Thursday, March 8, 2018

आदिनाथ” मंदिर से बनी “अदीना” मस्जिद आइए जानते है कब से शुरु हुआ ये षडयंत्र

“बिजया” मंदिर बना “बीजामंडल” मस्जिद
मूल नाम: बीजा मंडल या बिजया मंदिर (हिन्दू देवी को समर्पित)
स्थान: विदिशा, मध्य प्रदेश
इस्लामिक अत्याचार के बाद परिवर्तित नाम: बीजा मंडल मस्जिद
मध्य प्रदेश की राजधानी भोपाल से लगभग ६० किलोमीटर की दूरी पर स्थित है – विदिशा शहर। विदिशा अपनी बीजामंडल मस्जिद और उसके दिलचस्प इतिहास के लिए प्रसिध्द है।
इस्लामिक राज में भारतवर्ष के बहुत से अद्भुत वैभवशाली मंदिर विनष्ट कर मस्जिद में बदल दिए गए थे। हिन्दू मंदिरों को लूट-खसोट कर, उनकी संपत्ति हड़प कर, उसे तबाह करने के बाद उसी ढहाए हुए मंदिर के बचे हुए अवशेषों से वहां मस्जिद बना दी जाती थी। और इस तरह एक हिन्दू मंदिर मस्जिद में तब्दील कर दिया जाता था, बीजामंडल मस्जिद भी इसी का एक उदाहरण है।
आज अपना सारा वैभव खोकर खड़ा बीजामंडल मुग़ल और इस्लामिक लुटेरों के भीषण क्रूर अत्याचार की दर्दनाक कहानी कह रहा है।
बिजया मंदिर परमार राजाओं द्वारा बनवाया गया प्रतिष्ठा की देवी चर्चिका का मंदिर था। इस मंदिर को ध्वस्त कर उसी की तोड़ी गई सामग्री से वहां बीजामंडल मस्जिद बना दी गई।
वहां मौजूद एक स्तंभ पर मिले संस्कृत अभिलेख के अनुसार मूलतः यह मंदिर विजय दिलाने वाली देवी ‘विजया’ को अर्पित था, जिसे मालवा के राजा नरवर्मन ने बनवाया था। भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण (ASI) भी इसका स्पष्ट उल्लेख करता है।
बीजा या बिजया शब्द – देवी विजया रानी के नाम का ही बिगड़ा हुआ रूप है। इस तरह बीजा मंडल या बिजया मंदिर एक हिन्दू देवी को समर्पित मंदिर था।
सन् १६५८-१७०७ में औरंगजेब की क्रूर निगाह इस पर पड़ी, जिसने अपना शिकार बनाते हुए इसे लूट-खसोट कर तहस-नहस कर दिया। उसने कीमती मूर्तियों को मंदिर के उत्तरी भाग में दबवा दिया और इसे एक मस्जिद में परिवर्तित कर दिया।
भले ही यह परिसर अब भारतीय पुरातत्व विभाग द्वारा स्मारक के रूप में संरक्षित है लेकिन पिछले ३०० वर्षों से इसका इस्तेमाल खासतौर से ईद के मौके पर ईदगाह के रूप में और बड़ी महफिलों के लिए होता आ रहा है।
सन् १९९१ की एक तूफानी रात में इस मस्जिद के उत्तरी किनारे की दीवार भारी बारिश के कारण भहराकर गिर पड़ी। टूट कर उलट-पुलट हो चुकी इस दीवार ने बिजया मंदिर की ३०० वर्ष पुरानी दबी हुई समृद्धि को उजागर कर दिया। भारतीय पुरातत्व विभाग भी यह स्वीकार करता है कि उनके द्वारा वहां खुदाई करवा कर कई तराशी हुई मूर्तियां, बहुमूल्य ख़जाना और प्रतिमाएं प्राप्त की गईं।
बीजामंडल मस्जिद की दिवारों और स्तंभों पर रामायण और महाभारत के अभिलेख खुदे हुए हैं। यह सभी प्रमाण लोगों के देखने के लिए वहां उपलब्ध हैं।
मुसलमानों को इस बात को समझना होगा कि कैसे उनके हिन्दू पूर्वजों (काफिरों) को और उनकी सांस्कृतिक धरोहरों को जबरन इस्लाम में परिवर्तित किया गया है। सांस्कृतिक धरोहर को वापस पाने की इस मुहीम में उन्हें हिन्दुओं के साथ आकर इसे और गति प्रदान करनी चाहिए।




मनीषा सिंह बाईसा जगह मेवाड़ / मेड़ता , राजपुताना राजस्थान की कलम से : 

Sunday, March 4, 2018


कुतुबुद्दीन ऐबक और क़ुतुबमीनार---

किसी भी देश पर शासन करना है तो उस देश के लोगों का ऐसा ब्रेनवाश कर दो कि वो अपने देश, अपनी संस्कृति और अपने पूर्वजों पर गर्व करना छोड़ दें. इस्लामी हमलावरों और उनके बाद अंग्रेजों ने भी भारत में यही किया. हम अपने पूर्वजों पर गर्व करना भूलकर उन अत्याचारियों को महान समझने लगे जिन्होंने भारत पर बेहिसाब जुल्म किये थे।

अगर आप दिल्ली घुमने गए है तो आपने कभी विष्णू स्तम्भ (क़ुतुबमीनार) को भी अवश्य देखा होगा. जिसके बारे में बताया जाता है कि उसे कुतुबुद्दीन ऐबक ने बनबाया था. हम कभी जानने की कोशिश भी नहीं करते हैं कि कुतुबुद्दीन कौन था, उसने कितने बर्ष दिल्ली पर शासन किया, उसने कब विष्णू स्तम्भ (क़ुतुबमीनार) को बनवाया या विष्णू स्तम्भ (कुतूबमीनार) से पहले वो और क्या क्या बनवा चुका था ?

कुतुबुद्दीन ऐबक, मोहम्मद गौरी का खरीदा हुआ गुलाम था. मोहम्मद गौरी भारत पर कई हमले कर चुका था मगर हर बार उसे हारकर वापस जाना पडा था. ख्वाजा मोइनुद्दीन चिश्ती की जासूसी और कुतुबुद्दीन की रणनीति के कारण मोहम्मद गौरी, तराइन की लड़ाई में पृथ्वीराज चौहान को हराने में कामयाबी रहा और अजमेर / दिल्ली पर उसका कब्जा हो गया।

अजमेर पर कब्जा होने के बाद मोहम्मद गौरी ने चिश्ती से इनाम मांगने को कहा. तब चिश्ती ने अपनी जासूसी का इनाम मांगते हुए, एक भव्य मंदिर की तरफ इशारा करके गौरी से कहा कि तीन दिन में इस मंदिर को तोड़कर मस्जिद बना कर दो. तब कुतुबुद्दीन ने कहा आप तीन दिन कह रहे हैं मैं यह काम ढाई दिन में कर के आपको दूंगा।

कुतुबुद्दीन ने ढाई दिन में उस मंदिर को तोड़कर मस्जिद में बदल दिया. आज भी यह जगह "अढाई दिन का झोपड़ा" के नाम से जानी जाती है. जीत के बाद मोहम्मद गौरी, पश्चिमी भारत की जिम्मेदारी "कुतुबुद्दीन" को और पूर्वी भारत की जिम्मेदारी अपने दुसरे सेनापति "बख्तियार खिलजी" (जिसने नालंदा को जलाया था) को सौंप कर वापस चला गय था।

कुतुबुद्दीन कुल चार साल (१२०६ से १२१० तक) दिल्ली का शासक रहा. इन चार साल में वो अपने राज्य का विस्तार, इस्लाम के प्रचार और बुतपरस्ती का खात्मा करने में लगा रहा. हांसी, कन्नौज, बदायूं, मेरठ, अलीगढ़, कालिंजर, महोबा, आदि को उसने जीता. अजमेर के विद्रोह को दबाने के साथ राजस्थान के भी कई इलाकों में उसने काफी आतंक मचाया।

जिसे क़ुतुबमीनार कहते हैं वो महाराजा वीर विक्रमादित्य की वेदशाला थी. जहा बैठकर खगोलशास्त्री वराहमिहर ने ग्रहों, नक्षत्रों, तारों का अध्ययन कर, भारतीय कैलेण्डर "विक्रम संवत" का आविष्कार किया था. यहाँ पर २७ छोटे छोटे भवन (मंदिर) थे जो २७ नक्षत्रों के प्रतीक थे और मध्य में विष्णू स्तम्भ था, जिसको ध्रुव स्तम्भ भी कहा जाता था।

दिल्ली पर कब्जा करने के बाद उसने उन २७ मंदिरों को तोड दिया।विशाल विष्णु स्तम्भ को तोड़ने का तरीका समझ न आने पर उसने उसको तोड़ने के बजाय अपना नाम दे दिया। तब से उसे क़ुतुबमीनार कहा जाने लगा. कालान्तर में यह यह झूठ प्रचारित किया गया कि क़ुतुब मीनार को कुतुबुद्दीन ने बनबाया था. जबकि वो एक विध्वंशक था न कि कोई निर्माता।

अब बात करते हैं कुतुबुद्दीन की मौत की।इतिहास की किताबो में लिखा है कि उसकी मौत पोलो खेलते समय घोड़े से गिरने पर से हुई. ये अफगान / तुर्क लोग "पोलो" नहीं खेलते थे, पोलो खेल अंग्रेजों ने शुरू किया. अफगान / तुर्क लोग बुजकशी खेलते हैं जिसमे एक बकरे को मारकर उसे लेकर घोड़े पर भागते है, जो उसे लेकर मंजिल तक पहुंचता है, वो जीतता है।

कुतबुद्दीन ने अजमेर के विद्रोह को कुचलने के बाद राजस्थान के अनेकों इलाकों में कहर बरपाया था. उसका सबसे कडा विरोध उदयपुर के राजा ने किया, परन्तु कुतुबद्दीन उसको हराने में कामयाब रहा. उसने धोखे से राजकुंवर कर्णसिंह को बंदी बनाकर और उनको जान से मारने की धमकी देकर, राजकुंवर और उनके घोड़े शुभ्रक को पकड कर लाहौर ले आया।

एक दिन राजकुंवर ने कैद से भागने की कोशिश की, लेकिन पकड़ा गया. इस पर क्रोधित होकर कुतुबुद्दीन ने उसका सर काटने का हुकुम दिया. दरिंदगी दिखाने के लिए उसने कहा कि बुजकशी खेला जाएगा लेकिन इसमें बकरे की जगह राजकुंवर का कटा हुआ सर इस्तेमाल होगा. कुतुबुद्दीन ने इस काम के लिए, अपने लिए घोड़ा भी राजकुंवर का "शुभ्रक" चुना।

कुतुबुद्दीन "शुभ्रक" घोडे पर सवार होकर अपनी टोली के साथ जन्नत बाग में पहुंचा. राजकुंवर को भी जंजीरों में बांधकर वहां लाया गया. राजकुंवर का सर काटने के लिए जैसे ही उनकी जंजीरों को खोला गया, शुभ्रक घोडे ने उछलकर कुतुबुद्दीन को अपनी पीठ से नीचे गिरा दिया और अपने पैरों से उसकी छाती पर क् बार किये, जिससे कुतुबुद्दीन वहीं पर मर गया।

इससे पहले कि सिपाही कुछ समझ पाते राजकुवर शुभ्रक घोडे पर सवार होकर वहां से निकल गए. कुतुबुदीन के सैनिको ने उनका पीछा किया मगर वो उनको पकड न सके. शुभ्रक कई दिन और कई रात दौड़ता रहा और अपने स्वामी को लेकर उदयपुर के महल के सामने आ कर रुका. वहां पहुंचकर जब राजकुंवर ने उतर कर पुचकारा तो वो मूर्ति की तरह शांत खडा रहा।

वो मर चुका था, सर पर हाथ फेरते ही उसका निष्प्राण शरीर लुढ़क गया. कुतुबुद्दीन की मौत और शुभ्रक की स्वामिभक्ति की इस घटना के बारे में हमारे स्कूलों में नहीं पढ़ाया जाता है लेकिन इस घटना के बारे में फारसी के प्राचीन लेखकों ने काफी लिखा है. *धन्य है भारत की भूमि जहाँ इंसान तो क्या जानवर भी अपनी स्वामी भक्ति के लिए प्राण दांव पर लगा देते हैं।

।।साभार।।