Tuesday, June 21, 2016

गुरु हरगोविंद सिंह

समस्त हिन्दुओं को गुरू हरगोबिन्द जन्म दिवस की हार्दिक शुभकामनायें
गुरु हरगोविंद सिंह हिन्दुओं के छठवें गुरु थे। उनका जन्म बडाली (अमृतसर, भारत) में 19 जून, सन् 1595 में हुआ था। वे हिन्दुओं के पांचवे गुरु अर्जुनसिंह के पुत्र थे। उनकी माता का नाम गंगा था।
उन्होंने अपना ज्यादातर समय युद्ध प्रशिक्षण एव युद्ध कला में लगाया तथा बाद में वह कुशल तलवारबाज, कुश्ती व घुड़सवारी में माहिर हो गए। उन्होंने ही हिन्दु सिक्खों को अस्त्र-शस्त्र का प्रशिक्षण लेने के लिए प्रेरित किया व हिन्दुओं को योद्धा चरित्र प्रदान किया। वे स्वयं एक क्रांतिकारी योद्धा थे।

जहाँगीर की मृत्यु (1627) के बाद नए मुग़ल बादशाह शाहजहाँ ने उग्रता से हिन्दुओं पर अत्याचार शुरू किया। मुग़लों की अजेयता को झुठलाते हुए गुरु हरगोविंद के नेतृव्य में हिन्दु सिक्खों ने चार बार शाहजहाँ की सेना को मात दी। इस प्रकार अपने पूर्वजों द्वारा स्थापित आदर्शों में गुरु हरगोबिंद सिंह ने एक और आदर्श जोड़ा, हिन्दु सिक्खों का यह अधिकार और कर्तव्य है कि अगर ज़रुरत हो, तो वे तलवार उठाकर भी अपने धर्म की रक्षा करें। अपनी मृत्यु से ठीक पहले गुरु हरगोविंद ने अपने पोते गुरु हर राय को अपना उत्तराधिकारी नियुक्त किया।
धीरे-धीरे कटटरपँथी हाकिमों के कारण तनाव बनता चला गया। एक बार श्री गुरू हरगोबिन्द साहिब जी श्री अमृतसर साहिब जी से उत्तर-पश्चिम की और के जँगलों में शिकार खेलने के विचार से अपने काफिले के साथ दूर निकल गये। इतफाक से उसी जँगल में लाहौर का सुबेदार शहाजहाँ के साथ अपनी सैनिक टुकड़ी के साथ आया हुआ था।
यह 1629 का वाक्या है। सिक्खों ने देखा कि एक बाज बड़ी बेरहमी से शिकार को मार रहा था, यह शाहजहाँ का बाज था। बाज का शिकार को इस तरह से तकलीक देकर मारना हिन्दु सिक्खो का न भाया। हिन्दु सिक्खों ने अपना बाज छोड़ा, जो शाही बाज को घेर कर ले आया, सिक्खो ने शाही बाज को पकड़ लिया। शाही सैनिक बाज के पीछे-पीछे आये और गुस्से के साथ घमकियाँ देते हुये शाही बाज की माँग की। गुरू जी ने शाही बाज देने से इनकार कर दिया। जब शाही फौज ने जँग की बात कही।
तो, हिन्दु सिक्खों ने कहा: कि हम तुम्हारा बाज क्या हम ताज भी ले लेंगे। तूँ-तूँ मैं-मैं होने लगी, नौबत लड़ाई तक आ पहुँची और शाही फौजों को भागना पड़ा। शाही फौज ने और खासकर लाहौर के राज्यपाल ने सारी बात नमक-मिर्च लगाकर और बढ़ा चढ़ाकर शाहजहाँ को बताई। शाहजहाँ ने हमला करने की आज्ञा भेजी। कुलीटखान जो गर्वनर था, ने अपने फौजदार मुखलिस खान को 7 हजार की फौज के साथ, अमृतसर पर धावा बोलने के लिए भेजा।
15 मई 1629 को शाही फौज श्री अमृतसर साहिब जी आ पहुँची। गुरू जी को इतनी जल्दी हमले की उम्मीद नहीं थी। जब लड़ाई गले तक आ पहुँची, तो गुरू जी ने लोहा लेने की ठान ली। पिप्पली साहिब में रहने वाले हिन्दु सिक्खों के साथ गुरू जी ने दुशमनों पर हमला कर दिया। शाही फौजों के पास काफी जँगी सामान था, पर सिक्खों के पास केवल चड़दी कला और गुरू जी के भरोसे की आस। भाई तोता जी, भाई निराला जी, भाई नन्ता जी, भाई त्रिलोका जी जुझते हुये शहीद हो गये। दूसरी तरफ करीम बेग, जँग बेग ए सलाम खान किले की दीवार गिराने में सफल हो गये।
दीवार गिरी देख गुरू जी ने बीबी वीरो के ससुराल सन्देश भेज दिया कि बारात अमृतसर की ब्जाय सीघी झबाल जाये। (बीबी वीरो जी गुरू जी की पुत्री थी, उनका विवाह था, बारात आनी थी)। रात होने से लड़ाई रूक गयी, तो सिक्खों ने रातों-रात दीवार बना ली। दिन होते ही फिर लड़ाई शुरू हो गयी। सिक्खों की कमान पैंदे खान के पास थी। हिन्दु सिक्ख फौजें लड़ते-लड़ते तरनतारन की तरफ बड़ी। गुरू जी आगे आकर हौंसला बड़ा रहे थे। चब्बे की जूह पहुँच के घमासान युद्व हुआ। मुखलिस खान और गुरू जी आमने-सामने थे। दोनों फौजें पीछे हट गयी।
गुरू जी के पहले वार से मुखलिस खान का घोड़ा गिर गया, तो गुरू जी ने भी अपने घोड़े से उतर गये। फिर तलवार-ढाल की लड़ाई शुरू हो गयी। मुखलिस खान के पहले वार को गुरू जी ने पैंतरा बदल कर बचा लिया और मुस्करा कर दूसरा वार करने के लिए कहा। उसने गुस्से से गुरू जी पर वार किया। गुरू जी ने ढाल पे वार ले के, उस पर उल्टा वार कर दिया। गुरू जी के खण्डे (दोधारी तलवार) का वार इतना शक्तिशाली था कि वह मुखलिस खान की ढाल को चीरकर, उसके सिर में से निकलकर, धड़ के दो फाड़ कर गया।
मुखलिस खान के गिरते ही मुगल फौजें भागने लगी, गुरू जी ने मना किया कि पीछा न करें। गुरू जी ने सारे शहीदों के शरीर एकत्रित करवाकर अन्तिम सँस्कार किया। 13 सिक्ख शहीद हुये जिनके नामः
1. भाई नन्द (नन्दा) जी
2. भाई जैता जी
3. भाई पिराना जी
4. भाई तोता जी
5. भाई त्रिलोका जी
6. भाई माई दास जी
7. भाई पैड़ जी
8. भाई भगतू जी
9. भाई नन्ता (अनन्ता) जी
10. भाई निराला जी
11. भाई तखतू जी
12. भाई मोहन जी
13. भाई गोपाल जी
शहीद सिक्खों की याद में गुरू जी ने गुरूद्वारा श्री सँगराणा साहिब जी बनाया।
शाही सेना की पराजय की सूचना जब सम्राट शाहजहाँ को मिली तो उसे बहुत हीनता अनुभव हुई। उसने तुरन्त इसका पूर्ण दुखान्त ब्यौरा मँगवाया और अपने उपमँत्री वजीर खान को पँजाब भेजा। जैसा कि विदित है कि वजीर खान गुरू घर का श्रद्धालू था और उसने समस्त सत्य तथा तथ्यपूर्ण विवरण सहित बादशाह शाहजहाँ को लिख भेजा कि यह युद्ध गुरू जी पर थोपा गया था। वास्तव में उनकी पुत्री का उस दिन शुभ विवाह था। वह तो लड़ाई के लिए सोच भी नहीं सकते थे। शहजहाँ अपने पिता जहाँगीर से गुरू उपमा प्रायः सुनता रहता था। अतः वह शान्त हो गया किन्तु लाहौर के राज्यपाल को उसकी इस भूल पर स्थानान्तरित कर दिया गया।

Saturday, June 18, 2016

मुहम्मद की मोत कैसे हुई

मुहम्मद की मोत कैसे हुई आज आप को बताते हे।

वेसे हमारे हिन्दू धर्म में किसी साधू की मोत इस तरह नहीं हुई होगी जिस तरह से मुल्लो के पैगम्बर की हुई अगर ये इतना ही अच्छा व्यक्त रहा होता तो इस तरह से मोत नहीं होती।
अब आगे पढे।।।

विश्व  में ऐसे कई  लोग हो चुके हैं  ,जिन्होंने अपने स्वार्थ  के लिए  खुद  को अवतार , सिद्ध ,संत और चमत्कारी व्यक्ति घोषित   कर   दिया था  . और  लोगों  को अपने बारे में ऎसी   बाते  फैलायी जिस से लोग   उनके अनुयायी हो  जाएँ ,लेकिन देखा गया है  कि  भोले भले लोग पहले तो   ऐसे  पाखंडियों    के   जाल  में फस   जाते  हैं   और उनकी संख्या   भी   बड़ी   हो   जाती  है  ,लेकिन   जब  उस  पाखंडी का  भंडा फूट   जाता है तो उसके  सारे  साथी ,यहाँ तक पत्नी  भी  मुंह  मोड़  लेती   है  . शायद ऐसा ही मुहम्मद साहब  के साथ  हुआ था  . मुहम्मद साहब ने भी खुद को अल्लाह  का रसूल  बता  कर  और  लोगों  को  जिहाद में मिलने  वाले  लूट  का माल  और औरतों   का  लालच  दिखा  कर  मूसलमान   बना   लिया  था  ,उस समय  हरेक ऐरागैरा   उनका  सहाबा  यानी  companion बन  गया  था ,लेकिन  जब  मुहम्मद   मरे तो उनके जनाजे में एक   भी  सहाबा  नही  गया , यहाँ तक  उनके ससुर  यानी  आयशा  के बाप  को  यह  भी  पता नहीं  चला   कि  रसूल  कब मरे ? किसने उनको दफ़न   किया  और उनकी  कबर कहाँ  थी ,जो  मुसलमान  सहाबा को रसूल सच्चा  अनुयायी   बताते हैं  , वह  यह  भी नही जानते थे कि रसूल  की  कब्र   खुली   पड़ी  रही   . वास्तव में  मुहम्मद साहब  सामान्य  मौत  से  नहीं ,बल्कि  खुद को  रसूल साबित   करने   की शर्त   के  कारण  मरे  थे  , जिस में वह  झूठे  साबित  निकले  और  लोग उनका साथ  छोड़ कर भाग  गए  . इस लेख में शिया  और सुन्नी किताबों  से  प्रमाण  लेकर  जो तथ्य  दिए गए हैं उन से इस्लाम और रसूलियत का असली  रूप  प्रकट  हो  जायेगा  

अबू हुरैरा ने कहा कि खैबर विजय  के बाद   कुछ  यहूदी  रसूल से  बहस   कर रहे थे ,उन्होंने एक  भेड़  पकायी जिसमे  जहर मिला  हुआ था ,   रसूल  ने पूछ   क्या तुम्हें  जहम्मम की आग से  डर  नहीं लगता  , यहूदी   बोले नही , क्योंकि  हम केवल थोड़े   दिन  ही  वहाँ  रखे   जायेंगे ,रसूल ने पूछा    हम कैसे माने कि तुम  सच्चे   हो  , यहूदी   बोले  हम जानना   चाहते कि तुम  सच्चे  हो या झूठे  हो , इस गोश्त में जहर  है  यदि  तुम सच्चे   नबी होगे  तो  तुम  पर जहर  का असर  नही होगा  , और अगर तुम झूठ होगे   तो  मर जाओगे  .
सही बुखारी  -जिल्द 4 किताब 53 हदीस 394

2-रसूल  की मौत का संकेत  

इब्ने  अब्बास  ने कहा कि  जब रसूल  सूरा नस्र 110 :1  पढ़ रहे थे , तो उनकी  जीभ लड़खड़ा रही  थी ,उमर  ने  कहा कि  यह रसूल  की मौत का संकेत  है ,अब्दुर रहमान ऑफ ने  कहा  मुझे  भी ऐसा प्रतीत  होता   है  कि यह रसूल कि  मौत  का संकेत   है।।सही बुखारी -जिल्द 5 किताब 59 हदीस 713 
3-कष्टदायी  मौत 
आयशा ने   कहा कि  जब  रसूल  की  हालत   काफी  ख़राब   हो  गयी थी  ,तो मरने से  पहले  उन्होंने   कहा  था  ,कि  मैने  खैबर  में   जो  खाना  खाया था  ,उसमे   जहर  मिला था   , जिस से  काफी  कष्ट   हो रहा  है  ,ऐसा  लगता  है  कि मेरे  गले की  धमनी   कट  गयी   हो 
सही बुखारी -जिल्द 5 किताब 59 हदीस 713 

4-रसूल के साथियों   की  संख्या 
मुहम्मद साहब  के साथियों  को "सहाबा -الصحابة " यानी Companions  कहा  जाता है , सुन्नी  मान्यता  के अनुसार  यदि  जो भी व्यक्ति  जीवन भर में एक बार रसूल   को  देख  लेता  था  ,उसे  भी सहाबा  मान  लिया  जाता  था , मुहम्मद  साहब   की मृत्यु   के  समय मदीना  में ऐसे कई सहाबा  मौजूद थे ,इस्लामी  विद्वान्  "इब्ने हजर अस्कलानी -ने  अपनी  किताब "अल इसाबा  फी तमीजे असहाबा  में  सहाबा  की   संख्या 12466  बतायी  है ,यानी  मुहम्मद  साहब    जब मरे तो  मदीना  में इतने  सहाबा  मौजूद  थे .जो सभी  मुसलमान  थे
5-रसूल के सहाबी स्वार्थी थे 

मुहम्मद  साहब अपने जिन   सहाबियों   पर भरोसा  करते थे वह  स्वार्थी  थे  और  लूट  के लालच  में मुसलमान  बने थे , उन्हें  इस्लाम में  कोई रूचि  नहीं  थी ,वह सोचते  थे  कि  कब रसूल  मरें  और  हम  फिर से   पुराने धर्म   को अपना  ले ,यह बात  कई  हदीसों   में   दी  गयी   है , जैसे ,
 इब्ने    मुसैब  ने कहा  अधिकाँश  सहाबा   आपके बाद  काफिर  हो  जायेंगे ,और इस्लाम छोड़  देंगे "
सही बुखारी - जिल्द 8  किताब 76 हदीस 586

 अबू हुरैरा  ने  कहा कि रसूल   ने  बताया   मेरे  बाद यह सहाबा इस्लाम  से विमुख  हो  जायेंगे और बिना चरवाहे  के ऊंट  की तरह  हो  जायंगे

सही बुखारी - जिल्द 8  किताब76  हदीस 587

 असमा बिन्त अबू  बकर  ने रसूल  को  बताया  कि अल्लाह  की कसम  है , आपके बाद  यह सहाबा सरपट  दौड़  कर इस्लाम  से  निकल  जायंगे 
सही बुखारी - जिल्द 8  किताब 76  हदीस 592

 उक़बा बिन अमीर  ने  कहा  कि रसूल  ने  कहा  मुझे इस  बात   की चिंता  नहीं  कि मेरे  बाद  यह  लोग  मुश्रिक   हो जायेंगे ,मुझे तो इस  बात  का डर  है  कि यह  लोग दुनिया   की संपत्ति  की  लालच   में   पड़  जायंगे 
सही बुखारी - जिल्द  4 किताब 56 हदीस 79

6-सभी सहाबी काफिर  हो  गए 

सहाबा   केवल जिहाद   में मिलने  वाले लूट  के  माल  के  लालच  में  मुसलमान  बने  थे ,जब  मुहम्मद  मर गए तो उनको लगा कि अब  लूट का  माल  नहीं मिलगा  , इसलिए वह इस्लाम  का चक्कर छोड़   कर  फिर  से पुराने  धर्म   में लौट  गए ,यह बात शिया  हदीस  रज्जल कशी में   इस तरह    बयान  की  गयी  है  " रसूल  की  मौत  के बाद  सहाबा   सहित सभी   लोग  काफिर  हो  गए  थे ,सिवाय सलमान फ़ारसी ,मिक़दाद और  अबू जर   के ,  लोगों  ने  कहा   कि  हमने सोच  रखा था  अगर  रसूल  मर गए  या उनकी  हत्या   हो  गयी  तो  हम इस्लाम  से   फिर  जायेंगे
7-मौत  के बाद राजनीति 
इतिहाकारों  के  अनुसार मुहम्मद साहब  की मौत 8  जून  सन 632  को  हुई  थी, खबर  मिलते  ही  मदीना  के अन्सार  एक  छत(Shed) के  नीचे  जमा  हो  गए , जिसे "सकीफ़ा -   कहा  जाता   है ,उसी  समय  अबू बकर  ने मदीना  के   जिन कबीले  के सरदारों   को बुला   लिया  था ,उनके  नाम  यह  हैं , 1 . बनू औस - 2 . बनू खजरज -"3 .  अन्सार 4 .  मुहाजिर -:और 5 . बनू सायदा . और अबू बकर खुद को  खलीफा   बनाने  के लिए    इन लोगों से समर्थन    प्राप्त  करने   में   व्यस्त   हो  गए ,लेकिन   जो लोग अली  के समर्थक थे   वह उनका  विरोध  करने  लगे  , इस से अबू बकर को   मुहम्मद  साहब   को दफ़न  करवाने   का    ध्यान    नहीं  रहा    .  और अंसारों   ने  खुद उनको  दफ़न  कर  दिया  . उसी  दिन  से शिआ  सुन्नी    अलग   हो  गए

8-अबू बकर मौत से अनजान 

अबू बकर  अपनी   खिलाफत  की गद्दी  बचाने में इतने व्यस्त थे कि उनको इतना भी  होश  नहीं था  ,कि रसूल  कब मरे थे , और उनको कब दफ़न    किया  गया था  . यह  बात इस हदीस  से  पता  चलती  है , हिशाम  के  पिता ने  कहा  कि आयशा  ने  बताया जब  अबूबकर घर  आये तो , पूछा   , रसूल  कब मरे  और उन  ने  कौन से  कपडे  पहने हुए थे , आयशा ने  कहा  सोमवार   को , और सिर्फ  सफ़ेद सुहेलिया  पहने  हुए थे ,  ऊपर  कोई कमीज   और पगड़ी भी  नहीं थी , अबू बकर ने पूछा आज  कौन सा दिन   है  . आयशा बोली  मंगल  ,आयशा  ने पूछा   क्या  उनको  नए  कपडे  पहिना  दें  . ? अबू बकर बोले  नए कपड़े  ज़िंदा    लोग पहिनते  हैं  , यह  तो  मर  चुके  हैं  , और इनको  मरे  एक  दिन  हो  गया  . अब यह एक बेजान  लाश   है।।सही बुखारी -जिल्द 2 किताब 23 हदीस 469

विचार करने की  बात  है  कि अगर अबू बकर रसूल  के दफ़न  के समय मौजूद   थे ,तो उनको रसूल के कपड़ों  और  दफन करने वालों    के बारे में  सवाल  करने की    क्या  जरूरत    थी ? वास्तव   में अबू बकर  जानबूझ   कर  दफ़न    में नहीं   गए ,   यह  बात  कई सुन्नी  हदीसों   में   मौजूद   हैं 
9-अबूबकर और उमर  अनुपस्थित 

ऎसी   ही एक हदीस है  ", इब्ने नुमैर  ने   कहा  मेरे पिता उरवा ने बताया कि अबू बकर और उमर  रसूल के जनाजे में  नही  गए ,रसूल  को अंसारों  ने दफ़न    किया  था   . और जब अबू  बकर और उमर उस  जगह  गए  थे तब तक अन्सार  रसूल  को दफ़न  कर के  जा चुके थे इन्होने रसूल  का जनाजा नहीं  देखा 
10-आयशा दफ़न से अनजान  थी 

मुसलमानों के लिए इस से   बड़ी शर्म  की  बात  और कौन सी  होगी कि   रसूल  कि प्यारी पत्नी आयशा  को  भी रसूल  के दफ़न  की  जानकारी  नही थी   , इमाम अब्दुल बर्र  ने अपनी  किताब  इस्तियाब  में  लिखा है "आयशा  ने  कहा मुझे पता  नहीं कि रसूल  को कब और कहाँ दफ़न  किया गया , मुझे तो बुधवार  के सवेरे उस  वक्त  पता  चला  ,जब रात को कुदालों   की आवाजे  हो रही थी.

11-रसूल  के दफ़न  में लापरवाही 
अनस बिन  मलिक  ने कहा  कि  जब रसूल  की बेटी फातिमा   को रसूल  की कब्र  बतायी  गयी  तो उसने  देखा  कि कब्र  खुली  हुई  है ,तब फातिमा ने  अनस  से   कहा  तुम मेहरबानी  कर  के  कब्र  पर  मिट्टी   डाल  दो  .

सही  बुखारी -जिल्द 5 किताब 59  हदीस 739

इन सभी तथ्यों  से  यही निष्कर्ष  निकलते  हैं  कि ,खुद को अवतार ,सिद्ध  बताने वाले और झूठे  दावे करने वाले खुद ही अपने  जाल  में फस कर मुहम्मद  साहब    की  तरह कष्टदायी  मौत  मरते   हैं ,और जब ऐसे फर्जी   नबियों  और रसूलों   की  पोल खुल  जाती  है  ,तो उनके  मतलबी  साथी ,रिश्तेदार  ,यहाँ  तक  पत्नी   भी साथ  नहीं    देती   . यही  नहीं   किसी   भी धर्म  के  अनुयाइयो    की अधिक  संख्या   हो  जाने  पर  वह  धर्म  सच्चा  नहीं    माना  जा  सकता   है ,झूठ और पाखण्ड   का   एक न एक दिन  ईसी  तरह  रहष्य ख़त्म हो    जाता   है  . केवल हमें सावधान  रहने   की  जरूरत   है।

जय हिन्द
मनमोहन हिन्दू
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Monday, June 13, 2016

राजा विक्रमादित्य और राजा भोज परमार वंश के दो महान सम्राट

राजा विक्रमादित्य और राजा भोज 

उनके म्यूजियम उनके स्मारक क्यों नहीं है ?
जब हम कहते हैं राजनेता गलत है पर राजनेताओं के अंध भक्त दुहाई देते हैं कि वो बहुत पहले थे ऐसा कहा जाता है,
लेकिन यह गलत है चक्रवर्ती सम्राट विक्रमादित्य और महाराजा भोज अगर ना होत तो हमारा आज नहीं होता।
मित्रो राजा विक्रमादित्य और राजा भोज की प्रतिमाएँ बनाई जाए।आज देश में ऐसे नेताओं की प्रतिमा है जो कि उस काबिल भी नहीं है।

और राजा महाराजा की बात करे तो महाराणा प्रताप शिवाजी महाराज भी महानतम यौद्धाओं में हैं,उनकी प्रतिमाएँ है,हम ने उनका तो सम्मान कर दिया पर भारतीय इतिहास के दो स्तंभ राजा विक्रमादित्य और राजा भोज जिनके उपर देश टिका हुआ है हम ने उन्हीं को भुला दिया।


======शूरवीर सम्राट विक्रमादित्य=====


अंग्रेज और वामपंथी इतिहासकार उज्जैन के सम्राट विक्रमादित्य को एतिहासिक शासक न मानकर एक मिथक मानते हैं।
जबकि कल्हण की राजतरंगनी,कालिदास,नेपाल की वंशावलिया और अरब लेखक,अलबरूनी उन्हें वास्तविक महापुरुष मानते हैं।विक्रमादित्य के बारे में प्राचीन अरब साहित्य में वर्णन मिलता है।

उनके समय शको ने देश के बड़े भू भाग पर कब्जा जमा लिया था।विक्रम ने शको को भारत से मार भगाया और अपना राज्य अरब देशो तक फैला दिया था। उनके नाम पर विक्रम सम्वत चलाया गया। विक्रमादित्य ईसा मसीह के समकालीन थे.विक्रमादित्य के समय ज्योतिषाचार्य मिहिर, महान कवि कालिदास थे। 
राजा विक्रम उनकी वीरता, उदारता, दया, क्षमा आदि गुणों की अनेक गाथाएं भारतीय साहित्य में भरी पड़ी हैं।

इनके पिता का नाम गन्धर्वसेन था एवं प्रसिद्ध योगी भर्तहरी इनके भाई थे।
विक्रमादित्य के इतिहास को अंग्रेजों ने जान-बूझकर तोड़ा और भ्रमित किया और उसे एक मिथकीय चरित्र बनाने में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ी, क्योंकि विक्रमादित्य उस काल में महान व्यक्तित्व और शक्ति का प्रतीक थे,जबकि अंग्रेजों को यह सिद्ध करना जरूरी था कि ईसा मसीह के काल में दुनिया अज्ञानता में जी रही थी। दरअसल, विक्रमादित्य का शासन अरब और मिस्र तक फैला था और संपूर्ण धरती के लोग उनके नाम से परिचित थे। विक्रमादित्य अपने ज्ञान, वीरता और उदारशीलता के लिए प्रसिद्ध थे जिनके दरबार में नवरत्न रहते थे। इनमें कालिदास भी थे। कहा जाता है कि विक्रमादित्य बड़े पराक्रमी थे और उन्होंने शकों को परास्त किया था।

यह निर्विवाद सत्य है कि सम्राट विक्रमादित्य भारतीय इतिहास के सर्वश्रेष्ठ शासक थे।

==हिन्दू हृदय सम्राट परमार कुलभूषण मालवा नरेश सम्राट महाराजा भोज ==


महाराजा भोज के जीवन में हिन्दुत्व की तेजस्विता रोम-रोम से प्रकट हुई ,इनके चरित्र और गाथाओं का स्मरण गौरवशाली हिंदुत्व का दर्शन कराता है। 
महाराजा भोज इतिहास प्रसिद्ध मुंजराज के भतीजे व सिंधुराज के पुत्र थे । उनका जन्म सन् 980 में महाराजा विक्रमादित्य की नगरी उज्जैनी में हुआ।राजा भोज चक्रवर्ती सम्राट विक्रमादित्य के वंशज थे।पन्द्रह वर्ष की छोटी आयु में उनका राज्य अभिषेक मालवा के राजसिंहासन पर हुआ।राजा भोज ने ग्यारहवीं शताब्दी में धारानगरी (धार) को ही नही अपितु समस्त मालवा और भारतवर्ष को अपने जन्म और कर्म से गौरवान्वित किया।

महाप्रतापी राजा भोज के पराक्रम के कारण उनके शासन काल में भारत पर साम्राज्य स्थापित करने का दुस्साहस कोई नहीं कर सका.राजा भोज ने भोपाल से 25 किलोमीटर दूर भोजपूर शहर में विश्व के सबसे बडे शिवलिंग का निर्माण कराया जो आज भोजेश्रवर के नाम से प्रसिद्ध है जिसकी उंचाई 22 फीट है । राजा भोज ने छोटे बडे लाखों मंदिर बनवाये , उन्होंने हजारों तालाब बनवाये , सैकडों नगर बसाये,कई दुर्ग बनवाये और अनेकों विद्यालय बनवाये।
राजा भोज ने ही भारत को नई पहचान दिलवाई उन्होंने ही इस देश का नाम हिंदू धर्म के नाम पर हिंदुस्तान रखा।राजा भोज ने कुशल शासक के रुप में जो हिन्दुओं को संगठित कर जो महान कार्य किया उससे राजा भोज के 250 वर्षो के बाद भी मुगल आक्रमणकारियों से हिंदुस्तान की रक्षा होती रही । राजा भोज भारतीय इतिहास के महानायक थे.
राजा भोज भारतीय इतिहास के एकमात्र ऐसे राजा हुए, जो शौर्य एवं पराक्रम के साथ धर्म विज्ञान साहित्य तथा कला के ज्ञाता थे।राजा भोज ने माँ सरस्वती की आराधना व हिन्दू जीवन दर्शन एवं संस्कृत के प्रचार- प्रसार हेतु सन् 1034 में माँ सरस्वती मंदिर भोजशाला का निर्माण करवाया।माँ सरस्वती के अनन्य भक्त राजा भोज को माँ सरस्वती का अनेक बार साक्षातकार हुआ,

माँ सरस्वती की आराधना एवं उनके साधकों की साधना के लिए स्वंय की परिकल्पना एवं वास्तु से विश्व के सर्वश्रेष्ठ मंदिर का निर्माण धार में कराया गया जो आज भोजशाला के नाम से प्रसिद्ध है । उन्होंने भोजपाल (भोपाल) में भारत का सबसे बडा तालाब का निर्माण कराया जो आज भोजताल के नाम से प्रसिद्ध है.
Rajputana Soch राजपूताना सोच और क्षत्रिय इतिहास श्री नीरज राजपुरोहित जी

Wednesday, June 8, 2016

जब एक विदेशी आक्रमणकारी ने हिन्दू धर्म अपनाकर ‘भगवा पताका’ थाम ली थी- सिथियन या शाक्य

जब एक विदेशी आक्रमणकारी ने हिन्दू धर्म अपनाकर ‘भगवा पताका’ थाम ली थी

उत्तर मौर्य काल में उपमहाद्वीप के कई बार एक साथ मध्य एशिया के जनजातीय घुसपैठ के परिणामस्वरूप उत्तर पश्चिम और पश्चिम मध्य भागों में कई विदेशी वंश के शासक भारत आए। इन आक्रमणों व पलायनों के लगातार क्रम ने ने धीरे धीरे उत्तर पश्चिम के चरित्र को एक सांस्कृतिक चौराहे में तब्दील कर दिया जहाँ मध्य भारत के लोगों और प्रभावों ने भारतीय उपमहाद्वीप से मिलकर सनातन धर्म की पताका तले एक बहुलतावादी समाज का निर्माण किया।
शकों का मूल स्थान : सिथियन या शाक्य
अगर हम इन सब तथ्यों के प्रमाण ढूंढते हैं तो हम पाते हैं कि, ये सभी अपने शिलालेखों तथा अपनी मुद्राओं के लिए जाने जाते हैं जिनमें पुरातात्विक साधनों से मिलीं आरंभिक मुद्राएँ हैं जिनका निर्माण स्वर्ण धातुओं से हुआ था। प्राचीन भारतीय राजाओं के लिए ये सिक्के ना ही मात्र विनिमय का साधन थे बल्कि इससे उन्हें अपनी पहचान सुगम बनाने में भी सहायता मिलती थी।
उत्तर पश्चिम से भारत आये आक्रमणकारियों में जो मुख्य नाम आता है वह था सिथियन या शाक्य का जिन्हें अंग्रेजी में ‘शक’ भी कहा जाता है । धर्मशास्त्रों में उनका वर्णन व्रत्य क्षत्रिय या निम्न क्षत्रिय के रूप में किया गया है, यह सत्ता में आयी एक विदेशी ताकत का देशी समाज में समायोजन का प्रयत्न था।
शाक्य वंश की विभिन्न शाखाओं ने उत्तर और मध्य भारत के विभिन्न भागों में आक्रमण किया था व सनातन धर्मियों से भी संबंध बनाये थे। शाक्यों की सबसे लंबी उपस्थिति मालवा प्रांत में मानी जाती है। इसी वंश का सबसे लोकप्रिय और महान शासक था क्षत्रापास कार्दमका परिवार का रूद्रदमन (481 ई .पू है.) जिसने भारत आकर ‘सनातन धर्म’ अपना लिया था और अपना आधिपत्य मालवा के अलावा सौराष्ट्र, काठियावाड, कोंकण और सिंध तक फैलाकर सनातन परंपरा का मान बढाया।
दक्षिण के सातवाहनों से भी रूद्रदमन काफी वर्षों तक उलझा रहा था। इसके बारे में सातवाहन के नासिक अभिलेख और रूद्रदमन का जूनागढ अभिलेख दोनों ही बताते हैं। उल्लेखनीय रूप से रूद्रदमन का अभिलेख शुद्ध संस्कृत में लिखा पहला लंबा आरंभिक भारतीय अभिलेख है। यह ध्यान में रखते हुए कि रूद्रदमन एक शाक्य था, उसके द्वारा प्रदेश की भाषा संस्कृत का प्रयोग संकेत देता है कि उसने स्थानीय परंपराओं से तादात्म्य स्थापित करने की कोशिश की और अपनी शक्ति को वैध बनाने का प्रयत्न भी किया।
दक्षिण-पश्चिम के क्षत्रप शासकों में रुद्रदमन् का नाम विशेषतया उल्लेखनीय है। इन शासकों के वैदेशिक होने में संदेह नहीं है, पर रुद्रदमन्, रुद्रसेन, विजयसेन आदि नामों से प्रतीत होता है कि वे पूर्णतया भारतीय बन गए थे। इसकी पुष्टि उन लेखों से होती है जिनमें इनके द्वारा दिए गए दानों का उल्लेख है।
रुद्रदमन के गुजरात के जूनागढ़ में खुदवाये अभिलेख आज भी देखे जा सकते हैं। इस अभिलेख की एक विशेषता यह भी है कि रुद्रदमन के अभिलेख को ही संस्कृत भाषा का प्रथम शिलालेख माना जाता है। जूनागढ़ के शक संवत् ७२ के लेख से यह विदित होता है कि जनता ने अपनी रक्षा के लिए रुद्रदामन् को महाक्षत्रप पद पर आसीन किया।
रुद्रदमन ने जनता के अपने प्रति विश्वास का पूर्ण परिचय दिया व सनातन परंपरा को आगे बढाने के लिए प्रयत्नशील रहा, उसने अपने से पहले सनातन धर्मी राजाओं के बनवाये हुए स्थापत्य धरोहरों को पुनर्निर्मित करवाने के साथ ही संस्कृत भाषा को भी आगे बढाया। उसने अपने पितामह चष्टन के साथ संयुक्त रूप से राज्य किया था। इनका क्रमश: उल्लेख उसके जूनागढ़ के लेख में मिलता है।
जूनागढ़ अभिलेख में चन्द्रगुप्त मौर्य के शासनकाल में बनवाई गयी सुदर्शन झील का बाँध भीषण वर्षा के कारण टूट जाने का भी उल्लेख है जिसे रूद्रदमन ने सही करवाया था। इस बाँध की खासियत यह थी कि ये धरती का अपनी तरह का ऐसा पहला बाँध था।

Monday, June 6, 2016

रूसी भाषा के करीब 2,000 शब्द संस्कृत मूल के है, 1 हजार वर्ष पूर्व रूस में था हिन्दू धर्म!

1440767636-0038स्त्रोत – वेबदुनिया

एक हजार वर्ष पहले रूस ने ईसाई धर्म स्वीकार किया। माना जाता है कि इससे पहले यहां असंगठित रूप से हिन्दू धर्म प्रचलित था और उससे पहले संगठित रूप से वैदिक पद्धति के आधार पर हिन्दू धर्म प्रचलित था। वैदिक धर्म का पतन होने के कारण यहां मनमानी पूजा और पुजारियों का बोलबाला हो गया अर्थात हिन्दू धर्म का पतन हो गया। यही कारण था कि 10वीं शताब्दी के अंत में रूस की कियेव रियासत के राजा व्लादीमिर चाहते थे कि उनकी रियासत के लोग देवी-देवताओं को मानना छोड़कर किसी एक ही ईश्वर की पूजा करें।

उस समय व्लादीमिर के सामने दो नए धर्म थे। एक ईसाई और दूसरा इस्लाम, क्योंकि रूस के आस-पड़ोस के देश में भी कहीं इस्लाम तो कहीं ईसाइयत का परचम लहरा चुका था। राजा के समक्ष दोनों धर्मों में से किसी एक धर्म का चुनाव करना था, तब उसने दोनों ही धर्मों की जानकारी हासिल करना शुरू कर दी। उसने जाना कि इस्लाम की स्वर्ग की कल्पना और वहां हूरों के साथ मौज-मस्ती की बातें तो ठीक हैं लेकिन स्त्री स्वतंत्रता पर पाबंदी, शराब पर पाबंदी और खतने की प्रथा ठीक नहीं है। इस तरह की पाबंदी के बारे में जानकर वह डर गया। खासकर उसे खतना और शराब वाली बात अच्छी नहीं लगी। ऐसे में उसने इस्लाम कबूल करना रद्द कर दिया।

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जानिए कौन थे राजा वीर विक्रमादित्य, उनसे जुड़े कुछ तथ्य

जानिए कौन थे राजा वीर विक्रमादित्य, उनसे जुड़े कुछ तथ्यविक्रम संवत के प्रवर्तक : देश में अनेक विद्वान ऐसे हुए हैं, जो विक्रम संवत को उज्जैन के राजा विक्रमादित्य द्वारा ही प्रवर्तित मानते हैं। इस संवत के प्रवर्तन की पुष्टि ज्योतिर्विदाभरण ग्रंथ से होती है, जो कि 3068 कलि अर्थात 34 ईसा पूर्व में लिखा गया था। इसके अनुसार विक्रमादित्य ने 3044 कलि अर्थात 57 ईसा पूर्व विक्रम संवत चलाया।

ऐतिहासिक व्यक्ति : कल्हण की ‘राजतरंगिणी’ के अनुसार 14 ई. के आसपास कश्मीर में अंध्र युधिष्ठिर वंश के राजा हिरण्य के नि:संतान मर जाने पर अराजकता फैल गई थी। जिसको देखकर वहां के मंत्रियों की सलाह से उज्जैन के राजा विक्रमादित्य ने मातृगुप्त (कालिदास) को कश्मीर का राज्य संभालने के लिए भेजा था। कालिदास को ‘कालिदास’ इसलिए कहते थे, क्योंकि वे मां काली के भक्त और प्रसिद्ध कवि थे।

नेपाली राजवंशावली अनुसार नेपाल के राजा अंशुवर्मन के समय (ईसापूर्व पहली शताब्दी) में उज्जैन के राजा विक्रमादित्य के नेपाल आने का उल्लेख मिलता है। विक्रमादित्य के समय ज्योतिषाचार्य मिहिर, महान कवि कालिदास थे। राजा विक्रम का भारत की संस्कृत, प्राकृत, अर्द्धमागधी, हिन्दी, गुजराती, मराठी, बंगला आदि भाषाओं के ग्रंथों में विवरण मिलता है। उनकी वीरता, उदारता, दया, क्षमा आदि गुणों की अनेक गाथाएं भारतीय साहित्य में भरी पड़ी हैं।

नेपाली राजवंशावली अनुसार नेपाल के राजा अंशुवर्मन के समय (ईसापूर्व पहली शताब्दी) में उज्जैन के राजा विक्रमादित्य के नेपाल आने का उल्लेख मिलता है। विक्रमादित्य के समय ज्योतिषाचार्य मिहिर, महान कवि कालिदास थे। राजा विक्रम का भारत की संस्कृत, प्राकृत, अर्द्धमागधी, हिन्दी, गुजराती, मराठी, बंगला आदि भाषाओं के ग्रंथों में विवरण मिलता है। उनकी वीरता, उदारता, दया, क्षमा आदि गुणों की अनेक गाथाएं भारतीय साहित्य में भरी पड़ी हैं।

जानिए कौन थे राजा वीर विक्रमादित्य, उनसे जुड़े कुछ तथ्ययथा श्रीहर्ष, शूद्रक, हल, चंद्रगुप्त द्वितीय, शिलादित्य, यशोवर्धन आदि।

दरअसल, आदित्य शब्द देवताओं से प्रयुक्त है। बाद में विक्रमादित्य की प्रसिद्धि के बाद राजाओं को ‘विक्रमादित्य उपाधि’ दी जाने लगी।

विक्रमादित्य के पहले और बाद में और भी विक्रमादित्य हुए हैं जिसके चलते भ्रम की स्थिति उत्पन्न होती है। उज्जैन के सम्राट विक्रमादित्य के बाद 300 ईस्वी में समुद्रगुप्त के पुत्र चन्द्रगुप्त द्वितीय अथवा चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य हुए।

एक विक्रमादित्य द्वितीय 7वीं सदी में हुए, जो विजयादित्य (विक्रमादित्य प्रथम) के पुत्र थे। विक्रमादित्य द्वितीय ने भी अपने समय में चालुक्य साम्राज्य की शक्ति को अक्षुण्ण बनाए रखा। विक्रमादित्य द्वितीय के काल में ही लाट देश (दक्षिणी गुजरात) पर अरबों ने आक्रमण किया। विक्रमादित्य द्वितीय के शौर्य के कारण अरबों को अपने प्रयत्न में सफलता नहीं मिली और यह प्रतापी चालुक्य राजा अरब आक्रमण से अपने साम्राज्य की रक्षा करने में समर्थ रहा।

पल्लव राजा ने पुलकेसन को परास्त कर मार डाला। उसका पुत्र विक्रमादित्य, जो कि अपने पिता के समान महान शासक था, गद्दी पर बैठा। उसने दक्षिण के अपने शत्रुओं के विरुद्ध पुन: संघर्ष प्रारंभ किया। उसने चालुक्यों के पुराने वैभव को काफी हद तक पुन: प्राप्त किया। यहां तक कि उसका परपोता विक्रमादित्य द्वितीय भी महान योद्धा था। 753 ईस्वी में विक्रमादित्य व उसके पुत्र का दंती दुर्गा नाम के एक सरदार ने तख्ता पलट दिया। उसने महाराष्ट्र व कर्नाटक में एक और महान साम्राज्य की स्थापना की, जो राष्ट्र कूट कहलाया।

विक्रमादित्य द्वितीय के बाद 15वीं सदी में सम्राट हेमचंद्र विक्रमादित्य ‘हेमू’ हुए। सम्राट हेमचंद्र विक्रमादित्य के बाद ‘विक्रमादित्य पंचम’ सत्याश्रय के बाद कल्याणी के राजसिंहासन पर आरूढ़ हुए। उन्होंने लगभग 1008 ई. में चालुक्य राज्य की गद्दी को संभाला। भोपाल के राजा भोज के काल में यही विक्रमादित्य थे।

20-12विक्रमादित्य पंचम ने अपने पूर्वजों की नीतियों का अनुसरण करते हुए कई युद्ध लड़े। उसके समय में मालवा के परमारों के साथ चालुक्यों का पुनः संघर्ष हुआ और वाकपतिराज मुञ्ज की पराजय व हत्या का प्रतिशोध करने के लिए परमार राजा भोज ने चालुक्य राज्य पर आक्रमण कर उसे परास्त किया, लेकिन एक युद्ध में विक्रमादित्य पंचम ने राजा भोज को भी हरा दिया था।

उज्जैन के विक्रमादित्य के समय ही विक्रम संवत चलाया गया था। इतिहासकारों के अनुसार उज्जैन के सम्राट विक्रमादित्य का राज्य भारतीय उपमहाद्वीप के अलावा ईरान, इराक और अरब में भी था। विक्रमादित्य की अरब विजय का वर्णन अरबी कवि जरहाम किनतोई ने अपनी पुस्तक ‘सायर-उल-ओकुल’ में किया है। पुराणों और अन्य इतिहास ग्रंथों के अनुसार यह पता चलता है कि अरब और मिस्र भी विक्रमादित्य के अधीन थे।

20-12विक्रमादित्य पंचम ने अपने पूर्वजों की नीतियों का अनुसरण करते हुए कई युद्ध लड़े। उसके समय में मालवा के परमारों के साथ चालुक्यों का पुनः संघर्ष हुआ और वाकपतिराज मुञ्ज की पराजय व हत्या का प्रतिशोध करने के लिए परमार राजा भोज ने चालुक्य राज्य पर आक्रमण कर उसे परास्त किया, लेकिन एक युद्ध में विक्रमादित्य पंचम ने राजा भोज को भी हरा दिया था।

उज्जैन के विक्रमादित्य के समय ही विक्रम संवत चलाया गया था। इतिहासकारों के अनुसार उज्जैन के

20-12विक्रमादित्य पंचम ने अपने पूर्वजों की नीतियों का अनुसरण करते हुए कई युद्ध लड़े। उसके समय में मालवा के परमारों के साथ चालुक्यों का पुनः संघर्ष हुआ और वाकपतिराज मुञ्ज की पराजय व हत्या का प्रतिशोध करने के लिए परमार राजा भोज ने चालुक्य राज्य पर आक्रमण कर उसे परास्त किया, लेकिन एक युद्ध में विक्रमादित्य पंचम ने राजा भोज को भी हरा दिया था।

उज्जैन के विक्रमादित्य के समय ही विक्रम संवत चलाया गया था। इतिहासकारों के अनुसार उज्जैन के सम्राट विक्रमादित्य का राज्य भारतीय उपमहाद्वीप के अलावा ईरान, इराक और अरब में भी था। विक्रमादित्य की अरब विजय का वर्णन अरबी कवि जरहाम किनतोई ने अपनी पुस्तक ‘सायर-उल-ओकुल’ में किया है। पुराणों और अन्य इतिहास ग्रंथों के अनुसार यह पता चलता है कि अरब और मिस्र भी विक्रमादित्य के अधीन थे

तुर्की के इस्ताम्बुल शहर की प्रसिद्ध लायब्रेरी मकतब-ए-सुल्तानिया में एक ऐतिहासिक ग्रंथ है ‘सायर-उल-ओकुल’। उसमें राजा विक्रमादित्य से संबंधित एक शिलालेख का उल्लेख है जिसमें कहा गया है कि ‘…वे लोग भाग्यशाली हैं, जो उस समय जन्मे और राजा विक्रम के राज्य में जीवन व्यतीत किया। वह बहुत ही दयालु, उदार और कर्तव्यनिष्ठ शासक था, जो हरेक व्यक्ति के कल्याण के बारे में सोचता था। …उसने अपने पवित्र धर्म को हमारे बीच फैलाया, अपने देश के सूर्य से भी तेज विद्वानों को इस देश में भेजा ताकि शिक्षा का उजाला फैल सके।

इन विद्वानों और ज्ञाताओं ने हमें भगवान की उपस्थिति और सत्य के सही मार्ग के बारे में बताकर एक परोपकार किया है। ये तमाम विद्वान राजा विक्रमादित्य के निर्देश पर अपने धर्म की शिक्षा देने यहां आए…।’तुर्की के इस्ताम्बुल शहर की प्रसिद्ध लायब्रेरी मकतब-ए-सुल्तानिया में एक ऐतिहासिक ग्रंथ है ‘सायर-उल-ओकुल’। उसमें राजा विक्रमादित्य से संबंधित एक शिलालेख का उल्लेख है जिसमें कहा गया है कि ‘…वे लोग भाग्यशाली हैं, जो उस समय जन्मे और राजा विक्रम के राज्य में जीवन व्यतीत किया। वह बहुत ही दयालु, उदार और कर्तव्यनिष्ठ शासक था, जो हरेक व्यक्ति के कल्याण के बारे में सोचता था। …उसने अपने पवित्र धर्म को हमारे बीच फैलाया, अपने देश के सूर्य से भी तेज विद्वानों को इस देश में भेजा ताकि शिक्षा का उजाला फैल सके।

इन विद्वानों और ज्ञाताओं ने हमें भगवान की उपस्थिति और सत्य के सही मार्ग के बारे में बताकर एक परोपकार किया है। ये तमाम विद्वान राजा विक्रमादित्य के निर्देश पर अपने धर्म की शिक्षा देने यहां आए…।’

From aware press.com


Wednesday, June 1, 2016

कैसे हनुमान ने भगवान् श्रीराम को दुसरा विवाह करने से बचाया था

भगवान् श्रीराम को “मर्यादा पुरुषोतम” भी कहा जाता हैं.

श्री राम को मर्यादा पुरुषोतम की संज्ञा इसलिए दी गयी क्योकि उन्होंने हर क्षेत्र में चाहे वह व्यक्तिगत हो या सामाजिक कभी भी अपनी मर्यादाओं का उलघंन नहीं किया. अपनी इन्ही सीमाओं को ध्यान में रख कर भगवान् श्रीराम ने समाज में सिर्फ उदाहरण प्रस्तुत करने के लिए अपनी पत्नी सीता का भी त्याग किया था जिन्हें वह रावण से युद्ध कर के सुरक्षित मुक्त करा कर लंका से अयोध्या वापस लाये थे.

लेकिन लंका में उसी युद्ध के बीच एक ऐसा समय भी आ गया था, जब भगवान् राम जिन्हें हम मर्यादा पुरुषोतम कहते हैं को अपने प्राणों की रक्षा करने के लिए दुसरा विवाह करने की स्थिति में ला खड़ा किया था.

लेकिन हर बार की तरह इस परिस्थिति से भी श्रीराम को उनके परम भक्त और सेवक हनुमान ने बाहर निकाल लिया था

जब भगवान् राम और रावण के बीच युद्ध चल रहा था तो युद्ध रावण के हाथ से निकलने लगा था. अपनी हार को करीब देख कर रावण ने अपने दो भाई अहिरावण और महिरावण को आदेश दिया कि वह राम-लक्ष्मण दोनों का अपहरण कर के उनकी हत्या कर दे. अपने बड़े भाई रावण का आदेश मान कर अहिरावण और महिरावण ने श्रीराम और लक्ष्मण को मूर्छित कर अपनी गुफा ले आये और उनकी हत्या की तैयारी करने लगे तभी अपने स्वामी श्रीराम को मुसीबत में देख कर हनुमान ने अहिरावण और महिरावण की गुफा में जाकर उन्हें मुक्त कराया.

भगवान् हनुमान जब गुफा में पहुचे तो सबसे पहले उन्हें अपने पसीने की बूंद से जन्मे अपने पुत्र मकरध्वज से युद्ध कर उसे हराना पड़ा था फिर गुफा में प्रवेश कर पाए थे और अपने पिता से हारने के बाद मकरध्वज ने पुरे युद्ध में श्रीराम का साथ दिया था. अहिरावण और महिरावण गुफा में राम और लक्षमण की बलि देने वाले थे तभी हनुमान उस गुफा में प्रवेश कर उनकी सभी सेना का ख़त्म कर चुके थे लेकिन रावण के इन दोनों भाइयों की मृत्यु नहीं हुई थी.

युद्ध के समय उस गुफा में एक नाग कन्या ने हनुमान को अहिरावण-महिरावण के वध का राज़ बताया कि इस गुफा में जो पांचों दिशाओं में दीये रखे हैं, अगर वह एक साथ बुझायें जाये तो रावण के इन भाईयों की मृत्यु संभव हो सकती. नागकन्या द्वारा बताये गए इस रहस्य के बाद हनुमान जी ने अपना पञ्चमुखी अवतार धारण किया और अहिरावण-महिरावण का वध कर के श्री राम और लक्ष्मण को मुक्त कराया था.

मुक्त होने बाद जिस नागकन्या ने हनुमान जी की मदद की थी वह श्रीराम को देख कर उन पर मोहित हो गयी उनसे विवाह करने की अभिलाषा के साथ श्री राम की ओर वरमाला लेकर आगे बढ़ने लगी, तभी हनुमान अपने स्वामी की रक्षा के लिए एक भंवरें का रूप धारण कर उस नागकन्या को काट लिए जिससे भगवान् राम पर दूसरे विवाह करने का पाप नहीं लग पाया.

चित्रसेना नाम की उस नागकन्या की अपने प्रति भक्ति देखकर भगवान् राम ने उसे द्वापरयुग में अपने कृष्ण अवतार के साथ सत्यभामा नाम की पत्नी बनने का वरदान दिया.