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Wednesday, June 8, 2016

जब एक विदेशी आक्रमणकारी ने हिन्दू धर्म अपनाकर ‘भगवा पताका’ थाम ली थी- सिथियन या शाक्य

जब एक विदेशी आक्रमणकारी ने हिन्दू धर्म अपनाकर ‘भगवा पताका’ थाम ली थी

उत्तर मौर्य काल में उपमहाद्वीप के कई बार एक साथ मध्य एशिया के जनजातीय घुसपैठ के परिणामस्वरूप उत्तर पश्चिम और पश्चिम मध्य भागों में कई विदेशी वंश के शासक भारत आए। इन आक्रमणों व पलायनों के लगातार क्रम ने ने धीरे धीरे उत्तर पश्चिम के चरित्र को एक सांस्कृतिक चौराहे में तब्दील कर दिया जहाँ मध्य भारत के लोगों और प्रभावों ने भारतीय उपमहाद्वीप से मिलकर सनातन धर्म की पताका तले एक बहुलतावादी समाज का निर्माण किया।
शकों का मूल स्थान : सिथियन या शाक्य
अगर हम इन सब तथ्यों के प्रमाण ढूंढते हैं तो हम पाते हैं कि, ये सभी अपने शिलालेखों तथा अपनी मुद्राओं के लिए जाने जाते हैं जिनमें पुरातात्विक साधनों से मिलीं आरंभिक मुद्राएँ हैं जिनका निर्माण स्वर्ण धातुओं से हुआ था। प्राचीन भारतीय राजाओं के लिए ये सिक्के ना ही मात्र विनिमय का साधन थे बल्कि इससे उन्हें अपनी पहचान सुगम बनाने में भी सहायता मिलती थी।
उत्तर पश्चिम से भारत आये आक्रमणकारियों में जो मुख्य नाम आता है वह था सिथियन या शाक्य का जिन्हें अंग्रेजी में ‘शक’ भी कहा जाता है । धर्मशास्त्रों में उनका वर्णन व्रत्य क्षत्रिय या निम्न क्षत्रिय के रूप में किया गया है, यह सत्ता में आयी एक विदेशी ताकत का देशी समाज में समायोजन का प्रयत्न था।
शाक्य वंश की विभिन्न शाखाओं ने उत्तर और मध्य भारत के विभिन्न भागों में आक्रमण किया था व सनातन धर्मियों से भी संबंध बनाये थे। शाक्यों की सबसे लंबी उपस्थिति मालवा प्रांत में मानी जाती है। इसी वंश का सबसे लोकप्रिय और महान शासक था क्षत्रापास कार्दमका परिवार का रूद्रदमन (481 ई .पू है.) जिसने भारत आकर ‘सनातन धर्म’ अपना लिया था और अपना आधिपत्य मालवा के अलावा सौराष्ट्र, काठियावाड, कोंकण और सिंध तक फैलाकर सनातन परंपरा का मान बढाया।
दक्षिण के सातवाहनों से भी रूद्रदमन काफी वर्षों तक उलझा रहा था। इसके बारे में सातवाहन के नासिक अभिलेख और रूद्रदमन का जूनागढ अभिलेख दोनों ही बताते हैं। उल्लेखनीय रूप से रूद्रदमन का अभिलेख शुद्ध संस्कृत में लिखा पहला लंबा आरंभिक भारतीय अभिलेख है। यह ध्यान में रखते हुए कि रूद्रदमन एक शाक्य था, उसके द्वारा प्रदेश की भाषा संस्कृत का प्रयोग संकेत देता है कि उसने स्थानीय परंपराओं से तादात्म्य स्थापित करने की कोशिश की और अपनी शक्ति को वैध बनाने का प्रयत्न भी किया।
दक्षिण-पश्चिम के क्षत्रप शासकों में रुद्रदमन् का नाम विशेषतया उल्लेखनीय है। इन शासकों के वैदेशिक होने में संदेह नहीं है, पर रुद्रदमन्, रुद्रसेन, विजयसेन आदि नामों से प्रतीत होता है कि वे पूर्णतया भारतीय बन गए थे। इसकी पुष्टि उन लेखों से होती है जिनमें इनके द्वारा दिए गए दानों का उल्लेख है।
रुद्रदमन के गुजरात के जूनागढ़ में खुदवाये अभिलेख आज भी देखे जा सकते हैं। इस अभिलेख की एक विशेषता यह भी है कि रुद्रदमन के अभिलेख को ही संस्कृत भाषा का प्रथम शिलालेख माना जाता है। जूनागढ़ के शक संवत् ७२ के लेख से यह विदित होता है कि जनता ने अपनी रक्षा के लिए रुद्रदामन् को महाक्षत्रप पद पर आसीन किया।
रुद्रदमन ने जनता के अपने प्रति विश्वास का पूर्ण परिचय दिया व सनातन परंपरा को आगे बढाने के लिए प्रयत्नशील रहा, उसने अपने से पहले सनातन धर्मी राजाओं के बनवाये हुए स्थापत्य धरोहरों को पुनर्निर्मित करवाने के साथ ही संस्कृत भाषा को भी आगे बढाया। उसने अपने पितामह चष्टन के साथ संयुक्त रूप से राज्य किया था। इनका क्रमश: उल्लेख उसके जूनागढ़ के लेख में मिलता है।
जूनागढ़ अभिलेख में चन्द्रगुप्त मौर्य के शासनकाल में बनवाई गयी सुदर्शन झील का बाँध भीषण वर्षा के कारण टूट जाने का भी उल्लेख है जिसे रूद्रदमन ने सही करवाया था। इस बाँध की खासियत यह थी कि ये धरती का अपनी तरह का ऐसा पहला बाँध था।