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Thursday, December 4, 2014

RAJPUT SAVED HINDUISM AND ISLAMIST CONVERSION OF INDIA

Photo: जय माता जी की हुकुम_/\_
मित्रों क्षत्रिय समुदाय सदैव राष्ट्र धर्म की रक्षा के लिए बलिदान देता आया है।
राजा के रूप में पालनहार,यौद्धा के रूप में धर्म और मात्रभूमि के रक्षक की भूमिका सदियों से निभाता आया है।
जिस इस्लाम की जोशीली धारा ने ईरान,मिस्र,मध्य एशिया,और यूरोप तक महज कुछ ही दशको में अपना झंडा फहरा दिया,उसे भारत के वीर क्षत्रियो ने आर्याव्रत में विफल कर दिया।
ये राजपूतो के सफल प्रतिरोध का ही परिणाम है कि भारत में वैदिक सनातन धर्म आज भी बहुसंख्यक है।
पर इतने बलिदानों के बाद भी राजपूतो के बारे में बहुत से लोगो को गलत धारणाएँ है।हमे हर स्तर पर दबाने और कमजोर करने की कोशिशे होती हैं। पहले जमीदारी उन्मूलन,फिर भूमि हदबंदी कानून,फिर आरक्षण से हमे लगातार आर्थिक,सामाजिक,राजनितिक रूप में नीचे धकेला गया। हमने सह लिया।
पर अब हमसे हमारा इतिहास भी छीना जा रहा है!!!!!!
गत एक सदी से जिस तरह से हमारे इतिहास के साथ छेड़छाड़ हो रही है वो सभी राजपूतों से अनभिज्ञ नही है और जिस तरह से कुछ इतिहासकारो ने और अंग्रेजो ने भी हमारे इतिहास को बहुत तोड मरोड कर पेश किया है इन इतिहासकारो ने सिर्फ वो ही इतिहास हमे बताया जिसमे राजपूत कमजोर रहे पर हमारे इस पेज को बनाने का मुख्य उद्देश्य अपने शुद्ध इतिहास को लोगो तक पहुंचाना है और अपने वीर योद्धाओ की वीर गाथाओ को लोगो के समक्ष रखना है जिसको पढने मात्र से ही शरीर मे जोश और अपने राजपूत होने पर गर्व होता है और हम ये सारा इतिहास पुख्ता सबूत और प्रमाणो के साथ ही पेश करेगें क्योकी बहुत से हमारे राजपूत भाई टीवी सीरीयल देखकर या फिर अफवाहो को सुनकर उसी को सच मानकर अपना इतिहास सोच बैठते है जो कि बहुत गलत है 
विडम्बना देखिये कि जिन शक हूणो से हमारे पुरखो ने लड़ाई लडी और उन्हें मार भगाया।कुछ इतिहासकारों ने बिना किसी तथ्य के हमे उन्ही मलेच्छो का वंशज बता दिया।
इन तथाकथित इतिहासकारों ने लिखा है कि राजपूतो का इतिहास सातवी सदी से प्रारम्भ होता है जबकि उससे पहले महात्मा बुध, चन्द्रगुप्त मौर्य ,सिकन्दर को हराने वाले वीर पुरु,यौधेय वंश ,विक्रमादित्य ये सभी क्षत्रिय राजपुत्र थे और इनके वंशज आज भी क्षत्रिय राजपूत समाज का हिस्सा हैं।
हम ये सप्रमाण सिद्ध करेंगे ।
बहुत से वंश पहले शक्तिशाली थे पर बाद में कमजोर होकर कुछ अवनत हो गये कुछ दूर दराज के इलाको में चले गये कुछ दूसरी जातियों में मिल गये और कई इस्लाम धर्म में पूरी तरह धर्मान्तरित हो गये। कई वंश सिकुड़ते हुए आज एक दो ग
गाँव या परिवारों तक सीमित हो गये हैं।आज ज्यादातर राजपूत ही अपने इन प्राचीन गौरवशाली वंशो जैसे मोरी वंश,गौतम वंश,पुरु वंश,यौधेय(जोहिया)वंश के बारे में नही जानते।
इस पेज के माध्यम से हम उन सभी लुप्तप्राय वंशो का प्रमाणिक इतिहास भी सामने लाने का प्रयास करेंगे।
आज राजपूत समाज को खुद ही अपने वंशो की उत्पत्ति की सही जानकारी नही है। सुनी सुनाई बातो,अग्नि कुंड से उत्पत्ति जैसे अवैज्ञानिक धारणाओ पर विश्वास करके हम स्वयम अपना नुकसान कर रहे हैं। हमे सच्चा और प्रमाणिक इतिहास सामने लाना होगा।
इस पेज के माध्यम से हम राजपूतो के अतिरिक्त मराठा,राजू,जैसे दुसरे क्षत्रिय समाजो को भी एक प्लेटफोर्म पर लाने का प्रयास करेंगे
आज अधिकतर युवा इंटरनेट पर विकिपीडिया में अपना इतिहास खोजते हैं। पर कल तक जो जातियां खुद को राजपूतो से निकला हुआ बताकर गर्व करती थी आज सम्पन्न होने पर ये लोग हमारे गौरवशाली इतिहास को अपना बता रही हैं।
तथ्यहीन इतिहासकारों की किताबो का reference देकर उन्होंने विकिपीडिया पर एडिट करके अर्थ का अनर्थ कर दिया।
मतलब पहले भैंस चुराते थे,फिर हमारी जमीने छीन ली और अब हमारा इतिहास चुरा रहे हैं।
पर ये भूल रहे ह कि भेड अगर शेर की खाल पहन ले तो शेर जैसा जिगर कहाँ से लाएगी?
इन सब नवसामंतवादियों को जवाब देंने के लिए और क्षत्रिय राजपूत समाज का सच्चा इतिहास सामने लाने के लिए आप सब का सहयोग अवश्यम्भावी है।
इसलिए हम आप सभी मित्रो से अनुरोध करते है कि इस इतिहास को जानने के लिए हमारे पेज को भी ज्यादा से ज्यादा लोगो तक पहुंचाने का कष्ट करे--
जय महाराणा 
जय क्षात्र धर्म।।क्षत्रिय समुदाय सदैव राष्ट्र धर्म की रक्षा के लिए बलिदान देता आया है।
राजा के रूप में पालनहार,यौद्धा के रूप में धर्म और मात्रभूमि के रक्षक की भूमिका सदियों से निभाता आया है।
जिस इस्लाम की जोशीली धारा ने ईरान,मिस्र,मध्य एशिया,और यूरोप तक महज कुछ ही दशको में अपना झंडा फहरा दिया,उसे भारत के वीर क्षत्रियो ने आर्याव्रत में विफल कर दिया।

ये राजपूतो के सफल प्रतिरोध का ही परिणाम है कि भारत में वैदिक सनातन धर्म आज भी बहुसंख्यक है।
पर इतने बलिदानों के बाद भी राजपूतो के बारे में बहुत से लोगो को गलत धारणाएँ है।हमे हर स्तर पर दबाने और कमजोर करने की कोशिशे होती हैं। पहले जमीदारी उन्मूलन,फिर भूमि हदबंदी कानून,फिर आरक्षण से हमे लगातार आर्थिक,सामाजिक,राजनितिक रूप में नीचे धकेला गया। हमने सह लिया।
पर अब हमसे हमारा इतिहास भी छीना जा रहा है!!!!!!
गत एक सदी से जिस तरह से हमारे इतिहास के साथ छेड़छाड़ हो रही है वो सभी राजपूतों से अनभिज्ञ नही है और जिस तरह से कुछ इतिहासकारो ने और अंग्रेजो ने भी हमारे इतिहास को बहुत तोड मरोड कर पेश किया है इन इतिहासकारो ने सिर्फ वो ही इतिहास हमे बताया जिसमे राजपूत कमजोर रहे पर हमारे इस पेज को बनाने का मुख्य उद्देश्य अपने शुद्ध इतिहास को लोगो तक पहुंचाना है और अपने वीर योद्धाओ की वीर गाथाओ को लोगो के समक्ष रखना है जिसको पढने मात्र से ही शरीर मे जोश और अपने राजपूत होने पर गर्व होता है और हम ये सारा इतिहास पुख्ता सबूत और प्रमाणो के साथ ही पेश करेगें क्योकी बहुत से हमारे राजपूत भाई टीवी सीरीयल देखकर या फिर अफवाहो को सुनकर उसी को सच मानकर अपना इतिहास सोच बैठते है जो कि बहुत गलत है
विडम्बना देखिये कि जिन शक हूणो से हमारे पुरखो ने लड़ाई लडी और उन्हें मार भगाया।कुछ इतिहासकारों ने बिना किसी तथ्य के हमे उन्ही मलेच्छो का वंशज बता दिया।
इन तथाकथित इतिहासकारों ने लिखा है कि राजपूतो का इतिहास सातवी सदी से प्रारम्भ होता है जबकि उससे पहले महात्मा बुध, चन्द्रगुप्त मौर्य ,सिकन्दर को हराने वाले वीर पुरु,यौधेय वंश ,विक्रमादित्य ये सभी क्षत्रिय राजपुत्र थे और इनके वंशज आज भी क्षत्रिय राजपूत समाज का हिस्सा हैं।
हम ये सप्रमाण सिद्ध करेंगे ।
बहुत से वंश पहले शक्तिशाली थे पर बाद में कमजोर होकर कुछ अवनत हो गये कुछ दूर दराज के इलाको में चले गये कुछ दूसरी जातियों में मिल गये और कई इस्लाम धर्म में पूरी तरह धर्मान्तरित हो गये। कई वंश सिकुड़ते हुए आज एक दो ग
गाँव या परिवारों तक सीमित हो गये हैं।आज ज्यादातर राजपूत ही अपने इन प्राचीन गौरवशाली वंशो जैसे मोरी वंश,गौतम वंश,पुरु वंश,यौधेय(जोहिया)वंश के बारे में नही जानते।
इस पेज के माध्यम से हम उन सभी लुप्तप्राय वंशो का प्रमाणिक इतिहास भी सामने लाने का प्रयास करेंगे।
आज राजपूत समाज को खुद ही अपने वंशो की उत्पत्ति की सही जानकारी नही है। सुनी सुनाई बातो,अग्नि कुंड से उत्पत्ति जैसे अवैज्ञानिक धारणाओ पर विश्वास करके हम स्वयम अपना नुकसान कर रहे हैं। हमे सच्चा और प्रमाणिक इतिहास सामने लाना होगा।
इस पेज के माध्यम से हम राजपूतो के अतिरिक्त मराठा,राजू,जैसे दुसरे क्षत्रिय समाजो को भी एक प्लेटफोर्म पर लाने का प्रयास करेंगे
आज अधिकतर युवा इंटरनेट पर विकिपीडिया में अपना इतिहास खोजते हैं। पर कल तक जो जातियां खुद को राजपूतो से निकला हुआ बताकर गर्व करती थी आज सम्पन्न होने पर ये लोग हमारे गौरवशाली इतिहास को अपना बता रही हैं।
तथ्यहीन इतिहासकारों की किताबो का reference देकर उन्होंने विकिपीडिया पर एडिट करके अर्थ का अनर्थ कर दिया।
मतलब पहले भैंस चुराते थे,फिर हमारी जमीने छीन ली और अब हमारा इतिहास चुरा रहे हैं।
पर ये भूल रहे ह कि भेड अगर शेर की खाल पहन ले तो शेर जैसा जिगर कहाँ से लाएगी?
इन सब नवसामंतवादियों को जवाब देंने के लिए और क्षत्रिय राजपूत समाज का सच्चा इतिहास सामने लाने के लिए आप सब का सहयोग अवश्यम्भावी है।
इसलिए हम आप सभी मित्रो से अनुरोध करते है कि इस इतिहास को जानने के लिए हमारे पेज को भी ज्यादा से ज्यादा लोगो तक पहुंचाने का कष्ट करे--
जय महाराणा
जय क्षात्र धर्म।।

HOW RAJPUT SAVED COWS AND BRAHMANS- GAU GHAT IN PUSKAR

Photo: जब ब्राह्मणो और गौ माता को बचाने के लिए राठोड़ी सेना ने किया पुष्कर में मुगलो से युद्ध अपने जीते जी एक भी गौ काटने न दी उनके याद में पुष्कर में आज गौ घाट बना है 

संवत 1737 विक्रमी के भाद्रपद मास की कृष्ण सप्तमी का दोपहर ढल चुका था और कुंवर राजसिंह सिर पर मोड बांधे दूल्हा के भेष मे घोडी पर सवार थे उनके पीछे चल रहे रथो मे एक रथ मे उनकी दुल्हन और दूसरे रथ मे महिलाए पावन संगीत गा रही थी मांगलिक ढोल बज रहे थे पूरा गांव विवाहत्सव मे झूम रहा था कि उसी समय हांफते हुए एक घुडसवार अजमेर की तरफ से आया और कुंवर राजसिंह से कुछ कहा और देखते ही देखते मांगलिक संगीत बंद हो गया शुभ शहनाई रंणभेरी मे बदल गई। 
ठाकुर प्रताप सिंह जी गढ मे बुर्ज पर चढकर वर्षा की संभावना पर विचार कर रहे थे पर पावन संगीत को रंणभेरी मे बदला सुनकर उनके मन मे सवालो का तूफान उमड पडा के ये रंग मे भंग कैसा? इतना सोचते ही उन्होंने जैसे ही दरवाजे की ओर देखा तो आनंदसिंह उनको सरपट आते नजर आए और घोडे से चढे चढे ही आनंदसिंह ने चिल्लाकर कहा कि अजमेर का फौजदार तहव्वर खान मेड़ता की पराजय का बदला लेने के लिए अपनी विशाल सेना लेकर पुष्कर मे आ चुका है और वो जन्माष्टमी के पावन अवसर पर एक सौ एक गायो की कुर्बानी कर वाराहजी के मंदिर को ध्वस्त कर ब्राह्मणों का कत्लेआम करेगा इतना सुनते ही ठाकुर प्रताप सिंह ने कहां कि ये तो बहुत गलत हुआ और गहरी सोच मे पडकर मग्न हो गए, कि जब ओरंगजेब का राजपूतो के अत यह युद्ध था, जमरूद के थाने पर औरंगजेब ने विष देकर जोधपुर के महाराजा जसवंत सिंह को धोखे से मरवा दिया था और मारवाड पर अपनी सेना भेजकर उस पर अपना अधिकार कर लिया था। बालक महाराज अजीत सिंह को वीरवर दुर्गादास आदि स्वामिभक्त सरदारो की संरक्षण मे सुरक्षित करके राठौड सरदारो ने मुगलो के थानो पर आक्रमण शुरू कर दिया था और जोधपुर, सोजत, डीडवाना,सिवाना आदि शाही खजाने लूट लिए थे। ये ही सुनकर कुवंर राजसिंह ने अपने मेडतिया साथीयो के साथ मेडता पर हमलाकर वहां के शाही हकीम सदुल्लाह खान को मारकर लूट लिया था और इसके बाद कुंवर राजसिंह का विवाह हो गया था उस समय मेडता अजमेर सूबे मे था और ये ही सुनकर तहव्वुर खान आग बबूला होकर जन्माष्टमी के पावन अवसर पर एक सौ एक गायो की कुर्बानी पुष्कर जी के घाटो पर करके वाराहजी का मंदिर ध्वस्त करते हुए राठौडो को कत्लेआम करता हुआ मेडता को पुनः हासिल करना चाहता था और ये खबर सुनकर ब्राह्मणो मे त्राही त्राही मच गई और वो गुरूपुष्कर राज के सामने निराश होकर बोलने लगे के करोडो मनुष्य जो इस धाम पर आकर स्नान करते है उनमे से कोई नही जो इस मंदिर की और हमारी रक्षा कर सके? क्या कोई ऐसा वीर इस धरती पर नही जो श्रीकृष्ण जो गायो को प्यार करने वाले थे क्या उनकी संतानो मे इतना साहस नही के उनके जन्म के दिन उन गायो की रक्षा कर सके? 
और ये ब्राह्मणों की बाते सुनकर ही घुडसवार कुवंर राजसिंह जी को कह चुका था पर इतने मे कुवंर आनंद जी आकर उनको बोलते है कि पिताजी ने कहलवाया है कि पहले पूजा कर लो बाद मे इस बारे मे विचार करेंगें पर कुवंर राजसिंह जी बोलते है कि आनंद मै पूजा के लिए ही जा रहा हूं जो अपने भगवान के मंदिर की रक्षा, ब्रह्मणो के प्राणो को बचाना और गाय माता के प्राणो की रक्षा करे ऐसा सौभाग्य तो किसी किसी क्षत्रिय को मिलता है और अब मैने केसरिया धारण कर लिया है तो वापस लौटना पाप होगा पर आनंद उनको समझाता है कि ये केसरीया तो विवाह निम्मित है और ये सुनकर कुवंर राजसिंह हंसकर बोलते है कि ये केसरिया तो मैने युद्ध निम्मित मान लिया है और ये बात सुनकर आनंद ने पिता को कही और पिता जी ने भी कहा के कोई बात नही तुम चतरसिंह, रूपसिंह भी उसके साथ चले जाओ जैसे ही वो चले तो दुल्हन ने खुद वीरता के संगीत सुनाकर उनका जोश दोगुना कर दिया और वो 50-60 घोडो पर सवार होकर वाराहजी के मंदिर मे गए और आशिर्वाद लेकर पुष्कर मे शाही सेना पर जोरदार हमला कर दिया और मुसलमानों का कत्लेआम करते हुए सभी गायो को बंधन मुक्त करा दिया और मुगलो की दूसरी टुकडी पर रात्री मे ही हमला कर दिया पूरे पुष्कर मे जय वाराह जय पुष्कर और अल्लाहो अकबर की गूंज चारो दिशाओ मे गूंजने लगी सप्तमी की सारी रात और अष्टमी के पूरे दिन यह युद्ध होता रहा पुष्कर की मिट्टी रक्त से लाल हो गई और अष्टमी को सूर्य जैसे ही छिपने लगा तो सैंकडो कंठो से आवाज आई "रंणबंका राठौड" और लडते हुए राजसिंह जी से एक घुडसवार ने आकर कहा कि सावधान! कुंवर केशरीसिंह रियां, ठाकुर गोकुल सिह बजोली, ठाकुर हट्टी सिंह, जगत सिंह सुजाण सिंह अपनी सेना लेकर आ रहे है इतने सुनते ही राजसिंह जी ने जोश के साथ रणबंका राठौड बोलकर दुशमनो की सेना के बीच कूद गया और जब कुवंर केसरसिंह रिया सरदारो के साथ पहुंचे तो उन्होंने देखा कि एक बिना सिर का दुल्हा दोनो हाथो मे तलवार लेकर दुशमनो का नरसंहार कर रहा है यह देखकर फिर रणबंका राठौड का उद्धोष होता है और नवमी तक युद्ध चलता रहा और रक्त की धारा पुष्कर की गलीयो मे बहती रही तब एक घुडसवार अलसाई हुई चाल से आलनियावास की और चलता है और रास्ते मे जो भी पूछता है उसको बोलता है कि राजसिंह, केशरसिंह, सुजाणसिंह, चातरसिंह, रूपसिंह हठी सिंह गोकुल सिंह वीरगति को प्राप्त हो गए और सारे मुगलो की सेना का नरसंहार कर दिया तहव्वुरखां भागकर तारागढ पहुंच गया और इन वीरो ने हमारी गाय माता को बचा लियाजब ब्राह्मणो और गौ माता को बचाने के लिए राठोड़ी सेना ने किया पुष्कर में मुगलो से युद्ध अपने जीते जी एक भी गौ काटने न दी उनके याद में पुष्कर में आज गौ घाट बना है 

संवत 1737 विक्रमी के भाद्रपद मास की कृष्ण सप्तमी का दोपहर ढल चुका था और कुंवर राजसिंह सिर पर मोड बांधे दूल्हा के भेष मे घोडी पर सवार थे उनके पीछे चल रहे रथो मे एक रथ मे उनकी दुल्हन और दूसरे रथ मे महिलाए पावन संगीत गा रही थी मांगलिक ढोल बज रहे थे पूरा गांव विवाहत्सव मे झूम रहा था कि उसी समय हांफते हुए एक घुडसवार अजमेर की तरफ से आया और कुंवर राजसिंह से कुछ कहा और देखते ही देखते मांगलिक संगीत बंद हो गया शुभ शहनाई रंणभेरी मे बदल गई।
ठाकुर प्रताप सिंह जी गढ मे बुर्ज पर चढकर वर्षा की संभावना पर विचार कर रहे थे पर पावन संगीत को रंणभेरी मे बदला सुनकर उनके मन मे सवालो का तूफान उमड पडा के ये रंग मे भंग कैसा? इतना सोचते ही उन्होंने जैसे ही दरवाजे की ओर देखा तो आनंदसिंह उनको सरपट आते नजर आए और घोडे से चढे चढे ही आनंदसिंह ने चिल्लाकर कहा कि अजमेर का फौजदार तहव्वर खान मेड़ता की पराजय का बदला लेने के लिए अपनी विशाल सेना लेकर पुष्कर मे आ चुका है और वो जन्माष्टमी के पावन अवसर पर एक सौ एक गायो की कुर्बानी कर वाराहजी के मंदिर को ध्वस्त कर ब्राह्मणों का कत्लेआम करेगा इतना सुनते ही ठाकुर प्रताप सिंह ने कहां कि ये तो बहुत गलत हुआ और गहरी सोच मे पडकर मग्न हो गए, कि जब ओरंगजेब का राजपूतो के अत यह युद्ध था, जमरूद के थाने पर औरंगजेब ने विष देकर जोधपुर के महाराजा जसवंत सिंह को धोखे से मरवा दिया था और मारवाड पर अपनी सेना भेजकर उस पर अपना अधिकार कर लिया था। बालक महाराज अजीत सिंह को वीरवर दुर्गादास आदि स्वामिभक्त सरदारो की संरक्षण मे सुरक्षित करके राठौड सरदारो ने मुगलो के थानो पर आक्रमण शुरू कर दिया था और जोधपुर, सोजत, डीडवाना,सिवाना आदि शाही खजाने लूट लिए थे। ये ही सुनकर कुवंर राजसिंह ने अपने मेडतिया साथीयो के साथ मेडता पर हमलाकर वहां के शाही हकीम सदुल्लाह खान को मारकर लूट लिया था और इसके बाद कुंवर राजसिंह का विवाह हो गया था उस समय मेडता अजमेर सूबे मे था और ये ही सुनकर तहव्वुर खान आग बबूला होकर जन्माष्टमी के पावन अवसर पर एक सौ एक गायो की कुर्बानी पुष्कर जी के घाटो पर करके वाराहजी का मंदिर ध्वस्त करते हुए राठौडो को कत्लेआम करता हुआ मेडता को पुनः हासिल करना चाहता था और ये खबर सुनकर ब्राह्मणो मे त्राही त्राही मच गई और वो गुरूपुष्कर राज के सामने निराश होकर बोलने लगे के करोडो मनुष्य जो इस धाम पर आकर स्नान करते है उनमे से कोई नही जो इस मंदिर की और हमारी रक्षा कर सके? क्या कोई ऐसा वीर इस धरती पर नही जो श्रीकृष्ण जो गायो को प्यार करने वाले थे क्या उनकी संतानो मे इतना साहस नही के उनके जन्म के दिन उन गायो की रक्षा कर सके?
और ये ब्राह्मणों की बाते सुनकर ही घुडसवार कुवंर राजसिंह जी को कह चुका था पर इतने मे कुवंर आनंद जी आकर उनको बोलते है कि पिताजी ने कहलवाया है कि पहले पूजा कर लो बाद मे इस बारे मे विचार करेंगें पर कुवंर राजसिंह जी बोलते है कि आनंद मै पूजा के लिए ही जा रहा हूं जो अपने भगवान के मंदिर की रक्षा, ब्रह्मणो के प्राणो को बचाना और गाय माता के प्राणो की रक्षा करे ऐसा सौभाग्य तो किसी किसी क्षत्रिय को मिलता है और अब मैने केसरिया धारण कर लिया है तो वापस लौटना पाप होगा पर आनंद उनको समझाता है कि ये केसरीया तो विवाह निम्मित है और ये सुनकर कुवंर राजसिंह हंसकर बोलते है कि ये केसरिया तो मैने युद्ध निम्मित मान लिया है और ये बात सुनकर आनंद ने पिता को कही और पिता जी ने भी कहा के कोई बात नही तुम चतरसिंह, रूपसिंह भी उसके साथ चले जाओ जैसे ही वो चले तो दुल्हन ने खुद वीरता के संगीत सुनाकर उनका जोश दोगुना कर दिया और वो 50-60 घोडो पर सवार होकर वाराहजी के मंदिर मे गए और आशिर्वाद लेकर पुष्कर मे शाही सेना पर जोरदार हमला कर दिया और मुसलमानों का कत्लेआम करते हुए सभी गायो को बंधन मुक्त करा दिया और मुगलो की दूसरी टुकडी पर रात्री मे ही हमला कर दिया पूरे पुष्कर मे जय वाराह जय पुष्कर और अल्लाहो अकबर की गूंज चारो दिशाओ मे गूंजने लगी सप्तमी की सारी रात और अष्टमी के पूरे दिन यह युद्ध होता रहा पुष्कर की मिट्टी रक्त से लाल हो गई और अष्टमी को सूर्य जैसे ही छिपने लगा तो सैंकडो कंठो से आवाज आई "रंणबंका राठौड" और लडते हुए राजसिंह जी से एक घुडसवार ने आकर कहा कि सावधान! कुंवर केशरीसिंह रियां, ठाकुर गोकुल सिह बजोली, ठाकुर हट्टी सिंह, जगत सिंह सुजाण सिंह अपनी सेना लेकर आ रहे है इतने सुनते ही राजसिंह जी ने जोश के साथ रणबंका राठौड बोलकर दुशमनो की सेना के बीच कूद गया और जब कुवंर केसरसिंह रिया सरदारो के साथ पहुंचे तो उन्होंने देखा कि एक बिना सिर का दुल्हा दोनो हाथो मे तलवार लेकर दुशमनो का नरसंहार कर रहा है यह देखकर फिर रणबंका राठौड का उद्धोष होता है और नवमी तक युद्ध चलता रहा और रक्त की धारा पुष्कर की गलीयो मे बहती रही तब एक घुडसवार अलसाई हुई चाल से आलनियावास की और चलता है और रास्ते मे जो भी पूछता है उसको बोलता है कि राजसिंह, केशरसिंह, सुजाणसिंह, चातरसिंह, रूपसिंह हठी सिंह गोकुल सिंह वीरगति को प्राप्त हो गए और सारे मुगलो की सेना का नरसंहार कर दिया तहव्वुरखां भागकर तारागढ पहुंच गया और इन वीरो ने हमारी गाय माता को बचा लिया

RAJPUT BRAVERY

चुण्डावत और शक्तावत प्रतिद्वंदिता और उन्टाला दुर्ग विजय
शर्त जीतने हेतु उस वीर ने अपना सर काटकर दुर्ग में फेक दिया
Photo: चुण्डावत और शक्तावत प्रतिद्वंदिता और उन्टाला दुर्ग विजय
शर्त जीतने हेतु उस वीर ने अपना सर काटकर दुर्ग में फेक दिया

पूरा राजपूत इतिहास ऐसे अनगिनत वीरता के प्रसंगों से भरा पड़ा है जिनके सुनने से किसी भी व्यक्ति के रोंगटे खड़े हो सकते है। ये सभी प्रसंग राजपूतो के लिए ना केवल गौरव की बात है बल्कि उनको आज भी प्रेरणा देने के लिए सबसे उपयुक्त है। जब वीरता और बलिदान की बात की जाती है तो उसमे वीरभूमि मेवाड़ का नाम सबसे ऊपर आता है जिसके कण कण में वीरता और बलिदान के किस्से बिखरे पड़े है। इनमे ही सबसे मशहूर प्रसंग उन्ताला के दुर्ग को जीतने के लिए चुण्डावत और शक्तावत के बीच के मुकाबले का है जो राजपूतो के अपने कुल के गौरव के लिए सर्वस्व न्योछावर करने की प्रवृत्ति का सबसे बड़ा उदाहरण है।

मेवाड़ की सेना में, राव चुणडावत के द्वारा मेवाड़ की गददी के त्याग करने के कारण और विशेष पराक्रमी होने के कारण "चुण्डावत" खांप के
वीरों को ही "हरावल"(युद्ध भूमि में अग्रिम पंक्ति) में रहने का गौरव प्राप्त था व वे उसे अपना अधिकार समझते थे | किन्तु महाराणा अमर सिंह के समय शक्ति सिंह के वंशज "शक्तावत" खांप के वीर राजपूत भी बहुत ताकतवर बनकर उभरे और वो भी कम पराक्रमी नहीं थे | उनके हृदय में भी यह अरमान जागृत हुआ कि युद्ध क्षेत्र में मृत्यु से पहला मुकाबला हमारा होना चाहिए क्योंकि हरावल में लड़ने का मौका मिलना राजपूतो में बहुत गौरव की बात मानी जाती थी।
अपनी इस महत्वाकांक्षा को महाराणा अमरसिंह के समक्ष रखते हुए शक्तावत वीरों ने कहा कि हम चुंडावतों से त्याग,बलिदान व शौर्य में किसी भी प्रकार कम नहीं है | अत: हरावल में रहने का अधिकार हमें मिलना चाहिए | मृत्यु से पाणिग्रहण होने वाली इस अदभूत प्रतिस्पर्धा को देखकर महाराणा धर्म-संकट में पड़ गए | किस पक्ष को अधिक पराक्रमी मानकर हरावल में रहने का अधिकार दिया जाय ? इसका निर्णय करने के लिए उन्होंने एक कसौटी तय की,जिसके अनुसार यह निश्चित किया गया कि दोनों दल उन्टाला दुर्ग (जो कि बादशाह जहाँगीर के अधीन था और फतेहपुर का नबाब समस खां वहां का किलेदार था) पर प्रथक-प्रथक दिशा से एक साथ आक्रमण करेंगे व जिस दल का व्यक्ति पहले दुर्ग में प्रवेश करेगा उसे ही हरावल में रहने का अधिकार दिया जायेगा| बस ! फिर क्या था ? प्रतिष्ठा की रक्षा के लिए मौत को ललकारते हुए दोनों ही दलों के रण-बांकुरों ने उन्टाला दुर्ग पर आक्रमण कर दिया | शक्तावत वीर दुर्ग के फाटक के पास पहुँच कर उसे तोड़ने का प्रयास करने लगे तो चुंडावत वीरों ने समीप ही दुर्ग की दीवार पर सीढ़ी लगाकर उस पर चढ़ने का प्रयास शुरू किया | इधर शक्तावतों ने जब दुर्ग के फाटक को तोड़ने के लिए फाटक पर हाथी को टक्कर देने के लिए आगे बढाया तो फाटक में लगे हुए तीक्षण शूलों से सहम कर हाथी पीछे हट गया | यह देख शक्तावतों का सरदार बल्लू शक्तावत ,अदभूत बलिदान का उदहारण प्रस्तुत करते हुए फाटक के शूलों पर सीना अड़ाकर खड़ा हो गया व महावत को हाथी से अपने शरीर पर टक्कर दिलाने को कहा जिससे कि हाथी शूलों के भय से पीछे न हटे | एक बार तो महावत सहम गया ,किन्तु फिर "वीर बल्लू" के मृत्यु से भी भयानक क्रोधपूर्ण आदेश की पालना करते हुए उसने हाथी से टक्कर मारी जिसके परिणामस्वरूप फाटक में लगे हुए शूल वीर बल्लू शक्तावत के सीने में बिंध गए और वह वीर-गति को प्राप्त हो गया | किन्तु उसके साथ ही दुर्ग का फाटक भी टूट गया | दूसरी और चूंडावतों के सरदार जैतसिंह चुण्डावत ने जब यह देखा कि फाटक टूटने ही वाला है तो उसने पहले दुर्ग में पहुँचने की शर्त जितने के उद्देश्य से अपने साथी को कहा कि "मेरा सिर काटकर दुर्ग की दीवार के ऊपर से दुर्ग के अन्दर फ़ेक दो | " साथी जब ऐसा करने में सहम गया तो उसने स्वयं अपना मस्तक काटकर दुर्ग में फेक दिया |
फाटक तोड़कर जैसे ही शक्तावत वीरों के दल ने दुर्ग में प्रवेश किया ,उससे पहले ही चुण्डावत सरदार का कटा मस्तक दुर्ग के अन्दर मौजूद था| इस प्रकार चूंडावतों ने अपना हरावल में रहने का अधिकार अदभूत बलिदान देकर कायम रखा |

बिंधियो जा निज आण बस,
गज माथै बण मोड़ |
सुरग दुरग परवेस सथ,
निज तन फाटक तोड़ ||
अपनी आन की खातिर उस
वीर ने दुर्ग का फाटक तोड़ने के लिए फाटक पर लगे शूलों से अपना सीना अड़ाकर हाथी से टक्कर
दिलवा अपना शरीर शूलों से बिंधवा लेता है और वीर गति को प्राप्त होता है इस प्रकार वह वीर गति को प्राप्त होने के साथ ही अपने शरीर से फाटक तोड़ने में सफल हो दुर्ग व स्वर्ग में एक साथ प्रवेश करता है ।

दलबल धावो बोलियौ,
अब लग फाटक सेस |
सिर फेक्यो भड़ काट निज ,
पहलां दुर्ग प्रवेस ||
वीरों के दोनों दलों ने दुर्ग पर आक्रमण
किया जब एक दल के सरदार को पता चला कि दूसरा दल अब फाटक तोड़कर दुर्ग में प्रवेश करने
ही वाला है तो उसने अपना खुद का सिर काट कर दुर्ग में फेक दिया ताकि वह उस प्रतिस्पर्धी दल से पहले दुर्ग में प्रवेश कर जाये |

नजर न पूगी उण जगां,
पड्यो न गोलो आय |
पावां सूं पहली घणो,
सिर पडियो गढ़ जाय ||
जब वीरो के एक दल ने दुर्ग का फाटक तोड़कर दुर्ग में प्रवेश किया परन्तु जब उनकी दृष्टि किले में
पड़ी तो देखा कि किले में उनके पैर व
दृष्टि पड़ने पहले ही चुण्डावत सरदार
का सिर वहां पड़ा है जबकि उस वीर के सिर से पहले प्रतिस्पर्धी दल का दागा तो कोई गोला भी नही पहुंचा।

साभार- स्व.आयुवानसिंह शेखावत हुडील एवं ज्ञान दर्पण ब्लॉग।


पूरा राजपूत इतिहास ऐसे अनगिनत वीरता के प्रसंगों से भरा पड़ा है जिनके सुनने से किसी भी व्यक्ति के रोंगटे खड़े हो सकते है। ये सभी प्रसंग राजपूतो के लिए ना केवल गौरव की बात है बल्कि उनको आज भी प्रेरणा देने के लिए सबसे उपयुक्त है। जब वीरता और बलिदान की बात की जाती है तो उसमे वीरभूमि मेवाड़ का नाम सबसे ऊपर आता है जिसके कण कण में वीरता और बलिदान के किस्से बिखरे पड़े है। इनमे ही सबसे मशहूर प्रसंग उन्ताला के दुर्ग को जीतने के लिए चुण्डावत और शक्तावत के बीच के मुकाबले का है जो राजपूतो के अपने कुल के गौरव के लिए सर्वस्व न्योछावर करने की प्रवृत्ति का सबसे बड़ा उदाहरण है।


मेवाड़ की सेना में, राव चुणडावत के द्वारा मेवाड़ की गददी के त्याग करने के कारण और विशेष पराक्रमी होने के कारण "चुण्डावत" खांप के
वीरों को ही "हरावल"(युद्ध भूमि में अग्रिम पंक्ति) में रहने का गौरव प्राप्त था व वे उसे अपना अधिकार समझते थे | किन्तु महाराणा अमर सिंह के समय शक्ति सिंह के वंशज "शक्तावत" खांप के वीर राजपूत भी बहुत ताकतवर बनकर उभरे और वो भी कम पराक्रमी नहीं थे | उनके हृदय में भी यह अरमान जागृत हुआ कि युद्ध क्षेत्र में मृत्यु से पहला मुकाबला हमारा होना चाहिए क्योंकि हरावल में लड़ने का मौका मिलना राजपूतो में बहुत गौरव की बात मानी जाती थी।
अपनी इस महत्वाकांक्षा को महाराणा अमरसिंह के समक्ष रखते हुए शक्तावत वीरों ने कहा कि हम चुंडावतों से त्याग,बलिदान व शौर्य में किसी भी प्रकार कम नहीं है | अत: हरावल में रहने का अधिकार हमें मिलना चाहिए | मृत्यु से पाणिग्रहण होने वाली इस अदभूत प्रतिस्पर्धा को देखकर महाराणा धर्म-संकट में पड़ गए | किस पक्ष को अधिक पराक्रमी मानकर हरावल में रहने का अधिकार दिया जाय ? इसका निर्णय करने के लिए उन्होंने एक कसौटी तय की,जिसके अनुसार यह निश्चित किया गया कि दोनों दल उन्टाला दुर्ग (जो कि बादशाह जहाँगीर के अधीन था और फतेहपुर का नबाब समस खां वहां का किलेदार था) पर प्रथक-प्रथक दिशा से एक साथ आक्रमण करेंगे व जिस दल का व्यक्ति पहले दुर्ग में प्रवेश करेगा उसे ही हरावल में रहने का अधिकार दिया जायेगा| बस ! फिर क्या था ? प्रतिष्ठा की रक्षा के लिए मौत को ललकारते हुए दोनों ही दलों के रण-बांकुरों ने उन्टाला दुर्ग पर आक्रमण कर दिया | शक्तावत वीर दुर्ग के फाटक के पास पहुँच कर उसे तोड़ने का प्रयास करने लगे तो चुंडावत वीरों ने समीप ही दुर्ग की दीवार पर सीढ़ी लगाकर उस पर चढ़ने का प्रयास शुरू किया | इधर शक्तावतों ने जब दुर्ग के फाटक को तोड़ने के लिए फाटक पर हाथी को टक्कर देने के लिए आगे बढाया तो फाटक में लगे हुए तीक्षण शूलों से सहम कर हाथी पीछे हट गया | यह देख शक्तावतों का सरदार बल्लू शक्तावत ,अदभूत बलिदान का उदहारण प्रस्तुत करते हुए फाटक के शूलों पर सीना अड़ाकर खड़ा हो गया व महावत को हाथी से अपने शरीर पर टक्कर दिलाने को कहा जिससे कि हाथी शूलों के भय से पीछे न हटे | एक बार तो महावत सहम गया ,किन्तु फिर "वीर बल्लू" के मृत्यु से भी भयानक क्रोधपूर्ण आदेश की पालना करते हुए उसने हाथी से टक्कर मारी जिसके परिणामस्वरूप फाटक में लगे हुए शूल वीर बल्लू शक्तावत के सीने में बिंध गए और वह वीर-गति को प्राप्त हो गया | किन्तु उसके साथ ही दुर्ग का फाटक भी टूट गया | दूसरी और चूंडावतों के सरदार जैतसिंह चुण्डावत ने जब यह देखा कि फाटक टूटने ही वाला है तो उसने पहले दुर्ग में पहुँचने की शर्त जितने के उद्देश्य से अपने साथी को कहा कि "मेरा सिर काटकर दुर्ग की दीवार के ऊपर से दुर्ग के अन्दर फ़ेक दो | " साथी जब ऐसा करने में सहम गया तो उसने स्वयं अपना मस्तक काटकर दुर्ग में फेक दिया |
फाटक तोड़कर जैसे ही शक्तावत वीरों के दल ने दुर्ग में प्रवेश किया ,उससे पहले ही चुण्डावत सरदार का कटा मस्तक दुर्ग के अन्दर मौजूद था| इस प्रकार चूंडावतों ने अपना हरावल में रहने का अधिकार अदभूत बलिदान देकर कायम रखा |

बिंधियो जा निज आण बस,
गज माथै बण मोड़ |
सुरग दुरग परवेस सथ,
निज तन फाटक तोड़ ||
अपनी आन की खातिर उस
वीर ने दुर्ग का फाटक तोड़ने के लिए फाटक पर लगे शूलों से अपना सीना अड़ाकर हाथी से टक्कर
दिलवा अपना शरीर शूलों से बिंधवा लेता है और वीर गति को प्राप्त होता है इस प्रकार वह वीर गति को प्राप्त होने के साथ ही अपने शरीर से फाटक तोड़ने में सफल हो दुर्ग व स्वर्ग में एक साथ प्रवेश करता है ।

दलबल धावो बोलियौ,
अब लग फाटक सेस |
सिर फेक्यो भड़ काट निज ,
पहलां दुर्ग प्रवेस ||
वीरों के दोनों दलों ने दुर्ग पर आक्रमण
किया जब एक दल के सरदार को पता चला कि दूसरा दल अब फाटक तोड़कर दुर्ग में प्रवेश करने
ही वाला है तो उसने अपना खुद का सिर काट कर दुर्ग में फेक दिया ताकि वह उस प्रतिस्पर्धी दल से पहले दुर्ग में प्रवेश कर जाये |

नजर न पूगी उण जगां,
पड्यो न गोलो आय |
पावां सूं पहली घणो,
सिर पडियो गढ़ जाय ||
जब वीरो के एक दल ने दुर्ग का फाटक तोड़कर दुर्ग में प्रवेश किया परन्तु जब उनकी दृष्टि किले में
पड़ी तो देखा कि किले में उनके पैर व
दृष्टि पड़ने पहले ही चुण्डावत सरदार
का सिर वहां पड़ा है जबकि उस वीर के सिर से पहले प्रतिस्पर्धी दल का दागा तो कोई गोला भी नही पहुंचा।

साभार- स्व.आयुवानसिंह शेखावत हुडील एवं ज्ञान दर्पण ब्लॉग।