Friday, October 30, 2015

सेंगर राजपूतो की शौर्य गाथा

*****हिंदुओं का अंतिम गणतंत्र*****
The Last Republic of Hindus
—-लखनेसर के सेंगर राजपूतो की शौर्य गाथा—
Sengar Rajputs of Lakhnesar
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जैसा की सभी को पता है की 1947 में विभाजित होकर बचे भारत को 26 जनवरी 1950 को गणतंत्र घोषित किया गया। हालांकि भारत में गणतंत्र की व्यवस्था का चलन बहुत पुराना है। प्राचीन काल में भारत छोटे छोटे विभिन्न राज्यो में बटा हुआ था जिनमे अनेको क्षत्रिय वंश शाशन करते थे। इनकी शाशन पद्धति दो तरह की थी-
बहुत से राज्यो में वंशानुगत राजतांत्रिक शाशन व्यवस्था थी जिनमे राज्य का एक सर्वशक्तिमान शाशक होता था जो उस राज्य में शाशन करने वाले क्षत्रिय वंश का प्रमुख भी होता था। इन राज्यो में मगध, कौशल, काशी, हस्तिनापुर आदि प्रमुख थे।
दूसरी राजनितिक व्यवस्था गणतंत्र की थी जिसमे राज्य में एक क्षत्रीय वंश के सभी सदस्य शाशन में बराबर के भागीदार होते थे और शाशन से संबंधित निर्णय क्षत्रियो की सभाओँ में किये जाते थे। इन राज्यो को गणराज्य या संघ कहा जाता था। इस प्रणाली पर चलने वाले अनेक राज्य थे जैसे उत्तर बिहार का वृज्जि संघ जिसमे भगवान महावीर पैदा हुए, कपिलवस्तु का राज्य जिसमे गौतम बुद्ध ने जन्म लिया, मल्ल राज्य आदि। उत्तर पश्चिमी भारत के तो अधिकतर राज्य गणराज्य ही थे।
लेकिन अधिकतर लोगो को आश्चर्य होगा की आज से करीब 150 साल पहले तक भी एक छोटे से गणराज्य का अस्तित्व इस देश में था। यह गणराज्य था सेंगर राजपूतो का लखनेसर राज्य जो बलिया जिले में पड़ता है। बलिया जिले का लखनेसर परगना सेंगर राजपूतो के अधीन था लेकिन इनका कोई एक वंशानुगत नेता ना होकर सम्प्रभुता सभी सेंगर राजपूतो में निहित थी। जब भी कोई निर्णय लेना होता था तो सभी राजपूतो की सभा में निर्णय लिया जाता था। कोई भी अकेला व्यक्ति जमीन का स्वामी ना होकर पूरे लखनेसर परगना के सेंगर राजपूत जमीन में बराबर के साझेदार थे। 13वीं सदी में स्थापित हुआ यह गणतंत्र लगभग 500 साल तक जीवित रहा।
***जगमनपुर के राजपूत***
सेंगर राजपूतो के इतिहास आदि के बारे में हम अपनी पुरानी पोस्ट में बता चुके है। सबसे ज्यादा सेंगर राजपूत जालौन, औरैया, इटावा क्षेत्र में मिलते है जो उनके नाम पर सिंगारत(सिंगार राष्ट्र) या सिंगारघर के नाम से जाना जाता है। इस क्षेत्र से ही लखनेसर के सेंगर राजपूतो का निकास हुआ है।
प्राचीन काल में सेंगरो की एक धारा ने जालौन के कनार में आकर राज्य स्थापित किया। इस राज्य में 12वीं सदी में बिसुख देव या सुखदेव नाम के राजा हुए जिन्होंने कन्नौज के गहरवार राजा जयचंद की पुत्री देवकली से विवाह किया। इस विवाह सम्बन्ध की वजह से बिसुख देव की ताकत में वृद्धि हुई और राजा जयचन्द की चंदावर के युद्ध में गौरी के द्वारा हार और मृत्यु के बाद वो और ताकतवर बनकर उभरे और वर्तमान इटावा और औरैया जिले के हिस्सों को भी उन्होंने जीत लिया। यहाँ तक की बसिंध नदी का नाम भी सेंगर रख दिया गया।
बिसुख देव के बाद असाजीत हुए और उनके बाद मदनदेव, मदनदेव के रातहरा देव और उनके बाद सिंगीदेव। सिंगी देव की दो रानीया हुई- पहली इटावा की चौहाननी थी जिनसे मरजद देव हुए जो भरेह के सेंगर राजाओं के पूर्वज है। दूसरी रानी गौड़नी थी जिनसे 6 पुत्र हुए जिनके पट्टी नक्कट, पुरी धर, रूरू के राजा, ककौतु के राव और कुर्सी के रावत वंशधर है। बाद में कनार से बदल कर पास में ही जगमनपुर को राजधानी बनाया गया। आज भी जगमनपुर के राजा सेंगर राजपूतो के प्रमुख माने जाते है। इस क्षेत्र को पाँच नदियोँ के होने के कारण पंचनद भी कहा जाता है।
13वी सदी तक सेंगर राजपूतो ने जालौन से लेकर इटावा के बड़े हिस्से में मेवो को भगाकर पूर्ण नियंत्रण स्थापित कर लिया था। तुर्क हमलावरो के आगमन के बाद यहाँ के सेंगर राजपूतों का तुर्को से संघर्ष शुरू हुआ। सेंगरो ने तुर्को को कभी लगान देना पसन्द नही किया जिस वजह से निरन्तर उनका संघर्ष चलता रहा।
***लखनेसर राज्य की स्थापना***
इसी दौरान इस क्षेत्र के फफूंद से सेंगर राजपूतों का एक साहसिक दल हरी शाह उर्फ़ सूर शाह और बीर शाह नाम के दो भाइयो के नेतृत्व में अपनी किस्मत आजमाने पूर्वांचल की तरफ चला। इन लोगो ने गंगा और घाघरा नदियो के मध्य स्थित क्षेत्र में पहुँचकर अपना राज्य स्थापित करने का निर्णय लिया। इस क्षेत्र के घने जंगल से आच्छादित होने और एकांत में स्थित होने के कारण राजपूतो को ये उपयुक्त स्थान लगा और उन्होंने अपना राज्य स्थापित किया।
सूर शाह और उनके साथियों ने भरो से लखनेसर परगने को जीतकर राज्य स्थापित किया जबकी उनके भाई बीर शाह के वंशज भी पास ही सिकंदरपुर और जहानाबाद परगना में बसे जिन्हें आज बिरहिया राजपूत कहा जाता है।
***लखनेसर की शाशन व्यवस्था***
लखनेसर में स्थापित राज्य में किसी एक नेता का शाशन होने की जगह सभी सेंगर राजा थे और राज्य के शाशन में बराबर के हिस्सेदार थे। सभी सेंगर समान थे, उम्र के अलावा छोटे बड़े का कोई अंतर नही था। शाशन के सभी कार्यो में वरिष्ठ सेंगर मिलकर निर्णय करते थे लेकिन युद्ध के समय सभी पुरुष सेंगर जो हथियार उठाने में सक्षम होते थे हिस्सा लेते थे जिसमे उम्र का कोई भेद नही था।
वो हमेशा अपने को युद्ध के लिये तैयार रखते थे और हर तीसरे वर्ष बैसाख के महीने में सभी समर्थ सेंगर राजपूत पूरी तरह हथियारों से सज्जित होकर रसड़ा(ये उनकी राजधानी थी) में इकट्ठे होते थे जहाँ वंश के वरिष्ठ लोग संघ के योद्धाओं की सामूहिक ताकत का निरीक्षण करते थे। वहा पर वो तरह तरह के युद्ध आधारित खेल और युद्ध कलाओं का प्रदर्शन करते थे। इस वृहत सम्मेलन के गवाह बनने दूर दूर से लोग आते थे और सेंगर राजपूतो की एकता और ताकत से प्रभावित होकर जाते थे।
रसड़ा में सेंगरो के कुलदेवता श्रीनाथ जी का धाम है जिनका असली नाम अमर सिंह था। सम्मेलन के दौरान इसी धाम के चारो तरफ वंश के सभी लोग जमा होते थे। श्रीनाथ जी के प्रति लखनेसर के सेंगरो में अगाध श्रद्धा है और अपने सभी संघर्षो में विजय के लिये श्रीनाथ जी के आशीर्वाद और ताकत को ही जिम्मेदार मानते हैं। उस समय राज्य के राजस्व का भी एक हिस्सा श्रीनाथ जी को समर्पित किया जाता था।
राज्य की शाशन व्यवस्था बहुत साधारण थी। कृषक और व्यापारिक जातियो से जमीन उपयोग के बदले सामान्य कर लिया जाता था। ब्राह्मण, मजदूरो आदि को उनकी सेवा के बदले जमीन या और तरह के दान दिये जाते थे। बदले में सम्पूर्ण शाशन व्यवस्था और राज्य की सुरक्षा की जिम्मेदारी सेंगर राजपूतो के हाथ में होती थी। न्याय का काम ग्राम पंचायते करती थी जिनमे त्वरित और सस्ता न्याय होता था।
***मुग़लो से संघर्ष***
मध्यकाल में दिल्ली में मुस्लिम सत्ता स्थापित होने के बावजूद देश के अधिकतर हिस्सों में राजपूतो का शाशन बना रहा। राजस्थान के राजपूतों ने ऊची पहाड़ियों पर स्थित किलों से कई सदियों तक तुर्क, पठान, मुग़लो से संघर्ष किया और सफल प्रतिकार किया। इसी तरह उत्तर भारत के मैदानी इलाको में भी अधिकतर राजपूतो ने अपनी स्वतंत्रता अंतिम समय तक बनाए रखी।
मध्यकाल के इतालवी यात्री मनूची के अनुसार राजपूत जमींदार कभी भी मुग़लो को लगान देना पसन्द नही करते थे और जब सरकारी सेना लगान वसूलने भेजी जाती थी तो सभी राजपूत घने जंगलो में मौजूद अपने किलों/गढ़ीयो में शरण लेकर उनका प्रतिकार करते थे।
मैदानी इलाको में ऊँचे पहाड़ तो नही होते थे जिनका सहारा लेकर प्रतिकार किया जा सके इसलिये यहाँ के राजपूत वंश घने जंगलो का सहारा लेते थे। इसिलिये एक तरफ तो यहाँ राजपूतो द्वारा प्राकृतिक जंगलो का संरक्षण किया जाता था और दूसरी तरफ बांस के घने जंगल बड़ी संख्या में लगाए जाते थे। इन जंगलो के बीचों बीच किले होते थे जिनके चारोँ तरफ गहरी और दलदल से भरी खाई होती थी। इस जंगल को पार कर घुड़सवार सेना और तोपो का आना नामुमकिन होता था। किले के चारों और बांस की इतनी घनी आबादी होती थी की उनसे तोप के गोलों का पार होना संभव नही होता था जबकि किले के राजपूत आक्रमणकारी सेना पर आसानी से निशाना साध सकते थे जिससे वो अपने को सुरक्षित रखकर दुश्मन को ज्यादा से ज्यादा नुक्सान पहुँचाने का सामर्थ्य रखते थे। इन किलों से निकल कर राजपूत बादशाही सेना पर गुरिल्ला हमले भी करते थे।
इस तरह राजपूत अपने से काफी बड़ी और ताकतवर सेना का सफलतापूर्वक सामना करते थे और अधिकतर समय बादशाही सेना राजपूतों को दबाने में विफल रहकर राजपूतो से संधि कर के जो की राजपूतो के पक्ष में होती थी, वापिस जाने में ही अपनी भलाई समझती थी। इस तरह राजपूत अपनी सत्ता बनाए रखते थे और स्वतंत्र रूप से शाशन करते थे।
उपरोक्त रणनीति को राजपूतो ने 1857 के संघर्ष में अंग्रेज़ो के विरुद्ध भी इस्तमाल किया था। गौरतलब है की 1857 की क्रांति में सबसे ज्यादा सक्रीय भाग अवध और पूर्वांचल के राजपूतो ने ही लिया था जहाँ पर सैनिक विद्रोह जनविद्रोह बन गया था। अवध में इस रणनीति से अंग्रेज इतने परेशान हो गए थे की बगावत को दबाने के बाद अंग्रेज़ो ने बड़े पैमाने पर जंगलो को काटने और जलाने का अभियान चलाया। जंगल काट कर खेती करने वालो को कई ईनामो की घोषणा करी गई।
इसके अलावा सिर्फ अवध में ही एक साल के अंदर 1783 किलों/गढ़ियों को ध्वस्त किया जिनमे से 693 तोप, लगभग 2 लाख बंदूके, लगभग 7 लाख तलवारे, 50 हजार भाले और लगभग साढ़े 6 लाख अन्य तरह के हथियारों को अंग्रेज़ो ने जब्त करके नष्ट किया। इसके बाद शस्त्र रखने के लिये अंग्रेज़ो ने लाइसेंस अनिवार्य कर दिया जो बहुत कम लोगो को दिया जाता था। इसका परिणाम यह हुआ की अवध के राजपूत शस्त्रविहीन हो गए।
बहरहाल मध्यकाल में उत्तर भारत के मैदानी इलाको के राजपूतो ने जिनमे आज के हरयाणा, उत्तर प्रदेश और बिहार के राजपूत शामिल है ने सदियों तक इसी तरह तुर्क, मुग़लो का सामना किया लेकिन इनमे रोहिलखण्ड के कठेरिया राजपूत, अवध के विभिन्न राजपूत वंशो के अलावा लखनेसर के सेंगर राजपूतो का प्रतिरोध सफल होने के साथ साथ उल्लेखनीय भी है।
लखनेसर के सेंगर राजपूतो को कभी कोई ताकत झुका नही पाई और पूरे मुस्लिम काल में वो ना केवल पूर्ण रूप से स्वतंत्र जीवन जीते रहे बल्कि अपनी अनूठी गणतंत्र प्रणाली को बनाए रखा। लखनेसर के सेंगर राजपूतो को उनकी एकता और बंधुत्व की भावना और अपनी स्वतंत्रता के प्रति असीम लगाव होने के कारण कितनी भी बड़ी ताकत द्वारा झुका पाना बहुत मुश्किल था। खून की नदिया बहाए बगैर और हजारों प्राणों का बलिदान देने के बगैर जिनमे राजपूतानियो का बलिदान भी शामिल होता था, उनको झुकाया नही जा सकता था।
इसीलिए अकबर के समय मुग़लो से भीषण संघर्ष के बाद भी आइन-ए-अकबरी के अनुसार लखनेसर के राजपूतो को बहुत मामूली कर देना पड़ता था और उनकी आंतरिक स्वतंत्रता और उनका गणतंत्र बरकरार था। साथ ही उन्हें कोई सैन्य बल भी बादशाही सेना में नही भेजना पड़ता था। अगली सदी में तो क्षेत्र के बाकि राजपूतो की तरह लखनेसर गणराज्य पूर्ण रूप से स्वतंत्र ही रहा।
18वीं सदी की शुरुआत में अवध में सआदत अली खान का राज्य स्थापित होने और पूर्वांचल भी उसके अधिकार क्षेत्र में आने के बाद उसने पूर्वांचल के राजपूतों की ताकत को कुचलने और अपने अधीन करने के लिए अनेको प्रयत्न किये लेकिन वो इस प्रयोजन में असफल ही रहा। पूर्वांचल के अनेको नाज़िमो को राजपूतो को नियंत्रण में रखने में विफल होने के कारण वापिस बुलाना पड़ा।
***बनारस के जमींदार बलवंत सिंह से संघर्ष***
18वीं सदी के मध्य में पूर्वांचल का क्षेत्र एक भूमिहार जमींदार बलवंत सिंह के अधीन आ गया। भूमिहार पूर्वी उत्तर प्रदेश और बिहार की ताकतवर जाती है जो अपने को ब्राह्मणों से निकला बताते है। बलवंत सिंह का पिता मनसा राम बनारस के नाज़िम रुस्तम अली खान की सेवा में आकर सम्पन्न हो गया और कस्वर का जमींदार बना दिया गया। रुस्तम अली खान के बाद अवध के नवाब ने मनसा राम को बनारस का नाज़िम बना दिया और साथ ही मनसा राम ने अपने पुत्र बलवंत सिंह के लिये पूर्वांचल के जिलो की जमींदारी मंजूर करा ली। मनसा राम के बाद बलवंत सिंह ने कस्वा के राजा की उपाधि धारण की और बनारस का नाज़िम बना। जब बनारस क्षेत्र अवध के नवाब को अंग्रेज़ो को देना पड़ा तो राजा बलवंत सिंह अंग्रेज़ो के अधीन शाशन करने लगा।
पूर्वांचल में बनारस गाजीपुर बलिया आजमगढ़ मऊ सोनभद्र मिर्जापुर और इससे लगता हुआ सारा इलाका राजपूतो का था। काशी के भूमिहार बलवन्त सिंह ने अपनी सत्ता बचाने के लिए इलाके के राजपूत जमीदारो की शक्ति नष्ट करने की नीति अपनाई और अंग्रेज़ सेना की सहायता से जौनपुर के रघुवंशी,पूर्वांचल के गौतम,अगोरी, बिहार के चन्देल आदि राजपूतो पर हमले किये और उनकी शक्ति को काफी आघात पहुंचाया। वो देर रात के समय राजपूत गाँवो पर हमला कर उन्हें नष्ट कर देता था।
क्षेत्र के अधिकांश राजपूत वंश उसकी शक्ति का एकजुट होकर मुकाबला नही कर पा रहे थे। लेकिन हमेशा की तरह बलिया के लखनेसर के सेंगर राजपूतो ने ना केवल डटकर उसका सामना किया बलकि बलवन्त सिंह को उनसे हार माननी पड़ी। लखनेसर के सेंगर ना केवल उसकी राजस्व देने की माँगो को एकदम नकारते थे बल्कि खुलेआम बगावत कर उसके खजाने को लूटने का काम भी करते थे।
इन सबसे बलवंत सिंह ने आग बबूला होकर एक विशाल सेना सेंगरो के खिलाफ झोंक दी और उनकी राजधानी रसड़ा पर आक्रमण कर दिया। सेंगरो ने ब्रह्म हत्या के पाप से बचने को कहते हुए बलवंत सिंह को अपने फैसले पर पुनर्विचार करने को कहा क्योंकि भूमिहार को ब्राह्मण ही माना जाता है, लेकिन बलवंत सिंह नही माना। वो इस बार सेंगरो की ताकत को कुचलने को दृढ़प्रतिज्ञ था और उसने एक के बाद एक कई हमले किये।
मुकाबला बिलकुल असमान था। एक तरफ आधुनिक हथियारों से सज्जित और अंग्रेज़ो द्वारा समर्थित बलवंत सिंह की विशाल सेना थी, वही दूसरी तरफ साधारण हथियारों से लड़ने वाले कुछ हजार सेंगर। इसके बावजूद सेंगर शेरो की तरह लड़े और सभी आक्रमणों को विफल कर दिया। उनका सदियों का स्वतंत्र अस्तित्व खतरे में था और वो किसी भी कीमत पर अपनी स्वतंत्रता की रक्षा करना चाहते थे। उनकी स्त्रियों ने भी वीरतापूर्वक इस संग्राम में भाग लिया और अपने पतियो के साथ हजारो की संख्या में सती हुई। आज भी इन सती होने वाली देवियो के मन्दिर सैकड़ो की संख्या में रसड़ा के श्रीनाथ जी बाबा के धाम के करीब मौजूद है।
ये खूनी संघर्ष 2 दिन तक चला। दो दिन के आमने सामने के संघर्ष में इतनी जबरदस्त चुनौती के मुकाबले में सेंगर राजपूतो का कितना खून बहा होगा, इसका अंदाजा लगाया जा सकता है। इसके बावजूद सेंगरो ने हथियार नही डाले और दृढ़ रहे जिससे बलवंत सिंह को अपनी रणनीति बदलनी पड़ी। जब लड़ाई में राजपूतो को नही हरा पाया तो बलवंत सिंह ने धोखे का सहारा लिया और कायरता से रसड़ा कसबे को आग के हवाले कर दिया। इससे कस्बे के सामान्य और निर्दोष निवासी बड़ी संख्या में मारे गए और सेंगरो को अपने पाँव पीछे खीचने पड़े। लेकिन सेंगर आखरी दम तक मुकाबले का प्रण कर चुके थे क्योंकि ये उनके स्वतंत्र रहने की आकांक्षा और अपनी पुरखो की सैकड़ो साल की परम्परा को बनाए रखने का सवाल था।
आखिरकार बलवंत सिंह को सेंगरो की अदम्य इक्षाशक्ति के सामने घुटने टेकने पड़े और समझौता करने पर विवश होना पड़ा। उसने मामूली शुल्क के बदले लखनेसर परगने में सेंगरो की संप्रभुता स्वीकार कर ली। सेंगरो द्वारा दिया जाने वाला राजस्व पूरे पूर्वांचल क्षेत्र में सबसे कम था। सेंगरो को परगने के आंतरिक मामलो में पूरी छूट दी गई। उनको लगान वसूलने करने के तरीकों और खर्च को खुद तय करने का अधिकार था। लगान वसूलने के लिए अधिकारी नियुक्त करने का अधिकार भी उन्हें हासिल था। यहाँ तक की लखनेसर का अपना अलग तहसीलदार और शराइस्तदार होता था जिसे सेंगर राजपूतों का भाईचारा खुद नियुक्त करता था। यह अपने आप में एक अनूठा प्रयोग था।
***अंग्रेज़ो का शाशनकाल***
सेंगरो ने अपनी आंतरिक स्वतंत्रता को अंग्रेज़ो के शाशन के शुरुआती काल में भी बरकरार रखा। समस्त पूर्वांचल क्षेत्र में लखनेसर के सेंगर राजपूतो को अत्यधिक स्वतंत्रता प्रेमी और बागी राजपूतो के रूप में जाना जाता था। अंग्रेज़ो के शाशन के पूर्व उन्होंने अपने लिये जो सबसे साहसी, स्वतंत्रता और उन्मुक्त जीवन पसन्द की ख्याति अर्जित की थी उसका लाभ उन्हें अंग्रेजी शाशन में मिला इसीलिये उस वक्त तय किया गया लखनेसर परगने की राजस्व की दर भारत की आज़ादी तक बरकरार रही, जो की एक अभूतपूर्व उपलब्धि थी।
हालांकि अंग्रेज़ो ने कई बार लखनेसर के आंतरिक मामलो में दखल देने की कोशिश की लेकिन हर बार राजपूतों के साहसिक विरोध को देखते हुए उन्हें अपने कदम वापिस खीचने पड़े।
एक बार अंग्रेज़ो ने रसड़ा के व्यापारियों पर सेंगरो द्वारा लगाए हुए कर को हटाने की कोशिश करी जिसके खिलाफ सेंगरो ने जंग की तैयारी कर ली। खुद व्यापारियों ने बीच बचाव कर के समझौता कराया और कर का समर्थन किया। इससे पता चलता है कि सेंगर भाईचारे का राज क्षेत्र के निवासियो में कितना लोकप्रिय था।
लेकिन बाद में एक समय लखनेसर की राजस्व मांग अंग्रेज़ो ने दोगुना कर दी और बलवंत सिंह के पोते को वहा का जमींदार बनाकर राजस्व वसूलने की जिम्मेदारी दे दी लेकिन अपने दादा की तरह वह भी सेंगरो के सामने विफल रहा। इसलिये अंग्रेज़ो को लखनेसर परगना पुरानी राजस्व दर से कुछ कम पर ही सेंगरो को वापिस करना पड़ा।
सेंगर अपने राज्य की सीमा में अंग्रेज़ अधिकारियों या किसी और बाहरी ताकत का घुसना भी पसन्द नही करते थे। कई बार अधिकारियों के सिर्फ भ्रमण के लिये आने पर विवाद हो जाता था और राजपूत उस अधिकारी को पकड़ लेते थे लेकिन अंग्रेज़ समझौता करके विवाद से पीछा छुड़ाने में ही भलाई समझते थे।
लेकिन धीरे धीरे लखनेसर गणराज्य आर्थिक कठिनाइयों की वजह से धीरे धीरे कमजोर होने लगा और आखिरकार 1841 में लखनेसर को मिला हुआ अलग राजस्व तंत्र का अधिकार खत्म कर दिया गया और कंपनी के राजस्व तंत्र को लखनेसर में लागू कर दिया गया। इस तरह 500 साल के गणतंत्र की समाप्ति हुई और सेंगर सिर्फ जमींदार बन कर रह गए। हालांकि अभी भी सेंगर गणतंत्र वादी थे और उनका भाईचारा बना हुआ था। अभी भी जमीन के मालिकाना हक में और समस्त आय में सभी सेंगरो की हिस्सेदारी होती थी और कोई भी सेंगर राजपूत अकेला किसी जमीन का मालिक नही था।
इस तरह से 5 सदी पुराना गणतंत्र जिसके अस्तित्व के लिए सेंगर राजपूतो ने अप्रतिम बलिदान दिये वो भले ही खत्म हो गया लेकिन सेंगरो का वर्चस्व क्षेत्र में बना रहा और आज भी सेंगरो का शौर्य, बलिदान और स्वतंत्रता प्रेम की कहानियां क्षेत्र के निवासियो के लिये गर्व करने का विषय है और उनको प्रेरणा देने का काम करते है। सेंगर राजपूतो का गणराज्य होना और अद्वितीय भ्रातत्व की भावना और एकता ही उनकी सफलता का सबसे बड़ा कारण था। गणराज्य भले ही खत्म हो गया हो लेकिन उससे लखनेसर के सेंगरो की महानता कम नही होती और उनकी स्वतंत्रता के लिए अदम्य आकांक्षा और इक्षाशक्ति और जबरदस्त एकता की भावना ने कई पीढ़ियों को प्रेरणा देने का काम किया है।
शायद उन्ही के संघर्ष से प्रेरणा लेकर बलिया की जनता ने स्वाधीनता आंदोलन में अंग्रेज़ो की ईट से ईट बजा दी थी। 1942 में अंग्रेज़ो से स्वाधीन होने वाला बलिया देश का अकेला जिला था। इसीलिए बलिया जिले को बागी बलिया भी कहा गया और आज भी उसकी पहचान इसी रूप में है।
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सन्दर्भ-
1. https://www.google.co.in/url…
2. https://books.google.co.in/books…
3. http://en.m.wikipedia.org/wiki/Narayan_dynasty
4. http://en.m.wikipedia.org/wiki/Benares_State
5. http://ballia.nic.in/pages/page3.asp
6. https://www.google.co.in/url…

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