Monday, October 25, 2021

ब्राह्मण_सरदार शंकर चक्रवर्ती - मुघलों का काल||

 

【●|| ब्राह्मण_सरदार_शंकर_चक्रवर्ती - #मुघलों_का_काल||● 】


इतिहास में ब्राह्मणों की वीरता की कहानी से हम लगभग भुला दिए गए हैं, लेकिन इतिहास के पन्नों में दर्ज वे सभी ऐतिहासिक घटनाएं आज भी हमें विस्मय से विस्मित करती हैं। आत्म-बलिदान के इन वीर कृत्यों ने भारतवर्ष को विदेशी हमलावरों के आक्रमण से रक्षा के साथ-साथ राष्ट्रीय गौरव भी बचाया है। इतिहास में ऐसी ही असाधारण वीर ब्राह्मण सेनापति है सरदार शंकर चक्रवर्ती, जिसने अपनी वीरता और बुद्धिमत्ता से विधर्मी मुघल शक्ति को बार-बार पराजित किया। ईनका जन्म सोलहवीं शताब्दी के अंतिम भाग में बंगाल के हरिपाल अंतर्गत द्वारहट्टा के पास प्रसादपुर गांव में हुआ था। एक साधारण मध्यमवर्गीय कुलीन ब्राह्मण परिवार में जन्मे, वह अपनी बुद्धि और क्षमता के कारण बंगाल के स्वतंत्र सम्राट महाराज प्रतापादित्य के यशोर सेना के राजसेनाध्यक्ष और मुख्य सलाहकार के पद तक पहुंचे।


सोलहवीं शताब्दी में दिल्ली में मुघल बादशाह अकबर का शासन चल रहा था । इस समय वीर महाराज प्रतापादित्य के शासन में बंगाल एक स्वतंत्र हिंदू राज्य बनके खड़ा हुआ था । शंकर के वीरता,व्यक्तित्व और चरित्र से प्रभावित होकर महाराज प्रतापादित्य उनको बंगाल के यशोर सेनापति के पद में निर्वाचन किया । महाराजा प्रतापादित्य के मुख्य सलाहकार शंकर चक्रवर्ती थे । सरदार शंकर एक परमधार्मिक शैव और महादेव के भक्त थे । युद्ध के मैदान में, विशेष रूप से मुघल सत्ता के खिलाफ लड़ाई में, शंकर ने हमेशा प्रतापादित्य को युद्ध की रणनीति करने की सलाह दी। इस सलाह ने प्रतापादित्य को कई लड़ाइयों में मुघलों को हराने में मदद की।


1) हिजली का युद्ध / ओडिशा विजय : 


इस समय ओडिशा सल्तनत में लोहानी पठान सुल्तानों का राज था जो हिंदुओं पर चरम अत्याचार करते थे । ओडिशा सल्तनत के अंतर्गत हिजली में सुल्तान ताज खान मसन्दरी का राज था जो जगन्नाथ रथयात्रा के दिन गौ-ब्राह्मण निधन शुरू किए । पठानों की इस अत्याचार से क्रोधित होकर इसी समय महाराज प्रतापादित्य ने हिजली पर आक्रमण कर दिया, इस आक्रमण के नेतृत्व में थे सेनापति शंकर चक्रवर्ती । हिजली में ताज खान और ईशा खान के साथ शंकर का भयंकर युद्ध हुआ । इस युद्ध मे शंकर ने ताज खान को बुरी तरह हराया और ईशा खान युद्ध के मैदान में ही मार दिया गया। इस युद्ध मे विजय से ओडिशा सल्तनत बंगाल के सम्राट प्रतापादित्य के शासन में एक सामंतराज्य बन गया और सनातन धर्म का विजययात्रा शुरू हुआ । 


2) पटना का युद्ध :


शंकर चक्रवर्ती की वीरता से भयभीत होकर अकबर ने पटना के नवाब अब्राहाम खान को एक बड़ी सेना के साथ बंगाल आक्रमण करने भेजा। अब्राहाम खान पटना के सभी सैनिकों के साथ बंगाल में प्रवेश किया और जेसोर की ओर बढ़ गया। आसन्न युद्ध की खबर सुनते ही, सरदार शंकर सैन्यसंयोग शुरू किया। जेसोर में मौटाला गढ़ के पास, शंकर एक विस्तृत दो-तरफा संरचना बनाई। जब मुघल सेना मौटाला आया तो सेनापति शंकर के निर्देश से बंगाल के सेना ने दो दिशाओं से आक्रमण करना शुरू कर दिया। ऐसे दोतरफा हमले में अधिकांश मुघल सेना की मौत हो गई और बाकी मुगल सेना डर ​​के मारे जेसोर सेना में शामिल हो गई। अब्राहाम खान को बंदी बना लिया गया।


3) राजमहल का युद्ध : 


वीर सेनापति शंकर चक्रवर्ती अब साम्राज्य विस्तार करना शुरू किया। लगभग पच्चीस हजार सैनिकों के साथ उसने राजमहल पर हमला किया। शंकर चक्रवर्ती की नेतृत्व में बंगाल की सेना गंगा के तट पर राजमहल में शेर खान की मुघल सेना के साथ भीषण लड़ाई लड़ी। आखिरकार नवाब की सेना हार गई और शेर खान दिल्ली भाग गया । इसके बाद सम्पूर्ण बिहार से मुघलो को खदेड़ कर इसे बंगाल के स्वतंत्र हिंदू शासन में लाया गया ।


(4) कालिन्द्री की युद्ध (1603): 


1603 में मुगल बादशाह जहांगीर बंगाल आक्रमण के लिए लड़ने के लिए मान सिंह के साथ 22 मुघल उमराह फौजदार भेजे। जेसोर पर हमले के दौरान कालिंदी नदी के पूर्वी तट पर बसंतपुर क्षेत्र में एक शिविर का निर्माण करते हुए, उन्होंने देखा कि सरदार शंकर उनके चारों ओर सैनिकों की व्यवस्था करके युद्ध का सारा इंतज़ाम करके रखे है । बसंतपुर-शीतलपुर क्षेत्र में बंगाल के सेना और मुघल सेना के बीच एक भीषण लड़ाई लड़ी गई थी। सरदार शंकर के नेतृत्व में युद्धग्रस्त बंगाल सेना की छापामार नौकाओं के हमले में मुघल सेना व्यावहारिक रूप से विध्वस्त हो गया। 22 मुघल उमराह में 12 युद्ध मे मारे गए थे और अन्य 10 अपनी जान बचाने के लिए युद्ध के मैदान से भाग गए थे। सरदार शंकर का महाकालस्वरूप उग्रमूर्ति देख मान सिंह मैदान छोड़ के भाग गया । 


सरदार शंकर चक्रवर्ती धर्म और राष्ट्र के रक्षा के लिए अनेक लड़ाईया लड़े । अपने जीवन के अंतिम समय मे उन्होंने ब्रह्मचर्य को अपनाया और तपस्या करके जीवन बिताया । बारासात इलाके में उनके खोदित पुष्करिणी "शंकरपुकुर" के नाम से आज भी उनके स्मृति का याद दिलाता है । मुघलों के खिलाफ उनके संघर्ष की कहानी ब्राह्मणों के वीरता को एक अलग आयाम दिया है। जाती की मन मे सरदार शंकर की स्मृति जगाने के लिए कलकत्ता निगम की पहल पर दक्षिण कोलकाता के कालीघाट की एक गली का नाम 'सरदार शंकर रोड' रखा गया है। स्मरण के उद्देश्य से एक पत्थर की पटिया पर खुदा हुआ -

ब्राह्मण महारानी नाग्निका सातकर्णी

 


ब्राह्मण महारानी नाग्निका सातकर्णी 


विश्व की पहली साम्राज्ञी,ब्राह्मण कुलवधू,सातवाहन ब्राह्मण वंश की महारानी नाग्निका सातकर्णी


ध्यान दीजिए भारत ही नहीं अपितु पुरे विश्व की पहली सम्रागी शासिका बनी थी श्री सातकर्णि की अर्धांगिनी नागनिका.. 


पुष्यमित्र शुंग के शासनकाल के बाद लगभग 518 वर्षों तक सातवाहन ( शालिवाहन ) राजवंश का समृद्ध इतिहास मिलता है इसी वंश की तीसरी पीढ़ी की राज-शासिका थी-‘नागनिका’ 

विश्व के इतिहास में नागनिका पहली महिला-शासक मानी जाती है  नागनिका सम्राट सिमुक सातवाहन की पुत्रवधू तथा श्री सातकर्णी की पत्नी थी , 

युवावस्था में ही श्री सातकर्णी का निधन हो जाने से वह राज्य-कार्यभार सँभालती है सातवाहन काल में राज्य शासन केंद्र था वृहद् महाराष्ट्र,जिसमें कर्णाटक-कोंकण तक सम्मिलित थे जिसकी राजधानी प्रतिष्ठान (पैठण) थी.. 


सातवाहन (शालिवाहन) काल में सीरिया, बेबीलोनिया के असुरी शक्तिओ का प्रभाव था यह इतने क्रुर थे जहाँ भी जाते थे लूटपाट मचाते थे , सनातन संस्कृति को नष्ट करना इनका मूल उद्देश्य होता था.. 


जब श्री सातकर्णि शालिवाहन सम्राट का युद्ध में निधन हुआ तो असुरी शक्ति के प्रभाव से शालिवाहन साम्राज्य को नुक्सान भी हुआ था वस्तुतः राष्ट्रनिर्माण हो जाने पर राष्ट्रविकास की संकल्पना को पूर्ण करते समय प्रथम और सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण कार्य सीमा रक्षण का होता है जिसमे चूंक होना विनाश का बुलावा होता है.. 


आज भी इन बातों पर गम्भीरता से विचार करने की आवश्यकता है राज्य सबल, सुन्दर, विकसित और सम्पन्न तभी हो सकेगा जब राष्ट्र निर्भय होगा , 

हम शान्तिप्रिय हैं और हम अहिंसा के पुजारी हैं इसका कोई, मनमाना अर्थ न निकाल ले इसलिए हमें अपने राष्ट्र को सामर्थ्यशाली साधन सम्पन्न बनाना चाहिए.. 


किसी को इस भ्रम में नहीं रहना चाहिए कोई शत्रु कभी हम पर आक्रमण नहीं करेगा दुष्ट और हिंसक प्रवृत्तियाँ कभी समाप्त नहीं होती हैं यथावसर ऐसी प्रवृत्तियाँ विश्व-विनाशकारी सिद्ध होती हैं इसलिए राष्ट्रसेना सुरक्षित, सुसज्जित और प्रशिक्षित होनी चाहिए.. 


इसी वैचारिकता को आत्म सात करते हुए महारानी नागनिका ने कहा -भविष्य में हम अपने राष्ट्र में अन्तरिम और बाह्य कैसे भी विद्रोह अथवा आक्रमण को क्षमा नहीं करेंगे महामन्त्री सुशर्मा ! आप इस समाचार को त्वरित प्रसारित करने की व्यवस्था कीजिए !’’– महारानी नागनिका ने गर्जना की.. 

वीरांगना सम्रागी नागनिका सातकर्णि ने शालिवाहन साम्राज्य और वैदिक हिन्दू संस्कृति के सूर्य को कभी अस्त नहीं होने दिया साम्रगी नागनिका के समय 781-764 (ई.पूर्व) 6 युद्ध हुये अस्सीरिया मेसोपोटामिया (Mesopotami , Assyria) के असुरों के खिलाफ शाल्मनेसेर चतुर्थ 773 (ई.पूर्व)और आशूर निरारि पंचम 755 (ई.पूर्व) यह असुर प्रजाति के थे यह जिस राज्य में कदम रखते थे वहाँ के नारियों को यह अपना निशाना बनाते थे , दर्दनाक शारीरिक यातनाओं से गुजरना पड़ता था ना केवल धन लूटते थे अपितु संस्कृति का विनाश कर देते थे..

यह कोई सौ पचास हज़ार की तादात में सेना लेकर नहीं आते थे यह मेसोपोटमिया के असुर दल लाखों की संख्या में सेना लेकर आते थे, सम्रागी नागनिका के राज्य शासन की राजधानी महाराष्ट्रा थी, इन्होंने कई लड़ाईयां लड़ी शाल्मनेसेर चतुर्थ के साथ प्रथम लड़ाई लड़ी गई थी जहाँ इतिहासकार "रोबर्ट वालमन" ने अपनी पुस्तक "वर्ल्ड फर्स्ट वारियर" में लिखा हैं "सम्रागी नागनिका ने अरब तक राज्य विस्तार की थी उनके तलवार के आगे 157 विदेशी असुरों ने घुटने टेक दिये थे"


आगे "शुभांगी भदभदे" नाम की इतिहासकार "सम्रागी नागनिका नमक उपन्यास" में लिखती हैं "असुर- निरारि पंचम की 1,36,000 संख्या वाली दानव शक्ति   को नाग्निका ने भारत की पुण्यभूमि से बहुत बुरी तरह खदेड़ दिया था,  साम्रगी नागनिका के मृत्यु के पश्चात भी इन दानवों की हिम्मत नहीं हो पायी दोबारा आर्यावर्त पे आक्रमण करने की सम्रागी नागनिका बेबीलोनिया, मेसोपोटमिया और अरबी हमलावरों को भारत से ना केवल खदेडती थी अपितु उनका पूर्णरूप से विनाश कर देती थी ,ताकि ये बर्बर आक्रमणकारि दोबारा सनातन राष्ट्र भारत पर आक्रमण करने का सोच भी ना सके यह प्रसिद्ध लड़ाइयाँ कर्णाटक-कोंकण पैठण में लड़ी गयी थी"


सम्रागी नागनिका ना केवल एक कुशल महारानी साथ ही साथ सनातन हिन्दू संस्कृति के संरक्षण के लिए अवतरित हुई एक विलक्षण,रण कौशलिनी, युद्ध के 49 कला से निपुण शासिका थी, शत्रुओं के बल और दर्प (घमण्ड) का अन्त तो करती थी साथ ही साथ अगर ज़रूरत होती थी तो शत्रु का पूर्णरूप से मा दुर्गा की तरह नाश कर देती थी..


सम्रागी नागनिका सातकर्णि अतिकुशल राजनीतिज्ञ भी थी उन्होंने राजनीती के बल पर घोर विरोधी राज्य को भी बिना युद्ध लड़े एक छत्र शासन में ले आई थी...!


विश्व की पहली सम्रागी नागनिका सातकर्णि पहली शासिका थी जिन्होंने युद्ध में नेतृत्व करते हुए खुद भी युद्ध लड़ी थी असुर दलों के विरुद्ध और अरब तक राज्य विस्तार की थी.. 


ज़रा सोचिये मित्रो यह बात कोई आधुनिक ज़माने की बात नहीं हैं यह बात 782(ई.पूर्व) की बात हैं यह तब की बात हैं जब यूरोप में कोई शासिका बनना तो दूर घर से चौखट लांग कर जाने तक के लिए पूछना पड़ता था, 

तब हमारे भारत की नारी सम्रागी बन कर भारत का सनातनी भगवा ध्वज अरब में लहराई थी...!


नाग्निका विश्व की पहली महारानी हैं जिनके नाम का सिक्का निकला था...!


साभार ऐतिहासिक तथ्य साक्ष्य 

रोबर्ट वालमन by वर्ल्ड फर्स्ट वारियर

शुभांगी भदभदे by सम्रागी नागनिका उपन्यास

Sunday, October 24, 2021

Chennabhairadevi, the queen of Gersoppa (Karnataka) Protected from Portuguese

 


She is Rani Chennabhairadevi, the queen of Gersoppa (Karnataka), who protected her kingdom from Portugese attacks and intrusion for 54 long years. She one of the longest serving queens of India, ruling from 1552 to 1606 CE! She built the robust Mirjan Fort in Uttara Kannada to check Portugese attacks. She was known as the Pepper Queen. The Portugese feared her.


During this time of October in 1505, Francisco de Almeida started office as the Viceroy of Portugese India with headquarters at Kochi. Thereafter, they started building forts in several locations and expanded their base and trading of pepper and other spices. By the time Rani Chennabhairadevi became the ruler, the Portugese had already established a strong base. She drove away the Portugese from her kingdom and involved in several wars against them, emerging victorious.


Besides the small conflicts, Chennabhairadevi involved in two major wars against the Portuguese when D Constantino de Braganza was the Viceroy and when D Luis de Ataide held that position. So badly were the Portugese defeated that they gave up the idea of attacking her kingdom. Chennabhairadevi’s story of valor is described in detail in a chapter in #SaffronSwords Vol 2 along with 51 more chapters/episodes of valor of our warrior ancestors from 8th century to Independence. It is under publication by Garuda Prakashan and will be released soon. Hitharth S Bhatt did an illustration on Rani Chennabhairadevi for the book. Saffron Swords Vol 1 link: https://www.amazon.in/Saffron-Swords-Authors-Manoshi-Yogaditya/dp/B07Q139493.


Had Rani Chennabhairadevi not shown her military might and had she not offered resistance continuously, India would have been under Portugese rule for centuries. We all know about the Goa Inquisition after Goa fell under Portugese wherein the Hindus were m@ssacred, converted and not allowed to follow rituals. Hundreds of temples were v@ndalized by the Portugese.  


Attacks by Adharmics continue to this day. Self defence and retaliation is the need of the hour. 


- Manoshi Sinha; attached image is the cover of Kannada book on Chennabhairadevi by Dr Gajanana Sharma.


From the Facebook wall of Manoshi Sinha