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Thursday, January 15, 2015

Katoch Rajput-History of Rajputs

जय ज्वाला माई की _/\_
खम्मा घणी !!! समस्त क्षत्रिय परिवार को राजपुताना सोच परिवार की तरफ से नव वर्ष 2015 की हार्दिक शुभकामनाएँ !!!
आज हम अपनी इस पोस्ट के द्वारा दुनिया के सबसे पुराने माने जाने वाले राजवंश यानि कटोच राजपूत वंश से अवगत करवाएंगे।
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====कटोच वंश के गोत्र,कुलदेवी आदि=====
गोत्र-अत्री
ऋषि-कश्यप 
देवी-ज्वालामुखी देवी
वंश-चन्द्रवंश,भुमिवंश 
गद्दी एवं राज्य-मुल्तान,जालन्धर,नगरकोट,कांगड़ा,गुलेर,जसवान,सीबा,दातारपुर,लम्बा आदि 
शाखाएँ-जसवाल,गुलेरिया,सबैया,डढवाल,धलोच आदि 
उपाधि-मिया 
वर्तमान निवास-हिमाचल प्रदेश,जम्मू कश्मीर,पंजाब आदि 
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=== कटोच वंश का परिचय ===
सेपेल ग्रिफिन के अनुसार कटोच राजपूत वंश विश्व का सबसे पुराना राजवंश है। कटोच चंद्रवंशी क्षत्रिय माने जाते है। कटोच राजघराना एवं राजपूत वंश महाभारत काल से भी पहले से उत्तर भारत के हिमाचल व पंजाब के इलाके में राज कर रहा है। महाभारत काल में कटोच राज्य को त्रिगर्त  राज्य के नाम से जाना जाता था और आज के कटोच राजवंशी त्रिगर्त राजवंश के ही उत्तराधिकारी है।कल्हण कि राजतरंगनी में त्रिगर्त राज्य का जिक्र है,कल्हण के अनुसार कटोच वंश के राजा इन्दुचंद कि दो राजकुमारियों का विवाह कश्मीर के राजा अनन्तदेव(१०३०-१०४०)के साथ हुआ था,
पृथ्वीराज रासो में इस वंश का नाम कारटपाल मिलता है,
अबुल फजल ने भी नगरकोट राज्य,कांगड़ा दुर्ग एवं ज्वालामुखी मन्दिर का जिक्र किया है,
यूरोपियन यात्री विलियम फिंच ने 1611 में अपनी यात्रा में कांगड़ा का जिक्र किया था,डा व्युलर लिखता है की कांगड़ा राज्य का एक नाम सुशर्मापुर था जो कटोच वंश को प्राचीन त्रिगर्त वंश के शासक सुशर्माचन्द का वंशज सिद्ध करता है,
त्रिगर्त राज्य की सीमाएँ एक समय पूर्वी पाकिस्तान से लेकर उत्तर में लद्दाख तथा पूरे हिमाचल प्रदेश में फैलि हुईं थी। त्रिगर्त राज्य का जिक्र रामायण एवं महाभारत में भी भली भांति मिलता है। कटोच राजा सुशर्माचन्द्र ने दुर्योधन का साथ देते हुए पांडवों के विरुद्ध युद्ध लड़ा था। सुशर्माचन्द्र का अर्जुन से युद्ध का जिक्र भी महाभारत में मिलता है। त्रिगर्त राज्य की मत्स्य और विराट राज्य के साथ शत्रुता का जिक्र महाभारत में उल्लेखित है।
कटोच वंश का जिक्र सिकंदर के युद्ध रिकार्ड्स में भी जाता है। इस वंश ने सिकंदर के भारत पर आक्रमण के समय उससे युद्ध छेड़ा और काँगड़ा राज्य को बचाने में सक्षम रहे। 
ब्रह्म पूराण के अनुसार कटोच वंश के मूल पुरुष राजा भूमि चन्द्र माने जाते है,इस कारण इस वंश को भुमिवंश भी कहा जाता है.इन्होने जालन्धर असुर को नष्ट किया था जिस कारण देवी ने प्रसन्न होकर इन्हें जालन्धर असुर का राज्य त्रिगर्त राज्य दिया था,इस वंश का राज्य पहले मुल्तान में था,बाद में जालन्धर में इनका शासन हुआ,जालन्धर और त्रिगर्त पर्यायवाची शब्द है
भुमिचंद ने सन ४३०० ईसा पूर्व में कटोच वंश एवं त्रिगर्त राज्य की स्थापना की। यह वंश कितना पुराना इसका अनुमान इसी बात से लगाया जा सकता है के महाभारत कल के राजा सुशर्माचंद राजा भूमिचन्द्र के २३४ वीं पीढ़ी में पैदा हुए।
इस प्राचीन चंद्रवंशी राजवंश ने सदियों से विदेशी,देशी हमलावरों का वीरतापूर्वक सामना किया है,
हिमाचल प्रदेश का मसहूर काँगड़ा किला भी कटोच वंश के क्षत्रियों की धरोहर है। कटोच वंश के बारे में काँगड़ा किले में बने महाराजा संसारचन्द्र संग्रहालय से बहूत कुछ जाना जा सकता है।
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==== कटोच वंश के वर्तमान टिकाई मुखिया और राजपरिवार ====
राजा श्री आदित्य देव चन्द्र कटोच , कटोच वंश के ४८८ वे राजा और काँगड़ा राजपरिवार के मुखिया  एवं लम्बा गाँव के जागीरदार है। यह पदवी इन्हे सं १९८८ से प्राप्त है। ४ दिसंबर १९६८ में इनकी शादी जोधपुर राजघराने की चंद्रेश कुमारी से हुई। इनके पुत्र टिक्का ऐश्वर्या चन्द्र कटोच कटोच वंश के भावी मुखिया है।
काँगड़ा राजघराने ने सन १८०० के आस पास से ही अंग्रेजों के खिलाफ आजादी का युद्ध छेड़ दिया था। संघर्ष काफी समय तक चला जिसमे इस परिवार को काँगड़ा गंवाना पड़ा। आख़िरकार सं १८१० में दोनों पक्षों के बीच संधि हुई और काँगड़ा राजपरिवार को लम्बा गांव की जागीर मिली। तत्पश्चात काँगड़ा राजपरिवार और कटोच राजपूतो के राजगद्दी लम्बा गॉव के जागीरदार के मानी जाती है।
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=== कटोच वंश की शाखाएँ === 
कटोच वंश की चार मुख्य शाखाएँ है :
1. जसवाल : ११७० ईस्वीं में जसवान का राज्य स्थापित होने के बाद यह शाख अलग हुई। 
2. गुलेरिया : १४०५ ईस्वीं में कटोचों के गुलेर राज्य स्थापित होने के बाद कटोच से यह शाखा अलग हुई। 
3. सबैया : १४५० ईस्वी के दौरान गुलेर से सिबा राज्य अलग होने के बाद सिबा के गुलेर सबैया कटोच कहलाए।
4. डढ़वाल : १५५० में इस शाखा ने दातारपुर राज्य की स्थापना की, इस शाखा का नाम डढा नामक स्थान पर बसावट के कारन पड़ा। 
कटोच वंश की अन्य शाखाए धलोच,गागलिया,गदोहिया,जडोत,गदोहिया आदि भी है।
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==== कटोच वंश की संछिप्त वंशावली और तत्कालीन समय का जुड़ा हुआ इतिहास ====
C. 7800 ईसा पूर्व के दौरान कटोच वंश का उल्लेख 
राजनका (राजपूत का प्रयायवाची शब्द) भूमि चन्द्र से इस वंश की शुरुआत हुई।जिन्होंने त्रिगर्त राज्य जालन्धर असुर को मारकर प्राप्त किया,मुल्तान(मूलस्थान)इन्ही का राज्य था.
C. 7800 - 4000 ईसा पूर्व के दौरान कटोच वंश का उल्लेख
त्रिगर्त राजवंश यानी मूल कटोच वंशियों ने श्री राम के खिलाफ युद्ध लड़ा(रामायण में उल्लेखित)
C. 4000 - 1500 ईसा पूर्व के दौरान कटोच वंश का उल्लेख
त्रिगता नरेश शुशर्माचंद ने काँगड़ा किले की स्थापना की और पांडवों के खिलाफ युद्ध लड़ा। 
( महाभारत में उल्लेखित)
C. 900 ईसा पूर्व के दौरान कटोच वंश का उल्लेख
कटोच राजाओं ने ईरानी व असीरिआई आक्रमणकारियों के खिलाफ युद्ध लड़ा और पंजाब की रक्षा की।
C. 500 ईसा पूर्व के दौरान कटोच वंश का उल्लेख
राजनका परमानन्द चन्द्र ने सिकंदर के खिलाफ युद्ध लड़ा।
C. 275 ईसा पूर्व के दौरान कटोच वंश का उल्लेख
कटोच राजाओं ने अशोक महान के खिलाफ युद्ध लड़े और मुल्तान हार गए।
C. 100 AD
काँगड़ा राजघराने ने कन्नौज के खिलाफ बहुत सारे युद्ध लड़े।
C. 470 AD
काँगड़ा के राजाओं ने हिमालय पर प्रभुत्व ज़माने के लिए कश्मीर के राजाओं के साथ कई युद्ध किए।
C. 643 AD
Hsuan Tsang ने कांगड़ा राज्य का दौरा किया उस समय इस राज्य को जालंधर के नाम से जाना जाने लगा था।
C. 853 AD
राजनका पृथ्वी चन्द्र का राज्य अभिषेक हुआ।
C. 1009 AD
महमूद ग़ज़नी ने सन 1009 में काँगड़ा(भीमनगर)पर आक्रमण किया।इस हमले के समय जगदीशचन्द्र यहाँ के राजा थे,
C. 1170 AD
काँगड़ा राज्य जस्वान और काँगड़ा दो भागों में विभाजित हुआ। राजा पूरब चन्द्र कटोच से जस्वान राज्य पर गद्दी जमाई और कटोच वंश में जसवाल शाखा की शुरुआत हुई। कटोच और मुहम्मद घोरी के बीच में युद्ध छिड़ा जिसमे(१२२० AD) कटोच जालंधर हार गए।
C. 1341 AD
राजनका रुपचंद्र की अगुवाई में कटोचों के दिल्ली तक के इलाके पर हमला किया और लूटा। तुग़लक़ों ने डर और सम्मान में इन्हे मियां की उपाधि दी। कटोचों ने तैमूर के खिलाफ भी युद्ध लड़ा।
C. 1405 AD
काँगड़ा राज्य फिर से दो भागों में बटा और गुलेर राज्य की स्थापना हुई। गुलेर राज्य के कटोच आज के गुलेरिआ राजपूत कहलाए।
C.1450 AD
गुलेर राज्य भी दो भागों में बट गया और नए सिबा राज्य की स्थापना हुई। सिबा राज्य के कटोच सिबिया राजपूत कहलाए।
C. 1526 - 1556 AD
शेरशाह सूरी ने हमला किया पर उसकी पराजय हुई। उसके बाद अकबर ने काँगड़ा पर हमला किया जिसमे कटोच वंश कि हार हुई,कटोच राजा ने अकबर को संधि का न्योता भेजा जिसे अकबर ने स्वीकारा। बाद में मुग़लों ने काँगड़ा किले पर ५२ बार हमला किया पर हर बार उन्हें मूह की खानी पड़ी।इसके बाद जहाँगीर ने भी हमला किया,
C. 1620 AD
जहांगीर और शाहजहाँ के समय मुग़लों का काँगड़ा किले पर कब्ज़ा हुआ।
C. 1700 AD
महाराजा भीम चन्द्र ने ओरंगजेब कि हिन्दू विरोधी नीतियों के कारण गुरु गोविन्द सिंह जी के साथ औरंगज़ेब के खिलाफ युद्ध किया। गुरु गोविन्द सिंह जी ने उन्हें धरम रक्षक की उपाधि दी।पंजाब में आज भी इनकी बहादुरी के गीत गाये जाते हैं.
C. 1750 AD
महाराजा घमंडचन्द्र को अहमदशाह अब्दाली  द्वारा जालंधर और ११ पहाड़ी राज्यों का निज़ाम बनाया गया।
C. 1775 AD to C. 1820 AD
काँगड़ा राज्य के लिए यह स्वर्णिम युग कहा जाता है। राजा संसारचन्द्र द्वितीय की छत्र छाँव में राज्य खुशहाली से भरा।
C. 1820 AD
काँगड़ा राज्य के पतन का समय :गोरखों ने कांगड़ा राज्य पर हमला किया,राजा संसारचंद ने सिख राजा रणजीत सिंह से मदद मांगी मगर मदद के बदले महाराजा रणजीत सिंह की सिख सेना ने काँगड़ा और सीबा के किलों पर कब्ज़ा कर लिया। सीबा का किला राजा राम सिंह ने सिखों की सेना को हरा कर दुबारा जीत लिया। सिखों के दुर्व्यवहार ने महाराजा संसारचंद को बहुत आहत किया..
* 1820 - 1846 AD
सिखों ने काँगड़ा को अंग्रेजो ( ईस्ट इंडिया कंपनी को) सौंप दिया। कटोच राजाओ ने कांगड़ा की आजादी की जंग छेडी। यह आजादी के लिए प्रथम युद्धों और संघर्षों में से था। राजा प्रमोद चन्द्र के नेतृत्व में लड़ी गयी यह जंग कटोच हार गए। राजा प्रमोद चन्द्र को अल्मोड़ा जेल में बंधी बना कर रखा गया। वहां उनकी मृत्यु हो गई।
*1924 AD
महाराजा जय चन्द्र काँगड़ा- लम्बा गाँव को महराजा की उपाधि से नवाजा गया और ११ बंदूकों की सलामी उन्हें दी जाने लगी।
*1947 AD
महाराजा ध्रुव देव चन्द्र ने काँगड़ा को भारत में मिलाने की अनुमति दी।
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=====कांगड़ा का किला======
कांगड़ा का दुर्ग स्थापत्य कला का बेजोड़ नमूना है,ये दुर्ग इतना विशाल और मजबूत था की इसे देवकृत माना जाता था,इसे नगरकोट अथवा भीमनगर का दुर्ग भी कहा जाता था,कटोच राजवंश के पूर्वज सुशर्माचंद द्वारा निर्मित इस दुर्ग पर पहला हमला महमूद गजनवी ने किया,इसके बाद गौरी,तैमूर,शेरशाह सूरी,अकबर,शाहजहाँ,गोरखों,सिखों ने भी हमला किया,सदियों तक यह महान दुर्ग अपने ऐश्वर्य,आक्रमण,विनाश के बीच झूलता रहा,यह दुर्ग प्राचीन चन्द्रवंशी कटोच राजपूतों के गौरवशाली इतिहास कि गवाही देता है,
कांगड़ा का अजेय दुर्ग जिसे दुश्मन कि तोपें भी न तोड़ सकी वो सन 1905 में आये भयानक भूकम्प में धराशाई हो गया,मगर इसके खंडर आज भी चंद्रवंशी कटोच राजवंश के गौरवशाली अतीत कि याद दिलाते हैं.
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Katoch is the name of a Rajput clan belonging to the chandravanshi Kshatriya lineage. Their traditional areas of residence was Trigarta Kingdom, Jalandhar, Multan i.e. the areas of residence are mainly in the Indian states of Punjab,Punjab hills (Himachal Pradesh). Katoch Dynasty is an offshoot of Trigratraje Dynasty.

The Katoch dynasty is considered to be the oldest surviving royal dynasty in the world.They first find mention in the Hindu epics Ramayana and Mahabharata and the second mention is in the recorded history of Alexander the Great's war records. One of the Indian kings who in the time of Alexander ruled the area near Kangra is said to be a Katoch king. In Mahabharata they are referred to as Trigarta who fought Arjuna. Raja Susarma Chandra fought Pandava Arjuna. He was an ally of Duryodhana and sworn enemy of the Virat and Matsya Kingdoms.The katoch's were also known for their sword skills.

In past centuries, they ruled several princely states in the region. The originator of the clan was Rajanaka Bhumi Chand. Their famous Maharaja Sansar Chand II was a great ruler. The ruler Rajanaka Bhumi Chand Katoch founded the Jwalaji Temple in Himachal Pradesh.

The history of the Katoch Dynasty has been showcased at the Maharaja Sansar Chand Museum adjoining the Kangra Fort. The Museum provides audio guides for the fort and the museum.The Maharaja Sansar Chandra Museum was officially inaugurated by His Holiness the Dalai Lama on the 6th of April 2011.

===========Present Head State and Clan Head===============
The head of royal family of Kangra is considered as the head of Katoch dynasty. After the fall of Kangra to the Britishers (East India Company) in 1820's ,the royal family was granted a jagir of 20 villages at Lambagraon. Therefrom, the head of house at Lambagraon is considered as the head of Katoch dynasty.

Raja Shri ADITYA DEV CHAND KATOCH, 488th and present Raja of his line, Head of the Royal House of Kangra, Jagirdar of Lambagraon, Rajgir and Mahal Moria since 1988 (Clouds End Villa, Dharamsala, District Kangra, Himachal Pradesh, India) educated at the Doon School, Dehra Dun; married 4th December 1968, Rani Shrimati Chandresh Kumari, daughter of HH Raj Rajeshwar Maharajadhiraj Maharaja Shri Hanwant Singhji Sahib Bahadur of Jodhpur, and his wife, HH Maharani Krishna Kumari Ba Sahiba, and has issue.

Tikka Aishwariya Chand Katoch, born 16th January 1970, married about 1997, Tikkarani Shailaja Kumari, daughter of HH Raja Vikram Singhji of Sailana, and his wife, HH Rani Chandra Kumari, and has issue.
Natiraj Ambikeshwar Dev Chand Katoch, born 22nd December 1998.

=============Chronology of the Katoch dynasty and Periodical Brief History=================
C. 7800 BC
Rajanaka Bhumi Chand founded the Katoch Dynasty

C. Description of this Dynasty found between the reign 7800 BC - 4000 BC
The Rajas of Kangra fought against the Hindu deity lord Rama

C. Description of this Dynasty found between the reign 4000 BC - 1500 BC
Raja sushurma chand built the fort of Kangra and fought against pandavas in epic mahabharta

C. 900 BC
The Katoch kings fought the Persian and Assyrian attacks on Punjab

C. 500 BC to
Rajanaka Paramanand Chandra, fought Alexander the Great

C. 275 BC

The Katoch Rajas fought Ashoka the Great and lost their lands in Multan
C. 100 AD

The Rajas of Kangra fought numerous battles against the Rajas of Kannauj

C. 470 AD
The Rajas of Kangra fought the Rajas of Kashmir for the supremacy in the hills

C. 643 AD
Hsuan Tsang visited the Kingdom of Kangra (then known as "Jallandhra")

C. 853 AD
Rajanaka Prithvi Chandra's reign

C. 1009 AD
Mahmud of Ghazni invades Kangra

C. 1170 AD
Kingdom of Kangra is divided into two parts, Kangra and Jaswan
The Katoch armies fight against Muhammad of Ghor (the lands of Jalandhar were lost c. 1220 AD)

C. 1341 AD
Rajanaka Rup Chandra's looting expeditions take him till the gates of Delhi
The Katoch kings fight Taimur
Tughlaqs grant the title of Mian to the Katoch Royal Family

C. 1405 AD
Further division of the Kangra State; state of Guler is founded

C.1450 AD
Further Guler State is also divided and a new State namely Siba is founded.

C. 1526 - 1556 AD
Sikandar Shah Suri and the Rajas of Kangra combine their forces against Akbar but are defeated
The Raja of Kangra renders his alliance to Emperor Akbar and in return in given the title of Maharaja
Later, the Mughals attack the Kangra Fort 52 times but fail to capture it.

C. 1620 AD
Mughals occupy the fort of Kangra

C. 1700 AD
Maharaja Bhim Chandra unites with Guru Gobind Singh against Aurangzeb
He receives the title of Dharam Rakshak from the Guru

C. 1750 AD
Maharaja Ghamand Chandra is made the (first ever Rajput) Nizam of Jalandhar by the Durranis

C. 1775 AD to C. 1820 AD
The golden age of Kangra under Raja Sansar Chand-II
Kangra miniature painting flourishes under him

C. 1820 AD
Decline of the Kangra state
Kangra Fort occupied by the Sikhs after a war but the Fort of Siba was re-captured by Raja Ram Singh after defeated the army of Maharaja Ranjit Singh.
Later Katoch Kings re-captured Kangra Fort after defeated Sikh Armies.

1846 AD
The Sikhs cede Kangra to the HEIC
The Katoch kings fight for their independence against the British. Raja Pramod Chand loses the battle and is taken prisoner to Almoda – he dies there

1924 AD
Maharaja Jai Chandra of Kangra-Lambagraon is granted the title of "Maharaja" as a hereditary distinction, and a salute of 11 guns as a personal honour.

1947 AD
Maharaja Dhruv Dev Chandra (last ruler of Kangra-Lambagraon) merges his estate with the Dominion of India, when India gains Independence

1972 AD
The Princely Order is abolished in India and the Rajas of Kangra-Lambagraon become ordinary citizens. The current head of the Katoch Clan is Maharaja Aditya Katoch. His wife Rani Chandresh Kumari was the Union Minister of Culture for India in 2014.
The district of Kangra is merged with the newly founded state of Himachal Pradesh.Siba State is simply incorporated in India.
Raja Ram Singh of Sibaia clan defeated the army of Maharaja Ranjit Singh and re-captured the fort of Siba State. The British attempts to conquer the Siba State were thwarted by Sunder Singh (Raja Sahib), brother of Raja Ram Singh. Sunder Singh also established Tantpalan domense. Tantpalan domense, presently, falls in District:Hoshiarpur(Punjab)

=====Branches of Katoch Dynasty==========
Jaswal - Raja Naginder Singh is the present head of Jaswal Clan
Guleria - Raja Brijesh Chand Guleria is the present head of Guleria Clan
Sibaia - Raja Dr.Ashok K.Thakur is the present head of Sibaia Clan
Dadhwal - Kanwar Deepak singh is the present head of Dadwal Clan
Dhaloch - Pratap singh Dhaloch is the present head of Dhaloch 

=====References======
* H.A. Rose, A glossary of the tribes and castes of the Punjab and North-West India, Volume 1, page 263
*Mark Brentnall, The Princely and Noble Families of the Former Indian Empire: Himachal Pradesh, page 312
* Dharam Prakash Gupta, "Seminar on Katoch dynasty trail". Himachal Plus. On line.
* Mark Brentnall, The Princely and Noble Families of the Former Indian Empire: Himachal Pradesh, page 312
* A beautiful article from famous Rajput and Military Historian Airavat Singh ji
* http://kshatriyawiki.com/wiki/Katoch
*राजपूत शाखाओं का इतिहास पृष्ठ संख्या 292 से 299 देवी सिंह मंडावा 
*क्षत्रिय राजवंश पृष्ठ संख्या 359 रघुनाथ सिंह कालीपहाड़ी 
*राजपूत वंशावली पृष्ठ संख्या 35,183 ईश्वर सिंह मुंडाढKatoch is the name of a Rajput clan belonging to the chandravanshi Kshatriya lineage. Their traditional areas of residence was Trigarta Kingdom, Jalandhar, Multan i.e. the areas of residence are mainly in the Indian states of Punjab,Punjab hills (Himachal Pradesh). Katoch Dynasty is an offshoot of Trigratraje Dynasty.
The Katoch dynasty is considered to be the oldest surviving royal dynasty in the world.They first find mention in the Hindu epics Ramayana and Mahabharata and the second mention is in the recorded history of Alexander the Great's war records. One of the Indian kings who in the time of Alexander ruled the area near Kangra is said to be a Katoch king. In Mahabharata they are referred to as Trigarta who fought Arjuna. Raja Susarma Chandra fought Pandava Arjuna. He was an ally of Duryodhana and sworn enemy of the Virat and Matsya Kingdoms.The katoch's were also known for their sword skills.


In past centuries, they ruled several princely states in the region. The originator of the clan was Rajanaka Bhumi Chand. Their famous Maharaja Sansar Chand II was a great ruler. The ruler Rajanaka Bhumi Chand Katoch founded the Jwalaji Temple in Himachal Pradesh.
The history of the Katoch Dynasty has been showcased at the Maharaja Sansar Chand Museum adjoining the Kangra Fort. The Museum provides audio guides for the fort and the museum.The Maharaja Sansar Chandra Museum was officially inaugurated by His Holiness the Dalai Lama on the 6th of April 2011.
===========Present Head State and Clan Head===============
The head of royal family of Kangra is considered as the head of Katoch dynasty. After the fall of Kangra to the Britishers (East India Company) in 1820's ,the royal family was granted a jagir of 20 villages at Lambagraon. Therefrom, the head of house at Lambagraon is considered as the head of Katoch dynasty.
Raja Shri ADITYA DEV CHAND KATOCH, 488th and present Raja of his line, Head of the Royal House of Kangra, Jagirdar of Lambagraon, Rajgir and Mahal Moria since 1988 (Clouds End Villa, Dharamsala, District Kangra, Himachal Pradesh, India) educated at the Doon School, Dehra Dun; married 4th December 1968, Rani Shrimati Chandresh Kumari, daughter of HH Raj Rajeshwar Maharajadhiraj Maharaja Shri Hanwant Singhji Sahib Bahadur of Jodhpur, and his wife, HH Maharani Krishna Kumari Ba Sahiba, and has issue.
Tikka Aishwariya Chand Katoch, born 16th January 1970, married about 1997, Tikkarani Shailaja Kumari, daughter of HH Raja Vikram Singhji of Sailana, and his wife, HH Rani Chandra Kumari, and has issue.
Natiraj Ambikeshwar Dev Chand Katoch, born 22nd December 1998.
=============Chronology of the Katoch dynasty and Periodical Brief History=================
C. 7800 BC
Rajanaka Bhumi Chand founded the Katoch Dynasty
C. Description of this Dynasty found between the reign 7800 BC - 4000 BC
The Rajas of Kangra fought against the Hindu deity lord Rama
C. Description of this Dynasty found between the reign 4000 BC - 1500 BC
Raja sushurma chand built the fort of Kangra and fought against pandavas in epic mahabharta
C. 900 BC
The Katoch kings fought the Persian and Assyrian attacks on Punjab
C. 500 BC to
Rajanaka Paramanand Chandra, fought Alexander the Great
C. 275 BC
The Katoch Rajas fought Ashoka the Great and lost their lands in Multan
C. 100 AD
The Rajas of Kangra fought numerous battles against the Rajas of Kannauj
C. 470 AD
The Rajas of Kangra fought the Rajas of Kashmir for the supremacy in the hills
C. 643 AD
Hsuan Tsang visited the Kingdom of Kangra (then known as "Jallandhra")
C. 853 AD
Rajanaka Prithvi Chandra's reign
C. 1009 AD
Mahmud of Ghazni invades Kangra
C. 1170 AD
Kingdom of Kangra is divided into two parts, Kangra and Jaswan
The Katoch armies fight against Muhammad of Ghor (the lands of Jalandhar were lost c. 1220 AD)
C. 1341 AD
Rajanaka Rup Chandra's looting expeditions take him till the gates of Delhi
The Katoch kings fight Taimur
Tughlaqs grant the title of Mian to the Katoch Royal Family
C. 1405 AD
Further division of the Kangra State; state of Guler is founded
C.1450 AD
Further Guler State is also divided and a new State namely Siba is founded.
C. 1526 - 1556 AD
Sikandar Shah Suri and the Rajas of Kangra combine their forces against Akbar but are defeated
The Raja of Kangra renders his alliance to Emperor Akbar and in return in given the title of Maharaja
Later, the Mughals attack the Kangra Fort 52 times but fail to capture it.
C. 1620 AD
Mughals occupy the fort of Kangra
C. 1700 AD
Maharaja Bhim Chandra unites with Guru Gobind Singh against Aurangzeb
He receives the title of Dharam Rakshak from the Guru
C. 1750 AD
Maharaja Ghamand Chandra is made the (first ever Rajput) Nizam of Jalandhar by the Durranis
C. 1775 AD to C. 1820 AD
The golden age of Kangra under Raja Sansar Chand-II
Kangra miniature painting flourishes under him
C. 1820 AD
Decline of the Kangra state
Kangra Fort occupied by the Sikhs after a war but the Fort of Siba was re-captured by Raja Ram Singh after defeated the army of Maharaja Ranjit Singh.
Later Katoch Kings re-captured Kangra Fort after defeated Sikh Armies.
1846 AD
The Sikhs cede Kangra to the HEIC
The Katoch kings fight for their independence against the British. Raja Pramod Chand loses the battle and is taken prisoner to Almoda – he dies there
1924 AD
Maharaja Jai Chandra of Kangra-Lambagraon is granted the title of "Maharaja" as a hereditary distinction, and a salute of 11 guns as a personal honour.
1947 AD
Maharaja Dhruv Dev Chandra (last ruler of Kangra-Lambagraon) merges his estate with the Dominion of India, when India gains Independence
1972 AD
The Princely Order is abolished in India and the Rajas of Kangra-Lambagraon become ordinary citizens. The current head of the Katoch Clan is Maharaja Aditya Katoch. His wife Rani Chandresh Kumari was the Union Minister of Culture for India in 2014.
The district of Kangra is merged with the newly founded state of Himachal Pradesh.Siba State is simply incorporated in India.
Raja Ram Singh of Sibaia clan defeated the army of Maharaja Ranjit Singh and re-captured the fort of Siba State. The British attempts to conquer the Siba State were thwarted by Sunder Singh (Raja Sahib), brother of Raja Ram Singh. Sunder Singh also established Tantpalan domense. Tantpalan domense, presently, falls in District:Hoshiarpur(Punjab)
=====Branches of Katoch Dynasty==========
Jaswal - Raja Naginder Singh is the present head of Jaswal Clan
Guleria - Raja Brijesh Chand Guleria is the present head of Guleria Clan
Sibaia - Raja Dr.Ashok K.Thakur is the present head of Sibaia Clan
Dadhwal - Kanwar Deepak singh is the present head of Dadwal Clan
Dhaloch - Pratap singh Dhaloch is the present head of Dhaloch

====कटोच वंश के गोत्र,कुलदेवी आदि=====
गोत्र-अत्री
ऋषि-कश्यप
देवी-ज्वालामुखी देवी
वंश-चन्द्रवंश,भुमिवंश
गद्दी एवं राज्य-मुल्तान,जालन्धर,नगरकोट,कांगड़ा,गुलेर,जसवान,सीबा,दातारपुर,लम्बा आदि
शाखाएँ-जसवाल,गुलेरिया,सबैया,डढवाल,धलोच आदि
उपाधि-मिया
वर्तमान निवास-हिमाचल प्रदेश,जम्मू कश्मीर,पंजाब आदि
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=== कटोच वंश का परिचय ===
सेपेल ग्रिफिन के अनुसार कटोच राजपूत वंश विश्व का सबसे पुराना राजवंश है। कटोच चंद्रवंशी क्षत्रिय माने जाते है। कटोच राजघराना एवं राजपूत वंश महाभारत काल से भी पहले से उत्तर भारत के हिमाचल व पंजाब के इलाके में राज कर रहा है। महाभारत काल में कटोच राज्य को त्रिगर्त राज्य के नाम से जाना जाता था और आज के कटोच राजवंशी त्रिगर्त राजवंश के ही उत्तराधिकारी है।कल्हण कि राजतरंगनी में त्रिगर्त राज्य का जिक्र है,कल्हण के अनुसार कटोच वंश के राजा इन्दुचंद कि दो राजकुमारियों का विवाह कश्मीर के राजा अनन्तदेव(१०३०-१०४०)के साथ हुआ था,
पृथ्वीराज रासो में इस वंश का नाम कारटपाल मिलता है,
अबुल फजल ने भी नगरकोट राज्य,कांगड़ा दुर्ग एवं ज्वालामुखी मन्दिर का जिक्र किया है,
यूरोपियन यात्री विलियम फिंच ने 1611 में अपनी यात्रा में कांगड़ा का जिक्र किया था,डा व्युलर लिखता है की कांगड़ा राज्य का एक नाम सुशर्मापुर था जो कटोच वंश को प्राचीन त्रिगर्त वंश के शासक सुशर्माचन्द का वंशज सिद्ध करता है,
त्रिगर्त राज्य की सीमाएँ एक समय पूर्वी पाकिस्तान से लेकर उत्तर में लद्दाख तथा पूरे हिमाचल प्रदेश में फैलि हुईं थी। त्रिगर्त राज्य का जिक्र रामायण एवं महाभारत में भी भली भांति मिलता है। कटोच राजा सुशर्माचन्द्र ने दुर्योधन का साथ देते हुए पांडवों के विरुद्ध युद्ध लड़ा था। सुशर्माचन्द्र का अर्जुन से युद्ध का जिक्र भी महाभारत में मिलता है। त्रिगर्त राज्य की मत्स्य और विराट राज्य के साथ शत्रुता का जिक्र महाभारत में उल्लेखित है।
कटोच वंश का जिक्र सिकंदर के युद्ध रिकार्ड्स में भी जाता है। इस वंश ने सिकंदर के भारत पर आक्रमण के समय उससे युद्ध छेड़ा और काँगड़ा राज्य को बचाने में सक्षम रहे।
ब्रह्म पूराण के अनुसार कटोच वंश के मूल पुरुष राजा भूमि चन्द्र माने जाते है,इस कारण इस वंश को भुमिवंश भी कहा जाता है.इन्होने जालन्धर असुर को नष्ट किया था जिस कारण देवी ने प्रसन्न होकर इन्हें जालन्धर असुर का राज्य त्रिगर्त राज्य दिया था,इस वंश का राज्य पहले मुल्तान में था,बाद में जालन्धर में इनका शासन हुआ,जालन्धर और त्रिगर्त पर्यायवाची शब्द है
भुमिचंद ने सन ४३०० ईसा पूर्व में कटोच वंश एवं त्रिगर्त राज्य की स्थापना की। यह वंश कितना पुराना इसका अनुमान इसी बात से लगाया जा सकता है के महाभारत कल के राजा सुशर्माचंद राजा भूमिचन्द्र के २३४ वीं पीढ़ी में पैदा हुए।
इस प्राचीन चंद्रवंशी राजवंश ने सदियों से विदेशी,देशी हमलावरों का वीरतापूर्वक सामना किया है,
हिमाचल प्रदेश का मसहूर काँगड़ा किला भी कटोच वंश के क्षत्रियों की धरोहर है। कटोच वंश के बारे में काँगड़ा किले में बने महाराजा संसारचन्द्र संग्रहालय से बहूत कुछ जाना जा सकता है।
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==== कटोच वंश के वर्तमान टिकाई मुखिया और राजपरिवार ====
राजा श्री आदित्य देव चन्द्र कटोच , कटोच वंश के ४८८ वे राजा और काँगड़ा राजपरिवार के मुखिया एवं लम्बा गाँव के जागीरदार है। यह पदवी इन्हे सं १९८८ से प्राप्त है। ४ दिसंबर १९६८ में इनकी शादी जोधपुर राजघराने की चंद्रेश कुमारी से हुई। इनके पुत्र टिक्का ऐश्वर्या चन्द्र कटोच कटोच वंश के भावी मुखिया है।
काँगड़ा राजघराने ने सन १८०० के आस पास से ही अंग्रेजों के खिलाफ आजादी का युद्ध छेड़ दिया था। संघर्ष काफी समय तक चला जिसमे इस परिवार को काँगड़ा गंवाना पड़ा। आख़िरकार सं १८१० में दोनों पक्षों के बीच संधि हुई और काँगड़ा राजपरिवार को लम्बा गांव की जागीर मिली। तत्पश्चात काँगड़ा राजपरिवार और कटोच राजपूतो के राजगद्दी लम्बा गॉव के जागीरदार के मानी जाती है।
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=== कटोच वंश की शाखाएँ ===
कटोच वंश की चार मुख्य शाखाएँ है :
1. जसवाल : ११७० ईस्वीं में जसवान का राज्य स्थापित होने के बाद यह शाख अलग हुई।
2. गुलेरिया : १४०५ ईस्वीं में कटोचों के गुलेर राज्य स्थापित होने के बाद कटोच से यह शाखा अलग हुई।
3. सबैया : १४५० ईस्वी के दौरान गुलेर से सिबा राज्य अलग होने के बाद सिबा के गुलेर सबैया कटोच कहलाए।
4. डढ़वाल : १५५० में इस शाखा ने दातारपुर राज्य की स्थापना की, इस शाखा का नाम डढा नामक स्थान पर बसावट के कारन पड़ा।
कटोच वंश की अन्य शाखाए धलोच,गागलिया,गदोहिया,जडोत,गदोहिया आदि भी है।
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==== कटोच वंश की संछिप्त वंशावली और तत्कालीन समय का जुड़ा हुआ इतिहास ====
C. 7800 ईसा पूर्व के दौरान कटोच वंश का उल्लेख
राजनका (राजपूत का प्रयायवाची शब्द) भूमि चन्द्र से इस वंश की शुरुआत हुई।जिन्होंने त्रिगर्त राज्य जालन्धर असुर को मारकर प्राप्त किया,मुल्तान(मूलस्थान)इन्ही का राज्य था.
C. 7800 - 4000 ईसा पूर्व के दौरान कटोच वंश का उल्लेख
त्रिगर्त राजवंश यानी मूल कटोच वंशियों ने श्री राम के खिलाफ युद्ध लड़ा(रामायण में उल्लेखित)
C. 4000 - 1500 ईसा पूर्व के दौरान कटोच वंश का उल्लेख
त्रिगता नरेश शुशर्माचंद ने काँगड़ा किले की स्थापना की और पांडवों के खिलाफ युद्ध लड़ा।
( महाभारत में उल्लेखित)
C. 900 ईसा पूर्व के दौरान कटोच वंश का उल्लेख
कटोच राजाओं ने ईरानी व असीरिआई आक्रमणकारियों के खिलाफ युद्ध लड़ा और पंजाब की रक्षा की।
C. 500 ईसा पूर्व के दौरान कटोच वंश का उल्लेख
राजनका परमानन्द चन्द्र ने सिकंदर के खिलाफ युद्ध लड़ा।
C. 275 ईसा पूर्व के दौरान कटोच वंश का उल्लेख
कटोच राजाओं ने अशोक महान के खिलाफ युद्ध लड़े और मुल्तान हार गए।
C. 100 AD
काँगड़ा राजघराने ने कन्नौज के खिलाफ बहुत सारे युद्ध लड़े।
C. 470 AD
काँगड़ा के राजाओं ने हिमालय पर प्रभुत्व ज़माने के लिए कश्मीर के राजाओं के साथ कई युद्ध किए।
C. 643 AD
Hsuan Tsang ने कांगड़ा राज्य का दौरा किया उस समय इस राज्य को जालंधर के नाम से जाना जाने लगा था।
C. 853 AD
राजनका पृथ्वी चन्द्र का राज्य अभिषेक हुआ।
C. 1009 AD
महमूद ग़ज़नी ने सन 1009 में काँगड़ा(भीमनगर)पर आक्रमण किया।इस हमले के समय जगदीशचन्द्र यहाँ के राजा थे,
C. 1170 AD
काँगड़ा राज्य जस्वान और काँगड़ा दो भागों में विभाजित हुआ। राजा पूरब चन्द्र कटोच से जस्वान राज्य पर गद्दी जमाई और कटोच वंश में जसवाल शाखा की शुरुआत हुई। कटोच और मुहम्मद घोरी के बीच में युद्ध छिड़ा जिसमे(१२२० AD) कटोच जालंधर हार गए।
C. 1341 AD
राजनका रुपचंद्र की अगुवाई में कटोचों के दिल्ली तक के इलाके पर हमला किया और लूटा। तुग़लक़ों ने डर और सम्मान में इन्हे मियां की उपाधि दी। कटोचों ने तैमूर के खिलाफ भी युद्ध लड़ा।
C. 1405 AD
काँगड़ा राज्य फिर से दो भागों में बटा और गुलेर राज्य की स्थापना हुई। गुलेर राज्य के कटोच आज के गुलेरिआ राजपूत कहलाए।
C.1450 AD
गुलेर राज्य भी दो भागों में बट गया और नए सिबा राज्य की स्थापना हुई। सिबा राज्य के कटोच सिबिया राजपूत कहलाए।
C. 1526 - 1556 AD
शेरशाह सूरी ने हमला किया पर उसकी पराजय हुई। उसके बाद अकबर ने काँगड़ा पर हमला किया जिसमे कटोच वंश कि हार हुई,कटोच राजा ने अकबर को संधि का न्योता भेजा जिसे अकबर ने स्वीकारा। बाद में मुग़लों ने काँगड़ा किले पर ५२ बार हमला किया पर हर बार उन्हें मूह की खानी पड़ी।इसके बाद जहाँगीर ने भी हमला किया,
C. 1620 AD
जहांगीर और शाहजहाँ के समय मुग़लों का काँगड़ा किले पर कब्ज़ा हुआ।
C. 1700 AD
महाराजा भीम चन्द्र ने ओरंगजेब कि हिन्दू विरोधी नीतियों के कारण गुरु गोविन्द सिंह जी के साथ औरंगज़ेब के खिलाफ युद्ध किया। गुरु गोविन्द सिंह जी ने उन्हें धरम रक्षक की उपाधि दी।पंजाब में आज भी इनकी बहादुरी के गीत गाये जाते हैं.
C. 1750 AD
महाराजा घमंडचन्द्र को अहमदशाह अब्दाली द्वारा जालंधर और ११ पहाड़ी राज्यों का निज़ाम बनाया गया।
C. 1775 AD to C. 1820 AD
काँगड़ा राज्य के लिए यह स्वर्णिम युग कहा जाता है। राजा संसारचन्द्र द्वितीय की छत्र छाँव में राज्य खुशहाली से भरा।
C. 1820 AD
काँगड़ा राज्य के पतन का समय :गोरखों ने कांगड़ा राज्य पर हमला किया,राजा संसारचंद ने सिख राजा रणजीत सिंह से मदद मांगी मगर मदद के बदले महाराजा रणजीत सिंह की सिख सेना ने काँगड़ा और सीबा के किलों पर कब्ज़ा कर लिया। सीबा का किला राजा राम सिंह ने सिखों की सेना को हरा कर दुबारा जीत लिया। सिखों के दुर्व्यवहार ने महाराजा संसारचंद को बहुत आहत किया..
* 1820 - 1846 AD
सिखों ने काँगड़ा को अंग्रेजो ( ईस्ट इंडिया कंपनी को) सौंप दिया। कटोच राजाओ ने कांगड़ा की आजादी की जंग छेडी। यह आजादी के लिए प्रथम युद्धों और संघर्षों में से था। राजा प्रमोद चन्द्र के नेतृत्व में लड़ी गयी यह जंग कटोच हार गए। राजा प्रमोद चन्द्र को अल्मोड़ा जेल में बंधी बना कर रखा गया। वहां उनकी मृत्यु हो गई।
*1924 AD
महाराजा जय चन्द्र काँगड़ा- लम्बा गाँव को महराजा की उपाधि से नवाजा गया और ११ बंदूकों की सलामी उन्हें दी जाने लगी।
*1947 AD
महाराजा ध्रुव देव चन्द्र ने काँगड़ा को भारत में मिलाने की अनुमति दी।
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=====कांगड़ा का किला======
कांगड़ा का दुर्ग स्थापत्य कला का बेजोड़ नमूना है,ये दुर्ग इतना विशाल और मजबूत था की इसे देवकृत माना जाता था,इसे नगरकोट अथवा भीमनगर का दुर्ग भी कहा जाता था,कटोच राजवंश के पूर्वज सुशर्माचंद द्वारा निर्मित इस दुर्ग पर पहला हमला महमूद गजनवी ने किया,इसके बाद गौरी,तैमूर,शेरशाह सूरी,अकबर,शाहजहाँ,गोरखों,सिखों ने भी हमला किया,सदियों तक यह महान दुर्ग अपने ऐश्वर्य,आक्रमण,विनाश के बीच झूलता रहा,यह दुर्ग प्राचीन चन्द्रवंशी कटोच राजपूतों के गौरवशाली इतिहास कि गवाही देता है,
कांगड़ा का अजेय दुर्ग जिसे दुश्मन कि तोपें भी न तोड़ सकी वो सन 1905 में आये भयानक भूकम्प में धराशाई हो गया,मगर इसके खंडर आज भी चंद्रवंशी कटोच राजवंश के गौरवशाली अतीत कि याद दिलाते हैं.
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=====References======
* H.A. Rose, A glossary of the tribes and castes of the Punjab and North-West India, Volume 1, page 263
*Mark Brentnall, The Princely and Noble Families of the Former Indian Empire: Himachal Pradesh, page 312
* Dharam Prakash Gupta, "Seminar on Katoch dynasty trail". Himachal Plus. On line.
* Mark Brentnall, The Princely and Noble Families of the Former Indian Empire: Himachal Pradesh, page 312
* A beautiful article from famous Rajput and Military Historian Airavat Singh ji
* http://kshatriyawiki.com/wiki/Katoch

 *राजपूत शाखाओं का इतिहास पृष्ठ संख्या 292 से 299 देवी सिंह मंडावा
*क्षत्रिय राजवंश पृष्ठ संख्या 359 रघुनाथ सिंह कालीपहाड़ी
*राजपूत वंशावली पृष्ठ संख्या 35,183 ईश्वर सिंह मुंडाढ

शूरवीर सम्राट विक्रमादित्य/ Great King Vikramaditya

******शूरवीर सम्राट विक्रमादित्य*****
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******शूरवीर सम्राट विक्रमादित्य*****

 अंग्रेज और वामपंथी इतिहासकार उज्जैन के सम्राट विक्रमादित्य को एतिहासिक शासक न मानकर एक मिथक मानते हैं।जबकि कल्हण की राजतरंगनी,कालिदास 
,नेपाल की वंशावलिया और अरब लेखक,अलबरूनी उन्हें वास्तविक महापुरुष मानते हैं।
उनके समय शको ने देश के बड़े भू भाग पर कब्जा जमा लिया था।विक्रम ने शको को भारत से मार भगाया और अपना राज्य अरब देशो तक फैला दिया था। 
उनके नाम पर विक्रम सम्वत चलाया गया। विक्रमादित्य ईसा मसीह के समकालीन थे और उस वक्त उनका शासन अरब तक फैला था। विक्रमादित्य के बारे में प्राचीन अरब साहित्य में वर्णन मिलता है।
इनके पिता का नाम गन्धर्वसेन था एवं प्रसिद्ध योगी भर्तहरी इनके भाई थे।
विक्रमादित्य के इतिहास को अंग्रेजों ने जान-बूझकर तोड़ा और भ्रमित किया और उसे एक मिथ‍कीय चरित्र बनाने में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ी, क्योंकि विक्रमादित्य उस काल में महान व्यक्तित्व और शक्ति का प्रतीक थे, जबकि अंग्रेजों को यह सिद्ध करना जरूरी था कि ईसा मसीह के काल में दुनिया अज्ञानता में जी रही थी। दरअसल, विक्रमादित्य का शासन अरब और मिस्र तक फैला था और संपूर्ण धरती के लोग उनके नाम से परिचित थे। विक्रमादित्य अपने ज्ञान, वीरता और उदारशीलता के लिए प्रसिद्ध थे जिनके दरबार में नवरत्न रहते थे। इनमें कालिदास भी थे। कहा जाता है कि विक्रमादित्य बड़े पराक्रमी थे और उन्होंने शकों को परास्त किया था।
विक्रमादित्य के समय ज्योतिषाचार्य मिहिर, महान कवि कालिदास थे। 
राजा विक्रम उनकी वीरता, उदारता, दया, क्षमा आदि गुणों की अनेक गाथाएं भारतीय साहित्य में भरी पड़ी हैं।
अधिकांश विद्वान विक्रमादित्य को परमार वंशी क्षत्रिय राजपूत मानते हैं। मालवा के परमार वंशी राजपूत राजा भोज विक्रमादित्य को अपना पूर्वज मानते थे।
जो भी हो पर इतना निर्विवाद सत्य है कि सम्राट विक्रमादित्य भारतीय इतिहास के सर्वश्रेष्ठ शासक थे।अंग्रेज और वामपंथी इतिहासकार उज्जैन के सम्राट विक्रमादित्य को एतिहासिक शासक न मानकर एक मिथक मानते हैं।जबकि कल्हण की राजतरंगनी,कालिदास ...
,नेपाल की वंशावलिया और अरब लेखक,अलबरूनी उन्हें वास्तविक महापुरुष मानते हैं।
उनके समय शको ने देश के बड़े भू भाग पर कब्जा जमा लिया था।विक्रम ने शको को भारत से मार भगाया और अपना राज्य अरब देशो तक फैला दिया था।
उनके नाम पर विक्रम सम्वत चलाया गया। विक्रमादित्य ईसा मसीह के समकालीन थे और उस वक्त उनका शासन अरब तक फैला था। विक्रमादित्य के बारे में प्राचीन अरब साहित्य में वर्णन मिलता है।
इनके पिता का नाम गन्धर्वसेन था एवं प्रसिद्ध योगी भर्तहरी इनके भाई थे।
विक्रमादित्य के इतिहास को अंग्रेजों ने जान-बूझकर तोड़ा और भ्रमित किया और उसे एक मिथ‍कीय चरित्र बनाने में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ी, क्योंकि विक्रमादित्य उस काल में महान व्यक्तित्व और शक्ति का प्रतीक थे, जबकि अंग्रेजों को यह सिद्ध करना जरूरी था कि ईसा मसीह के काल में दुनिया अज्ञानता में जी रही थी। दरअसल, विक्रमादित्य का शासन अरब और मिस्र तक फैला था और संपूर्ण धरती के लोग उनके नाम से परिचित थे। विक्रमादित्य अपने ज्ञान, वीरता और उदारशीलता के लिए प्रसिद्ध थे जिनके दरबार में नवरत्न रहते थे। इनमें कालिदास भी थे। कहा जाता है कि विक्रमादित्य बड़े पराक्रमी थे और उन्होंने शकों को परास्त किया था।


 विक्रमादित्य के समय ज्योतिषाचार्य मिहिर, महान कवि कालिदास थे।
राजा विक्रम उनकी वीरता, उदारता, दया, क्षमा आदि गुणों की अनेक गाथाएं भारतीय साहित्य में भरी पड़ी हैं।
अधिकांश विद्वान विक्रमादित्य को परमार वंशी क्षत्रिय राजपूत मानते हैं। मालवा के परमार वंशी राजपूत राजा भोज विक्रमादित्य को अपना पूर्वज मानते थे।
जो भी हो पर इतना निर्विवाद सत्य है कि सम्राट विक्रमादित्य भारतीय इतिहास के सर्वश्रेष्ठ शासक थे।

Love Story of Man Singh and Gurjar"Mrignayani" #rajput #mansingh

--- इतिहास कि अनोखी प्रेम कहानी और क्षत्रियों में रक्त की शुद्धता बनाए रखने के संकल्प का उत्तम उद्धारण ---

ये चित्र ग्वालियर के गूजरी महल का है जो इतिहास कि शानदार इमारतो में से एक हैं ।

राजपूत राजा राजा मान सिहं तोमर और गुज्जर जाति कि एक आम लडकी ' मृगनयनी ' की ।
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उन दिनों अक्सर मुगलों के आक्रमण होते रहते थे। सिकन्दर लोदी और गयासुद्दीन खिलजी ने कई बार ग्वालियर के किले पर धावा किया, पर वे सफल न हो सके। तब उन्होने आसपास के गांवो को नष्ट कर उनकी फसलें लूटना शुरू कर दिया। उन्होने कई मन्दिरों को तोड-फोड डाला और लोगों को इतना तंग किया कि वे हमेशा भयभीत बने रहते। खासकर स्त्रियों को बहुत ही भय रहता। उन दिनों औरतों का खूबसूरत होना खतरे से खाली न रहता। कारण, मुगल उनपर आंखें लगाए रहते थें। गांवों की कई सुन्दर, भोली लडकिंया उनकी शिकार हो चुकी थी।
ऐसे समय में ग्वालियर के पास राई नामक गांव में एक गरीब गुज्जर किसान के यंहा निन्नी नामक एक सुन्दर लडकी थी। सिकन्दर लोदी के आक्रमण के समय उसके माता-पिता मारे गए थें और अब एक भाई के सिवा उसका संसार में कोई न था। वहीं उसकी रक्षा और भरण-पोषण करता था। उनके पास एक कच्चा मकान और छोटा-सा खेत था, जिसपर वे अपनी गुजर करते थे। दोनों भाई-बहिन शिकार में निपुण थें और जंगली जानवार मारा करते थे। दोनों अपनी गरीबी में भी बडे खुश रहते और गांव के सभी सामाजिक और धार्मिक कार्यों में हिससा लेते रहते थे। उनका स्वभाव और व्यवहार इतना अच्छा था कि पूरा गांव उन्हे चाहता था।

धीरे-धीरे निन्नी के अनुपम भोले सौन्दर्य की खबर आसपास फैलने लगी और एक दिन मालवा के सुल्तान गयासुद्दिन को भी इसका पता लग गया। वह तो औरत और शराब के लिए जान देता ही था। उसने झट अपने आदमियों को बुलवाया और राई गांव की खूबसूरत लडकी निन्नी गूजरी को अपने महल में लाने के लिए हुक्म दिया। अन्त में दो घुडसवार इस काम के लिए चुने गए। सुल्तान ने उनसे साफ कह दिया कि यदि वे उस लडकी को लाने में कामयाब न हुए तो उनका सिर धड से अलग कर दिया जाएगा। और यदि वे उसे ले आए तो उन्हें मालामाल कर दिया जाएगा।
निन्नी गूजरी अपनी एक सहेली के साथ जंगल में शिकार को गई थी। उस दिन शाम तक उन्हें कोई शिकार नहीं मिला और वे निराश होकर लौटने ही वाली थी कि उन्हे दूर झाडी के पास कुछ आहट सुनाई दी। लाखी थककर चूर हो गई थी इसलिए वह तो वहीं बैठ गई, किन्तु निन्नी अपने तीर और भालों के साथ आगे बढ गई। झाडी के पास पहूंचने पर उसने शिकार की खोज की, पर उसे कुछ नजर नहीं आया। वह लौटने ही वाली थी कि फिर से आहट मिली। उसने देखा कि झाडी के पास एक बडे झाड के पीछे से दो घुडसवार निकले और उसकी ओर आने लगे। पहले तो निन्नी कुछ घबराई, किन्तु फिर अपना साहस इकट्ठा कर वह उनका सामना करने के लिए अडकर खडी हो गई। जैसे ही घुडसवार उससे कुछ कदम दूरी पर आए, उसने कडकती हुई आवाज हुई आवाज में चिल्लाकर कहा, तुम कौन हो और यहाँ क्यों आए हो ? दोनों सवार घोडो पर से उतर गए। उनमें से एक ने कहा, हम सुल्तान गयासुद्दीन के सिपाही है, और तुम्हे लेने आए हैं। सुल्तान तुम्हे अपनी बेगम बनाना चाहता है। सवार के मुंह से इन शब्दों के निकलते ही निन्नी ने अपना तीर कमान पर चढा उसकी एक आँख को निशाना बना तेजी से फेंका। फिर दूसरा तीर दूसरी आँख पर फेंका, किन्तु वह उसकी हथेली पर अडकर रह गया, क्योंकि सवार के दोनों हाथ आखों पर आ चुके थे। इसी बीच दूसरा सवार घोडे पर चढकर तेजी से वापस लौटने लगा। निन्नी ने उसपर पहले भाले से और फिर तीरों से वार किया। वह वहीं धडाम से नीचे गिर गया। पहले सवार की आंखों से रक्त बह रहा था। निन्नी ने एक भाला उसकी छाती पर पूरी गति से फेंका और चीखकर वह भी जमीन पर लोटने लगा। फिर निन्नी तेजी से वापस चल पडी और हांफती हुई लाखी के घर पहुंची। लाखी पास के नाले से पानी पीकर लौटी थी और आराम कर रही थी। निन्नी से घुडसवारों का हाल सुन, उसके चेहरे का रंग उड गया। किन्तु निन्नी ने उसे हिम्मत दी और शिघ्रता से वापस चलने को कहा।

दूसरे दिन पूरे राई गांव में निन्नी की बहादुरी का समाचार बिजली की तरह फैल गया। ग्वालियर के राजपूत राजा मानसिंह तोमर को भी इस घटना की सूचना मिली। वे इस बहादुर लडकी से मिलने के लिए उत्सुक हो उठे। उसके बाद तो जो भी आदमी राई गांव से आते वे इस लडकी के बारे में अवश्य पूछते। एक दिन गांव का पूजारी मन्दिर बनवाने की फरियाद ले मानसिंह के पास पहुंचा। उसने भी निन्नी की वीरता के कई किस्से राजा को सुनाए। राजा को यह सुनकर बडा आश्चर्य हुआ कि निन्नी अकेली कई सूअरों और अरने-भैंसों को केवल तीरों और भालों से मार गिराती है। अन्त में मानसिंह ने पुजारी के द्वारा गांव में संदेशा भेज दिया कि वे शीघ्र ही गांव का मन्दिर बनवाने और लोगों की हालत देखने राई गांव आएंगे। 

राजा के आगमन की सूचना पाते ही गूजरों में खुशी की लहर फैल गई। हर कोई उनके स्वागत की तैयारियों में लग गया। लोगों ने अपने कच्चे मकानों को छापना और लीपन-पोतना शुरू कर दिया। जिनके पास पैसे थे उन्होने अपने लिए उस दिन पहनने के लिए एक जोडा नया कपड बनवा लिया। किन्तु जिनके पास पैसे नहीं थे उन्होने भी नदी के पानी में अपने पुराने फटे कपडों को खूबसाफकर लिया और उत्सुकता से उस दिन की राह देखने लगे। आखिर वह दिन आ ही गया। उस दिन हर दरवाजे पर आम के पतो के बंदनवार बांाधे गए और सब लोग अपने साफ कपडो को पहन, गांव के बाहर रास्ते पर राजा के स्वागत के लिए जमा हो गए। सामने औरतों की कतारें थी। वे अपने सिर पर मिटी के घडे पानी से भरकर रखे थी। और उनपर मीठे तेल के दीये जल रहे थे। सबके सामने निन्नी को खडा किया गया था, जो एक थाली में अक्षत, कुमकुम, फूल और आरती उतारने के लिए घी का एक दीया रखे हुए थी। उसने मोटे, पर साफ कपडे पहने थे। उसके बाजू से गांव का पुजारी था तथा बाकी पुरूष पंक्ति बनाकर औरतों के पीछे खडे हुए थे। जैसे ही राजा की सवारी पहुंची, पूरे गांव के लोगों ने मिलकर एक स्वर से उनकी जय-जयकार की। फिर पुजारी ने आगे बढकर पहले उनका स्वागत किया। उनके भाल पर हन्दी और कुमकुम का टीका लगाया और माला पहनाई। राजा ने ब्राहण के पैर छुए और पुजारी ने उन्हें आर्शीवाद दिया। इसके बाद पुजारी ने राजा को निन्नी का परिचय दिया। निन्नी सिर झुकाए खडी थी। उसने झट कुमकुम, अक्षत राजा के माथे पर लगाया। फूल उनकी पगडी पर फेंके और आरती उतारने लगी। मानसिंह की दृष्टि निन्नी के भोले चेहरे पर अटकी हुई थी। आरती समाप्त होते ही मानसिंह ने देखा कि निन्नी के फेंके फूलों मे से एक जमीन पर गिर पडा हैं। उन्होने झुककर उसे उठाया और अपनी पगडी में खोंस लिया। कई स्त्रियों ने यह दृश्य देखा और आपस में एक दूसरे की तरफ देखते हुए मुस्कराने लगी। विशेषकर लाख चुप न रह सकी और उसने निन्नी को चिमटी देकर चुफ से कान में कह हि दिया-’’राजा ने तुम्हारी पूजा स्वीकार कर ली हैं। अब तो तू जल्दी ही ग्वालियर की रानी बनेगी।‘‘ निन्नी के गोरे गालों पर लज्जा की लालिमा छा गई। ‘चल हट!‘ कहकर वह भीड में खो गई और राजा मन्दिर की ओर चल पडे। 

मन्दिर के पास ही राजा का पडाव डाला गया। रात्रि के समय लोगों की सभा में राजा ने मन्दिर बनवाने के लिए पांच हजार रुपयों के दान की घोषणा की। गांव में कुआं खुदवाने तथा सडक सुधारने के लिए दस हजार रुपये देने का वायदा किया। अंत में राजा ने गांव के लोगों को मुगलों से सतर्क रहने और उनका सामना करने के लिए तैयार रहने को कहा। उन्होंने सबके सामने निन्नी की सुनी हुई बहादुरी की भी तारीफ की और दूसरे दिन निन्नी के जंगली जानवरों के शिकार को देखने की इच्छा प्रकट की। पुजारी ने निन्नी के भाई अटल की ओर इशारा किया। अटल ने बिना निन्नी से पूछे खडे होकर स्वीकृति दे दी। इसके बाद बहुत रात तक भजन-कीर्तन हुआ और फिर लोग अपने-अपने घर चले गए। 

दुसरे दिन शिकार की तैयारियां हुई। राजा मानसिंह के लिए एक मचान बनाया गया। निन्नी ने अपने सब हथियार साफ करके उन्हें तेज किया। बीच-बीच में निन्नी विचारों में खो जाती। कभी ग्वालियर की रानी बनने की मधुर कल्पना उसे गुमशुदा जाती तो कभी अपने एकमात्र प्रिय भाई का ख्याल, गांव का सुखी, स्वतंत्र जीवन, सांक नदी का शीतल जल, और जंगल के शिकार का आनन्द उसे दूसरे संसार में ले जाते। इसीसमय अटल ने तेजी से घर में प्रवेश किया और निन्नी को जल्दी चलने के लिए कहा। राजा ने जंगल की ओर निकल चुके थं। इसी समय लाखी भी आ गई और निन्नी लाखी के साथ शिकार के लिए चल पडी। कुछ हथियार निन्नी रखे थी और कुछ उसने लाखी को पकडा दिए थे। 

जंगल में राजा के आदमी ढोल पीट रहे थे, ताकि जानवर अपने छिपे हुए स्थानों से बाहर निकल पडें। राजा मानसिंह मचान पर बैठे थे। निन्नी और लाखी एक बडे झाड के नीचे खडी हुई थी। थोडी देर के बाद हिरण-परिवार झाडी से निकला और भागने लगा। निन्नी ने एक तीर जोर से फेंका, जो मादा हिरण को लगा, और वही वगिर पडी। नरहिरण तेजी से भगा, पर निन्नी ने उसे भी मार गिराया । इसके बाद निनी ने दौडकर दो हिरण के बच्चों ाके , जो अकेले बच गए थे, उठा लिया और गोद में रखकर झाड के नीचे ले आई। मानसिंह ने यह दृश्य देखा और मन ही मन निन्नी के कोमल हदय की प्रशंसा करने लगे। इसके बाद तो एक-एक करके कई जंगली जानवर बाहर निकले और निनी ने कभी तरों और कभी भलों से उन्हे पहले ही प्रयत्न में मार गिराया। फिर एक बडा जंगली अरना भैंसा निकला। निनी ने पूरी ताकत से दो तीर फेंके, जो सीधे भैंस के शरीर को भेद गए। किन्तु वह गिरा नहीं। घायल होने के कारण वह क्रोध में आकर चिघाडता हुआ निन्नी की ओर झपटा। मानसिंह ने अपनी बदूंक निकाल ली और वे भैंसे पर गोली चलाने ही वाले थे कि उन्होंने देखा-निन्नी ने दौडकर अरने भैसें के सींग पकड लिए है और पूरा जोर लगाकर वह उन्हे मरोड रही है। फिर बिजली की सी गति से उसने एक तेज भाला उसके माथे पर भोंक दिया। भैंसा अतिंम बार जोर से चिघाडा और जमीन पर गिर पडा।

मानसिंह मचान से उतरे और सीधे निनी के पास गए। उन्होंने अपने गले से कीमती मोती की माला उतारी और उसे निन्नी के गले में पहना दी। निन्नी ने झुककर राजा को प्रणाम किया और एक ओर हो गई। लाखी ने देखा, राजा और निन्नी चुप खडे हैं। वह जानवरों के शरीरों से तीर और भाले निकालने का बहाना कर वहंा से खिसक गई। तब मानसिंह ने निन्नी का हाथ अपने हाथों में लेते हुए कहा, ’’शक्ति और सौन्दर्य का कैसा सुन्दर मेल है तुममें ! निन्नी, सचमुच तुम तो ग्वालियर के महल मे ही शोभा दोगी। क्या तुम मुझसे विवाह करने के लिए तैयार हो?‘‘ निन्नी के पास जवाब देने के लिए शब्द ही नहीं थें। वह क्षण भर मोन रही !  फिर अत्यंत नम्र और भोले स्वर में बोली-’’ फिर मुझे गांव का यह सुन्दर स्वतंत्र जीवन कहां मिलेगा !  वहां मुझे शिकार के लिए जंगल और जानवर कहां मिलेंगे; और यह सांक नदी; जिसका शीतल जल मुझे इतना प्यारा लगता है वहां कहां मिलेगा? मानसिंह जो निन्नी का हाथ अभी भी अपने हाथों में रखे थे, बोले, ’’तुम्हारी सब इच्छाए वहां भी पूरी होगी। निन्नी, केवल वचन दो, मैं तुम्हारे लिए सांक नदी को ग्वालियर के महल तक ले जा सकता हूँ।‘‘ निन्नी अब क्या कहती। वह चुप हो गई। और मानसिंह उसके मौन का अर्थ समझ गए। इसी समय अटल और अन्य लोग वहां पहुंचे और निन्नी का हाथ छोड राजा मानसिंह उनमें मिल गए।

उसी दिन संध्या समय मानसिंह ने पुजारी के द्वारा अटल गुज्जर के पास निन्नी से विवाह का प्रस्ताव भेजा। पहले अटल विश्वास न कर सका, किन्तु जब स्वंय मानसिंह ने उससे विवाह की बात कही, तब तो अटल की खुशी का ठिकाना न रहा। दूसरे ही दिन विवाह होना था। अटल इंतजाम मे लग गया। लोग उससे पूछते कि वह पैसा कहाँ से लाएगा और इतना बडा ब्याह कैसे करेगा? अटल गर्व से जवाब देता, ’’मै कन्या दूंगा और एक गाय दूंगा। सूखी हल्दी और चावल का टीका लगाऊगा। घर में बहुत से जानवरों के चमडे रखे हैं उन्हे बेचकर बहन के गले के लिए चांदी की एक हसली दुंगा और क्या चाहिए?‘‘ मानसिंह ने अटल की कठिनाईया सुनी तो उसे सदेंशा भेजा कि वे ग्वालियर से शादि करने को तैयार है और दोनों तरफ का खर्चा भी वे पूरा करेंगे।इससे अटल के स्वाभिमान को बड धक्का पहुंचा। उसने तुरन्त संदेशा भेजा कि उसे यह बात मंजूर नहीं। आज तक कहीं ऐसा नहीं हुआ कि लडकी को लडके के घर ले जाकर विवाह किया गया हो गरीब से गरीब लडकी वाले भी अपने घर में ही लडकी का कन्यादान देते हैं। इस पर मानसिंह चुप हो गए। 
अटल ने रात भर जागकर सब तैयारिया की। उसने जंगल से लडकी और आम के पते लाकर मांडप बनाया अनाज बेचकर कपडे का एक जोडा निन्नी के लिए तैयार किया तथा गांव वालों ाके बांटने के लिए गुड लिया। इस तरह दूसरे दिन वैदिक रीति से राजा मानसिंह और निन्नी का ब्याह पूरा हुआ। गांव के लोगों से जो कुछ बन पडा उन्होने निन्नी को दिया। विदा के समय निन्नी अटल से लिपटकर खूब रोई। उसने रोते हुए कहा, ’’भैया अब लाखी को भाभी बनाकर जल्दी घर ले आओं तुम्हे बहुत तकलीफ होगी।‘‘ भाई ने उसे आश्वासन दिया और इस प्रकार निनी भाई की झोपडी को छोड ग्वालियर के महल के लिए रवाना हो गई।
विवाह के बाद महल कि राजपूत राणियो ने गुज्जर जाति कि रानि का विरोध किया इसी कारण राणा जी मे '' गुजरी महल '' का निर्माण करवाया ।

यही गूजर किसान की लडकी निन्नी, जिसका नाम असल में मृगनयनी था, ग्वालियर की गूजरी रानी के नाम से इतिहास में प्रसिद्ध हुई। उसमें जैसी सौन्दर्य की कोमलता थी, वैसी ही शूर वीरता भी थी। राजा मानसिंह उसे बहुत ही चाहते थे और कुछ समय तक ऐसा लगा कि राजा उसके पीछे पागल है किन्तु निन्नी ने उन्हे हमेशा कर्तव्य कि और प्रेरित किया वह सव्य संगित व चित्रकला सिखने लगी जिससे उसका समय व्यस्त रहता और मानसिंह भी उस समय अपने राज्य के कार्यो में लगे रहते युद्व के समय निन्नी हमेशा मानसिंह को उत्साहित कर प्रजा के रक्षा के लिए तत्पर रहती इस प्रकार निन्नी सचमुच एक योग्य कुशल रानी सिद्व हुई उसने राज्य में सगींत, चित्र, कला, शिल्पकला को प्रोत्साहन करना बैजू नामक प्रसिद्व गायक ने किसी समय नई-नई राग-रागिनाए बनाई थी ग्वालियर में बने हुए मान मन्दिर और गूजरी महल आज भी उस समय की उन्नत शिल्पकला के नमूने है राई गांव से गूजरी महल तक बनी हुई नहर जिसमें सांक नदी का जल ग्वालियर तक ले जाया गया था आज भी दिखाई देता है।

इनके पुत्र को क्षत्रिय राजपूतों मे शामिल नहीं किया । क्योकि क्षत्रिय वो है जो एक क्षत्राणि की कोख से जन्मा हो।
मृगनयनी से दो पुत्र हुए जिन्हें लेकर गुर्जरी महल छोड़ टिगड़ा के जंगलो में चली गयी उन्होंने एक नया गोत्र अपनाया जो आज गुर्जुर में आता है ...^तोंगर^ जिसका अर्थ यह है 
तोमर+गुर्जर = तोंगर
इसलिए मृग्नयनि पुत्र को कुछ जागीर देकर गूजरों मे शामिल किया गया।
ये राजपूत राजा मानसिंह तोमर के गूजरी पत्नी के वंशज आज तोंगर गुज्जर कहलाते हैं और तोमर राजपूतो को चुनाव में समर्थन कर उनके प्रति सम्मान दिखाते हैं।

इसी तरह राजपूत पुरुशों के दूसरी जाति की महिल/सम्बन्ध से उन जातियों में चौहान तोमर गहलौत परमार सोलँकि वंश चले हैं।ये राजपूतों की उदारता को भी प्रदर्शित करता है।
इस प्रकार राजपूत राजा की गूजरी रानी निन्नी/मृगनयनी ने ग्वालियर के तौमर राज्य में चार चांद जोड दिए और उस काल को इतिहास में अमर कर दिया।

नोट-हिसार हरियाणा का गूजरी महल एक मुस्लिम सुल्तान ने अपनी गूजरी प्रेमिका के लिए बनवाया था वो ग्वालियर के गूजरी महल से अलग है।इसमें भृमित न हों।
सन्दर्भ-khabarexpress.com--- इतिहास कि अनोखी प्रेम कहानी और क्षत्रियों में रक्त की शुद्धता बनाए रखने के संकल्प का उत्तम उद्धारण ---
ये चित्र ग्वालियर के गूजरी महल का है जो इतिहास कि शानदार इमारतो में से एक हैं ।
राजपूत राजा राजा मान सिहं तोमर और गुज्जर जाति कि एक आम लडकी ' मृगनयनी ' की ।
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उन दिनों अक्सर मुगलों के आक्रमण होते रहते थे। सिकन्दर लोदी और गयासुद्दीन खिलजी ने कई बार ग्वालियर के किले पर धावा किया, पर वे सफल न हो सके। तब उन्होने आसपास के गांवो को नष्ट कर उनकी फसलें लूटना शुरू कर दिया। उन्होने कई मन्दिरों को तोड-फोड डाला और लोगों को इतना तंग किया कि वे हमेशा भयभीत बने रहते। खासकर स्त्रियों को बहुत ही भय रहता। उन दिनों औरतों का खूबसूरत होना खतरे से खाली न रहता। कारण, मुगल उनपर आंखें लगाए रहते थें। गांवों की कई सुन्दर, भोली लडकिंया उनकी शिकार हो चुकी थी।
ऐसे समय में ग्वालियर के पास राई नामक गांव में एक गरीब गुज्जर किसान के यंहा निन्नी नामक एक सुन्दर लडकी थी। सिकन्दर लोदी के आक्रमण के समय उसके माता-पिता मारे गए थें और अब एक भाई के सिवा उसका संसार में कोई न था। वहीं उसकी रक्षा और भरण-पोषण करता था। उनके पास एक कच्चा मकान और छोटा-सा खेत था, जिसपर वे अपनी गुजर करते थे। दोनों भाई-बहिन शिकार में निपुण थें और जंगली जानवार मारा करते थे। दोनों अपनी गरीबी में भी बडे खुश रहते और गांव के सभी सामाजिक और धार्मिक कार्यों में हिससा लेते रहते थे। उनका स्वभाव और व्यवहार इतना अच्छा था कि पूरा गांव उन्हे चाहता था।
धीरे-धीरे निन्नी के अनुपम भोले सौन्दर्य की खबर आसपास फैलने लगी और एक दिन मालवा के सुल्तान गयासुद्दिन को भी इसका पता लग गया। वह तो औरत और शराब के लिए जान देता ही था। उसने झट अपने आदमियों को बुलवाया और राई गांव की खूबसूरत लडकी निन्नी गूजरी को अपने महल में लाने के लिए हुक्म दिया। अन्त में दो घुडसवार इस काम के लिए चुने गए। सुल्तान ने उनसे साफ कह दिया कि यदि वे उस लडकी को लाने में कामयाब न हुए तो उनका सिर धड से अलग कर दिया जाएगा। और यदि वे उसे ले आए तो उन्हें मालामाल कर दिया जाएगा।
निन्नी गूजरी अपनी एक सहेली के साथ जंगल में शिकार को गई थी। उस दिन शाम तक उन्हें कोई शिकार नहीं मिला और वे निराश होकर लौटने ही वाली थी कि उन्हे दूर झाडी के पास कुछ आहट सुनाई दी। लाखी थककर चूर हो गई थी इसलिए वह तो वहीं बैठ गई, किन्तु निन्नी अपने तीर और भालों के साथ आगे बढ गई। झाडी के पास पहूंचने पर उसने शिकार की खोज की, पर उसे कुछ नजर नहीं आया। वह लौटने ही वाली थी कि फिर से आहट मिली। उसने देखा कि झाडी के पास एक बडे झाड के पीछे से दो घुडसवार निकले और उसकी ओर आने लगे। पहले तो निन्नी कुछ घबराई, किन्तु फिर अपना साहस इकट्ठा कर वह उनका सामना करने के लिए अडकर खडी हो गई। जैसे ही घुडसवार उससे कुछ कदम दूरी पर आए, उसने कडकती हुई आवाज हुई आवाज में चिल्लाकर कहा, तुम कौन हो और यहाँ क्यों आए हो ? दोनों सवार घोडो पर से उतर गए। उनमें से एक ने कहा, हम सुल्तान गयासुद्दीन के सिपाही है, और तुम्हे लेने आए हैं। सुल्तान तुम्हे अपनी बेगम बनाना चाहता है। सवार के मुंह से इन शब्दों के निकलते ही निन्नी ने अपना तीर कमान पर चढा उसकी एक आँख को निशाना बना तेजी से फेंका। फिर दूसरा तीर दूसरी आँख पर फेंका, किन्तु वह उसकी हथेली पर अडकर रह गया, क्योंकि सवार के दोनों हाथ आखों पर आ चुके थे। इसी बीच दूसरा सवार घोडे पर चढकर तेजी से वापस लौटने लगा। निन्नी ने उसपर पहले भाले से और फिर तीरों से वार किया। वह वहीं धडाम से नीचे गिर गया। पहले सवार की आंखों से रक्त बह रहा था। निन्नी ने एक भाला उसकी छाती पर पूरी गति से फेंका और चीखकर वह भी जमीन पर लोटने लगा। फिर निन्नी तेजी से वापस चल पडी और हांफती हुई लाखी के घर पहुंची। लाखी पास के नाले से पानी पीकर लौटी थी और आराम कर रही थी। निन्नी से घुडसवारों का हाल सुन, उसके चेहरे का रंग उड गया। किन्तु निन्नी ने उसे हिम्मत दी और शिघ्रता से वापस चलने को कहा।
दूसरे दिन पूरे राई गांव में निन्नी की बहादुरी का समाचार बिजली की तरह फैल गया। ग्वालियर के राजपूत राजा मानसिंह तोमर को भी इस घटना की सूचना मिली। वे इस बहादुर लडकी से मिलने के लिए उत्सुक हो उठे। उसके बाद तो जो भी आदमी राई गांव से आते वे इस लडकी के बारे में अवश्य पूछते। एक दिन गांव का पूजारी मन्दिर बनवाने की फरियाद ले मानसिंह के पास पहुंचा। उसने भी निन्नी की वीरता के कई किस्से राजा को सुनाए। राजा को यह सुनकर बडा आश्चर्य हुआ कि निन्नी अकेली कई सूअरों और अरने-भैंसों को केवल तीरों और भालों से मार गिराती है। अन्त में मानसिंह ने पुजारी के द्वारा गांव में संदेशा भेज दिया कि वे शीघ्र ही गांव का मन्दिर बनवाने और लोगों की हालत देखने राई गांव आएंगे।
राजा के आगमन की सूचना पाते ही गूजरों में खुशी की लहर फैल गई। हर कोई उनके स्वागत की तैयारियों में लग गया। लोगों ने अपने कच्चे मकानों को छापना और लीपन-पोतना शुरू कर दिया। जिनके पास पैसे थे उन्होने अपने लिए उस दिन पहनने के लिए एक जोडा नया कपड बनवा लिया। किन्तु जिनके पास पैसे नहीं थे उन्होने भी नदी के पानी में अपने पुराने फटे कपडों को खूबसाफकर लिया और उत्सुकता से उस दिन की राह देखने लगे। आखिर वह दिन आ ही गया। उस दिन हर दरवाजे पर आम के पतो के बंदनवार बांाधे गए और सब लोग अपने साफ कपडो को पहन, गांव के बाहर रास्ते पर राजा के स्वागत के लिए जमा हो गए। सामने औरतों की कतारें थी। वे अपने सिर पर मिटी के घडे पानी से भरकर रखे थी। और उनपर मीठे तेल के दीये जल रहे थे। सबके सामने निन्नी को खडा किया गया था, जो एक थाली में अक्षत, कुमकुम, फूल और आरती उतारने के लिए घी का एक दीया रखे हुए थी। उसने मोटे, पर साफ कपडे पहने थे। उसके बाजू से गांव का पुजारी था तथा बाकी पुरूष पंक्ति बनाकर औरतों के पीछे खडे हुए थे। जैसे ही राजा की सवारी पहुंची, पूरे गांव के लोगों ने मिलकर एक स्वर से उनकी जय-जयकार की। फिर पुजारी ने आगे बढकर पहले उनका स्वागत किया। उनके भाल पर हन्दी और कुमकुम का टीका लगाया और माला पहनाई। राजा ने ब्राहण के पैर छुए और पुजारी ने उन्हें आर्शीवाद दिया। इसके बाद पुजारी ने राजा को निन्नी का परिचय दिया। निन्नी सिर झुकाए खडी थी। उसने झट कुमकुम, अक्षत राजा के माथे पर लगाया। फूल उनकी पगडी पर फेंके और आरती उतारने लगी। मानसिंह की दृष्टि निन्नी के भोले चेहरे पर अटकी हुई थी। आरती समाप्त होते ही मानसिंह ने देखा कि निन्नी के फेंके फूलों मे से एक जमीन पर गिर पडा हैं। उन्होने झुककर उसे उठाया और अपनी पगडी में खोंस लिया। कई स्त्रियों ने यह दृश्य देखा और आपस में एक दूसरे की तरफ देखते हुए मुस्कराने लगी। विशेषकर लाख चुप न रह सकी और उसने निन्नी को चिमटी देकर चुफ से कान में कह हि दिया-’’राजा ने तुम्हारी पूजा स्वीकार कर ली हैं। अब तो तू जल्दी ही ग्वालियर की रानी बनेगी।‘‘ निन्नी के गोरे गालों पर लज्जा की लालिमा छा गई। ‘चल हट!‘ कहकर वह भीड में खो गई और राजा मन्दिर की ओर चल पडे।
मन्दिर के पास ही राजा का पडाव डाला गया। रात्रि के समय लोगों की सभा में राजा ने मन्दिर बनवाने के लिए पांच हजार रुपयों के दान की घोषणा की। गांव में कुआं खुदवाने तथा सडक सुधारने के लिए दस हजार रुपये देने का वायदा किया। अंत में राजा ने गांव के लोगों को मुगलों से सतर्क रहने और उनका सामना करने के लिए तैयार रहने को कहा। उन्होंने सबके सामने निन्नी की सुनी हुई बहादुरी की भी तारीफ की और दूसरे दिन निन्नी के जंगली जानवरों के शिकार को देखने की इच्छा प्रकट की। पुजारी ने निन्नी के भाई अटल की ओर इशारा किया। अटल ने बिना निन्नी से पूछे खडे होकर स्वीकृति दे दी। इसके बाद बहुत रात तक भजन-कीर्तन हुआ और फिर लोग अपने-अपने घर चले गए।
दुसरे दिन शिकार की तैयारियां हुई। राजा मानसिंह के लिए एक मचान बनाया गया। निन्नी ने अपने सब हथियार साफ करके उन्हें तेज किया। बीच-बीच में निन्नी विचारों में खो जाती। कभी ग्वालियर की रानी बनने की मधुर कल्पना उसे गुमशुदा जाती तो कभी अपने एकमात्र प्रिय भाई का ख्याल, गांव का सुखी, स्वतंत्र जीवन, सांक नदी का शीतल जल, और जंगल के शिकार का आनन्द उसे दूसरे संसार में ले जाते। इसीसमय अटल ने तेजी से घर में प्रवेश किया और निन्नी को जल्दी चलने के लिए कहा। राजा ने जंगल की ओर निकल चुके थं। इसी समय लाखी भी आ गई और निन्नी लाखी के साथ शिकार के लिए चल पडी। कुछ हथियार निन्नी रखे थी और कुछ उसने लाखी को पकडा दिए थे।
जंगल में राजा के आदमी ढोल पीट रहे थे, ताकि जानवर अपने छिपे हुए स्थानों से बाहर निकल पडें। राजा मानसिंह मचान पर बैठे थे। निन्नी और लाखी एक बडे झाड के नीचे खडी हुई थी। थोडी देर के बाद हिरण-परिवार झाडी से निकला और भागने लगा। निन्नी ने एक तीर जोर से फेंका, जो मादा हिरण को लगा, और वही वगिर पडी। नरहिरण तेजी से भगा, पर निन्नी ने उसे भी मार गिराया । इसके बाद निनी ने दौडकर दो हिरण के बच्चों ाके , जो अकेले बच गए थे, उठा लिया और गोद में रखकर झाड के नीचे ले आई। मानसिंह ने यह दृश्य देखा और मन ही मन निन्नी के कोमल हदय की प्रशंसा करने लगे। इसके बाद तो एक-एक करके कई जंगली जानवर बाहर निकले और निनी ने कभी तरों और कभी भलों से उन्हे पहले ही प्रयत्न में मार गिराया। फिर एक बडा जंगली अरना भैंसा निकला। निनी ने पूरी ताकत से दो तीर फेंके, जो सीधे भैंस के शरीर को भेद गए। किन्तु वह गिरा नहीं। घायल होने के कारण वह क्रोध में आकर चिघाडता हुआ निन्नी की ओर झपटा। मानसिंह ने अपनी बदूंक निकाल ली और वे भैंसे पर गोली चलाने ही वाले थे कि उन्होंने देखा-निन्नी ने दौडकर अरने भैसें के सींग पकड लिए है और पूरा जोर लगाकर वह उन्हे मरोड रही है। फिर बिजली की सी गति से उसने एक तेज भाला उसके माथे पर भोंक दिया। भैंसा अतिंम बार जोर से चिघाडा और जमीन पर गिर पडा।
मानसिंह मचान से उतरे और सीधे निनी के पास गए। उन्होंने अपने गले से कीमती मोती की माला उतारी और उसे निन्नी के गले में पहना दी। निन्नी ने झुककर राजा को प्रणाम किया और एक ओर हो गई। लाखी ने देखा, राजा और निन्नी चुप खडे हैं। वह जानवरों के शरीरों से तीर और भाले निकालने का बहाना कर वहंा से खिसक गई। तब मानसिंह ने निन्नी का हाथ अपने हाथों में लेते हुए कहा, ’’शक्ति और सौन्दर्य का कैसा सुन्दर मेल है तुममें ! निन्नी, सचमुच तुम तो ग्वालियर के महल मे ही शोभा दोगी। क्या तुम मुझसे विवाह करने के लिए तैयार हो?‘‘ निन्नी के पास जवाब देने के लिए शब्द ही नहीं थें। वह क्षण भर मोन रही ! फिर अत्यंत नम्र और भोले स्वर में बोली-’’ फिर मुझे गांव का यह सुन्दर स्वतंत्र जीवन कहां मिलेगा ! वहां मुझे शिकार के लिए जंगल और जानवर कहां मिलेंगे; और यह सांक नदी; जिसका शीतल जल मुझे इतना प्यारा लगता है वहां कहां मिलेगा? मानसिंह जो निन्नी का हाथ अभी भी अपने हाथों में रखे थे, बोले, ’’तुम्हारी सब इच्छाए वहां भी पूरी होगी। निन्नी, केवल वचन दो, मैं तुम्हारे लिए सांक नदी को ग्वालियर के महल तक ले जा सकता हूँ।‘‘ निन्नी अब क्या कहती। वह चुप हो गई। और मानसिंह उसके मौन का अर्थ समझ गए। इसी समय अटल और अन्य लोग वहां पहुंचे और निन्नी का हाथ छोड राजा मानसिंह उनमें मिल गए।
उसी दिन संध्या समय मानसिंह ने पुजारी के द्वारा अटल गुज्जर के पास निन्नी से विवाह का प्रस्ताव भेजा। पहले अटल विश्वास न कर सका, किन्तु जब स्वंय मानसिंह ने उससे विवाह की बात कही, तब तो अटल की खुशी का ठिकाना न रहा। दूसरे ही दिन विवाह होना था। अटल इंतजाम मे लग गया। लोग उससे पूछते कि वह पैसा कहाँ से लाएगा और इतना बडा ब्याह कैसे करेगा? अटल गर्व से जवाब देता, ’’मै कन्या दूंगा और एक गाय दूंगा। सूखी हल्दी और चावल का टीका लगाऊगा। घर में बहुत से जानवरों के चमडे रखे हैं उन्हे बेचकर बहन के गले के लिए चांदी की एक हसली दुंगा और क्या चाहिए?‘‘ मानसिंह ने अटल की कठिनाईया सुनी तो उसे सदेंशा भेजा कि वे ग्वालियर से शादि करने को तैयार है और दोनों तरफ का खर्चा भी वे पूरा करेंगे।इससे अटल के स्वाभिमान को बड धक्का पहुंचा। उसने तुरन्त संदेशा भेजा कि उसे यह बात मंजूर नहीं। आज तक कहीं ऐसा नहीं हुआ कि लडकी को लडके के घर ले जाकर विवाह किया गया हो गरीब से गरीब लडकी वाले भी अपने घर में ही लडकी का कन्यादान देते हैं। इस पर मानसिंह चुप हो गए।
अटल ने रात भर जागकर सब तैयारिया की। उसने जंगल से लडकी और आम के पते लाकर मांडप बनाया अनाज बेचकर कपडे का एक जोडा निन्नी के लिए तैयार किया तथा गांव वालों ाके बांटने के लिए गुड लिया। इस तरह दूसरे दिन वैदिक रीति से राजा मानसिंह और निन्नी का ब्याह पूरा हुआ। गांव के लोगों से जो कुछ बन पडा उन्होने निन्नी को दिया। विदा के समय निन्नी अटल से लिपटकर खूब रोई। उसने रोते हुए कहा, ’’भैया अब लाखी को भाभी बनाकर जल्दी घर ले आओं तुम्हे बहुत तकलीफ होगी।‘‘ भाई ने उसे आश्वासन दिया और इस प्रकार निनी भाई की झोपडी को छोड ग्वालियर के महल के लिए रवाना हो गई।
विवाह के बाद महल कि राजपूत राणियो ने गुज्जर जाति कि रानि का विरोध किया इसी कारण राणा जी मे '' गुजरी महल '' का निर्माण करवाया ।
यही गूजर किसान की लडकी निन्नी, जिसका नाम असल में मृगनयनी था, ग्वालियर की गूजरी रानी के नाम से इतिहास में प्रसिद्ध हुई। उसमें जैसी सौन्दर्य की कोमलता थी, वैसी ही शूर वीरता भी थी। राजा मानसिंह उसे बहुत ही चाहते थे और कुछ समय तक ऐसा लगा कि राजा उसके पीछे पागल है किन्तु निन्नी ने उन्हे हमेशा कर्तव्य कि और प्रेरित किया वह सव्य संगित व चित्रकला सिखने लगी जिससे उसका समय व्यस्त रहता और मानसिंह भी उस समय अपने राज्य के कार्यो में लगे रहते युद्व के समय निन्नी हमेशा मानसिंह को उत्साहित कर प्रजा के रक्षा के लिए तत्पर रहती इस प्रकार निन्नी सचमुच एक योग्य कुशल रानी सिद्व हुई उसने राज्य में सगींत, चित्र, कला, शिल्पकला को प्रोत्साहन करना बैजू नामक प्रसिद्व गायक ने किसी समय नई-नई राग-रागिनाए बनाई थी ग्वालियर में बने हुए मान मन्दिर और गूजरी महल आज भी उस समय की उन्नत शिल्पकला के नमूने है राई गांव से गूजरी महल तक बनी हुई नहर जिसमें सांक नदी का जल ग्वालियर तक ले जाया गया था आज भी दिखाई देता है।
इनके पुत्र को क्षत्रिय राजपूतों मे शामिल नहीं किया । क्योकि क्षत्रिय वो है जो एक क्षत्राणि की कोख से जन्मा हो।
मृगनयनी से दो पुत्र हुए जिन्हें लेकर गुर्जरी महल छोड़ टिगड़ा के जंगलो में चली गयी उन्होंने एक नया गोत्र अपनाया जो आज गुर्जुर में आता है ...^तोंगर^ जिसका अर्थ यह है
तोमर+गुर्जर = तोंगर
इसलिए मृग्नयनि पुत्र को कुछ जागीर देकर गूजरों मे शामिल किया गया।
ये राजपूत राजा मानसिंह तोमर के गूजरी पत्नी के वंशज आज तोंगर गुज्जर कहलाते हैं और तोमर राजपूतो को चुनाव में समर्थन कर उनके प्रति सम्मान दिखाते हैं।
इसी तरह राजपूत पुरुशों के दूसरी जाति की महिल/सम्बन्ध से उन जातियों में चौहान तोमर गहलौत परमार सोलँकि वंश चले हैं।ये राजपूतों की उदारता को भी प्रदर्शित करता है।
इस प्रकार राजपूत राजा की गूजरी रानी निन्नी/मृगनयनी ने ग्वालियर के तौमर राज्य में चार चांद जोड दिए और उस काल को इतिहास में अमर कर दिया।
नोट-हिसार हरियाणा का गूजरी महल एक मुस्लिम सुल्तान ने अपनी गूजरी प्रेमिका के लिए बनवाया था वो ग्वालियर के गूजरी महल से अलग है।इसमें भृमित न हों।
सन्दर्भ-khabarexpress.com

खालसा राज के पहले शाशक- सरदार बाज़ सिंह परमार/ FIRST SIKKH KING SARDAR BAAJ SING PARMAR-A RAJPUT

खालसा राज के पहले शाशक- सरदार बाज़ सिंह परमार***


= Rao Sardar Baj Singh Ji Puar =
= Famous as Baj Bahadur =
( First governor of Khalsa raj )
Ruled Vast Sarkar of Sirhind from Sutlej to Yamuna )
( 1710 - 1717 )

== Early Life ==
He descended from the royal house of Malwa kingdom ( Paramara / Puar dynasty ) which on fall established principalities in Punjab .

=== Family Tree ==
23rd great grand father of Rao Sardar Baj Singh Ji Puar from line of Samrat Vikramaditya sat on throne in 911 AD .
Raja Santal
Raja Magh ( Sat on throne in 950 AD )
Raja Munja ( Sat on throne in 974 AD )
Raja Bhoja ( great polymath king of India ) ( Sat
on throne in 1018 AD )[12]
Raja Jai Singh ( Sat on throne in 1060 AD )
Raja Sapta mukat ( Sat on throne in 1108 AD )
Raja Chatra mukat ( Sat on throne in 1152 AD )
Raja Udaydeep ( referred to as very learned man
as well ) ( Sat on throne in 1198 AD )
Raja Randhawal ( Sat on throne in 1230 AD )
Raja Udhar ( Sat on throne in 1256 AD )
Raja Amb Charan ( Sat on throne in 1297 AD )
Raja Loyia ji ( Sat on throne in 1339 AD )
Raja Shah ( Sat on throne in 1400 AD )
Raja Som ( Sat on throne in 1434 AD )
Raja Dharna ( Sat on throne in 1438 AD )
Raja Des Rai ( Sat on throne in 1445 AD )
Raja Radha ( Sat on throne in 1457 AD )
Raja Kal Rai ( Sat on throne in 1482 AD )
Raja Aasal ( Sat on throne in 1502 AD )
Raja Jalha ( Sat on throne in 1541 AD )
Raja Nar Singh ( Sat on throne in 1553 AD ) ( Lost
Kingdom to Mughals after a fierce resistance )
Rao Haafa
Rao Chaahad
Rao Boodha
Rao Moola
Rao Ballu
( sikh general with guru hargobind sahib as quoted
- "Rao Ballu ek beer bahadar , khashtham gur k raheyo saadar . Before joining guru ji Rao Ballu was very close to Mughal Emperor and strong
rajput general of his time as quoted - "Ballu tu bharat k bheem jaisa , tujhe jaane shah chugatah
( mughal emperor )"
Rao Nathia
Sardar Baj Singh was second out of eight sons of Rao Nathiaji Puar . His elder brother was the legendary Sardar Bhagwant Singh Bangeshwar .Very famous sikh warrior , scholar & martyr Bhai Mani Singh was his cousin brother .

== Umrah of Bangash ==
Before attacking Sirhind his family had subahdari of Bangash Subah and Sardar Baj Singh was an umrah of Sarkar-e-Bangash on whose throne was his elder brother Sardar Bhagwant Singh
Bangeshwar . He was given a cavalry of 2000 horsemen where as his elder brother had 5000 of cavalry and 20,000 foot soldiers . He was much acclaimed for his bravery and fierceness .

== Attack on Sirhind ==
In the battle of Sirhind fought at Chappar Chiri in May 1710, Baj Singh was in command of the right wing of Banda Singh`s army. He faced Nawab Wazir Khan in the battle striking his horse down
with a lance. As the battle was won, Baj Singh ruled over Sarkar Sirhind and banda from lohgadh . Baj Singh was captured at Gurdas Nangal in December 1715 and taken to Delhi where he was executed in June 1716 along with Banda Singh and his other companions.

== Inspiring Peasants ==
Sardar Baj Singh received complaints of local peasant jats against atrocities being inflicted upon them by local Rajput zamindars or chieftains . Sardar Baj Singh and Banda Singh Bahadur used to become so angry at the peasants as inspite of their much larger number they don't have guts to stand against atrocities of the fewer feudal lords, they became so anguished that they thought such goat like people have no right to live on earth who can't even defend their rights out of fear , that they used to order execution of the coward
peasants . This peasant execution inspired the peasants, took out their cowardness and they understood the point of Sardar Baj singh and Banda Singh Bahadur , so much so that those peasants later formed Patiala state of their own by overthrowing the feudal lords . Such was his impact on the peasants that he made goat like peasants fight lion feudal lords .

== Execution ==
He was executed on 9th June 1716 on outskirts of delhi on banks of Yamuna river alongwith his seven brothers and Banda Singh Bahadur.
Brave feat during execution-
Farrukhsiyar was the Mughal emperor then who asked tauntingly where is the brave Baj Singh aka Baj Bahadur whom whole Mughal army feared , where is his bravery now . Baj Singh tied in iron chains roared in his voice I am Baj Singh . Then emperor again made a taunt that where is your bravery now . Baj Singh replied ,you have tied my feet and hands in iron chains, open one of them i will let you know of my bravery. Then his feet were made free of chains on emperor's orders but hands still tied. It said by the writers of the Mughal court in their memoirs that Baj Singh with a blink of eye snatched sword of the nearby Mughal soldier and with a lightening speed killed 16 Mughal armed men on the spot . And the emperor had to run leaving his throne.
सिख धर्म के उत्थान में देश के क्षत्रियों द्वारा दिए गए योगदानों को लेकर एक पोस्ट  है। सरदार बज्जर सिंह राठौर जो की गुरु गोविंद सिंह जी के शस्त्र विद्या के गुरु थे और वीर बंदा बहादुर मन्हास के बारे में बता चुके है।

आज बारी है राव सरदार बाज सिंह जी पुआर (परमार) की जो खालसा राज के प्रथम गवर्नर (राज्यपाल) थे।

ये किसी भी क्षेत्र पर शाशन करने वाले पहले सिक्ख शाशक बने जब इन्हें सरहिंद का सूबेदार बनाया गया। सरदार बाज सिंह जी पुआर (परमार) जिन्हे बाज बहादुर के नाम से भी जाना जाता था खालसा राज में इन्होने सं १७१० - १७१७ के बीच पंजाब के सरहिंद पर राज किया। इनके राज का इलाका दक्षिण में यमुना नदी से लेकर उत्तर में सतलुज तक फैला हुआ था।

== प्रारंभिक जीवन ==
सरदार बाज सिंह परमार के परिवार का निकास मालवा के परमार वंश से हुआ। मालवा में परमार राज खत्म होने के बाद कुछ परमारों के परिवार दक्षिण पंजाब कर बसे और यहाँ छोटे से इलाके पर कब्ज़ा कर राज किया जिसे आज पंजाब का मालवा कहा जाता है।

=== पारिवारिक वंशावली ===
सरदार बाज सिंह परमार सम्राट विक्रमादित्य की २६
वि पीढ़ी में पैदा हुए।
राजा संताल
राजा माघ ( ९५० ईस्वी में तख़्त पर बैठे )
राजा मुंज ( ९७४ ईस्वी में तख़्त पर बैठे )
राजा भोज ( भारत के महान राजा ) ( 1018
ईस्वी में तख़्त पर बैठे )
राजा जय सिंह ( 1060 ईस्वी में तख़्त पर बैठे )
राजा सप्त मुकुट ( 1108 ईस्वी में तख़्त पर बैठे )
राजा छत्र मुकुट ( 1152 ईस्वी में तख़्त पर बैठे )
राजा उदयदीप ( बहोत ज्ञानी राजा हुए)
(1198
ईस्वी में तख़्त पर बैठे )
राजा रंधावल ( 1230 ईस्वी में तख़्त पर बैठे )
राजा उधर ( 1256 ईस्वी में तख़्त पर बैठे )
राजा अम्ब चरण ( १२९७ ईस्वी में तख़्त पर बैठे )
राजा लोइआ जी (1339 ईस्वी में तख़्त पर
बैठे)
राजा शाह (1400 ईस्वी में तख़्त पर बैठे)
राजा सोम (1434 ईस्वी में तख़्त पर बैठे )
राजा धरना (१४३८ ईस्वी में तख़्त पर बैठे )
राजा देस राय (1445 ईस्वी में तख़्त पर बैठे)
राजा राधा (1457 ईस्वी में तख़्त पर बैठे)
राजा काल राय (1482 ईस्वी में तख़्त पर बैठे )
राजा आसल (1502 ईस्वी में तख़्त पर बैठे )
राजा जलहा (1541 ईस्वी में तख़्त पर बैठे )
राजा नर सिंह (1553 ईस्वी में तख़्त पर बैठे )
(
मुग़लों का डट कर मुकाबला किया परन्तु पराजय के बाद राज्य हारे )
राव हाफा
राव चाहड़
राव बूढ़ा
राव मूला
राओ बल्लू
(
सिख सेनापति थे गुरु हरगोबिन्द साहिब के काल के दौरान गुरु साहेब
ने इनके लिए कहा - "राओ बल्लू एक बीर बहादर ,खष्ठम् गुरु के रहयो सादर।)
राव नथिया
सरदार बाज सिंह परमार राओ नथिया के पुत्रों में से एक हुए. इनके बड़े भाई महान सिख योद्धा सरदार भगवंत सिंह बंगेश्वर थे। भाई मनी सिंह भी इनके भाई थे.

== बंगश के उमराव ==
सरहिंद पर हमले से पहले इनके परिवार पर बंगश की सूबेदारी थी और सरदार बाज सिंह सरकार--बंगश के उमराव थे जिसके राजा इनके बड़े भाई सरदार
भगवंत सिंह बंगेश्वर जी थे। सरदार बाज सिंह जी के पास २०००घुड़सवारों की सेना थी और इनके बड़े भाई के पास ५००० घुड़सवारों की सेना और २०००० पैदल सैनिक थे।

== सरहिंद पर कब्ज़ा ==
मई १७१० ईस्वी में सरहिंद का मशहूर युद्ध छप्पर चिरी क्षेत्र में लड़ा गया। इस युद्ध में बाज सिंह जी बंदा बहादुर जी की सेना में दाहिने भाग के प्रमुख थे। सरदार बाज सिंह जी ने नवाब वज़ीर खान से सीधा मुकाबला किया और
एक बरछे के वार से ही उनके घोड़े को मार गिराया तथा वज़ीर खान को बंदी बनाया। युद्ध जीतने के बाद , सरदार बाज सिंह ने सरहिंद पर साल राज किया। दिसंबर १७१५ में सरदार बाज सिंह जी गुरदास नांगल के पास मुगलों के कब्जे में गए और उन्हें दिल्ली ले जाया गया जहाँ इन्हे १७१६ में बंदा सिंह बहादुर और दुसरे साथियों के साथ मौत की सजा दी गयी।

== पंजाब के किसानों के उत्थान में योगदान ==
सरदार बाज सिंह के सरहिंद पर राज के दौरान स्थानीय जाट किसानों ने अपने ऊपर हो रहे जमींदारों के अत्याचारों के बारे में बताया और मदद की गुहार लगाई। सरदार बाज सिंह परमार और बंदा बहादुर को किसानों की इन बातो को सुन कर उन पर ही बहुत क्रोध जाता था। उनके अनुसार ऐसी भेड़ों जैसी मानसिकता वाले व्यक्तियों को जीने का कोई अधिकार नहीं है , जो जमींदारों से संख्या में दुगने होने के बावजूद भी अपने हक के लिए लड़ने की हिम्मत ना हो जिनमे। वे ऐसी मदद की गुहारें सुन कर इतने गुस्सा हो जाते थे की ऐसे डरपोक किसानों को सजा सुना दिया करते थे। किसानों को दी गयी ये सजा आखिर कार उनके लिए ही प्रेरणा का स्त्रोत बनी और आखिर में किसानों की समझ में बाज सिंह जी परमार और बंदा बहादुर जी की बात गयी। जट्ट किसानों में इनकी बातो से इतना जोश भर गया की उन्होंने जमींदारों के खिलाफ ऐसी एकता दिखाई की उसके बल पर पटियाला जैसा शक्ति शाली राज्य स्थापित कर लिया और जमींदारों के कब्जे से काफी बड़ी जमीनें छुड़वा ली। बाज सिंह का किसानों पर ऐसा प्रभाव था की उन्होंने भेड़ जैसी मानसिकता वाले किसानो में शेरोँ से भिड़ने का जोश भर दिया।

== फांसी के दौरान ==
सरदार बाज सिंह जी परमार को जून १७१६ में दिल्ली में यमुना नदी के किनारे उनके सात भाई और बंदा बहादुर जी के साथफांसी की सजा दी गयी। मुग़ल दरबारियों ने पूरे घटनाक्रम को अपने दस्तावेजो में दर्ज किया है।
इनकी फांसी के दौरान दिल्ली का मुग़ल बादशाह फ़र्रुख़सियर था। फर्रूक्खसियर ने फांसी के समय इन्हे चिढ़ाते हुए बोला ''कहाँ है आज जंगी बाज बहादुर जिससे मुग़ल सेना कांपती थी कहाँ गयी आज उसकी बहादुरी ??'' जवाब में बाज बहादुर जिनके हाथ और पाँव बेड़ियों से बंधे हुए थे जोर से दहाड़ते हुए बोले ''मैं हूँ बाज बहादुर'' फ़र्रुख़सियर ने फिर चिढ़ाते हुए बोला ''कहाँ गयी आज तुम्हारी बहादुरी ??'' बाज बहादुर ने उसे ललकारते हुए जवाब दिया ''तुमने मेरे हाथ और पाँव दोनों लोहे की बेड़ियों से बाँध रखे है जरा इन्हे खुलवा कर दिखवाओ फिर मैं तुम्हे अपनी बहादुरी दिखलाता हूँ''
फर्रुखसियर के कहने पर बाज सिंह के पाँव की बेड़ियां खोल दी गयी पर उनके हाथ अभी भी बंधे हुए थे। मुग़ल दरबारियों के दस्तावेजों के अनुसार जैसे ही बाज सिंह परमार के हाथ खोले गए उन्होंने एक झटके में मुग़ल सैनिक से तलवार छीन कर १६ मुग़ल सैनिकों को मौत के घाट उतार दिया। उनकी ये कारगुजारी देख फर्रूखसियर इतना डर गया के वो मौका छोड़ कर वहां से भाग गया। बाद में मुग़ल सैनिकों ने किसी तरह बाज सिंह जी पर काबू पाया और उन्हें तुरंत ही फांसी दे दी गयी। साफ़ था बाज बहादुर की फांसी के दौरान भी मुग़ल कांप रहे थे जैसे पहले भी उनके नाम से वो भयभीत हो जाते थे।
सच में धन्य है अपना राजपुताना और क्षत्रिय धर्म जिन्होंने महाराणा प्रताप से लेकर बाज बहादुर जैसे योद्धाओ को जन्म दिया जिनके नाम से ही दिल्ली दरबार कांप उठता था।

 

A special thanks and credits to Harshveer singh ji
in Rajputana soch in FB