Wednesday, September 9, 2015

श्री गुरु गोविन्द सिंह जी

परम् वीर श्रद्धेय श्री गुरु गोविन्द सिंह जी..🙏

गुरु गोबिन्द सिंह (जन्म: २२ दिसम्बर १६६६, मृत्यु: ७ अक्टूबर १७०८) सिखों के दसवें गुरु थे। उनका जन्म बिहार के पटना शहर में हुआ था। उनके पिता गुरू तेग बहादुर की मृत्यु के उपरान्त ११ नवम्बर सन १६७५ को वे गुरू बने। वह एक महान योद्धा, कवि, भक्त एवं आध्यात्मिक नेता थे। उन्होने सन १६९९ में बैसाखी के दिन उन्होने खालसा पन्थ की स्थापना की जो सिखों के इतिहास की सबसे महत्वपूर्ण घटना मानी जाती है।

उन्होने मुगलों या उनके सहयोगियों (जैसे, शिवालिक पहाडियों के राजा) के साथ १४ युद्ध लड़े। धर्म के लिए समस्त परिवार का बलिदान उन्होंने किया जिसके लिए उन्हें 'सरबंसदानी' भी कहा जाता है। इसके अतिरिक्त जनसाधारण में वे कलगीधर, दशमेश, बाजांवाले आदि कई नाम,उपनाम व उपाधियों से भी जाने जाते हैं।

गुरु गोविंद सिंह जहां विश्व की बलिदानी परम्परा में अद्वितीय थे, वहीं वे स्वयं एक महान लेखक, मौलिक चिंतक तथा कई भाषाओं के ज्ञाता भी थे। उन्होंने स्वयं कई ग्रंथों की रचना की। वे विद्वानों के संरक्षक थे। उनके दरबार में ५२ कवियों तथा लेखकों की उपस्थिति रहती थी, इसीलिए उन्हें 'संत सिपाही' भी कहा जाता था। वे भक्ति तथा शक्ति के अद्वितीय संगम थे।

1695 में, दिलावर खान (लाहौर का मुगल मुख्य) ने अपने बेटे हुसैन खान को आनंदपुर साहिब पर हमला करने के लिए भेजा । मुगल सेना हार गई और हुसैन खान मारा गया। हुसैन की मृत्यु के बाद, दिलावर खान ने अपने आदमियों जुझार हाडा और चंदेल राय को शिवालिक भेज दिया। हालांकि, वे जसवाल के गज सिंह से हार गए थे। पहाड़ी क्षेत्र में इस तरह के घटनाक्रम मुगल सम्राट औरंगज़ेब लिए चिंता का कारण बन गए और उसने क्षेत्र में मुगल अधिकार बहाल करने के लिए सेना को अपने बेटे के साथ भेजा।

एक ही बाण से औरंगजेब पराजित
खालसा पंथ की स्थापना के बाद औरंगजेब ने पंजाब के सूबेदार वजीर खां को आदेश दिया कि सिखों को मारकर गोविन्द सिंह को कैद कर लिया जाये। गोविंद सिंह ने अपने मुट्ठी भर सिख जांबाजों के साथ मुगल सेना से डटकर मुकाबला किया और मुगलों को पीछे हटने पर मजबूर कर दिया।

तभी गोविंद सिंह ने कहा 'चिड़िया संग बाज लड़ाऊं, तहां गोबिंद सिंह नाम कहाऊं'। गोविंद सिंह ने मुगलों की सेना को चिड़िया कहा और सिखों को बाज के रूप में संबोधित किया। औरंगजेब इससे आग-बबूला हो गया। औरंगजेब के क्रोध को शांत करने के लिए मुगलों के सेनापति पाइंदा खां ने कहा कि 'मै गोविन्द सिंह से अकेला लडूंगा'। हमारी हार जीत से ही फैसला माना जाये।

पाइंदा खां का निशान अचूक था इसलिए औरंगजेब इस बात पर राजी हो गया। सिखों और मुगलों की सेना आमने-समाने डट गयी। गुरु गोविन्द सिंह ने पाइंदा खां से कहा कि चूंकि चुनौती तुम्हारी ओर से है, इसलिए पहला वार तुम करो। पाइंदा खां ने कहा, “ठीक है। तुमने मौत को न्योता दिया है। मेरा पहला वार ही आखिरी वार होगा।” फिर उसने धनुष पर बाण चढ़ाकर छोड़ा। गोविन्द सिंह ने पाइंदा खां का बाण बीच में ही काट दिया। अब बारी गोविन्द सिंह की थी। उन्होंने एक तीर छोड़ा और पाइंदा खां का सिर धड़ से अलग हो गया। सिख जीत गए, मुगलों को हार स्वीकार करनी पड़ी।Meenu Ahuja

बाली-वामन

पुराण कथा..बाली-वामन :
महाबली बाली अजर-अमर है। कहते हैं कि वो आज भी धरती पर रहकर देवताओं के विरुद्ध कार्य में लिप्त है। पहले उसका स्थान दक्षिण भारत के महाबलीपुरम में था लेकिन मान्यता अनुसार अब मरुभूमि अरब में है जिसे प्राचीनकाल में पाताल लोक कहा जाता था। अहिरावण भी ‍वहीं रहता था। समुद्र मंथन में उसे घोड़ा प्राप्त हुआ था जबकि इंद्र को हाथी। उल्लेखनीय है कि अरब में घोड़ों की तादाद ज्यादा थी और भारत में हाथियों की।
शिवभक्त असुरों के राजा बाली की चर्चा पुराणों में बहुत होती है। वह अपार शक्तियों का स्वामी लेकिन धर्मात्मा था। वह मानता था कि देवताओं और विष्णु ने उसके साथ छल किया। हालांकि बाली विष्णु का भी भक्त था। भगवान विष्णु ने उसे अजर-अमर होने का वरदान दिया था। हिरण्यकश्यप के 4 पुत्र थे- अनुहल्लाद, हल्लाद, भक्त प्रह्लाद और संहल्लाद। प्रह्लाद के कुल में विरोचन के पुत्र राजा बाली का जन्म हुआ। बाली जानता था कि मेरे पूर्वज विष्णु भक्त थे, लेकिन वह यह भी जानता था कि मेरे पूर्वजों को विष्णु ने ही मारा था इसलिए बाली के मन में देवताओं के प्रति द्वेष था। उसने शुक्राचार्य के सान्निध्य में रहकर स्वर्ग पर आक्रमण करके देवताओं को खदेड़ दिया था। वह ‍तीनों लोक का स्वामी बन बैठा था।
देवताओं के कहने पर वामन रूप विष्णु ने दानवीर बाली के समक्ष ब्राह्मण रूप में उपस्थित होकर उससे तीन पग भूमि मांग ली थी। वामन ने दो पग में तीनों लोक नापकर पूछा, अब तीसरा पग कहां रखूं तो बाली ने कहा कि प्रभु अब मेरा सिर ही बचा है आप इस पर पग रख दें। बाली के इस वचन को सुनकर और उसकी दानवीरता को देखते हुए भगवान वामन ने उनको पाताल लोक का राजा बनाकर अमरता का वरदान ‍दे दिया। इस तरह इंद्र और अन्य देवताओं को फिर से स्वर्ग का साम्राज्य मिल गया था।

सम्राट अशोक

 
सम्राट अशोक
सम्राट अशोक मगध के राजा थे। वे पास-पड़ोस के सभी राज्यों को जीतकर अपने अधीन कर लेना चाहते थे। इस कोशिश में उन्होंने कई राज्यों को जीतकर मगध के अधीन कर लिया था लेकिन कलिंग को जीतना आसान नहीं था। चार साल तक युद्ध हुआ, लेकिन कलिंग के राजा बहादुरी से लड़ रहे थे और सम्राट अशोक जीत नहीं पाए।


एक दिन खबर मिली कि कलिंग के राजा युद्ध में मारे गए। फिर भी अशोक की सेना कलिंग के दुर्ग के अंदर प्रवेश नहीं कर सकी।

अचानक दुर्ग का फाटक खुला और कलिंग की राजकुमारी पद्मा सैनिक की वेशभूषा में आकर अशोक से कहती हैं- हमसे लड़ो। हमें मारोगे तभी किले के अंदर जा सकते हो। सम्राट अशोक कहते हैं- यह कैसे हो सकता है? क्या मैं स्त्रियों पर हथियार चलाऊंगा?,



अशोक सम्राट बिंदुसार के पुत्र थे। पिता की मुत्यु के बाद अशोक मगध के सिंहासन पर बैठे। अशोक बहुत वीर राजा थे। वे अपने राज्य को दूर-दूर तक फैलाना चाहते थे। सम्राट अशोक ने कई राजाओं को हराकर, अपने राज्य का विस्तार किया। उन दिनों कलिंग का राज्य भी मगध राज्य के समान प्रसिद्ध था।

कलिंग वासी बहुत वीर थे। वे अपने राजा और अपनी जन्मभूमि से बहुत प्यार करते थे। अपना राज्य बढ़ाने के लिए सम्राट अशोक ने कलिंग राज्य पर आक्रमण कर दिया। दोनों ओर से घमासान युद्ध शुरू हो गया। चार वर्ष बीत जाने पर भी कलिंग को जीता न जा सका। कलिंग के लाखों सैनिक मारे गए, लाखों घायल हुए, पर कलिंग वालों ने हार नहीं मानी।

एक दिन सम्राट अशोक अपने शिविर में उदास बैठे थे। वे सोच रहे थे कि दोनों ओर के लाखों सैनिक मारे जा चुके हैं, पर आज तक युद्ध का कोई फैसला नहीं हो सका है। तभी एक सैनिक ने आकर सूचना दी-

”महाराज की जय हो। अभी-अभी खबर मिली है। कलिंग के महाराज युद्ध में मारे गए।“

”वाह ! यह तो बड़ी अच्छी खबर है। इसका मतलब हम युद्ध में जीत गए। मगध-राज्य अब हमारा है।“ अशोक प्रसन्न हो उठे।

”आपका सोचना ठीक है, महाराज परंतु कलिंग के किले का दरवाजा अभी भी बंद है।“ सिर झुकाकर सैनिक ने जवाब दिया।

”कोई बात नहीं, अब दरवाजा खुल जाएगा। कल मैं स्वयं कलिंग के दुर्ग का द्वार खुलवाऊंगा।“

”दूसरे दिन सम्राट अशोक ने स्वयं अपनी सेना का नेतृत्व किया। उनके पीछे मगध के हजारों सैनिक, सम्राट अशोक की जय-जयकार कर रहे थे। कलिंग दुर्ग के सामने पहुंचकर सम्राट अशोक ने अपनी सेना को ललकारा-

”मगध के वीर सैनिकों, पिछले चार वर्षो से युद्ध चल रहा है। कलिंग के महाराज मारे जा चुके हैं। आओ हम शपथ लें। आज कलिंग दुर्ग के फाटक, खुलवाकर, दुर्ग पर मगध का झंडा फहराएँगे।“

”सम्राट अशोक की जय, मगध राज्य की जय।“ चारों ओर जय-जयकार गूंज उठी।

ष्शोर मचाती अशोक की सेना आगे बढ़ी। अचानक कलिंग दुर्ग का फाटक खुल गया। कलिंग देश की राजकुमारी पद्मा सैनिक वेष में घोड़े पर सवार खड़ी थीं। राजकुमारी पद्मा के पीछे स्त्रियों की सेना थी। राजकुमारी ने अपनी स्त्रियों की सेना से कहा-

”बहिनो, आज हमें अपने देश के सम्मान की रक्षा करनी है। जिन्होंने हमारे पिता, भाई, पति हमसे छीने हैं, वे हत्यारे आज हमारे सामने खड़े हैं। हमारे जीते जी, इस दुर्ग में ये प्रवेश नहीं कर सकते। जय भवानी ...............“ पद्मा के साथ स्त्री-सेना ने जय भवानी का हुंकार भरा।

सम्राट अशोक विस्मित थे। उन्होंने पूछा-

”तुम कौन हो देवी? सम्राट अशोक स्त्रियों से युद्ध नहीं करता।“

”तुम मेरे पिता के हत्यारे हो। तुम्हें मुझसे युद्ध करना होगा सम्राट।“ राजकुमारी ने गर्जना की।

”नहीं, स्त्रियों पर हथियार चलाना अधर्म है। यह अन्याय मैं नहीं कर सकता।“

”तुमने न्याय-अन्याय की चिंता कब की है, सम्राट? अपनी जीत के लिए तुमने लाखों मासूम लोगों की हत्या की है। अब तो केवल हम स्त्रियाँ बची हैं। दुर्ग पाने के लिए तुम्हें हमसे युद्ध करना पड़ेगा। ये सारी दुखी स्त्रियाँ तुमसे युद्ध करना चाहती हैं। तुमने इनके घर उजाडे़ हैं, सम्राट। क्या यह अन्याय नहीं है?“ पद्मा की आँखों से चिंगारियाँ-सी छिटक रही थीं।

”मैं अपनी गलती स्वीकार करता हूँ, राजकुमारी। मुझसे भूल हो गई। आप जो चाहें सजा दे दें।“ तलवार फेंककर अशोक ने सिर झुका लिया।

”नहीं तुम्हें हमसे युद्ध करना होगा। उठाओ तलवार सम्राट.........................“

”नहीं राजकुमारी, आज के बाद यह तलवार कभी नहीं उठेगी। मेरा सिर हाजिर है, आप इसे काटकर अपने पिता की मृत्यु का बदला ले लीजिए।“

”नहीं महाराज, हम भी निहत्थों पर वार नहीं करते। जाइए, हमने आपको क्षमा किया।“

”धन्यवाद, राजकुमारी। आज से आप कलिंग का राज्य संभालिए। मगध और कलिंग दोनों राज्य मित्र बनकर रहेंगे। आज के बाद मैं कोई युद्ध नहीं करूँगा। मैं अपने शस्त्र त्यागता हूँ।“

कभी युद्ध न करने का निर्णय लेने के बाद सम्राट अशोक, युद्ध-भूमि में गए। युद्ध-भूमि पर खून से लथपथ लाखों शव पड़े थे। हजारों घायल पानी-पानी कहकर तड़प रहे थे, कराह रहे थे, उनकी यह दशा देखकर अशोक का दिल भर आया राज्य पाने के लिए उसने कितने लोगों की हत्या कर दी। अशोक का हृदय बेचैन था। तभी उसने देखा कुछ बौद्ध भिक्षु घायलों को पानी पिला रहे थे। उनके घावों पर मरहम-पट्टी कर रहे थे। अशोक उनके सामने घुटने टेककर बैठ गए।

”मैं अपराधी हूँ, देव। मेरे हृदय को शांति दीजिए, भिक्षुवर।“

”धर्म ही तुम्हारे हृदय को शांति दे सकता है, अशोक। तुम बौद्ध धर्म की शरण में आ जाओ।“ भिक्षु ने शांति से उत्तर दिया।

”मुझे क्या करना होगा, भिक्षुवर?“

”प्रतिज्ञा करो, आज से तुम जीव-हत्या नहीं करोगे। जब तक शरीर में प्राण हैं, अहिंसा का पालन करोगे। सबसे प्रेम का व्यवहार करोगे।“

”मैं प्रतिज्ञा करता हूँ, देव। मुझे बौद्ध धर्म की शरण में ले लीजिए।“ हाथ जोड़कर सम्राट अशोक ने प्रार्थना की।

”जाओ अपनी प्रतिज्ञा का पालन करो। तुम्हारे मन को अवश्य शांति मिलेगी, सम्राट।“ हाथ उठाकर भिक्षु ने सम्राट को आशीर्वाद दिया।

कलिंग-युद्ध के बाद सम्राट अशोक ने कोई युद्ध नहीं किया। उसने अपनी प्रजा की भलाई और कल्याण में अपना जीवन बिताया। शांति और अहिंसा के धर्म को देश भर में फेलाया। इतना ही नहीं, उसे दूसरे देशों तक पहुंचाया। अशोक के राज्य में प्रजा बहुत सुखी थी। स्वयं सम्राट वेष बदलकर अपनी प्रजा का दुख-सुख जानने,घर-घर जाते थे। इतिहास में सम्राट अशोक का नाम अमर रहेगा।
 Meenu Ahuja

Tuesday, September 8, 2015

उत्तंग मुनि

महाभारत युद्ध समाप्त हो चुका था। योगेश्वर श्रीकृष्ण द्वारका जा रहे थे। तभी रास्ते में उनकी सौजन्य भेंट उत्तंग मुनि से हूई। महाभारत युद्ध की घटना से अनजान उत्तंग मुनि ने जब श्रीकृष्ण से

हस्तिनापुर के बारे में पूछा, तब श्रीकृष्ण ने कौरवों के नाश का समाचार सुना दिया।

यह सुनकर मुनि क्रोधित हो गए उन्होंने कहा, 'हे कृष्ण अगर आप चाहते तो इस युद्ध को रोक सकते थे। में अब आपको शाप दूंगा।'

तब वासुदेव ने कहा, 'मुनिवर पहले आप मेरी पूरी बात तो सुन लें, फिर चाहे तो शाप दे दीजिएगा। यह कहकर श्रीकृष्ण ने अपना विराट रूप दिखाया और धर्म की रक्षा के लिए उन्होंने ऐसा किया।'

इसके बाद उन्होंने उत्तंग मुनि से वर मांगने को कहा, 'तब मुनि ने कहा, भगवन जब भी मुझे प्यास लगे तुरंत जल मिल जाए। भगवान यह वर देकर चले गए।'

एक दिन मुनि उत्तंग वन के रास्ते कहीं जा रहे थे, उन्हें प्यास लगी। तभी उनके सामने से आता हुआ एक चांडाल दिखाई दिया। वह हाथ में धनुष और मशक( चमड़े का पात्र, जिसमें पानी रखा जाता था) लिए हुए था।

उसने मुनि को देखकर कहा, लगता है आप काफी प्यासे हैं। लीजिए पानी पी लीजिए। लेकिन चांडाल से घृणा के कारण उन्होंने पानी नहीं पीया। उन्हें श्रीकृष्ण द्वारा दिए गए इस स्वरूप पर क्रोध आया।

तभी वहां श्रीकृष्ण प्रकट हुए, उत्तंग मुनि ने कहा, 'प्रभु आपने मेरी परीक्षा ली है। लेकिन मैं ब्राह्मण होकर चांडाल के मशक से जल कैसे पीता?'

श्रीकृष्ण ने कहा, आपने जल की इच्छा की तो मैंने इंद्र से आपको अमृत पिलाने को कहा, 'मैं निश्चिंत था कि आप जैसा ज्ञानी पुरुष ब्राह्मण और चांडाल के भेद से ऊपर उठ हो चुका होगा और आप अमृत प्राप्त कर लेंगे। लेकिन आपने मुझे इंद्र के सामने लज्जित कर दिया। यह कहकर वासुदेव अंतर्ध्‍यान हो गए।'

संक्षेप में

यथार्थ का ज्ञान होने पर जाति और वर्ण का कोई भेद नहीं रह जाता। आत्मबोध, तत्वज्ञान , जीवन मुक्ति पर हम सबका अधिकार है। जिसे पाकर व्यक्ति का अत्यंत दुःख का आभाव और शाश्वत शांति और परम् आनन्द को पाकार कृत्य कृत्य तथा निहाल हो जाता है।इसलिए इस तरह के मिथ्या अभिमान छोड़कर हमें वर्तमान में जीना चाहिए।


बर्बरीक-----भीम के पौत्र

महाभारत के एक अति विशिष्ट भूमिका में भीम के पौत्र बर्बरीक...
बर्बरीक महान पाण्डव भीम के पुत्र घटोत्कच और नाग कन्या अहिलवती के पुत्र थे।
महाभारत का युद्ध कौरवों और पाण्डवों के मध्य अपरिहार्य हो गया था, यह समाचार बर्बरीक को प्राप्त हुये तो उनकी भी युद्ध में सम्मिलित होने की इच्छा जाग्रत हुई। जब वे अपनी माँ से आशीर्वाद प्राप्त करने पहुँचे, तब माँ को हारे हुये पक्ष का साथ देने का वचन दिया। वे अपने नीले घोडे, जिसका रंग नीला था, पर तीन बाण और धनुष के साथ कुरुक्षेत्र की रणभूमि की ओर अग्रसर हुये।
कृष्ण से भेंट
सर्वव्यापी कृष्ण ने ब्राह्मण वेश धारण कर बर्बरीक से परिचित होने के लिये उसे रोका और यह जानकर उनकी हँसी भी उडायी कि वह मात्र तीन बाण से युद्ध में सम्मिलित होने आया है। ऐसा सुनने पर बर्बरीक ने उत्तर दिया कि मात्र एक बाण शत्रु सेना को ध्वस्त करने के लिये पर्याप्त है और ऐसा करने के बाद बाण वापिस तरकस में ही आयेगा। यदि तीनों बाणों को प्रयोग में लिया गया तो तीनों लोकों में हाहाकार मच जायेगा। इस पर कृष्ण ने उन्हें चुनौती दी की इस पीपल के पेड़ के सभी पत्रों को छेद कर दिखलाओ, जिसके नीचे दोनो खड़े थे। बर्बरीक ने चुनौती स्वीकार की और अपने तूणीर से एक बाण निकाला और ईश्वर को स्मरण कर बाण पेड़ के पत्तों की ओर चलाया। तीर ने क्षण भर में पेड़ के सभी पत्तों को भेद दिया और कृष्ण के पैर के इर्द-गिर्द चक्कर लगाने लगा, क्योंकि एक पत्ता उन्होंने अपने पैर के नीचे छुपा लिया था, बर्बरीक ने कहा कि आप अपने पैर को हटा लीजिये नहीं तो ये आपके पैर को चोट पहुँचा देगा। कृष्ण ने बालक बर्बरीक से पूछा कि वह युद्ध में किस ओर से सम्मिलित होगा तो बर्बरीक ने अपनी माँ को दिये वचन दोहराये कि वह युद्ध में उस ओर से भाग लेगा जो कि निर्बल हो और हार की ओर अग्रसर हो। कृष्ण जानते थे कि युद्ध में हार तो कौरवों की ही निश्चित है, और इस पर अगर बर्बरीक ने उनका साथ दिया तो परिणाम उनके पक्ष में ही होगा।
शीश का दान
ब्राह्मण ने बालक से दान की अभिलाषा व्यक्त की, इस पर वीर बर्बरीक ने उन्हें वचन दिया कि अगर वो उनकी अभिलाषा पूर्ण करने में समर्थ होगा तो अवश्य करेगा। कृष्ण ने उनसे शीश का दान माँगा। बालक बर्बरीक क्षण भर के लिये चकरा गया, परन्तु उसने अपने वचन की दृढ़ता जतायी। बालक बर्बरीक ने ब्राह्मण से अपने वास्तविक रूप से अवगत कराने की प्रार्थना की और कृष्ण के बारे में सुन कर बालक ने उनके विराट रूप के दर्शन की अभिलाषा व्यक्त की, कृष्ण ने उन्हें अपना विराट रूप दिखाया। उन्होंने बर्बरीक को समझाया कि युद्ध आरम्भ होने से पहले युद्धभूमि की पूजा के लिये एक वीर्यवीर क्षत्रिय के शीश के दान की आवश्यकता होती है, उन्होंने बर्बरीक को युद्ध में सबसे वीर की उपाधि से अलंकृत किया, अतैव उनका शीश दान में माँगा। बर्बरीक ने उनसे प्रार्थना की कि वह अंत तक युद्ध देखना चाहता है, श्री कृष्ण ने उनकी यह बात स्वीकार कर ली। फाल्गुन मास की द्वादशी को उन्होंने अपने शीश का दान दिया। भगवान ने उस शीश को अमृत से सींचकर सबसे ऊँची जगह पर रख दिया, ताकि वह महाभारत युद्ध देख सके। उनका सिर युद्धभूमि के समीप ही एक पहाडी पर सुशोभित किया गया, जहाँ से बर्बरीक सम्पूर्ण युद्ध का जायजा ले सकते थे।
विजय का निर्णय

युद्ध की समाप्ति पर पांडवों में ही आपसी तनाव हुआ कि युद्ध में विजय का श्रेय किस को जाता है, इस पर कृष्ण ने उन्हें सुझाव दिया कि बर्बरीक का शीश सम्पूर्ण युद्ध का साक्षी है, अत: उससे बेहतर निर्णायक भला कौन हो सकता है। सभी इस बात से सहमत हो गये। बर्बरीक के शीश ने उत्तर दिया कि कृष्ण ही युद्ध में विजय प्राप्त कराने में सबसे महान पात्र हैं, उनकी शिक्षा, उनकी उपस्थिति, उनकी युद्धनीति ही निर्णायक थी। उन्हें युद्धभूमि में सिर्फ़ उनका सुदर्शन चक्र घूमता हुआ दिखायी दे रहा था, जो कि शत्रु सेना को काट रहा था, महाकाली दुर्गा कृष्ण के आदेश पर शत्रु सेना के रक्त से भरे प्यालों का सेवन कर रही थीं।
वरदान प्राप्ति

कृष्ण वीर बर्बरीक के महान बलिदान से काफ़ी प्रसन्न हुये और वरदान दिया कि कलियुग में तुम 'श्याम' नाम से जाने जाओगे, क्योंकि कलियुग में हारे हुये का साथ देने वाला ही श्याम नाम धारण करने में समर्थ है। खाटूनगर तुम्हारा धाम बनेगा। उनका शीश खाटू में दफ़नाया गया। एक बार एक गाय उस स्थान पर आकर अपने स्तनों से दूध की धारा स्वतः ही बहा रही थी, बाद में खुदायी के बाद वह शीश प्रकट हुआ, जिसे कुछ दिनों के लिये एक ब्राह्मण को सुपुर्द कर दिया गया। एक बार खाटू के राजा को स्वप्न में मन्दिर निर्माण के लिये और वह शीश मन्दिर में सुशोभित करने के लिये प्रेरित किया गया। तदन्तर उस स्थान पर मन्दिर का निर्माण किया गया और कार्तिक माह की एकादशी को शीश मन्दिर में सुशोभित किया गया, जिसे 'बाबा श्याम' के जन्मदिन के रूप में मनाया जाता है। खाटू श्याम जी का मुख्य मंदिर राजस्थान के सीकर ज़िले के गांव खाटू में बना हुआ है।....
खाटू श्याम का मन्दिर में स्थापित मूर्ती..

गंगापुत्र देव व्रत. भीष्म

.गंगापुत्र देव व्रत...जिनका आजीवन ब्रह्मचर्य की दृढ प्रतिज्ञा के कारण उनका नाम हुआ .."भीष्म"..पांडव कौरव के पितामह..भीष्म पितामह

पूर्व जन्म में वसु थे भीष्म

महाभारत के आदि पर्व के अनुसार एक बार पृथु आदि वसु अपनी पत्नियों के साथ मेरु पर्वत पर भ्रमण कर रहे थे। वहां वसिष्ठ ऋषि का आश्रम भी था। एक वसु पत्नी की दृष्टि ऋषि वसिष्ठ के आश्रम में बंधी नंदिनी नामक गाय पर पड़ गई। उसने उसे अपने पति द्यौ नामक वसु को दिखाया तथा कहा कि वह यह गाय अपनी सखियों के लिए चाहती है।

पत्नी की बात मानकर द्यौ ने अपने भाइयों के साथ उस गाय का हरण कर लिया। जब महर्षि वसिष्ठ अपने आश्रम आए तो उन्होंने दिव्य दृष्टि से सारी बात जान ली। वसुओं के इस कार्य से क्रोधित होकर ऋषि ने उन्हें मनुष्य योनि में जन्म लेने का श्राप दे दिया। जब सभी वसु ऋषि वसिष्ठ से क्षमा मांगने आए।

तब ऋषि ने कहा कि तुम सभी वसुओं को तो शीघ्र ही मनुष्य योनि से मुक्ति मिल जाएगी, लेकिन इस द्यौ नामक वसु को अपने कर्म भोगने के लिए बहुत दिनों तक पृथ्वीलोक में रहना पड़ेगा। महाभारत के अनुसार द्यौ नामक वसु ने गंगापुत्र भीष्म के रूप में जन्म लिया था। श्राप के प्रभाव से वे लंबे समय तक पृथ्वी पर रहे तथा अंत में इच्छामृत्यु से प्राण त्यागे।

भीष्म ने दिलाया था श्रीकृष्ण को क्रोध

जब पांडवों व कौरवों का युद्ध प्रारंभ हुआ, उस समय कौरवों के सेनापति भीष्म पितामह ही थे। युद्ध के तीसरे दिन भीष्म पितामह ने पांडवों की सेना पर भयंकर बाण वर्षा कर भयभीत कर दिया। यह देखकर श्रीकृष्ण ने अर्जुन से कहा कि वह भीष्म पितामह से युद्ध करे। अर्जुन और भीष्म पितामह में भयंकर युद्ध हुआ, लेकिन थोड़ी देर बाद अर्जुन युद्ध में ढीले पड़ गए और पांडवों की सेना में भगदड़ मच गई। यह देखकर श्रीकृष्ण को बहुत क्रोध आया और वे रथ से उतर गए।

श्रीकृष्ण अपने हाथ में सुदर्शन चक्र लेकर बड़ी तेजी से भीष्म की ओर झपटे। श्रीकृष्ण के इस रूप को देखकर भीष्म बिल्कुल भी भयभीत नहीं हुए। भगवान श्रीकृष्ण को ऐसा करते देख अर्जुन रोकने के लिए उनके पीछे दौड़े। अर्जुन ने श्रीकृष्ण को आश्वस्त किया कि अब मैं युद्ध में ढिलाई नहीं करुंगा आप युद्ध मत कीजिए। अर्जुन की बात सुनकर श्रीकृष्ण शांत हो गए और पुन: अर्जुन का रथ हांकने लगे।

भीष्म ने स्वयं बताया था अपनी मृत्यु का रहस्य

महाभारत के युद्ध में भीष्म पितामह ने पांडव सेना में भयंकर मारकाट मचाई। पांडव भी भीष्म का यह रूप देखकर डर गए। तब उन्होंने भगवान श्रीकृष्ण से भीष्म पितामह को हराने का उपाय पूछा। तब भगवान श्रीकृष्ण ने कहा कि यह उपाय तो स्वयं भीष्म ही बता सकते हैं। तब पांचों पांडव भगवान श्रीकृष्ण के साथ भीष्म पितामह से मिलने गए और उनसे पूछा कि आपको युद्ध में कैसे हराया जा सकता है।

तब भीष्म ने बताया कि तुम्हारी सेना में जो शिखंडी है, वह पहले एक स्त्री था, बाद में पुरुष बना। अर्जुन यदि शिखंडी को आगे करके मुझ पर बाणों का प्रहार करें, वह जब मेरे सामने होगा तो मैं बाण नहीं चलाऊंगा। इस मौके का फायदा उठाकर अर्जुन मुझे बाणों से घायल कर दें। इस प्रकार मुझ पर विजय प्राप्त करने के बाद ही तुम यह युद्ध जीत सकते हो।

ऐसे हुई भीष्म पितामह की पराजय

महाभारत युद्ध के दसवें दिन भी भीष्म पितामह ने पांडवों की सेना में भयंकर मारकाट मचाई। यह देखकर युधिष्ठिर ने अर्जुन से भीष्म पितामह को रोकने के लिए कहा। अर्जुन शिखंडी को आगे करके भीष्म से युद्ध करने पहुंचे। शिखंडी को देखकर भीष्म ने अर्जुन पर बाण नहीं चलाए और अर्जुन अपने तीखे बाणों से भीष्म पितामह को बींधने लगे।
इस प्रकार बाणों से छलनी होकर भीष्म पितामह सूर्यास्त के समय अपने रथ से गिर गए। उस समय उनका मस्तक पूर्व दिशा की ओर था। उन्होंने देखा कि इस समय सूर्य अभी दक्षिणायन में है, अभी मृत्यु का उचित समय नही हैं, इसलिए उन्होंने उस समय अपने प्राणों का त्याग नहीं किया।
ऐसे त्यागे भीष्म पितामह ने अपने प्राण

जब सूर्यदेव उत्तरायण हो गए तब युधिष्ठिर सहित सभी लोग भीष्म पितामह के पास पहुंचे। उन्हें देखकर भीष्म पितामह ने कहा कि इन तीखे बाणों पर शयन करते हुए मुझे 58 दिन हो गए हैं। उन्होंने श्रीकृष्ण को संबोधित करते हुए कहा कि अब मैं प्राणों का त्याग करना चाहता हूं। ऐसा कहकर भीष्मजी कुछ देर तक चुपचाप रहे। इसके बाद वे मन सहित प्राणवायु को क्रमश: भिन्न-भिन्न धारणाओं में स्थापित करने लगे।

भीष्मजी का प्राण उनके जिस अंग को त्यागकर ऊपर उठता था, उस अंग के बाण अपने आप निकल जाते और उनका घाव भी भर जाता। भीष्मजी ने अपने देह के सभी द्वारों को बंद करके प्राण को सब ओर से रोक लिया, इसलिए वह उनका मस्तक (ब्रह्म रंध्र) फोड़कर आकाश में चला गया। इस प्रकार महात्मा भीष्म के प्राण आकाश में विलीन हो गए।  · 

द्रोणाचार्य पुत्र ..अश्वत्थामा.

.द्रोणाचार्य पुत्र ..अश्वत्थामा.
शारद्वतीं ततो भार्यां कृपीं द्रोणोऽन्वविन्दत्।
अग्रिहोत्रे च धर्मे च दमे च सततं रताम्।। 46 ।। महाभारत (संभव पर्व)

जन्म का रहस्य : अश्‍वत्थामा का जन्म भारद्वाज ऋषि के पुत्र द्रोण के यहां हुआ था। उनकी माता ऋषि शरद्वान की पुत्री कृपी थीं। द्रोणाचार्य का गोत्र अंगिरा था। तपस्यारत द्रोण ने पितरों की आज्ञा से संतान प्राप्‍ति हेतु कृपी से विवाह किया। कृपी भी बड़ी ही धर्मज्ञ, सुशील और तपस्विनी थीं। दोनों ही संपन्न परिवार से थे।

जन्म लेते ही अश्‍वत्थामा ने उच्चैःश्रवा (अश्व) के समान घोर शब्द किया, जो सभी दिशाओं और व्योम में गुंज उठा। तब आकाशवाणी हुई कि इस विशिष्ट बालक का नाम अश्‍वत्थामा होगा:
महाभारत में
अ: श्‍वत्थामा का भय : जब राक्षसों की सेना ने घटोत्कच के नेतृत्व में भयानक आक्रमण किया तो सभी कौरव वीर भाग खड़े, तब अकेले ही अश्‍वत्थामा वहां अड़े रहे। उन्होंने घटोत्कच के पुत्र अंजनपर्वा को मार डाला। साथ ही उन्होंने पांडवों की एक अक्षौहिणी सेना को भी मार डाला और घटोत्कच को घायल कर दिया।

अश्‍वत्थामा कौरव सेना के प्रधान महारथी थे। कुरुराज ने अपने पक्ष की ग्यारह अक्षौहिणी सेना को ग्यारह महारथियों के सेनापतित्व में संगठित किया था। ये थे द्रोण, कृप, शल्य, जयद्रथ, सुदक्षिण, कृतवर्मा, अश्‍वत्थामा, कर्ण, भूरिश्रवा, शकुनि और बाह्‍लीक। अतः अश्‍वत्थामा ग्यारह सेनापतियों में एक प्रमुख स्थान रखता है।

इधर युद्ध में अर्जुन, कृष्ण, युधिष्ठिर, भीम, नकुल, सहदेव, द्रुपद, धृष्टद्युम्न तथा घटोत्कच आदि लड़ रहे थे। उनके रहते हुए भी उनके देखते ही देखते अश्‍वत्थामा ने द्रुपद, सुत सुरथ और शत्रुंजय, कुंतीभोज के 90 पुत्रों तथा बलानीक, शतानीक, जयाश्‍व, श्रुताह्‍य, हेममाली, पृषध्र तथा चन्द्रसेन जैसे वीरों को रण में मार डाला और युधिष्ठिर की सेना को भगा दिया था।

अश्‍वत्थामा द्वारा किए जा रहे इस विध्वंस को देखते हुए पांडव पक्ष में भय और आतंक व्याप्त हो गया था। अब अश्‍वत्‍थामा को रोका जाना बहुत जरूरी हो गया था। सभी इस पर विचार करने लगे थे अन्यथा अगले दिन हार निश्चित थी।

अश्‍वत्‍थामा गज मारा गया : भीष्म के शरशय्या पर लेटने के बाद ग्यारहवें दिन के युद्ध में कर्ण के कहने पर द्रोण सेनापति बनाए जाते हैं। दुर्योधन और शकुनि द्रोण से कहते हैं कि वे युधिष्ठिर को बंदी बना लें तो युद्ध अपने आप खत्म हो जाएगा, तो जब दिन के अंत में द्रोण युधिष्ठिर को युद्ध में हराकर उसे बंदी बनाने के लिए आगे बढ़ते ही हैं कि अर्जुन आकर अपने बाणों की वर्षा से उन्हें रोक देता है। नकुल, युधिष्ठिर के साथ थे व अर्जुन भी वापस युधिष्ठिर के पास आ गए। इस प्रकार कौरव युधिष्ठिर को नहीं पकड़ सके।

लेकिन द्रोण की संहारक शक्ति के बढ़ते जाने से पांडवों के ‍खेमे में दहशत फैल जाती है। पिता-पुत्र ने मिलकर महाभारत युद्ध में पांडवों की हार सुनिश्चित कर दी थी। पांडवों की हार को देखकर श्रीकृष्ण ने युधिष्ठिर से छल का सहारा लेने को कहा। इस योजना के तहत युद्ध में यह बात फैला दी गई कि 'अश्वत्थामा मारा गया', लेकिन युधिष्‍ठिर झूठ बोलने को तैयार नहीं थे। तब अवंतिराज के अश्‍वत्थामा नामक हाथी का भीम द्वारा वध कर दिया गया। इसके बाद युद्ध में यह बाद फैला दी गई कि 'अश्वत्थामा मारा गया'।

जब गुरु द्रोणाचार्य ने धर्मराज युधिष्ठिर से अश्वत्थामा की सत्यता जानना चाही तो उन्होंने जवाब दिया 'अश्वत्थामा मारा गया, परंतु हाथी।' श्रीकृष्ण ने उसी समय शंखनाद किया जिसके शोर के चलते गुरु द्रोणाचार्य आखिरी शब्द 'हाथी' नहीं सुन पाए और उन्होंने समझा कि मेरा पुत्र मारा गया। यह सुनकर उन्होंने शस्त्र त्याग दिए और युद्ध भूमि में आंखें बंद कर शोक में डूब गए। यही मौका था जबकि द्रोणाचार्य को निहत्था जानकर द्रौपदी के भाई धृष्टद्युम्न ने तलवार से उनका सिर काट डाला। यह समाचार अश्‍वत्थामा के लिए भयंकर रूप से दुखद था। पिता की छलपूर्वक हत्या के बाद अश्‍वत्थामा युद्ध के सभी नियमों को तोड़कर ताक में रख देता है।

महाभारत के 18वे में ब्रह्मास्त्र का प्रयोग : अठारहवें दिन कौरवों के तीन योद्धा शेष बचते हैं- अश्‍वत्थामा, कृपाचार्य और कृतवर्मा। इसी दिन अश्वत्थामा द्वारा पांडवों के वध की प्रतिज्ञा ली गई। लेकिन समझ में नहीं आता कि कैसे पांडवों को मारा जाए।

एक उल्लू द्वारा रात्रि को कौवे पर आक्रमण करने पर एक उल्लू उन सभी को मार देता है। यह घटना देखकर अश्‍वत्थामा के मन में भी यही विचार आता है और वह घोर कालरात्रि में कृपाचार्य तथा कृतवर्मा की सहायता से पांडवों के शिविर में पहुंचकर सोते हुए पांडवों के 5 पुत्रों को पांडव समझकर उनका सिर काट देता है। इस घटना से धृष्टद्युम्न जाग जाता है तो अश्‍वत्थामा उसका भी वध कर देता है।

अश्वत्थामा के इस कुकर्म की सभी निंदा करते हैं। अपने पुत्रों की हत्या से दुखी द्रौपदी विलाप करने लगती है। उसके विलाप को सुनकर अर्जुन उस नीच-कर्म हत्यारे ब्राह्मण पुत्र अश्‍वत्थामा के सिर को काट डालने की प्रतिज्ञा लेते हैं। अर्जुन की प्रतिज्ञा सुन अश्वत्थामा भाग निकलता है, तब श्रीकृष्ण को सारथी बनाकर एवं अपना गाण्डीव-धनुष लेकर अर्जुन उसका पीछा करता है। अश्वत्थामा को कहीं भी सुरक्षा नहीं मिली तो भय के कारण वह अर्जुन पर ब्रह्मास्त्र का प्रयोग कर देता है।

मजबूरी में अर्जुन को भी ब्रह्मास्त्र चलाना पड़ता है। ऋषियों की प्रार्थना पर अर्जुन तो अपना अस्त्र वापस ले लेता है लेकिन अश्वत्थामा अपना ब्रह्मास्त्र अभिमन्यु की विधवा उत्तरा की कोख की तरफ मोड़ देता है। कृष्ण अपनी शक्ति से उत्तरा के गर्भ को बचा लेते हैं।

अंत में श्रीकृष्ण बोलते हैं, 'हे अर्जुन! धर्मात्मा, सोए हुए, असावधान, मतवाले, पागल, अज्ञानी, रथहीन, स्त्री तथा बालक को मारना धर्म के अनुसार वर्जित है। इसने धर्म के विरुद्ध आचरण किया है, सोए हुए निरपराध बालकों की हत्या की है। जीवित रहेगा तो पुनः पाप करेगा अतः तत्काल इसका वध करके और इसका कटा हुआ सिर द्रौपदी के सामने रखकर अपनी प्रतिज्ञा पूरी करो।'

श्रीकृष्ण के इन वचनों को सुनने के बाद भी अर्जुन को अपने गुरुपुत्र पर दया आ गई और उन्होंने अश्वत्थामा को जीवित ही शिविर में ले जाकर द्रौपदी के समक्ष खड़ा कर दिया। पशु की तरह बंधे हुए गुरुपुत्र को देखकर द्रौपदी ने कहा, 'हे आर्यपुत्र! ये गुरुपुत्र तथा ब्राह्मण हैं। ब्राह्मण सदा पूजनीय होता है और उसकी हत्या करना पाप है। आपने इनके पिता से इन अपूर्व शस्त्रास्त्रों का ज्ञान प्राप्त किया है। पुत्र के रूप में आचार्य द्रोण ही आपके सम्मुख बंदी रूप में खड़े हैं। इनका वध करने से इनकी माता कृपी मेरी तरह ही कातर होकर पुत्रशोक में विलाप करेगी। पुत्र से विशेष मोह होने के कारण ही वह द्रोणाचार्य के साथ सती नहीं हुई। कृपी की आत्मा निरंतर मुझे कोसेगी। इनके वध करने से मेरे मृत पुत्र लौटकर तो नहीं आ सकते अतः आप इन्हें मुक्त कर दीजिए।'

द्रौपदी के इन धर्मयुक्त वचनों को सुनकर सभी ने उसकी प्रशंसा की। इस पर श्रीकृष्ण ने कहा, 'हे अर्जुन! शास्त्रों के अनुसार पतित ब्राह्मण का वध भी पाप है और आततायी को दंड न देना भी पाप है अतः तुम वही करो जो उचित है।'

उनकी बात को समझकर अर्जुन ने अपनी तलवार से अश्वत्थामा के सिर के केश काट डाले और उसके मस्तक की मणि निकाल ली। मणि निकल जाने से वह श्रीहीन हो गया। बाद में श्रीकृष्ण ने अश्वत्थामा को 6 हजार साल तक भटकने का शाप दिया। अंत में अर्जुन ने उसे उसी अपमानित अवस्था में शिविर से बाहर निकाल दिया।

अश्वत्थामा द्रोणाचार्य के पुत्र थे। द्रोणाचार्य ने शिव को अपनी तपस्या से प्रसन्न करके उन्हीं के अंश से अश्वत्थामा नामक पुत्र को प्राप्त किया। अश्‍वत्थामा के पास शिवजी के द्वारा दी गई कई शक्तियां थी। वे स्वयं शिव का अंश थे।

जन्म से ही अश्वत्थामा के मस्तक में एक अमूल्य मणि विद्यमान थी, जोकि उसे दैत्य, दानव, शस्त्र, व्याधि, देवता, नाग आदि से निर्भय रखती थी। इस मणि के कारण ही उस पर किसी भी अस्त्र-शस्त्र का असर नहीं हो पाता था।

द्रौपदी ने अश्‍वत्थामा को जीवनदान देत हुए अर्जुन से उसकी मणि उतार लेने का सुझाव दिया। अत: अर्जुन ने इनकी मुकुट मणि लेकर प्राणदान दे दिया। अर्जुन ने यह मणि द्रौपदी को दे दी जिसे द्रौपदी ने युधिष्ठिर के अधिकार में दे दी।

शिव महापुराण (शतरुद्रसंहिता -37) के अनुसार अश्वत्थामा आज भी जीवित हैं और वे गंगा के किनारे निवास करते हैं किंतु उनका निवास कहां हैं, यह नहीं बताया गया है।