पूर्व दिशा से किसी अनजाने प्रकाश ने इंग्लैंड के आकाश को चमत्कृत कर दिया। अंग्रेजी क्रिकेट में वो एक नई शैली लेकर आए। उन्होंने बिलकुल अपरंपरागत बैटिंग तकनीक और तेज रिएक्शन से एक बिलकुल नई बल्लेबाजी शैली विकसित कर के क्रिकेट में क्रांति ला दी। पहले बल्लेबाज फ्रंट फुट पर ही खेलते थे, उन्होंने बैकफुट पर रहकर सब तरह के शॉट लगाने का कारनामा सबसे पहली बार कर के दिखाया। उनको अब तक क्रिकेट खेलने वाले सबसे मौलिक stylist में से एक के रूप में जाना जाता है। उनके समय के क्रिकेटर CB Fry ने उनकी विशिष्टता के लिये उनके जबरदस्त संतुलन और तेजी जो एक राजपूत की खासियत है को श्रेय दिया है।
टेस्ट क्रिकेट के इतिहास में एक ही दिन में दो शतक मारने का उनका 118 साल पुराना रिकॉर्ड अब तक कोई नही तोड़ पाया है।
शुरुआत के नस्लवाद के बावजूद रणजीत सिंह जी इंग्लैंड और ऑस्ट्रेलिया के दर्शको में अत्यधिक लोकप्रिय क्रिकेटर बन गए थे।
1933 में उनका जामनगर में देहांत हो गया। उनके बारे में सर नेविले कार्डस ने ही लिखा कि,"जब रणजी ने क्रिकेट को अलविदा कहा तो खेल से यश और चमत्कार हमेशा के लिए चला गया।"
क्रिकेट में उनके योगदान को देखते हुए पटियाला के महाराजा भूपिन्दर सिंह ने उनके नाम पर 1935 रणजी ट्रॉफी की शुरूआत की। जो बाद में भारतीय क्रिकेट की सबसे बड़ी प्रतियोगिता बन गई। उनके भतीजे कुमार श्री दलीपसिंहजी ने भी इंग्लैण्ड की ओर से क्रिकेट खेला। उनके नाम पर दलीप ट्रॉफी की शुरूआत हुई।
नवानगर के शाशक के रूप में भी उनको राज्य का विकास करने, पहली बार रेल लाइन बिछाने, सड़के बनवाने, आधुनिक सुविधाओ वाला एक बंदरगाह बनवाने और राजधानी को विकसित करवाने का श्रेय दिया जाता है।

भूतालाघाटी--हल्‍दीघाटी से भी बड़ी जंग

Rajputana Soch  राजपूताना सोच और क्षत्रिय इतिहास's photo.भूतालाघाटी : जहां लड़ी गई हल्‍दीघाटी से भी बड़ी जंग
हल्‍दीघाटी की लड़ाई से भी बड़ी जंग भूतालाघाटी की थी और इस्‍लामी सल्‍तनत के खिलाफ यह मेवाड़ का पहला संघर्ष था। इसके चर्चे लम्‍बे समय तक बने रहे। यहां तक कि 1273 ईस्‍वी के चीरवा शिलालेख में भी इस जंग की चर्चा है। 'भूतालाघाटी की लड़ाई' की ख्‍याति के कारण ही 'खमनोर की लड़ाई' भी हल्‍दीघाटी की लड़ाई के नाम पर जानी गई।
गुलाम वंश के संस्‍थापक कुतुबुद्दीन एबक के उत्‍तराधिकारी अत्‍तमिश या इल्‍तुतमिश (1210-1236 ईस्‍वी) ने दिल्‍ली की गद्दी संभालने के साथ ही राजस्‍थान के जिन प्रासादाें के साथ जुड़े विद्या केंद्रों को नेस्‍तनाबूत कर अढाई दिन के झोंपड़े की तरह आनन फानन में नवीन रचनाएं करवाई, उसी क्रम में मेवाड़ पर यह आक्रमण भी था। तब मेवाड़ का नागदा नगर बहुत ख्‍याति लिए था और यहां के शासक जैत्रसिंह के पराक्रम के चर्चे मालवा, गुजरात, मारवाड़, जांगल आदि तक थे। कहा तो यह भी जाता है कि नागदा में 999 मंदिर थे और यह पहचान देश के अनेक स्‍थलों की रही है। अधिक नहीं तो नौ मंदिर ही किसी नगर में बहुत होते हैं और इतनों के ध्‍वंसावशेष तो आज भी मौजूद हैं ही। ये मंदिर पहाड़ी और मैदानी दोनों ही क्षेत्रों में बनाए गए और इनमें वैष्‍णव सहित लाकुलिश शैव मत के मंदिर रहे हैं।
जैत्रसिंह के शासन में मेवाड़ की ख्‍याति चांदी के व्‍यापार के लिए हुई। गुजरात के समुद्रवर्ती व्‍यापारियों तक भी यह चर्चा थी किंतु व्‍यापार अरब तक था। इस काल में ज्‍योतिष के खगोल पक्ष के कर्ता मग द्विजों का प्रसार नांदेशमा तक था। कहने को तो वे सूर्य मंदिर बनाते थे मगर वे मंदिर वास्‍तव में वर्ष फल के अध्‍ययन व वाचन के केंद्र थे।
अल्‍तमिश की आंख में जैत्रसिंह कांटे की तरह चुभ रहा था क्‍योंकि वह मेवाड़ के व्‍यापार पर अपना कब्‍जा करना चाहता था। जैत्रसिंह ने उसके हरेक प्रस्‍ताव को ठुक करा दिया। इस पर अल्‍तमिश ने अजमेर के साथ ही मेवाड़ को अपना निशाना बनाया। चौहानों की रही सही ताकत को भी पद दलित कर दिया और गुहिलों के अब तक के सबसे ताकतवर शासक काे कैद करने की रणनीति अपनाई। यह योजना पृथ्‍वीराज चौहान के खिलाफ मोहम्‍मद गौरी की नीति से कोई अलग नहीं थी। उसने तत्‍कालीन मियांला, केलवा और देवकुल पाटन के रास्‍ते नांदेशमा के नव उद्यापित सूर्य मंदिर को तोड़ा, रास्‍ते के एक जैन मंदिर को भी धराशायी किया। नांदेशमा का सूर्यायतन मेवाड़ में टूटने वाला पहला मंदिर था। (चित्र में उसके अवशेश है,,, यह चित्र मित्रवर श्रीमहेश शर्मा का उपहार है।)
तूफान की तरह बढ़ती सल्‍तनत सेना को जैत्रसिंह ने मुंहतोड़ जवाब देने का प्रयास किया। तलारक्ष योगराज के ज्‍येष्‍ठ पुत्र पमराज टांटेर के नेतृत्‍व में एक बड़ी सेना ने हरावल की हैसियत से भूताला के घाटे में युद्ध किया। हालांकि वह बहुत वीरता से लड़ा मगर खेत रहा। उसने जैत्रसिंह पर आंच नहीं आने दी। गुहिलों ही नहीं, चौहान, चदाणा, सोलंकी, परमार आदि वीरवरों से लेकर चारणों और आदिवासी वीरों ने भी इस सेना का जोरदार ढंग से मुकाबला किया। गोगुंदा की ओर से नागदा पहुंचने वाली घाटी में यह घमासान हुआ। लहराती शमशीरों की लपलपाती जबानों ने एक दूसरे के खून का स्‍वाद चखा और जो धरती बचपन से ही सराहा होकर मां कहलाती है, उसने जवान ख्‍ाून को अपने सीने पर बहते हुए झेला।
इसमें जैत्रसिह को एक शिकंजे के तहत घेर लिया गया किंतु उसको योद्धाओं ने महफूज रखा और पास ही नागदा के एक साधारण से घर में छिपा दिया। अल्‍तमिश का गुस्‍सा शांत नहीं हुआ। उसने आगे बढ़कर नागदा को घेर लिया। एक-एक घर की तलाशी ली गई। हर घर सूनसान था। उसने एक एक घर फूंकने का आहवान किया। यही नहीं, नागदा के सुंदरतम एक एक मंदिर को बुरी तरह तोड़ा गया। हर सैनिक ने अपनी खीज का बदला एक एक बुत से लिया। सभी को इस तरह तोड़ा-फोड़ा क‍ि बाद में जोड़ा न जा सके...। तभी तो यहां कहावत रही है- 'अल्‍त्‍या रे मस मूरताऊं बाथ्‍यां आवै, जैत नीं पावै तो नागदो हलगावै।' इस पंक्ति मात्र चिरस्‍थायी श्रुति ने भूतालाघाटी के पूरे युद्ध का विवरण अपने अंक में समा रखा है।
इस घमासान में किस-किस हुतात्‍मा के लिए तर्पण किया जाता। जब पूरा ही नगर जल गया था। घर-घर मरघट था। चौदहवीं सदी में इस नगर को एक परंपरा के तरह जलमग्‍न करके सभी हुतात्‍माओं के स्‍थानों को स्‍थायी रूप से जलांजलि देने के लिए बाघेला तालाब बनवाया गया..।
(इस युद्ध की स्‍मृतियां तक नहीं बची हैं, इतिहास में एकाध पंक्तिभर मिलती है, मगर यह बहुत खास तरह का संघर्ष था। भूताला के पास ही एक गांव में पांच साल तक सेवारत रहने के दौरान मेरा ध्‍यान इस युद्ध की ओर गया था और करीब बीस साल तक अध्‍ययन- शोधन के बाद, पहली बार इस युद्ध का विवरण का कुछ अंश लिखने का प्रयास किया है... मित्राें को संभवत: रुचिकर लगेगा...)
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* चीरवा अभिलेख - वियाना ऑरियंटल जर्नल, जिल्‍द 21
* इंडियन एेटीक्‍वेरी, जिल्‍द 27
* नांदेशमा अभिलेख - राजस्‍थान के प्राचीन अभिलेख (श्रीकृष्‍ण 'जुगनू')
पोस्ट साभार-- श्रीकृष्ण 'जुगनू' जी

लेफ्टिनेंट जनरल हणुतसिंह राठौड़

Rajputana Soch  राजपूताना सोच और क्षत्रिय इतिहास's photo.सैनिक संत के नाम से प्रसिद्ध महावीर चक्र विजेता सेवानिवृत्त लेफ्टिनेंट जनरल हणुतसिंह राठौड़ (जसोल) जी


सन् 1971 के भारत पाकिस्तान युद्ध में महावीर चक्र विजेता जिन्हाेने अद्वितीय रणनीती से पाकिस्तान के 48 से अधिक टेंकाे काे नेस्तानाबूद कर दिया था।इस युद्ध के कारण ही भारतीय सेना लाहौर को घेरने में सफल हुई थी जिससे 1971 की लड़ाई में भारत पाकिस्तान के शकरगढ़ क्षेत्र में विजयी हुआ था।
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जीवन परिचय-----
हणूत सिंह राठौड़ जसोल रावल मल्लिनाथ के वंशज थे,उनका वंश राठौड़ो के वरिष्ठ शाखा महेचा राठौड़ है,उनके पिता lt .col अर्जुन सिंह जी थे,इनका जन्म 6 जुलाई 1933 को राजस्थान के बाड़मेर की जसोल रियासत में हुआ था। स्कूली शिक्षा दून के कर्नल ब्राउन स्कूल से हुई थी।
इन्हे 28 दिसंबर 1952 को भारतीय सेना में कमीशन प्राप्त हुआ। आज़ाद भारत के 12 महानतम जनरलाें में शामिल थे। और भारतीय फाैज में जनरल हनुत के नाम से famous जनरल साब अभी देहरादून में रह रहे थे।वे पूर्व केन्द्रीय मंत्री जसवंतसिंहजी के सगे चचेरे भाई थे।
Rajputana Soch  राजपूताना सोच और क्षत्रिय इतिहास's photo. सन् 1971 के भारत पाकिस्तान युद्ध में इन्हे असाधारण वीरता के लिए महावीर चक्र प्रदान किया गया था,वे FLAG HISTORY OF ARMOURED CORP के अधिकृत लेखक थे.
इन्हे परम विशिस्ट सेवा मेडल PVSM भी दिया गया था,
31 जुलाई 1991 में वे रिटायर हो गए।
1991 में सेना से रिटायर होने के बाद जनरल हणुत सिंह दून में रह रहे थे। पिछले कई साल से वह मौन साधना में थे। वह आजीवन ब्रह्मचारी थे।
ये जीवन भर अविवाहित रहे और सती माता रूपकंवर बाला गांव के परम भक्तों में थे, इन्हें सेना और सामाजिक जीवन में ‘संत जनरल’ के नाम से जाना जाता था। इनके देश और विदेश में हजारों अनुयायी हैं।जनरल हनुतसिंह आध्यात्मिक साधना में लीन रहते थे।
Rajputana Soch  राजपूताना सोच और क्षत्रिय इतिहास's photo. स्व. हणुतसिंह जी (लेफ्टि. जनरल) का तेजस्वता से युक्त व्यक्तित्व हमारे लिए प्रेरणादायक है। इन्होने क्षत्रिय समाज को पुरुषार्थी जीवन जीकर दिखलाया है। इनके कर्तव्य कर्मों के चर्चे सेना में चर्चित है।
प्रधानमन्त्री इंदिरा गांधी को इनके घर जाकर इनसे मिलने की प्रतीक्षा करनी पड़ी थी------
जब इंदिरा जी उनके निवास पर बिना पूर्व कार्यकृम के मिलने आई तो हनूतसिंह जी ईश्वर की साधना में लीन थे।
जिस पर इंदिरा गांधी खिन्न हो गई। तब उन्होंने उस समय के तत्कालीन आर्मी चीफ को शिकायत की, जिस पर आर्मी चीफ ने इंदिरा गांधी की उपस्थिति में स्व. हणुतसिंह जी (लेफ्टि. जनरल) जी को बुलाया और प्रधानमन्त्री इंदिरा गांधी को कहा कि मैं इनसे कुछ कह नहीं सकता हूँ,अब आप अपनी नाराजगी की जानकारी स्वयं ही इनसे कर लें।
जवाब में स्व. हणुतसिंह जी (लेफ्टि. जनरल) जी ने इंदिरा गांधी से कहा कि"आप मेरे घर मिलने आई। तब आपने मुझसे पहले कोई अनुमति नहीं ली और फिर आप कुछ देर प्रतीक्षा भी नहीं कर सकी। यहां आपका कार्यालय है, वहां मेरा घर है और मेरे घर में मेरा अनुशासन चलता है।
अब आप पूछ सकते है कि आपको क्या जानकारी चाहिए""
स्व. हणुतसिंह (लेफ्टि. जनरल) जी का व्यक्तित्व इतना प्रभावी था कि इस पर इंदिरा गांधी शांत हो गई।
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1971 का भारत पाकिस्तान युद्ध-------
लेफिनेंट कर्नल(तत्कालीन) हणूत सिंह राठौड़ ने इस युद्ध में 47 इन्फेंट्री ब्रिगेड/17 पूना होर्स रेजिमेंट को कमांड किया था,इस युद्ध में जिन क्षेत्रों में सबसे घमासान युद्ध हुआ था उनमे शकरगढ़ भी एक था.
लेफिनेंट कर्नल(तत्कालीन) हणूत सिंह की 47 इन्फेंट्री ब्रिगेड/17 पूना होर्स रेजिमेंट को शकरगढ़ सेक्टर में बसन्तरा नदी के पास तैनात किया गया था, उन्होंने भारतीय सेना की 17 पूना हार्स रेजिमेंट को कमांड किया, जो एकमात्र ऐसी रेजीमेंट है जिसे दो परमवीर चक्र मिले। इस युद्ध में भारतीय सेना ने जनरल हणुत सिंह के नेतृत्व में पाकिस्तान के 8 आर्म्ड ब्रिगेड को पूरी तरह से तबाह किया था।पाकिस्तान ने इस नदी में बहुत सी लैंड माइंस लगा रखी थी,
16 दिसंबर 1971 के दिन हणूत सिंह की कमांड में सेना ने नदी को सफलता पूर्वक पार किया,पाकिस्तान ने दो दिन लगातार टैंको से हमले किये,
लेफिनेंट कर्नल(तत्कालीन) हणूत सिंह ने अपनी सुरक्षा की परवाह किये बिना एक खतरनाक सेक्टर से दूसरे खतरनाक सेक्टर में जाकर सेना का नेतृत्व और मार्गदर्शन किया।
इस युद्ध में इनके नेतृत्व में भारतीय सेना ने पाकिस्तान के 48 टैंक ध्वस्त कर दिए,और पाकिस्तान का आक्रमण विफल कर दिया।
उनके नेतृत्व में ही इसी युद्ध में उनकी यूनिट के असीम खेत्रपाल को सबसे कम आयु में परमवीर चक्र मिला था.
पाकिस्तान ने भी माना लोहा-------------------
बसंतारा युद्ध में पाकिस्तानी सेना ने भी उनका लोहा माना। इस बहादुरी के लिए दुश्मन सेना पाकिस्तान ने भी 17 पूना हार्स रेजीमेंट को ‘फक्र ए हिंद’ की उपाधि से नवाजा था। जनरल हणुत सिंह असाधारण प्रतिभा के धनी थे।
ईश्वर भक्ति इतनी थी कि कहते हैँ हनुतसिंह जी युद्ध क्षेत्र में भी कई घण्टो तक साधना में बैठे रहते थे।
बसन्तरा नदी के चारो और पाकिस्तान ने लैंड माइंस बिछा रखे थे,जिनकी चपेट में आकर सैंकड़ो भारतीय सैनिको की जान जा सकती थी और इस नदी पर पुल बनाया जाना असम्भव लग रहा था।पर लाहौर पर घेरा डालने को इस नदी को पार करना बेहद जरूरी था।
कमांडर हणुतसिंह ने जान की परवाह न करते हुए आगे आगे चलकर भारतीय सैनिक टुकड़ी को अपने पीछे रखते हुए भूमिगत लैंडमाइंस बचाते हुए आगे ले गए थे।
युद्ध के बाद पाकिस्तान ने अपने लिखित कागजातों के माध्यम से यह जानना चाहा कि "वह कमाण्डर कौन था और इतनी बिछाई हुई लैंड माइंस के बीच से बिना विस्फोट हुए उस मार्ग से आगे कैसे बढ़ गया!!!!!!!!~????
भारत-पाकिस्तान की सेनाओं के कागजातों में यह सभी संवाद उल्लेख है।
उन्होंने आश्चर्यजनक वीरता, नेतृत्व और कर्तव्यपरायणता का परिचय दिया और इस विजय के फलस्वरूप हणूत सिंह को महावीर चक्र से सम्मानित किया गया.……
प्रोन्नति में सरकार द्वारा भेदभाव-----
बेदाग सर्विस रिकॉर्ड और हर प्रकार से योग्य,सर्वाधिक वरिष्ठ अधिकारी होते हुए भी इन्हें थलसेनाध्यक्ष पद पर प्रोन्नति नही दी गई।
"After General Sundharji, when General V.N. Sharma, who was also from the Armoured Corps, was appointed as COAS, Hanut was in all likelihood of being appointed as Army Commander but was sidelined. Having a faultless service record, there was no reason for Hanut not being considered suitable for command of a field army, though was not appointed. When Hanut was informed of his having been passed over by a junior, who conveyed his sorrow, his reply was "Why should you be sorry. It is the Army which should be sorry. If they don't want me, the loss is theirs".
हनूतसिंह को जानबूझकर आर्मी चीफ नही बनाया गया था।
इसी तरह सगत सिंह राठौड़ और ठाकुर नाथू सिंह के साथ अन्याय किया गया था।
वही सब बाद में जनरल वी के सिंह के साथ दोहराने का प्रयास किया गया।
(इतने वीरतापूर्ण कार्यो और वरिष्ठ होने के बावजूद अज्ञात कारणों से सेना में कई बार राजपूत आर्मी ऑफिसर को थल सेनाध्यक्ष नही बनाया गया)
पूर्व सेनाध्यक्ष जनरल वी के सिंह ने अपनी पुस्तक LEADERSHIP IN THE INDIAN ARMY
में हणूत सिंह जी के बारे में लिखा है कि.……
"Hanut will be remembered as one of the finest armour commanders of the indian army.His simplicity,courage,boldness,high sense of moral values and professionalism will always be a source of inspiration for generations of officers to come"
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दिनांक 11 अप्रैल को वीर सेनानायक लेफ्टिनेंट जनरल हणूत सिंह राठौड़(जसोल) जी का देहरादून के एक आश्रम में निधन हो गया,
कुर्सी पर ली समाधि-------
आश्रम में मौजूद अनुयायी बताते हैं कि "शुक्रवार सुबह वह ध्यान में बैठे और इसके बाद वह आंखें खोलकर उसी कुर्सी पर बैठे हैं। पिछले 24 घंटे में सिर्फ उनकी गर्दन झुकी है। जबकि सांस और नब्ज शनिवार सुबह से नहीं चल रही है"।
हणुतसिंह जी वैभवशाली राजसी खानदान से थे,आजीवन अविवाहित रहे,सेवानिवृति के बाद पूरी तरह ईश्वर साधना में लीन हो गए।
इस युग में ऐसे चरित्र!!!!!!!!!
विश्वास नही होता।
उन्हें सच्चे अर्थों को आधुनिक विश्वामित्र कहा जा सकता है।
स्वरगीय हणुतसिंह राठौड़ जी को कोटि कोटि नमन।
जय हिन्द,जय राजपूताना,जय क्षात्र धर्म
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सोर्स-----
1 -श्री राजेन्द्र सिंह जी राठौड़ बीदासर कृत राजपूतो की गौरव गाथा पृष्ठ संख्या 313 -316
2-जनरल वी के सिंह कृत "LEADERSHIP IN THE INDIAN ARMY"-sage publications new delhi.
3-ऐरावत सिंह जी http://veekay-militaryhistory.blogspot.in/…/biography-lieut…
4- http://bmrnewstrack.blogspot.in/2015/04/blog-post_239.html…
5- Maj Gen Raj Mehta. "A VISIONARY CAVALIER : Lt Gen Hanut Singh, PVSM, MVC". South Asia Defence & Strategic Review. Aakash Media. Retrieved 31 March 2014.
6- Singh, Lt. Gen. H. (1993). Fakhr-E-Hind: The Story of the Poona Horse. Agrim Publishers.
7- http://en.m.wikipedia.org/wiki/Hanut_Singh_Rathore




‎Rajput महाराव शेखा जी

Pundir/पुंडीर, क्षत्रिय राजपूत's photo.राव शेखा का जन्म आसोज सुदी विजयादशमी सं १४९० वि. में बरवाडा व नाण के स्वामी मोकल सिंहजी कछवाहा की रान...ी निरबाण जी के गर्भ से हुआ १२ वर्ष की छोटी आयु में इनके पिता का स्वर्गवास होने के उपरांत राव शेखा वि. सं. १५०२ में बरवाडा व नाण के २४ गावों की जागीर के उतराधिकारी हुए |
आमेर नरेश इनके पाटवी राजा थे राव शेखा अपनी युवावस्था में ही आस पास के पड़ोसी राज्यों पर आक्रमण कर अपनी सीमा विस्तार करने में लग गए और अपने पैत्रिक राज्य आमेर के बराबर ३६० गावों पर अधिकार कर एक नए स्वतंत्र कछवाह राज्य की स्थापना की |
अपनी स्वतंत्रता के लिए राव शेखा जी को आमेर नरेश रजा चंद्रसेन जी से जो शेखा जी से अधिक शक्तिशाली थे छः लड़ाईयां लड़नी पड़ी और अंत में विजय शेखाजी की ही हुई,अन्तिम लड़ाई मै समझोता कर आमेर नरेश चंद्रसेन ने राव शेखा को स्वतंत्र शासक मान ही लिया | राव शेखा ने अमरसर नगर बसाया , शिखरगढ़ , नाण का किला,अमरगढ़,जगन्नाथ जी का मन्दिर आदि का निर्माण कराया जो आज भी उस वीर पुरूष की याद दिलाते है |
राव शेखा जहाँ वीर,साहसी व पराक्रमी थे वहीं वे धार्मिक सहिष्णुता के पुजारी थे उन्होंने १२०० पन्नी पठानों को आजीविका के लिए जागिरें व अपनी सेना मै भरती करके हिन्दूस्थान में सर्वप्रथम धर्मनिरपेक्षता का परिचय दिया | उनके राज्य में सूअर का शिकार व खाने पर पाबंदी थी तो वहीं पठानों के लिए गाय,मोर आदि मारने व खाने के लिए पाबन्दी थी |
राव शेखा दुष्टों व उदंडों के तो काल थे एक स्त्री की मान रक्षा के लिए अपने निकट सम्बन्धी गौड़ वाटी के गौड़ क्षत्रियों से उन्होंने ग्यारह लड़ाइयाँ लड़ी और पांच वर्ष के खुनी संघर्ष के बाद युद्ध भूमि में विजय के साथ ही एक वीर क्षत्रिय की भांति प्राण त्याग दिए |
राव शेखा की मृत्यु रलावता गाँव के दक्षिण में कुछ दूर पहाडी की तलहटी में अक्षय तृतीया वि.स.१५४५ में हुई जहाँ उनके स्मारक के रूप में एक छतरी बनी हुई है | जो आज भी उस महान वीर की गौरव गाथा स्मरण कराती है | राव शेखा अपने समय के प्रसिद्ध वीर.साहसी योद्धा व कुशल राजनिग्य शासक थे,युवा होने के पश्चात उनका सारा जीवन लड़ाइयाँ लड़ने में बीता |
और अंत भी युद्ध के मैदान में ही एक सच्चे वीर की भांति हुआ,अपने वंशजों के लिए विरासत में वे एक शक्तिशाली राजपूत-पठान सेना व विस्तृत स्वतंत्र राज्य छोड़ गए जिससे प्रेरणा व शक्ति ग्रहण करके उनके वीर वंशजों ने नए राज्यों की स्थापना की विजय परम्परा को अठारवीं शताब्दी तक जारी रखा,राव शेख ने अपना राज्य हाँसी दादरी,भिवानी तक बढ़ा दिया था | उनके नाम पर उनके वंशज शेखावत कहलाने लगे और शेखावातो द्वारा शासित भू-भाग शेखावाटी के नाम से प्रसिद्ध हुआ,इस प्रकार सूर्यवंशी कछवाहा क्षत्रियों में एक नई शाखा "शेखावत वंश"का आविर्भाव हुआ | राव शेखा जी की मृत्यु के बाद उनके सबसे छोटे पुत्र राव रायमल जी अमरसर की राजगद्दी पर बैठे जो पिता की भाँती ही वीर योद्धा व निपूण शासक थे |


साध्वी प्रज्ञा सिंह ठाकुर

===साध्वी प्रज्ञा सिंह ठाकुर को न्याय कब मिलेगा====
 साध्वी प्रज्ञा सिंह ठाकुर को बिना सबूतों के हिन्दू आतंकवादी होने के आरोप में 7 वर्ष से जेल में यातनाए दी जा रही हैं।
 -------------------- परिचय-------------
प्रज्ञा सिंह ठाकुर का जन्म मध्य प्रदेश के कछवाहाघर इलाके में ठाकुर चन्द्रपाल सिंह के घर हुआ था,ये राजावत(कुशवाहा,कछवाहा)राजपूत परिवार में जन्मी थी,इनकी आयु लगभग 38 वर्ष है,बाद में इनके अभिभावक सूरत गुजरात आकर बस गये.
आध्यात्मिक जगत की और लगातार आकर्षित होने के कारण इन्होने भौतिक जगत को अलविदा करने का निश्चय कर लिया और दिनांक 30-01-2007 को संन्यासिन हो गयी.सन्यास ग्रहण करने के बाद साध्वी प्रज्ञा ने हिंदुत्व और राष्ट्रवाद की अलख जगानी शुरू कर दी और अपनी ओजस्वी वाणी से शीघ्र ही इनका नाम सारे देश में फ़ैल गया,उस समय कांग्रेस की अध्यक्ष सोनिया गांधी जिनके इशारे पर पूरी केंद्र सरकार घूमती थी और उनके नेतृत्व की यूपीए सरकार लगातार इस्लामिक आतंकवादियों के प्रति नरम रुख अपनाए हुए थी जिसकी साध्वी प्रज्ञा ने जमकर आलोचना की...... शीघ्र ही ये आलोचना मैडम सोनिया तक पहुँच गयी और तभी से साध्वी को सबक सिखाने की रणनीति बनाई जाने लगी.……साध्वी प्रज्ञा को झूठा फसाया गया-------
साध्वी प्रज्ञा सिंह ठाकुर को मालेगांव बम विस्फोट मामले में सरकार ने तब गिरफ्तार किया था जब सरकार ने नीति के आधार पर यह निर्णय कर लिया था कि आतंकवादी गतिविधियों में कुछ हिन्दुओं की संलिप्तता दिखाना भी जरुरी है।उस बम ब्लास्ट मे उनकी मोटर साईकल वहां पाई गई थी जबकी वो मोटर साईकिल बहुत पहले ही साध्वी जी द्वारा बेची जा चुकी थी और उसकी आर सी तक उस आदमी के नाम ट्रांसफर करवा चुकी थी
अभी तक आतंकवादी गतिविधियों में जितने लोग पकड़े जा रहे थे वे सब मुस्लिम ही थे। सोनिया कांग्रेस की सरकार को उस वक्त लगता था कि यदि आतंकवादी गतिविधियों से किसी तरह कुछ हिन्दुओं को भी पकड़ लिया जाये तो सरकार मुसलमानों के तुष्टीकरण के माध्यम से उनके वोट बैंक का लाभ उठा सकती है। इस नीति के पीछे ऐसा माना जाता है कि मोटे तौर पर दिग्विजय सिंह का दिमाग काम करता था।
विद्यार्थी परिषद से प्रज्ञा ठाकुर के संबंधों को भगवा बताने में दिग्विजय सिंह जैसे लोगों को कितनी देर लगती। अब प्रश्न केवल इतना ही था कि प्रज्ञा ठाकुर को किस अपराध के अन्तर्गत गिरफ्तार किया जाये?
2006 और 2008 में महाराष्ट्र के मालेगांव में बम विस्फोट हुए थे। उनमें शामिल लोग गिरफ्तार भी हो चुके थे। लेकिन जांच एजेंसियों को तो अब सरकार द्वारा कल्पित भगवा आतंकवाद के सिध्दांत को स्थापित करना था, इसलिये कुछ अति उत्साही पुलिस वालों ने प्रज्ञा ठाकुर को भी मालेगांव के बम विस्फोट में ही लपेट दिया और अक्तूबर 2008 में उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया। प्रज्ञा को सामान्य कानूनी सहायता भी न मिल सके इसके लिये उस पर मकोका अधिनियम की विभिन्न धाराएं आरोपित कर दी गई।इस नीच काम में महाराष्ट्र के शरद पवार जैसे नेताओं ने भी अपने विश्वस्त पुलिस अधिकारीयों के माध्यम से सोनिया का भरपूर साथ दिया …

शारीरिक व मानसिक यातनाएं------------
जेल में साध्वी को शारीरिक व मानसिक यातनाएं दी गई। उनकी केवल पिटाई ही नहीं कि गई बल्कि उन पर फब्तियां कसी गई। उन्हें जबरन अंडा और मांसाहारी भोजन खिलाया गया और पीट पीट कर पोर्न फिल्मे देखने को विवश किया गया,बेहोशी की हालत में इनके कपड़े तक बदले गए,जब साध्वी जी की माता बिमार हुई तो उनको साध्वी जी से मिलने तक नही दिया इन सत्ता धारीयो ने क्यो? क्या संविधान मे ये लिखा हुआ है कि जेल मे रहने वालो को उनकी मरणासन माता पिता से नही मिलने दिए जाना चाहिए?
डराने धमकाने का जो सिलसिला चला, उसको तो भला क्या कहा जाये?
इन अत्याचारों से जेल में ही साध्वी प्रज्ञा ठाकुर को कैंसर के रोग ने घेर लिया। प्रज्ञा ठाकुर ने जमानत के लिये एक बार फिर आवेदन दिया। वे बाहर अपना कैंसर का इलाज करवाया चाहती थीं। लेकिन सरकार ने इस बार भी उनकी जमानत का जी जान से विरोध किया। उनकी जमानत नहीं हो सकी। इसे ताज्जुब ही कहना होगा कि जिन राजनैतिक दलों ने जाने-माने आतंकवादी मौलाना मदनी को जेल से छुड़ाने के लिये केरल विधानसभा में बाकायदा एक प्रस्ताव पारित कर अपने पंथ निरपेक्ष होने का राजनैतिक लाभ उठाने का घटिया प्रयास किया वही राजनैतिक दल साध्वी प्रज्ञा सिंह ठाकुर को फांसी पर लटका देने के लिये दिल्ली के जंतर-मंतर पर धरना प्रदर्शन करते हैं।यहाँ तक कि एक बार कोर्ट को भी कहना पड़ा कि क्या सरकार साध्वी को जिन्दा भी देखना चाहती है या नहीं???????????
सोनिया कांग्रेस का षडयंत्र--------
लेकिन एक दिक्कत अभी भी बाकी थी। एक ही अपराध और एक ही घटना। उसके लिये पुलिस ने दो अलग-अलग केस तैयार कर लिये। एक साथ ही दो अलग-अलग समूहों को दोषी ठहरा दिया। पुलिस की इस हरकत से विस्फोट में संलिप्तता का आरोप भुगत रहे तथाकथित आतंकवादियों को बचाव का एक ठेस रास्ता उपलब्ध हो गया। इन विस्फोटों के लिये पकड़े गये मुस्लिम युवकों ने अदालत में जमानत की अर्जी लगा दी।पुलिस की जांच यह कहती है कि इन विस्फोटों के लिये मुसलमान दोषी हैं तो प्रज्ञा ठाकुर को क्यों पकड़ा हुआ है? लेकिन जेल में बन्द मुसलमानों ने तो यही तर्क दिया कि पुलिस ने स्वयं स्वीकार कर लिया है कि मालेगांव विस्फोट के लिये प्रज्ञा और उनके साथी जिम्मेदार हैं, इसलिये उन्हें कम जमानत पर छोड़ दिया जाय।
लेकिन पुलिस तो जानती थी कि प्रज्ञा ठाकुर की गिरफ्तारी तो मात्र सोनिया कांग्रेस के दिग्विजय सिंह बिग्रेड की राजनीतिक पहल रंग भरने के मात्र के लिए उसका माले गांव के विस्फोट से लेना देना नहीं है। इसलिए पुलिस ने इन मुस्लिम आतंकवादियों की जमानत की अर्जी का डट कर विरोध किया। विधि के जानकार लोगों को तभी ज्ञात हो गया था कि सोनिया कांग्रेस के मुस्लिम तुष्टीकरण के अभियान को पूरा करने के लिये साध्वी प्रज्ञा ठाकुर की बलि चढ़ाई जा रही है।उसका बम विस्फोट से कुछ लेना देना नहीं है।
प्रज्ञा सिंह ठाकुर को बिना किसी अपराध के भी जेल में पड़े हुये लगभग छह साल हो गए हैं। प्रश्न है कि बिना मुकदमा चलाये हुये किसी हिन्दू स्त्री को, केवल इसलिये कि मुसलमान खुश हो जायेंगे, भला कितनी देर जेल में बंद रखा जा सकता है? पुलिस अपनी तोता-बिल्ली की कहानी को और कितना लम्बा खींच सकती है? लेकिन ताज्जुब है अब पुलिस ने जब देखा कि प्रज्ञा सिंह के खिलाफ और किसी भी अपराध में कोई सबूत नहीं मिला तो उसने सुनील जोशी की हत्या के मामले में प्रज्ञा सिंह ठाकुर को जोड़ना शुरू कर दिया।
साध्वी प्रज्ञा ठाकुर को जेल में पड़े हुये छह साल पूरे हो गये हैं। राष्ट्रीय जांच एजेंसी उस पर कोई केस नहीं बना सकी। उसके खिलाफ तमाम हथकंडे इस्तेमाल करने के बावजूद कोई प्रमाण नहीं जुटा सकी। एक स्टेज पर तो राष्ट्रीय जांच एजेंसी को कहना ही पड़ा कि साध्वी के खिलाफ पर्याप्त सबूत न होने के कारण इन पर लगे आरोप निरस्त कर देने चाहिये। यदि सही प्रकार से कहा जाये तो प्रज्ञा ठाकुर का केस अभी प्रारंभ ही नहीं हुआ है। पर सरकार उसकी जमानत की अर्जी का डट कर विरोध करती है।
किस्सा यह है कि जांच एजेंसियों ने उस वक्त सोनिया कांग्रेस को खुश करने के लिये और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को बदनाम करने के लिए प्रज्ञा सिंह ठाकुर को पकड़ लिया और अपनी कारगुजारी दिखाने के लिये उसके इर्द-गिर्द कपोल कल्पित कथाओं का ताना-बाना भी बुन लिया। पुलिस अपने आप को निर्दोष सिध्द करने के लिये अभी भी प्रज्ञा सिंह के इर्द गिर्द झूठ का ताना-बाना बुनती ही जा रही है। कैंसर की मरीज प्रज्ञा ठाकुर क्या दिग्विजय सिंह,मैडम सोनिया के बुने हुये फरेब के इस जाल से निकल पायेगी या उसी में उलझी रह कर दम तोड़ देगी?
इस प्रश्न का उत्तर तो भविष्य ही देगा, लेकिन एक साध्वी के साथ किये इस जुल्म की जिम्मेदारी तो आखिर किसी न किसी को लेनी ही होगी।
मोदी सरकार की उदासीनता----------
जब मोदी सरकार आई तो सबको लगा क़ि चलो अब हिंदुत्ववादी सरकार आई है तो साध्वी जी को न्याय मिलेगा और उन्हें फ़साने वालो को कड़ा दंड मिलेगा,मगर हाय दुर्भाग्य,मोदी जी भी साध्वी को न्याय नही मिल पाया है,
अब जाकर सुप्रीम कोर्ट ने उनकी जमानत याचिका पर सुनवाई करते हुए कहा है कि साध्वी के खिलाफ कोई भी आरोप सिद्ध नही होता,पर तभी केंद्र सरकार के अधीन एनआईए ने फिर जमानत का विरोध कर दिया,और तब सुप्रीम कोर्ट ने भी इनकी याचिका ख़ारिज कर दी और इन्हे निचली कोर्ट में अपील करने को कहा.……
साध्वी जी कैंसर जैसी बिमारी से जूझ रही है और उन्होने इस कथित हिन्दुवा सरकार को पत्र लिखकर उन पर जेल मे हो रहे अत्याचारो को लिखित मे पीएम तक पहुंचाया कि कैसे जेल मे उनको पुलिस वाले जबरदस्ती उनके मुंह मे मांस ठूसते है और कैसे वो उनके कपडे भी सार्वजनिकता से बदलते है उनको गंदा पानी पीने पर मजबूर करते है जबकी उन्होने कोई अपराध तक भी नही किया?तब भी मोदी सरकार ने उनकी कोई मदद नही की.…

पर ये सच है कि इस देश मे राजपूतो को सिर्फ राजनीती मे एक ट्रंप कार्ड की तरह इस्तेमाल किया जाने लगा है जहां कही भी बदनामी का डर हो वहां राजपूतो को आगे कर दिया जाता है चाहे वो वी.के.सिंह जी का पाकिस्तानी दिवस मे जाना हो या कांधार मे आताकंवादीयो को छोडकर जाने के लिए जसवंंत सिंह जी हो और तो और इस देश की गंदी राजनीती ने हमारी बहन साध्वी प्रज्ञा ठाकुर जी को भी नही बख्शा ,
चुनाव से पहले बीजेपी ने वही अपना हिन्दुत्व का राग गाया और साध्वीप्रज्ञा जी पर जेल मे हो रहे अत्याचारो को बखान करके लोगो की भावनाए ऐसे जगाई जैसे की इनकी सरकार बनते ही दूसरे दिन साध्वी जी को जेल से रिहा करके उचित सम्मान दिया जाएगा मगर अफसोस फिर से सरकार ने धोखा ही दिया जैसे पहले से ही हमारे साथ होता आया है,जब सरकार को पता है कि मालेगांव बम बलास्ट मे साध्वी जी निर्दोष है तो क्यो उनको अभी तक बाहर नही निकाला गया? चलो पहले तो बीजेपी के पास बहाना था कि महाराष्ट्र मे उनकी सरकार नही है पर अब तो वहां इन कथित ठेकेदारो की ही सरकार है तो क्यो ये बाहर नही निकाल रहे ?
इसका कारण ये है कि ये सरकार हमेशा हिन्दुओ की धार्मिक भावनाओ को ढाल बनाकर सत्ता मे आती है पहले इन्होने राम मंदिर का मुद्दा उठाकर हिन्दुओ की वोटो को लूटा और सरकार बनाई क्या इन्होने राम मंदिर बनाया था?
मोदी की एनआईए ने प्रज्ञा ठाकुर की जमानत का विरोध किया और वहीँ बीजेपी अध्यक्ष और अमित शाह को क्लीन चिट देने में देर नही लगाइ.कोर्ट से हर दो महीने बाद संजय दत्त को पैरोल मिल जाती है,सलमान खान को आज  सजा मिल पाई.…
way-for-bail-for-most-of-the-accused-in-2008-malegaon-blasts-case

दुर्गा दस राठौड़-देश का पूर्ण इस्लामीकरण करने की औरंगजेब की साजिश को विफल

Rajputana Soch  राजपूताना सोच और क्षत्रिय इतिहास's photo. देश का पूर्ण इस्लामीकरण करने की औरंगजेब की साजिश को विफल कर हिन्दू धर्म की रक्षा की थी.....उस महान यौद्धा का नाम है वीर दुर्गादास राठौर...
समय - सोहलवीं - सतरवी शताब्दी
चित्र - वीर शिरोमणि दुर्गा दस राठौड़
स्थान - मारवाड़ राज्य
वीर दुर्गादास राठौड का जन्म मारवाड़ में करनोत ठाकुर आसकरण जी के घर सं. 1695 श्रावन शुक्ला चतुर्दसी को हुआ था। आसकरण जी मारवाड़ राज्य की सेना में जोधपुर नरेश महाराजा जसवंत सिंह जी की सेवा में थे ।अपने पिता की भांति बालक दुर्गादास में भी वीरता कूट कूट कर भरी थी,एक बार जोधपुर राज्य की सेना के ऊंटों को चराते हुए राईके (ऊंटों के चरवाहे) आसकरण जी के खेतों में घुस गए, बालक दुर्गादास के विरोध करने पर भी चरवाहों ने कोई ध्यान नहीं दिया तो वीर युवा दुर्गादास का खून खोल उठा और तलवार निकाल कर झट से ऊंट की गर्दन उड़ा दी,इसकी खबर जब महाराज जसवंत सिंह जी के पास पहुंची तो वे उस वीर बालक को देखने के लिए उतावले हो उठे व अपने सेनिकों को दुर्गादास को लेन का हुक्म दिया ।अपने दरबार में महाराज उस वीर बालक की निडरता व निर्भीकता देख अचंभित रह गए,आस्करण जी ने अपने पुत्र को इतना बड़ा अपराध निर्भीकता से स्वीकारते देखा तो वे सकपका गए। परिचय पूछने पर महाराज को मालूम हुवा की यह आस्करण जी का पुत्र है,तो महाराज ने दुर्गादास को अपने पास बुला कर पीठ थपथपाई और इनाम तलवार भेंट कर अपनी सेना में भर्ती कर लिया।
उस समय महाराजा जसवंत सिंह जी दिल्ली के मुग़ल बादशाह औरंगजेब की सेना में प्रधान सेनापति थे,फिर भी औरंगजेब की नियत जोधपुर राज्य के लिए अच्छी नहीं थी और वह हमेशा जोधपुर हड़पने के लिए मौके की तलाश में रहता था ।सं. 1731 में गुजरात में मुग़ल सल्तनत के खिलाफ विद्रोह को दबाने हेतु जसवंत सिंह जी को भेजा गया,इस विद्रोह को दबाने के बाद महाराजा जसवंत सिंह जी काबुल में पठानों के विद्रोह को दबाने हेतु चल दिए और दुर्गादास की सहायता से पठानों का विद्रोह शांत करने के साथ ही वीर गति को प्राप्त हो गए । उस समय उनके कोई पुत्र नहीं था और उनकी दोनों रानियाँ गर्भवती थी,दोनों ने एक एक पुत्र को जनम दिया,एक पुत्र की रास्ते में ही मौत हो गयी और दुसरे पुत्र अजित सिंह को रास्ते का कांटा समझ कर ओरंग्जेब ने अजित सिंह की हत्या की ठान ली,ओरंग्जेब की इस कुनियत को स्वामी भक्त दुर्गादास ने भांप लिया और मुकंदास की सहायता से स्वांग रचाकर अजित सिंह को दिल्ली से निकाल लाये व अजित सिंह की लालन पालन की समुचित व्यवस्था करने के साथ जोधपुर में गदी के लिए होने वाले ओरंग्जेब संचालित षड्यंत्रों के खिलाफ लोहा लेते अपने कर्तव्य पथ पर बदते रहे।
अजित सिंह के बड़े होने के बाद गद्दी पर बैठाने तक वीर दुर्गादास को जोधपुर राज्य की एकता व स्वतंत्रता के लिए दर दर की ठोकरें खानी पड़ी,ओरंग्जेब का बल व लालच दुर्गादास को नहीं डिगा सका जोधपुर की आजादी के लिए दुर्गादास ने कोई पच्चीस सालों तक सघर्ष किया,लेकिन जीवन के अन्तिम दिनों में दुर्गादास को मारवाड़ छोड़ना पड़ा । महाराज अजित सिंह के कुछ लोगों ने दुर्गादास के खिलाफ कान भर दिए थे जिससे महाराज दुर्गादास से अनमने रहने लगे वस्तु स्तिथि को भांप कर दुर्गादास ने मारवाड़ राज्य छोड़ना ही उचित समझा ।और वे मारवाड़ छोड़ कर उज्जेन चले गए वही शिप्रा नदी के किनारे उन्होने अपने जीवन के अन्तिम दिन गुजारे व वहीं उनका स्वर्गवास हुवा ।दुर्गादास हमारी आने वाली पिडियों के लिए वीरता, देशप्रेम, बलिदान व स्वामिभक्ति के प्रेरणा व आदर्श बने रहेंगे ।
१-मायाड ऐडा पुत जाण, जेड़ा दुर्गादास । भार मुंडासा धामियो, बिन थम्ब आकाश ।
२-घर घोड़ों, खग कामनी, हियो हाथ निज मीत सेलां बाटी सेकणी, श्याम धरम रण नीत ।
वीर दुर्गादास का निधन 22 नवम्बर, सन् 1718 में हुवा था इनका अन्तिम संस्कार शिप्रा नदी के तट पर किया गया था ।
"उनको न मुगलों का धन विचलित कर सका और न ही मुग़ल शक्ति उनके दृढ हृदये को पीछे हटा सकी। वह एक वीर था जिसमे राजपूती साहस व मुग़ल मंत्री सी कूटनीति थी "
जिसने इस देश का पूर्ण इस्लामीकरण करने की औरंगजेब की साजिश को विफल कर हिन्दू धर्म की रक्षा की थी.....उस महान यौद्धा का नाम है वीर दुर्गादास राठौर...
इसी वीर दुर्गादास राठौर के बारे में रामा जाट ने कहा था कि "धम्मक धम्मक ढोल बाजे दे दे ठोर नगारां की,, जो आसे के घर दुर्गा नहीं होतो,सुन्नत हो जाती सारां की.......
आज भी मारवाड़ के गाँवों में लोग वीर दुर्गादास को याद करते है कि
“माई ऐहा पूत जण जेहा दुर्गादास, बांध मरुधरा राखियो बिन खंभा आकाश”
हिंदुत्व की रक्षा के लिए उनका स्वयं का कथन
"रुक बल एण हिन्दू धर्म राखियों"
अर्थात हिन्दू धर्म की रक्षा मैंने भाले की नोक से की............
इनके बारे में कहा जाता है कि इन्होने सारी उम्र घोड़े की पीठ पर बैठकर बिता दी।
अपनी कूटनीति से इन्होने ओरंगजेब के पुत्र अकबर को अपनी और मिलाकर,राजपूताने और महाराष्ट्र की सभी हिन्दू शक्तियों को जोडकर ओरंगजेब की रातो की नींद छीन ली थी।और हिंदुत्व की रक्षा की थी।
उनके बारे में इतिहासकार कर्नल जेम्स टॉड ने कहा था कि .....
"उनको न मुगलों का धन विचलित कर सका और न ही मुगलों की शक्ति उनके दृढ निश्चय को पीछे हटा सकी,बल्कि वो ऐसा वीर था जिसमे राजपूती साहस और कूटनीति मिश्रित थी".
ये निर्विवाद सत्य है कि अगर उस दौर में वीर दुर्गादास राठौर,छत्रपति शिवाजी,वीर गोकुल,गुरु गोविन्द सिंह,बंदा सिंह बहादुर जैसे शूरवीर पैदा नहीं होते तो पुरे मध्य एशिया,ईरान की तरह भारत का पूर्ण इस्लामीकरण हो जाता और हिन्दू धर्म का नामोनिशान ही मिट जाता............
28 नवम्बर 1678 को अफगानिस्तान के जमरूद नामक सैनिक ठिकाने पर जोधपुर के महाराजा जसवंतसिंह का निधन हो गया था उनके निधन के समय उनके साथ रह रही दो रानियाँ गर्भवती थी इसलिए वीर शिरोमणि दुर्गादास सहित जोधपुर राज्य के अन्य सरदारों ने इन रानियों को महाराजा के पार्थिव शरीर के साथ सती होने से रोक लिया | और इन गर्भवती रानियों को सैनिक चौकी से लाहौर ले आया गया जहाँ इन दोनों रानियों ने 19 फरवरी 1679 को एक एक पुत्र को जन्म दिया,बड़े राजकुमार नाम अजीतसिंह व छोटे का दलथंभन रखा गया
ये वही वीर दुर्गा दास राठौड़ जो जोधपुर के महाराजा को औरंगज़ेब के चुंगल ले निकल कर लाये थे जब जोधपुर महाराजा अजित सिंह गर्भ में थे उनके पिता की मुर्त्यु हो चुकी थी तब औरंगज़ेब उन्हें अपने संरक्षण में दिल्ली दरबार ले गया था उस वक़्त वीर दुर्गा दास राठौड़ चार सो चुने हुए राजपूत वीरो को लेकर दिल्ली गए और युद्ध में मुगलो को चकमा देकर महाराजा को मारवाड़ ले आये.....
उसी समय बलुन्दा के मोहकमसिंह मेड़तिया की रानी बाघेली भी अपनी नवजात शिशु राजकुमारी के साथ दिल्ली में मौजूद थी वह एक छोटे सैनिक दल से हरिद्वार की यात्रा से आते समय दिल्ली में ठहरी हुई थी | उसने राजकुमार अजीतसिंह को बचाने के लिए राजकुमार को अपनी राजकुमारी से बदल लिया और राजकुमार को राजकुमारी के कपड़ों में छिपाकर खिंची मुकंददास व कुंवर हरीसिंह के साथ दिल्ली से निकालकर बलुन्दा ले आई | यह कार्य इतने गोपनीय तरीके से किया गया कि रानी ,दुर्गादास,ठाकुर मोहकम सिंह,खिंची मुकंदास,कु.हरिसिघ के अलावा किसी को कानों कान भनक तक नहीं लगी यही नहीं रानी ने अपनी दासियों तक को इसकी भनक नहीं लगने दी कि राजकुमारी के वेशभूषा में जोधपुर के राजकुमार अजीतसिंह का लालन पालन हो रहा है |
छ:माह तक रानी राजकुमार को खुद ही अपना दूध पिलाती,नहलाती व कपडे पहनाती ताकि किसी को पता न चले पर एक दिन राजकुमार को कपड़े पहनाते एक दासी ने देख लिया और उसने यह बात दूसरी रानियों को बता दी,अत: अब बलुन्दा का किला राजकुमार की सुरक्षा के लिए उचित न जानकार रानी बाघेली ने मायके जाने का बहाना कर खिंची मुक्न्दास व कु.हरिसिंह की सहायता से राजकुमार को लेकर सिरोही के कालिंद्री गाँव में अपने एक परिचित व निष्टावान जयदेव नामक पुष्करणा ब्रह्मण के घर ले आई व राजकुमार को लालन-पालन के लिए उसे सौंपा जहाँ उसकी (जयदेव)की पत्नी ने अपना दूध पिलाकर जोधपुर के उतराधिकारी राजकुमार को बड़ा किया |
((वीर दुर्गादास राठौड़ के सिक्के और पोस्ट स्टाम्प भारत सरकार पहले ही जारी कर चुकी है ))

महाराजा छत्रसाल ,King Chatrasal

Rajputana Soch  राजपूताना सोच और क्षत्रिय इतिहास's photo.---बुन्देल केसरी,मुग़लो के काल महाराजा छत्रसाल ---
 दिनांक 04 मई 1649 ईस्वी को महाराजा छत्रसाल का जन्म हुआ था।
कम आयु में ही अनाथ हो गए वीर बालक छत्रसाल ने छत्रपति शिवाजी से प्रभावित होकर अपनी छोटी सी सेना बनाई और मुगल बादशाह औरंगजेब से जमकर लोहा लिया और मुग़लो के सबसे ताकतवर काल में उनकी नाक के नीचे एक बड़े भूभाग को जीतकर एक विशाल स्वतंत्र राज्य की स्थापना की।
बुन्देलखंड की भूमि प्राकृतिक सुषमा और शौर्य पराक्रम की भूमि है, जो विंध्याचल पर्वत की पहाड़ियों से घिरी है। चंपतराय जिन्होंने बुन्देलखंड में बुन्देला राज्य की आधार शिला रखी थी, महाराज छत्रसाल ने उस बुन्देला राज्य को ना केवल पुनर्स्थापित किया बल्कि उसका विस्तार कर के उसे समृद्धि प्रदान की।
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====जीवन परिचय====
महाराजा छत्रसाल का जन्म गहरवार (गहड़वाल) वंश की बुंदेला शाखा के राजपूतो में हुआ था,काशी के गहरवार राजा वीरभद्र के पुत्र हेमकरण जिनका दूसरा नाम पंचम सिंह गहरवार भी था,वो विंध्यवासिनी देवी के अनन्य भक्त थे,जिस कारण उन्हें विन्ध्य्वाला भी कहा जाता था,इस कारण राजा हेमकरण के वंशज विन्ध्य्वाला या बुंदेला कहलाए,हेमकर्ण की वंश परंपरा में सन 1501 में ओरछा में रुद्रप्रताप सिंह राज्यारूढ़ हुए, जिनके पुत्रों में ज्येष्ठ भारतीचंद्र 1539 में ओरछा के राजा बने तब बंटवारे में राव उदयजीत सिंह को महेबा (महोबा नहीं) का जागीरदार बनाया गया, इन्ही की वंश परंपरा में चंपतराय महेबा गद्दी पर आसीन हुए।
चम्पतराय बहुत ही वीर व बहादुर थे। उन्होंने मुग़लो के खिलाफ बगावत करी हुई थी और लगातार युद्धों में व्यस्त रहते थे। चम्पतराय के साथ युद्ध क्षेत्र में रानी लालकुँवरि भी साथ ही रहती थीं और अपने पति को उत्साहित करती रहती थीं। छत्रसाल का जन्म दिनांक 04 मई 1649 ईस्वी को पहाड़ी नामक गाँव में हुआ था। गर्भस्थ शिशु छत्रसाल तलवारों की खनक और युद्ध की भयंकर मारकाट के बीच बड़े हुए। यही युद्ध के प्रभाव उनके जीवन पर असर डालते रहे और माता लालकुँवरि की धर्म व संस्कृति से संबंधित कहानियाँ बालक छत्रसाल को बहादुर बनाती रहीं।
छत्रसाल के पिता चंपतराय जब मुग़ल सेना से घिर गये तो उन्होंने अपनी पत्नी 'रानी लाल कुंवरि' के साथ अपनी ही कटार से प्राण त्याग दिये, किंतु मुग़लों के सामने झुकना स्वीकार नहीं किया।
छत्रसाल उस समय चौदह वर्ष की आयु के थे। क्षेत्र में ही उनके पिता के अनेक दुश्मन थे जो उनके खून के प्यासे थे। इनसे बचते हुए और युद्ध की कला सीखते हुए उन्होंने अपना बचपन बिताया। अपने बड़े भाई 'अंगद राय' के साथ वह कुछ दिनों मामा के घर रहे, किंतु उनके मन में सदैव मुग़लों से बदला लेकर पितृ ऋण से मुक्त होने की अभिलाषा थी। बालक छत्रसाल मामा के यहाँ रहता हुआ अस्त्र-शस्त्रों का संचालन और युद्ध कला में पारंगत होता रहा। अपने पिता के वचन को ही पूरा करने के लिए छत्रसाल ने पंवार वंश की कन्या 'देवकुंवरि' से विवाह किया।
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====छत्रपति शिवाजी से सम्पर्क और ओरंगजेब से संघर्ष=====
दस वर्ष की अवस्था तक छत्रसाल कुशल सैनिक बन गए थे। अंगद राय ने जब सैनिक बनकर राजा जयसिंह के यहाँ कार्य करना चाहा तो छोटे भाई छत्रसाल को यह सहन नहीं हुआ। छत्रसाल ने अपनी माता के कुछ गहने बेचकर एक छोटी सा सैनिक दल तैयार करने का विचार किया। छोटी सी पूंजी से उन्होंने 30 घुड़सवार और 347 पैदल सैनिकों का एक दल बनाया और मुग़लों पर आक्रमण करने की तैयारी की। 22 वर्ष की आयु में छत्रसाल युद्ध भूमि में कूद पड़े। छत्रसाल बहुत दूरदर्शी थे। उन्होंने पहले ऐसे लोगों को हटाया जो मुग़लों की मदद कर रहे थे।
सन 1668 ईस्वी में उन्होंने दक्षिण में छत्रपति शिवाजी से भेट की,शिवाजी ने उनका हौसला बढ़ाते हुए उन्हें वापस बुंदेलखंड जाकर मुगलों से अपनी मात्रभूमि स्वतंत्र कराने का निर्देश दिया,
शिवाजी ने छत्रसाल को उनके उद्देश्यों, गुणों और परिस्थितियों का आभास कराते हुए स्वतंत्र राज्य स्थापना की मंत्रणा दी एवं समर्थ गुरु रामदास के आशीषों सहित 'भवानी’ तलवार भेंट की-
करो देस के राज छतारे
हम तुम तें कबहूं नहीं न्यारे।
दौर देस मुग़लन को मारो
दपटि दिली के दल संहारो।
तुम हो महावीर मरदाने
करि हो भूमि भोग हम जाने।
जो इतही तुमको हम राखें
तो सब सुयस हमारे भाषें।
छत्रसाल ने वापिस अपने गृह क्षेत्र आकर मुग़लो के खिलाफ संघर्ष की शुरुआत कर दी। इसमें उनको गुरु प्राणनाथ का बहुत साथ मिला। दक्षिण भारत में जो स्थान समर्थगुरु रामदास का है वही स्थान बुन्देलखंड में 'प्राणनाथ' का रहा है, प्राणनाथ छत्रसाल के मार्ग दर्शक, अध्यात्मिक गुरु और विचारक थे.. जिस प्रकार समर्थ गुरु रामदास के कुशल निर्देशन में छत्रपति शिवाजी ने अपने पौरुष, पराक्रम और चातुर्य से मुग़लों के छक्के छुड़ा दिए थे, ठीक उसी प्रकार गुरु प्राणनाथ के मार्गदर्शन में छत्रसाल ने अपनी वीरता से, चातुर्यपूर्ण रणनीति से और कौशल से विदेशियों को परास्त किया। .
छत्रसाल ने पहला युद्ध अपने माता-पिता के साथ विश्वासघात करने वाले सेहरा के धंधेरों से किया हाशिम खां को मार डाला और सिरोंज एवं तिबरा लूट डाले गये लूट की सारी संपत्ति छत्रसाल ने अपने सैनिकों में बाँटकर पूरे क्षेत्र के लोगों को उनकी सेना में सम्मिलित होने के लिए आकर्षित किया। कुछ ही समय में छत्रसाल की सेना में भारी वृद्धि होने लगी और उन्हेांने धमोनी, मेहर, बाँसा और पवाया आदि जीतकर कब्जे में कर लिए। ग्वालियर-खजाना लूटकर सूबेदार मुनव्वर खां की सेना को पराजित किया, बाद में नरवर भी जीता।
ग्वालियर की लूट से छत्रसाल को सवा करोड़ रुपये प्राप्त हुए पर औरंगजेब इससे छत्रसाल पर टूट-सा पड़ा। उसने सेनपति रुहल्ला खां के नेतृत्व में आठ सवारों सहित तीस हजारी सेना भेजकर गढ़ाकोटा के पास छत्रसाल पर धावा बोल दिया। घमासान युद्ध हुआ पर दणदूल्हा (रुहल्ला खां) न केवल पराजित हुआ वरन भरपूर युद्ध सामग्री छोड़कर जन बचाकर उसे भागना पड़ा।
बार बार युद्ध करने के बाद भी औरंगज़ेब छत्रसाल को पराजित करने में सफल नहीं हो पाया। छत्रसाल को मालूम था कि मुग़ल छलपूर्ण घेराबंदी में सिद्धहस्त है। उनके पिता चंपतराय मुग़लों से धोखा खा चुके थे। छत्रसाल ने मुग़ल सेना से इटावा, खिमलासा, गढ़ाकोटा, धामौनी, रामगढ़, कंजिया, मडियादो, रहली, रानगिरि, शाहगढ़, वांसाकला सहित अनेक स्थानों पर लड़ाई लड़ी और मुग़लों को धूल चटाई। छत्रसाल की शक्ति निरंतर बढ़ती गयी। बन्दी बनाये गये मुग़ल सरदारों से छत्रसाल ने दंड वसूला और उन्हें मुक्त कर दिया। धीरे धीरे बुन्देलखंड से मुग़लों का एकछत्र शासन छत्रसाल ने समाप्त कर दिया।
छत्रसाल के शौर्य और पराक्रम से आहत होकर मुग़ल सरदार तहवर ख़ाँ, अनवर ख़ाँ, सहरूदीन, हमीद बुन्देलखंड से दिल्ली का रुख़ कर चुके थे। बहलोद ख़ाँ छत्रसाल के साथ लड़ाई में मारा गया और मुराद ख़ाँ, दलेह ख़ाँ, सैयद अफगन जैसे सिपहसलार बुन्देला वीरों से पराजित होकर भाग गये थे।
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====राज्याभिषेक और राज्य विस्तार====
छत्रसाल के राष्ट्र प्रेम, वीरता और हिन्दूत्व के कारण छत्रसाल को भारी जन समर्थन प्राप्त था। छत्रसाल ने एक विशाल सेना तैयार कर ली जिसमे क्षेत्र के सभी राजपूत वंशो के योद्धा शामिल थे। इसमें 72 प्रमुख सरदार थे। वसिया के युद्ध के बाद मुग़लों ने भी छत्रसाल को 'राजा' की मान्यता प्रदान कर दी थी। उसके बाद महाराजा छत्रसाल ने 'कालिंजर का क़िला' भी जीता और मांधाता चौबे को क़िलेदार घोषित किया। छत्रसाल ने 1678 में पन्ना में अपनी राजधानी स्थापित की और विक्रम संवत 1744 मे योगीराज प्राणनाथ के निर्देशन में छत्रसाल का राज्याभिषेक किया गया।
छत्रसाल के गुरु प्राणनाथ आजीवन हिन्दू मुस्लिम एकता के संदेश देते रहे। उनके द्वारा दिये गये उपदेश 'कुलजम स्वरूप' में एकत्र किये गये। पन्ना में प्राणनाथ का समाधि स्थल है जो अनुयायियों का तीर्थ स्थल है। प्राणनाथ ने इस अंचल को रत्नगर्भा होने का वरदान दिया था। किंवदन्ती है कि जहाँ तक छत्रसाल के घोड़े की टापों के पदचाप बनी वह धरा धनधान्य, रत्न संपन्न हो गयी। छत्रसाल के विशाल राज्य के विस्तार के बारे में यह पंक्तियाँ गौरव के साथ दोहरायी जाती है-
'इत यमुना उत नर्मदा इत चंबल उत टोस छत्रसाल सों लरन की रही न काहू हौस।'
बुंदेलखंड की शीर्ष उन्नति इन्हीं के काल में हुई। छत्रसाल के समय में बुंदेलखंड की सीमायें अत्यंत व्यापक हो गई। इस प्रदेश में उत्तर प्रदेश के झाँसी, हमीरपुर, जालौन, बाँदा, मध्य प्रदेश के सागर, जबलपुर, नरसिंहपुर, होशंगाबाद, मण्डला, मालवा संघ के शिवपुरी, कटेरा, पिछोर, कोलारस, भिण्ड और मोण्डेर के ज़िले और परगने शामिल थे। छत्रसाल ने लगातार युद्धों और आपस में लूट मार से त्रस्त इस पिछड़े क्षेत्र को एक क्षत्र के निचे लाकर वहॉ शांति स्थापित की जिससे बुंदेलखंड का पहली बार इतना विकास संभव हो सका।
छत्रसाल का राज्य प्रसिद्ध चंदेल महाराजा कीर्तिवर्धन से भी बड़ा था। कई शहर भी इन्होंने ही बसाए जिनमे छतरपुर शामिल है। छत्रसाल तलवार के धनी थे और कुशल शस्त्र संचालक थे। वह शस्त्रों का आदर करते थे। लेकिन साथ ही वह विद्वानों का बहुत सम्मान करते थे और स्वयं भी बहुत विद्वान थे। वह उच्च कोटि के कवि भी थे, जिनकी भक्ति तथा नीति संबंधी कविताएँ ब्रजभाषा में प्राप्त होती हैं। इनके आश्रित दरबारी कवियों में भूषण, लालकवि, हरिकेश, निवाज, ब्रजभूषण आदि मुख्य हैं। भूषण ने आपकी प्रशंसा में जो कविताएँ लिखीं वे 'छत्रसाल दशक' के नाम से प्रसिद्ध हैं। 'छत्रप्रकाश' जैसे चरितकाव्य के प्रणेता गोरेलाल उपनाम 'लाल कवि' आपके ही दरबार में थे। यह ग्रंथ तत्कालीन ऐतिहासिक सूचनाओं से भरा है, साथ ही छत्रसाल की जीवनी के लिए उपयोगी है। उन्होंने कला और संगीत को भी बढ़ावा दिया, बुंदेलखंड में अनेको निर्माण उन्होंने करवाए। छत्रसाल धार्मिक स्वभाव के थे। युद्धभूमि में व शांतिकाल में दैनिक पूजा अर्चना करना छत्रसाल का कार्य रहा।
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====कवि भूषण द्वारा छत्रसाल की प्रशंसा====
कविराज भूषण ने शिवाजी के दरबार में रहते हुए छत्रसाल की वीरता और बहादुरी की प्रशंसा में अनेक कविताएँ लिखीं। 'छत्रसाल दशक' में इस वीर बुंदेले के शौर्य और पराक्रम की गाथा गाई गई है।
छत्रसाल की प्रशंसा करते हुए कवि भूषण दुविधा में पड़ गये और लिखा कि-----
"और राव राजा एक,मन में लायुं अब ,
शिवा को सराहूँ या सराहूँ छत्रसाल को"
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====मुगल सेनापति बंगश का हमला और पेशवा बाजीराव का सहयोग====
महाराज छत्रसाल अपने समय के महान शूरवीर, संगठक, कुशल और प्रतापी राजा थे। छत्रसाल को अपने जीवन की संध्या में भी आक्रमणों से जूझना पडा।सन 1729 में सम्राट मुहम्मद शाह के शासन काल में प्रयाग के सूबेदार बंगस ने छत्रसाल पर आक्रमण किया। उसकी इच्छा एरच, कौच, सेहुड़ा, सोपरी, जालोन पर अधिकार कर लेने की थी। छत्रसाल को मुग़लों से लड़ने में दतिया, सेहुड़ा के राजाओं ने सहयोग नहीं दिया। उनका पुत्र हृदयशाह भी उदासीन होकर अपनी जागीर में बैठा रहा। तब छत्रसाल ने बाजीराव पेशवा को संदेश भेजा -
'जो गति मई गजेन्द्र की सोगति पहुंची आय
बाजी जात बुन्देल की राखो बाजीराव'
बाजीराव सेना सहित सहायता के लिये पहुंचा और उसने बंगस को 30 मार्च 1729 को पराजित कर दिया। बंगस हार कर वापिस लौट गया।
4 अप्रैल 1729 को छत्रसाल ने विजय उत्सव मनाया। इस विजयोत्सव में बाजीराव का अभिनन्दन किया गया और बाजीराव को अपना तीसरा पुत्र स्वीकार कर मदद के बदले अपने राज्य का तीसरा भाग बाजीराव पेशवा को सौंप दिया, जिस पर पेशवा ने अपनी ब्राह्मण जाति के लोगो को सामन्त नियुक्त किया।
प्रथम पुत्र हृदयशाह पन्ना, मऊ, गढ़कोटा, कालिंजर, एरिछ, धामोनी इलाका के जमींदार हो गये जिसकी आमदनी 42 लाख रू. थी।
दूसरे पुत्र जगतराय को जैतपुर, अजयगढ़, चरखारी, नांदा, सरिला, इलाका सौपा गया जिसकी आय 36 लाख थी।
बाजीराव पेशवा को काल्पी, जालौन, गुरसराय, गुना, हटा, सागर, हृदय नगर मिलाकर 33 लाख आय की जागीर सौपी गयी।
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=====निधन====
छत्रसाल ने अपने दोनों पुत्रों ज्येष्ठ जगतराज और कनिष्ठ हिरदेशाह को बराबरी का हिस्सा, जनता को समृद्धि और शांति से राज्य-संचालन हेतु बांटकर अपनी विदा वेला का दायित्व निभाया।
इस वीर बहादुर छत्रसाल का 83 वर्ष की अवस्था में 13 मई 1731 ईस्वी को मृत्यु हो गयी। छत्रसाल के लिए कहावत है -
'छत्ता तेरे राज में,
धक-धक धरती होय।
जित-जित घोड़ा मुख करे,
तित-तित फत्ते होय।'
मध्यकालीन भारत में विदेशी आतताइयों से सतत संघर्ष करने वालों में छत्रपति शिवाजी, महाराणा प्रताप और बुंदेल केसरी छत्रसाल के नाम विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं, परंतु जिन्हें उत्तराधिकार में सत्ता नहीं वरन ‘शत्रु और संघर्ष’ ही विरासत में मिले हों, ऐसे बुंदेल केसरी छत्रसाल ने वस्तुतः अपने पूरे जीवनभर स्वतंत्रता और सृजन के लिए ही सतत संघर्ष किया। शून्य से अपनी यात्रा प्रारंभ कर आकाश-सी ऊंचाई का स्पर्श किया। उन्होंने विस्तृत बुंदेलखंड राज्य की गरिमामय स्थापना ही नहीं की थी, वरन साहित्य सृजन कर जीवंत काव्य भी रचे। छत्रसाल ने अपने 82 वर्ष के जीवन और 44 वर्षीय राज्यकाल में 52 युद्ध किये थे। शौर्य और सृजन की ऐसी उपलब्धि बेमिसाल है-
‘‘इत जमना उत नर्मदा इत चंबल उत टोंस।
छत्रसाल से लरन की रही न काह होंस।’’
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सन्दर्भ----
1-http://hi.bharatdiscovery.org/…/%E0%A4%9B%E0%A4%A4%E0%A5%8D…
2-http://www.bundelkhand.in/…/histo…/Bundeli-Kesari-Chhatrasal
3-देवी सिंह मंडावा कृत राजपूत शाखाओं का इतिहास पृष्ठ संख्या 305-313
4-http://en.wikipedia.org/wiki/Chhatrasal

Monday, March 9, 2015

शिवाजी महाराज ,Great chatrapati Shiva ji

'भारत माँ के महान सपूत हिन्दू ह्रदय सम्राट क्षत्रपति शिवाजी महाराज को उनके जन्मदिवस पर शत् शत् नमन_/\_  

क्षत्रपति शिवाजी राजे भोंसले का जन्म 19 फ़रवरी 1630 को पश्चिमी महाराष्ट्र के शिवनेरी दुर्ग में हुआ था। उनके पिता शाहजी भोंसले और माता जीजाबाई थी जो जाधव(यदुवंशी) वंश के क्षत्रियोँ की पुत्री थीं जिन्होंने महाराष्ट्र में कई सदियोँ तक राज किया था। भोंसले वंश मराठा देश के क्षत्रियो का प्रमुख वंश है जिसका निकास मेवाड़ के गहलोत/सिसोदिया वंश से हुआ है। इस तरह भारत के दो महान सुपुत्र और क्षत्रियों के गौरव महाराणा प्रताप और शिवाजी राजे एक ही वंश से संबंध रखते हैँ।

शिवाजी राजे के पिता शाहजी राजे दक्षिण भारत के एक शक्तिशाली सामंत थे और उनकी माता जीजाबाई एक आदर्श क्षत्राणी और असाधारण महिला थी। उनका बचपन अपनी माता के संरक्षण में ही बीता। शिवाजी महाराज बचपन से ही बहुत तेज दिमाग और प्रतिभाशाली थे। उनकी माता जिजाऊ ने एक आदर्श क्षत्राणी की तरह उनमे देशभक्ति और बलिदान की भावना कूट कूट कर भर दी थी। बचपन से ही शिवाजी राजे के ह्रदय में स्वतंत्रता की लौ प्रज्वलित हो गई थी और विदेशी शाशन की बेड़िया तोड़ने का उन्होंने संकल्प ले लिया था।

उन्होंने कम उम्र में ही विदेशियों से अपनी मातृभूमि को मुक्त कराने का अभियान छेड़ दिया और जीवन भर संघर्ष करते हुए अपनी शूरवीरता और बुद्धिमता के बल पर दक्षिण भारत में विजयनगर साम्राज्य के बाद पहला स्वतंत्र हिन्दू राज्य स्थापित कर लिया। उन्होंने मराठा देश के सभी क्षत्रियोँ को ही नहीँ बल्कि सभी हिन्दू जातियों के लोगो को संगठित कर के विशाल और अपराजेय सेना का निर्माण किया। हालांकि उन्हें बचपन में कोई ख़ास शिक्षा नही मिली लेकिन दादा कोंडदेव उनके राजनितिक गुरु थे और राजे शुक्राचार्य और कौटिल्य की नीतियों को आदर्श मानते थे। उनकी सफलता में उनकी बुद्धिमता और कूटनीति का बहुत बड़ा योगदान था। चाहे अफजल खान से भिड़ंत हो या आगरा के दरबार में नजरबन्द होने के बाद वहॉ से निकलना या फिर अनेको  किलो को बिना रक्त बहाए जीतना या विशाल सेनाओ के विरुद्ध छापामार शैली में लड़कर जीतना,इस तरह के शिवाजी राजे की बुद्धिमता और कूटनीति के अनेको उदाहरण है। इतिहास में शिवाजी राजे जैसा बुद्धिमान और कूटनीतिज्ञ शाशक शायद ही कोई रहा होगा जिन्होंने बहुत कम संसाधनों के साथ अपने से कहीँ विशाल साम्राज्यो से संघर्ष करते हुए बुद्धि और कूटनीति के बल पर एक विशाल और ताकतवर साम्राज्य स्थापित किया।

शिवाजी राजे महान सेनानायक के साथ ही एक कुशल और प्रबुद्ध सम्राट के रूप में भी जाने जाते है। प्रशाशन की बागडोर वो सीधे अपने हाथो में ही रखते थे। राज्याभिषेक होने के बाद उन्होंने हिन्दू शास्त्रो के आधार पर एक सुदृढ़ प्रशासनिक और न्याय तंत्र विकसित किया। वो एक कट्टर हिन्दू थे लेकिन उन्होंने सहिष्णुता की नीती अपनाई। हिन्दू स्वराज स्थापित करने के बाद भी मुसलमानो को पूर्ण धार्मिक स्वतंत्रता दी।

~~भोंसले वंश के क्षत्रियत्व का प्रमाण~~
शिवाजी राजे के राज्याभिषेक की प्रक्रिया जब शुरू हुई तो महाराष्ट्र के ब्राह्मणों ने दुर्भावनावष उनके क्षत्रिय होने पर सवाल उठाकर उनका राज्याभिषेक करने से मना कर दिया। उनके क्षत्रियत्व पर वो ही लोग आज तक भी दुष्पचार कर रहे है जबकि उनके बनाए हुए साम्राज्य का सबसे ज्यादा लाभ इन्हीं लोगो ने उठाया। जब महाराष्ट्र के ब्राह्मणों ने उनका राज्याभिषेक करने से मना कर दिया तो बनारस के एक ब्राह्मण गागभट्ट को बुलाया गया जिनके सामने भोंसले वंश के मेवाड़ के गहलोत/सिसोदिया वंश की शाखा होने के प्रमाण रखे गए। इनसे संतुष्ट होकर पंडित गागभट्ट ने शिवाजी का राज्याभिषेक किया। इन प्रमाणो के अनुसार महाराणा हम्मीर सिंह के छोटे पुत्र सज्जन सिंह अपने साथियों के साथ दक्षिण चले गए और वहॉ उनके वंशजो से मराठा क्षत्रियोँ के भोंसले और घोरपड़े वंश चले। इनकी वंशावली निम्न प्रकार से है-
 
1. रावल बप्पा ( काल भोज ) - 734 ई० मेवाड राज्य में गहलौत शासन के सूत्रधार।
2. रावल खुमान - 753 ई०
3. मत्तट - 773 - 793 ई०
4. भर्तभट्त - 793 - 813 ई०
5. रावल सिंह - 813 - 828 ई०
6. खुमाण सिंह - 828 - 853 ई०
7. महायक - 853 - 878 ई०
8. खुमाण तृतीय - 878 - 903 ई०
9. भर्तभट्ट द्वितीय - 903 - 951 ई०
10. अल्लट - 951 - 971 ई०
11. नरवाहन - 971 - 973 ई०
12. शालिवाहन - 973 - 977 ई०
13. शक्ति कुमार - 977 - 993 ई०
14. अम्बा प्रसाद - 993 - 1007 ई०
15. शुची वरमा - 1007- 1021 ई०
16. नर वर्मा - 1021 - 1035 ई०
17. कीर्ति वर्मा - 1035 - 1051 ई०
18. योगराज - 1051 - 1068 ई०
19. वैरठ - 1068 - 1088 ई०
20. हंस पाल - 1088 - 1103 ई०
21. वैरी सिंह - 1103 - 1107 ई०
22. विजय सिंह - 1107 - 1127 ई०
23. अरि सिंह - 1127 - 1138 ई०
24. चौड सिंह - 1138 - 1148 ई०
25. विक्रम सिंह - 1148 - 1158 ई०
26. रण सिंह ( कर्ण सिंह ) - 1158 - 1168 ई०
27. क्षेम सिंह - 1168 - 1172 ई०
28. सामंत सिंह - 1172 - 1179 ई०
29. कुमार सिंह - 1179 - 1191 ई०
30. मंथन सिंह - 1191 - 1211 ई०
31. पद्म सिंह - 1211 - 1213 ई०
32. जैत्र सिंह - 1213 - 1261 ई०
33. तेज सिंह -1261 - 1273 ई०
34. समर सिंह - 1273 - 1301 ई० (एक पुत्र कुम्भकरण नेपाल चले गए नेपाल के राज वंश के शासक कुम्भकरण के ही वंशज हैं) 

35.रतन सिंह ( 1301-1303 ई० ) - इनके कार्यकाल में अलाउद्दीन खिलजी ने चित्तौडगढ पर अधिकार कर लिया। प्रथम जौहर पदमिनी रानी ने सैकडों महिलाओं के साथ किया। गोरा - बादल का प्रतिरोध और युद्ध भी प्रसिद्ध रहा।

36. महाराणा हमीर सिंह ( 1326 - 1364 ई० ) - हमीर ने अपनी शौर्य, पराक्रम एवं कूटनीति से मेवाड राज्य को तुगलक से छीन कर उसकी खोई प्रतिष्ठा पुनः स्थापित की और अपना नाम अमर किया महाराणा की उपाधि धारं किया। इसी समय से ही मेवाड नरेश महाराणा उपाधि धारण करते आ रहे हैं। इनके वंसज सिसोदिया कहलाये इनके छोटे पुत्र सज्जन सिंह सत्तार दक्षिण (महाराष्ट्र) में चले गए

**A – मेवाड़ सिसोदिया (क्षेत्र सिंह)
**B – महाराष्ट सिसोदिया (सज्जन सिंह)

A (क्षेत्र सिंह से)
37.A महाराणा क्षेत्र सिंह,
38.A महाराणा लाखा सिंह 
39.A महाराणा मोकल सिंह 1421/1433 
40.A महाराणा कुम्भकर्ण सिंह 1433/1468 
41.A महाराणा उदय सिंह I 1468/1473 
42.A महाराणा रैमल सिंह 1473/1508, 
43.A महाराणा संग्राम सिंह I 1508/1528 
44.A महाराणा रतन सिंह 1528/1531, 
45.A महाराणा विक्रमादित्य सिंह 1531/1536 
46.A महाराणा उदय सिंह II, 1537/1572, -
47.A महाराणा प्रताप सिंह II, 1572/1597, 

B (सज्जन सिंह से)
37.B सज्जन सिंह (सिम्हा1310) 
38.B दिलीप सिंह -
39.B शिवाजी प्रथम 
40.B भोसजी 
41.B देवराजजी -
42.B उग्रसेन -
43.B माहुलजी -
44.B खेलोजी
45.B जानकोजी
46.B संभाजी
47.B बाबाजी
48.B मालोजी
49.B शहाजी 
50.B छत्रपति शिवाजी

कर्नाटक में मूढोल रियासत के घोरपोडे परिवार के पास आज भी वो फ़ारसी फरमान सुरक्षित है जिनमे भोंसले और घोरपोड़े वंशो को मेवाड़ के सिसोदिया वंश से निकला हुआ बताया गया है। मूढोल के घोरपोडे पहले राणा उपाधी लगाते थे।

यहाँ तक की शिवाजी महाराज से भी पहले उनके पिता शाह जी खुद को सिसोदिया राजपूतो का वंशज बताते थे। शिवाजी राजे के राज्याभिषेक से भी बहुत पहले शाहजी राजे के दरबारी कवि जयराम ने उनको राजा दलीप का वंशज और धरती पर सब राजाओं में श्रेष्ठ हिंदुआ सूरज मेवाड़ के महाराणाओं के परिवार में पैदा होना बताया है। वो लिखते है-
महिच्या महेंद्रामध्ये मुख्य राणा।दलिपास त्याच्या कुळी जन्म जाणा।।
त्याच्या कुळी माल भूपाळ झाला।जळाने जये शंभू सम्पूर्ण केला।।

उस समय के कई यूरोपीय और अन्य रिकॉर्ड में शिवाजी राजे को राजपूत लिखा गया है जिससे ये पता चलता है कि उस समय उत्तर भारत के क्षत्रियो की तरह मराठा देश के क्षत्रियो को भी राजपूत कहा जाने लगा था।

ईस्ट इंडिया कंपनी के 28 नवंबर1659 के एक लेख के अनुसार- "Sevagy, a great Rashpoote issues forth from his fort Rayguhr to strike blows on the Emperor, Duccan, Golconda and the Portuguese." 

जयपुर आर्काइव में सुरक्षित उस समय के एक लेख में शिवाजी राजे के राजपूती स्वभाव और आचरण की तारीफ़ करी है। उसके अनुसार- "Shivaji is very clever; he speaks the right word, after which nobody need say anything on the subject. He is a good genuine Rajput....and says appropriate things marked by the spirit of a Rajput."

कृष्णाजी अनंत सभासद जो शिवाजी राजे की सेवा में थे, उन्होंने सभासद बाखर नामक ग्रन्थ में आँखों देखा हाल लिखा है। उसमे लिखा है की राजा जय सिंह ने शिवाजी राजे को राजपूत माना और राजपूत होने के नाते धर्मांध औरंगजेब के सामने उनका सहयोग करने का वचन दिया। इसके अलावा इस ग्रन्थ में शिवाजी राजे द्वारा खुद को राजपूत कहने का वर्णन भी मिलता है। जब शाइस्ता खान ने विशाल सेना के साथ आक्रमण किया तो शिवाजी ने अपने सभी कारकूनो, सरनोबत और महत्वपूर्ण लोगो को रायगढ़ बुलाकर उनकी राय लेनी चाही। सभी लोगो ने मुग़लो से संधि करने की राय दी क्योंकि उनके अनुसार उनके पास मुग़लो की विशाल सेना का सामना करने की क्षमता नही है। शिवाजी राजे उनसे सहमत नही हुए और उन्होंने कहा की- " If peace is decided on, there is no influential Rajput, (with the Khan) as would, (considering the fact that) we are Rajputs and he too is a Rajput, protect the Hindu religion and guard our interests. Saista Khan is a Mahomedan, a relation of the Badshah ; bribe and corruption cannot be practised on him. Nor will the Khan protect us. If I meet him in peace, he will bring about (our) destruction. It is injurious to us."

इस तरह भोंसले वंश का सिसोदिया वंश से निकास और असली क्षत्रिय वंश होना प्रमाणित होता है।

प्रौढप्रताप पुरंदर क्षत्रिय कुलावतांश सिंहासनाधीश्वर महाराजाधिराज छत्रपति शिवाज़ीमहाराज़ !!!!
राजाधिराज महाराज शिवराय राज श्री छत्रपती
कर्तव्यदक्ष सिंहासिनाधीश्वर छत्रपती शिवराय
दुर्गपती गज अश्व पती ! सुवर्ण रत्न श्रीपती !
अष्टावधान प्रेष्टीत ! अष्टप्रधान वेष्टित !
राजनीती धुरंदर ! प्रौढप्रताप पुरंदर !
क्षत्रिय कुलावतंस सिहासानाधीश्वर महाराजाधिराज 
छत्रपती शिवाजी महाराज कि जय!

सन्दर्भ-
1.चिन्तामण विनायक वैद्य की शिवाजी-दी फाउंडर ऑफ़ मराठा स्वराज पुस्तक के पृष्ठ क्रमांक ६ से १०
2.कोल्हापुर राजपरिवार का इतिहास। 3.मेवाड़ राजपरिवार का इतिहास।
4.कर्नल टॉड द्वारा लिखित इतिहास। 5. http://horsesandswords.blogspot.in/2012/01/shivajis-rajput-ancestry.html?m=13'भारत माँ के महान सपूत हिन्दू ह्रदय सम्राट क्षत्रपति शिवाजी महाराज को उनके जन्मदिवस पर शत् शत् नमन_/\_
क्षत्रपति शिवाजी राजे भोंसले का जन्म 19 फ़रवरी 1630 को पश्चिमी महाराष्ट्र के शिवनेरी दुर्ग में हुआ था। उनके पिता शाहजी भोंसले और माता जीजाबाई थी जो जाधव(यदुवंशी) वंश के क्षत्रियोँ की पुत्री थीं जिन्होंने महाराष्ट्र में कई सदियोँ तक राज किया था। भोंसले वंश मराठा देश के क्षत्रियो का प्रमुख वंश है जिसका निकास मेवाड़ के गहलोत/सिसोदिया वंश से हुआ है। इस तरह भारत के दो महान सुपुत्र और क्षत्रियों के गौरव महाराणा प्रताप और शिवाजी राजे एक ही वंश से संबंध रखते हैँ।
शिवाजी राजे के पिता शाहजी राजे दक्षिण भारत के एक शक्तिशाली सामंत थे और उनकी माता जीजाबाई एक आदर्श क्षत्राणी और असाधारण महिला थी। उनका बचपन अपनी माता के संरक्षण में ही बीता। शिवाजी महाराज बचपन से ही बहुत तेज दिमाग और प्रतिभाशाली थे। उनकी माता जिजाऊ ने एक आदर्श क्षत्राणी की तरह उनमे देशभक्ति और बलिदान की भावना कूट कूट कर भर दी थी। बचपन से ही शिवाजी राजे के ह्रदय में स्वतंत्रता की लौ प्रज्वलित हो गई थी और विदेशी शाशन की बेड़िया तोड़ने का उन्होंने संकल्प ले लिया था।
उन्होंने कम उम्र में ही विदेशियों से अपनी मातृभूमि को मुक्त कराने का अभियान छेड़ दिया और जीवन भर संघर्ष करते हुए अपनी शूरवीरता और बुद्धिमता के बल पर दक्षिण भारत में विजयनगर साम्राज्य के बाद पहला स्वतंत्र हिन्दू राज्य स्थापित कर लिया। उन्होंने मराठा देश के सभी क्षत्रियोँ को ही नहीँ बल्कि सभी हिन्दू जातियों के लोगो को संगठित कर के विशाल और अपराजेय सेना का निर्माण किया। हालांकि उन्हें बचपन में कोई ख़ास शिक्षा नही मिली लेकिन दादा कोंडदेव उनके राजनितिक गुरु थे और राजे शुक्राचार्य और कौटिल्य की नीतियों को आदर्श मानते थे। उनकी सफलता में उनकी बुद्धिमता और कूटनीति का बहुत बड़ा योगदान था। चाहे अफजल खान से भिड़ंत हो या आगरा के दरबार में नजरबन्द होने के बाद वहॉ से निकलना या फिर अनेको किलो को बिना रक्त बहाए जीतना या विशाल सेनाओ के विरुद्ध छापामार शैली में लड़कर जीतना,इस तरह के शिवाजी राजे की बुद्धिमता और कूटनीति के अनेको उदाहरण है। इतिहास में शिवाजी राजे जैसा बुद्धिमान और कूटनीतिज्ञ शाशक शायद ही कोई रहा होगा जिन्होंने बहुत कम संसाधनों के साथ अपने से कहीँ विशाल साम्राज्यो से संघर्ष करते हुए बुद्धि और कूटनीति के बल पर एक विशाल और ताकतवर साम्राज्य स्थापित किया।

शिवाजी राजे महान सेनानायक के साथ ही एक कुशल और प्रबुद्ध सम्राट के रूप में भी जाने जाते है। प्रशाशन की बागडोर वो सीधे अपने हाथो में ही रखते थे। राज्याभिषेक होने के बाद उन्होंने हिन्दू शास्त्रो के आधार पर एक सुदृढ़ प्रशासनिक और न्याय तंत्र विकसित किया। वो एक कट्टर हिन्दू थे लेकिन उन्होंने सहिष्णुता की नीती अपनाई। हिन्दू स्वराज स्थापित करने के बाद भी मुसलमानो को पूर्ण धार्मिक स्वतंत्रता दी।
~~भोंसले वंश के क्षत्रियत्व का प्रमाण~~
शिवाजी राजे के राज्याभिषेक की प्रक्रिया जब शुरू हुई तो महाराष्ट्र के ब्राह्मणों ने दुर्भावनावष उनके क्षत्रिय होने पर सवाल उठाकर उनका राज्याभिषेक करने से मना कर दिया। उनके क्षत्रियत्व पर वो ही लोग आज तक भी दुष्पचार कर रहे है जबकि उनके बनाए हुए साम्राज्य का सबसे ज्यादा लाभ इन्हीं लोगो ने उठाया। जब महाराष्ट्र के ब्राह्मणों ने उनका राज्याभिषेक करने से मना कर दिया तो बनारस के एक ब्राह्मण गागभट्ट को बुलाया गया जिनके सामने भोंसले वंश के मेवाड़ के गहलोत/सिसोदिया वंश की शाखा होने के प्रमाण रखे गए। इनसे संतुष्ट होकर पंडित गागभट्ट ने शिवाजी का राज्याभिषेक किया। इन प्रमाणो के अनुसार महाराणा हम्मीर सिंह के छोटे पुत्र सज्जन सिंह अपने साथियों के साथ दक्षिण चले गए और वहॉ उनके वंशजो से मराठा क्षत्रियोँ के भोंसले और घोरपड़े वंश चले। इनकी वंशावली निम्न प्रकार से है-
1. रावल बप्पा ( काल भोज ) - 734 ई० मेवाड राज्य में गहलौत शासन के सूत्रधार।
2. रावल खुमान - 753 ई०
3. मत्तट - 773 - 793 ई०
4. भर्तभट्त - 793 - 813 ई०
5. रावल सिंह - 813 - 828 ई०
6. खुमाण सिंह - 828 - 853 ई०
7. महायक - 853 - 878 ई०
8. खुमाण तृतीय - 878 - 903 ई०
9. भर्तभट्ट द्वितीय - 903 - 951 ई०
10. अल्लट - 951 - 971 ई०
11. नरवाहन - 971 - 973 ई०
12. शालिवाहन - 973 - 977 ई०
13. शक्ति कुमार - 977 - 993 ई०
14. अम्बा प्रसाद - 993 - 1007 ई०
15. शुची वरमा - 1007- 1021 ई०
16. नर वर्मा - 1021 - 1035 ई०
17. कीर्ति वर्मा - 1035 - 1051 ई०
18. योगराज - 1051 - 1068 ई०
19. वैरठ - 1068 - 1088 ई०
20. हंस पाल - 1088 - 1103 ई०
21. वैरी सिंह - 1103 - 1107 ई०
22. विजय सिंह - 1107 - 1127 ई०
23. अरि सिंह - 1127 - 1138 ई०
24. चौड सिंह - 1138 - 1148 ई०
25. विक्रम सिंह - 1148 - 1158 ई०
26. रण सिंह ( कर्ण सिंह ) - 1158 - 1168 ई०
27. क्षेम सिंह - 1168 - 1172 ई०
28. सामंत सिंह - 1172 - 1179 ई०
29. कुमार सिंह - 1179 - 1191 ई०
30. मंथन सिंह - 1191 - 1211 ई०
31. पद्म सिंह - 1211 - 1213 ई०
32. जैत्र सिंह - 1213 - 1261 ई०
33. तेज सिंह -1261 - 1273 ई०
34. समर सिंह - 1273 - 1301 ई० (एक पुत्र कुम्भकरण नेपाल चले गए नेपाल के राज वंश के शासक कुम्भकरण के ही वंशज हैं)
35.रतन सिंह ( 1301-1303 ई० ) - इनके कार्यकाल में अलाउद्दीन खिलजी ने चित्तौडगढ पर अधिकार कर लिया। प्रथम जौहर पदमिनी रानी ने सैकडों महिलाओं के साथ किया। गोरा - बादल का प्रतिरोध और युद्ध भी प्रसिद्ध रहा।
36. महाराणा हमीर सिंह ( 1326 - 1364 ई० ) - हमीर ने अपनी शौर्य, पराक्रम एवं कूटनीति से मेवाड राज्य को तुगलक से छीन कर उसकी खोई प्रतिष्ठा पुनः स्थापित की और अपना नाम अमर किया महाराणा की उपाधि धारं किया। इसी समय से ही मेवाड नरेश महाराणा उपाधि धारण करते आ रहे हैं। इनके वंसज सिसोदिया कहलाये इनके छोटे पुत्र सज्जन सिंह सत्तार दक्षिण (महाराष्ट्र) में चले गए
**A – मेवाड़ सिसोदिया (क्षेत्र सिंह)
**B – महाराष्ट सिसोदिया (सज्जन सिंह)
A (क्षेत्र सिंह से)
37.A महाराणा क्षेत्र सिंह,
38.A महाराणा लाखा सिंह
39.A महाराणा मोकल सिंह 1421/1433
40.A महाराणा कुम्भकर्ण सिंह 1433/1468
41.A महाराणा उदय सिंह I 1468/1473
42.A महाराणा रैमल सिंह 1473/1508,
43.A महाराणा संग्राम सिंह I 1508/1528
44.A महाराणा रतन सिंह 1528/1531,
45.A महाराणा विक्रमादित्य सिंह 1531/1536
46.A महाराणा उदय सिंह II, 1537/1572, -
47.A महाराणा प्रताप सिंह II, 1572/1597,
B (सज्जन सिंह से)
37.B सज्जन सिंह (सिम्हा1310)
38.B दिलीप सिंह -
39.B शिवाजी प्रथम
40.B भोसजी
41.B देवराजजी -
42.B उग्रसेन -
43.B माहुलजी -
44.B खेलोजी
45.B जानकोजी
46.B संभाजी
47.B बाबाजी
48.B मालोजी
49.B शहाजी
50.B छत्रपति शिवाजी
कर्नाटक में मूढोल रियासत के घोरपोडे परिवार के पास आज भी वो फ़ारसी फरमान सुरक्षित है जिनमे भोंसले और घोरपोड़े वंशो को मेवाड़ के सिसोदिया वंश से निकला हुआ बताया गया है। मूढोल के घोरपोडे पहले राणा उपाधी लगाते थे।
यहाँ तक की शिवाजी महाराज से भी पहले उनके पिता शाह जी खुद को सिसोदिया राजपूतो का वंशज बताते थे। शिवाजी राजे के राज्याभिषेक से भी बहुत पहले शाहजी राजे के दरबारी कवि जयराम ने उनको राजा दलीप का वंशज और धरती पर सब राजाओं में श्रेष्ठ हिंदुआ सूरज मेवाड़ के महाराणाओं के परिवार में पैदा होना बताया है। वो लिखते है-
महिच्या महेंद्रामध्ये मुख्य राणा।दलिपास त्याच्या कुळी जन्म जाणा।।
त्याच्या कुळी माल भूपाळ झाला।जळाने जये शंभू सम्पूर्ण केला।।
उस समय के कई यूरोपीय और अन्य रिकॉर्ड में शिवाजी राजे को राजपूत लिखा गया है जिससे ये पता चलता है कि उस समय उत्तर भारत के क्षत्रियो की तरह मराठा देश के क्षत्रियो को भी राजपूत कहा जाने लगा था।
ईस्ट इंडिया कंपनी के 28 नवंबर1659 के एक लेख के अनुसार- "Sevagy, a great Rashpoote issues forth from his fort Rayguhr to strike blows on the Emperor, Duccan, Golconda and the Portuguese."
जयपुर आर्काइव में सुरक्षित उस समय के एक लेख में शिवाजी राजे के राजपूती स्वभाव और आचरण की तारीफ़ करी है। उसके अनुसार- "Shivaji is very clever; he speaks the right word, after which nobody need say anything on the subject. He is a good genuine Rajput....and says appropriate things marked by the spirit of a Rajput."
कृष्णाजी अनंत सभासद जो शिवाजी राजे की सेवा में थे, उन्होंने सभासद बाखर नामक ग्रन्थ में आँखों देखा हाल लिखा है। उसमे लिखा है की राजा जय सिंह ने शिवाजी राजे को राजपूत माना और राजपूत होने के नाते धर्मांध औरंगजेब के सामने उनका सहयोग करने का वचन दिया। इसके अलावा इस ग्रन्थ में शिवाजी राजे द्वारा खुद को राजपूत कहने का वर्णन भी मिलता है। जब शाइस्ता खान ने विशाल सेना के साथ आक्रमण किया तो शिवाजी ने अपने सभी कारकूनो, सरनोबत और महत्वपूर्ण लोगो को रायगढ़ बुलाकर उनकी राय लेनी चाही। सभी लोगो ने मुग़लो से संधि करने की राय दी क्योंकि उनके अनुसार उनके पास मुग़लो की विशाल सेना का सामना करने की क्षमता नही है। शिवाजी राजे उनसे सहमत नही हुए और उन्होंने कहा की- " If peace is decided on, there is no influential Rajput, (with the Khan) as would, (considering the fact that) we are Rajputs and he too is a Rajput, protect the Hindu religion and guard our interests. Saista Khan is a Mahomedan, a relation of the Badshah ; bribe and corruption cannot be practised on him. Nor will the Khan protect us. If I meet him in peace, he will bring about (our) destruction. It is injurious to us."
इस तरह भोंसले वंश का सिसोदिया वंश से निकास और असली क्षत्रिय वंश होना प्रमाणित होता है।
प्रौढप्रताप पुरंदर क्षत्रिय कुलावतांश सिंहासनाधीश्वर महाराजाधिराज छत्रपति शिवाज़ीमहाराज़ !!!!
राजाधिराज महाराज शिवराय राज श्री छत्रपती
कर्तव्यदक्ष सिंहासिनाधीश्वर छत्रपती शिवराय
दुर्गपती गज अश्व पती ! सुवर्ण रत्न श्रीपती !
अष्टावधान प्रेष्टीत ! अष्टप्रधान वेष्टित !
राजनीती धुरंदर ! प्रौढप्रताप पुरंदर !
क्षत्रिय कुलावतंस सिहासानाधीश्वर महाराजाधिराज
छत्रपती शिवाजी महाराज कि जय!
सन्दर्भ-
1.चिन्तामण विनायक वैद्य की शिवाजी-दी फाउंडर ऑफ़ मराठा स्वराज पुस्तक के पृष्ठ क्रमांक ६ से १०
2.कोल्हापुर राजपरिवार का इतिहास। 3.मेवाड़ राजपरिवार का इतिहास।
4.कर्नल टॉड द्वारा लिखित इतिहास। 5. http://horsesandswords.blogspot.in/…/shivajis-rajput-ancest…

Thursday, January 15, 2015

मुंढाड राजपूत वंश,history of rajput in Haryana

न्याय का पर्याय'' मुंढाड चबूतरा , कलायत (हरियाणा) ::-- मुंढाड 360 गांव का पवित्र चबूतरा........
मुंढाड राजपूत वंश परिचय----
.........न्याय का पर्याय'' मुंढाड चबूतरा , कलायत (हरियाणा) ::-- मुंढाड 360 गांव का पवित्र चबूतरा........

मुंढाड राजपूत वंश परिचय----

कलायत नगर और मुंढाड राजपूत वंश प्राचीनकाल से ही प्रसिद्ध है।अंग्रेजो द्वारा लिखित सरकारी गजेटियर करनाल के पृष्ठ नं 74 पर इसका वर्णन मिलता है। महान इतिहासकर ठाकुर ईश्वर सिंह मुंढाड द्वारा राजपूत वंशावली में इस वंश का सुंदर वर्णन मिलता है।
इसके अलावा राजस्थान के प्रसिद्ध जग्गेभटो के बहीखातों में भी शक सम्वत् सहित क्षत्रिय मडाढों के 360 गांव के अधिकार के साम्राज्य का विस्तृत वर्णन मिलता है। राजपूत वंशावली के अनुसार क्षत्रिय मुंढाड आदि पुरुष मर्यादा पुरुषोत्तम राम के अनुज भ्राता ‘लक्ष्मण’ के वंशज है। मुंढाड राजपूत प्रतिहार वंश की शाखा हैं जिनका कभी पुरे गुजरात पर शासन था।गुजरात पर शासन करने के कारण यह क्षत्रिय राजपूत वंश गुर्जर प्रतिहार और बाद में बडगूजर कहलाया।

राजौरगढ़ भी इन्ही के शासन में था।वहां का शासन छूटने के बाद ये मेवाड़ होते हुए हरियाणा आये। यहाँ पहले जिंद्रा ने जींद बसाया।1100 ई. में मडाढों के महाराजा साढदेव ने जीन्द को ब्राह्मणों को दान करके चंदेल गोत्र के राजपूतों से सातों दुर्ग जीतकर कलायत को अपनी नई राजधानी बनाया और 360 गांव को अपने अधीन कर लिया। वराहा राजपूतो को सालवन से हटाकर कब्जा किया।इनके क्षेत्र को नरदक धरा और मुंढाड वंश को नरदक धरा का राजवी कहा जाता है।
मुंढाढ़ों के राजा साढ्देव ने कलायत को अपनी राजधानी बनाया और तीन सौ साठ गाँवों को अपने आधीन कर लिया.

परिहार(प्रतिहार),बडगूजर,सिकरवार,मुंढाड,खड़ाड ये चारो राजपूत वंश एक ही शाखा से हैं और राघव(रघुवंशी)कहलाते हैं इसलिए आपस में शादी ब्याह नही करते।परिहारों(प्रतिहारो)ने कन्नौज को राजधानी बनाकर पुरे उत्तर भारत पर शासन किया।कन्नौज के प्रतिहार(परिहार)राजपूत राजाओं में नागभट्ट और मिहिरभोज बहुत प्रतापी हुए हैं जिन्होंने अरबो को भारत में घुसने नही दिया।

मुंढाड राजपूतो ने तैमूर का डटकर सामना किया,बाबर के समय मोहन सिंह मुंढाड ने इसी परम्परा को आगे बढ़ाया।समय समय पर ये महाराणा मेवाड़ की और से भी मुगलो के खिलाफ लड़े।जोधपुर के बालक राजा अजीत सिंह राठौर को ओरंगजेब से बचाकर ले जाने में इन्होने दुर्गादास राठौर का सहयोग किया।अंग्रेजो के खिलाफ भी इन्होंने जमकर लोहा लिया।
तभी इनके बारे में कहा जाता है,,
"मुगल हो या गोरे,लड़े मुंढाडो के छोरे"।

धर्म परिवर्तन ने इस वंश को बहुत सीमित कर दिया।हरियाणा में अधिकांश राजपूतो द्वारा इस्लाम धर्म ग्रहण कर लिया और विभाजन के बाद मुस्लिम राजपूत रांघड पाकिस्तान चले गए।जिससे हरियाणा में राजपूतो की संख्या बेहद कम हो गयी और जो हरियाणा राजपूतो का गढ़ था वो आज जाटलैंड बन गया है।
अब मुंढाड राजपूत वंश हरियाणा के 60 गांव में बसता है। 

अन्य जातियों में मुंढाड वंश-----
कुछ मुंढाड राजपूतो द्वारा दूसरी जातियों की स्त्रियों से विवाह के कारण उनकी सन्तान वर्णसनकर होकर दूसरी जातियों में मिल गए।धुल मंधान जाट इन्ही मुंढाड राजपूतो के वंशज हैं इसी प्रकार गूजर और अहिरो में भी मडाड वंश मिलता है। 

लाल चबूतरे की स्थापना---

इसके बाद इसी वंश ने तीन सौ साठ गाँवों की छतीस बिरादरियों को एकता के सूत्र में पिरोने के लिए मुग़ल शाशक औरंगजेब के शाशनकाल में बड़े मुंढाड चबूतरे की नींव रखी। यह बड़ा चबूतरा मडाढ 360 वर्तमान में जिसे लाल चबूतरा भी कहते हैं, 
जब भी इन गाँवों में किसी भी जाति वर्ग का विवाद होता था तो इस चबूतरे को साक्षी मानकर विभिन्न गाँवों के प्रतिनिधियों की पंचायत होती थी और फैसले किये जाते थे यही कारण है की आज भी इस चबूतरे को न्याय का पर्याय माना जाता है और इसे पुराने ज़माने की कचहरी कहा जाता है।

यह बड़ा चबूतरा पुराने जमाने की कोर्ट से कम नहीं था। हर वर्ग का आरोपी इस पवित्र व न्यायप्रिय चबूतरे के ऊपर पांव रखने पर स्वयं की अत्मा की सच्चाई उगलने पर मजबूर हो जाता था। आज भी यह बड़ा चबूतरा हर वर्ग के न्याय व शक्ति का प्रतीक है। आजादी से पहले इस बड़े चबूतरे का प्रचलन खूब चला और आजादी के बाद यह प्रचलन आसपास के कुछ गांव तक ही सिमट कर रह गया। 
अगर किसी वर्ग के व्यक्ति ने अपनी लापरवाही के कारण झूठ भी बोल दिया तो उस व्यक्ति का वंश ही मिट जाता था। यह सच कई वर्ग के व्यक्तियों पर साबित हुआ। आज भी इस चबूतरे के सामने से 36 बिरादरी का कोई भी नर या नारी निकलता है तो वह अपना शीश झुकाकर निकलता है।

बड़े बड़े राजनेता इस चबूतरे पर माथा टेककर राजनीती में विधायक सांसद और मंत्री,सीएम बने हैं जिनमे लाला बृजभान मुनक वाले, ओमप्रभा जैन,गीता भुक्कल,जयप्रकाश प्रमुख हैं।

आज भी कलायत गांव व अन्य किसी भी गांव पर कोई आपत्ति आती है तो इस चबूतरे पर ही हल किया जाता है। कलायत के क्षत्रिय मुडाढों ने काफी वर्षों से क्षत्रिय मडाढ सभा रजिस्टर्ड का गठन किया हुआ है, 
समय-समय पर क्षत्रिय मडाढों की सभा होती रहती है तथा इस कलायत क्षत्रिय मडाढ सभा के संस्थापक रविन्द्र सूर्यवंशी व पूर्व प्रधान मोहन राणा तथा वर्तमान प्रधान सलिन्दर राणा हैं। इसी बड़े चबूतरे पर आज भी हरियाणा राज्य व अन्य राज्यों की महापंचायतों के फैसले सुनाए जाते हैं।
note-यह पोस्ट ठाकुर ईश्वर सिंह मुंढाड जी की राजपूत वनशावली के पृष्ठ संख्या 93 से 96,ब्रिटिश कालीन करनाल गजेटियर,Thakur's era page की कलायत लाल चबूतरा आर्टिकल के आधार पर तैयार की गयी है।कोई त्रुटि हो या पूरक जानकारी हो तो कमेंट में जानकारी देने की कृपा करें।हम तथ्य का परीक्षण कर आर्टिकल एडिट कर देंगे।
निवेदन-कृपया पोस्ट को ज्यादा से ज्यादा शेयर करें।कॉपी पेस्ट न करें। कलायत नगर और मुंढाड राजपूत ...वंश प्राचीनकाल से ही प्रसिद्ध है।अंग्रेजो द्वारा लिखित सरकारी गजेटियर करनाल के पृष्ठ नं 74 पर इसका वर्णन मिलता है। महान इतिहासकर ठाकुर ईश्वर सिंह मुंढाड द्वारा राजपूत वंशावली में इस वंश का सुंदर वर्णन मिलता है।
इसके अलावा राजस्थान के प्रसिद्ध जग्गेभटो के बहीखातों में भी शक सम्वत् सहित क्षत्रिय मडाढों के 360 गांव के अधिकार के साम्राज्य का विस्तृत वर्णन मिलता है। राजपूत वंशावली के अनुसार क्षत्रिय मुंढाड आदि पुरुष मर्यादा पुरुषोत्तम राम के अनुज भ्राता ‘लक्ष्मण’ के वंशज है। मुंढाड राजपूत प्रतिहार वंश की शाखा हैं जिनका कभी पुरे गुजरात पर शासन था।गुजरात पर शासन करने के कारण यह क्षत्रिय राजपूत वंश गुर्जर प्रतिहार और बाद में बडगूजर कहलाया।

राजौरगढ़ भी इन्ही के शासन में था।वहां का शासन छूटने के बाद ये मेवाड़ होते हुए हरियाणा आये। यहाँ पहले जिंद्रा ने जींद बसाया।1100 ई. में मडाढों के महाराजा साढदेव ने जीन्द को ब्राह्मणों को दान करके चंदेल गोत्र के राजपूतों से सातों दुर्ग जीतकर कलायत को अपनी नई राजधानी बनाया और 360 गांव को अपने अधीन कर लिया। वराहा राजपूतो को सालवन से हटाकर कब्जा किया।इनके क्षेत्र को नरदक धरा और मुंढाड वंश को नरदक धरा का राजवी कहा जाता है।
मुंढाढ़ों के राजा साढ्देव ने कलायत को अपनी राजधानी बनाया और तीन सौ साठ गाँवों को अपने आधीन कर लिया.

परिहार(प्रतिहार),बडगूजर,सिकरवार,मुंढाड,खड़ाड ये चारो राजपूत वंश एक ही शाखा से हैं और राघव(रघुवंशी)कहलाते हैं इसलिए आपस में शादी ब्याह नही करते।परिहारों(प्रतिहारो)ने कन्नौज को राजधानी बनाकर पुरे उत्तर भारत पर शासन किया।कन्नौज के प्रतिहार(परिहार)राजपूत राजाओं में नागभट्ट और मिहिरभोज बहुत प्रतापी हुए हैं जिन्होंने अरबो को भारत में घुसने नही दिया।
मुंढाड राजपूतो ने तैमूर का डटकर सामना किया,बाबर के समय मोहन सिंह मुंढाड ने इसी परम्परा को आगे बढ़ाया।समय समय पर ये महाराणा मेवाड़ की और से भी मुगलो के खिलाफ लड़े।जोधपुर के बालक राजा अजीत सिंह राठौर को ओरंगजेब से बचाकर ले जाने में इन्होने दुर्गादास राठौर का सहयोग किया।अंग्रेजो के खिलाफ भी इन्होंने जमकर लोहा लिया।
तभी इनके बारे में कहा जाता है,,
"मुगल हो या गोरे,लड़े मुंढाडो के छोरे"।
धर्म परिवर्तन ने इस वंश को बहुत सीमित कर दिया।हरियाणा में अधिकांश राजपूतो द्वारा इस्लाम धर्म ग्रहण कर लिया और विभाजन के बाद मुस्लिम राजपूत रांघड पाकिस्तान चले गए।जिससे हरियाणा में राजपूतो की संख्या बेहद कम हो गयी और जो हरियाणा राजपूतो का गढ़ था वो आज जाटलैंड बन गया है।
अब मुंढाड राजपूत वंश हरियाणा के 60 गांव में बसता है।
अन्य जातियों में मुंढाड वंश-----
कुछ मुंढाड राजपूतो द्वारा दूसरी जातियों की स्त्रियों से विवाह के कारण उनकी सन्तान वर्णसनकर होकर दूसरी जातियों में मिल गए।धुल मंधान जाट इन्ही मुंढाड राजपूतो के वंशज हैं इसी प्रकार गूजर और अहिरो में भी मडाड वंश मिलता है।
लाल चबूतरे की स्थापना---
इसके बाद इसी वंश ने तीन सौ साठ गाँवों की छतीस बिरादरियों को एकता के सूत्र में पिरोने के लिए मुग़ल शाशक औरंगजेब के शाशनकाल में बड़े मुंढाड चबूतरे की नींव रखी। यह बड़ा चबूतरा मडाढ 360 वर्तमान में जिसे लाल चबूतरा भी कहते हैं,
जब भी इन गाँवों में किसी भी जाति वर्ग का विवाद होता था तो इस चबूतरे को साक्षी मानकर विभिन्न गाँवों के प्रतिनिधियों की पंचायत होती थी और फैसले किये जाते थे यही कारण है की आज भी इस चबूतरे को न्याय का पर्याय माना जाता है और इसे पुराने ज़माने की कचहरी कहा जाता है।
यह बड़ा चबूतरा पुराने जमाने की कोर्ट से कम नहीं था। हर वर्ग का आरोपी इस पवित्र व न्यायप्रिय चबूतरे के ऊपर पांव रखने पर स्वयं की अत्मा की सच्चाई उगलने पर मजबूर हो जाता था। आज भी यह बड़ा चबूतरा हर वर्ग के न्याय व शक्ति का प्रतीक है। आजादी से पहले इस बड़े चबूतरे का प्रचलन खूब चला और आजादी के बाद यह प्रचलन आसपास के कुछ गांव तक ही सिमट कर रह गया।
अगर किसी वर्ग के व्यक्ति ने अपनी लापरवाही के कारण झूठ भी बोल दिया तो उस व्यक्ति का वंश ही मिट जाता था। यह सच कई वर्ग के व्यक्तियों पर साबित हुआ। आज भी इस चबूतरे के सामने से 36 बिरादरी का कोई भी नर या नारी निकलता है तो वह अपना शीश झुकाकर निकलता है।
बड़े बड़े राजनेता इस चबूतरे पर माथा टेककर राजनीती में विधायक सांसद और मंत्री,सीएम बने हैं जिनमे लाला बृजभान मुनक वाले, ओमप्रभा जैन,गीता भुक्कल,जयप्रकाश प्रमुख हैं।
आज भी कलायत गांव व अन्य किसी भी गांव पर कोई आपत्ति आती है तो इस चबूतरे पर ही हल किया जाता है। कलायत के क्षत्रिय मुडाढों ने काफी वर्षों से क्षत्रिय मडाढ सभा रजिस्टर्ड का गठन किया हुआ है,
समय-समय पर क्षत्रिय मडाढों की सभा होती रहती है तथा इस कलायत क्षत्रिय मडाढ सभा के संस्थापक रविन्द्र सूर्यवंशी व पूर्व प्रधान मोहन राणा तथा वर्तमान प्रधान सलिन्दर राणा हैं। इसी बड़े चबूतरे पर आज भी हरियाणा राज्य व अन्य राज्यों की महापंचायतों के फैसले सुनाए जाते हैं।
note-यह पोस्ट ठाकुर ईश्वर सिंह मुंढाड जी की राजपूत वनशावली के पृष्ठ संख्या 93 से 96,ब्रिटिश कालीन करनाल गजेटियर,Thakur's era page की कलायत लाल चबूतरा आर्टिकल के आधार पर तैयार की गयी है