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Tuesday, February 14, 2017

मुहम्मद स्वयं हिन्दू ही जन्मे थे, होती थी महादेव की पूजा, इसके तथ्य भी हैं मौजूद

इराक का एक पुस्तक है जिसे इराकी सरकार ने खुद छपवाया था। इस किताब में 622 ई से पहले के अरबजगत का जिक्र है। आपको बता दें कि ईस्लाम धर्म की स्थापना इसी साल हुई थी। किताब में बताया गया है कि मक्का में पहले शिवजी का एक विशाल मंदिर था जिसके अंदर एक शिवलिंग थी जो आज भी मक्का के काबा में एक काले पत्थर के रूप में मौजूद है। पुस्तक में लिखा है कि मंदिर में कविता पाठ और भजन हुआ करता था।
प्राचीन अरबी काव्य संग्रह गंथ ‘सेअरूल-ओकुल’ के 257वें पृष्ठ पर मोहम्मद से 2300 वर्ष पूर्व एवं ईसा मसीह से 1800 वर्ष पूर्व पैदा हुए लबी-बिन-ए-अरव्तब-बिन-ए-तुरफा ने अपनी सुप्रसिद्ध कविता में भारत भूमि एवं वेदों को जो सम्मान दिया है, वह इस प्रकार है-
“अया मुबारेकल अरज मुशैये नोंहा मिनार हिंदे।
व अरादकल्लाह मज्जोनज्जे जिकरतुन।1।
वह लवज्जलीयतुन ऐनाने सहबी अरवे अतुन जिकरा।
वहाजेही योनज्जेलुर्ररसूल मिनल हिंदतुन।2।
यकूलूनल्लाहः या अहलल अरज आलमीन फुल्लहुम।
फत्तेबेऊ जिकरतुल वेद हुक्कुन मालन योनज्वेलतुन।3।
वहोबा आलमुस्साम वल यजुरमिनल्लाहे तनजीलन।
फऐ नोमा या अरवीयो मुत्तवअन योवसीरीयोनजातुन।4।
जइसनैन हुमारिक अतर नासेहीन का-अ-खुबातुन।
व असनात अलाऊढ़न व होवा मश-ए-रतुन।5।”
अर्थात-(1) हे भारत की पुण्य भूमि (मिनार हिंदे) तू धन्य है, क्योंकि ईश्वर ने अपने ज्ञान के लिए तुझ को चुना। (2) वह ईश्वर का ज्ञान प्रकाश, जो चार प्रकाश स्तम्भों के सदृश्य सम्पूर्ण जगत् को प्रकाशित करता है, यह भारतवर्ष (हिंद तुन) में ऋषियों द्वारा चार रूप में प्रकट हुआ।
(3) और परमात्मा समस्त संसार के मनुष्यों को आज्ञा देता है कि वेद, जो मेरे ज्ञान है, इनकेअनुसार आचरण करो।(4) वह ज्ञान के भण्डार साम और यजुर है, जो ईश्वर ने प्रदान किये। इसलिए, हे मेरे भाइयों! इनको मानो, क्योंकि ये हमें मोक्ष का मार्ग बताते है।
(5) और दो उनमें से रिक्, अतर (ऋग्वेद, अथर्ववेद) जो हमें भ्रातृत्व की शिक्षा देते है, और जो इनकी शरण में आ गया, वह कभी अन्धकार को प्राप्त नहीं होता।
इस्लाम मजहब के प्रवर्तक मोहम्मद स्वयं भी वैदिक परिवार में हिन्दू के रूप में जन्में थे, और जब उन्होंने अपने हिन्दू परिवार की परम्परा और वंश से संबंध तोड़ने और स्वयं को पैगम्बर घोषित करना निश्चित किया, तब संयुक्त हिन्दू परिवार छिन्न-भिन्न हो गया
और काबा में स्थित महाकाय शिवलिंग (संगेअस्वद) के रक्षार्थ हुए युद्ध में पैगम्बर मोहम्मद के चाचा उमर-बिन-ए-हश्शाम को भी अपने प्राण गंवाने पड़े।
उमर-बिन-ए-हश्शाम का अरब में एवं केन्द्र काबा (मक्का) में इतना अधिक सम्मान होता था कि सम्पूर्ण अरबी समाज, जो कि भगवान शिव के भक्त थे एवं वेदों के उत्सुक गायक तथा हिन्दू देवी-देवताओं के अनन्य उपासक थे, उन्हें अबुल हाकम अर्थात ‘ज्ञान का पिता’ कहते थे। बाद में मोहम्मद के नये सम्प्रदाय ने उन्हें ईर्ष्यावश अबुलजिहाल ‘अज्ञान का पिता’ कहकर उनकी निन्दा की।
http://allindiapos
जब मोहम्मद ने मक्का पर आक्रमण किया, उस समय वहाँ बृहस्पति, मंगल, अश्विनीकुमार, गरूड़, नृसिंह की मूर्तियाँ प्रतिष्ठित थी। साथ ही एक मूर्ति वहाँ विश्वविजेता महाराजा बलि की भी थी, और दानी होने की प्रसिद्धि से उसका एक हाथ सोने का बना था।
‘Holul’ के नाम से अभिहित यह मूर्ति वहां इब्राहम और इस्माइल की मूर्त्तियों के बराबर रखी थी। मोहम्मद ने उन सब मूर्त्तियों को तोड़कर वहां बने कुएं में फेंक दिया, किन्तु तोड़े गये शिवलिंग का एक टुकडा आज भी काबा में सम्मानपूर्वक न केवल प्रतिष्ठित है, वरन् हज करने जाने वाले मुसलमान उस काले (अश्वेत) प्रस्तर खण्ड अर्थात ‘संगे अस्वद’ को आदर मान देते हुए चूमते है।
जबकि इस्लाम में मूर्ति पूजा या अल्लाह के अलावा किसी की भी स्तुति हराम है
प्राचीन अरबों ने सिन्ध को सिन्ध ही कहा तथा भारत वर्ष के अन्य प्रदेशों को हिन्द निश्चित किया। सिन्ध से हिन्द होने की बात बहुत ही अवैज्ञानिक है। इस्लाम मत के प्रवर्तक मोहम्मद के पैदा होने से 2300 वर्ष पूर्व यानि लगभग 1800 ईश्वी पूर्व भी अरब में हिंद एवं हिंदू शब्द का व्यवहार ज्यों कात्यों आज ही के अर्थ में प्रयुक्त होता था।
अरब की प्राचीन समृद्ध संस्कृति वैदिक थी तथा उस समय ज्ञान-विज्ञान, कला-कौशल, धर्म-संस्कृति आदि में भारत (हिंद) के साथ उसके प्रगाढ़ संबंध थे। हिंद नाम अरबों को इतना प्यारा लगा कि उन्होंने उस देश के नाम पर अपनी स्त्रियों एवं बच्चों के नाम भी हिंद पर रखे।
अरबी काव्य संग्रह ग्रंथ ‘ से अरूल-ओकुल’ के 253वें पृष्ठ पर हजरत मोहम्मद के चाचा उमर-बिन-ए-हश्शाम की कविता है जिसमें उन्होंने हिन्दे यौमन एवं गबुल हिन्दू का प्रयोग बड़े आदर से किया है। ‘उमर-बिन-ए-हश्शाम’ की कविता नई दिल्ली स्थित मन्दिर मार्ग पर श्री लक्ष्मीनारायण मन्दिर (बिड़लामन्दिर) की वाटिका में यज्ञशाला के लाल पत्थर के स्तम्भ (खम्बे) पर कालीस्याही से लिखी हुई है, जो इस प्रकार है –
” कफविनक जिकरा मिन उलुमिन तब असेक ।
कलुवन अमातातुल हवा व तजक्करू ।1।
न तज खेरोहा उड़न एललवदए लिलवरा ।
वलुकएने जातल्लाहे औम असेरू ।2।
व अहालोलहा अजहू अरानीमन महादेव ओ ।
मनोजेल इलमुद्दीन मीनहुम व सयत्तरू ।3।
व सहबी वे याम फीम कामिल हिन्दे यौमन ।
व यकुलून न लातहजन फइन्नक तवज्जरू ।4।
मअस्सयरे अरव्लाकन हसनन कुल्लहूम ।
नजुमुन अजा अत सुम्मा गबुल हिन्दू ।5।
अर्थात् –(1) वह मनुष्य, जिसने सारा जीवन पाप व अधर्म में बिताया हो, काम, क्रोध में अपने यौवन को नष्ट किया हो। (2) यदि अन्त में उसको पश्चाताप हो, और भलाई की ओर लौटना चाहे, तो क्या उसका कल्याण हो सकता है ?
(3) एक बार भी सच्चे हृदय से वह महादेव जी की पूजा करे, तो धर्म-मार्ग में उच्च से उच्चपद को पा सकता है। (4) हे प्रभु ! मेरा समस्त जीवन लेकर केवल एक दिन भारत (हिंद) के निवास का दे दो, क्योंकि वहां पहुंचकर मनुष्य जीवन-मुक्त हो जाता है।
(5) वहां की यात्रा से सारे शुभ कर्मो की प्राप्ति होती है, और आदर्शगुरूजनों (गबुल हिन्दू) का सत्संग मिलता है।
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Saturday, October 15, 2016

A terrorist Ghazi Saiyyad Salar Masud is worshipped by Stupid Hindus

एक मुस्लिम हमलावर सुल्तान सैयद सालार मसूद गाज़ी जिसने भारत पर सन 1031 में विशाल सेना के साथ हमला किया 
ये जिहादी स्वयं ग़ज़नी का रिश्तेदार था, वही ग़ज़नी जिसने सोमनाथ मंदिर पर 16 बार हमला किया कत्लेआम किया बलात्कार किया मंदिर को तोडा एक मुस्लिम हमलावर सुल्तान सैयद सालार मसूद गाज़ी जिसने भारत पर सन 1031 में विशाल सेना के साथ हमला किया


ये जिहादी स्वयं ग़ज़नी का रिश्तेदार था, वही ग़ज़नी जिसने सोमनाथ मंदिर पर 16 बार हमला किया कत्लेआम किया बलात्कार किया मंदिर को तोडा एक मुस्लिम हमलावर सुल्तान सैयद सालार मसूद गाज़ी जिसने भारत पर सन 1031 में विशाल सेना के साथ हमला किया
ये जिहादी स्वयं ग़ज़नी का रिश्तेदार था, वही ग़ज़नी जिसने सोमनाथ मंदिर पर 16 बार हमला किया कत्लेआम किया बलात्कार किया मंदिर को तोडा 

ग़ज़नी तो भारत में बार बार लूट, हत्या, बलात्कार के बाद वापस चला जाता था पर उसी का रिश्तेदार सैयद सालार मसूद गाज़ी
ने भारत पर हमला किया और उसका मकसद था की भारत को पूरी तरह इस्लामिक राष्ट्र बना देगा जैसे पर्शिया/ ईरान को बन दिया गया 

सैयद सालार मसूद अपनी सेना को लेकर “हिन्दुकुश” पर्वतमाला को पार करके पाकिस्तान (आज के) के पंजाब में पहुँचा, जहाँ उसे पहले हिन्दू राजा आनन्द पाल शाही का सामना करना पड़ा, जिसका उसने आसानी से सफ़ाया कर दिया। मसूद के बढ़ते कदमों को रोकने के लिये सियालकोट के राजा अर्जन सिंह ने भी आनन्द पाल की मदद की लेकिन इतनी विशाल सेना के आगे वे बेबस रहे। मसूद धीरे-धीरे आगे बढ़ते-बढ़ते राजपूताना और मालवा प्रांत में पहुँचा, जहाँ राजा महिपाल तोमर से उसका मुकाबला हुआ, और उसे भी मसूद ने अपनी सैनिक ताकत से हराया। 

एक तरह से यह भारत के विरुद्ध पहला जेहाद कहा जा सकता है, जहाँ कोई मुगल आक्रांता सिर्फ़ लूटने की नीयत से नहीं बल्कि बसने, राज्य करने और इस्लाम को फ़ैलाने का उद्देश्य लेकर आया था। पंजाब से लेकर उत्तरप्रदेश के गांगेय इलाके को रौंदते, लूटते, हत्यायें-बलात्कार करते सैयद सालार मसूद अयोध्या के नज़दीक स्थित बहराइच पहुँचा, जहाँ उसका इरादा एक सेना की छावनी और राजधानी बनाने का था। इस दौरान इस्लाम के प्रति उसकी सेवाओं को देखते हुए उसे “गाज़ी बाबा” की उपाधि दी गई

इस्लामी खतरे को देखते हुए पहली बार भारत के उत्तरी इलाके के हिन्दू राजाओं ने एक विशाल गठबन्धन बनाया, जिसमें 17 राजा सेना सहित शामिल हुए और उनकी संगठित संख्या सैयद सालार मसूद की विशाल सेना से भी ज्यादा हो गई। जैसी कि हिन्दुओ की परम्परा रही है, सभी राजाओं के इस गठबन्धन ने सालार मसूद के पास संदेश भिजवाया कि यह पवित्र धरती हमारी है और वह अपनी सेना के साथ चुपचाप भारत छोड़कर निकल जाये अथवा उसे एक भयानक युद्ध झेलना पड़ेगा। 

गाज़ी मसूद का जवाब भी वही आया जो कि अपेक्षित था, उसने कहा कि “इस धरती की सारी ज़मीन खुदा की है, और वह जहाँ चाहे वहाँ रह सकता है… यह उसका धार्मिक कर्तव्य है कि वह सभी को इस्लाम का अनुयायी बनाये और जो खुदा को नहीं मानते उन्हें काफ़िर माना जाये…”। उसके बाद ऐतिहासिक बहराइच का युद्ध हुआ, जिसमें संगठित हिन्दुओं की सेना ने सैयद मसूद की सेना को धूल चटा दी। इस भयानक युद्ध के बारे में इस्लामी विद्वान शेख अब्दुर रहमान चिश्ती की पुस्तक मीर-उल-मसूरी में विस्तार से वर्णन किया गया है। उन्होंने लिखा है कि मसूद सन् 1033 में बहराइच पहुँचा, तब तक हिन्दू राजा संगठित होना शुरु हो चुके थे। यह भीषण रक्तपात वाला युद्ध मई-जून 1033 में लड़ा गया। युद्ध इतना भीषण था कि सैयद सालार मसूद के किसी भी सैनिक को जीवित नहीं जाने दिया गया, 

यहाँ तक कि युद्ध बंदियों को भी मार डाला गया… मसूद का समूचे भारत को इस्लामी रंग में रंगने का सपना अधूरा ही रह गया।बहराइच का यह युद्ध 14 जून 1033 को समाप्त हुआ।
बहराइच के नज़दीक इसी मुगल आक्रांता सैयद सालार मसूद (तथाकथित गाज़ी बाबा) की कब्र बनी। जब फ़िरोज़शाह तुगलक का शासन समूचे इलाके में पुनर्स्थापित हुआ तब वह बहराइच आया और मसूद के बारे में जानकारी पाकर प्रभावित हुआ और उसने उसकी कब्र को एक विशाल दरगाह और गुम्बज का रूप देकर सैयद सालार मसूद को “एक धर्मात्मा” के रूप में प्रचारित करना शुरु किया, एक ऐसा इस्लामी धर्मात्मा जो भारत में इस्लाम का प्रचार करने आया था। 

मुगल काल में धीरे-धीरे यह किंवदंती का रूप लेता गया और कालान्तर में सभी लोगों ने इस “गाज़ी बाबा” को “पहुँचा हुआ पीर” मान लिया तथा उसकी दरगाह पर प्रतिवर्ष एक “उर्स” का आयोजन होने लगा, जो कि आज भी जारी है।

आज अंधभक्ति और मूर्खता और महामूर्खता में अनपढ़ता में हिन्दू उसी जिहादी के मजार पर जाकर स्वास्थ्य लाभ और अन्य स्वार्थो की पूर्ती के लिए सर झुकाते है 
क्या इन हिन्दुओ को मुर्ख कहना गलत है जिसने हिन्दुओ के कत्लेआम, बलात्कार, मंदिरों को तोड़ने के अलावा कुछ नहीं किया आज उसकी भक्ति में हिन्दू किसी गधे की तरह सर झुकाने जाता है 

इतिहासकार और वामपंथी हैवानो ने हिन्दुओ को कोई जानकारी ही नहीं दी, ये पूरी जानकारी आप हिन्दुओ तक पहुचाइए 
दैनिक भारत ऐसी कई और जानकारियां आपतक देता रहेगा, दैनिक भारत का जन्म ही इंडिया को भारत(हिन्दू राष्ट्र) बनाने के लिए हुआ है

Wednesday, August 17, 2016

Dalit Hindu and Muslim- Congress and BSP playing game to divide Hindus, दलित मुस्लिम एकता का सच

दलित मुस्लिम एकता का सच

 डॉ विवेक आर्य

गुजरात में ऊना की घटना के बाद से विदेशी फंडिंग की मदद से दलितों के उत्थान के नाम पर रैलियां कर बरगलाया जा रहा है। इन रैलियों में दलितों के साथ साथ मुसलमान भी बढ़ चढ़कर भाग ले रहे है।  ऐसा दिखाने का प्रयास किया जा रहा है कि मुसलमान दलितों के हमदर्द है। सत्य यह है कि यह सब वोट बैंक की राजनीती है। दलितों और मुसलमानों के समीकरण को बनाने का प्रयास है जिससे न केवल देश को अस्थिर किया जा सके। अपितु हिंदुओं कि एकता का भी ह्रास हो जाये। देश में दलित करीब 20 फीसदी है और मुस्लमान 15 फीसदी। दोनों मिलकर 35 फीसदी के लगभग। रणनीतिकार ने सोचा है कि दोनों मिलकर एक मुश्त वोट करेंगे तो जीत सुनिश्चित है। क्योंकि सभी जानते है कि बाकि हिन्दू समाज तो ब्राह्मण, क्षत्रिय, बनिया, यादव आदि में विभाजित है। गौरतलब बात यह है कि दलितों को भड़काने वालों के लिए  डॉ अम्बेडकर के इस्लाम के विषय में विचार भी कोई मायने नहीं रखते। डॉ अम्बेडकर ने इस्लाम स्वीकार करने का प्रलोभन देने वाले हैदराबाद के निज़ाम का प्रस्ताव न केवल ख़ारिज कर दिया अपितु 1947 में उन्होंने पाकिस्तान में रहने वाले सभी दलित हिंदुओं को भारत आने का सन्देश दिया। डॉ अम्बेडकर 1200 वर्षों से मुस्लिम हमलावरों द्वारा किये गए अत्याचारों से परिचित थे। वो जानते थे कि इस्लाम स्वीकार करना कहीं से भी जातिवाद की समस्या का समाधान नहीं है। क्योंकि इस्लामिक फिरके तो आपस में ही एक दूसरे कि गर्दन काटते फिरते है। वह जानते थे कि इस्लाम स्वीकार करने  में दलितों का हित नहीं अहित है।

अपने लेखन में इस्लाम के विषय में डॉ अम्बेडकर लिखते है-

मुस्लिम भ्रातृभाव केवल मुसलमानों के लिए-”इस्लाम एक बंद निकाय की तरह है, जो मुसलमानों और गैर-मुसलमानों के बीच जो भेद यह करता है, वह बिल्कुल मूर्त और स्पष्ट है। इस्लाम का भ्रातृभाव मानवता का भ्रातृत्व नहीं है, मुसलमानों का मुसलमानों से ही भ्रातृभाव मानवता का भ्रातृत्व नहीं है, मुसलमानों का मुसलमानों से ही भ्रातृत्व है। यह बंधुत्व है, परन्तु इसका लाभ अपने ही निकाय के लोगों तक सीमित है और जो इस निकाय से बाहर हैं, उनके लिए इसमें सिर्फ घृणा ओर शत्रुता ही है। इस्लाम का दूसरा अवगुण यह है कि यह सामाजिक स्वशासन की एक पद्धति है और स्थानीय स्वशासन से मेल नहीं खाता, क्योंकि मुसलमानों की निष्ठा, जिस देश में वे रहते हैं, उसके प्रति नहीं होती, बल्कि वह उस धार्मिक विश्वास पर निर्भर करती है, जिसका कि वे एक हिस्सा है। एक मुसलमान के लिए इसके विपरीत या उल्टे सोचना अत्यन्त दुष्कर है। जहाँ कहीं इस्लाम का शासन हैं, वहीं उसका अपना विश्वास है। दूसरे शब्दों में, इस्लाम एक सच्चे मुसलमानों को भारत को अपनी मातृभूमि और हिन्दुओं को अपना निकट सम्बन्धी मानने की इज़ाजत नहीं देता। सम्भवतः यही वजह थी कि मौलाना मुहम्मद अली जैसे एक महान भारतीय, परन्तु सच्चे मुसलमान ने, अपने, शरीर को हिन्दुस्तान की बजाए येरूसलम में दफनाया जाना अधिक पसंद किया।” (बाबा साहेब डॉ. अम्बेडकर सम्पूर्ण वाड्‌मय, खंड १५-‘पाकिस्तान और भारत के विभाजन, २०००)

-कुछ घटनाओं का विवरण  जिसमें मुसलमान जमीनी स्तर पर दलितों पर अत्याचार करने में लगे हुए है।

1. मुज्जफरनगर के दंगों में मुसलमानों के आक्रोश के कारण दलितों को अपने घर छोड़कर अपनी जान बचाने के लिए भागना पड़ा। तब न उन्हें बचाने मायावती आयी न दलित-मुस्लिम एकता का समर्थन करने वाला कोई दोगला आया। link http://indianexpress.com/article/cities/lucknow/muzaffarnagar-two-years-after-riots-fir-against-12-for-attacking-dalit-family/

2. नवम्बर 13, 2014 शामली के सोनाटा गांव में हैंडपंप से पानी भरने को लेकर दलितों और मुसलमानों के मध्य दंगा हुआ। मुसलमान दलितों को हैंडपंप से पानी भरने से रोक रहे थे। link   http://indiatoday.intoday.in/story/communal-violence-uttar-pradesh-dalit-muslim-clash-sonata-village-matkota-area/1/400498.html

3. मार्च 8, 2016 को वेल्लोर तमिल नाडु में दलितों को तालाब में नहाने पर मुसलमानों ने लड़ाई दंगा किया। link  http://www.thenewsminute.com/article/vellore-tense-trivial-argument-blows-muslim-dalits-clash-39980

4.  फरवरी 24, 2016 को रविदास जयंती के अवसर पर संत रविदास की झाँकी निकालते हुए दलितों पर मुसलमानों ने पत्थर बाजी करी।  जिससे दंगा भड़क गया। link http://www.hindupost.in/news/another-riot-in-up-between-muslims-and-hindu-dalits/

5. दिसम्बर 3, 2015 को मुज्जफरनगर के कताका गांव में मुसलमानों ने दलितों को पीटा। link http://indianexpress.com/article/india/india-news-india/7-hurt-in-clash-between-dalit-muslim-groups/

ऐसे अनेक उदहारण हमें वर्तमान में मुसलमानों द्वारा दलितों पर हो रहे अत्याचार के मिल सकते है। इसलिए दलित-मुस्लिम एकता केवल एक छलावा है। दलितों को डॉ अम्बेडकर कि बात की अनदेखी कर किसी के बहकावें में आकर अपना अहित नहीं करना चाहिए।

 (संदर्भ चित्र .......बांग्लादेश में दलित हिन्दूओं पर अत्याचार)

Saturday, June 18, 2016

मुहम्मद की मोत कैसे हुई

मुहम्मद की मोत कैसे हुई आज आप को बताते हे।

वेसे हमारे हिन्दू धर्म में किसी साधू की मोत इस तरह नहीं हुई होगी जिस तरह से मुल्लो के पैगम्बर की हुई अगर ये इतना ही अच्छा व्यक्त रहा होता तो इस तरह से मोत नहीं होती।
अब आगे पढे।।।

विश्व  में ऐसे कई  लोग हो चुके हैं  ,जिन्होंने अपने स्वार्थ  के लिए  खुद  को अवतार , सिद्ध ,संत और चमत्कारी व्यक्ति घोषित   कर   दिया था  . और  लोगों  को अपने बारे में ऎसी   बाते  फैलायी जिस से लोग   उनके अनुयायी हो  जाएँ ,लेकिन देखा गया है  कि  भोले भले लोग पहले तो   ऐसे  पाखंडियों    के   जाल  में फस   जाते  हैं   और उनकी संख्या   भी   बड़ी   हो   जाती  है  ,लेकिन   जब  उस  पाखंडी का  भंडा फूट   जाता है तो उसके  सारे  साथी ,यहाँ तक पत्नी  भी  मुंह  मोड़  लेती   है  . शायद ऐसा ही मुहम्मद साहब  के साथ  हुआ था  . मुहम्मद साहब ने भी खुद को अल्लाह  का रसूल  बता  कर  और  लोगों  को  जिहाद में मिलने  वाले  लूट  का माल  और औरतों   का  लालच  दिखा  कर  मूसलमान   बना   लिया  था  ,उस समय  हरेक ऐरागैरा   उनका  सहाबा  यानी  companion बन  गया  था ,लेकिन  जब  मुहम्मद   मरे तो उनके जनाजे में एक   भी  सहाबा  नही  गया , यहाँ तक  उनके ससुर  यानी  आयशा  के बाप  को  यह  भी  पता नहीं  चला   कि  रसूल  कब मरे ? किसने उनको दफ़न   किया  और उनकी  कबर कहाँ  थी ,जो  मुसलमान  सहाबा को रसूल सच्चा  अनुयायी   बताते हैं  , वह  यह  भी नही जानते थे कि रसूल  की  कब्र   खुली   पड़ी  रही   . वास्तव में  मुहम्मद साहब  सामान्य  मौत  से  नहीं ,बल्कि  खुद को  रसूल साबित   करने   की शर्त   के  कारण  मरे  थे  , जिस में वह  झूठे  साबित  निकले  और  लोग उनका साथ  छोड़ कर भाग  गए  . इस लेख में शिया  और सुन्नी किताबों  से  प्रमाण  लेकर  जो तथ्य  दिए गए हैं उन से इस्लाम और रसूलियत का असली  रूप  प्रकट  हो  जायेगा  

अबू हुरैरा ने कहा कि खैबर विजय  के बाद   कुछ  यहूदी  रसूल से  बहस   कर रहे थे ,उन्होंने एक  भेड़  पकायी जिसमे  जहर मिला  हुआ था ,   रसूल  ने पूछ   क्या तुम्हें  जहम्मम की आग से  डर  नहीं लगता  , यहूदी   बोले नही , क्योंकि  हम केवल थोड़े   दिन  ही  वहाँ  रखे   जायेंगे ,रसूल ने पूछा    हम कैसे माने कि तुम  सच्चे   हो  , यहूदी   बोले  हम जानना   चाहते कि तुम  सच्चे  हो या झूठे  हो , इस गोश्त में जहर  है  यदि  तुम सच्चे   नबी होगे  तो  तुम  पर जहर  का असर  नही होगा  , और अगर तुम झूठ होगे   तो  मर जाओगे  .
सही बुखारी  -जिल्द 4 किताब 53 हदीस 394

2-रसूल  की मौत का संकेत  

इब्ने  अब्बास  ने कहा कि  जब रसूल  सूरा नस्र 110 :1  पढ़ रहे थे , तो उनकी  जीभ लड़खड़ा रही  थी ,उमर  ने  कहा कि  यह रसूल  की मौत का संकेत  है ,अब्दुर रहमान ऑफ ने  कहा  मुझे  भी ऐसा प्रतीत  होता   है  कि यह रसूल कि  मौत  का संकेत   है।।सही बुखारी -जिल्द 5 किताब 59 हदीस 713 
3-कष्टदायी  मौत 
आयशा ने   कहा कि  जब  रसूल  की  हालत   काफी  ख़राब   हो  गयी थी  ,तो मरने से  पहले  उन्होंने   कहा  था  ,कि  मैने  खैबर  में   जो  खाना  खाया था  ,उसमे   जहर  मिला था   , जिस से  काफी  कष्ट   हो रहा  है  ,ऐसा  लगता  है  कि मेरे  गले की  धमनी   कट  गयी   हो 
सही बुखारी -जिल्द 5 किताब 59 हदीस 713 

4-रसूल के साथियों   की  संख्या 
मुहम्मद साहब  के साथियों  को "सहाबा -الصحابة " यानी Companions  कहा  जाता है , सुन्नी  मान्यता  के अनुसार  यदि  जो भी व्यक्ति  जीवन भर में एक बार रसूल   को  देख  लेता  था  ,उसे  भी सहाबा  मान  लिया  जाता  था , मुहम्मद  साहब   की मृत्यु   के  समय मदीना  में ऐसे कई सहाबा  मौजूद थे ,इस्लामी  विद्वान्  "इब्ने हजर अस्कलानी -ने  अपनी  किताब "अल इसाबा  फी तमीजे असहाबा  में  सहाबा  की   संख्या 12466  बतायी  है ,यानी  मुहम्मद  साहब    जब मरे तो  मदीना  में इतने  सहाबा  मौजूद  थे .जो सभी  मुसलमान  थे
5-रसूल के सहाबी स्वार्थी थे 

मुहम्मद  साहब अपने जिन   सहाबियों   पर भरोसा  करते थे वह  स्वार्थी  थे  और  लूट  के लालच  में मुसलमान  बने थे , उन्हें  इस्लाम में  कोई रूचि  नहीं  थी ,वह सोचते  थे  कि  कब रसूल  मरें  और  हम  फिर से   पुराने धर्म   को अपना  ले ,यह बात  कई  हदीसों   में   दी  गयी   है , जैसे ,
 इब्ने    मुसैब  ने कहा  अधिकाँश  सहाबा   आपके बाद  काफिर  हो  जायेंगे ,और इस्लाम छोड़  देंगे "
सही बुखारी - जिल्द 8  किताब 76 हदीस 586

 अबू हुरैरा  ने  कहा कि रसूल   ने  बताया   मेरे  बाद यह सहाबा इस्लाम  से विमुख  हो  जायेंगे और बिना चरवाहे  के ऊंट  की तरह  हो  जायंगे

सही बुखारी - जिल्द 8  किताब76  हदीस 587

 असमा बिन्त अबू  बकर  ने रसूल  को  बताया  कि अल्लाह  की कसम  है , आपके बाद  यह सहाबा सरपट  दौड़  कर इस्लाम  से  निकल  जायंगे 
सही बुखारी - जिल्द 8  किताब 76  हदीस 592

 उक़बा बिन अमीर  ने  कहा  कि रसूल  ने  कहा  मुझे इस  बात   की चिंता  नहीं  कि मेरे  बाद  यह  लोग  मुश्रिक   हो जायेंगे ,मुझे तो इस  बात  का डर  है  कि यह  लोग दुनिया   की संपत्ति  की  लालच   में   पड़  जायंगे 
सही बुखारी - जिल्द  4 किताब 56 हदीस 79

6-सभी सहाबी काफिर  हो  गए 

सहाबा   केवल जिहाद   में मिलने  वाले लूट  के  माल  के  लालच  में  मुसलमान  बने  थे ,जब  मुहम्मद  मर गए तो उनको लगा कि अब  लूट का  माल  नहीं मिलगा  , इसलिए वह इस्लाम  का चक्कर छोड़   कर  फिर  से पुराने  धर्म   में लौट  गए ,यह बात शिया  हदीस  रज्जल कशी में   इस तरह    बयान  की  गयी  है  " रसूल  की  मौत  के बाद  सहाबा   सहित सभी   लोग  काफिर  हो  गए  थे ,सिवाय सलमान फ़ारसी ,मिक़दाद और  अबू जर   के ,  लोगों  ने  कहा   कि  हमने सोच  रखा था  अगर  रसूल  मर गए  या उनकी  हत्या   हो  गयी  तो  हम इस्लाम  से   फिर  जायेंगे
7-मौत  के बाद राजनीति 
इतिहाकारों  के  अनुसार मुहम्मद साहब  की मौत 8  जून  सन 632  को  हुई  थी, खबर  मिलते  ही  मदीना  के अन्सार  एक  छत(Shed) के  नीचे  जमा  हो  गए , जिसे "सकीफ़ा -   कहा  जाता   है ,उसी  समय  अबू बकर  ने मदीना  के   जिन कबीले  के सरदारों   को बुला   लिया  था ,उनके  नाम  यह  हैं , 1 . बनू औस - 2 . बनू खजरज -"3 .  अन्सार 4 .  मुहाजिर -:और 5 . बनू सायदा . और अबू बकर खुद को  खलीफा   बनाने  के लिए    इन लोगों से समर्थन    प्राप्त  करने   में   व्यस्त   हो  गए ,लेकिन   जो लोग अली  के समर्थक थे   वह उनका  विरोध  करने  लगे  , इस से अबू बकर को   मुहम्मद  साहब   को दफ़न  करवाने   का    ध्यान    नहीं  रहा    .  और अंसारों   ने  खुद उनको  दफ़न  कर  दिया  . उसी  दिन  से शिआ  सुन्नी    अलग   हो  गए

8-अबू बकर मौत से अनजान 

अबू बकर  अपनी   खिलाफत  की गद्दी  बचाने में इतने व्यस्त थे कि उनको इतना भी  होश  नहीं था  ,कि रसूल  कब मरे थे , और उनको कब दफ़न    किया  गया था  . यह  बात इस हदीस  से  पता  चलती  है , हिशाम  के  पिता ने  कहा  कि आयशा  ने  बताया जब  अबूबकर घर  आये तो , पूछा   , रसूल  कब मरे  और उन  ने  कौन से  कपडे  पहने हुए थे , आयशा ने  कहा  सोमवार   को , और सिर्फ  सफ़ेद सुहेलिया  पहने  हुए थे ,  ऊपर  कोई कमीज   और पगड़ी भी  नहीं थी , अबू बकर ने पूछा आज  कौन सा दिन   है  . आयशा बोली  मंगल  ,आयशा  ने पूछा   क्या  उनको  नए  कपडे  पहिना  दें  . ? अबू बकर बोले  नए कपड़े  ज़िंदा    लोग पहिनते  हैं  , यह  तो  मर  चुके  हैं  , और इनको  मरे  एक  दिन  हो  गया  . अब यह एक बेजान  लाश   है।।सही बुखारी -जिल्द 2 किताब 23 हदीस 469

विचार करने की  बात  है  कि अगर अबू बकर रसूल  के दफ़न  के समय मौजूद   थे ,तो उनको रसूल के कपड़ों  और  दफन करने वालों    के बारे में  सवाल  करने की    क्या  जरूरत    थी ? वास्तव   में अबू बकर  जानबूझ   कर  दफ़न    में नहीं   गए ,   यह  बात  कई सुन्नी  हदीसों   में   मौजूद   हैं 
9-अबूबकर और उमर  अनुपस्थित 

ऎसी   ही एक हदीस है  ", इब्ने नुमैर  ने   कहा  मेरे पिता उरवा ने बताया कि अबू बकर और उमर  रसूल के जनाजे में  नही  गए ,रसूल  को अंसारों  ने दफ़न    किया  था   . और जब अबू  बकर और उमर उस  जगह  गए  थे तब तक अन्सार  रसूल  को दफ़न  कर के  जा चुके थे इन्होने रसूल  का जनाजा नहीं  देखा 
10-आयशा दफ़न से अनजान  थी 

मुसलमानों के लिए इस से   बड़ी शर्म  की  बात  और कौन सी  होगी कि   रसूल  कि प्यारी पत्नी आयशा  को  भी रसूल  के दफ़न  की  जानकारी  नही थी   , इमाम अब्दुल बर्र  ने अपनी  किताब  इस्तियाब  में  लिखा है "आयशा  ने  कहा मुझे पता  नहीं कि रसूल  को कब और कहाँ दफ़न  किया गया , मुझे तो बुधवार  के सवेरे उस  वक्त  पता  चला  ,जब रात को कुदालों   की आवाजे  हो रही थी.

11-रसूल  के दफ़न  में लापरवाही 
अनस बिन  मलिक  ने कहा  कि  जब रसूल  की बेटी फातिमा   को रसूल  की कब्र  बतायी  गयी  तो उसने  देखा  कि कब्र  खुली  हुई  है ,तब फातिमा ने  अनस  से   कहा  तुम मेहरबानी  कर  के  कब्र  पर  मिट्टी   डाल  दो  .

सही  बुखारी -जिल्द 5 किताब 59  हदीस 739

इन सभी तथ्यों  से  यही निष्कर्ष  निकलते  हैं  कि ,खुद को अवतार ,सिद्ध  बताने वाले और झूठे  दावे करने वाले खुद ही अपने  जाल  में फस कर मुहम्मद  साहब    की  तरह कष्टदायी  मौत  मरते   हैं ,और जब ऐसे फर्जी   नबियों  और रसूलों   की  पोल खुल  जाती  है  ,तो उनके  मतलबी  साथी ,रिश्तेदार  ,यहाँ  तक  पत्नी   भी साथ  नहीं    देती   . यही  नहीं   किसी   भी धर्म  के  अनुयाइयो    की अधिक  संख्या   हो  जाने  पर  वह  धर्म  सच्चा  नहीं    माना  जा  सकता   है ,झूठ और पाखण्ड   का   एक न एक दिन  ईसी  तरह  रहष्य ख़त्म हो    जाता   है  . केवल हमें सावधान  रहने   की  जरूरत   है।

जय हिन्द
मनमोहन हिन्दू
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