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Saturday, October 15, 2016

बुद्ध और युद्ध में अंतर जाने

बुद्ध और युद्ध में अंतर जाने


डॉ विवेक आर्य

मोदी जी ने बुद्ध और युद्ध का वर्णन दशहरे वाले दिन अपने भाषण में किया। सुनने में अच्छा लगा। मगर सत्य भिन्न है। बुद्ध और युद्ध एक दूसरे के पूरक नहीं है। महात्मा बुद्ध अहिंसा के समर्थक थे। अच्छी बात थी। मगर अहिंसा का तात्पर्य भी समझना आवश्यक था। शत्रु को युद्ध में यमलोक भेजना हिंसा नहीं है। एक चिकित्सक द्वारा प्राण-रक्षा के लिए शल्य चिकित्सा करना हिंसा नहीं है। इसलिए पाकिस्तान को प्रति उत्तर देना भी हिंसा नहीं है।

मध्यकाल में हमारे देश में दो विचारधारा प्रचलित हुई। एक बुद्ध मत और दूसरा जैन मत। दोनों ने अहिंसा को भिन्न भिन्न प्रकार से समझने का प्रयास किया। जैन मत ने अति अहिंसा को स्पर्श करने का प्रयास किया। छानकर जल पीना, नंगे पैर चलना, वाहन का प्रयोग न करना, मुख पर पट्टी बांधने से अतिसूक्षम जीवों की रक्षा करना जैन समाज के अनुसार धार्मिक कृत्य समझा गया। जैन शासकों ने इन मान्यताओं को प्रचलित किया। यहाँ तक एक सेठ द्वारा सर की जूं मारने पर उसे दण्डित किया गया। उसे जेल में डाल दिया गया और उसकी संपत्ति जब्त कर मृत जूं की स्मृति में मंदिर का निर्माण किया गया। इस विचार का दूरगामी परिणाम अत्यंत कष्टदायक था। हमारे देश के लोग शत्रु का सामना करने को हिंसा समझने लगे। हमारी रक्षा पंक्ति टूट गई। देश गुलाम बन गया। शत्रु का हनन करना हिंसा का प्रतीक बन गया।

बुद्ध मत में अहिंसा को नया नाम मिला। वह था "निराशावाद" ।महात्मा बुद्ध के काल में शरीर को पीप-विष्ठा-मूत्र का गोला कहा जाने लगा। विश्व को दुःख,असार, त्याग्य, हेय, निस्सार, कष्ठदायी माना जाने लगा और अकर्मयता एवं जगत के त्याग का भाव दृढ़ होने लगा। कालांतर में उपनिषदों और गीता में यही जगत दुखवाद का भाव लाद दिया गया। भारतीयों की इच्छा जगत को स्वर्ग बनाने के स्थान पर त्याग करने की होने लगी। अकर्मयता के साथ निराशावाद घर करने लगी। इससे यह भावना दृढ़ हुई की इस दुखमय संसार में मलेच्छ राज्य करे चाहे कोई और करे हमें तो उसका त्याग ही करना हैं। ऐसे विचार जिस देश में फैले हो वह देश सैकड़ों वर्षों क्या हज़ारों वर्षों तक भी पराधीन रहे तो क्या आश्चर्य की बात हैं।

इन दोनों विचारधाराओं से भिन्न वेद का दृष्टिकोण व्यावहारिक एवं सत्य है।

एक ओर वेदों में शत्रु का नाश करने के लिए सामर्थ्यवान बनने का सन्देश दिया गया है। वहीं दूसरी ओर सभी प्राणियों को मित्र के समान देखने का सन्देश दिया गया है।

 यजुर्वेद 1/18 में स्पष्ट कहा गया कि हे मनुष्य तू  शत्रुओं के नाश में समर्थ बन।

यजुर्वेद 36/18 में  मित्रस्य चक्षुषा समीक्षामहे अर्थात हे मनुष्य तो सभी को मित्र के समान देख।

हिंसा और अहिंसा का ऐसा सुन्दर सन्देश संसार में किसी अन्य विचारधारा में कहीं नहीं मिलता।

 जहाँ तक निराशावाद की बात है। वेद में हमारे शरीर का सुन्दर वर्णन मिलता हैं। अथर्ववेद के 10/2/31 मंत्र में इस शरीर को 8 चक्रों से ...रक्षा करने वाला (यम, नियम से समाधी तक) और 9  द्वार (दो आँख, दो नाक, दो कान, एक मुख, एक मूत्र और एक गुदा) से आवागमन करने वाला कहा गया हैं।  जिसके भीतर सुवर्णमय कोष में अनेक बलों से युक्त तीन प्रकार की गति (ज्ञान, कर्म और उपासना ) करने वाली चेतन आत्मा है। इस जीवात्मा के भीतर और बाहर परमात्मा है और उसी परमात्मा को योगी जन साक्षात करते है। शरीर का यह अलंकारिक वर्णन राज्य विस्तार एवं नगर प्रबंधन का भी सन्देश देता है। शरीर के समान राज्य की भी रक्षा की जाये। वैदिक अध्यात्मवाद जिस प्रकार शरीर को त्यागने का आदेश नहीं देता वैसे ही नगरों को भी त्यागने के स्थान पर उन्हें सुरक्षित एवं स्वर्गसमान बनाने का सन्देश देता है। वेद बुद्धि को दीर्घ जीवन प्राप्त करके सुखपूर्वक रहने की प्रेरणा देते हैं। वेद शरीर को अभ्युदय एवं जगत को अनुष्ठान हेतु मानते थे। वैदिक ऋषि शरीर को ऋषियों का पवित्र आश्रम, देवों का रम्य मंदिर, ब्रह्मा का अपराजित मंदिर मानते थे।


इस प्रकार से अतिवादी या छदम अहिंसा के सन्देश से संसार का कुछ भला नहीं होने वाला। आपको अहिंसा और स्वरक्षा के मध्य के सन्देश को समझना होगा। इसी में सभी का हित हैं।

Monday, April 18, 2016

वेद और शूद्र

वेद और शूद्र

 वेदों के बारे में फैलाई गई भ्रांतियों में से एक यह भी है कि वे ब्राह्मणवादी ग्रंथ हैं और शूद्रों को अछूत मानते हैं। जातिवाद की जड़ भी वेदों में बताई जा रही है और इन्हीं विषैले विचारों पर दलित आंदोलन इस देश में चलाया जा रहा है। लेकिन इन विषैले विचार की उत्पत्ति कहां से हुई?
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⏺सबसे पहले बौद्धकाल में वेदों के विरुद्ध आंदोलन चला। जब संपूर्ण भारत पर बौद्धों का शासन था तब वैदिक ग्रंथों के कई मूलपाठों को परिवर्तित कर समाज में भ्रम फैलाकर हिन्दू समाज को तोड़ा गया।
⏺इसके बाद मुगलकाल में हिन्दुओं में कई तरह की जातियों का विकास किया गया और संपूर्ण भारत के हिन्दुओं को हजारों जातियों में बांट दिया गया।
⏺फिर आए अंग्रेज तो उनके लिए यह फायदेमंद साबित हुआ कि यहां का हिन्दू ही नहीं मुसलमान भी कई जातियों में बंटा हुआ है।
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अंग्रेज काल में पाश्चात्य विद्वानों जैसे मेक्समूलर, ग्रिफ्फिथ, ब्लूमफिल्ड आदि का वेदों का अंग्रेजी में अनुवाद करते समय हर संभव प्रयास था कि किसी भी प्रकार से वेदों को इतना भ्रामक सिद्ध कर दिया जाए कि फिर हिन्दू समाज का वेदों से विश्वास ही उठ जाए और वे खुद भी वेदों का विरोध करने लगे ताकि इससे ईसाई मत के प्रचार-प्रसार में अध्यात्मिक रूप से कोई कठिनाई नहीं आए।
बौद्ध, मुगल और अंग्रेज तीनों ही अपने इस कार्य में 100 प्रतिशत सफल भी हुए और आज हम देखते हैं कि हिन्दू अब बौद्ध भी हैं, बड़ी संख्या में मुसलमान हैं और ईसाई भी।
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अंग्रेज काल में वेदों को जातिवाद का पोषक घोषित कर दिया गया जिससे बड़ी संख्या में हिन्दू समाज के अभिन्न अंग, जिन्हें दलित समझा जाता है, को आसानी से ईसाई मत में किया गया। केरल, तमिलनाडु और पश्चिम बंगाल में गरीब और दलित हिन्दुओं के मन में वेद और ब्राह्मणों के प्रति नफरत भरी गई और यह बताया गया कि आज जो तुम्हारी दुर्दशा है उसमें तुम्हारे धर्म और शासन का ही दोष है। लेकिन ऐसा कहते वक्त वे ये भूल गए कि पिछले 200 साल से तो आप ही का राज था। फिर उसके पूर्व मुगलों का राज था और उससे पूर्व तो बौद्धों का शासन था। हमारी दुर्दशा सुधारने वाला कौन था?
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सवाल यह उठता है कि शूद्र कौन? ब्राह्मण कौन? क्षत्रिय कौन? और वैश्य कौन? यदि हम आज के संदर्भ में शूद्र की परिभाषा करें तो
⏺ महाभारत के रचयिता वेद व्यास शूद्र थे।
⏺रामायण के रचयिता वाल्मीकि भी शूद्र ही थे।
⏺भगवान कृष्ण अहीर यादव समाज से थे तो उन्हें भी शूद्र ही मान लिया जाना चाहिए।
⏺वेदों के ऋषियों की जाति पता करेंगे तो कई शूद्र ही निकलेंगे।
वेद सभी मनुष्यों और सभी वर्णों के लोगों के लिए वेद पढ़ने के अधिकार का समर्थन करते हैं। स्वामीजी के काल में शूद्रों का जो वेद अध्ययन का निषेध था उसके विपरीत वेदों में स्पष्ट रूप से पाया गया कि शूद्रों को वेद अध्ययन का अधिकार स्वयं वेद ही देते हैं।
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यजुर्वेद 26.2 के अनुसार हे मनुष्यों! जैसे मैं परमात्मा सबका कल्याण करने वाली ऋग्वेद आदि रूप वाणी का सब जनों के लिए उपदेश कर रहा हूं, जैसे मैं इस वाणी का ब्राह्मण और क्षत्रियों के लिए उपदेश कर रहा हूं, शूद्रों और वैश्यों के लिए जैसे मैं इसका उपदेश कर रहा हूं और जिन्हें तुम अपना आत्मीय समझते हो, उन सबके लिए इसका उपदेश कर रहा हूं और जिसे ‘अरण’ अर्थात पराया समझते हो, उसके लिए भी मैं इसका उपदेश कर रहा हूं, वैसे ही तुम भी आगे-आगे सब लोगों के लिए इस वाणी के उपदेश का क्रम चलाते रहो।
दरअसल, शूद्र किसी जाति विशेष का नाम नहीं था*। ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य भी किसी जाति विशेष का नाम नहीं होता था। ये तो सभी बौद्धकाल और मध्यकाल की विकृतियां हैं, जो समाज में प्रचलित हो चलीं। *वर्ण को जाति सिद्ध किया गया।
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⏺अथर्ववेद 19.62.1 में प्रार्थना है कि हे परमात्मा! आप मुझे ब्राह्मणों का, क्षत्रियों का, शूद्रों का और वैश्यों का प्यारा बना दें। इस मंत्र का भावार्थ यह है कि हे परमात्मा! आप मेरा स्वभाव और आचरण ऐसा बना दें जिसके कारण ब्राह्मण, क्षत्रिय, शूद्र और वैश्य सभी मुझे प्यार करें। अब यहां समझने वाली बात यह है कि यह मंत्रकर्ता कौन था?
⏺यजुर्वेद 18.48 में प्रार्थना है कि हे परमात्मन! आप हमारी रुचि ब्राह्मणों के प्रति उत्पन्न कीजिए, क्षत्रियों के प्रति उत्पन्न कीजिए, विषयों के प्रति उत्पन्न कीजिए और शूद्रों के प्रति उत्पन्न कीजिये
मंत्र का भाव यह है कि हे परमात्मन! आपकी कृपा से हमारा स्वभाव और मन ऐसा हो जाए कि ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र सभी वर्णों के लोगों के प्रति हमारी रुचि हो। सभी वर्णों के लोग हमें अच्छे लगें। सभी वर्णों के लोगों के प्रति हमारा बर्ताव सदा प्रेम और प्रीति का रहे।
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प्राचीनकाल में 'जन्मना जायते शूद्र' अर्थात जन्म से हर कोई गुणरहित अर्थात शूद्र हैं ऐसा मानते थे और शिक्षा प्राप्ति के पश्चात गुण, कर्म और स्वभाव के आधार पर वर्ण का निश्चय होता था। ऐसा समाज में हर व्यक्ति अपनी-अपनी क्षमता के अनुसार समाज के उत्थान में अपना-अपना योगदान कर सके इसलिए किया गया था। मध्यकाल में यह व्यवस्था जाति व्यवस्था में परिवर्तित हो गई।
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यदि जाति के मान से आज देखें तो एक ब्राह्मण का बालक दुराचारी, कामी, व्यसनी, मांसाहारी और अनपढ़ होते हुए भी ब्राह्मण कहलाने लगा जबकि एक शूद्र का बालक चरित्रवान, शाकाहारी, उच्च शिक्षित होते हुए भी शूद्र कहलाने लगा। होना इसका उल्टा चाहिए था।
इस जातिवाद ने देश को तोड़ दिया। परंतु आज समाज में योग्यता के आधार पर ही वर्ण की स्थापना होने लगी है। *एक चिकित्सक का पुत्र तभी चिकित्सक कहलाता है, जब वह सही प्रकार से शिक्षा ग्रहण न कर ले*। एक इंजीनियर का पुत्र भी उसी प्रकार से शिक्षा प्राप्ति के पश्चात ही इंजीनियर कहलाता है और एक ब्राह्मण के पुत्र को अगर अनपढ़ है तो उसकी योग्यता के अनुसार किसी दफ्तर में चतुर्थ श्रेणी से ज्यादा की नौकरी नहीं मिलती। यही तो वर्ण व्यवस्था है।
दरअसल, वेद और पुराणों के संस्कृत श्लोकों का हिन्दी और अंग्रेजी में गलत अनुवाद ही नहीं किया गया, बल्कि उसके गलत अर्थ भी जान-बूझकर निकाले गए। अंग्रेज विद्वान जो काम करने गए थे उसे ही आज हमारे यहां के वे लोग कर रहे हैं, जो अब या तो वामपंथी हैं या वे हिन्दू नहीं हैं।
वेदों के शत्रु विशेष रूप से पुरुष सूक्त को जातिवाद की उत्पत्ति का समर्थक मानते हैं। पुरुष सूक्त 16 मंत्रों का सूक्त है, जो चारों वेदों में मामूली अंतर में मिलता है।
पुरुष सूक्त जातिवाद के नहीं, अपितु वर्ण व्यवस्था के आधारभूत मंत्र हैं जिसमें 'ब्राह्मणोस्य मुखमासीत' ऋग्वेद 10.90 में ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र को शरीर के मुख, भुजा, मध्य भाग और पैरों से उपमा दी गई है। इस उपमा से यह सिद्ध होता है कि जिस प्रकार शरीर के ये चारों अंग मिलकर एक शरीर बनाते हैं, उसी प्रकार ब्राह्मण आदि चारों वर्ण मिलकर एक समाज बनाते हैं।
जिस प्रकार शरीर के ये चारों अंग एक-दूसरे के सुख-दुःख को अपना सुख-दुःख अनुभव करते हैं, उसी प्रकार समाज के ब्राह्मण आदि चारों वर्णों के लोगों को एक-दूसरे के सुख-दुःख को अपना सुख-दुःख समझना चाहिए।
यदि पैर में कांटा लग जाए तो मुख से दर्द की ध्वनि निकलती है और हाथ सहायता के लिए पहुंचते हैं, उसी प्रकार समाज में जब शूद्र को कोई कठिनाई पहुंचती है तो ब्राह्मण भी और क्षत्रिय भी उसकी सहायता के लिए आगे आएं। सब वर्णों में परस्पर पूर्ण सहानुभूति, सहयोग और प्रेम-प्रीति का बर्ताव होना चाहिए। इस सूक्त में शूद्रों के प्रति कहीं भी भेदभाव की बात नहीं कही गई है।
इस सूक्त का एक और अर्थ इस प्रकार किया जा सकता है कि 🔽जब कोई भी व्यक्ति किसी भी जाति का हो यदि वह समाज में धर्म ज्ञान का संदेश प्रचार-प्रसार करने में योगदान दे रहा है तो वह ब्राह्मण अर्थात समाज का शीश है। 🔽यदि कोई व्यक्ति समाज की रक्षा अथवा नेतृत्व कर रहा है तो वह क्षत्रिय अर्थात समाज की भुजा है।🔽 यदि कोई व्यक्ति देश को व्यापार, धन आदि से समृद्ध कर रहा है तो वह वैश्य अर्थात समाज की जंघा है और🔽 यदि कोई व्यक्ति गुणों से रहित है अर्थात तीनों तरह के कार्य करने में अक्षम है तो वह इन तीनों वर्णों को अपने-अपने कार्य करने में सहायता करे अर्थात इन तीनों के लिए मजबूत आधार बने।
लेकिन आज के आधुनिक युग में इन विशेषणों की कोई आवश्यकता नहीं है। फिर भी अपने राजनीतिक हित के लिए जातिवाद को कभी समाप्त किए जाने की दिशा में आजादी के बाद भी कोई काम नहीं हुआ बल्कि हमारे राजनीतिज्ञों ने भी मुगलों और अंग्रेजों के कार्य को आगे ही बढ़ाया है। आज यदि स्कूल, कॉलेज या मूल निवासी का फॉर्म भरते हैं तो विशेष रूप से जाति का उल्लेख करना होता है। इस तरह अब धीरे-धीरे जातियों में भी उपजातियां ढूंढ ली गई हैं और अब तो दलितों में भी अगड़े-पिछड़े ढूंढे जाने लगे हैं।
जाती वर्ण भेद मिटायें

Sunday, April 17, 2016

बुद्ध बनना: नौटंकी या फैशन

नवबुद्ध बनना: नौटंकी या फैशन

रोहित वेमुला की माँ और भाई ने बुद्ध मत स्वीकार कर लिया। बुद्ध मत स्वीकार करने वाला 99.9 %दलित वर्ग बुद्ध मत को एक फैशन के रूप में स्वीकार करता हैं। उसे महात्मा बुद्ध कि शिक्षाओं और मान्यताओं से कुछ भी लेना देना नहीं होता। उलटे उसका आचरण उससे विपरीत ही रहता हैं। उदहारण के लिए-

1.
मान्यता- महात्मा बुद्ध प्राणी हिंसा के विरुद्ध थे एवं मांसाहार को वर्जित मानते थे।

समीक्षा-  रोहित वेमुला हैदराबाद यूनिवर्सिटी में बीफ फेस्टिवल बनाने वालों में शामिल था। 99.9% नवबौद्ध मांसाहारी है। बुद्ध मत के दो देश के देश दुनिया के सबसे बड़े मांसाहारी हैं। इसे कहते है "नाम बड़े दर्शन छोटे"

2. मान्यता- महात्मा बुद्ध अहिंसा के पूजारी थे। वो किसी भी प्रकार कि वैचारिक हिंसा के विरुद्ध थे।

समीक्षा- किसी भी नवबुद्ध से मिलो। वह झल्लाता हुआ अवसाद से पीड़ित व्यक्ति जैसा दिखेगा। जो सारा दिन ब्राह्मणवाद और मनुवाद के नाम पर सभी का विरोध करता दिखेगा। वह उनका भी विरोध करता दिखेगा जो जातिवाद को नहीं मानते। हर अच्छी बात का विरोध करना उसकी दैनिक दिनचर्या का भाग होगा। महात्मा बुद्ध शारीरिक, मानसिक, वैचारिक सभी प्रकार की हिंसा के विरोधी थे। नवबुद्ध ठीक विपरीत व्यवहार करते हैं।

3. मान्यता- महात्मा बुद्ध संघ अर्थात संगठन की बात करते थे। समाज को संगठित करना उनका उद्देश्य था।

समीक्षा- नवबुद्ध अलगावावादी कश्मीरी नेताओं का समर्थन कर देश और समाज को तोड़ने की नौटंकी करते दीखते हैं।

4. मान्यता- महात्मा बुद्ध धर्म में विश्वास रखते थे।

समीक्षा- नवबुद्ध देश के विरुद्ध षड़यंत्र करने वाले याकूब मेनन जैसे अधर्मी के समर्थन में खड़े होकर अपने आपको ढोंगी सिद्ध करते हैं।

5. मान्यता- महात्मा बुद्ध छल- कपट करने वाले को छल-कपट छोड़ने की शिक्षा देते थे।

समीक्षा- भारत में ईसाई मिशनरी छल-कपट कर निर्धन हिन्दुओं का धर्मान्तरण करती हैं। नवबुद्ध उनका विरोध करने के स्थान पर उनका साथ देते दीखते हैं।

6. मान्यता- महात्मा बुद्ध अत्याचारी व्यक्ति को अत्याचार छोड़ने की प्रेरणा देते थे।

समीक्षा- 1200 वर्षों से भारत भूमि इस्लामिक आक्रमणकारियों के अत्याचार सहती रही। हज़ारों बुद्ध विहार से लेकर नालंदा विश्वविद्यालय इस्लामिक आक्रमणक्रियों ने तहस-नहस कर दिए। नवबौद्ध उसी मानसिकता की पीठ थपथपाते दीखते हैं।

सन्देश- बनना भी है तो महात्मा बुद्ध कि मान्यताओं को जीवन में , व्यवहार में और आचरण में उतारों।

अन्यथा नवबुद्ध बनना तो केवल नौटंकी या फैशन जैसा दीखता हैं।

डॉ विवेक आर्य

Saturday, October 31, 2015

Political effect of Buddhism-Buddha was not a GOD. 9th incarnation-Lord Chaitanya Mahabraphu


An account of effects of political isolation of other religions from Hindus –
बुद्ध के विषय में मेरी उतनी ही आस्था है जितनी की एक बौद्ध भिक्षु की होनी चाहिए ,कृपया कोई इस लेख को अन्यथा ना ले.समीक्षा तो सिर्फ हिंदुत्व से हटे पन्थो के अलगाव वाद और उसके परिणामो की है जिस से आज अलगाव वादियों को कुछ सिख मिले यही केवल एकमात्र उद्देश।
ॐ,नमो आदि हिंदुत्व के तत्वों का उपयोग करके धार्मिक सुधारना के नाम पर हिंदुत्व से हट कर अनेक पन्थो का निर्माण हुआ. इन पन्थो में बौद्ध,जैनादि मुख्य थे परन्तु इसके अलावा भी अनेको पंथ भारत भूमि में अपनी विचारधारा को फैला रहे थे.
घुमा फिर कर इन सभी धर्मो की विचारधारा वेदो से ही प्रणीत होती थि.
हिन्दू धर्म में काल और प्रसंग के अनुसार सुधारना का व्यवधान खुद ही लिखा हुआ है, जिसके तहत अनेको स्मृतियों ने जन्म लिया (स्मृतियाँ ये हिंदुत्व का सुधारित संस्करण होती है ,देवल स्मृृति इतिहास में क्रांतिकारक सिद्ध हुयी).फिर भी कुछ् लोगो ने अपनी स्वेच्छा से हिंदुत्व से हट कर अलग अलग पन्थो का निर्माण कराया जिन्हे हिन्दुओ की धार्मिक सहिष्णुता के कारण समर्थन और संरक्षण दोनों मिले।
बौद्ध पंथ का निर्माण करने के बाद खुद भगवान बुद्ध ने भी ये नहीं सोचा होगा की मेरे अनुयायी अपने अंदर ऐसी विचारधारा का विकास करे जो की हिन्दुओ से राजकीय-अलगाव-वाद को जन्म देगी !
धार्मिक मतानुभेद ये केवल धर्म ,परम्परा और आचरण तक सिमित रहते तो सब ठीक था परन्तु समय के साथ साथ बौद्ध सम्प्रदाय में हिन्दुओ के प्रति अलगाव वाद और विरोध को जन्म दिया ,इसी विरोध ने जब राजनीति में प्रवेश किया तब बौद्ध धर्मानुयायियों में हिन्दुओ के प्रति अलगाव वाद इतना बढ़ गया की वे विदेशी आक्रमण कारियों से समर्थन करने का राष्ट्रद्रोह भी कर बैठे!!
इतिहास में इस विषय में २ प्रमुख प्रमाण मिलते है –
(१) ग्रीक राजा डेमिट्रियस और मिलण्डर का भारत पर आक्रमण (इसा पूर्व :२००) –
इसा के लगभग ३१५ साल पहले समग्र विश्व को जितने वाले राजा अलेक्झांडर सिकंदर के अनुयायी सेल्यूकस निकेटर को भारत में चन्द्रगुप्त से मात खानी पड़ी।चंद्रगुप्त के बाद आये सम्राट अशोक ने भारत में बौद्ध धर्म को के प्रचार को अपना परम कर्त्तव्य समझते हुए हिन्दुओ पर इसका बलात स्वीकार करने की अनिवार्यता डाली।
राष्ट्र की सुरक्षा का मुख्य तत्त्व “शस्त्रबल” को ही उसने अहिंसा के नाम पर ख़त्म कर डाला था ,फलस्वरूप उसके मृत्यु के १०-१५ साल बाद ही बक्टेरियन ग्रीको ने राजा डेमिट्रियस के नेतृत्व में भारत पर पुनः आक्रमण किया। डेमिट्रियस से कई अधिक शक्तिशाली सिकंदर को ध्वस्त करनेवाली उत्तर भारतीय योद्धाओ की क्षात्रवृत्ति अशोक की अहिंसा के कारण ख़त्म हो गयी थी जिस कारण डेमिट्रियस बड़े ही आसानी से पंजाब,गांधार,सिंध समेत अयोध्या तक का बड़ा भूभाग निगल गया।
पुरे भारत में उस से लड़ने की हिम्मत केवल सम्राट अशोक के शत्रु हिन्दू राजा कलिंगराज खारवेल ने की ,उसने आंध्र की सेनाओ को साथ लिए डेमिट्रियस पर हमला बोल दिया ,थोड़ी बोहत मारकाट के बाद ही डेमिट्रियस अपने देश वापस लौट गया.
उसके ठीक ५ साल बाद पुनः मिलण्डर नामक ग्रीक राजा ने भारत पर चढ़ाई की।
मिलंदर ने बड़ी अच्छी राजनीति करते हुए भारत के प्रमुख बौद्ध नेताओ से यह कहना शुरू कर दिया की उसे बौद्ध मत में विश्वास है ,और इसीलिए भारत को जीतकर वह देश में वो पुनः बौद्ध मत को दृढ़ करेगा ! बस। ।इतना ही पर्याप्त था तत्कालीन बौद्ध सम्रदाय के लिए! बौद्ध नेताओ ने उसका नाम मिलण्डर से “मिलिंद ” रख दिया और उसे भारत के बौद्ध राजाओ का समर्थन मिला।
विदेशी ग्रीको को भगाने के लिए सेनापति पुष्यकुमार शुंग को मौर्या साम्राज्य के विरुद्ध विद्रोह करना पड़ा , बृहद्रथ मौर्या को हटाकर वह स्वयं अधिपति बना और मिलण्डर की ग्रीक सेनाओ पर सेनाओ का विद्धवंस करते हुए उसने भारत पर से ग्रीको का संकट हमेशा के लिए दूर कर डाला।
(२) मीर कासिम को सिंध के बौद्ध नेताओ का समर्थन तथा मुसलमानो की सिंध विजय (ईसा ७१२) –
बौद्ध धर्म ग्रंथो में लिखा था की भारत में म्लेच्छो का राज आनेवाला है ,इसलिए व्यर्थ में उनसे लड़कर अपना रक्त क्यों बहाये ? इस सिद्धांत के चलते जब मीर कासिम ने भारत के सिंध प्रांत पर हमला बोला तब बौद्ध नेताओ ने उसका स्वागत किया तथा उस से बौद्ध मठो की रक्षा या उन्हें ना तोड़ने का वचन माँगा ! बदले में उसकी सेनाओ को भोजन ,पानी से लेकर राजकीय भेद बताने की तक सहायता करने का प्रस्ताव रख.
राजा दाहिर की मृत्यु के बाद सिंध में हजारो हिन्दू वीरो ने लड़कर अपना बलिदान दिया और मीर कासिम की विशाल सेना की जीत हुयी !
जीत के तुरंत बाद मंदिरो के साथ साथ बौद्ध मठो का भी कासिम ने विद्ध्वंस करवा डाला।
सिंध पर विजय होने के बाद भी कासिम को हर जगह हिन्दू सरदारो सेना नायको से लड़ाई लड़ना पद रही थी , सिविस्थान नामक सिंध का बड़ा प्रांत अभी भी स्वतंत्र ही था ,इसलिए कासिम की मुसलमान सेनाओ को मंदिरो का विध्वंस करने में हिन्दुओ का डर था परन्तु बौद्ध प्रासादों में उन्हें ऐसा कोई विरोध होने की बिलकुल चिंता नहीं थी सो उन्होंने धड़ा धड़ बौद्ध मठो का तोड़ना शुरू कर दिया।
जब बौद्ध नेताओ ने मीर कासिम को उसका वचन याद दिलाया तब उसने कहा की उसे मूर्तिपूजकों के नाश के अलावा वचन निभाने कआ आदेश नहीं है !
गाँजर मूली की तरह बौद्ध काट दिए गए , केवल वही बचे जिन्होंने इस्लाम काबुल किया था !
अफगानिस्तान ,हेरात सिंध जैसी जगह जाहा जाहा बौद्ध मत अधिक संख्या में था वहाँ वहाँ धर्म बदले हुए मुसलमानो की संख्या सर्वाधिक हो गयी !
सारांश ये रहा की जो पंथ हिंदुत्व की मुख्य धारा से हटे उनके राजकीय अलगाव वाद ने उन पन्थो का आत्मघात कर डाला और जो अलग होने के बाद भी हिंदुत्व से जुड़े रहे ऐसे सिख ,जैन,महानुभाव पन्थादि अपने राजनैतिक उथ्थान का अनुभव करते रहे !
हर हर महादेव ,
कुलदीप सिंह