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Sunday, December 2, 2018

राजा महेन्द्र प्रताप सिंह-अखंड भारत के प्रथम राष्ट्रपति

आजाद हिंद सरकार के संस्थापक महान स्वतन्त्रता सेनानी राजा महेंद्र प्रताप सिंह(1 दिसम्बर 1886-29 अप्रैल1979) जयंती
राजा महेंद्र प्रताप का जन्म मुरसान के राजा बहादुर घनश्याम सिंह के यहाँ खड्ग सिंह के रूप में हुआ।
बाद में उन्हें #हाथरस के राजा हरिनारायण सिंह ने गोद ले लिया व उनका नाम महेंद्र प्रताप रखा।
उन्होने #निर्बल समाचार पत्र की स्थापना की व भारतीयों में स्वतन्त्रता के प्रति जागरूकता लाने का काम किया।
वे विदेश गए कई देशों से भारत की स्वतंत्रता के लिए सहयोग मांगा और इसके बाद #काबुलअफगानिस्तान में देश की प्रथम #आजाद_हिंद_सरकार की स्थापना की।
वहां आजाद हिंद फौज बनाई और अखंड भारत के प्रथम राष्ट्रपति के मानक पद पर आसीन हुए। लेकिन सु वे वहां कामयाब नहीं हो सके।
अंग्रेजों ने इनके #सिर पर इनमे रख दिया था व इसके बाद उनका राज्य हड़प लिया था।
इसके बाद वे दुनिया भर के देशों में समर्थन के लिए घूमे जापान में उन्होंने एग्जेक्युटिव बोर्ड ऑफ इंडिया की स्थापना की और रास बिहारी बोस उनके उपाध्यक्ष थे।
इस दौरान उन्हें
जापान से मार्को पोलो, जर्मनी ने ऑर्डर ऑफ रेड ईगल की उपाधि दी थी। वे चीन की संसद में भाषण देने वाले पहले भारतीय थे।
वे दलाई लामा से भी मिले थे।
बहुत से देशों में पहुँचे व भारतीयों पर हो रहे अत्याचार के बारे में विश्व को जागृत किया।दुनियाभर में फैले भारतीयों व उनके संगठनों को एक किया व फौज के निर्माण के।लिए प्रोत्साहित किया
उन्होंने ग़दर पार्टी के साथ मिलकर भी आजादी के लिए कार्य किया व फौज तैयार करने के लिए सारी योजनाएं बना ली।
फिर जापान से सब तैयार कर लिया लेकिन ऐन मौके पर जापानी मनमानी करते दिखे और अपमानजनक शर्ते रखने लगे तो राजा साहब ने उन्हें फटकार दिया और कहा कि वे अपने अनुसार कार्य करेंगे वे देश को आजाद कराने के लिए लड़ रहे हैं न कि फिर से गुलाम करने के लिए। इस पर जापानी बिफर पड़े उन्हके नजरबंद कर दिया। उसके बाद राजा साहब की सहमति से रास बिहारी बोस जी अध्यक्ष बने। इसी बोर्ड का नाम योजना के हिसाब से आजाद हिंद फौज रखा गया और दूसरी आजाद हिंद फौज तैयार हुई। इस तरह यह फौज एक दिन में नहीं बनी थी बल्कि राजा साहब के पूरे जीवनकाल का तप थी। उसके कुछ समय बाद आजाद हिंद फौज की बागडोर संभालने के लिए नेताजी को बुलाया गया था।
वे विश्वयुद्ध में अंग्रेजो का साथ देने के विरुद्ध थे और उन्होंने इस पर गांधी जी का विरोध किया।
उन्होंने विश्व मैत्री संघ की स्थापना की,उसी तर्ज पर आज uno बनने की शुरुआत हुई थी।
वे 32 सालों तक देश के लिए अपना परिवार छोड़कर दुनिया भर की खाक छानते रहे।
जब वे वापिस भारत पहुंचे तो #सरदार_पटेल जी की बेटी #मणिकाबेन उन्हें हवाई अड्डे पर लेने पहुंची थी।
1952 में उन्हें #नोबल पुरस्कार के लिए भी नामित किया गया था।
1909 में वृन्दावन में #प्रेम महाविद्यालय की स्थापना की जो तकनीकी शिक्षा के लिए भारत में प्रथम केन्द्र था। मदनमोहन मालवीय इसके उद्धाटन समारोह में उपस्थित रहे। ट्रस्ट का निर्माण हुआ-अपने पांच गाँव, वृन्दावन का राजमहल और चल संपत्ति का दान दिया। राजा साहब #श्रीकृष्ण भक्त थे उन्ही के नाम पर उन्होंने देश का यह प्रथम तकनीकी प्रेम महाविद्दालय खोला था।उन्होंने अपनी आधी सम्पति इस विद्यालय को दान कर दी थी।
बनारस #हिंदू विश्वद्यालय, अलीगढ़ विद्द्यालय, #कायस्थ पाठशाला के लिए जमीन दान में दी। हिन्दू विश्वविद्यालय के बोर्ड के #सदस्य भी रहे।
उनकी दृष्टि विशाल थी। वे जाति, वर्ग, रंग, देश आदि के द्वारा मानवता को विभक्त करना घोर अन्याय, पाप और अत्याचार मानते थे। ब्राह्मण-भंगी को भेद बुद्धि से देखने के पक्ष में नहीं थे।
वृन्दावन में ही एक विशाल फलवाले उद्यान को जो 80 एकड़ में था, 1911 में #आर्य_प्रतिनिधि_सभा उत्तर प्रदेश को दान में दे दिया। जिसमें आर्य समाज गुरुकुल है और राष्ट्रीय विश्वविद्यालय भी है।
मथुरा में किसानों के लिए #बैंक खोला, अपने राज्य के गांवों में प्रारंभिक #पाठशालाएंखुलवाई।
उनकी राष्ट्रवादी सोच के कारण कांग्रेस के नेता उन पर RSS का #एजेंट होने का आरोप लगाते रहते थे।
उन्होंने चुनावों में बड़े बड़े दिग्गजों को धूल चटा दी थी।
उन्होंने निर्दलीय उम्मीदवार होते हुए भी भारत के पूर्व प्रधानमंत्री #अटल बिहारी वाजपेयी जी की जमानत जब्त करवा दी थी।
उन्होंने छुआछूत को कम करने के लिए दलितों के साथ एक राजा होते हुए भी खाना खाया जो उस समय एक असामान्य बात थी।उन्होके #चर्मकार समाज को जाटव की उपाधि दी थी।
उन्होंने अपनी सारी #संपत्ति देश और शिक्षा के लिए दान कर दी थी।
अपनी अफगानिस्तान यात्रा के दौरान प्रधानमंत्री मोदी जी ने भी अपने भाषण में इनको नमन किया था।
ऐसे महान दानवीर स्वतन्त्रता सेनानी राष्ट्रवादी समाज सुधारक राजा महेंद्र प्रताप को उनकी जयंती पर उन्हें कोटि कोटि नमन।

Tuesday, July 5, 2016

Gurjar Pratihar -Battle of Herat Gurjar Vs Persian

World Famous Battle of Herat 
  Gurjar Vs Persian
Gurjar Samrat Khushnavaz Hoon 
Date 484 bc

Location Herat, Afghanistan
Result Decisive Hephthalite victory.
Belligerents
Hephthalite(Hoon) Empire; Sassanid Empire
Commanders and leaders
Khushnavaz Peroz I  †
Mihran  †
Strength
Unknown 100,000 soldiers[1]
Casualties and losses
Unknown Heavy
The Battle of Herat was a large scale military confrontation that took place in 484 between an invading force of the Sassanid Empire composed of around 100,000 men[1] under the command of Peroz I and a smaller army of the Hun Empire of Gurjar under the command of Khushnavaz Hoon. The battle was a catastrophic defeat for the Sassanid forces who were almost completely wiped out. Peroz, the Sassanid king, was killed in the action.

In 459, the Hoon(Clan Of Gujjar) occupied Bactria and were confronted by the forces of the Sassanid king, Hormizd III. It was then that Peroz, in an apparent pact with the Hephthalites,[2] killed Hormizd, his brother, and established himself as the new king. He would go on to kill the majority of his family and began a persecution of various Christian sects in his territories.

Peroz quickly moved to maintain peaceful relations with the Byzantine Empire to the west. To the east, he attempted to check the Hephthalites, whose armies had begun their conquest of eastern Iran. The Romans supported the Sassanids in these efforts, sending them auxiliary units. The efforts to deter the Hephthalite expansion met with failure when Peroz chased their forces deep into Hephthalite territory and was surrounded. Peroz was taken prisoner in 481 and was made to deliver his son, Kavadh, as a hostage for three years, further paying a ransom for his release.

It was this humiliating defeat which led Peroz to launch a new campaign against the Hephthalites.

The battle::

In 484, after the liberation of his son, Peroz formed an enormous army and marched northeast to confront the Hephthalites. The king marched his forces all the way to Balkh where he established his base camp and rejected emissaries from the Hunnic king Khushnavaz. Peroz's forces advanced from Balkh to Herat. The Huns, learning of Peroz's way of advance, left troops along his path who proceeded to cut off the eventual Sassanid retreat and surround Peroz's army in the desert around the city of Herat. In the ensuing battle, almost all of the Sassanid army was wiped out. Peroz was killed in the action and most of his commanders and entourage were captured, including two of his daughters. The Gurjar forces proceeded to sack Herat before continuing on to a general invasion of the Sassanid Empire.

Aftermath 

The Huns invaded the Sassanid territories which had been left without a central government following the death of the king. Much of the Sassanid land was pillaged repeatedly for a period of two years until a Persian noble from the House of Karen, Sukhra, restored some order by establishing one of Peroz's brothers, Balash, as the new king. The Hunnic Gurjar menace to Sassanid lands continued until the reign of Khosrau I. Balash failed to take adequate measures to counter the Hephthalite incursions, and after a rule of four years, he was deposed in favor of Kavadh I, his nephew and the son of Peroz. After the death of his father, Kavadh had fled the kingdom and took refuge with his former captors, the Hephthalites, who had previously held him as a hostage. He there married one of the daughters of the Hunnic king, who gave him an army to conquer his old kingdom and take the throne.The Sassanids were made to pay tributes to the Hephthalite Gurjar Empire until 496 when Kavadh was ousted and forced to flee once again to Hephthalite territory. King Djamasp was installed on the throne for two years until Kavadh returned at the head of an army of 30,000 troop and retook his throne, reigning from 498 until his death in 531, when he was succeeded by his son, Khosrau I.

References:

^ a b c d e Heritage World Coin Auction #3010. Boston: Heritage Capital Corporation, 2010, pp. 28
^ a b Frye, 1996: 178
^ a b c Dani, 1999: 140
^ Christian, 1998: 220
Much of the information on this page was translated from its Spanish equivalent.
Bibliography 

David Christian (1998). A history of Russia, Central Asia, and Mongolia. Oxford: Wiley-Blackwell, ISBN 0-631-20814-3.
Richard Nelson Frye (1996). The heritage of Central Asia from antiquity to the Turkish expansion. Princeton: Markus Wiener Publishers, ISBN 1-55876-111-X.
Ahmad Hasan Dani (1999). History of civilizations of Central Asia: Volumen III. Delhi: Motilal Banarsidass Publ., ISBN 81-208-1540-8.

Jewel of Pratihar Rajput saved Bharat from Mohammed गुर्जर सम्राट नागभट प्रतिहार

-------गुर्जर सम्राट नागभट प्रतिहार ----

वीर गुर्जर यौद्धा जिसने अरबो को अपने बाजुओं से मथडाला एवं इतना भयाक्रांत कर दिया था की जब गुर्जरेन्द्र नागभट्ट की गुर्जरसेना गुर्जर रणनृत्य करती हुई ,जय भौणा ( गुर्जरो का युद्ध का देवता) व जय गुर्जरेश कहती हुई जोश व वीरता से अरबो से युद्ध के लिए जाए तो अरबी लोग मुल्तान में बने एक शिव मंदिर को नष्ट करने की धमकी देकर अपनी जान बचाते थे और जिससे सैनिक युद्ध क्षेत्र से लौट आते थे। गुर्जरेन्द्र नागभट्ट प्रतिहार वीर साहसी थे जिन्हें इतिहास में नागावलोक व गुर्जरेन्द्र ( गुर्जरो के इन्द्र) के नाम से भी जाना जाता है।

के.एम.पन्निकर ने अपनी पुस्तक "सर्वे ऑफ़ इंडियन हिस्ट्री "में लिखा है -जो शक्ति मोहम्मद साहिब की मृत्यु के सौ साल के अंदर एक तरफ चीन की दिवार तक पंहुच गयी थी ,तथा दूसरी और मिश्र को पराजित करते हुए उतरी अफ्रिका को पार कर के स्पेन को पद दलित करते हुए दक्षिणी फ़्रांस तक पंहुच गयी थी जिस ताकत के पास अनगिनित सेना थी तथा जिसकी सम्पति का कोई अनुमान नही था जिसने रेगिस्तानी प्रदेशों को जीता तथा पहाड़ी व् दुर्लभ प्रांतों को भी फतह किया था। 

इन अरब सेनाओं ने जिन जिन देशों व् साम्राज्यों को विजय किया वंहा कितनी भी सम्पन्न संस्कृति थी उसे समाप्त किया तथा वहां के निवासियों को अपना धर्म छोड़ कर इस्लाम स्वीकार करना पड़ा। ईरान , मिश्र आदि मुल्कों की संस्कृति जो बड़ी प्राचीन व विकसित थी वह इतिहास की वस्तु बन कर रह गयी। अगर अरब हिंदुस्तान को भी विजय कर लेते तो यहां की वैदिक संस्कृति व धर्म भी उन्ही देशों की तरह एक भूतकालीन संस्कृति के रूप में ही शेष रहता।। 

इस सबसे बचाने का भारत में कार्य वीर गुर्जरेन्द्र नागभट्ट व गुर्जरो ने किया प्रतिहार की उपाधि पायी। गुर्जरेन्द्र ने खलीफाओं की महान आंधी को देश में घुसने से रोका और इस प्रकार इस देश की प्राचीन संस्कृति व धर्म को अक्षुण रखा। देश के लिए यह उसकी महान देन है। गुर्जरो में वैसे तो कई महान राजा हुए पर सबसे ज्यादा शक्तिशाली कनिष्क महान,कल्किराज मिहिरकुल हूण,सम्राट तोरमाण हूण , गुर्जर सम्राट खुशनवाज हूण,गुर्जरेन्द्र नागभट्ट प्रथम , गुर्जरेश मिहिरभोज , दहाडता हुआ गुर्जर सम्राट महिपालदेव,सम्राट हुविष्क कसाणा,महाराजा दद्दा चपोतकट, जयभट गुर्जर,वत्सराज रणहस्तिन थे  जिन्होने अपने जीवन मे कभी भी चीनी साम्राज्य,फारस के शहंसाह , मंगोल,तुर्की,रोमन ,मुगल और अरबों को भारत पर पैर जमाने का मौका नहीं दिया । इसीलिए आप सभी मित्रों ने कई प्रसिद्ध ऐतिहासिक किताबो पर भी पढा होगा की गुर्जरो का भारत का प्रतिहार यानी राष्ट्र रक्षक व द्वारपाल व  ईसलाम का सबसे बड़ा दुश्मन बताया गया है।।

ब्रिटिश इतिहासकार कहते थे कि भारत कभी एक  राष्ट्र था ही नहीं वामी इतिहासकार कहते हैं कि भारत राष्ट्रीयता की भावना से एक हुआ ही नहीं धर्म निरपेक्ष इतिहासकार कहते हैं कि हिंदुत्व और इस्लाम में कोई संघर्ष था ही नहीं मुस्लिम कहते है कि इस्लाम के शेरों के सामने निर्वीर्य हिंदू कभी टिके ही नहीं हमें तो यही बताया गया है यही पढाया गया है कि हिंदू सदैव हारते आये हैं .. They are born looser , और आप भी शायद ऐसा ही मानते हों पर क्या ये सच है ?
मानोगे भी क्यों नहीं जब यहाँ के राजा  खुद ही अपनी बेटियाँ पीढीदर पीढी अपने कट्टर दुश्मनो के यहाँ ब्याह के हैं, जिन अत्याचार मुगलो का सिर काटना था उन्हीं की सेनाओ के प्रधान सेनापति हो,सेनाओ में लडते हो, दामाद बनवाकर बारात मंगवाते हो व दामाद जी कहकर खुशामद व गुलामी करते हो वहाँ के लोगो को हारा व हताश ही कहा जायेगा। जहाँ के राजा व उनके सामन्त अंग्रेजो की जय जयकार करते हो व जनता का खून चूसकर कर वसूलते हो वहाँ भारत के स्वर्णिम समय गुर्जर काल यानी गुर्जर प्रतिहार साम्राज्य के काल को बस चार लाइनो में निपटा देते हैं ।

................ बिलकुल भी नहीं ...............

तो फिर सच क्या है ? क्या हमारे पूर्वजों के भी कुछ कारनामे हैं ? कुछ ऐसे कारनामे जिनपर हम गर्व कर सकें ? जवाब है .हाँ ...ऐसे ढेर सारे कारनामे जिन्होंने इस देश ही नहीं विश्व इतिहास को भी प्रभावित किया और जिनके कारण आज हम हमारी संस्कृति जीवित है और हम अपना सिर ऊंचा करके खडे हो सकते हैं क्या थे वे कारनामे ? कौन थे वे जिन्होंने इन्हें अंजाम दिया और हम उनसे अंजान हैं ??

समय - 730 ई.

मुहम्मद बिन कासिम की पराजय के बाद खलीफा हाशिम के आदेश पर जुनैद इब्न अब्द ने मुहम्मद बिन कासिम के अधूरे काम को पूरा करने का बीडा उठाया बेहद शातिर दिमाग जुनैद समझ गया था कि कश्मीर के महान योद्धा शासक ललितादित्य मुक्तापीड और कन्नौज के यशोवर्मन से वह नहीं जीत सकता , इसीलिये उसने दक्षिण में गुर्जरत्रा (गुजरात, वह भूमि जिसकी रक्षा गुर्जर करते थे व शासक थे।) के रास्ते से राजस्थान और फिर मध्यभारत को जीतकर ( और शायद फिर कन्नौज की ओर) आगे बढने की योजना बनाई और अपनी सेना के दो भाग किये -

1- अल रहमान अल मुर्री के नेतृत्व में गुजरात की ओर
2 - स्वयं जुनैद के नेतृत्व में मालवा की ओर

अरब तूफान की तरह आगे बढे नांदीपुरी में दद्द द्वारा स्थापित प्राचीन राज्य ,राजस्थान में मंडोर का हरिश्चंद्र द्वारा स्थापित प्राचीन राज्य , चित्तौड का मोरी राज्य इस तूफान में उखड गये और यहाँ तक की अरब उज्जैन तक आ पहुँचे और अरबों को लगने लगा कि वे स्पेन ,ईरान और सिंध की कहानी भी यहाँ बस दुहराने ही वाले हैं ..स्थित सचमुच भयावनी हो चुकी थी और तब भारत के गौरव को बचाने के लिये अपने यशस्वी पूर्वजों  कनिष्क महान व मिहिरकुल हूण, श्रीराम व लक्ष्मण के नाम पर गुज्जर यानी गुर्जर अपने सुयोग्य गुर्जर युवक  नागभट्ट प्रथम के नेतृत्व में उठ खडे हुए वे थे ---

-------गुर्जर कैसे बने भारतवर्ष के प्रतिहार ----------

- प्रतिहार सूर्यवंशी ( मिहिर यानी हूणो के वंशज) थे।।
- गुर्जर राष्ट्र रक्षक व प्रतिहार उपाधि से नवाजे गये।।
- गुर्जरो को शत्रु संहारक कहा गया । 

वे भारतीय इतिहास के रंगमंच पर ऐसे समय प्रकट हुए जब भारत अब तक के ज्ञात सबसे भयंकर खतरे का सामना कर रहा था . भारत संस्कृति और धर्म , उसकी ' हिंद ' के रूप में पहचान खतरे में थी अरबों के रूप में " इस्लाम " हिंदुत्व " को निगलने के लिये बेचैन था। गुर्जरेन्द्र  नागभट्ट प्रतिहार के नेतृत्व में दक्षिण के गुर्जर चालुक्य राजा विक्रमादित्य द्वितीय, वल्लभी के गुर्जरराज शिलादित्य मैत्रक और उन्हीं गुर्जर मैत्रक वंश  के गुहिलौत वंश के राणा खुम्माण जिन्हें इतिहास " बप्पा रावल " के नाम से जानता है , के साथ एक संघ बनाया गया संभवतः यशोवर्मन और ललितादित्य भी अपने राष्ट्रीय कर्तव्य से पीछे नहीं हटे और उन्होंने भी इस संघ को सैन्य सहायता भेजी . मुकाबला फिर भी गैरबराबरी का था ----

--- 100000 अरबी योद्धा v/s 40000 गुर्जर सैनिक .

और फिर शुरू हुयी कई युद्धों की श्रंखला जिसे भारत के व विश्व  के  इतिहासकार छुपाते आये हैं  व भारत में मुगलो व तुर्को के आगे झुकने वालो का , अकबर जैसे मुगलो को दामाद बनाने वालो का,हारे हुए छोटे रजवाडे के राजाओ का व हारा हुआ व  छोटे युद्धो का इतिहास पढाकर भारत को नपुंसक का देश व पराजितो का दे श बताकर किरकिरी करवा रखी है, कनिष्क महान जैसे सम्राटो जिन्होंने चीन को हराया, खुशनवाज हूण जैसे परम प्रतापी जिन्होंने फारस के बादशाह फिरोज को तीन बार हराया, मिहिरकुल हूण जैसे सम्राट को जिनका शासन मध्यएशिया तक था व गुर्जर सम्राट मिहिरभोज महान व गुर्जरेन्द्र नागभट प्रतिहार जैसे महान शासको को पढा ने से बचते रहे हैं  बस छोटी मोटी हारो पर कलम घिसते रहे हैं।-

........... "गुर्जरत्रा का युद्ध " .............

गुर्जर सम्राट नागभट्ट प्रतिहार ने 730 ई. में अपनी राजधानी भीनमाल जालौर को बनाकर एक शक्तिशाली नये गुर्जर राज्य की नींव डाली।  गुर्जरसेना ने सम्राट के रूप में नागभट्ट का राज्याभिषेक किया। वह कुशल सेनापति एवं प्रबल देशभक्त थे। गुर्जरेन्द्र नागभट्ट का ही काल वह कुसमय था जब अरब लुटेरों का आक्रमण भारत पर प्रारम्भ हो गया। अरबों ने सिंध प्रांत जीत लिया और फिर मालवा और अन्य राज्यों पर आक्रमण करना प्रारम्भ किया। सिंध पर शासन करने वाला राज्यपाल जुनैद एक खतरनाक अरबी था।उसके पास घोडो और डाकुओं की भारी सेना थी। वह तूफान की तरह सारे पश्चिमी भारत को रौंदता हुआ जालौर की ओर आ रहा था।सभी छोटे - छोटे राज्यों में रहने वाले, व्यक्ति अपना स्थान छोडकर भाग रहे थे। गुर्जर सम्राट नागभट्ट  व भडौच के महाराजा जयभट चपोत्कट ही वे प्रथम योद्धाथे जिन्होने गुर्जरत्रा ( गुर्जरदेश,गुर्जरभूमि, गुर्जरराष्ट्र,गुर्जरधरा, गुर्जरमण्डल) ही नहीं अपने भारत देश को अरबों से मुक्त कराने का बीडा उठाया था।नागभट्ट की गुर्जरसेना छोटी थी, किंतु वह स्वयं जितना साहसी, दिलेर और विवेकशील था, वैसे ही उसकी सेना थी। गुर्जरो का गुर्जर रणनृत्य इन युद्धो में बडा  काम आया इस रणनृत्य के जरिये गुर्जर बडी भयंकर व भयभीत करने वाली आवाजे निकालते थे जिससे शत्रु सेना घबरा उठती थी। गुर्जराधिराज नागभट्ट ने जुनैद के विरूद्ध अपनी मुठ्ठी भर  गुर्जरसेना को खडा कर दिया - पहली ही लडाई में ही जुनैद को करारी शिकस्त झेलनी पडी। 

अरबों के खिलाफ गुर्जरेन्द्र की सफलता अल्पकालिक मात्र न थी, बल्कि उसने अरबों की सेनाओं को बहुत पीछे खदेड दिया था। इस विजय का ऐसा प्रभाव पडा की अनेक भयभीत राजा नागभट्ट से आकर मिल गये। एक वर्ष के बाद ही नागभट्ट गुर्जरेन्द्र ने सिंध पर आक्रमण कर दिया और जुनैद का सिर काट लिया। सारी अरब सेना तितर - बितर होकर भाग खडी हुई, दुश्मनो के हाथ से नागभट्ट ने सैनधक, सुराष्ट्र, उज्जैन, मालवा, भड़ौच आदि राज्यों को मुक्त करा लिया। सन 750 में अरब लोग पुनः एकत्र हो गये। भारत विजय का अभियान छेड दिया। सारी पश्चिमी सीमा अरबो के अत्याचार से त्राहि-त्राहि कर उठी। नागभट्ट आग बबूला होकर युद्ध के लिए आक्रोशित हुआ, उसने तुरंत सीमा की रक्षा के लिए कूच कर दिया। 3000 से ऊपर अरब शत्रुओं को मौत के घाट उतार दिया और देश ने चैन की सांस ली, अपने को नागभट्ट नारायण देव के नाम से अलंकृत किया।

तंदूशे प्रतिहार के तनभृति त्रलोक्यरक्षास्पदे। 
देवो नागभट्ट: पुरातन पुने मुतिवर्षे भूणाद भुतम ।।

मर्तवढ चौहान नागभट्ट का सामंत था वह जैसा वीर था वैसा ही सुयोग्य कवि भी। उसने नागभट्ट प्रशस्ति नामक अच्छे ग्रंथ की रचना की है जो इतिहास और काव्य दोनों है। उसने गुर्जरेन्द्र नागभट्ट को वामन अवतार नाम दिया है। जिन्होने राक्षसों से धरती का उद्धार किया था। चौहान सामंत ने, जुनैद के उत्तराधिकारी तमीम को जिस वीरता से पराजित कर चमोत्कट और भड़ौच से मार भगाया कि नागभट्ट प्रतिहार ने उसे सामंत से भड़ौच का राजा ही बना दिया। सन 760 ई. में गुर्जरेन्द्र का स्वर्गवास हो गया । सन 760 - 775 तक उसके पुत्र कक्कुस्थ और पौत्र देवराज प्रतिहार ने गुर्जर राज्य को संभाला।।

अरब सदैव के लिये सिंधु के उस पार धकेल दिये गये और मात्र टापूनुमा शहर " मनसुरा " तक सीमित होकर रह गये इस तरह ना केवल विश्व को यह बताया गया कि हिंदुस्तान के योद्धा शारीरिक बल में श्रेष्ठ हैं बल्कि यह भी कि उनके हथियार उनकी युद्ध तकनीक और रणनीति विश्व में सर्वश्रेष्ठ है।। 

इस तरह भारत की सीमाओं को सुरक्षित रखते हुए उन्होंने अपना नाम सार्थक किया --

जय सम्राट कनिष्क महान 
जय गुर्जरराज मिहिरकुल हूण 
जय गुर्जरेश मिहिरभोज महान 
जय गुर्जरेन्द्र नागभट प्रतिहार 
जय गुर्जरत्रा,जय हिन्द।।।।।।।।।।।।।।।

Monday, April 18, 2016

वीरवर कल्ला जी राठौड़, Kalla ji rathod and Akbar

वीरवर कल्ला जी राठौड़ !!

आगरा के किले में अकबर का खास दरबार लगा हुआ था आज म्लेच्छ बादशाह अकबर बहुत खुश था, सयंत रूप से
आपस में हंसी- मजाक चल रहा था | तभी म्लेच्छ अकबर ने अनुकूल अवसर देख बूंदी के राजा भोज से कहा - "
राजा साहब हम चाहते है आपकी छोटी राजकुमारी की सगाई शाहजादा सलीम के साथ हो जाये |"
राजा भोज ने तो अपनी पुत्री किसी मलेच्छ को दे दे ऐसी कभी कल्पना भी नहीं की थी |
उसकी कन्या एक मलेच्छ के साथ ब्याही जाये उसे वह अपने हाड़ावंश
की प्रतिष्ठा के खिलाफ समझते थे | इसलिए राजा भोज ने मन ही मन निश्चय किया कि- वे अपनी पुत्री की सगाई शाहजादा सलीम के साथ
हरगिज नहीं करेंगे |
यदि एसा प्रस्ताव कोई और रखता तो राजा भोज उसकी जबान काट लेते पर ये प्रस्ताव रखने वाला भारत का क्रूर म्लेच्छ अकबर था जिसने छल कर के हिन्दू राजा महाराजा को बंदी बनाया है | राजा भोज से प्रति उत्तर सुनने के लिए म्लेच्छ अकबर ने अपनी निगाहें राजा भोज के चेहरे पर गड़ा दी | राजा भोज को कुछ ही क्षण में उत्तर देना था वे समझ नहीं पा रहे थे कि -बादशाह को क्या उत्तर दिया जाये | इसी उहापोह में उन्होंने सहायता के लिए दरबार में बैठे क्षत्रिय राजाओं व योद्धाओं पर दृष्टि डाली और उनकी नजरे "कल्ला जी राठौड़ "" पर जाकर ठहर गयी |
कल्ला जी राठौड़ राजा भोज की तरफ देखता हुआ अपनी भोंहों तक लगी मूंछों पर
निर्भीकतापूर्वक बल दे रहा था | | राजा भोज को अब उत्तर मिल चुका था उन्होंने म्लेच्छ अकबर से कहा - " जहाँपनाह
मेरी छोटी राजकुमारी की तो सगाई हो चुकी है |"
"किसके साथ ?" म्लेच्छ अकबर ने कड़क कर पूछा |
" जहाँपनाह मेरे साथ,बूंदी की छोटी राजकुमारी मेरी मांग है |"
अपनी मूंछों पर बल देते हुए कल्ला जी राठौड़ ने दृढ़ता के साथ कहा | यह सुनते ही सभी दरबारियों की नजरें कल्ला जी को देखने लगी इस तरह भरे दरबार में म्लेच्छ अकबर बादशाह के आगे मूंछों पर ताव देना अशिष्टता ही नहीं बादशाह का अपमान भी था। साले सूअर के पिल्ले(शहंशाह) की ।
म्लेच्छ अकबर भी समझ गया था कि ये कहानी अभी अभी घड़ी गयी है
पर चतुर म्लेच्छ अकबर बादशाह ने नीतिवश जबाब दिया _ "
फिर कोई बात नहीं |
हमें पहले मालूम होता तो हम ये प्रस्ताव ही नहीं रखते |" और दुसरे ही क्षण म्लेच्छ अकबर बादशाह ने वार्तालाप का विषय बदल दिया | यह घटना सभी दरबारियों के बीच चर्चा का विषय
बन गयी कई दरबारियों ने इस घटना के बाद के बाद म्लेच्छ अकबर बादशाह को कल्ला के खिलाफ उकसाया तो कईयों ने कल्ला जी राठौड़ को सलाह दी आगे से बादशाह के आगे मूंछें नीची करके जाना बादशाह तुमसे बहुत नाराज है |
पर कल्ला को उनकी किसी बात की परवाह नहीं थी |
लोगों की बातों के कारण दुसरे दिन जब कल्ला दरबार में हाजिर हुआ तो केसरिया वस्त्र (युद्ध कर मृत्यु के लिए तैयारी के प्रतीक )धारण किये हुए था | उसकी मूंछे आज और
भी ज्यादा तानी हुई थी | म्लेच्छ अकबर बादशाह उसके रंग ढंग देख समझ गया था और मन ही मन सोच रहा था -"
एसा बांका जवान बिगड़ बैठे तो क्या करदे |" दुसरे ही दिन कल्ला बिना छुट्टी लिए सीधा बूंदी की राजकुमारी हाड़ी को ब्याहने चला गया और उसके साथ फेरे लेकर आगरा के लिए रवाना हो गया | हाड़ी ने भी कल्ला के हाव-भाव देख और
आगरा किले में हुई घटना के बारे में सुनकर अनुमान लगा लिया था कि -उसका सुहाग ज्यादा दिन तक रहने वाला नहीं | सो उसने आगरा जाते
कल्ला को संदेश भिजवाया - " हे प्राणनाथ ! आज तो बिना मिले ही छोड़ कर आगरा पधार रहे है पर
स्वर्ग में साथ चलने का सौभाग्य
जरुर देना |" "अवश्य एसा ही होगा |" जबाब दे
कल्ला आगरा आ गया | उसके हाव-भाव देखकर म्लेच्छ अकबर बादशाह अकबर ने उसे काबुल के उपद्रव दबाने के लिए लाहौर भेज दिया ,लाहौर में उसे
केसरिया वस्त्र पहने देख एक मुग़ल सेनापति ने व्यंग्य से कहा - " कल्ला जी अब ये केसरिया वस्त्र धारण कर क्यों स्वांग बनाये हुए हो ?"
"राजपूत एक बार केसरिया धारण कर लेता है तो उसे बिना निर्णय के उतारता नहीं| यदि तुम में हिम्मत है तो उतरवा दो |" कल्ला ने कड़क कर
कहा | इसी बात पर विवाद हो गया ।और विवाद होने पर कल्ला ने उस मुग़ल सेनापति का एक झटके में सिर धड़ से अलग कर दिया और वहां से बागी हो सीधा बीकानेर आ पहुंचा | उस समय बादशाह के दरबार में रहने वाले प्रसिद्ध कवि बीकानेर के राजकुमार पृथ्वीराज राठौड़ जो इतिहास में पीथल के नाम से
प्रसिद्ध है बीकानेर आये हुए थे,कल्ला ने उनसे कहा -
"काकाजी मारवाड़ जा रहा हूँ वहां चंद्रसेन जी राठौड़ की अकबर के विरुद्ध सहायतार्थ युद्ध करूँगा |
आप मेरे मरसिया (मृत्यु गीत) बनाकर सुना दीजिये |" पृथ्वीराज जी ने कहा -"मरसिया तो मरने के उपरांत बनाये जाते है तुम तो अभी जिन्दा हो तुम्हारे मरसिया कैसे
बनाये जा सकते है।
"काकाजी आप मेरे मरसिया में जैसे युद्ध का वर्णन करेंगे मैं आपको वचन देता हूँ कि मैं उसी अनुरूप युद्ध में
पराक्रम दिखा कर वीरगति को प्राप्त
होवुंगा |" कल्ला ने दृढ निश्चय से कहा |
हालाँकि पृथ्वीराजजी के आगे ये एक विचित्र स्थिति थी । लेकिन कल्ला जी के जिद के सामने उन्हें मरसिया गीत बना कर गाना पडा और
कल्ला जी वही गीत गुनगुनाते हुए निकल पड़े जब वो मारवाड़ के सिवाने के तरफ जा रहे थे तभी उन्हें
सुचना मिली की अकबर की एक
सेना की टुकड़ी उनके मामा के सिरोही के सुल्तान देवड़ा पर आक्रमण करने जा रही है।
कल्ला जी उस सेना से बिच में ही भीड़ गुए और देखते ही देखते अकबर की उस टुकड़ी को बिच में ही ख़त्म कर दिया या यूँ कहलो चुन चुन
के ख़त्म कर दिया। जब ए बात अकबर को मालूम पड़ी तू उसने कल्ला जी दंडित करने के लिए
मोटा रजा उदयसिंह से कहा जो की जोधपुर के थे। और मोटाराजा उदयसिंह ने अपने दलबल के साथ
जाकर सिवाना पर आक्रमण किया जहाँ कल्ला अद्वितीय वीरता के साथ
लड़ते हुए वीरगति को प्राप्त हुआ | कहते है कि "कल्ला का लड़ते लड़ते सिर कट गया था फिर भी वह मारकाट मचाता रहा आखिर घोड़े पर
सवार उसका धड़ उसकी पत्नी हाड़ी के पास गया,उसकी पत्नी ने जैसे गंगाजल के छींटे उसके धड़ पर डाले उसी वक्त उसका धड़ घोड़े से गिर
गया जिसे लेकर हाड़ी चिता में प्रवेश कर उसके साथ स्वर्ग सिधार गयी |
आज भी राजस्थान में मूंछो की मरोड़
का उदहारण दिया जाता है तो कहा जाता है -
" मूंछों की मरोड़ हो तो कल्ला जी राठौड़ जैसी

Tuesday, February 23, 2016

Brave Kshatriyas Rajput who liberated Goa

The BRAVE KSHATRIYA NAIR WARRIOR from KERALA 
Lieutenant General Kunhiraman Palat CANDETH Who Liberated Goa 
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Kunhiraman Palat Candeth (23 October 1916 – 19 May 2003) was a Lieutenant General in the Indian army. In 1961, the then Major General Candeth led Operation Vijay to annex Goa from the Portuguese colonial rule and served briefly as the Lieutenant Governor of the state. Subsequently, he rose to Deputy Chief of Army Staff at the time of the 1965 war and commanded the Western Army during the Indo-Pakistani War of 1971.

He was born in Ottapalam, Madras Presidency (now Kerala) in British India (now India) to MA Candeth, being the grandson of the renowned barrister and writer Vengayil Kunhiraman Nayanar. His maternal grandfather was Sir C. Sankaran Nair, who was the President of the Indian National Congress.[
 He told a reporter during the Indo-Pakistani War of 1971 that "I am a Nair from Kerala. I am a Kshatriya".
 He had done his training at the Prince of Wales Royal Indian Military College, Dehradun, where he was highly rated in the classroom and on the playing field. Candeth was commissioned in the British Indian Army on 30 August 1936 in 28 Field Brigade of the Royal Indian Artillery.

Commissioned into the Royal Artillery in 1936, Candeth saw action in West Asia during the Second World War. And, shortly before India's independence from colonial rule, he was deployed in the North West Frontier Province, bordering Afghanistan, to quell local tribes. The mountainous terrain gave Candeth the experience for his later operations against Nagaland separatists in the North East. He attended the Military Services Staff College at Quetta, capital of Baluchistan in 1945.

Kashmir 1947
After Independence, Candeth was commanding an artillery regiment that was deployed to Jammu and Kashmir after Pakistan-backed tribesmen attacked and captured a third of the province before being forced back by the Indian Army. Thereafter, Candeth held a series of senior appointments, including that of Director General of Artillery at Army Headquarters in Delhi.

Goa
Following Indian independence from British rule, certain parts of India were still under foreign rule. While the French left India in 1954, the Portuguese, however, refused to leave. After complex diplomatic pressure and negotiations had failed, finally on December 18, 1961 the Indian prime minister Jawaharlal Nehru's patience ran out and he sanctioned military action. Kunhiraman Candeth earned his name in Operation Vijay—the Liberation of Goa, Daman and Diu from Portuguese rule. 
As 17 Infantry Division commander, Candeth took the colony within a day and was immediately appointed Goa's first Indian administrator (acting as the Military Governor), a post he held till 1963.

North East
After relinquishing charge as Goa's Military Governor in 1963, Candeth took command of the newly raised 8 Mountain Division in the North-East, where he battled, although with little success, the highly organised Naga insurgents. The insurgency in the North East has not been quelled completely to this day.

Indo-Pakistani War of 1971
During the Indo-Pakistani War of 1971 that led to East Pakistan breaking away to become Bangladesh, Candeth (at that stage a lieutenant-general), was the Western Army commander responsible for planning and overseeing operations in the strategically crucial regions of Kashmir, Punjab and Rajasthan where the fiercest fighting took place.

Awards
Lt. Gen. Kunhiraman Palat Candeth was awarded the Param Vishisht Seva Medal and also the Padma Bhushan by the Government of India.
He remained a bachelor till the end.
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* Lft.Gen. K.P. Candeth >

Saturday, December 5, 2015

RAJPUT AND BRAVERY

                                                            R  A  J  PU T S

Rajputs of Rajasthan were the descendants of the Kshatriyas or warriors of Vedic India. The emergence of the Rajput warrior clans was in the 6th and 7th centuries. Rajputs ancestry can be divided into two: the "solar" or suryavanshi-those descended from Rama, the hero of the epic Ramayana, and the "lunar" or chandravanshi, who claimed descent from Krishna, the hero of the epic Mahabharata. Later a third clan was added, the agnikula or fire-born, said to have emerged from the flames of a sacrificial fire on Mt Abu.
It has been accepted that the Rajputs were divided into thirty-six races and twenty-one kingdoms. The Rajput clans gave rise to dynasties like Sisodias of Mewar (Udaipur), the Kachwahas of Amber (Jaipur), the Rathors of Marwar (Jodhpur & Bikaner), the Hadas of Jhalwawar, Kota & Bundi, the Bhattis of Jaisalmer, the Shekhawats of Shekhawati and the Chauhans of Ajmer.
The fall of the Gupta Empire, which held dominance in northern India for nearly 300 years until the early 5th Century, was followed by a period of instability as various local chieftains sought to gain supremacy. Power rose and fell in northern India. Stability was only restored with the emergence of the Gurjara Partiharas, the earliest of the Rajput (from 'Rajputra', or Sons of Princes) dynasties which were later to hold the balance of power throughout Rajasthan.
The Rajput clans gave rise to dynasties such as the Chauhans, Sisodias, Kachhwahas and Rathores. Chauhans of the Agnikula Race emerged in the 12th century and were renowned for their valour. Their territories included the Sapadalksha kingdom, which encompassed a vast area including present- day Jaipur, Ranthambore, part of Mewar, the western portion of Bundi district, Ajmer Kishangarh and even, at one time, Delhi. Branches of the Chauhans also ruled territories know as Ananta (in present-day Shekhawati) and Saptasatabhumi.
The Sisodias of the Suryavansa Race, Originally from Gujarat, migrated to Rajasthan in the mid-7th Century and reigned over Mewar, which encompassed Udaipur and Chittorgarh. The Kachhwahas, originally from Gwalior in Madhya Pradesh, traveled west in the 12th century. They built the massive fort at Amber, and later shifted the capital to Jaipur. Like the Sisodias, they belonged to the Suryavansa Race. Also belonging to the Suryavansa Race, the Rathore (earlier known as Rastrakutas) traveled from Kanauj, in Uttar Pradesh. Initially they settled in Pali, south of present-day Jodhpur, but later moved to Mandore in 1381 and ruled over Marwar (Jodhpur). Later they started building the stunning Meherangarh (fort) at Jodhpur. The Bhattis, who belong to the Induvansa Race, driven from their homeland in the Punjab by the Turks, installed themselves at Jaisalmer in 1156. They remained more of less entrenched in their desert Kingdom until they were integrated into the state of Rajasthan following Independence.
In spite of the Muslim rule up to Punjab, the Rajputs gained control of the heart of North India. The Rajputs who held the stage of feudal rulers before the coming of the Muslims were a brave and chivalrous race. The Rajput legend traces their ancestry to Bappa Rawal - the legendary founder of the race who is said to have lived in the 8th century. In actual fact although they were Kshatriyas in the Hindu caste hierarchy, they seem to have genetically descended from the Shakas and Hunas who had invaded north India during the Gupta period and had subsequently settled down in North India and due to their war-like attitudes and been absorbed as Kshatriyas into Hindu society. It is they who held the banner when the first Muslim invaders reached the Indian Heart land in the 12th century i.e. around 1191 C.E.
The Rajputs who till the 10th century were mostly local feudal lords holding the status of revenue collectors for their Gurjara-Pratihara overlords, asserted themselves as independent rulers, after the Ghaznavid storm had blown over, and took over the earlier kingdoms of the Gurjara-Pratiharas. The main Rajput kingdoms in the 11th and 12th centuries were that of the Cahamanas (Chouhans) in East Punjab, Northern Rajasthan and Delhi. The Gahadwalas (Rathods) ruled the Ganges valley today's UP. The Paramaras ruled Malwa in Central India and the Tomaras ruled from Gwaliar. The most powerful kingdoms were hose of the Chouhans and the Rathods - both of which unfortunately were incessantly at war with each other when the Muslim raiders appeared again in the 1191 C.E. The Rajputs, who were a brave and chivalrous race, held the stage of feudal rulers before the coming of the Muslims.

The Gahadwalas (Rathods)

In the 11th century i.e. in the post-Mahmud Ghazni era, the most powerful Hindu Kingdom in North India was that of the Gahadwalas or Rathods who were a Rajput clan. The founder of the Gahadwala line was Chandradeva, whose son Govindchandra Gahadwala was the most illustrious ruler of this line. Govindchandra was an astute ruler and ruled from Kannauj. Most of North India, including the university town of Nalanda was a part of his kingdom. He stoutly defended his kingdom from further Muslims incursion. He instituted a tax for this purpose which was called Turushka Danda (i.e. tax to fight the Turushkas or Turks). His grandson was Jaichandra Gahadwala (Rathod) who played a tragic role in Indian History. 
 

Prithviraj Chouhan

In Jaichand's days, a rival Rajput clan had established itself in Delhi (Pithoragarh). The ruler there was Prithviraj Chouhan. Pritiviraj was a romantic, chivalrous and an extremely fearless person. After ceaseless military campaigns, Pritiviraj extended his original kingdom of Sambhar (Shakambara) to Rajasthan, Gujarat, and Eastern Punjab. He ruled from his twin capitals at Delhi and Ajmer. His fast rise caught the envy of the then powerful ruler Jaichandra Gahadwala and there was a lot of ill-feeling between the two.
Sanyogita, the daughter of Jaichandra Gahadwala fell secretly in love with Prithiviraj and she started a secret poetic correspondence with him. Her father the haughty Jaichandra got wind of this and he decided to teach his daughter and her upstart lover a lesson. So he arranged a Swayamwara (a ceremony where a bride can select her husband from the assembled princes. She had the right to garland any prince and she became his queen. This is an ancient Hindu custom among Royalty). Jaichandra invited all the big and small princes of the country to Kannauj for the royal Swayamwara. But he deliberately ignored Prithiviraj. To add insult to injury, he even made a statue of Prithiviraj and kept him as a dwarpala (doorman).
Prithviraj got to know of this and he confided his plans to his lover. On the said day, Sanyogita walked down the aisle where the royale had assembled and bypassed all of them only to reach the door and garland the statue of Pritiviraj as a doorman. The assemblage was stunned at this brash act of hers. But what stunned them and her father Jaichandra was the next thing that happened. Prithiviraj who was hiding behind the statue, also in the garb of a doorman, whisked Sanyogita away and put her up on his steed to make a fast getaway to his capital at Delhi.
Jaichandra and his army gave earnest chase and in the resultant string of battles between the two kingdoms fought between 1189 and 1190, both of them suffered heavily. While this drama was being enacted, another ruler also named Mahmud who was from Ghori in Afghanistan had grown powerful and had captured Ghazni and subsequently attacked the Ghaznavid Governor of Punjab and defeated him. The kingdom of Mahmud Ghori now stretched up to the domains of Prithiviraj Chouhan. A clash was inevitable.
Mahmud Ghori threw the gauntlet by laying siege to the fortress of Bhatinda in East Punjab which was on the frontier of Prithiviraj's domains. Prithviraj's appeal for help from his father-in-law was scornfully rejected by the haughty Jaichandra. But undaunted Prithviraj marched on to Bhatinda and met his enemy at a place called Tarain (also called Taraori) near the ancient town of Thanesar. In face of the persistent Rajput attacks, the battle was won as the Muslim army broke ranks and fled leaving their general Mahmud Ghori as a prisoner in Pritiviraj's hands. Mahmud Ghori was brought in chains to Pithoragarh - Prithviraj's capital and he begged his victor for mercy and release. Prithviraj's ministers advised against pardoning the aggressor. But the chivalrous and valiant Prithviraj thought otherwise and respectfully released the vanquished Ghori.

The 1st Battle of Tarain 1191 C.E. - Victory of Prithiviraj Chouhan

Mahmud Ghori threw the gauntlet by laying siege to the fortress of Bhatinda in East Punjab which was on the frontier of Prithiviraj's domains. Prithviraj's appeal for help from his father-in-law was scornfully rejected by the haughty Jaichandra. But undaunted Prithviraj marched on to Bhatinda and met his enemy at a place called Tarain (also called Taraori) near the ancient town of Thanesar. In face of the persistent Rajput attacks, the battle was won as the Muslim army broke ranks and fled leaving their general Mahmud Ghori as a prisoner in Pritiviraj's hands. Mahmud Ghori was brought in chains to Pithoragarh - Prithviraj's capital and he begged his victor for mercy and release. Prithviraj's ministers advised against pardoning the aggressor. But the chivalrous and valiant Prithviraj thought otherwise and respectfully released the vanquished Ghori.

The 2nd Battle of Tarain 1192 C.E. - Defeat of Prithiviraj Chouhan

The very next year Prithiviraj's gesture was repaid by Ghori who re-attacked Prithiviraj with a stronger army and guilefully defeated him by attacking the Rajput army before daybreak. (The Hindus incidentally followed a hoary practice of battling only from sunrise up to sunset. Before Sunrise and after Sunset there was to be no fighting- as per a time honoured battle code).The defeated Prithiviraj was pursued up to his capital and in chains he was taken as a captive to Ghor in Afghanistan.

The Blinding of Prithviraj Chauhan

The story of Prithiviraj does not end here. As a prisoner in Ghor he was presented before Mahmud, where he looked Ghori straight into the eye. Ghori ordered him to lower his eyes, whereupon a defiant Prithiviraj scornfully told him how he had treated Ghori as a prisoner and said that the eyelids of a Rajputs eyes are lowered only in death. On hearing this, Ghori flew into a rage and ordered that Prithviraj's eyes be burnt with red hot iron rods. This heinous deed being done, Prithiviraj was regularly brought to the court to be taunted by Ghori and his courtiers. In those days Prithiviraj was joined by his former biographer Chand Bardai, who had composed a ballad-biography on Pritiviraj in the name of Prithviraj Raso (Songs of Prithviraj). Chand Bardai told Prithiviraj, that he should avenge Ghori's betrayal and daily insults.
The Blind Prithviraj Avenges the Injustice done to him. The two got an opportunity when Ghori announced a game of Archery. On the advice of Chand Bardai, Prithviraj, who was then at court said he would also like to participate. On hearing his suggestion, the courtiers guffawed at him and he was taunted by Ghori as to how he could participate when he could not see. Whereupon, Prithiviraj told Mahmud Ghori to order him to shoot, and he would reach his target. Ghori became suspicious and asked Prithviraj why he wanted Ghori himself to order and not anyone else. On behalf of Prithiviraj, Chand Bardai told Ghori that he as a king would not accept orders from anyone other than a king. His ego satisfied, Mahmud Ghori agreed.
On the said day, Ghori sitting in his royal enclosure had Prithiviraj brought to the ground and had him unchained for the event. On Ghori's ordering Prithviraj to shoot, we are told Prithiviraj turned in the direction from where he heard Ghori speak and struck Ghori dead with his arrow. This event is described by Chand Bardai in the couplet, "Char bans, chaubis gaj, angul ashta praman, Ete pai Sultan hai (Taa Upar hai Sultan). Ab mat chuko Chauhan."(Ten measures ahead of you and twenty four feet away, is seated the Sultan, do not miss him now, Chouhan).
Thus ended the story of the brave but unrealistic Prithviraj Chouhan - the last Hindu ruler of Delhi. Delhi was to remain under Muslim rule for the next 700 years till 1857 and under British rule till 1947. Those few Hindus who came close to liberating Delhi during the seven centuries of Muslim rule were Rana Sanga in 1527, Raja (Hemu) Vikramaditya in around 1565 (2nd battle of Panipat), and Shrimant Vishwas Rao who was the Peshwa's son and was co-commander of the Maratha forces in the 3rd battle of Panipat in 1761. Metaphorically speaking, the next Hindu ruler to actually preside over Delhi was to be Dr. Rajendra Prasad, the first President of Independent India (and Jawarharlal Nehru - who was the President's first Minister).

The Rajput Resistance to Muslim Rule - Man Singh Tomar

In spite of the establishment of Muslim rule in Delhi and UP (Uttar Pradesh) in the former kingdoms of Prithiviraj Chauhan and Jaichand Rathod, the Muslim invaders could never overrun the entire country. The Rajput dynasties like the Tomaras of Gwaliar and the Ranas of Mewad still continued to rule central India. One such Rajput ruler was Man Singh Tomar the king of Gwaliar. Man Singh put up a stout resistance to the Lodis and he succeeded in halting the Muslim ruler Sikandar Lodi's southward march at Gwaliar. While the Tomaras of Gwaliar held back the Muslims from advancing into Malwa, the Ranas of Mewad held up the banner of Indian independence from Mewad in those trying times of Muslim aggression in India. In South Rajasthan especially, the Rajputs had defiantly preserved their writ by resisting the Delhi Sultans. The center of this Rajput resistance was the kingdom at Chittor.

Maharana Pratap

Udai Singh's son was Maharana Pratap who leads the Rajputs against Akbar's armies and preserved Rajput rule in Mewad. Rana Pratap was faced with the formidable challenge of renegade Rajput princes like Raja Todar Mal and Raja Man Singh who had joined forces with the Muslim rulers.

The Battle of Haldighati

In the Battle of Haldighati fought between Maharana Pratap and the Mughals; the Rajputs were not able to overcome the combined strength of the Mughals and the renegade Rajput princes who had played the role of traitors. But Maharana Pratap, who was badly hurt in the battle, was saved by his wise horse Chetak, who took him in an unconscious state away from the battle scene. Although Maharana Pratap was not able to thwart the Muslims successfully, the saga of Rajput resistance to Muslim rule continued till the 17th century when the baton of the struggle for Indian Independence from Muslim tyranny was taken up by the upcoming power of the Marathas, who brought about an end to Muslim domination of India.
According to the Rajput bards the Chauhan is one of the four Agnikula or 'fire sprung' tribes who were created by the gods in the anali kund or 'fountain of fire' on Mount Abu to fight against the Asuras or demons. Chauhan is also one of the 36 (royal) ruling races of the Rajputs.
Chauhan dynasty flourished from the 8th to 12th centuries AD. It was one of the four main Rajput dynasties of that era, the others being Pratiharas, Paramaras and Chalukyas. The Chauhans dominated Delhi, Ajmer, and Ranthambhor. They were also prominent at Sirohi in the southwest of Rajputana, and at Bundi and Kota in the east. Inscriptions also associate them with Sambhar, the salt lake area in the Amber (later Jaipur) district. Chauhan politics were largely campaigns against the Chalukyas and the invading Muslim hordes. In the 11th century they founded the city of Ajayameru (Ajmer) in the southern part of their kingdom, and in the 12th century captured Dhilika (the ancient name of Delhi) from the Tomaras and annexed some of their territory along the Yamuna River. Prithviraj III has become famous in folk tales and historical literature as the Chauhan king of Delhi who resisted the Muslim attack in the first Battle of TARAIN (1191). Armies from other Rajput kingdoms, including Mewar assisted him. However, Prithviraj was defeated in a second battle at Tarain the following year. This failure ushered in Muslim rule in North India in the form of the SLAVE DYNASTY, the first of the Delhi Sultanates.

Friday, November 27, 2015

जहा मुस्लिम चादर चढ़ाते है एक राजपूत की मजार पर...वीर योद्धा डूंगर सिंह भाटी_______

जहा मुस्लिम चादर चढ़ाते है एक राजपूत की मजार पर..._वीर योद्धा डूंगर सिंह भाटी_

सिर कटे धड़ लड़े रखा रजपूती शान
"दो दो मेला नित भरे, पूजे दो दो थोर॥
सर कटियो जिण थोर पर, धड जुझ्यो जिण थोर॥ ”
मतलब :-
एक राजपूत की समाधी पे दो दो जगह मेले लगते है,
पहला जहाँ उसका सर कटा था और दूसरा जहाँ उसका धड लड़ते हुए गिरा था….
राजपुताना वीरो की भूमि है। यहाँ ऐसा कोई गाव नही जिस पर राजपूती खून न बहा हो, जहाँ किसी जुंझार का देवालय न हो, जहा कोई युद्ध न हुआ हो। भारत में मुस्लिम आक्रमणकर्ताओ कोे रोकने के लिए लाखो राजपूत योद्धाओ ने अपना खून बहाया बहुत सी वीर गाथाये इतिहास के पन्नों में दब गयी। इसी सन्दर्भ में एक सच्ची घटना-
उस वक्त जैसलमेर और बहावलपुर(वर्तमान पाकिस्तान में) दो पड़ोसी राज्य थे। बहावलपुर के नवाब की सेना आये दिन जैसलमेर राज्य के सीमावर्ती क्षेत्रो में डकैती, लूट करती थी परन्तु कभी भी जैसलमेर के भाटी वंश के शासको से टकराने की हिम्मत नही करती थी।
उन्ही दिनों एक बार जेठ की दोपहरी में दो राजपूत वीर डूंगर सिंह जी उर्फ़ पन्न राज जी, जो की जैसलमेर महारावल के छोटे भाई के पुत्र थे और उनके भतीजे चाहड़ सिंह जिसकी शादी कुछ दिन पूर्व ही हुयी थी, दोनों वीर जैसलमेर बहावलपुर की सीमा से कुछ दुरी पर तालाब में स्नान कर रहे थे। तभी अचानक बहुत जोर से शोर सुनाई दिया और कन्याओ के चिल्लाने की आवाजे आई। उन्होंने देखा की दूर
बहावलपुर के नवाब की सेना की एक टुकड़ी जैसलमेर रियासत के ही ब्राह्मणों के गाँव "काठाडी" से लूटपाट कर अपने ऊँटो पर लूटा हुआ सामान और साथ में गाय, ब्राह्मणों की औरतो को अपहरण कर जबरदस्ती ले जा रही है। तभी डूंगर सिंह उर्फ़ पनराजजी ने भतीजे चाहड़ सिंह को कहा की तुम जैसलमेर जाओ और वहा महारावल से सेना ले आओ तब तक में इन्हें यहाँ रोकता हूँ। लेकिन चाहड़ समझ गए थे की काका जी कुछ दिन पूर्व विवाह होने के कारण उन्हें भेज रहे हैँ। काफी समझाने पर भी चाहड़ नही माने और अंत में दोनों वीर क्षत्रिय धर्म के अनुरूप धर्म निभाने गौ ब्राह्मण को बचाने हेतु मुस्लिम सेना की ओर अपने घोड़ो पर तलवार लिए दौड़ पड़े।
डूंगर सिंह को एक बड़े सिद्ध पुरुष ने सुरक्षित रेगिस्तान पार कराने और अच्छे सत्कार के बदले में एक चमत्कारिक हार दिया था जिसे वो हर समय गले में पहनते थे।
दोनों वीर मुस्लिम टुकडी पर टूट पड़े और देखते ही देखते बहावलपुर सेना की टुकड़ी के लाशो के ढेर गिरने लगे। कुछ समय बाद वीर चाहड़ सिंह (भतीजे)भी वीर गति को प्राप्त हो गए जिसे देख क्रोधित डूंगर सिंह जी ने दुगुने वेश में युद्ध लड़ना शुरू कर दिया। तभी अचानक एक मुस्लिम सैनिक ने पीछे से वार किया और इसी वार के साथ उनका शीश उनके धड़ से अलग हो गया। किवदंती के अनुसार, शीश गिरते वक़्त अपने वफादार घोड़े से बोला-
"बाजू मेरा और आँखें तेरी"
घोड़े ने अपनी स्वामी भक्ति दिखाई व धड़, शीश कटने के बाद भी लड़ता रहा जिससे मुस्लिम सैनिक भयभीत होकर भाग खड़े हुए और डूंगर जी का धड़ घोड़े पर पाकिस्तान के बहावलपुर के पास पहुंच गया। तब लोग बहावलपुर नवाब के पास पहुंचे और कहा की एक बिना मुंड आदमी बहावलपुर की तरफ उनकी टुकडी को खत्म कर गांव के गांव तबाह कर जैसलमेर से आ रहा है।
वो सिद्ध पुरुष भी उसी वक़्त वही थे जिन्होंने डूंगर सिंह जी को वो हार दिया था। वह समझ गए थे कि वह कोई और नहीं डूंगर सिंह ही हैं। उन्होंने सात 7 कन्या नील ले कर पोल(दरवाजे के ऊपर) पर खडी कर दी और जैसे ही डूंगर सिंह नीचे से निकले उन कन्याओं के नील डालते ही धड़ शांत हो गया।
बहावलपुर, जो की पाकिस्तान में है जहाँ डूंगर सिंह भाटी जी का धड़ गिरा, वहाँ इस योद्धा को मुण्डापीर कहा जाता है। इस राजपूत वीर की समाधी/मजार पर उनकी याद में हर साल मेला लगता है और मुसलमानो द्वारा चादर चढ़ाई जाती है।
वहीँ दूसरी ओर भारत के जैसलमेर का मोकला गाँव है, जहाँ उनका सिर कट कर गिरा उसे डूंगरपीर कहा जाता है। वहाँ एक मंदिर बनाया हुआ है और हर रोज पूजा अर्चना की जाती है। डूंगर पीर की मान्यता दूर दूर तक है और दूर दराज से लोग मन्नत मांगने आते हैँ।

Wednesday, November 18, 2015

Gugga Ji Chauhan- History of great Rajput Saint

गोगा जी/गुग्गा जी चौहान (GOGA JI /GUGGA JI CHAUHAN ,STORY OF A GREAT RAJPUT SAINT)
--------जय जुझार वीर गोगा जी चौहान (जाहरवीर)जी की,जय गुरु गोरखनाथ जी की----------
चौहान वंश में सम्राट पृथ्वीराज चौहान के बाद गोगाजी वीर और ख्याति प्राप्त राजा थे। गोगाजी को लोकमान्यताओं व लोककथाओं के अनुसार साँपों के देवता के रूप में भी पूजा जाता है।लोग
उन्हें गोगाजी चौहान, गुग्गा, जाहर वीर व जाहर पीर के नामों से पुकारते हैं।यह गुरु गोरक्षनाथ के प्रमुख शिष्यों में से एक थे। राजस्थान के छह सिद्धों में गोगाजी को समय की दृष्टि से प्रथम माना गया है।आज देश भर में उनकी बहुत अधिक मान्यता है,लगभग हर प्रदेश में उनकी माढ़ी बनी हुई है इनके भक्त सभी जातियों और धर्मो में मिलते हैं,
जब महमूद गजनवी ने सोमनाथ मंदिर पर हमला किया था तब पश्चिमी राजस्थान में गोगा जी ने ही गजनी का रास्ता रोका था.घमासान युद्ध हुआ.गोगा ने अपने सभी पुत्रों, भतीजों, भांजों व अनेक रिश्तेदारों सहित जन्म भूमि और धर्म की रक्षा के लिए बलिदान दे दिया.जिस स्थान पर उनका शरीर गिरा था उसे गोगामेडी कहते हैं.यह स्थान हनुमानगढ़ जिले की नोहर तहसील में है. इसके पास में ही गोरखटीला है.
इनके भक्तों की संख्या करोडो में है,सभी उन्हें मात्र सिद्ध और चमत्कारी पुरुष के रूप में जानते हैं किन्तु उनके वास्तविक इतिहास से बहुत कम लोग परिचित हैं,बागड़ राज्य का स्वामी होने के कारण इन्हें बागड़वाला भी कहा जाता है।
विद्वानों व इतिहासकारों दशरथ शर्मा,देवी सिंह मुन्डावा जैसे इतिहासकारों ने उनके जीवन को शौर्य, धर्म, पराक्रम व उच्च जीवन आदर्शों का प्रतीक माना है। इतिहासकारों के अनुसार गोगादेव अपने बेटों सहित महमूद गजनबी के आक्रमण के समय उससे युद्ध करते हुए शहीद हो गए थे।
आज हम इनके जीवन की ऐतिहासिक घटनाओं पर प्रकाश डालेंगे.......
====गुरु गोरखनाथ जी के आशीर्वाद से जुझार वीर गोगा जी चौहान जी का जन्म =====
राजस्थान के जिला चूरू के ददरेबा ठिकाने (बागड़ राज्य) मे चौहान वंश की चाहिल अथवा साम्भर शाखा में उमर सिंह जी का शाशन था जिनके दो पुत्र हुए बडे पुत्र का नाम जेवरसिंह व छोटे पुत्र का नाम घेबरसिंह था इन दोनो का विवाह सरसा पट्टन की राजकुमारी बाछल और काछल से हुआ पर बहुत दिनो तक दोनो के कोई संतान नही हुई तब दोनो राजकुमारीयो ने गोरखनाथ जी की पूजा करनी प्रारंंभ की, जब आशिर्वाद प्राप्ति का समय आया तो काछल पहले चली जाती है जिनको गोरखनाथ जी आशीर्वाद देते है जिनसे दो पुत्र अर्जुन और सुर्जन हुए फिर बाद मे बाछल गोरखनाथ जी के पास आशीर्वाद लेने जाती है फिर उनको ज्ञात हुआ के आशीर्वाद तो काछल को प्राप्त हुआ पर फिर भी वो काछल को क्षमा करके बाछल को एक दिव्यपुत्र का आशीर्वाद देते है जिससे उनको संवत १००३ मे भादो सुदी नवमी को जाहर वीर गोगा जी के रूप मे पुत्र प्राप्त हुआ !
जिस समय गोगाजी का जन्म हुआ उसी समय एक ब्राह्मण के घर नरसिंह पांडे का जन्म हुआ।ठीक उसी समय एक हरिजन के घर भज्जू कोतवाल का जन्म हुआ और एक भंगी के घर रत्ना जी भंगी का जन्म हुआ। यह सभी गुरु गोरखनाथ जी के शिष्य हुए।
उसी समय उनकी बंध्या घोडी ने भी एक नीले घोड़े को जन्म दिया।ये सब गोगा जी के आजीवन के साथी हुए।गोगा जी के साथ साथ इन सबकी भी बहुत मान्यता है।
महान इतिहासकार देवीसिंह मंडावा लिखते हैं कि "चौहानो की साम्भर शाखा में एक घंघ ने चुरू से चार कोस पूर्व में घांघू बसाकर अपना राज्यस्थापित किया. उसके पांच पुत्र और एक पुत्री थी. उसने अपने बड़े पुत्र हर्ष को न बनाकर दूसरी रानी के बड़े पुत्र कन्हो को उत्तराधिकारी बनाया. हर्ष और जीण ने सीकर के दक्षिण में पहाड़ों पर तपस्या की.जीण बड़ी प्रसिद्ध हुई और देवत्व प्राप्त किया. कन्हो की तीन पीढ़ी बाद जीवराज (जेवर) राणा हुए. उनकी पत्नी बाछल से गोगादेव पैदा हुए"........
====गोगा जी का विवाह और चचेरे भाईयो का वीरगति पाना====
कोलमंड की राजकुमारी कंसलमदे सिरियल को सांप काट लिया था और वह मरणास्न हो गई थी पर गोगा जी ने मंत्र उच्चारण से उस सर्प को बुलाकर जहर चुसवाया जिससे सिरियल पुऩ: जीवित हो गई , इसी कारण इन्हें उत्तर प्रदेश में इन्हें जहरपीर या जाहरवीर तथा मुसलमान इन्हें गोगा पीर कहते हैं. सिरियल का विवाह गोगा जी के साथ हुआ!
मूसलमान आक्रमणकारीयो से युद्ध करने के बाद जेबर सिंह ने वीरगति प्राप्त की फिर घेबर सिंह जी ने भी मुगलो के साथ युद्ध करके वीरगती प्राप्त की उसके बाद गोगा जी ददरेबा के शासक बने और ये महमूद गजनवी के समकालीन हुए और गोगा जी ने अरब से आए आक्रमणकारीयो को ग्यारह बार परास्त किया !
गोगा जी के सम्बंधी नाहरसिंह ने उनके चचेरे भाई अर्जुन सुर्जन को गोगा जी के खिलाफ भडकाया के तुम दोनो बडे हो, गोगा कैसे राजा बन सकता है इस बात से युद्ध छिड गया जिसमे गोगा जी ने दोनो का सिर काटकर माता बाछल को भेट कर दिया जिससे नाराज होकर माता ने उनको राज्य से निकाल दिया तब वो गोरखनाथ जी के आश्रम मे चले जाते है और वहां योग और सिद्धी से अपनी पत्नी के पास चले जाते थे बाद मे ये बात बाछल माता को पता चलती है वो उनको फिर पुन: ऱाज्य आसीन करती है!
===गोगा जी द्वारा गौरक्षा,राज्य विस्तार,विधर्मियों से संघर्ष और अध्यात्मिक साधना ===
गोगा जी ने अरब आक्रमणकारीयो से 11 बार युद्ध करके उनको परास्त किया और अफगानिस्तान के बादशाह द्वारा लूटी हुई हजारो गायो को बचाया.अफगानिस्तान का शाह रेगिस्तान से हजारो गायो को लूटकर ले जा रहा था उसी समय गोगा जी ने उसपर आक्रमण करके हजारो गायो को छुडा लिया,इससे डरकर अरब के लूटेरो ने गाय धन को लूटना बंद कर दिया !
महमूद गजनवी ने सन १००० से १०२६ ईस्वी तक भारत पर १७ बार चढाई कर के लूट खसोट और अत्याचार किये उस समय गोगा जी ही थे जिन्होने महमूद गजनवी को कई बार मात दी थी जिससे गोगा जी का राज्य और शक्तिशाली हो गया और उसका नाम ददरेबा सेे बदलकर गोगागढ रख दिया!राज्य सतलुज सें हांसी (हरियाणा) तक फ़ैल गया था.रणकपुर शिलालेख में गोगाजी को एक लोकप्रिय वीर माना है.यह शिलालेख वि.1496 (1439 ई.) का है.
गोगा जी की आध्यात्मिक साधना भी साथ साथ चलती थी वो सर्पदंश का इलाज कर देते थे तथा जो सांप काटता था उसको बुलाकर उसको जहर चुसने पर बाध्य कर देते थे -!जल्दी ही उनकी ख्यांति दूर दूर तक फ़ैल गयी....
===महमूद गजनवी से संघर्ष और गोगा जी को वीरगति प्राप्त होना===
राजा हर्षवर्धन के समय में ही हिन्दुस्तान के पश्चिमी भूभाग बलूचिस्तान के कोने में एक बादल मंडरा ने लगा था। ये संकेत था हिन्दुस्तान पर आने वाले उस मजहबी बवण्डर का जिसका इंसानियत से कोई वास्ता ही नहीं था।लूटमार दरिद्रता वेश्यावृत्ति की कुरीतियों से जकङे तुर्क कबीलो ने इस मजहब का नकाब पहनकर हिन्दुस्तान मे जो हैवानियत का खेल खेला,उसे युगों युगों तक भुलाया नहीं जा सकता । एक हाथ में इस्लाम का झंडा व दुसरे हाथ में तलवार से बेगुनाह इन्सानो के खुन की नदियाँ बहाता हिन्दुस्तान आया वो था गजनी का सुल्तान महमूद गजनवी.वो हर साल हिन्दुस्तान आता था आैर लूटमार कर गजनी भाग जाता था!
पहली बार जब महमूद हिन्दुस्तान में लूट के इरादे से आया तो उसका मुकाबला तंवर वंशी जंजुआ राजपूत राजा जयपाल शाही से हुआ। धोखाधड़ी से उसने जयपाल को हराया था.राजा जयपाल शाही ने अपनी सेना के साथ अन्तिम साँस तक मुकाबला किया और वीरगती प्राप्त की.
महमूद गजनवी ने सन 1024 ईस्वी में गुजरात में सोमनाथ के मंदिर को लूटकर रक्त की नदियाँ बहा दी और मंदिर को भी तोड़ दिया,जब यह समाचार गोगा जी को मिला तो बूढे गोगा बप्पा का शरीर क्रोध से थर्राने लगा और उनका खून खोलने लगा...
महमूद सोमनाथ पर आक्रमण कर उस अद्वितीय धरोहर को नष्ट करने में सफल रहा लेकिन उसको इतनी घबराहट थी कि वापसी के समय बहुत तेज गति से चलकर अनुमानित समय व रणयोजना से पूर्व गोगा के राज्य के दक्षिण-पश्चिम क्षेत्र मे प्रवेश कर गया।
गोगा जी ने महमूद की फौज से लोहा लेने का निश्चय किया।उन्होंने अपने पोते को (जिनका नाम सामंत चौहान था) जो बहुत ही चतुर था उन सभी राजाओं के पास सहायता हेतु भेजा जिनके राज्यों के रास्ते लूटमार करते हुए महमूद को सोमनाथ मन्दिर लूटने जाना था। सामंत सहायता के लिए सभी राजाओ से मिला लेकिन हर जगह उसे निराशा ही हाथ लगी।महमूद की फौज गोगामढी से गुजर रही थी। मदद की कोई आशा नहीं देखकर गोगा बप्पा ने अपने चौहान भाईयो के साथ केसरिया बाना पहनकर 900 सिपाहियों के साथ महमूद की फौज का पीछा किया और रास्ता रोका .भयंकर युद्ध हुआ महमूद के लाखों सिपाहियों से लोहा लेते हुए और उनका संहार करते हुए अपनी छोटी सी सेना के साथ गोगा बप्पा भी वीरगती को प्राप्त हो गये।
ये समाचार जब सामंत को मिला तो महमूद की फौज का खात्मा करने की योजना बनाई।उसने ऊटनी पर सवार होकर महमूद की फौज का पीछा किया और मुहम्मद की फौज में रास्ता बताने का बहाना बनाकर शामिल हो गया .भीषण तेज गर्मी और आँधियों के कारण महमूद और उसकी फौज सोमनाथ का रास्ता भटक गयी .
तब सामंत ने कहा कि वो सोमनाथ मन्दिर का दूसरा एक और रास्ता जानता है जो कम समय मे ही सोमनाथ मन्दिर पहुंचा जा सकता है.महमूद के पास कोई चारा न था। उसने पैदल फौज को सामंत के साथ जाने का हुक्म दिया.फिर क्या था सामंत चौहान अपनी योजना अनुसार फौज को गुमराह करते हुए जैसलमेर के रेतीले टीलों में ले गया जहां कोसो की दूरी तय करने पर पानी नसीब न हो सके.. अवसर मिला और सावंत चौहान ने अपना खांडा निकाल ली और हर हर महादेव का नारा बुलंद करते हुए शत्रुओ पर भूखे शेर की तरह टूट पड़ा।।
तभी आँधी ने भी विकराल रूप धारण कर लिया रेतीले टीलों में पहले पीले साँप पाये जाते थे जिन्होंने शत्रुओ का डस डस कर वध कर दिया। । जो बचे वे रेतीले तूफान भीषण गर्मी में जलकर स्वाहा हो गये.इस प्रकार सावंत चौहान महमूद की आधी फौज के साथ लङता हुआ रेगिस्तान में धरती माता की गोद में समा गया।।
====गोगा जी के वंशज और उनके बारे में मिथ्या प्रचार का खंडन=====
ये प्रचार बिल्कुल गलत है कि गोगा जी कलमा पढकर मुसलमान बन गए थे बल्की वो तो गायो को बचाते हुए और तुर्क मुस्लिम हमलावरों से जूझते हुए खुद वीरगति को प्राप्त हो गए थे !
गोगाजी के कोई पुत्र जीवित न होने से उसके भाई बैरसी या उसके पुत्र उदयराज ददरेवा के राणा बने.. गोगाजी के बाद बैरसी , उदयराज ,जसकरण , केसोराई, विजयराज, मदनसी, पृथ्वीराज, लालचंद, अजयचंद, गोपाल, जैतसी, ददरेवा की गद्दी पर बैठे. जैतसी का शिलालेख प्राप्त हुआ है जो वि.स. 1270 (1213 ई.) का है. इसे वस्तुत: 1273 वि.स. का होना बताया है.
जैतसी के बाद पुनपाल, रूप, रावन, तिहुंपाल, मोटेराव, यह वंशक्रम कायम खान रासोकार ने माना है. जैतसी के शिलालेख से एक निश्चित तिथि ज्ञात होती है. जैतसी गोपाल का पुत्र था जिसने ददरेवा में एक कुआ बनाया. गोगाजी महमूद गजनवी से 1024 में लड़ते हुए मारे गए थे. गोगाजी से जैतसी तक का समय 9 राणाओं का प्राय: 192 वर्ष आता है जो औसत 20 वर्ष से कुछ अधिक है. जैतसी के आगे के राणाओं का इसी औसत से मोटेराव चौहान का समय प्राय: 1315 ई. होता है जो फिरोज तुग़लक के काल के नजदीक है. इससे स्पस्ट होता है कि मोटा राव का पुत्र कर्म सी उर्फ़ कायम खां फीरोज तुग़लक (1309-1388) के समय में मुसलमान बना ......
सत्य ये है कि उनके तेहरवे वंशधर कर्मसी(कर्मचन्द) जो उस समय बालक था को चौहानो से लड़ाई के बाद जंगल मे से दिल्ली का फिरोजशाह तुगलक(१३५१-१३८८) उठाकर ले गया था ! फिरोजशाह ने उसे जबरदस्ती मुसलमान बनाकर अपनी पुत्री उससे ब्याह दी और उसका नाम कायंम खान रख दिया और बाद मे ये ही कायंम खान बहलोल लोदी के शासनकाल मे हिसार का नवाब बना था इसी कायम खां के वंशज कायम खानी चौहान (मुसलमान) कहलाए और ये अभी भी गौगा जी की पूजा करते है!
कायम खां यद्यपि धर्म परिवर्तन कर मुसलमान हो गया था पर उसके हिन्दू संस्कार प्रबल थे. उसका संपर्क भी अपने जन्म स्थान के आसपास की शासक जातियों से बना रहा था.
श्री ईश्वर सिंह मंडाढ कृत राजपूत वंशावली के अनुसार गोगा जी के वंशज मोटा राव के एक पुत्र जगमाल हिन्दू रह गए थे.जिनके वंशज शिवदयाल सिंह और पहाड़ सिंह जीवित हैं.
===चौहान वंश की चाहिल शाखा का संक्षिप्त विवरण===
चौहान वंश मे अरिमुनि, मुनि, मानिक व जैंपाल चार भाई हुए ! अरिमुनि के वंशज राठ के चौहान हुए ! मानक (माणिक्य) के वंशज शाकम्भरी (सांभर) रहे ! मुनि के वंशजो मे कान्ह हुआ ! कान्ह के पुत्र अजरा के वंशज चाहिल से चाहिलो की उतपत्ति हुई! (क्यामखां रासा छन्द सं. १०८) रिणी (वर्तमान तारानगर) के आसपास के क्षेत्रो मे १२ वी १३ वी शताब्दी मे चाहिल शासन करते थे और यह क्षेत्र चाहिलवाडा कहलाता था ! आजकल चाहिल प्राय: मुसलमान है! गूगामेढी (हनुमानगढ़) के पूजारे चाहिल मुसलमान है!
कायमखानी जहाँ गोगा जी के वंश को चाहिल शाखा से बताते हैं वहीँ देवी सिंह मुंडावा जी के अनुसार ददेरवा के चौहान साम्भर शाखा से मानते थे....
====गोगा जी की मान्यता====
गोगा जी चौहान को उत्तर भारत मे लोक देवता के रूप मे पूजा जाता है,गोगामेढी पर हर साल भाद्र पद कृष्ण नवमी को मेला लगता है जहां दूर दूर से हिन्दू और मुसलमान पूजा करने आते है!आज भी सर्पदंश से मुक्ति के लिए गोगाजी की पूजा की जाती है. गोगाजी के प्रतीक के रूप में पत्थर या लकडी पर सर्प मूर्ती उत्कीर्ण की जाती है. लोक धारणा है कि सर्प दंश से प्रभावित व्यक्ति को यदि गोगाजी की मेडी तक लाया जाये तो वह व्यक्ति सर्प विष से मुक्त हो जाता है.
===भिवानी में कलिंगा स्थित गोगा जी की महाडी===
गोगादेव की जन्मभूमि पर आज भी उनके घोड़े का अस्तबल है और सैकड़ों वर्ष बीत गए, लेकिन उनके घोड़े की रकाब अभी भी वहीं पर विद्यमान है। उक्त जन्म स्थान पर गुरु गोरक्षनाथ का आश्रम भी है और वहीं गोगादेव की घोड़े पर सवार मूर्ति है.हनुमानगढ़ जिले के नोहर उपखंड में स्थित गोगाजी के पावन धाम गोगामेड़ी स्थित गोगाजी का समाधि स्थल जन्म स्थान से लगभग 80 किमी की दूरी पर स्थित है.
गोगामेडी में गोगाजी का मंदिर एक ऊंचे टीले पर मस्जिदनुमा बना हुआ है, इसकी मीनारें मुस्लिम स्थापत्य कला का बोध कराती हैं। कहा जाता है कि फिरोजशाह तुगलक सिंध प्रदेश को विजयी करने जाते समय गोगामेडी में ठहरा था। रात के समय बादशाह तुगलक व उसकी सेना ने एक चमत्कारी दृश्य देखा कि मशालें लिए घोड़ों पर सेना आ रही है।तुगलक की सेना में हाहाकार मच गया। तुगलक की सेना के साथ आए धार्मिक विद्वानों ने बताया कि यहां कोई महान सिद्ध है जो प्रकट होना चाहता है। फिरोज तुगलक ने लड़ाई के बाद आते समय गोगामेडी में मस्जिदनुमा मंदिर का निर्माण करवाया।
हरियाणा पंजाब उत्तर प्रदेश राजस्थान में हजारो गाँव में गोगा जी की माडी बनी हुई हैं और उनकी हर जगह हर धर्म और जाति के लोगो द्वारा पूजा की जाती है,उनकी ध्वजा नेजा कहलाती है,गोगा जाहरवीर जी की छड़ी का बहुत महत्त्व होता है और जो साधक छड़ी की साधना नहीं करता उसकी साधना अधूरी ही मानी जाती है क्योंकि मान्यता के अनुसार जाहरवीर जी के वीर छड़ी में निवास करते है।
गौरक्षक,धर्मरक्षक,सिद्ध पुरुष गोगा जी को कोटि कोटि नमन----------
जय जुझार वीर गोगा जी चौहान (जाहरवीर)जी की,जय गुरु गोरखनाथ जी की
सन्दर्भ-------
1-मुह्नौत नैनसी की ख्यांत पृष्ठ संख्या 194-195
2-ठाकुर त्रिलोक सिंह धाकरे कृत राजपूतों की वंशावली एवं इतिहास महागाथा पृष्ठ संख्या 630-631
3-Early chauhan dynasty by Dashrath sharma page no-365-366
4-ईश्वर सिंह मंडाढ कृत राजपूत वंशावली पृष्ठ संख्या 198-199
5-देवी सिंह मुन्डावा कृत सम्राट पृथ्वीराज चौहान पृष्ठ संख्या 134
6-रघुनाथ सिंह कालीपहाड़ी कृत क्षत्रिय राजवंश पृष्ठ संख्या 203
7-कायमखान रासो पृष्ठ संख्या 10
8-श्री सार्वजनिक पुस्तकालय तारानगर' की स्मारिका 2013-14: 'अर्चना' में प्रकाशित मातुसिंह राठोड़ के लेख 'चमत्कारिक पर्यटन स्थल ददरेवा' (पृ. 21-25)
9-कर्नल जेम्स टॉड
10- गोविंद अग्रवाल: चूरू मण्डल का शोधपूर्ण इतिहास, पृ. 51
11-गोरी शंकर हीराचंद ओझा: बीकानेर राज्य का इरिहास भाग प्रथम, पृ. 64
12- A glossary of the Tribes and Castes of the Punjab and North-West Frontier Province By H.A. Rose Vol II/C, p.210

तुर्क-मुगल-अफगान हमलावरो को खदेड़ने वाले गुजरात के वीर राजपूत -Rajput -mughal-turk wars

तुर्क-मुगल-अफगान हमलावरो को खदेड़ने वाले गुजरात के वीर राजपूत - पार्ट 2 🔸
 ठाकोर रणमलजी जाडेजा (खीरसरा) - जूनागढ़ के नवाब ने खीरसरा पर दो बार हमला किया लेकिन रणमलजी ने उसे हरा दिया, युद्ध की जीत की याद मे जूनागढ की दो तोपे खीरसरा के गढ़ मे मौजूद हैँ ||
 राणा वाघोजी झाला (कुवा) - मुस्लिम सुल्तान के खिलाफ बगावत करी, सुल्तान ने खलिल खाँ को भेजा लेकिन वाघोजी ने उसे मार भगाया, तब सुल्तान खुद बडी सेना लेकर आया, वाघोजी रण मे वीरगति को प्राप्त हुए और उनकी रानीयां सती हुई ||
 राणा श्री विकमातजी || जेठवा (छाया) - खीमोजी के पुत्र विकमातजी द्वितीय ने पोरबंदर को मुगलो से जीत लिया। वहां पर गढ का निर्माण कराया। तब से आज तक पोरबंदर जेठवाओ की गद्दी रही है ||
 राव रणमल राठोर (ईडर) - जफर खाँ ने ईडर को जीतने के लिये हमला किया लेकिन राव रणमल ने उसे हरा दिया. श्रीधर व्यासने राव रणमल के युद्ध का वर्णन 'रणमल छंद' मे किया है ||
 तेजमलजी, सारंगजी, वेजरोजी सोलंकी (कालरी) - सुल्तान अहमदशाह ने कालरी पर आक्रमण किया, काफी दिनो तक घेराबंदी चली, खाद्यसामग्री खत्म होने पर सोलंकीओ ने शाका किया, सुल्तान की सेना के मोघल अली खान समेत 42 बडे सरदार, 1300 सैनिक और 17 हाथी मारे गये। तेजमलजी, सारंगजी और वेजरोजी वीरगति को प्राप्त हुए ||
 ठाकुर सरतानजी वाला (ढांक) - तातरखां घोरी ने ढांक पर हमला किया, सरतानजी ने सामना किया पर संख्या कम होने की वजह से समाधान कर ढांक तातर खां को सोंप ढांक के पीछे पर्वतो मे चले गये, बाद मे चारण आई नागबाई के आशिर्वाद से अपने 500 साथियो के साथ ढांक पर हमला किया और तातर खां और उसकी सेना को भगा दिया, मुस्लिमो की सेना के नगाडे आज भी उस युद्ध की याद दिलाते ढांक दरबारगढ मे मोजूद है ||
 ठाकोर वखतसिंहजी गोहिल (भावनगर) - भावनगर के पास ही तलाजा पर नूरूद्दीन का अधिकार था, ठाकोर वखतसिंहजी ने तलाजा पर आक्रमण किया। नूरुद्दीन की सेना के पास बंदूके थी लेकिन राजपूतो की तलवार के सामने टिक ना सकी। वखतसिंहजी ने खुद अपने हाथो नुरुदीन को मार तलाजा पर कब्जा किया ||
 रणमलजी जाडेजा (राजकोट) - राजकोट ठाकोर महेरामनजी को मार कर मासूमखान ने राजकोट को 'मासूमाबाद' बनाया. महेरामनजी के बडे पुत्र रणमलजी और उनके 6 भाईओने 12 वर्षो बाद मासूम खान को मार राजकोट और सरधार जीत लिया, अपने 6 भाईओ को 6-6 गांव की जागीर सोंप खुद राजकोट गद्दी पर बैठे ||
 जेसाजी और वेजाजी सरवैया (अमरेली) - जुनागढ के बादशाह ने जब इनकी जागीरे हडप ली तब बागी बनकर ये बादशाह के गांव और खजाने को लूटते रहे लेकिन कभी गरीब प्रजा को परेशान नही किया | बगावत से थककर बादशाह ने इनसे समझौता कर लिया और जागीर वापिस दे दी ||
10  रा' मांडलिक (जूनागढ) - महमूद बेगडा ने जुनागढ पर आक्रमण कर जीतना चाहा पर कई महिनो तक उपरकोट को जीत नही सका। इससे चिढ़कर जुनागढ के गांवो को लूटने लगा और प्रजा का कत्लेआम करने लगा, तब रा' मांडलिक और उनकी राजपूती सेना ने शाका कर बेगडा की सेना पर हमला कर दिया। संख्या कम होने की वजह से रा' मांडलिक ईडर की ओर सहायता प्राप्त करने निकल गये, बेगडा ने वहा उनका पीछा किया, रा' मांडलिक और उनके साथी बहादुरी से लडते हुए वीरगति को प्राप्त हुए ||
11  कनकदास चौहान (चांपानेर) - गुजरात के सुल्तान मुजफ्फर शाह ने चांपानेर पर हमला कर उस पर मुस्लिम सल्तनत स्थापित करने की सोची लेकिन चौहानो की तलवारो ने उसको ऐसा स्वाद चखाया की हार कर लौटते समय ही मुजफ्फर शाह की मृत्यु हो गई ||
12  विजयदास वाजा (सोमनाथ) - सुल्तान मुजफ्फरशाह ने सोमनाथ को लुंटने के लिये आक्रमण किया लेकिन विजयदास वाजा ने उसका सामना करते हुए उसे वापिस लौटने को मजबूर कर दिया, दो साल बाद सुल्तान बडी सेना लेकर आया, विजयदास ने बडी वीरता से उसका सामना कर वीरगति प्राप्त की ||
👆👆👆👆 ये तो सिर्फ गिने चुने नाम है, ऐसे वीरो के निशान आपको यहां हर कदम, हर गांव मिल जायेगे.