Saturday, February 6, 2016

भारतीय शासक पोरस के हाँथों हुई थी “सिकंदर” की करारी हार,poros defeated Alexander

भारतीय शासक पोरस के हाँथों हुई थी “सिकंदर” की करारी हार
अलेक्जेंडर(सिकंदर) को विश्वविजेता कहने में हम भारतीय यूनानियों और यूरोपियंस से भी आगे हैं।भारतीय इतिहासकारों की वैचारिक परतंत्रता और आलस्य ने बिना सोचे-समझे उसी यूनानी इतिहास को छाप लिया जिसमें सिकंदर काल्पनिक रूप से पुरु को हराता है। जबकि सत्य यह था की सम्राट पोरस ने सिकंदर को युद्ध में बुरी तरह हराया था,बहुत से यूनानी ग्रंथों में इसके साक्ष्य और प्रमाण मौजूद हैं।इस झूँठ के व्यापक प्रभाव ही है की “जो जीता वही सिकंदर” मुहावरे का उपयोग हम विजेता के लिए करते हैं। क्या ये हमारे लिए शर्म की बात है की हमने एक महान नीतिज्ञ,दूरदर्शी,शक्तिशाली वीर विजयी राजा पोरस को निर्बल और पराजित राजा बना दिया?
जाने कितने दिनों से हम अपने बच्चों को इतिहास की पुस्तकों में ये झूँठ पढ़ाते आ रहे हैं कि “सिकन्दर ने पौरस को बंदी बना लिया था। उसके बाद जब सिकन्दर ने उससे पूछा कि उसके साथ कैसा व्यवहार किया जाय तो पौरस ने कहा कि उसके साथ वही किया जाय जो एक राजा के साथ किया जाता है अर्थात मृत्यु-दण्ड। सिकन्दर इस बात से इतना अधिक प्रभावित हो गया कि उसने वो कार्य कर दिया जो अपने जीवन भर में उसने कभी नहीं किए थे। उसने अपने जीवन के एक मात्र ध्येय,अपना सबसे बड़ा सपना विश्व-विजेता बनने का सपना तोड़ दिया और पौरस को पुरस्कार-स्वरुप अपने जीते हुए कुछ राज्य तथा धन-सम्पत्ति प्रदान किए.तथा वापस लौटने का निश्चय किया और लौटने के क्रम में ही उसकी मृत्यु हो गई। “
https://youtu.be/gXLoPnYqDAU

साल 2004 में रिलीज हुई ग्रीस फिल्मकार ओलिवर स्टोन की फिल्म “अलेक्जेंडर” में  सिकन्दर की भारत में हार को स्वीकारा गया है। फिल्म में दिखाया गया है कि एक तीर सिकन्दर की  भेद देती है और इससे पहले कि वो शत्रु के हत्थे चढ़ता उससे पहले उसके सहयोगी उसे ले भागते हैं। इस फिल्म में साफ़-साफ़ कहा गया है की ये सिकंदर के जीवन की सबसे भयानक त्रासदी थी,और अंततः भारतीयों ने उसे तथा उसकी सेना को पीछे लौटने के लिए मजबूर कर दिया।

 Why did Alexander retreat even after breaking India’s fence?
People say that – When Alexander struggled to defeat a small Indian king, he decided not to campaign against the mighty ruler of Magadha – Dhana Nandha who was abot 100 times powerful than Porus.
This may be true. But, there is also a possibility that he didn’t defeat Porus at all and retreated back.

आश्चर्य है की हमारे इतिहासकारों ने कैसे पश्चिम के ‘इतिहासकारों’ के पक्षपातपूर्ण लेखन को स्वीकार लिया। क्या ये हमारे मुंह पर तमाचा नहीं है की ग्रीक फिल्मकार और इतिहासकार ‘सिकंदर’ की हार को स्वीकार रहे हैं और हम उसे ‘महान’ विश्वविजेता कहते हैं? महत्त्वपूर्ण बात ये है कि सिकन्दर को सिर्फ विश्वविजेता ही नहीं बल्कि महान की उपाधि भी प्रदान की गई है और ये बताया जाता है कि सिकन्दर बहुत बड़ा हृदय वाला दयालु राजा था ताकि उसे महान घोषित किया जा सके क्योंकि सिर्फ लड़ कर लाखों लोगों का खून बहाकर एक विश्व-विजेता को “महान” की उपाधि नहीं दी सकती। उसके अंदर मानवता के गुण भी होने चाहिए। इसलिए ये भी घोषित कर दिया गया कि सिकन्दर विशाल हृदय वाला एक महान व्यक्ति था। पर उसे महान घोषित करने के पीछे एक बहुत बड़ा उद्देश्य छुपा हुआ है और वो उद्देश्य है सिकन्दर की पौरस पर विजय को सिद्ध करना। क्योंकि यहाँ पर सिकन्दर की पौरस पर विजय को तभी सिद्ध किया जा सकता है जब यह सिद्ध हो जाय कि सिकन्दर विशाल हृदय वाला महान शासक था। 
झेलम तट पर हारा था सिकंदर –
जब सिकन्दर ने सिन्धु नदी पार किया तो भारत में उत्तरी क्षेत्र में तीन राज्य थे-झेलम नदी के चारों ओर राजा अम्भि का शासन था। पौरस का राज्य चेनाब नदी से लगे हुए क्षेत्रों पर था। तीसरा राज्य अभिसार था जो कश्मीरी क्षेत्र में था। अम्भि का पौरस से पुराना बैर था इसलिए सिकन्दर के आगमण से अम्भि खुश हो गया और अपनी शत्रुता निकालने का उपयुक्त अवसर समझा। अभिसार की सेना ने उदासीन रवैया अपना लिया और इस तरह पौरस ने अकेले ही सिकन्दर तथा अम्भि की मिली-जुली सेना का सामना किया। “प्लूटार्च” के अनुसार सिकन्दर की बीस हजार पैदल सैनिक तथा पन्द्रह हजार अश्व सैनिक पौरस की युद्ध क्षेत्र में एकत्र की गई सेना से कई गुना अधिक थी। सिकन्दर की सहायता ईरानी सैनिकों ने भी की। इस युद्ध के शुरु होते ही पौरस ने अपने सैनिकों को ‘भयंकर रक्त-पात’ का आदेश दे दिया । उसके बाद पौरस के सैनिकों तथा हाथियों ने रणक्षेत्र में ऐसा तांडव मचाया कि सिकन्दर तथा उसके सैनिकों के सर पर चढ़े विश्वविजेता का भूत उतर गया।

    “यूनानी हिस्टोरियन कर्टियस के शब्दों में “पोरस के हाँथियों की तुर्यवादक ध्वनि से होने वाली भीषण चीत्कार न केवल सिकंदर के घोड़ों को भयातुर कर देती थी जिससे वे बिगड़कर भाग उठते थे। इन पशुओं ने ऐसी भगदड़ मचायी कि ‘विश्वविजयी’ कहलाने वाले अलेक्जेंडर के योद्धा शरण के लिए जगह ढूँढने लग गए थे। उन पशुओं ने कईयों को अपने पैरों तले रौंद डाला और सबसे हृदयविदारक दृश्य वो होता था जब ये स्थूल-चर्म पशु अपनी सूँड़ से यूनानी सैनिक को पकड़ कर चारों और बुरी तरह घुमा-घुमाकर अपने आरोही के हाथों सौंप देता था। जो तुरन्त उसका सर धड़ से अलग कर देता था। “

 इसी तरह का वर्णन “डियोडरस” ने भी किया है “पोरस के विशाल हाथियों में अपार बल था और वे युद्ध में अत्यन्त लाभकारी सिद्ध हुए। उन्होंने अपने पैरों तले बहुत सारे यूनानी सैनिकों की हड्डी-पसली चूर-चूर कर दी। हाँथी इन सैनिकों को अपनी सूँड़ों से पकड़ लेते थे और जमीन पर जोर से पटक देते थे। और अपने विकराल गज-दन्तों से सिकंदर के सैनिकों को गोद-गोद कर मार डालते थे। “
"अब विचार करिए कि डियोडरस का ये कहना कि उन हाथियों में अपार बल था और वे अत्यन्त लाभकारी सिद्ध हुए. क्या सिद्ध करता है? फिर “कर्टियस” द्वारा कहना कि इन पशुओं ने आतंक मचा दिया था क्या सिद्ध करता है? अफसोस की ही बात है कि इस तरह के वर्णन होते हुए भी लोग यह दावा करते हैं कि पौरस को पकड़ लिया गया और उसके सेना को शस्त्र त्याग करने पड़े। और पुष्टि के लिए इस युद्ध के सन्दर्भ में एक और पश्चिमी इतिहासकार का वर्णन पढ़िए"
“झेलम के युद्ध में सिकन्दर की अश्व-सेना का अधिकांश भाग मारा गया था। सिकन्दर ने अनुभव कर लिया कि यदि अब लड़ाई जारी रखूँगा तो पूर्ण रुप से अपना नाश कर लूँगा। अतः सिकन्दर ने पोरस से शांति की प्रार्थना की “श्रीमान पोरस मैंने आपकी वीरता और सामर्थ्य स्वीकार कर ली है,मैं नहीं चाहता कि मेरे सारे सैनिक अकाल ही काल के गाल में समा जाय। मैं इनका अपराधी हूँ,और भारतीय परम्परा के अनुसार ही पोरस ने शरणागत शत्रु का वध नहीं किया। ” – ई.ए. डब्ल्यू. बैज(इतिहासकार)
ये बातें किसी भारतीय द्वारा नहीं बल्कि एक विदेशी द्वारा कही गई है। सिकन्दर अपना राज्य उसे क्या देगा वो तो पोरस को भारत के जीते हुए प्रदेश उसे लौटाने के लिए विवश था जो छोटे-मोटे प्रदेश उसने पोरस से युद्ध से पहले जीते थे (जीते भी थे या ये भी यूनानियों द्वारा गढ़ी कहानियाँ हैं)। इसके बाद पोरस ने सिकंदर को उत्तर मार्ग से जाने की अनुमति नहीं दी। विवश होकर सिकन्दर को उस खूँखार जन-जाति के कबीले वाले रास्ते से जाना पड़ा जिससे होकर जाते-जाते सिकन्दर इतना घायल हो गया कि अंत में उसे प्राण ही त्यागने पड़े। इसका कुछ स्पष्टीकरण यूनानी इतिहासकार ही करते हैं।
“मलावी नामक भारतीय जनजाति बहुत खूँखार थी। इनके हाथों सिकन्दर के टुकड़े-टुकड़े होने वाले थे लेकिन तब तक प्यूसेस्तस और लिम्नेयस आगे आ गए। इसमें से एक तो मार ही डाला गया और दूसरा गम्भीर रुप से घायल हो गया। तब तक सिकन्दर के अंगरक्षक उसे सुरक्षित स्थान पर लेते गए।” – प्लूटार्च (यूनानी इतिहासकार)
स्पष्ट है कि पोरस के साथ युद्ध में तो इनलोगों का मनोबल टूट चुका था फिर रही-सही कसर इन जनजातियों ने पूरी कर दी थी। अब सिकंदर के सैनिकों के भीतर इतना मनोबल भी नहीं ही बचा था की वे समुद्र मार्ग से भाग सकें। स्थल मार्ग के खतरे को देखते हुए सिकन्दर ने समुद्र मार्ग से जाने का सोचा और उसके अनुसंधान कार्य के लिए एक सैनिक टुकड़ी भेज भी दी पर उनलोगों में इतना भी उत्साह शेष ना रह गया था। अंततः वे बलुचिस्तान के रास्ते ही वापस लौट पाए।
इस तरह ‘विश्वविजेता’ का घमंड चूर-चूर हो गया। आज भी झेलम के तट की लहरों से आवाज आती है :-“यूनान का सिकंदर झेलम तट पे हारा”

Wednesday, February 3, 2016

24,000 पाकिस्तानी मदरसों की वहाबी फंडिंग कर रहा सऊदी अरब

"पैसों की सुनामी" लाकर सउदी अरब "असहिष्णुता का निर्यात" कर रहा है और पाकिस्तान में लगभग 24,000 'मदरसों' की फंडिंग कर रहा है. यह जानकारी देते हुए एक शीर्ष अमेरिकी सीनेटर ने कहा कि अमेरिका को कट्टरपंथी इस्लामवादियों के सउदी अरब द्वारा प्रायोजन किए जाने पर अपनी मौन स्वीकृति को समाप्त करने की जरूरत है.

शुक्रवार को एक शीर्ष अमेरिकन थिंक टैंक काउंसिल ऑन फॉरेन रिलेशंस को संबोधित करते हुए अमेरिकी सीनेटर क्रिस मर्फी ने कहा कि पाकिस्तान इसका सबसे अच्छा उदाहरण है जहां सउदी अरब से आने वाली रकम को घृणा और आतंकवाद का पाठ पढ़ाने वाले धार्मिक स्कूलों में भेज दिया जाता है.

उन्होंने कहा, "1956 में पाकिस्तान में 244 मदरसे थे. आज इनकी संख्या 24,000 हो गई है. यह मदरसे पूरी दुनिया में तेजी से बढ़ रहे हैं. मोटे तौर पर इन स्कूलों में हिंसा नहीं सिखाई जाती है.

1956 में पाकिस्तान में 244 मदरसे थे. आज इनकी संख्या 24,000 हो गई है

ये अल-कायदा या आईएसआईएस के छोटे केंद्र नहीं हैं. लेकिन ये इस्लाम का ऐसा संस्करण पढ़ाते हैं जो बहुत आसानी से शिया विरोध और पश्चिम विरोधी आतंकवाद में बदल जाता है.

मर्फी बोले, "पाकिस्तान के उन 24,000 धार्मिक स्कूलों में से हजारों की फंडिंग सऊदी अरब से आई रकम से की जा रही है." कुछ अनुमानों के मुताबिक 1960 के दशक के बाद से सउदी अरब ने कट्टरपंथी वहाबी इस्लाम के दुनिया भर में कड़े प्रसार के मिशन के साथ ऐसे स्कूलों और मस्जिदों में 6,80,000 करोड़ रुपये से ज्यादा लगा दिए हैं.

तुलनात्मक रूप में शोधकर्ताओं ने अनुमान लगाया है कि पूर्व सोवियत संघ ने 1920 से लेकर 1991 तक साम्यवादी विचारधारा के प्रसार के लिए 47,600 करोड़ रुपये खर्च किए थे. मर्फी ने कहा, "सउदी अरब के साथ हमारे गठबंधन के सभी सकारात्मक पहलुओं के अलावा एक असुविधाजनक सच भी है. वो यह कि सउदी अरब का एक दूसरा पहलू भी है जिसकी अनदेखी अब हम बर्दाश्त नहीं सकते हैं क्योंकि इस्लामी उग्रवाद के खिलाफ हमारी लड़ाई ज्यादा केंद्रित और अधिक जटिल हो चुकी है.

उन्होंने यह भी कहा, "अमेरिका को यमन में सऊदी अरब के सैन्य अभियान को रोक देना चाहिए. वो भी जब तक हमें यह आश्वासन नहीं मिलता कि यह अभियान आईएस और अलकायदा के खिलाफ लड़ाई के अलावा किसी और उद्देश्य के लिए नहीं चलाया जा रहा."

2016 में यूरोप पर होगा बड़ा मुस्लिम आक्रमणः बाबा वैंगा की भविष्यवाणी

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  • नास्त्रेदमस की परंपरा में एक और भविष्यवक्ता का नाम सामने आया है वांजेलिया पांडेवा डिमित्रोवा का. इस नेत्रहीन बुल्गारियाई भविष्यदृष्टा को बाबा वैंगा के नाम से भी जाना जाता है. इनकी कुछ बड़ी भविष्यवाणियों में एक यह भी है कि 2016 में यूरोप पर विशाल मुस्लिम आक्रमण होगा.
  • अपनी मौत के बाद की भी हजारों भविष्यवाणियां करने वाली वैंगा की 1996 में मृत्यु हो चुकी है. लेकिन उनके द्वारा की गई सबसे बड़ी वैश्विक आपदाओं की भविष्यवाणियों में से 2004 की सुनामी और 9/11 हमले को देखे जा चुका है.

अविश्वासी औऱ नास्तिक लोगों का ध्यान भविष्यवाणी जैसी चीजों पर शायद न जाय. अगर बात किसी ज्योतिष की हो तो फिर इसकी संभावना एकदम खत्म हो जाती है. अगर आप तर्क संगत तरीके से सोचते हैं और प्लूटो के चश्में से दुनिया के भविष्य की कल्पना करते हैं तो यह आपको समझ नहीं आएगा.

हां, हम सभी को बचपन से ही बताया गया है कि फ्रांसीसी भविष्यवक्ता नास्त्रेदमस ने हिटलर, नेपोलियन समेत तमाम बड़ी हस्तियों के उदय की सही-सही भविष्यवाणी कर दी थी. 

और इस सप्ताह हफिंगटन पोस्ट द्वारा बताया जा रहा है कि नास्त्रेदमस की एक उत्तराधिकारी वांजेलिया पांडेवा डिमित्रोवा नाम की महिला हैं. इन नेत्रहीन बुल्गारियाई भविष्यदृष्टा को बाबा वैंगा के नाम से भी जाना जाता है जिन्होंने 10 भयानक भविष्यवाणियां की हैं. इनमें 2016 में यूरोप में होने वाले विशाल मुस्लिम आक्रमण की भविष्यवाणी भी शामिल है. 

कौन थीं (स्वर्गीय) बाबा वैंगा?

यह ऐसी कहानी है जिसपर संभवत: बॉलीवुड में लोगों ने काम करना शुरू कर दिया गया होगा. 

स्थानीय किंवदंती है कि बाबा वैंगा या बाल्कन की नास्त्रेदमस ने पहली बार भविष्य देखने की क्षमता तब प्राप्त की थी जब 12 साल की उम्र में एक भयानक तूफान में उसकी आंखों की रोशनी चली गई थी.

16 साल की उम्र में ही उसने भविष्यवाणी करनी शुरू कर दी और "30 साल की उम्र पूरी होने पर पहले से ही जानने की उसकी शक्तियां और मजबूत हो गईं."

1952 की शरद ऋतु में यह महिला भविष्यवक्ता काफी मुसीबत में पड़ गई जब उसने कहा कि जोसेफ स्टालिन को पाताल लोक में जाना होगा. इस भविष्यवाणी के परिणामस्वरूप उसे जेल में बंद कर दिया गया, हालांकि वो जल्द ही बाहर आ गईं. 

वर्ष 1967 में उन्हें 'सरकारी अधिकारी' के रूप में नियुक्त किया गया बावजूद इसके कि कम्युनिस्ट शासन में तमाम ऐसे लोग थे वेंगा बाबा को चुड़ैल समझते थे. कहानी यह भी है कि एक दिन हिटलर उनसे मिलने पहुंचा था लेकिन बाद में वो बहुत परेशान हो गया था. 

अपनी मौत के बाद की भी हजारों भविष्यवाणियां करने वाली वैंगा की अंततः 1996 में मृत्यु हो गई. लेकिन उनके द्वारा की गई सबसे बड़ी वैश्विक आपदाओं की भविष्यवाणियों के संदर्भ में 2004 की सुनामी और 9/11 हमले को देखा जाता है.

2016 में क्या हो सकता है?

अपनी मौत के 20 साल बाद यानी वर्ष 2016 की अपनी भविष्यवाणी के चलते बाबा वैंगा वापस खबरों में आ गई हैं. क्योंकि उन्होंने कहा था कि 2016 वो वर्ष होगा जब, "मुसलमानों द्वारा यूरोप पर आक्रमण किया जाएगा."

यूरोप और पश्चिम एशिया का राजनीतिक माहौल स्वाभाविक रूप से इस चिंता को बल दे रहा है. अप्रवासी संकट के चलते अभूतपूर्व रूप से यूरोप पर काफी दबाव है और विभिन्न देशों द्वारा इस मुद्दे पर अलग-अलग राय रखने के चलते इस संघ में दरारें फैलती जा रही हैं. 

तो निकट भविष्य के लिए वैंगा की अन्य प्रमुख भविष्यवाणी क्या हैं? इनमें 2018 में चीन दुनिया की सर्वोच्च 'महाशक्ति' बन जाएगा. उनके मुताबिक इसी साल एक अंतरिक्ष यान वीनस पर 'ऊर्जा के एक नए रूप' की खोज करेगा.

क्यों लोग इनसे आकर्षित नहीं हुए?

उन पर विश्वास करने वालों का दावा है कि वैंगा ने पिछले दशकों की कुछ प्रमुख वैश्विक घटनाओं की भविष्यवाणी की थीः

  • भारतीय प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी और राजीव गांधी की हत्या.
  • कुस्क परमाणु पनडुब्बी आपदा
  • ग्लोबल वॉर्मिंग
  • 9/11: "डरावना, भयावह! अमेरिकी भाइयों पर स्टील पक्षियों के द्वारा हमला किए जाने के बाद वह गिर जाएंगे."
  • 2004 की सुनामी: "एक विशाल लहर एक बड़े तट को घेर लेगी. जिसमें लोगों, कस्बों के साथ सबकुछ पानी के नीचे गायब हो जाएगा. सब कुछ सिर्फ बर्फ की तरह पिघल जाएगा."
  • एक "विशाल मुस्लिम युद्ध" 
  • बराक ओबामा का चुनाव: उन्होंने कहा था कि अमेरिका का 44वां राष्ट्रपति एक अफ्रीकी अमेरिकी होगा. उसने यह भी कहा कि वह आखिरी अमेरिकी राष्ट्रपति होगा. 
  • द्वितीय विश्व युद्ध
  • ज़ार बोरिस III की मृत्यु की तारीख
  • चेकोस्लोवाकिया का विघटन
  • सोवियत संघ का टूटना
  • यूगोस्लाविया का टूटना
  • पूर्व और पश्चिम जर्मनी का एकीकरण
  • बोरिस येल्तसिन का चुनाव
  • चेर्नोबिल आपदा
  • स्टालिन की मौत की तारीख
  • सीरिया में संघर्ष
  • क्रीमिया का अलग होना

US getting ready for war with China in 2020 WW3

US military buildup of 9 more Virginia class submarines, robotic boats, microdrones and more to counter China and Russia's military.
U.S. Secretary of Defense Ash Carter has revealed the existence of a program to develop a so-called "Arsenal Plane." Designed to back up fifth generation fighters such as the F-35 with a large number of conventional weapons, backing up the high-tech fighters with tried-and-true ordinance. The Arsenal Plane actually has its roots at sea. During the 1990s, there was an effort to create so-called "Arsenal Ships"— large boats packed with hundreds of missile silos that would rely on the targeting data of the rest of the fleet. The Arsenal Ship was never built, but four Ohio-class submarines were converted to carry 154 Tomahawk cruise missiles each, platforms now recognized as extremely important in Read More
The new plane would supplement the F-35 in places where the fighter-bomber is weak, particularly in weapons carrying capability.

Ash Carter, the Pentagon chief, said the US has ambitious plans for military spending on sophisticated weaponry for fiscal year 2017. “We’re making all these investments that you see in our defense budget that are specifically oriented towards checking the development of the Chinese military,” Carter said. To stave off China’s increasing military power, including its ship killing missiles and electronic warfare, the $582.7 billion defense budget request calls for major spending on cyber security, more firepower for submarines, new robotic boats and underwater vessels as well as new missile interceptors to be installed on American warships-Read More-




U.S. Ready to Counter China’s Military Buildup: Carter

Dan De Luce,Foreign Policy Magazine                       

Monday, February 1, 2016

Truth of panipat war,पानीपत के युद्धों का पूरा सच

पानीपत के युद्धों का पूरा सच

हरियाणा  प्रदेश पौराणिक एवं ऐतिहासिक दृष्टि से राष्ट्रीय स्तर पर बेहद गौरवमयी  एवं उल्लेखनीय स्थान रखता है। हरियाणा की माटी का कण-कण शौर्य, स्वाभिमान  और संघर्ष की कहानी बयां करता है। महाभारतकालीन ‘धर्म-यृद्ध’ भी हरियाणा  प्रदेश की पावन भूमि पर कुरूक्षेत्र के मैदान में लड़ा गया था और यहीं पर  भगवान श्रीकृष्ण ने अर्जुन को ‘गीता’ का उपदेश देकर पूरे विश्व को एक नई  दिशा दी थी। उसी प्रकार हरियाणा का पानीपत जिला भी पौराणिक एवं ऐतिहासिक  दृष्टि से राष्ट्रीय स्तर पर अपना विशिष्ट स्थान रखता है। महाभारत काल में  युद्ध को टालने के लिए भगवान श्रीकृष्ण ने शांतिदूत के रूप में पाण्डव  पुत्र युद्धिष्ठर के लिए जिन पाँच गाँवों को देने की माँग की थी, उनमें से  एक पानीपत था। ऐतिहासिक नजरिए से देखा जाए तो पानीपत के मैदान पर ऐसी तीन  ऐतिहासिक लड़ाईयां लड़ीं गईं, जिन्होंने पूरे देश की तकदीर और तस्वीर बदलकर  रख दी थी। पानीपत की तीसरी और अंतिम ऐतिहासिक लड़ाई 255 वर्ष पूर्व 14  जनवरी, 1761 को मराठा सेनापति सदाशिव राव भाऊ और अफगानी सेनानायक अहमदशाह  अब्दाली के बीच हुई थी। हालांकि इस लड़ाई में मराठों की बुरी तरह से हार हुई  थी, इसके बावजूद पूरा देश मराठों के शौर्य, स्वाभिमान और संघर्ष की  गौरवमयी ऐतिहासिक दास्तां को स्मरण एवं नमन करते हुए गर्व महसूस कर रहा है। 

इतिहास  के पटल पर पानीपत की तीनों लड़ाईयों ने अपनी अमिट छाप छोड़ी है। हर लड़ाई के  अंत में एक नए युग का सूत्रपात हुआ। पानीपत की पहली लड़ाई के उपरांत लोदी  वंश के अंत और मुगल साम्राज्य की नींव की कहानी लिखी गई। दूसरी लड़ाई के  उपरांत सूरवंश के अंत और मुगल साम्राज्य के सशक्तिकरण का इतिहास लिखा गया।  तीसरी लड़ाई ने मराठों को हार और अहमदशाह अब्दाली को इतिहास में सुनहरी  अक्षरों में अपना नाम लिखवाने का उपहार देने के साथ ही ईस्ट इण्डिया कंपनी  के प्रभुत्व की स्थापना भी की। पानीपत की हर लड़ाई हमें जहां भारतीय वीरों  के शौर्य, स्वाभिमान एवं संघर्ष से परिचित कराती है, वहीं आपसी फूट,  स्वार्थता और अदूरदर्शिता जैसी भारी भूलों के प्रति भी निरन्तर सचेत करती  है।

पानीपत की प्रथम लड़ाई

पानीपत  की पहली लड़ाई 21 अप्रैल, 1526 को पानीपत के मैदान में दिल्ली के सुल्तान  इब्राहीम लोदी और मुगल शासक बाबर के बीच हुई। इब्राहीम लोदी अपने पिता  सिकन्दर लोदी की नवम्बर, 1517 में मृत्यु के उपरांत दिल्ली के सिंहासन पर  विराजमान हुआ। इस दौरान देश अस्थिरता एवं अराजकता के दौर से गुजर रहा था और  आपसी मतभेदों एवं निजी स्वार्थों के चलते दिल्ली की सत्ता निरन्तर  प्रभावहीन होती चली जा रही थी। इन विपरीत परिस्थितियों ने अफगानी शासक बाबर  को भारत पर आक्रमण के लिए लालायित कर दिया। उसने 5 जनवरी, 1526 को अपनी  सेना सहित दिल्ली पर धावा बोलने के लिए अपने कदम आगे बढ़ा दिए। जब इसकी  सूचना सुल्तान इब्राहीम लोदी को मिली तो उसने बाबर को रोकने के लिए हिसार  के शेखदार हमीद खाँ को सेना सहित मैदान में भेजा। बाबर ने हमीद खाँ का  मुकाबला करने के लिए अपने पुत्र हुमायुं को भेज दिया। हुमायुं ने अपनी  सूझबूझ और ताकत के बलपर 25 फरवरी, 1526  को अंबाला में हमीद खाँ को पराजित कर दिया।
इस  जीत से उत्साहित होकर बाबर ने अपना सैन्य पड़ाव अंबाला के निकट शाहाबाद  मारकंडा में डाल दिया और जासूसांे के जरिए पता लगा लिया कि सुल्तान की तरफ  से दौलत खाँ लोदी सेना सहित उनकीं तरफ आ रहा है। बाबर ने दौलत खाँ लोदी का  मुकाबला करने के लिए सेना की एक टुकड़ी के साथ मेहंदी ख्वाजा को भेजा। इसमें  मेहंदी ख्वाजा की जीत हुई। इसके बाद बाबर ने सेना सहित सीधे दिल्ली का रूख  कर लिया। सूचना पाकर इब्राहिम लोदी भी भारी सेना के साथ बाबर की टक्कर  लेने के लिए चल पड़ा। दोनों योद्धा अपने भारी सैन्य बल के साथ पानीपत के  मैदान पर 21 अप्रैल, 1526 के दिन आमने-सामने आ डटे।

मुगल शासक बाबर
सैन्य  बल के मामले में सुल्तान इब्राहिम लोदी का पलड़ा भारी था। ‘बाबरनामा’ के  अनुसार बाबर की सेना में कुल 12,000 सैनिक शामिल थे। लेकिन, इतिहासकार मेजर  डेविड के अनुसार यह संख्या 10,000 और कर्नल हेग के मुताबिक 25,000 थी।  दूसरी तरफ, इब्राहिम की सेना में ‘बाबरनामा’ के अनुसार एक लाख सैनिक और एक  हजार हाथी शामिल थे। जबकि, जादुनाथ सरकार के मुताबिक 20,000 कुशल अश्वारोही  सैनिक, 20,000 साधारण अश्वारोही सैनिक, 30,000 पैदल सैनिक और 1,000 हाथी  सैनिक थे। बाबर की सेना में नवीनतम हथियार, तोपें और बंदूकें थीं। तोपें  गाड़ियों में रखकर युद्ध स्थल पर लाकर प्रयोग की जाती थीं। सभी सैनिक पूर्ण  रूप से कवच-युक्त एवं धनुष-बाण विद्या में एकदम निपुण थे। बाबर के कुशल  नेतृत्व, सूझबूझ और आग्नेयास्त्रों की ताकत आदि के सामने सुल्तान इब्राहिम  लोदी बेहद कमजोर थे। सुल्तान की सेना के प्रमुख हथियार तलवार, भाला, लाठी,  कुल्हाड़ी व धनुष-बाण आदि थे। हालांकि उनके पास विस्फोटक हथियार भी थे,  लेकिन, तोपों के सामने उनका कोई मुकाबला ही नहीं था। इससे गंभीर स्थिति यह  थी कि सुल्तान की सेना में एकजुटता का नितांत अभाव और सुल्तान की  अदूरदर्शिता  का अवगुण आड़े आ रहा था।
दोनों  तरफ से सुनियोजित तरीके से एक-दूसरे पर भयंकर आक्रमण हुए। सुल्तान की  रणनीतिक अकुशलता और बाबर की सूझबूझ भरी रणनीति ने युद्ध को अंतत: अंजाम तक  पहुंचा दिया। इस भीषण युद्ध में सुल्तान इब्राहिम लोदी व उसकी सेना मृत्यु  को प्राप्त हुई और बाबर के हिस्से में ऐतिहासिक जीत दर्ज हुई। इस लड़ाई के  उपरांत लोदी वंश का अंत और मुगल वंश का आगाज हुआ। इतिहासकार प्रो.  एस.एम.जाफर के अनुसार, “इस युद्ध से भारतीय इतिहास में एक नए युग का  आरंभ हुआ। लोदी वंश के स्थान पर मुगल वंश की स्थापना हुई। इस नए वंश ने समय  आने पर ऐसे प्रतिभाशाली तथा महान् शासकों को जन्म दिया, जिनकी छत्रछाया  में भारत ने असाधारण उन्नति एवं महानता प्राप्त की।”

पानीपत की दूसरी लड़ाई

पानीपत  की दूसरी लड़ाई 5 नवम्बर, 1556 को पानीपत के ऐतिहासिक मैदान पर ही शेरशाह  सूरी के वंशज और मुहम्मद आदिलशाह के मुख्य सेनापति हेमू तथा बाबर के वंशज अकबर के बीच लड़ी गई। इस लड़ाई के बाद भी एक नए युग की शुरूआत हुई और कई नए  अध्याय खुले। आदिलशाह शेरशाह सूरी वंश का अंतिम सम्राट था और ऐशोआराम से सम्पन्न था। लेकिन, उनका मुख्य सेनापति हेमू अत्यन्त वीर एवं समझदार था।  उसने अफगानी शासन को मजबूत करने के लिए 22 सफल लड़ाईयां लड़ी। इसी दौरान 26  जनवरी, 1556 को दिल्ली में मुगल सम्राट हुमायुं की मृत्यु हो गई। उस समय  उसके पुत्र अकबर की आयु मात्र 13 वर्ष थी। इसके बावजूद उनके सेनापति बैरम  खां ने अपने संरक्षण में शहजादे अकबर को दिल्ली दरबार के बादशाह की गद्दी  पर बैठा दिया।
जब बैरम खां को  सूचना मिली कि हेमू भारी सेना के साथ दिल्ली की तरफ बढ़ रहा है तो वह भी  पूरे सैन्य बल के साथ दिल्ली से कूच कर गया। हालांकि सैन्य बल के मामले में  हेमू का पलड़ा भारी था। इतिहासकारों के अनुसार हेमू की सेना में कुल एक लाख  सैनिक थे, जिसमें 30,000 राजपूत सैनिक, 1500 हाथी सैनिक और  शेष अफगान पैदल सैनिक एवं अश्वारोही सैनिक थे। जबकि अकबर की सेना में मात्र  20,000 सैनिक ही थे। दोनों तरफ के योद्धा अपनी आन-बान और शान के लिए मैदान  में डटकर लड़े। शुरूआत में हेमू का पलड़ा भारी रहा और मुगलों में भगदड़ मचने  लगी। लेकिन, बैरम खां ने सुनियोजित तरीके से हेमू की सेना पर आगे, पीछे और  मध्य में भारी हमला किया और चक्रव्युह की रचना करते हुए उनके तोपखाने पर भी  कब्जा कर लिया। मुगल सेना ने हेमू सेना के हाथियों पर तीरों से हमला करके  उन्हें घायल करना शुरू कर दिया। मुगलों की तोपों की भयंकर गूंज से हाथी भड़क  गए और वे अपने ही सैनिकों को कुचलने लगे। परिणामस्वरूप हेमू की सेना में  भगदड़ मच गई और चारों तरफ से घिरने के बाद असहाय सी हो गई। इस भीषण युद्ध  में हेमू सेना के मुख्य सहयोगी वीरगति को प्राप्त हो गए। इसी दौरान  दुर्भाग्यवश एक तीर हेमू की आँख में आ धंसा। इसके बावजूद शूरवीर हेमू ने  आँख से तीर निकाला और साफे से आँख बांधकर युद्ध जारी रखा। लेकिन, अधिक खून  बह जाने के कारण हेमू बेहोश हो गया और नीचे गिर पड़ा। इसके बाद हेमू की सेना  में भगदड़ मच गई और सभी सैनिक युद्धभूमि छोड़कर भाग खड़े हुए।
बेहोश  एवं अत्यन्त घायल हेमू को मुगल सैनिक उठाकर ले गए। क्रूर मुगल सेनापति  बैरम खाँ ने मुर्छित अवस्था में ही हेमू के सिर को तलवार से काट दिया। उसने  हेमू के सिर को काबूल भेजा और धड़ को दिल्ली के प्रमुख द्वार पर लटका दिया,  ताकि उनका खौफ देशभर में फैल जाए और कोई भी ताकत उनसे टकराने की हिम्मत न  कर सके। इस प्रकार पानीपत की दूसरी लड़ाई में अकबर को उसके सेनापति बैरम खाँ  की बदौलत भारी विजय हासिल हुई। इस विजय ने मुगल शासन को भारत में बेहद  मजबूत स्थिति में पहुंचा दिया। इसके साथ ही अकबर ने दिल्ली तथा आगरा के  साथ-साथ हेमू के नगर मेवात पर भी अपना कब्जा जमा लिया।

पानीपत की तीसरी लड़ाई

पानीपत  की तीसरी लड़ाई भारतीय इतिहास की बेहद महत्वपूर्ण और क्रांतिकारी बदलावों  वाली साबित हुई। पानीपत की तीसरी जंग 250 वर्ष पूर्व 14 जनवरी, 1761 को  मराठा सेनापति सदाशिवराव भाऊ और अफगान सेनानायक अहमदशाह अब्दाली के बीच  हुई। इस समय उत्तर भारत में सिक्ख और दक्षिण में मराठों की शक्ति का ग्राफ  तेजी से ऊपर चढ़ रहा था। हालांकि इस दौरान भारत आपसी मतभेदों व निजी  स्वार्थों के कारण अस्थिरता का शिकार था और विदेशी आक्रमणकारियों के निशाने  पर था। इससे पूर्व नादिरशाह व अहमदशाह अब्दाली कई बार आक्रमण कर चुके थे  और भयंकर तबाही के साथ-साथ भारी धन-धान्य लूटकर ले जा चुके थे।
सन्  1747 में अहमदशाह अब्दाली नादिरशाह का उत्तराधिकारी नियुक्त हुआ। अहमदशाह  अब्दाली ने अगले ही वर्ष 1748 में भारत पर आक्रमण की शुरूआत कर दी। 23  जनवरी, 1756 को चौथा आक्रमण करके उसने कश्मीर, पंजाब, सिंध तथा सरहिन्द पर  अपना आधिपत्य स्थापित कर लिया। वह अप्रैल, 1757 में अपने पुत्र तैमुरशाह को  पंजाब का सुबेदार बनाकर स्वदेश लौट गया। इसी बीच तैमूरशाह ने अपने रौब को  बरकरार रखते हुए एक सम्मानित सिक्ख का घोर अपमान कर डाला। इससे क्रोधित  सिक्खों ने मराठों के साथ मिलकर अप्रैल, 1758 में तैमूरशाह को देश से खदेड़  दिया। जब इस घटना का पता अहमदशाह अब्दाली को लगा तो वह इसका बदला लेने के  लिए एक बार फिर भारी सैन्य बल के साथ भारत पर पाँचवां आक्रमण करने के लिए आ  धमका। उसने आते ही पुन: पंजाब पर अपना आधिपत्य जमा लिया। इस घटना को  मराठों ने अपना अपमान समझा और इसका बदला लेने का संकल्प कर लिया। पंजाब पर  कब्जा करने के उपरांत अहमदशाह अब्दाली रूहेला व अवध नवाब के सहयोग से  दिल्ली की तरफ अपने कदम बढ़ा दिए। उसने 1 जनवरी, 1760 को बरारघाट के नजदीक  दत्ता जी सिन्धिया को युद्ध में परास्त करके मौत के घाट उतार दिया। इसके  बाद उसने 4 मार्च, 1760 को मल्हार राव होल्कर व जनकोजी आदि को भी युद्ध में  बुरी तरह पराजित कर दिया।
अहमदशाह के  निरन्तर बढ़ते कदमों को देखते हुए मराठा सरदार पेशवा ने उत्तर भारत में पुन:  मराठा का वर्चस्व स्थापित करने के लिए अपने शूरवीर यौद्धा व सेनापति  सदाशिवराव भाऊ को तैनात किया और इसके साथ ही अपने पुत्र विश्वास राव को  प्रधान सेनापति बना दिया। सदाशिवराव भाऊ भारी सैन्य बल के साथ 14 मार्च,  1760 को अब्दाली को सबक सिखाने के लिए निकल पड़ा। इस जंग में दोनों तरफ के  सैन्य बल में कोई खास अन्तर नहीं था। दोनों तरफ विशाल सेना और आधुनिकतम  हथियार थे। इतिहासकारों के अनुसार सदाशिवराव भाऊ की सेना में 15,000 पैदल  सैनिक व 55,000 अश्वारोही सैनिक शामिल थे और उसके पास 200 तोपें भी थीं।  इसके अलावा उसके सहयोगी योद्धा इब्राहिम गर्दी की सैन्य टूकड़ी में 9,000  पैदल सैनिक और 2,000 कुशल अश्वारोहियों के साथ 40 हल्की तोपें भी थीं। जबकि  दूसरी तरफ, अहमदशाह अब्दाली की सेना में कुल 38,000 पैदल सैनिक और 42,000  अश्वारोही सैनिक शामिल थे और उनके पास 80 बड़ी तोपें थीं। इसके अलावा  अब्दाली की आरक्षित सैन्य टूकड़ी में 24 सैनिक दस्ते (प्रत्येक में 1200  सैनिक), 10,000 पैदल बंदूकधारी सैनिक और 2,000 ऊँट सवार सैनिक शामिल थे। इस  प्रकार दोनों तरफ भारी सैन्य बल पानीपत की तीसरी लड़ाई में आमने-सामने आ  खड़ा हुआ था।

14  जनवरी, 1761 को सुबह 8 बजे मराठा सेनापति सदाशिवराव भाऊ ने तोपों की भयंकर  गर्जना के साथ अहमदशाह अब्दाली का मुँह मोड़ने के लिए धावा बोल दिया। दोनों  तरफ के योद्धाओं ने अपने सहयोगियों के साथ सुनियोजित तरीके से अपना रणकौशल  दिखाना शुरू कर दिया। देखते ही देखते शुरूआत के 3 घण्टों में दोनों तरफ  वीर सैनिकों की लाशों के ढ़ेर लग गए। इस दौरान मराठा सेना के छह दल और  अब्दाली सेना के 8,000 सैनिक मौत के आगोश में समा चुके थे। इसके बाद मराठा  वीरों ने अफगानी सेना को बुरी तरह धूल चटाना शुरू किया और उसके 3,000  दुर्रानी सैनिकों को मौत के घाट उतार दिया। अब्दाली सेना में मराठा सेना के  आतंक का साया बढ़ने लगा। लेकिन, दूसरे ही पल अब्दाली व उसके सहयोगियों ने  अपने युद्ध की नीति बदल दी और उन्होंने चक्रव्युह रचकर अपनी आरक्षित सेना  के ऊँट सवार सैनिकों के साथ भूख-प्यास से व्याकुल हो चुकी मराठा सेना पर  एकाएक भीषण हमला बोल दिया। इसके बाद बाजी पलटकर अब्दाली की तरफ जा पहुंची।

मराठा  वीरों को अब्दाली के चक्रव्युह से जान बचाकर भागना पड़ा। सदाशिवराव भाऊ की  स्थिति भी एकदम नाजुक और असहाय हो गई। दिनभर में कई बार युद्ध की बाजी  पलटी। कभी मराठा सेना का पलड़ा भारी हो जाता और कभी अफगानी सेना भारी पड़ती  नजर आती। लेकिन, अंतत: अब्दाली ने अपने कुशल नेतृत्व व रणकौशल की बदौलत इस  जंग को जीत लिया। इस युद्ध में अब्दाली की जीत के साथ ही मराठों का एक  अध्याय समाप्त हो गया। इसके साथ ही जहां मराठा युग का अंत हुआ, वहीं, दूसरे  युग की शुरूआत के रूप में ईस्ट इंडिया कंपनी का प्रभुत्व भी स्थापित हो  गया। इतिहासकार सिडनी ओवेन ने इस सन्दर्भ में लिखा कि –“पानीपत के इस संग्राम के साथ-साथ भारतीय इतिहास के भारतीय युग का अंत हो गया।”

पानीपत  के तीसरे संग्राम में भारी हार के बाद सदाशिवराव भाऊ के सन्दर्भ में कई  किवदन्तियां प्रचलित हैं। पहली किवदन्ती यह है कि सदाशिवराव भाऊ पानीपत की  इस जंग में शहीद हो गए थे और उसका सिर कटा शरीर तीन दिन बाद लाशों के ढ़ेर  में मिला था। दूसरी किवदन्ती के अनुसार सदाशिवराव भाऊ ने युद्ध में हार के  उरान्त रोहतक जिले के सांघी गाँव में आकर शरण ली थी। तीसरी किवदन्ती यह है  कि भाऊ ने सोनीपत जिले के मोई गाँव में शरण ली थी और बाद में नाथ सम्प्रदाय  में दक्ष हो गए थे। एक अन्य किवदन्ती के अनुसार, सदाशिवराव भाऊ ने पानीपत  तहसील में यमुना नदी के किनारे ‘भाऊपुर’ नामक गाँव बसाया था। यहां पर एक  किले के अवशेष भी थे, जिसे ‘भाऊ का किला’ के नाम से जाना जाता था।

पानीपत  की लड़ाई मराठा वीर विपरित परिस्थितियों के कारण हारे। उस दौरान दिल्ली और  पानीपत के भीषण अकालों ने मराठा वीरों को तोड़कर कर रख दिया था। मैदान में  हरी घास का तिनका तक दिखाई नहीं दे रहा था। मजबूरी में पेड़ों की छाल व जड़ें  खोदकर घास के स्थान पर घोड़ों को खिलानी पड़ीं। सेनापति सदाशिवराव भाऊ भी  भूख से जूझने को विवश हुआ और सिर्फ दूध पर ही आश्रित होकर रह गया। छापामार  युद्ध में माहिर मराठा सेना को पानीपत के समतल मैदान में अपनी इस विद्या का  प्रयोग करने का भी मौका नहीं मिल पाया। अत्याधुनिक हथियारों और तोपों का  मुकाबला लाखों वीरों ने अपनी जान गंवाकर किया। परिस्थिति और प्रकृति की मार ने मराठा वीरों के हिस्से में हार लिख दी।

 ‘पानीपत का तृतीय संग्राम एक महत्वपूर्ण मील का पत्थर रहा है। पानीपत संग्राम में लाखों मराठाओं ने अपना जीवन न्यौछावर कर दिया।’ इतिहासकार डा. शरद हेवालकर के कथनानुसार, ‘पानीपत  का तीसरा युद्ध, विश्व के इतिहास का ऐसा संग्राम था, जिसने पूरे विश्व के  राजनीतिक पटल को बदलकर रख दिया। पानीपत संग्राम हमारे राष्ट्रीय जीवन की  जीत है, जो हमारी अखण्डता के साथ चलती आई है।’

पानीपत  की तीसरी लड़ाई भारतीय इतिहास की महत्वपूर्ण धरोहर है। इस जंग में बेशक  मराठा वीरों को हार का सामना करना पड़ा हो, लेकिन भारतीय इतिहास में उनकी  वीरता का अमिट यशोगान अंकित हो चुका है। हरियाणा की धरती पर लड़ी गई यह  लड़ाई, आज भी यहां के लोगों के जहन में गहराई तक रची बसी है। मराठा वीरों के  खून से सनी पानीपत की मिट्टी को आज भी बड़े मान, सम्मान एवं गौरव के साथ  नमन किया जाता है। मराठा वीरों के खून से मैदान में खड़ा आम का पेड़ भी काला  पड़ गया था। इसी कारण यहां पर युद्धवीरों की स्मृति में उग्राखेड़ी के पास  ‘काला अंब’ स्मारक बनाया गया और इसे हरियाणा प्रदेश की प्रमुख धरोहरों में  शामिल किया गया। 

इन सबके अलावा पानीपत में ही एक देवी का मन्दिर है। यह  मन्दिर मराठों की स्मृति का द्योतक है। इसे मराठा सेनापति गणपति राव पेशवा  ने बनवाया था। इस  प्रकार मराठा वीरों की गाथाएं न केवल हरियाणा की संस्कृति में गहराई तक  रची बसी हैं, इसके साथ ही यहां के लोगों में उनके प्रति अगाध श्रद्धा भरी  हुई है। उदाहरण के तौरपर जब कोई छोटा बच्चा छींकता है तो माँ के मुँह से  तुरन्त निकलता है, ‘जय छत्रपति माई रानियां की।’ इसका मतलब  यहां की औरतें अपनी ईष्ट देवी के साथ-साथ मराठो की वीरता का प्रतीक छत्रपति  शिवाजी का भी स्मरण करती हैं। केवल इतना ही नहीं हरियाणा में निवास करने  वाली रोड़ जाति उसी पुरानी मराठा परंपरा को संजोए हुए है। इस जाति का मानना  है कि पानीपत के तीसरे युद्ध में करारी हार होने के कारण काफी संख्या में  मराठे वीर दक्षिण नहीं गए और यहीं पर बस गए और वे उन्हीं वीरों के वंशज  हैं। जो मराठा वीर यहीं बस गए थे, वे ही बाद में रोड़ मराठा के नाम से जाने  गए। इस प्रकार हरियाणा प्रदेश मराठों के शौर्य एवं बलिदान को अपने हृदय में  बड़े गर्व एवं गौरव के साथ संजोए हुए है।

That is how Godse saved India.


1.

सैनिक और हत्यारे में क्या अंतर है? हत्यारा व्यक्तिगत कारण से किसी के प्राण लेता है किन्तु सैनिक सदैव राष्ट्र के हित के लिये शत्रु के प्राण लेता है. उसके कारण हम सुरक्षित होते हैं. हत्यारे को व्यवस्था प्राणदंड देती है किन्तु सैनिक को वीर-चक्र, महावीर-चक्र, परमवीर-चक्र देती है. उसकी समाधि पर प्रधानमंत्री सैल्यूट करते हैं. समाज फूल चढ़ाता है. केवल लक्ष्य के अंतर से एक उपेक्षा और दूसरा प्रशंसा पाता है.

देश को नष्ट करने का प्रयास करने वाले को हम शत्रु मान कर व्यवहार करते हैं किन्तु जिसके कारण देश का एक तिहाई भाग ग़ुलाम बन गया, करोड़ों लोग विस्थापित हुए, लाखों लोग मारे गये, हिन्दू समाज पर इतिहास की सबसे बड़ी विपत्ति आयी, जिसके कारण सर्वाधिक हिन्दू नष्ट हुए, जिसने 1948 में देश पर पाकिस्तानी आक्रमण के समय पाकिस्तान को 55 करोड़ रुपये दिलवाने के लिये आमरण-अनशन किया, उसको हम बिना सच जाने सर पर बैठाये हुए हैं.

जी, मैं गांधी जी की बात कर रहा हूँ. उनको दंड देने का कार्य राज्य का था मगर राज्य ने यह कार्य नहीं किया अतः जिस व्यक्ति ने ये आवश्यक कार्य किया वो समाज की उपेक्षा का शिकार है. नथु राम गोडसे की कोई निजी शत्रुता गांधी जी से नहीं थी. वो सुशिक्षित वकील थे, समाचारपत्र के सम्पादक थे.

वो जानते थे गांधी जी को प्राणदंड देते ही मैं नष्ट कर दिया जाऊंगा. मेरा परिवार नष्ट कर दिया जायेगा मगर किसी को भी मातृभूमि के विभाजन का घोर पाप करने का अधिकार नहीं है. ऐसे पापी को दण्डित करने का और कोई उपाय नहीं था अतः मैंने गांधी जी का वध करने का निश्चय किया. मैं गांधी जी पर गोली चलाने के बाद भागा नहीं और तबसे अनासक्त की भांति जीवन जी रहा हूँ. यदि देशभक्ति पाप है तो मैं स्वयं को पापी मानता हूँ और पुण्य तो मैं स्वयं को उस प्रशंसा का अधिकारी मानता हूँ!

हमारे हित के लिये अपने परिवार सहित स्वयं को बलिदान कर देने वाले महापुरुष की छवि उज्जवल हो इतना तो हमें करना ही चाहिये. उस परमवीर महापुरुष नथु राम गोडसे को शत-शत प्रणाम

2.

देश-वासियो!

कोई भी काम अपने लक्ष्य के कारण छोटा/ बड़ा/ महान होता है. हम सब अपनी संपत्ति, परिवार, जीवन की रक्षा करते हैं मगर सम्मान सैनिक को मिलता है चूँकि वो निजी काम की जगह समष्टि की रक्षा करता है.

यहाँ ध्यान रहे, सैनिक का काम उसे जीवन-यापन भी कराता है, अर्थात देश की रक्षा में लगे सैनिक और उसके परिवार का जीवन सैनिक के वेतन पर निर्भर होता है. उसे कठिन जीवन जीना होता है मगर बलिदान हो जाना कोई आवश्यक नहीं होता. तो उस सामान्य मनुष्य को क्या कहेंगे जिसने अपना जीवन राष्ट्र के लिए बलिदान कर दिया.

एक ऐसा व्यक्ति जिसे अपना सम्मान प्राणों से भी प्यारा था, जिसे पता था कि उसके गोली चलाते ही उसका, उसके परिवार का जीवन पूर्णतः नष्ट कर दिया जाये, लोग उस पर थू-थू करेंगे मगर देश और राष्ट्र के हित में उसने अपना बलिदान कर दिया? महान राष्ट्र भक्त नथु राम गोडसे के अतिरिक्त ऐसा पूज्य योद्धा कौन है?

राष्ट्र के इतिहास में अगर किसी एक व्यक्ति का नाम ढूंढा जाये, जिसके कारण लाखों लोग हिन्दू मारे गए, करोड़ों हिंदुओं को अपनी संपत्ति, भूमि, व्यापार छोड़ कर अनजाने क्षितिज की और आना पड़ा, जिसके कारण पवित्र मातृभूमि का बंटवारा हुआ, किसके कारण वेदों के प्रकट होने का स्थान ग़ुलाम हो गया, जिसके कारण भारत का ध्वज स्वर्ण गैरिक भगवा के स्थान पर तिरंगा हुआ, जिसके कारण वंदेमातरम् की जगह चाटुकारिता का गीत जन-मन-गण हम पर लाद दिया गया तो केवल एक मात्र गांधी जी का नाम आयेगा.

जितने भयानक हत्याकांड 300 वर्ष का मुस्लिम शासन भी नहीं कर पाया था, उससे अधिक के निमित्त गांधी जी बने. ऐसे पापी का वध करने वाला योद्धा क्या महापुरुष कहलाने का अधिकारी नहीं है? ये उस महापुरुष की विडम्बना है कि उसने हिन्दू समाज के लिये बलिदान दिया. कहीं वो मुसलमान होते तो मुस्लिम समाज कृतज्ञता से उनके पैर धो धो कर पीता.

Saturday, January 30, 2016

कश्मीर की देश भक्ती ने गजनी को दो बार धुल चटाई थी

जब कश्मीर की देश भक्ती ने गजनी को दो बार धुल चटाई थी 

राजाओं की गौरवपूर्ण श्रंखला से कश्मीर का इतिहास भरा पड़ा है। जब हम कश्मीर के इतिहास के स्वर्णिम पृष्ठों का अवलोकन करते हैं तो ज्ञात होता है कि भारतीय संस्कृति को अपनी गौरव-गरिमा से लाभान्वित करने में कश्मीर के राजाओं ने महत्वपूर्ण योगदान किया। चूंकि यह योगदान अब से 1000 वर्ष पूर्व या उससे भी पूर्व किया जा रहा था तो इस योगदान को कश्मीर के राजाओं का भारतीय स्वातंत्रय समर में योगदान भी माना जाना चाहिए। कारण ये है कि जिस काल को भारतीय इतिहास का अंधकार युग कहा जाता है उसमें गौरवकृत्यों का उपलब्ध होना निश्चय ही इतिहास का गौरवपूर्ण पक्ष है। सचमुच एक ऐसा पक्ष कि जिसकी उपेक्षा करने का अर्थ है-आत्महत्या। ….और यह भी सत्य है कि भारत जैसा जीवन्त राष्ट्र कभी भी आत्महत्या के पथ पर नही जा सकता। जहां तक इतिहास के साथ छल करने वालों का प्रश्न है तो ऐसे तो ना जाने कितने छलों को इस जीवन्त राष्ट्र ने हंस हंसकर सहन किया है। आइए, अब हम राजा अवन्तिवर्मन से आगे बढ़ें।

पराक्रमी देशभक्त शंकरवर्मन

राजा अवन्तिवर्मन की मृत्यु के पश्चात उसका पुत्र शंकरवर्मन कश्मीर का राजा बना। यह राजा बहुत ही पराक्रमी था। उसने कश्मीर तक सीमित न रहकर बाहर निकलना ही श्रेयस्कर समझा। अत: अथर्ववेद (12-3-1) के इस आदेश को अंगीकार कर वह राज्य विस्तार के लिए निकल पड़ा कि ‘तुम शक्तिशाली होकर अन्यों पर राज्य करो।’ देशभक्तों को ऋग्वेद (1-80-3) ने भी यह कहकर प्रोत्साहित किया है कि ‘देशभक्त स्वराज्य की उपासना करते हैं।’

जिस देश की संस्कृति राजा को और देशभक्तों को ऐसी प्रेरणा करती हो तो उस देश का शंकरवर्मन अपने कश्मीर के किले में स्वयं को कैसे कैद रख सकता था? किला एक सुरक्षित स्थान अवश्य है, परंतु चाहे वह कितना ही सुरक्षित और स्वैर्गिक आनंद देने वाला क्यों ना हो, दिग्दिगन्त की विजय की कामना करने वाले राजा के लिए तो वह कारागार के समान ही हो जाता है। इसलिए स्वराज्य के साधक राजा के लिए उससे बाहर निकलना ही उचित होता है। अत: शंकरवर्मन कश्मीर से बाहर निकला और उसने ललितादित्य के समय में विजित प्रदेशों को पुन: अपने राज्य में सम्मिलित करने का संकल्प व्यक्त किया। फलस्वरूप उसकी सेनाओं ने काबुल तक अपनी विजय पताका फहराई। काबुल का शासक उस समय लल्लैय्या नाम का हिंदू शासक था। लल्लैय्या शंकरवर्मन का सामना नही कर सका और वह युद्घ में पराजित हो गया। कहा जाता है कि उसकी प्रजा भी उसके साथ नही थी। शंकरवर्मन की विजय पताका बड़े गौरव के साथ काबुल में फहरा उठी। इतिहास लेखकों का मानना है कि सम्राट ललितादित्य के समय में कश्मीर सैन्य दृष्टि से शक्तिशाली था, और अवन्तिवर्मन के समय में आर्थिक दृष्टि से शक्तिशाली था, जबकि शंकरवर्मन के समय में दोनों रूपों में ही शक्तिशाली हो गया था।

नरेन्द्र सहगल लिखते हैं-’इतिहास जानता है कि काबुल (गान्धार) के बहादुर हिंदू राजाओं और वहां की शूरवीर हिंदू प्रजा ने चार सौ वर्षों तक निरंतर अरबों और अन्य मुस्लिम आक्रमण कारियों का साहस के साथ सामना किया। परंतु एक दिन भी पराधीनता स्वीकार नही की। भारत इस कालखण्ड (663 से 1021 ई. तक) में अपनी उत्तर पश्चिमी सीमाओं को सुरक्षित रख सका।’

शंकरवर्मन के पश्चात उसका व्यवहार कुशल पुत्र गोपालवर्मन कश्मीर के राज्य सिंहासन पर आरूढ़ हुआ। गोपालवर्मन ने अपने सैन्याधिकारी प्रभाकर देव को काबुल भेजकर शांति व्यवस्था पर अपना नियंत्रण रखा। प्रभाकर देव ने राजा लल्लैय्या से वार्तालाप की और वार्तालाप के उपरांत वहां का शासन लल्लैय्या के पुत्र कामलुक को सौंप दिया।

पराजित राजा को सत्ताच्युत कर वहां का शासन प्रबंध उसी के किसी परिजन को या प्रजा में लोकप्रिय किसी व्यक्ति केा सौंप देना भारत की प्राचीन परंपरा है। रामायण काल में भगवान राम ने रावण को पराजित किया तो वहां का शासन विभीषण को सौंप दिया गया था और महाभारत में कृष्णजी ने कंस को मारा तो अपने  नाना को ही पुन: राज्य गद्दी सौंप दी। यह परंपरा नैतिक भी है और कूटिनीतिक भी है। हां, विदेशियों में ऐसी प्रवृत्ति का सर्वथा अभाव मिलता है। भारतीय शासकों ने अपनी इस परंपरा का तब उल्लंघन करना आरंभ किया था जब उन पर विदेशियों का प्रभाव पड़ने लगा था।

महमूद गजनवी और पराक्रमी राजा संग्रामराज

जो तेगों के साये में पले बढ़े होने का दम्भ भरते रहे हैं और इसी दम्भ  से पनपी क्रूरता के कारण जिन्होंने विश्व में लाखों करोड़ों लोगों का वध किया, उनमें से एक महमूद गजनवी भी था। बड़ी क्रूरता से ईरान और तुर्किस्थान में इस क्रूर आक्रांता ने अमानवीयता का प्रदर्शन किया था। भारत के कुछ क्षेत्रों में भी इसने रक्तिम् होली खेली थी। परंतु कश्मीर की भूमि वह पावन भूमि रही है, जिसने इस क्रूर आक्रांता को एक बार नही अपितु दो-दो बार पराजित कर भगाया। पराजय भी इतनी भयानक थी कि तीसरी बार कश्मीर जाने का सपना ही नही देख सका था-महमूद गजनवी।

गजनवी के समय (1003 से 1028 ई.) कश्मीर पर वीर प्रतापी शासक महाराजा संग्रामराज का शासन था। संग्रामराज ने कश्मीरी सीमाओं को पूर्णत: सुरक्षित रखने तथा विदेशी आक्रांता से कश्मीर की प्रजा की रक्षा करने हेतु सीमाओं पर विशेष सुरक्षा व्यवस्था की थी, अलबरूनी हमें बताता है-’कश्मीर के लोग अपने देश की वास्तविक शक्ति के विषय में विशेष रूप से उत्कंठित रहते हैं। इसलिए वे कश्मीर के प्रवेश द्वार और उसकी ओर खुलने वाली सड़कों की ओर सदा मजबूत निगाह रखते हैं। फलस्वरूप उनके साथ कोई वाणिज्य व्यापार कर पाना बहुत कठिन है।….इस समय तो वे किसी अनजाने हिंदू को भी प्रवेश नही करने देते हैं। दूसरे लोगों की तो बात ही छोड़िए।’ सन 1015 में महमूद गजनवी कश्मीर पर पहला आक्रमण करता है। उसकी सेनाएं तौसी नामक मैदान में आ डटीं। महाराजा संग्राम राज की सुरक्षा व्यवस्था उच्चतम मानकों की थी। अत: महाराजा को तुरंत उक्त आक्रमण की सूचना मिल गयी। इसलिए राजा ने सफल कूटिनीति और युद्घ नीति का अनुकरण करते हुए अपने बौद्घिक विवेक और यौद्घिक संचालन का परिचय दिया। राजा ने काबुल के राजा त्रिलोचनपाल को युद्घ में सहायता के लिए आमंत्रित किया। राजा त्रिलोचन पाल ने योजना के अंतर्गत तौसी की ओर बढ़न आरंभ किया। युद्घ के मैदान में आगे की ओर से संग्रामराज की सेना आयी तो गजनवी की सेना के पृष्ठ भाग पर त्रिलोचनपाल की सेना ने पूर्व नियोजित योजना के अनुसार धावा बोल दिया।

महमूद की सेना पहाड़ों के बीच दोनों ओर से भारतीय स्वतंत्रता प्रेमी सैनिकों से घिर चुकी थी। जितने भर भी छल, छदम षडयंत्र और घात प्रतिघातों को महमूद अब से पूर्व युद्घों में अपनाता रहा था, वो सब धरे के धरे रह गये। भागने के लिए घिरे हुए आक्रांता को रास्ता खोजने पर भी नही मिल रहा था। कश्मीर व काबुल का ऐसा समीकरण बैठा कि शत्रु को दिन में तारे दिखा दिये गये। कश्मीर का तौसी युद्घ क्षेत्र स्वतंत्रता संघर्ष और स्वाभिमान की रक्षा का साक्षी बना और हमारे सैनिकों ने हजारों शत्रुओं का वध कर युद्घक्षेत्र में शवों का ढेर लगा दिया। लोहकोट के दुर्ग पर महमूद का कब्जा था। संग्राम राज की सेना ने किले को व्यूह रचना को तोड़कर दुर्ग में प्रवेश किया। महमूद भारतीय सैनिकों को दुर्ग में प्रवेश करते देखकर अत्यंत भयभीत हो गया था। अत: वह एक सुरक्षित स्थान पर छिप गया। किसी प्रकार महमूद गजनवी अपनी प्राणरक्षा कर भागने में सफल हो सका। ‘कैम्ब्रिज हिस्ट्री ऑफ इण्डिया’ में इस युद्घ का बड़ा रोचक वर्णन किया गया है-

‘भारत में महमूद की यह पहली और बड़ी पराजय थी। उसकी सेना अपरिचित पहाड़ी मार्गों पर रास्ता भूल गयी और उसका पीछे मुड़ने का मार्ग बाढ़ के पानी ने रोक लिया। परंतु अत्यधिक प्राणहानि के पश्चात यह सेना मैदानी क्षेत्रों में भागी और अस्त व्यस्त स्थिति में गजनी तक पहुंच सकी।’

कश्मीर में मिली इस पराजय से महमूद को पता चल गया कि भारत अपने स्वाभिमान और स्वतंत्रता की रक्षा के लिए कितना समर्पित है और किसी क्षेत्र विशेष पर नियंत्रण कर लेने मात्र से हिंदुस्तान की स्वाधीनता को नष्ट नही किया जा सकता। भारतवर्ष पर शासन करने के लिए एक नही अनेकों शक्तियों से टक्कर लेनी होगी।….और यह भी पता नही कि इन शक्तियों में से कौन सी शक्ति कितनी शक्तिमान हो? महमूद ने पहली बार भारत के विषय में गंभीरता से सोचा। वह अपमान और प्रतिशोध सम्मिश्रित भावों से व्याकुल था। इसलिए उसने एक बार पुन: भाग्य आजमाने का निर्णय लिया। उसने प्रतिवर्ष भारत पर आक्रमण करने के अपने संकल्प को विस्मृत कर दिया और पूरे छह वर्ष पश्चात अर्थात 1021 में उसने कश्मीर पर  पुन: आक्रमण किया। प्रतिवर्ष आक्रमण करने वाले आक्रांता का कश्मीर पर आक्रमण करने का साहस छह वर्ष में लौटा। स्पष्ट है कि उसे तौसी का युद्घ क्षेत्र देर तक स्मरण रहा। 1021 ई. में भी महमूद ने लोहकोट पर ही पड़ाव डाला। त्रिलोचनपाल को जैसे ही महमूद के आक्रमण की भनक लगी, उसने उसे पुन: खदेड़ने का अभियान तुरंत आरंभ कर दिया। त्रिलोचनपाल की सहायतार्थ महाराजा संग्रामराज ने भी अपनी सेना भेज दी। महमूद को अपनी पिछली पराजय का स्मरण था। वह पिछले घावों को सहलाते सहलाते  भारत की कश्मीर में अपने पांवों को रख ही रहा था कि पुन: अप्रत्याशित मार पड़नी आरंभ हो गयी। उसे पिछला अनुभव भीतर तक सिहराने लगा। स्थिति इस बार भी वही बन गयी थी, पृष्ठ भाग और सामने दोनों ओर से उसे त्रिलोचनापाल और महाराजा संग्रामराज की स्वतंत्रता प्रेमी सेना ने घेर लिया था। वह जिस दीपक को बुझाने आया था भारत की स्वतंत्रता का यह दीपक और भी प्रचण्ड होता जा रहा था और ऐसा लग रहा था कि यह दीपक अब महमूद के लिए ही भस्मासुर बनने वाला था। महमूद गजनवी को फिर  प्राण रक्षा के लिए कश्मीर से गजनी की ओर भगाना पड़ा और इस बार वह ऐसा भागा कि फिर कभी जीवन में कश्मीर की ओर पैर करके भी नही सोया। धन्य है त्रिलोचनपाल, धन्य हैं महाराजा संग्राम राज और धन्य है उनकी सेना के वीर सैनानी जिन्होंने अपनी स्वतंत्रता के प्रति अगाध निष्ठा का ऐसा परिचय विदेशी आक्रांता को दिया। भारत के इतिहास में इन सभी स्वतंत्रता सैनानियों का नाम सदा सम्मान से ही लिया जाएगा।

मुस्लिम इतिहासकार नजीम ने अपनी पुस्तक ‘महमूद ऑफ गजनवी’ में लिखा है:-महमूद गजनवी ने अपनी पिछली पराजय का प्रतिशोध लेने और अपनी खोई हुई प्रतिष्ठा को पुन: प्राप्त करने हेतु 1021 ई. में कश्मीर पर पुराने मार्ग से ही पुन: आक्रमण किया। परंतु फिर लोह कोट के किले ने उसका रास्ता रोक लिया। एक मास की असफल किलेबंदी के पश्चात विनाश की संभावना से भयभीत होकर महमूद ने दुम-दबाकर भाग जाने में ही कुशलता समझी। इस पराजय से उसे कश्मीर राज्य की अजेय शक्ति का आभास हो गया और कश्मीर को हस्तगत करने का अपना उद्देश्य उसने सदा सर्वदा के लिए त्याग दिया।

तौसी:स्वतंत्रता का एक स्मारक

स्वतंत्रता के 1235 वर्षीय संघर्ष का स्मारक सचमुच तौसी का युद्घ क्षेत्र भी है। जिसे नमन किये बिना हजारों बलिदानियों का बलिदान व्यर्थ चला जाएगा। राजा त्रिलोचनपाल के साथ इतिहास ने अन्यास किया है। महमूद गजनवी के एक चाटुकार इतिहासकार पीर हसन ने राजा त्रिलोचन पाल की शौर्य-गाथा को अपनी ‘पराधीन लेखनी’ से कलंकित करने का प्रयास किया और हमें वही कलंकित लेखनी की कलंकित गाथा पढ़ाई गयी। पीर हसन लिखता है:-

‘संग्रामराज ने अपने भीतर मुकाबले की ताव न देखकर बहुत से तोहफे तहलीफ के साथ खुद को सुल्तान की मुलाजिमत में पहुंचाया। सुल्तान ने फरमाया तूने खुद को क्यों आजिज और जलील किया। राजा ने जवाब में कहा कि शरीफ  लोग मेहमान की खातिर तवाजह अपने लिए फकर और तरक्की का सबब समझते हैं। सुल्तान महमूद ने उसकी हुस्नबयानी से महफूल होकर उम्दा उम्दा पोशाकों से सरफराज  किया और खिराजशाही मुकर्रर करके कश्मीर की हुकूमत उसी के हवाले कर दी।’

महाराजा त्रिलोचनपाल के लिए पीर हसन का यह कथन कितना भ्रामक व मिथ्या हो सकता है, इसका पता हमें डा. रघुनाथ सिंह के इस कथन से चल जाता है-’पीर हसन का वर्णन एकांगी तथा महमूद गजनवी की महत्ता और कश्मीरियों की हीनता दिखाने का प्रयास मात्र है। किसी इतिहास में उक्त घटना का समर्थन नही मिलता। महमूद गजनवी ने कभी कश्मीर उपत्यका में प्रवेश नही किया। पीर हसन की बातें असत्य हैं। संग्रामराज को विश्व की दृष्टि में गिराने तथा गजनवी की महत्ता प्रमाणित करने केे लिए यह कथा घड़ दी गयी है कि महमूद कश्मीर में आया और संग्रामराज ने अपनी पताका झुका दी।’

बस, हर विदेशी शत्रु इतिहास लेखक का भारत के विषय में यही प्रयास रहा है कि इसके लोगों को और इसके महान सेनापतियों, राजा महाराजाओं को जितना हो सके उतना  पतित रूप में दिखाओ। जिससे कि इस देश के लोगों को अपने अतीत से घृणा हो जाए और वो ये मानने लगें कि भारत का इतिहास तो निरंतर अपमान और तिरस्कार की एक ऐसी गाथा है जिसने हमें हर क्षण और हर पग पर अपमानित और तिरस्कृत किया है। जबकि कल्हण हमारे मत का समर्थन करते हुए लिखता है कि -इस अवसर पर त्रिलोचनपाल ने मुस्लिम आक्रामकों से अंतिम बार पंजाब में सामना किया था। ज्ञात होता है कि महमूद झेलम से कश्मीर जाने वाली किसी उपत्यका में त्रिलोचनपाल से संघर्ष कर पीछे हट गया। कश्मीर के कुछ सीमांत राजाओं ने गजनवी की अधीनता स्वीकार की होगी। परंतु कश्मीर ने महमूद से लोहा लिया।  संग्रामराज ने महमूद के सम्मुख मस्तक नही झुकाया था।

वो अनूठे बलिदानी देशभक्त

सोमनाथ का मंदिर लूटा जा चुका था। देश के लोगों में इस मंदिर के लूटे जाने के पश्चात वेदना बार बार देशभक्त हृदयों में ज्वार भरने का कार्य कर रही थी। लोग किसी भी मूल्य पर महमूद से प्रतिशोध चाहते थे। क्योंकि उस क्रूर शासक ने हमारे धर्म और राष्ट्र दोनों को ही अपवित्र कर दिया था। इसलिए जब वह देश से निकलकर जा रहा था, तो हमारे कुछ लोगों ने योजना बनाई कि उसके सैन्य दल को कच्छ के रेगिस्तान में भ्रमित कर दिया जाए। हमारे  लोगों को अपने इस वीरता से भरे कृत्य के परिणाम का भली प्रकार ज्ञान था कि इस कृत्य से मृत्यु उनका गले का हार बनकर आएगी। परंतु देशभक्ति के ज्वार के समक्ष मृत्यु को तो बहुत छोटी सी बात माना जाता है। मानो, जीवन ने अर्द्घविराम लिया और नया जीवन पाकर फिर चल पड़ा। प्राचीन काल से ही भारत के हर देशभक्त ने युद्घ में इसी भावना से आत्मोत्सर्ग किया है। कृष्ण ने गीता में अर्जुन को बस ये ही तो समझाया है कि जिसे तू इन सबका काल मान रहा है वह काल नही है, अपितु जीवन के लिए मात्र अर्द्घविराम है। अत: इसी भावना से उस समय (1026 ई.) हमारे देशभक्त नागरिक भी भर गये थे। मुस्लिम लेखक मिन्हाज ने लिखा है-’रास्ता बताने वालों की मांग पर एक हिंदू सामने आया और  उसने रास्ता बताने का वचन दिया। जब कुछ देर तक इस्लामी सेना उसके पीछे चली और थमने का समय आया तो लोग पानी की तलाश में निकल पड़े। परंतु पानी का दूर दूर तक भी नामोनिशान नही था। सुल्तान ने रास्ता दिखाने वाले को अपने सामने हाजिर करने का हुक्म दिया और पूछा कि पानी कहां मिल सकता है? उसने जवाब दिया-’मैंने सारी उम्र अपने देवता सोमनाथ की सेवा में गुजारने का प्रण लिया है, और मैं तुझे तथा तेरी सेना को इस जलहीन रेगिस्तान में इसीलिए लाया हूं कि तुम सब एक घूंट पानी के लिए तरस- तरस कर मर जाओ।

सुल्तान ने (काफिर के मुंह से शब्द सुनकर) हुक्म दिया उस रास्ता बताने वाले का कत्ल कर दिया जाए।’

अगले ही क्षण कच्छ की भूमि की गोद में एक देशभक्त और धर्मभक्त भारतीय नागरिक का सिर मां भारती की सेवा के लिए हवा में तैरता हुआ धड़ाम से आ पड़ा। मां धन्य हो गयी, ऐसा लाल जनकार और एक मां प्रसन्न हो गयी ऐसे  लाल का सर अपनी गोद में पाकर। उस अनाम देशभक्त का नाम-धाम अभी ज्ञात नही है पर वह अनाम शूरवीर  भारतीय स्वातंत्रय समर का एक स्मारक अवश्य है।

….और वह ही क्यों? जब वह मां भारती की गोद में जा लेटा, तब रास्ता बताने के लिए दो अन्य आत्मघाती बने हिंदू सामने आए। मुहम्मद उफी की ‘जमी-उल-हिकायत’ से हमें ज्ञात होता है-’दो हिंदू सामने आये और उन्होंने रास्ता बताने के लिए अपनी सेवाएं प्रस्तावित कीं। वे तीन दिन तक रास्ता बताते रहे और उसे (महमूद गजनवी को) रेगिस्तान में ले गये। जहां पानी तो क्या घास तक भी नही थी।

सुल्तान ने पूछा कि यह कैसा रास्ता था जिस पर वह चल रहे थे और क्या आसमान में कोई बस्ती या बाशिंदे भी थे या नहीं? उन्हेांने तब उत्तर दिया कि वे मुखिया राज मुखिया राजा (जिस व्यक्ति ने शत्रु सेना को भ्रमित कर अपरिमित कष्ट पहुंचाने के लिए ऐसी योजना बनायी और उन आत्मघाती देशभक्तों को इस पवित्र कार्य के लिए नियुक्त किया था) के बताये रास्ते पर चल रहे हैं और वे निर्भीक होकर उसको भटकाने का काम कर रहे हैं। अब (महमूद) समुंदर तुम्हारे सामने है और हिंद की सेना तुम्हारे पीछे। हमने अपना काम पूर्ण किया। अब तुम जो चाहो सो करो। तुम्हारी फौज का कोई भी आदमी अब बच नही पाएगा।’

ऐसे वीर प्रतापी शासक ऐसी अनूठी सेनाएं और ऐसे अदभुत देशभक्त नागरिकों के रहते भी यदि भारत को और हिंदू समाज को कायरों का समाज कहा जाता है तो ये केवल अपने गौरवपूर्ण अतीत को भली प्रकार न समझने का परिणाम है। वास्तव में ये वीर प्रतापी शासक, ये अनूठी सेनाएं और अदभुत देशभक्त नागरिक ही तो वो कारण थे जिनसे ‘हमारी हस्ती नही मिटी’ और हम अपनी स्वतंत्रता के लिए सदियों तक लड़ते रहे।

संभवत: यजुर्वेद (9-23) में यह व्यवस्था ऐसे राष्ट्र प्रेमी लोगों के लिए ही की गयी है-

वयं राष्ट्रे जागृयाम पुरोहिता: स्वाहा।

अर्थात हम अग्रसर होकर अपने राष्ट्र में जागृत रहें ऐसा, हम मानते हैं।

क्या यह स्वाभाविक प्रश्न नही है कि जिस देश का आदि धर्मग्रंथ राष्ट्र के प्रति ऐसी  उदात्त राष्ट्रीय भावनाओं और कामनाओं से ओतप्रोत  हो उस देश के नागरिक इस प्रकार की उदात्त राष्ट्रीय भावनाओं से क्यों कर अछूते रह  सकते हैं?

हमारी मातृभूमि मां है और मां के मर्मस्थल को आहत करना कोई भी मातृभक्त नही चाहता। उसी प्रकार का प्यारा और पवित्र संबंध हमने अपनी मातृभूमि के प्रति प्राचीन काल से ही स्थापित किया है। अत: मां के मर्म स्थल को और हृदय को चोट न पहुंचाने के लिए हमें वेद ने यों आदेशित किया है-

मा तो मर्म विमृग्वरि मा ते हृदयमार्पियम्।  (अथर्व 12-1-35) अर्थात हे मातृभूमि हम तेरे हृदय और मर्मस्थल को चोट न पहुंचावें।

राष्ट्रप्रेम की ऐसी उत्तुंग भावना और माता पुत्र का ऐसा पवित्र संबंध विश्व में केवल और केवल भारतीय  संस्कृति में ही है, अर्थात वैदिक संस्कृति में। यदि अन्यत्र कहीं ये संबंध है भी तो वह इतनी आत्मीयता का नही है क्योंकि वह भारतीय संस्कृति की अनुकृति मात्र है। परछाई है, वास्तविकता नही है। अनुकृति और परछाई में भ्रांति हो सकती है, परंतु वास्तविकता में नही हो सकती। इसलिए अपने विषय में हम इस आत्मघाती सोच से बाहर निकलें कि इस देश में राष्ट्र, राष्ट्रवाद और राष्ट्रीयता का या देश और देशभक्ति का सर्वथा अभाव रहा हो।हम जीवन्तता के उपासक रहे हैं, हम जिज्ञासु रहे हैं, हम जिजीविषा के भक्त रहे हैं, और ये तीनों बातें वहीं मिलती हैं-जहां  लक्ष्य के प्रति समर्पण होता है, जहां समूह के प्रति, राष्ट्र और समाज के प्रति व्यक्ति अपने कर्त्तव्यों को समझता है, और उन्हीं के लिए जीवन को जीता है। भारत ने इन्हीं के लिए जीवन जीना सिखाया है, इसलिए भारत की हर मान्यता और उसकी संस्कृति का हर मूल्य अविस्मरणीय है, पूज्यनीय है और वंदनीय है।