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Monday, April 18, 2016

वेद और शूद्र

वेद और शूद्र

 वेदों के बारे में फैलाई गई भ्रांतियों में से एक यह भी है कि वे ब्राह्मणवादी ग्रंथ हैं और शूद्रों को अछूत मानते हैं। जातिवाद की जड़ भी वेदों में बताई जा रही है और इन्हीं विषैले विचारों पर दलित आंदोलन इस देश में चलाया जा रहा है। लेकिन इन विषैले विचार की उत्पत्ति कहां से हुई?
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⏺सबसे पहले बौद्धकाल में वेदों के विरुद्ध आंदोलन चला। जब संपूर्ण भारत पर बौद्धों का शासन था तब वैदिक ग्रंथों के कई मूलपाठों को परिवर्तित कर समाज में भ्रम फैलाकर हिन्दू समाज को तोड़ा गया।
⏺इसके बाद मुगलकाल में हिन्दुओं में कई तरह की जातियों का विकास किया गया और संपूर्ण भारत के हिन्दुओं को हजारों जातियों में बांट दिया गया।
⏺फिर आए अंग्रेज तो उनके लिए यह फायदेमंद साबित हुआ कि यहां का हिन्दू ही नहीं मुसलमान भी कई जातियों में बंटा हुआ है।
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अंग्रेज काल में पाश्चात्य विद्वानों जैसे मेक्समूलर, ग्रिफ्फिथ, ब्लूमफिल्ड आदि का वेदों का अंग्रेजी में अनुवाद करते समय हर संभव प्रयास था कि किसी भी प्रकार से वेदों को इतना भ्रामक सिद्ध कर दिया जाए कि फिर हिन्दू समाज का वेदों से विश्वास ही उठ जाए और वे खुद भी वेदों का विरोध करने लगे ताकि इससे ईसाई मत के प्रचार-प्रसार में अध्यात्मिक रूप से कोई कठिनाई नहीं आए।
बौद्ध, मुगल और अंग्रेज तीनों ही अपने इस कार्य में 100 प्रतिशत सफल भी हुए और आज हम देखते हैं कि हिन्दू अब बौद्ध भी हैं, बड़ी संख्या में मुसलमान हैं और ईसाई भी।
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अंग्रेज काल में वेदों को जातिवाद का पोषक घोषित कर दिया गया जिससे बड़ी संख्या में हिन्दू समाज के अभिन्न अंग, जिन्हें दलित समझा जाता है, को आसानी से ईसाई मत में किया गया। केरल, तमिलनाडु और पश्चिम बंगाल में गरीब और दलित हिन्दुओं के मन में वेद और ब्राह्मणों के प्रति नफरत भरी गई और यह बताया गया कि आज जो तुम्हारी दुर्दशा है उसमें तुम्हारे धर्म और शासन का ही दोष है। लेकिन ऐसा कहते वक्त वे ये भूल गए कि पिछले 200 साल से तो आप ही का राज था। फिर उसके पूर्व मुगलों का राज था और उससे पूर्व तो बौद्धों का शासन था। हमारी दुर्दशा सुधारने वाला कौन था?
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सवाल यह उठता है कि शूद्र कौन? ब्राह्मण कौन? क्षत्रिय कौन? और वैश्य कौन? यदि हम आज के संदर्भ में शूद्र की परिभाषा करें तो
⏺ महाभारत के रचयिता वेद व्यास शूद्र थे।
⏺रामायण के रचयिता वाल्मीकि भी शूद्र ही थे।
⏺भगवान कृष्ण अहीर यादव समाज से थे तो उन्हें भी शूद्र ही मान लिया जाना चाहिए।
⏺वेदों के ऋषियों की जाति पता करेंगे तो कई शूद्र ही निकलेंगे।
वेद सभी मनुष्यों और सभी वर्णों के लोगों के लिए वेद पढ़ने के अधिकार का समर्थन करते हैं। स्वामीजी के काल में शूद्रों का जो वेद अध्ययन का निषेध था उसके विपरीत वेदों में स्पष्ट रूप से पाया गया कि शूद्रों को वेद अध्ययन का अधिकार स्वयं वेद ही देते हैं।
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यजुर्वेद 26.2 के अनुसार हे मनुष्यों! जैसे मैं परमात्मा सबका कल्याण करने वाली ऋग्वेद आदि रूप वाणी का सब जनों के लिए उपदेश कर रहा हूं, जैसे मैं इस वाणी का ब्राह्मण और क्षत्रियों के लिए उपदेश कर रहा हूं, शूद्रों और वैश्यों के लिए जैसे मैं इसका उपदेश कर रहा हूं और जिन्हें तुम अपना आत्मीय समझते हो, उन सबके लिए इसका उपदेश कर रहा हूं और जिसे ‘अरण’ अर्थात पराया समझते हो, उसके लिए भी मैं इसका उपदेश कर रहा हूं, वैसे ही तुम भी आगे-आगे सब लोगों के लिए इस वाणी के उपदेश का क्रम चलाते रहो।
दरअसल, शूद्र किसी जाति विशेष का नाम नहीं था*। ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य भी किसी जाति विशेष का नाम नहीं होता था। ये तो सभी बौद्धकाल और मध्यकाल की विकृतियां हैं, जो समाज में प्रचलित हो चलीं। *वर्ण को जाति सिद्ध किया गया।
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⏺अथर्ववेद 19.62.1 में प्रार्थना है कि हे परमात्मा! आप मुझे ब्राह्मणों का, क्षत्रियों का, शूद्रों का और वैश्यों का प्यारा बना दें। इस मंत्र का भावार्थ यह है कि हे परमात्मा! आप मेरा स्वभाव और आचरण ऐसा बना दें जिसके कारण ब्राह्मण, क्षत्रिय, शूद्र और वैश्य सभी मुझे प्यार करें। अब यहां समझने वाली बात यह है कि यह मंत्रकर्ता कौन था?
⏺यजुर्वेद 18.48 में प्रार्थना है कि हे परमात्मन! आप हमारी रुचि ब्राह्मणों के प्रति उत्पन्न कीजिए, क्षत्रियों के प्रति उत्पन्न कीजिए, विषयों के प्रति उत्पन्न कीजिए और शूद्रों के प्रति उत्पन्न कीजिये
मंत्र का भाव यह है कि हे परमात्मन! आपकी कृपा से हमारा स्वभाव और मन ऐसा हो जाए कि ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र सभी वर्णों के लोगों के प्रति हमारी रुचि हो। सभी वर्णों के लोग हमें अच्छे लगें। सभी वर्णों के लोगों के प्रति हमारा बर्ताव सदा प्रेम और प्रीति का रहे।
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प्राचीनकाल में 'जन्मना जायते शूद्र' अर्थात जन्म से हर कोई गुणरहित अर्थात शूद्र हैं ऐसा मानते थे और शिक्षा प्राप्ति के पश्चात गुण, कर्म और स्वभाव के आधार पर वर्ण का निश्चय होता था। ऐसा समाज में हर व्यक्ति अपनी-अपनी क्षमता के अनुसार समाज के उत्थान में अपना-अपना योगदान कर सके इसलिए किया गया था। मध्यकाल में यह व्यवस्था जाति व्यवस्था में परिवर्तित हो गई।
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यदि जाति के मान से आज देखें तो एक ब्राह्मण का बालक दुराचारी, कामी, व्यसनी, मांसाहारी और अनपढ़ होते हुए भी ब्राह्मण कहलाने लगा जबकि एक शूद्र का बालक चरित्रवान, शाकाहारी, उच्च शिक्षित होते हुए भी शूद्र कहलाने लगा। होना इसका उल्टा चाहिए था।
इस जातिवाद ने देश को तोड़ दिया। परंतु आज समाज में योग्यता के आधार पर ही वर्ण की स्थापना होने लगी है। *एक चिकित्सक का पुत्र तभी चिकित्सक कहलाता है, जब वह सही प्रकार से शिक्षा ग्रहण न कर ले*। एक इंजीनियर का पुत्र भी उसी प्रकार से शिक्षा प्राप्ति के पश्चात ही इंजीनियर कहलाता है और एक ब्राह्मण के पुत्र को अगर अनपढ़ है तो उसकी योग्यता के अनुसार किसी दफ्तर में चतुर्थ श्रेणी से ज्यादा की नौकरी नहीं मिलती। यही तो वर्ण व्यवस्था है।
दरअसल, वेद और पुराणों के संस्कृत श्लोकों का हिन्दी और अंग्रेजी में गलत अनुवाद ही नहीं किया गया, बल्कि उसके गलत अर्थ भी जान-बूझकर निकाले गए। अंग्रेज विद्वान जो काम करने गए थे उसे ही आज हमारे यहां के वे लोग कर रहे हैं, जो अब या तो वामपंथी हैं या वे हिन्दू नहीं हैं।
वेदों के शत्रु विशेष रूप से पुरुष सूक्त को जातिवाद की उत्पत्ति का समर्थक मानते हैं। पुरुष सूक्त 16 मंत्रों का सूक्त है, जो चारों वेदों में मामूली अंतर में मिलता है।
पुरुष सूक्त जातिवाद के नहीं, अपितु वर्ण व्यवस्था के आधारभूत मंत्र हैं जिसमें 'ब्राह्मणोस्य मुखमासीत' ऋग्वेद 10.90 में ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र को शरीर के मुख, भुजा, मध्य भाग और पैरों से उपमा दी गई है। इस उपमा से यह सिद्ध होता है कि जिस प्रकार शरीर के ये चारों अंग मिलकर एक शरीर बनाते हैं, उसी प्रकार ब्राह्मण आदि चारों वर्ण मिलकर एक समाज बनाते हैं।
जिस प्रकार शरीर के ये चारों अंग एक-दूसरे के सुख-दुःख को अपना सुख-दुःख अनुभव करते हैं, उसी प्रकार समाज के ब्राह्मण आदि चारों वर्णों के लोगों को एक-दूसरे के सुख-दुःख को अपना सुख-दुःख समझना चाहिए।
यदि पैर में कांटा लग जाए तो मुख से दर्द की ध्वनि निकलती है और हाथ सहायता के लिए पहुंचते हैं, उसी प्रकार समाज में जब शूद्र को कोई कठिनाई पहुंचती है तो ब्राह्मण भी और क्षत्रिय भी उसकी सहायता के लिए आगे आएं। सब वर्णों में परस्पर पूर्ण सहानुभूति, सहयोग और प्रेम-प्रीति का बर्ताव होना चाहिए। इस सूक्त में शूद्रों के प्रति कहीं भी भेदभाव की बात नहीं कही गई है।
इस सूक्त का एक और अर्थ इस प्रकार किया जा सकता है कि 🔽जब कोई भी व्यक्ति किसी भी जाति का हो यदि वह समाज में धर्म ज्ञान का संदेश प्रचार-प्रसार करने में योगदान दे रहा है तो वह ब्राह्मण अर्थात समाज का शीश है। 🔽यदि कोई व्यक्ति समाज की रक्षा अथवा नेतृत्व कर रहा है तो वह क्षत्रिय अर्थात समाज की भुजा है।🔽 यदि कोई व्यक्ति देश को व्यापार, धन आदि से समृद्ध कर रहा है तो वह वैश्य अर्थात समाज की जंघा है और🔽 यदि कोई व्यक्ति गुणों से रहित है अर्थात तीनों तरह के कार्य करने में अक्षम है तो वह इन तीनों वर्णों को अपने-अपने कार्य करने में सहायता करे अर्थात इन तीनों के लिए मजबूत आधार बने।
लेकिन आज के आधुनिक युग में इन विशेषणों की कोई आवश्यकता नहीं है। फिर भी अपने राजनीतिक हित के लिए जातिवाद को कभी समाप्त किए जाने की दिशा में आजादी के बाद भी कोई काम नहीं हुआ बल्कि हमारे राजनीतिज्ञों ने भी मुगलों और अंग्रेजों के कार्य को आगे ही बढ़ाया है। आज यदि स्कूल, कॉलेज या मूल निवासी का फॉर्म भरते हैं तो विशेष रूप से जाति का उल्लेख करना होता है। इस तरह अब धीरे-धीरे जातियों में भी उपजातियां ढूंढ ली गई हैं और अब तो दलितों में भी अगड़े-पिछड़े ढूंढे जाने लगे हैं।
जाती वर्ण भेद मिटायें

Sunday, April 17, 2016

बुद्ध बनना: नौटंकी या फैशन

नवबुद्ध बनना: नौटंकी या फैशन

रोहित वेमुला की माँ और भाई ने बुद्ध मत स्वीकार कर लिया। बुद्ध मत स्वीकार करने वाला 99.9 %दलित वर्ग बुद्ध मत को एक फैशन के रूप में स्वीकार करता हैं। उसे महात्मा बुद्ध कि शिक्षाओं और मान्यताओं से कुछ भी लेना देना नहीं होता। उलटे उसका आचरण उससे विपरीत ही रहता हैं। उदहारण के लिए-

1.
मान्यता- महात्मा बुद्ध प्राणी हिंसा के विरुद्ध थे एवं मांसाहार को वर्जित मानते थे।

समीक्षा-  रोहित वेमुला हैदराबाद यूनिवर्सिटी में बीफ फेस्टिवल बनाने वालों में शामिल था। 99.9% नवबौद्ध मांसाहारी है। बुद्ध मत के दो देश के देश दुनिया के सबसे बड़े मांसाहारी हैं। इसे कहते है "नाम बड़े दर्शन छोटे"

2. मान्यता- महात्मा बुद्ध अहिंसा के पूजारी थे। वो किसी भी प्रकार कि वैचारिक हिंसा के विरुद्ध थे।

समीक्षा- किसी भी नवबुद्ध से मिलो। वह झल्लाता हुआ अवसाद से पीड़ित व्यक्ति जैसा दिखेगा। जो सारा दिन ब्राह्मणवाद और मनुवाद के नाम पर सभी का विरोध करता दिखेगा। वह उनका भी विरोध करता दिखेगा जो जातिवाद को नहीं मानते। हर अच्छी बात का विरोध करना उसकी दैनिक दिनचर्या का भाग होगा। महात्मा बुद्ध शारीरिक, मानसिक, वैचारिक सभी प्रकार की हिंसा के विरोधी थे। नवबुद्ध ठीक विपरीत व्यवहार करते हैं।

3. मान्यता- महात्मा बुद्ध संघ अर्थात संगठन की बात करते थे। समाज को संगठित करना उनका उद्देश्य था।

समीक्षा- नवबुद्ध अलगावावादी कश्मीरी नेताओं का समर्थन कर देश और समाज को तोड़ने की नौटंकी करते दीखते हैं।

4. मान्यता- महात्मा बुद्ध धर्म में विश्वास रखते थे।

समीक्षा- नवबुद्ध देश के विरुद्ध षड़यंत्र करने वाले याकूब मेनन जैसे अधर्मी के समर्थन में खड़े होकर अपने आपको ढोंगी सिद्ध करते हैं।

5. मान्यता- महात्मा बुद्ध छल- कपट करने वाले को छल-कपट छोड़ने की शिक्षा देते थे।

समीक्षा- भारत में ईसाई मिशनरी छल-कपट कर निर्धन हिन्दुओं का धर्मान्तरण करती हैं। नवबुद्ध उनका विरोध करने के स्थान पर उनका साथ देते दीखते हैं।

6. मान्यता- महात्मा बुद्ध अत्याचारी व्यक्ति को अत्याचार छोड़ने की प्रेरणा देते थे।

समीक्षा- 1200 वर्षों से भारत भूमि इस्लामिक आक्रमणकारियों के अत्याचार सहती रही। हज़ारों बुद्ध विहार से लेकर नालंदा विश्वविद्यालय इस्लामिक आक्रमणक्रियों ने तहस-नहस कर दिए। नवबौद्ध उसी मानसिकता की पीठ थपथपाते दीखते हैं।

सन्देश- बनना भी है तो महात्मा बुद्ध कि मान्यताओं को जीवन में , व्यवहार में और आचरण में उतारों।

अन्यथा नवबुद्ध बनना तो केवल नौटंकी या फैशन जैसा दीखता हैं।

डॉ विवेक आर्य

Sunday, December 28, 2014

Mount Popa Monastery

Mount Popa Monastery

Mount Popa Monastery and the Mythology of the Thirty-Seven Spirit GuardiansBurma possesses a colorful past and a rich heritage.  One of the most awe-inspiring examples of this is the spectacular Buddhist monastery of Taung Kalat.
A Buddhist monastery is built right on top of Taung Kalat, and offers a panoramic view of the surrounding area to travellers who brave the flight of 777 steps to the summit of the volcano. Far from being merely a tourist attraction, the monastery is also a pilgrimage site. It is believed that the nearby Taung Ma-gyi is inhabited by the Great Nats.
http://www.ancient-origins.net/ancient-places-asia/mount-popa-monastery-and-mythology-thirty-seven-spirit-guardians-002350

Friday, December 5, 2014

BUDDHA AT KARGIL

RARE PIC OF MAITREYA THE FURUTE BUDDHA AT KARCHAY KHAR ...KARGIL...
[ SHARE IF YOU CARE ]

JEWELS OF BHARATAM ....SERIES [TM]

RARE PIC OF MAITREYA THE FURUTE BUDDHA  AT KARCHAY KHAR ...KARGIL

9 metre high Rock Carving at Karchay Khar village at Suru Valley. Near Sankhoo at Kargil District of J&K State, Dist Kargil, India.

In ancient time, the major part of present Kargil was named as Purik. This name has been given by the Tibetan scholars as the people living in this part of the land have the features of Tibetans.  Drass is inhabited by the people of the Dard race and Zanskar has Ladakhi – Tibeto stock. The racial stocks of Kargilis are Aryans, Dard, Tibetans and Mongoloids. Kargil is a place where people of multi- ethnic, multi-languish, multi- cultural are living in.  The types of people are Brogpas, Baltis, Purik, Shinas and Ladakhi. The languages spoken are Shina, Balti, Purig , Ladakhi ec.  

ISLAM came here in 15th century ...As the Balti and Shina languages are written in Urdu script, Urdu is   common   in the area NOW.

The approach is very narrow, taking a snap of such large sculpture was great challenge. The entire place is carefully hidden inside mountains. 9 metre high Rock Carving at Karchay Khar village at Suru Valley. Near Sankhoo at Kargil District of J&K State, Dist Kargil, India.
In ancient time, the major part of present Kargil was named as Purik. This name has been given by the Tibetan scholars as the people living in this part of the land have the features of Tibetans. Drass is inhabited by the people of the Dard race and Zanskar has Ladakhi – Tibeto stock. The racial stocks of Kargilis are Aryans, Dard, Tibetans and Mongoloids. Kargil is a place where people of multi- ethnic, multi-languish, multi- cultural are living in. The types of people are Brogpas, Baltis, Purik, Shinas and Ladakhi. The languages spoken are Shina, Balti, Purig , Ladakhi ec.
ISLAM came here in 15th century ...As the Balti and Shina languages are written in Urdu script, Urdu is common in the area NOW.
The approach is very narrow, taking a snap of such large sculpture was great challenge. The entire place is carefully hidden inside mountains.