Wednesday, July 2, 2014

संशोधनद्वारा तंत्रज्ञानका प्रभावी उपयोग करनेवाला इसरायल !

अधिकांश लोग इसरायलको युद्ध अथवा युद्धके संदर्भमें विविध कथाओंसे संलग्न देश मानते हैं । १४ मईको इसरायलका 

स्वातंत्र्यदिन मनाया गया । इस निमित्तसे इस देशका प्रगतिका लेखाचित्र प्रसिद्ध कर रहे हैं ।

१. पानी एवं अनाजके उत्पादनका अकाल होते हुए भी ६० वर्षोंमें बडी उन्नति भरनेवाला इसरायल

इसरायलके प्रत्येक नागरिकने अपना व्यक्तिगत भविष्य अपने देशके साथ जोडा, यही इसरायलकी प्रगतिका रहस्य है । इसरायलकी लडाईके पीछे २ सहस्र वर्षोंका इतिहास है; परंतु उनको मिली स्वतंत्रता केवल ६० से ६२ वर्षोंकी है । यह कहना अचूक होगा कि दि.१४.५.१९४८ को इसरायल नामक देशका अस्तित्व हुआ । इन ६० वर्षोंमें इसरायलने बडी उन्नति की । पानी एवं अनाजके उत्पादका अकाल होते हुए भी इस प्रकारकी उन्नति करनेकी घटना वास्तवमें प्रशंसा करने एवं भारतके साथ विश्वके अन्य देशोंके लिए अनुसरण करनेयोग्य है ।

२.इसरायलद्वारा अत्याधुनिक तंत्रज्ञानकी सहायतासे तांत्रिक प्रगतिकी दिशामें की गई उन्नति

२.अ. पानी
२.अ.१. समुद्रके पानीसे पीनेका पानी सिद्ध करना : समुद्रके नीरस एवं खारे पानीसे सीधे पीनेका पानी उत्पन्न करनेका तंत्रज्ञान इसरायलने प्रगत किया । हम उनका ‘वाईट हाऊस’ नामक बडा प्रकल्प देखने गए थे । किसी शक्कर उद्योगालय (कारखाना) समान यह प्रकल्प है । अवास्तव यंत्रसामग्री, रासायनिक मिश्रणका अत्यधिक बडा सिलेंडर, बडे-बडे ‘वॉटरबेड‘ इन सब वस्तुओंमेंसे पानीका प्रवाह जाता आता रहता है । पश्चात उसमें पुनः पीनेके पानीके लिए कुछ उचित द्रव्य मिलाकर पीनेका पानी सिद्ध होता है । इस प्रकल्पमें प्रतिदिन कुछ दशलक्ष लिटर पानी सिद्ध होता है ।
२ अ. २. पानीकी प्रक्रिया करते समय बिजली भी उत्पन्न होनेके कारण बिजलीके लिए अलगसे व्यय करनेकी आवश्यकता न रहना : इसरायलियोंसे पूछा गया, ‘इतनी सारी प्रक्रियाओंसे सिद्ध पानी बहुत महंगा रहनेके कारण सर्वसाधारण लोगोंको कैसे बन पडेगा ?’ इस समय उन्होंने जानकारी दी कि पानीकी प्रक्रिया करते समय उसी पानीके उपयोगसे बिजली उत्पन्न होती है । इस बिजलीपर ही पूरा प्रकल्प चलता था । इसके लिए बिजलीका अलगसे व्यय करनेकी आवश्यकता नहीं थी । कच्ची सामग्री अर्थात समुद्रका पानी निःशुल्क उपलब्ध होता था । इसके अतिरिक्त यह प्रक्रिया चालू रहतेमें पीनेके लिए अयोग्य पानी खेतीके लिए उपलब्ध करा दिया जाता है, जिसका इस प्रतिष्ठानको अलगसे उत्पन्न मिलता है ।
२ अ.३.गंदे पानीका शुदि्धकरण कर उसका खेतीके लिए उपयोग करना : गंदे पानीपर प्रक्रियाके व्यवसायमें भी उन्होंने ऐसी ही प्रगति की । कालेभोर एवं बदबूवाले पानीका सभी अनावश्यक भाग (तेल, ग्रीस एवं कूडा आदिसे युक्त पानी ) यांत्रिक प्रक्रियाके माध्यमसे निकाला जाता है, जिससे कुछ मात्रामें शुद्ध होकर वह पानी भूमिमें संग्रहित किया जाता है । इसमें खेतीके लिए अनुकूल खनिज मिलाकर खेतीके लिए उसका विक्रय किया जाता है । ये सब प्रक्रियाएं यंत्रद्वारा की जाती है  । इसके लिए भूमिके नीचे विद्युतपंप होते हैं । जिनपर यंत्रद्वारा ही ध्यान रखा जाता है । कुल प्रयुक्त पानीका ७५ प्रतिशत हिस्सा पुनः उपयोगमें लाया जाता है । आगामी कुछ वर्षोंमें इस अनुपातको ९५ प्रतिशततक बढानेका प्रयास चल रहा है । इसके लिए प्रयोगशालामें संशोधन चालू रहता है ।
२ आ. कूडा
२ आ.१. कूडेकी कच्ची सामग्रीपर हवाकी प्रक्रिया करना : कूडेके व्यवस्थापनमें इसरायलने बडी क्रांति की है । इसके लिए अलग अलग आस्थापनोंके बडे-बडे व्यक्तिगत उद्योगालय हैं, जहां कूडा जमा होता है । कूडा डालनेसे इन आस्थापनोंके आसपास कूडेके बडे पहाड सिद्ध हो गए हैं । कूडेकी कच्ची सामग्री आनेपर उसपर प्रथम हवाकी प्रक्रिया की जाती है । अर्थात एक बडे घुमते हुए पैनेलद्वारा कूडेको हवाके झोंकके समक्ष लाया जाता है, जिसके कारण हवाकी सहायतासे कूडेमें सि्थत उडकर जानेसमान जो कुछ है (प्लासि्टक, कागज अथवा डोरीके टुकडे आदि ) उडकर एक बडे बरतनमें /(पिंपमें) गिरता है । पश्चात शेष कूडेपर पानीकी प्रक्रिया होकर कूडेमें सि्थत जड पदार्थोंकीr गंदगी निकल जाती है । गंदगीके हटनेके पश्चात वह कूडा डाला जाता है ।
२ आ.२. भूमिकी भरती करने हेतु इस कूडेका उपयोग करना : भूमिकी भरतीके लिए इस कचरेका उपयोग किया जाता है । अपने देशमें भूमिको समतल करने हेतु किसी स्थानकी मिट्टी खोदकर वहां गड्ढा किया जाता है । इसरायलमें इसके लिए कूडेका उपयोग किया जाता है । एकत्रित कूडेका ७५ प्रतिशत कूडा ‘लैंडफिल्ड‘ के लिए उपलब्ध किया जाता है अर्थात उसका विक्रय किया जाता है, जो आस्थापनके आयका प्रमुख भाग होता है । कूडा उपयोगमें आनेसे पूर्व सडकर उसका मिट्टीमें रुपांतर हो जाता है, जिसके कारण यह कूडा भूमिके लिए   उपयुक्त सिद्ध होता है ।
२ आ.३. सडाए गए कूडेपर प्रक्रिया कर खेतीके लिए खाद बनाना : कूडा व्यवस्थापनका और एक नया तंत्र है ‘यौगिक खाद’ बनाना । सडाया गया कूडा मिट्टीसदृश होते ही उसपर पुनः रासायनिक प्रक्रिया कर उसमें खाद मिलाई जाती है । पश्चात खेतीके लिए इस मिट्टीका खादके रूपमें विक्रय किया जाता है ।
२ आ.४. शेष कूडेका उपयोग अर्थात बेकार वस्तुसे टिकाऊ वस्तु बनाना : शेष कूडा अर्थात प्लासि्टककी रिक्त बोतलोंसे अनेक शोभाकी वस्तुएं सिद्ध की जाती हैं । मानो उन्होंने कूडेका कोई हिस्सा व्यय न होने देनेकी शपथ ली हो । कुर्सीपर डाली जानेवाली फोमकी गादियां भी कूडेसे सिद्ध की गई है । प्रथम बार देखनेपर विश्वास नहीं होता ; परंतु जब उन वस्तुओंको सिद्ध होते समय देखते हैं, तो विश्वास रखना पडता है । देखनेके लिए यह उद्योगालय खूला रखा गया है । वहां बच्चोंके लिए खिलौने हैं, जो इस प्रकारकी बेकार वस्तुओंसे बनाए गए थे ।

२ इ. खेती

२ इ १. ‘ठिबक सिंचन’ ( ‘ड्रीप इरिगेशन’) द्वारा खेती करना : इसरायलकी खेती संशोधनका विषय है । हमारे पास खेतीके लिए भारी मात्रामें पानीका उपयोग किया जाता है । आजकल बिजलीकी कोई  निशि्चती नहीं रहती । आना-जाना चालू रहता है । इसकारण कुछ लोगोंने पंपका बटन चालू ही रखकर सोनेका उपाय ढूंढ निकाला, जिससे  बिजलीके आते ही पंपद्वारा खेतमें पानी बिलकुल बह जाता है । पानीका ऐसा अपव्यय नहीं बन पडेगा, यह ध्यानमें लेकर इसरायलने ‘ड्रीप इरिगेशन’ अर्थात ‘ठिबक सिंचन’ ढूंढ निकाला । इसका सूत्र है जितना आवश्यक है, उतना ही पानी प्रयुक्त करना । इसका तंत्र है कि तनिक भी पानी व्यर्थ न जाने देना ।
२ इ २. अत्याधुनिक तंत्रज्ञानसे उत्पादनमें वृदि्ध करना :  इसी पद्धतिसे सब प्रकारकी खेतीको पानी दिया जाता है । अनेक प्रकारके फलशाक, सबि्जयां तथा अनाज भी उत्पन्न किया जाता है । खेतीमें बोना, पेरना, कृषिकर्म एवं फसलमें सतत संशोधन कर अत्याधुनिक तंत्रज्ञानका उपयोग कर उत्पादनमें वृदि्ध की । वहांके अधिकांश कार्य यंत्रद्वारा ही किए जाते हैं ।
२ ई. तांत्रिक प्रगति
२ ई १. यंत्रद्वारा अल्प जनसंख्याके अभावकी पूर्ति करना : इसरायलकी जनसंख्या केवल ७० लाख है । फलस्वरुप वहां कामकी तुलनामें मनुष्यबल न्यून है । परंतु इस अभावको इसरायलियोंने यंत्रके माध्यमसे दूर किया है । एक जलशुदि्धकरण आस्थापनमें विचार-विमर्श चालू था । उस समय सहज रुपसे श्रमिकोंकी संख्याके विषयमें पूछनेपर समझमें आया कि केवल ५० लोग मिलकर एक बडा उद्योगालय चलाते हैं । रात्रिके समय तो केवल दो ही लोग आस्थापनका पूरा काम देखते हैं । वे केवल परदेपर ( सि्क्रन) देखते हैं । इसलिए आस्थापनमें जो चालू है, पूरा दिखाई देता है । किसी अडचनके आनेपर संगणकके माध्यमसे उसपर तत्काल समाधान ढूंढा जाता है । ५० श्रमिकोंमें भी केवल १० लोग ही केमिकल इंजिनियर थे । इसका अर्थ यह कि जलशुदि्धकरणके लिए आवश्यक रसायनोंका प्रमाण एक बार निशि्चत किया तो काम पूरा हो गया । तदुपरांत उसपर केवल ध्यान देना होता है ।
२ ई.२. यंत्रद्वारा मार्गकी सफाई करना : इसरायलमें मार्गोंको भी यंत्रके माध्यमसे ही स्वच्छ किया जाता है । सवेरे गाडियां आकर ये काम कर जाती हैं । इन गाडियोंको भी केवल एकेक व्यक्ति ही चलाते हैं ।
- राजू इनामदार, (दैनिक लोकसत्ता, २९.५.२०११)

राष्ट्र-धर्मके रक्षक श्री गुरु गोविंदसिंह !

श्री गुरु गोविंदसिंहक्षात्रतेज तथा ब्राह्मतेजसे ओतप्रोत  श्री गुरु गोविंदसिंहजीके विषयमें ऐसा कहा जाता है कि, ‘यदि वे  न होते, तो सबकी सुन्नत होती ।’ यह  शतप्रतिशत सत्य भी  है । देश तथा धर्मके लिए कुछ करनेकी इच्छा गुरु गोविंदसिंहमें बचपनसेही  पनप रही थी । इसीलिए धर्मके लिए उनके पिताजी अद्वितीय बलिदानकी सिद्धता कर रहे थे, तब उन्होंने धर्मरक्षाका दायित्व स्वीकार किया, वह भी केवल ९ वर्षकी आयुमें ! एक ओर युद्धकी व्यूहरचना तथा दुसरी ओर वीररस एवं भक्तिरससे परिपूर्ण चरित्रग्रंथ एवं काव्योंकी निर्मिति, इस प्रकार दोनों ओरसे गुरुजीने राष्ट्र-धर्मकी रक्षा की ।

१. श्री गुरु गोविंदसिंहजीकी क्षात्रवृत्ति दर्शानेवाले उनके जीवनके कुछ प्रसंग !

१ अ. गोविंदजीको  युद्ध करनमें बहुत रुचि थी । इसलिए  बचपनमें वे अपने  बालमित्रोंके दो  गुट  कर उनमें कृत्रिम युद्ध खेला करते थे ।
१ आ. पटनाके मुसलमान सत्ताधीशोंके आगे सिर झुकाकर अभिवादन न करनेका साहसभरा कृत्य  वे बचपनसे करते  थे ।

१ इ. धर्मरक्षाके लिए स्वयंका बलिदान देनेकी इच्छा रखनेवाले गुरु तेगबहादूरको भविष्यमें

धर्म रक्षाके कार्यके लिए अपनी समर्थताको अपनी ओजस्वी वाणीसे प्रमाणित करनेवाले गुरू गोविंद !

        वह काल मुघल सम्राट औरंगजेबके क्रूर शासनका था । कश्मीरके मुघल शासक अफगाण शेरके अत्याचारोंसे कश्मीरी पंडित त्रस्त हुए थे ।  उच्चवर्णिय तथा ब्राह्मणोंका बलपूर्वक  धर्मपरिवर्तन किया जा रहा था ।  गुरु तेगबहादूरने पूरे देशमें भ्रमण किया था; इसलिए उन्होंने सर्वत्रकी परिस्थितिका निकटसे अवलोकन किया था । तब स्वरक्षा हेतु कश्मीरी पंडितोंका  एक प्रतिनिधिमंडल पंडित कृपाराम दत्तजीके नेतृत्वमें आनंदपूरमें गुरु तेगबहादूरकी शरणमें आया । एक ओर औरंगजेब हिंदुओंके मतपरिवर्तनके  लिए सर्व प्रकारके अत्याचार एवं  कठोर उपायोंका अवलंब कर  रहा था, तो  दूसरी ओर हिंदू समाजमें दुर्बलता तथा आपसी मतभेदोंने उच्चांक प्रस्थापित किया था । समाजमें संगठितता नहीं थी तथा राष्ट्रीयताकी भावना न्यून हो गई थी । गुरु तेगबहादूरने पंडितोंसे कहा, ‘जबतक कोई महापुरुष इन अत्याचारोंके विरोधमें  खडा नहीं होता, तबतक देश एवं धर्मकी रक्षा होना संभव नहीं । ’ सभामें  स्मशानजैसी शांति फ़ैल गई । उस समय बाल गोविंदने कहा, ‘‘पिताजी, ये कश्मीरी पंडित आपकी शरणमें आए हैं । बिना आपके  इन्हें कौन साहस बंधाएगा ?’’ पुत्रकी निर्भय वाणी सुनकर पिताने उसे अपनी गोदमें बिठाकर पूछा, ‘‘यदि इनकी  रक्षा  करते समय मेरा सिर कटकर मुझे परलोकमें जाना पडा, तो तुम्हारी रक्षा कौन करेगा ?’ गुरुनानकके अनुयायीयोंकी रक्षा कौन करेगा ? सिक्खोंका नेतृत्व कौन करेगा ? आप तो अभी बच्चे हो । ’’ इसपर बाल गोविंदने उत्तर दिया, ‘‘जब मैं ९ मास मांके गर्भमें था, तो उस समय उस कालपुरुषने मेरी रक्षा की, अब तो मैं ९ वर्षका हूं, तो अब क्या मैं मेरी रक्षा करनेके लिए  समर्थ नहीं हूं ?’’ पुत्रकी यह ओजस्वी वाणी सुनकर ‘गोविंद अब भविष्यका दायित्व संभालनेमें समर्थ है’, इस बातपर उनका  विश्वास हुआ । गुरु तेगबहादूरने तुरंत पांच पैसे तथा नारियल मंगवाकर उसपर अपने पुत्रका सिर टिकाया और गोविंदको गुरुपदपर नियुक्त कर भारतदेशकी अस्मिताकी रक्षा हेतु अपनी देह बलिवेदीपर समर्पण करनेके लिए प्रस्थान किया ।

१ ई. शांति एवं अहिंसाके मार्गसे प्राणोंका बलिदान

करनेकी अपेक्षा दुष्प्रवृत्तियोंसे लडनेकी प्रतिज्ञा लेनेवाले श्री गुरु गोविंदसिंह !

        पिताके महान बलिदानके उपरांत श्री गुरु गोविंदसिंहने सिक्ख पंथकी शांति एवं अहिंसाके मार्गसे प्राणोंका बलिदान करनेकी नीतिको निरस्त करनेवाली प्रतिज्ञा की । यही प्रतिज्ञा  देश तथा धर्मके लिए शत्रुओंपर निर्णायक विजय पानेके लिए श्री गुरु गोविंदसिंहके जीवनकी प्रेरणा बनी । इतिहास इसका साक्षी है ।

१ उ. औरंगजेबके शाही आदेशको प्रतिआदेश देनेवाले

तथा उससे दो हाथ करनेकी सिद्धता करनेवाले श्री गुरु गोविंदसिंह !

        गुरुजीका रौद्ररूप देखकर देहलीका मुगल शासक चिंतित हुआ । औरंगजेबने सरहिंदके नबाबको आदेश दिया, ‘गुरु गोविंदसिंह यदि साधूका जीवन व्यतीत करना चाहता होगा, स्वयंको बादशाह कहलाना तथा  सैनिकोंको इकठ्ठा करना बंद करता होगा, अपने सिरपर राजाओंसमान सिरपेंच रखना छोड देता होगा, किलेके छतपर  खडा रहकर सेनाका निरीक्षण करना तथा अभिवादन स्वीकारना बंद करता होगा, तो ठीक । वह एक सामान्य ‘संत’के रुपमें जीवन व्यतीत कर सकता है; किंतु यह चेतावनी देनेके पश्चात भी वह अपनी कार्यवाहियां बंद नहीं करता होगा, तो उसे सीमापार करे, उसे बंदी बनाए अथवा उसकी हत्या करें ।  आनंदपूरको पूर्णत: नष्ट करे ।’  औरंगजेबके इस शाही आदेशका गुरुजीपर कुछ भी परिणाम नहीं हुआ । तब फरवरी १६९५ में औरंगजेबने एक और आदेश निकाला, ‘एक भी हिंदू  (जो मुगल राजसत्ताके  कर्मचारी हैं उन्हें छोडकर ) सिरपर चोटी न रखे, पगडी न पहने, हाथमें शस्त्र न ले । उसी प्रकार पालकीमें, हाथियोंपर तथा अरबी घोडोंपर न बैठे । ’ गुरुजीने इस अवमानकारक आदेशको आव्हान देकर प्रतिआदेश निकाला, ‘मेरे सिक्ख बंधु केवल चोटीही नहीं  रखेंगे , वे संपूर्ण केशधारी होंगे तथा वे केश नहीं कटवाएंगे । मेरे सिक्ख बंधु  शस्त्र धारण करेंगे, वे हाथियोंपर, घोडोंपर तथा  पालकीमें भी बैठेंगे । ’

२. गुरु गोविंदसिंहका ज्ञानकार्य !

२ अ. उत्कृष्ट योद्धा श्री गुरु गोविंदसिंहके ब्राह्मतेजका 

प्रत्यय देनेवाला वीररस तथा भक्तिरससे परिपूर्ण साहित्य !

१. ‘नाममाला’ ( १२ वर्षकी आयुमें रचा ग्रंथ)
२. ‘मार्कंडेय पुराण’ का हिंदीमें  अनुवाद
३. तृतीय चण्डी चरित्र
४. चौबीस अवतार
५. विचित्र नाटक
६. रामावतार
        इन प्रमुख ग्रंथोंकी रचनाओंके साथ-साथ ‘श्रीकृष्णावतार कथा’, ‘रासलीलाका भक्तिरस ’ एवं ‘युद्धनीति ’जैसे विषयोंपर भी  गुरुजीने  लेखन किया है ।

२ आ. इतिहास तथा प्राचीन ग्रंथोंको सुलभ

भाषामें लिखकर उनका पुनरुत्थान करनेवाले गुरुजी !

        गुरु गोविंदसिंहने अपने सैनिकी, साहित्यिक एवं शिक्षासे संबंधित उपक्रमोंमें गति लानेके लिए हिमाचल प्रदेशके नाहन राज्यमें  यमुना नदीके दक्षिण तटपर ‘पावटा’ नामक नगर बसाया । पूरे देशके चुने हुए  ५२ कवियोंको ‘पावटा’में आमंत्रित कर देशका इतिहास एवं प्राचीन ग्रंथोंका सुलभ भाषामें लेखन करवाया । अमृतराय, हंसराय, कुरेश मंडल एवं अन्य विद्वान कवियोंको संस्कृत भाषाके ‘चाणक्यनीति,’ ‘हितोपदेश’ एवं ‘पिंगलसर’ इत्यादि ग्रंथोंका भाषांतर करनेका कार्य सौंपा । गुरुजी स्वयं उत्कृष्ट साहित्यकार थे ।  गुरुजींके हिंदी, ब्रज तथा पंजाबी भाषाके अनेक ग्रंथ वीररससे भरे हैं।

२ इ. गुरु गोविंदसिंहने प्राचीन ग्रंथोंके  गहन अध्ययनका मह्त्व जानकर  पांच सिक्खोंको संस्कृत

भाषाकी विधिवत शिक्षाके लिए काशी भेजना तथा उसीके द्वारा ‘निर्मल परंपरा’ की अधारशिला स्थापित करना

        गुरुजी अपने सिक्ख खालसा पंथमें संस्कृतके प्राचीन काव्य तथा ग्रंथोंके भावार्थके माध्यमसे नई चेतना जागृत करना चाहते थे । केवल पौराणिक ग्रंथ भाषांतरित कर काम नहीं चलेगा, उनका गहन अध्ययन भी  आवश्यक है, यह बात वे जान गए थे । इस हेतु गुरुजीने पांच सिक्खोंको ब्रह्मचारी वेश धारण करनेका आदेश देकर विशेषकर संस्कृत भाषाकी  विधिवत शिक्षा  हेतु काशी भेजा । यहींसे  ‘निर्मल परंपरा’ का आरंभ हुआ । इसके उपरांत ‘निर्मल परंपरा’ तथा संस्थाको धर्मप्रसारका कार्य सौंपा ।

२ ई. श्री गुरु गोविंदसिंहके ग्रंथ एवं कविता !

        ‘हिंदु तथा सिक्ख भिन्न नहीं हैं । उनकी शिक्षा भी भिन्न नहीं है । सिक्ख पंथ महान हिंदु धर्मका एक अविभाज्य अंग है ।  हिंदुओंके धर्मगं्रथ, पुराण एवं दर्शनोंद्वारा प्राप्त  ज्ञान श्री गुरु गोविंदसिहने ‘गुरुमुखी’में प्रस्तुत किया है । यदि हिंदू जीवित रहे, तो ही सिक्ख जीवित रहेंगे । क्या हम अपनी धरोहर (पूर्वापार  परंपराएं) छोड देंगे ?’ - मास्टर तारासिंह
(२९.८.१९६४ को मुंबई स्थित सांदिपनी आश्रममें विश्व हिंदु परिषदकी स्थापनाके  समय किए भाषणका अंश) (गीता स्वाध्याय, जनवरी २०११)

३. औरंगजेबको भेजे गए मृत्यु-संदेशके

राजपत्रसे उनकी स्पष्टोक्ति, आत्मविश्वास तथा वीरताका परिचय !

        औरंगजेब ! मैं यह मृत्यु-संदेश तुम्हें उस शवितका स्मरण कर भेज रहा हूं, जिसका  स्वरूप तलवार एवं खंजीर है । जिसके  दांत तीक्ष्ण हैं तथा जिसके दर्शन खंजीरकी नोंकपर स्पष्ट हो रहे हैं  । वह युद्धमें जीवनदान देनेवाले योद्धामें है । तुमपर वायुवेगसे कूदकर तुम्हें नष्ट करनेवाले अश्वमें है । हे मूर्ख ! तू स्वयंको ‘औरंगजेब’ (सिंहासनकी शोभा) कहलाता है; किंतु क्या  तुम्हारे जैसा पाखंडी, हत्यारा, धूर्त क्या कभी ‘सिंहासनकी शोभा’ बन सकता है ?  हे विध्वंसक  औरंगजेब, तुम्हारे नामका ‘जेब’ शोभा नहीं बन सकता ।  ‘तुम्हारे हाथकी माला कपटका जाल है, ’यह बात सब जानते हैं । जिसके मनमें केवल जालमें फांसनेवाले आखेटक (शिकारी) दाने हैं । तुम्हारी वंदना केवल दिखावा है तथा तुमने किए पापोंपर पर्दा डालने जैसा है । अरे पापी ! तुम वही हो, जिसने केवल राज्यकी लालसासे अपने वृद्ध पिताके साथ कपट किया  । तुम वही हो, जिसने अपने सगे भाईको  मारकर  उसके खूनसे अपने हाथ रंगे हैं ।
        तुम्हारी नसनससे निरपराध लोगोंके खूनकी बू आ रही है ।  हे क्रूरकर्मा ! वह दिन अब दूर नहीं, ‘कारागृहसे उठनेवाली तुम्हारे पिताजीकी ध्वनि, पीडितोंके खूनसे रंगी तुम्हारी इस अत्याचारी सत्ताको जलाकर भस्म करेगी । ’ (गीता स्वाध्याय, जानेवारी २०११)

स्वामी श्रद्धानंद : स्वधर्मार्थ प्राण त्याग करनेवाले हिंदू नेता !

१. परिचय   

        स्वामी श्रद्धानंद एक ऐसे हिंदू नेता थे, जिनका प्राणहरण अब्दुल रशीद नामक एक कट्टरपंथी द्वारा, हिंदू घृणाकी प्राणहारी हत्यारी परंपराके कारण २३ दिसंबर १९२६ में हुआ । हिंदू अपने नेताकी हत्या होनेकी स्थितिमें, दिशाहीन हो जाते हैं, इस तथ्यको समझकर हिंदू नेताओंकी हत्यायें हिंदू घृणाके कारण बहुत सूझ-बूझके साथ की जा रहीं हैं । संघ परिवारके १२५ लोगोंकी हत्यायें केरल राज्यमें पिछले कुछ वर्षोंमे की जा चुकी हैं । स्वामी लक्ष्मणानंदकी हत्या ओडीशामें सन् २००८ की गई थी ।

२. संपूर्ण जीवन वैदिक परंपरा एवं वैदिक धर्मके

उत्कर्षके लिए समर्पित कर, अपना नामकरण स्वामी श्रद्धानंद किया

        स्वामी श्रद्धानंद उर्फ लाला मुंशीरामने अपनी आयुके ३५वें वर्षमें वानप्रस्थ आश्रम (मानव जीवनका तृतीय सोपान ) कर वे महात्मा मुंशीराम बने । उन्होंने हरिद्वारके समीप कांगडी क्षेत्रमें सन् १९०२ में एक गुरुकुलकी ( पुरातन भारत की परंपराके अनुसार एक निवासी शैक्षणिक संस्थान, जहां अध्यात्मके साथ-साथ शिक्षाके अन्य विषयभी पढाये जाते हैं ।) स्थापना की । प्रारंभमे उनके दो पुत्र हरिशचंद्र एवं इंद्र उनके विद्यार्थी तथा महात्मा स्वयं उनके आचार्य थे । वर्तमानमें सैकडों विद्यार्थी वहां शिक्षा ले रहे हैं एवं गुरुकुल कांगडी अब एक विश्वविद्यालय है ।
        महात्मा मुंशीराम गुरुकुलमें लगातार १५ वर्षोंतक कार्यरत रहे । तदुपरांत सन् १९१७ मे उन्होंने सन्यास आश्रम ( मानव जीवनके चार आश्रमोंका अंतिम सोपान - सर्वत्यागकी अवस्था ) स्वीकार किया । सन्यास आश्रमके स्वीकार समारोहमें भाषण देते समय वे बोले, मैं स्वयं अपना नामकरण करूंगा । चुकी मैने अपना संपूर्ण जीवन वेद एवं वैदिक धर्मके उत्कर्षमें व्यतीत किया है, तथा भविष्यमें भी वही कार्य करूंगा, इसलिये मैं अपना नामकरण; श्रद्धानंद कर रहा हूं ।

३. स्वामी श्रद्धानंदका स्वतंत्रता संग्राममें सक्रिय सहभाग !   

        राष्ट्रको स्वतंत्र करवाना स्वामी श्रद्धानंदका अमूल्य संकल्प था । भारतीय जनसमुदायपर पजाबमें ’मार्शल ला ‘ एवं ‘रोलेट ऐक्ट ’ थोप दिये गये थे । दिल्लीमें दमनकारी रोलेट ऐक्टके विरोधमें जनआक्रोश चरमपर था और आनंदोलन हो रहे थे । स्वामी श्रद्धानंद जनांदोलनकी नेतृत्व कर रहे थे । उस समय जुलूस निकालनेपर बंदी लगादी गई थी । स्वामीजीने बंदीको चुनौती देकर दिल्लीमें जुलूस निकालनेकी घोषणा की । तदानुसार सहस्त्रोंकी संख्यामें देशभक्त जुलूसमें सहभागी हुए । जब तक जुलूस चांदनी चौक में पहुंचता, गुरखा रेजिमेंटकी टुकडी बंदूकों आदिके साथ अंग्रेजोंके आदेशपर तैयार थी । साहसी श्रद्धानंद हजारों अनुयायियोंके साथ सभा स्थलपर पहुंचे । जब सैनिक गोलियां चलाने वालेही थे, कि वह निर्भय होकर आगे बडे और जोर से गर्जना करते हुए ललकारा कि, निरीह जनसमुदायको मारनेके पहले, मुझे मारो । बंदूकें त्वरित नीचे झुकादी गयीं तथा जुलूस शांतिपूर्वक आगे बढ गया ।

४. साहसी त्यागमुर्ति का दिल्लीकी जामा मस्जिदमें वैदिक मंत्रोंके पठनसे ओत प्रोत भाषण   

        सन् १९२२ में स्वामी श्रद्धानंदने दिल्लीकी जामा मस्जिदमें एक भाषण दिया था । उन्होंने प्रारंभमें वेद मेंत्रोंका पठन किया तदनंतर प्रेरणादायी भाषण दिया । स्वामी श्रद्धानंद ही मात्र एक ऐसे वक्ता थे, जिन्होंने वैदिक मंत्रोच्चारके साथ अपना भाषण दिया । जागतिक इतिहासका यह अभूतपूर्व क्षण था ।

५. कांग्रेस छोडकर हिंदू महासभामें शामिल होना   

        स्वामी श्रद्धानंदने जब परिस्थितिका गहराईसे अध्ययन किया तो उन्हें इसका बोध हुआ कि, मुसलमान कांग्रेसमें शामिल होनेपर भी मुसलमान ही रहता है । वे नमाज पढनेके लिए कांग्रेस सत्रको भी रोक सकते थे । हिंदू धर्मपर कांग्रेसमें अन्याय हो रहा था । जब उन्हें सत्यका पता लगा, उन्होंने त्वरित कांग्रेसका त्याग किया एवं पं. मदन मोहन मालवीयकी सहायतासे ‘हिंदू महासभा’ की स्थापना की ।

६. स्वामी श्रद्धानंदका धर्मांतरित हिंदुओंको स्वधर्ममे वापस लानेका महान कार्य   

        हिंदुओंके सापेक्ष मुसलमानोंकी बढती संख्याको रोकने के लिए, उन्होंने धर्मांतरित हिंदुओंके शुदि्धकरणका पवित्र अभियान प्रारंभ किया । उन्होंने आगरामें एक कार्यालय खोला । आगरा, भरतपूर, मथुरा आदि स्थानोंमे अनेक राजपूत थे, जिन्हें उसी समय इस्लाममें धर्मांतरित किया गया था किन्तु वे हिंदू धर्ममें वापस आना चाहते थे । पांच लाख राजपूत हिंदू धर्म स्वीकारने के लिए तैयार थे । स्वामी श्रद्धानंद इस अभियानका नेतृत्व कर रहे थे । उन्हों इस प्रयोजनार्थ एक बहुत बडी सभाका आयोजन किया एवं उन राजपूतोंका शुद्धीकरण किया । उनके नेतृत्वमें अनेक गांवोंका शुद्धिकरण हुआ । इस अभियानने हिंदुओंमे एक नवीन चेतना, शक्ति एवं उत्साहका निर्माण किया । इसके साथ ही हिंदु संस्थांओंका भी विस्तार हुआ । कराची निवासी एक मुसलमान महिला जिनका नाम अजगरी बेगम था, उन्हें हिंदू धर्ममें समाहित किया गया । इस घटनाने मुसलमानोंके बीच एक हंगामा खडा कर दिया एवं स्वामीजी विश्वमें प्रसिद्ध हो गए ।

७. प्राणहारी परंपराके शिकार   

        अब्दुल रशीद नामक एक कट्टरपंथी मुसलमान स्वामीजीके दिल्ली स्थित निवासपर २३ दिसंबरको पंहुंचा और उसने कहा कि, उसे स्वामी जीके साथ इस्लामपर चर्चा करनी है । उसने अपने आपको एक कंबलसे ढक रखा था । श्री धर्मपाल जो स्वामीजीकी सेवामें थे, वे स्वामीजीके साथ थे, फलस्वरूप वह कुछ न कर सका । उसने एक प्याला पानी मांगा । उसे पानी देकर जब धर्मपाल प्याला लेकर अंदर गए, रशीदने स्वामीजीपर गोली दागदी । धर्मपालने रशीदको पकड लिया । जबतक अन्य लोग वहांपर पहुचते स्वामीजी प्राणार्पण कर चुके थे । रशीदके विरुद्ध कार्यवाही हुई । इस प्रकार स्वामी श्रद्धानंदजी इस्लामकी हत्यारी परंपराके शिकार हुए किन्तु उन्होंने शहादत देकर अपना नाम अमर कर दिया ।

स्वामी श्रद्धानंदने जैसे ही इस्लाममें धर्मांतरणका विरोध किया,

गांधीजी एवं मुसलमानोंकी उनके प्रति रुचि समाप्त एवं कट्टरवादी द्वारा उनकी हत्या

        गांधीजी स्वामी श्रद्धानंदको बहुत चाहते थे, किंतु जबसे उन्होंने हिंदुओंका हिंदुत्वमें पुर्नपरिवर्तन करनेका अभियान प्रारंभ किया, गांधीजी और मुसलमानोंकी उनमें रुचि समाप्त हो गई । इतना ही नहीं अब्दुल रशीदने बंदूकसे उनकी अति समीपसे हत्या कर दी । स्वामी श्रद्धानंदके हत्यारे अब्दुल रशीदको, गांधीजीने अति सन्मानसे संबोधित करते हुए ‘मेरा भाई !‘ कहा । इससे यह स्पष्ट होता है कि, यदि एक हिंदूभी किसी घटनामें मारा जाता तो गांधीजी उसे राजनैतिक मुद्दा बना देते ।

        स्वयंका संपूर्ण जीवन वैदिक परंपरा एवं वैदिक धर्मके उत्कर्षके लिए समर्पित करनेवाले तथा धर्मांतरित हिंदुओंको स्वधर्ममे वापस लानेवाले साहसी त्यागमुर्ति स्वामी श्रद्धानंदजी का महान कार्य आगे बढाना, यहीं उनके चरणोंमें यथार्थ रूपसे श्रद्धांजली अर्पण करने जैसे होगी !

अब्बक्का रानी: एक वीरांगना जिन्होंने पोर्तुगीजोंको पराभूत किया !

१. परिचय

Article Image     अब्बक्का रानी अथवा अब्बक्का महादेवी तुलुनाडूकी रानी थीं जिन्होंने सोलहवीं शताब्दीके उत्तरार्धमें पोर्तुगीजोंके साथ युद्ध किया । वह चौटा राजवंशसे थीं जो मंदिरोंका शहर मूडबिद्रीसे शासन करते थे । बंदरगाह शहर उल्लाल उनकी सहायक राजधानी थी ।
२. बचपन
     चौटा राजवंश मातृसत्ताकी पद्धतिसे चलनेवाला था, अत: अब्बक्काके मामा, तिरुमला रायने उन्हें उल्लालकी रानी बनाया । उन्होंनेने मैंगलोरके निकटके प्रभावी राजा लक्ष्मप्पा अरसाके साथ अब्बक्काका विवाह पक्का किया । बादमें यह संबंध पोर्तुगीजों हेतु चिंताका विषय बननेवाला था । तिरुमला रायने अब्बक्काको युद्धके अलग-अलग दांवपेचोंसे अवगत कराया । किंतु यह विवाह अधिक समयतक नहीं चला और अब्बक्का उल्लाल वापिस आ गर्इं । उनके पतिने अब्बक्कासे प्रतिशोध लेनेकी इच्छासे बादमें अब्बक्काके विरुद्ध पोर्तुगीजोंके साथ हाथ मिलाया ।

३. बहादुरी

     पोर्तुगीजोंने उल्लाल जीतनेके कई प्रयास किए, क्योंकि रणनीतिकी दृष्टिसे वह बहुत महत्वपूर्ण था । किंतु लगभग चार दशकों तक अब्बक्काने उन्हें हर समय खदेडकर भगा दिया । अपनी बहादुरीके कारण वह ‘अभया रानी’ के नामसे विख्यात हो गर्इं । औपनिवेशक शक्तियोंके विरुद्ध लडनेवाले बहुत अल्प भारतीयोंमेंसे वह एक थीं तथा वह प्रथम भारतीय स्वतंत्रता सेनानी मानी जाती थीं ।
     रानी अब्बक्का भले ही एक छोटे राज्य उल्लाकी रानी थीं, वह एक अदम्य साहस एवं देशभक्तिवाली महिला थीं । झांसीकी रानी साहसका प्रतीक बन गई हैं, उनके ३०० वर्ष पूर्व हुई अब्बक्काको इतिहास भूल गया है ।
     पोर्तुगीजोंके साथ उनकी साहसपूर्ण लडाईयोंका ब्यौरा ठीकसे नहीं रखा गया । किंतु जो भी उपलब्ध है, उससे इस उत्तुंग, साहसी एवं तेजस्वी व्यक्तित्वका पता चलता है ।

४. व्यक्तिगत जीवन

     स्थानीय किंवदंतियोंके अनुसार अब्बक्का एक बहुत ही होनहार बच्ची थीं, तथा जैस-जैसे वह बडी होती गर्इं, एक द्रष्टा होनेके सारे लक्षण उनमें दिखाई देने लगे; धनुर्विद्या तथा तलवारबाजीमें उनका मुकाबला करनेवाला कोई नहीं था । इस हेतु उनके पिताजीने उन्हें उत्तेजना दी, परिणामस्वरूप वह हर क्षेत्रमें प्रवीण हो गर्इं । उनका विवाह पडोसके बांघेरके राजाके साथ हुआ । किंतु यह विवाह अधिक चला नहीं, तथा अब्बक्का पतिद्वारा दिए हीरे-जवाहरात लौटाकर घर आ गर्इं । अब्बक्काके पतिने उनसे प्रतिशोध लेने हेतु तथा उनसे युद्ध करने हेतु एक संधिमें पोर्तुगीजोंसे हाथ मिलाया ।
     उल्लालका स्थान अब्बक्काके राज्यकी राजधानी उल्लाल किला अरब सागरके किनारे मंगलोर शहरसे मुछ ही मीलोंकी दूरीपर था । वह एक ऐतिहासिक स्थान तथा एक तीर्थस्थल भी था, क्योंकि रानीने वहां शिवका सुंदर मंदिर निर्माण किया । वहां एक नैसर्गिक अद्वितीय शिला भी थी, जो ‘रुद्र शिला’ के नामसे जानी जाती थी । उसपर पानीकी बौछार होते ही हर पल उस शिलाका रंग बदलता रहता था ।

५. ऐतिहासिक पार्श्वभूमि

     गोवाको कुचलकर उसे नियंत्रणमें लेनेके पश्चात पोर्तुगीजोंकी आंख दक्षिणकी ओर तथा सागरके किनारेपर पडी । उन्होंने सबसे पहले १५२५ में दक्षिण कनाराके किनारेपर आक्रमण किया तथा मंगलोर बंदरगाह नष्ट किया । उल्लाल एक समृद्ध बंदरगाह था तथा अरब एवं पश्चिमके देशोंके लिए मसालेके व्यापारका केंद्र था । लाभप्रद व्यापारकेंद्र होनेके कारण पोर्तुगीज, डच तथा ब्रिटिश उस क्षेत्रपर एवं व्यापारी मार्गोंपर नियंत्रण पाने हेतु एक दूसरेसे टकराते रहते थे । किंतु वे उस क्षेत्रमें अधिक अंदरतक घुस नहीं पाए, क्योंकि स्थानीय सरदारोंद्वारा होनेवाला प्रतिरोध बडा दृढ (मजबूत) था । स्थानीय शासकोंने जाति एवं धर्मसे ऊपर उठकर कई जाली गठबंधन बनाए ।
     अब्बक्का भले ही जैनी थीं, उनके शासनमें हिंदू एवं मुसलमानोंका अच्छा प्रतिनिधित्व था । उनकी सेनामें सभी जाति एवं संप्रदायके लोग, यहांतक कि मूगावीरा मच्छीमार भीसम्मिलित थे । उन्होंने कालिकतके जामोरीन तथा दक्षिण तुलूनाडूके मुसलमान शासनकर्ताओंके साथ जाली गठबंधन बनाए । पडोसके बंगा राजवंशसे विवाहबंधनसे स्थानीय शासनकर्ताओंके गठबंधन और दृढ हो गए ।

६. पोर्तुगीजोंके साथ युद्ध

६ अ. प्रथम आक्रमण

     पोर्तुगीजोंने १५२५ में दक्षिण कनारा तटपर पहला आक्रमण कर मंगलोर बंदरगाह नष्ट किया । इस घटनासे रानी सतर्क हो गर्इं तथा अपने राज्यकी सुरक्षाकी तैयारीमें जुट गर्इं ।

६ आ. द्वितीय आक्रमण

     अब्बक्काकी रणनीतिसे पोर्तुगीज अस्वस्थ हो गए थे, तथा चाहते थे कि वह उनके सामने झुक जाएं, उनका सम्मान करें, किंतु अब्बक्काने झुकना अस्वीकार किया । १५५५ में पोर्तुगीजोंने एडमिरल डॉम अलवरो दा सिलवेरिया को रानीसे युद्ध करने भेजा क्योंकि उन्होंने उनका सम्मान करना अस्वीकार किया था । तदुपरांत हुए युद्धमें रानीने एक बार पुन: स्वयंको बचाया तथा आक्रमणकारियोंको सफलतापूर्वक खदेड दिया ।

६ इ. तृतीय आक्रमण

     १५५७ में पोर्तुगीजोंने मंगलोरको लूट कर उसे बर्बाद कर दिया । १५५८ में पोर्तुगीजोंने मंगलोरके साथ प्रचंड क्रौर्य कर बडा पापकर्म किया, कई युवा एवं बूढे स्त्री-पुरुषोंकी हत्या की, एक मंदिरको लूटा, जहाज जलाए तथा अंतमें पूरे शहरमें आग लगा दी ।

६ र्इ. चतुर्थ आक्रमण

     १५६७ में पोर्तुगीजोंने पुन: उल्लालपर आक्रमण किया, मृत्यु एवं विनाश की वर्षा की । महान अब्बक्काने इसका भी प्रतिकार किया ।

६ उ. पांचवां आक्रमण

     १५६८ में पोर्तुगीज वाईसराय एंटोनियो नोरान्हाने जनरल जोआओ पिक्सोटो के साथ सैनिकोंका एक बेडा देकर उसे उल्लाल भेजा । उन्होंने उल्लालपर नियंत्रण किया तथा राजदरबारमें घुस गए । किंतु अब्बक्का रानी भाग गर्इं तथा एक मस्जिदमें आश्रय लिया । उसी रात उसने २०० सैनिकोंको इकट्ठा कर पोर्तुगीजोंपर आक्रमण किया । लडाईमें जनरल पिक्सोटो मारा गया तथा ७० पोर्तुगीज सैनिकोंको बंदी बनाया गया, कई सैनिक भाग गए । बादमें हुए आक्रमणोंमें रानी तथा उसके समर्थकोंने एडमिरल मस्कारेन्हसकी हत्या की और पोर्तुगीजोंको मंगलोर किला खाली करनेपर बाध्य किया ।

६ ऊ. छठां आक्रमण

     १५६९ मे पोर्तुगीजोंने केवल मंगलोर वापिस लिया इतना ही नहीं अपितु कुंडपुर (बसरुर) पर विजय प्राप्त किया । यह सब पानेके पश्चात अब्बक्का रानी खतरेका स्रोत बनी हुई थीं । रानीके विभक्त पतिकी मददसे वे उल्लालपर आक्रमण करते रहे । घमासान युद्धके पश्चात अब्बक्का रानी अपने निर्णयपर अटल थीं । १५७० में उन्होेंने अहमदनगरके बीजापुर सुलतान तथा कालिकतके झामोरीनके साथ गठबंधन किया, जो पोर्तुगीजोंके विरुद्ध थे । झामोरीनका सरदार कुट्टी पोकर मार्कर अब्बक्काकी ओरसे लडा तथा पोर्तुगीजोंका मंगलोरका किला उध्वस्त किया किंतु वापिस आते समय पोर्तुगीजोंने उसे मार दिया । निरंतरकी हानि तथा पतिके विश्वासघातके कारण अब्बक्का हार गर्इं, वह पकडी गर्इं तथा उन्हें कारागृहमें रखा गया । किंतु कारागृहमें भी उन्होेंने विद्रोह किया तथा लडते-लडते ही अपने प्राण त्याग दिए ।
     पारंपारिक कथनानुसार वह बहुत ही लोकप्रिय रानी थीं, जिसका पता इस बातसे चलता है कि वह आज भी लोगसाहित्यका एक हिस्सा हैं । रानीकी कहानी पीढी-दर-पीढी लोकसंगीत तथा यक्षगान (जो तुलुनाडूका लोकप्रिय थिएटर है)द्वारा पुन:पुन: दोहराई जाती है । भूटा कोला एक स्थानीय नृत्य प्रकार है, जिसमें अब्बक्का महादेवीके महान कारनामे दिखाए जाते थे । अब्बक्का सांवले रंगकी, दिखनेमें बडी सुंदर थीं; सदैव सामान्य व्यक्तिजैसे वस्त्र पहनती थीं । उन्हें अपनी प्रजाकी बडी चिंता थी तथा न्याय करने हेतु देर राततक व्यस्त रहती थीं । किंवदंतियोंके अनुसार ‘अग्निबाण’ का उपयोग करनेवाली वह अंतिम व्यक्ति थीं । कुछ जानकारीके अनुसार रानीकी दो बहादुर बेटियां थीं, जो पोर्तुगीजोंके विरुद्ध उनके साथ-साथ लडी थीं । परंपराओंके अनुसार तीनों-मां तथा दोनों बेटियां एक ही मानी जाती हैं । 

७. एक महान रानीकी याद

     अब्बक्काको उनके अपने नगर उल्लालमें बहुुत याद किया जाता है । हर वर्ष उनकी स्मृतिमें ‘वीर रानी अब्बक्का उत्सव’ मनाया जाता है । ‘वीर रानी अब्बक्का प्रशस्ति’ पुरस्कार किसी अद्वितीय महिलाको दिया जाता है । १५ जनवरी २००३ को डाक विभागने एक विशेष कवर जारी किया । बाजपे हवाई अड्डेको तथा एक नौसैनिक पोतको रानीका नाम देने हेतु कई लोगोंकी मांग है । उल्लाल तथा बंगलुरूमें रानीकी कांस्य प्रतिमा स्थापित की गई है । ‘कर्नाटक इतिहास अकादमी’ने राज्यकी राजधानीके ‘क्वीन्स रोड’ को ‘रानी अब्बक्का देवी रोड’ नाम देनेकी मांग की है ।

भारतीय संस्कृतिके प्रतिनिधिक महाकवि कालिदास

संस्कृत भाषाके एक महाकवि एवं नाटककारके रूपमें पहचाने जानेवाले संत कालिदास विक्रमादित्यके दरबारमें उनके नवरत्नोंमेंसे एक थे । उनका जीवनवृत्तांत, कवित्व तथा उनकी चतुरताके बारेमें अनेक कथाएं प्रचलित हैं ।
        कालिदासजीका जन्म ब्राह्मण कुलमें हुआ । श्रुति, स्मृति, पुराण, सांख्य, योग, वेदांत, संगीत, चित्रकला इत्यादि शास्त्र एवं कलाओंके वे उत्तम ज्ञाता थे । उन्हें विद्या तथा विद्यागुरुके प्रति नितांत आदर था । उनकी नैसर्गिक प्रतिभाको शास्त्राभ्यासकी, कलापरिचयकी एवं सूक्ष्म अवलोकनकी जोड मिली थी । भावकवि, महाकवि एवं नाटककार, इन तीनों भूमिकाओंको उन्होंने समानरूपसे एवं सफलतापूर्वक जीवनमें उतारा हैं ।

भारतीय संस्कृतिके प्रतिनिधिक कवि कालिदास

        कालिदास भारतीय संस्कृतिके प्रतिनिधिक कवि हैं । उनके काव्यका समाज श्रुतिस्मृतिप्रतिपादित नियमोंका अनुसरण करनेवाला है ।  इस समाजके लिए उन्होंने अनेक स्थानोंपर दिव्य जीवन विषयक संदेश दिया । कालिदासका प्रत्येक कृत्य त्यागप्रधान प्रेमकी महानता कथन करनेवाला है । कालिदासका संदेश यही है कि, त्याग एवं तपस्याके अतिरिक्त कोई भी बात उज्ज्वल नहीं हो सकती । राजा एवं राज्यपदके विषयमें कालिदासके विचार मनु समान ही हैं । अनेक स्थानोंपर उन्होंने मनुका उल्लेख किया है । कालिदासकी मान्यता है कि ईश्वरसे ही राजाको राज्याधिकार प्राप्त होता है ।
        प्रा. ए. बी. कीथ के मतानुसार कालिदासद्वारा दिलीप राज्यके रूपमें एक कर्तव्यनिष्ठ आदर्श प्रजापालकका चित्र रेखांकित किया गया है । उसका रघुराजा सद्गुणोंका पुतला ही है; वह प्रजाका खरा पिता था ।
        कालिदासके काव्यमें उनकी सूक्ष्म निरीक्षणशक्तिका स्थान-स्थानपर भान होता है । उनकी विशेषताओंमें प्रकृतिका अवलोकन करके, उसमेंसे मार्मिक अंश ग्रहण करना इत्यादि हैं । उनके काव्यमें मानव एवं प्रकृति मानो एकात्म होकर आगे आते हैं । कालिदासकी प्रतिभा सर्वतोमुखी है । उनकी शैलीको साहित्याचार्योंने आदर्शभूत घोषित कर, उसे ‘वैदर्भी रीति’ नाम दिया गया है । कालिदासका ‘रघुवंश’ महाकाव्य भारतीय टीकाकारोंने सर्वोत्कृष्ट माना है । इस काव्यके कारण उन्हें ‘कविकुलगुरु’ उपाधि प्राप्त हुई; अपितु टीकाकार उसे ‘रघुंकार’ कहना ही अधिक पसंद करते हैं । ‘क इह रघुकारे न रमते ’ - रघुकार कालिदासके स्थानपर कौन रममाण नहीं ? ऐसी उस विषयमें उक्ति है । इससे इस काव्यकी लोकप्रियता ध्यानमें आती है । रघुवंशमें नायक अनेक हैं, तब भी उस उन्नीस सर्गके महाकाव्यमेंका एकसूत्रता कहीं भी न्यून नहीं होती है । इसके लिए कालिदासको ‘रसेश्वर’ पदवी प्राप्त हुई हैं ।
वैदर्भी कविता स्वयं वृतवती श्रीकालिदासं वरम् ।
अर्थ : वैदर्भी कवितासे कालिदास इस वरको स्वयं ही वर लिया है । उनके काव्यमें पढकर निकाले अर्थ की अपेक्षा जो वास्तविक है उसको ही अधिक महत्त्व प्राप्त हुआ है । उन्होंने उपयोग किए विपर्यय (विलोम) यह भी सुलभ; परंतु बडा आशय व्यक्त करते हैं । उदा. - कालिदास की रचनाएं
न हरीश्वरव्याहृतय: कदाचित् पुष्णन्ति लोके विपरीतमर्थम् ।
अर्थ : महात्माओंके वचन किसी भी देश-काल अवस्थामें कभी भी मिथ्या नहीं होते ।
क्रियाणां खलु धर्म्याणां सत्पत्न्यो मूलकारणम् ।
अर्थ : धार्मिक क्रियाओंके लिए पतिव्रता स्त्री मुख्य साधन होती है ।
प्रतिबध्नाति हि श्रेय पूज्यपूजाव्यतिक्रम: ।
अर्थ : पूज्य व्यक्तियोंकी पूजामें (श्रेष्ठोंको मान देनेमें) यदि उलंघ्न हो गया, तो अतिक्रम करनेवाले व्यक्तिके कल्याणको प्रतिबंध करता है ।

        यह और ऐसे ही उनके अनेक लोकोत्तर गुणोंपर लुब्ध होकर जयदेवने कालिदासको ‘कविताकामिनीका विलास’ कहा है । बाणभट्टने उनके काव्यको ‘मधुरसान्द्रमंजिरी’ की उपमा दी है । राजशेखरने उन्हें रससिद्ध सत्कविके अग्रभागी ले जाकर बिठाया है । उसके विषयमें आगे दिया सुभाषित तो सुप्रसिद्ध ही है -
पुरा कवींना गणनाप्रसंङगे कनिष्ठिकाधिष्ठितकालिदास:।
अद्यापि तत्तुल्यकवेरभावात् अनामिकासार्थवती बभूव ।।
अर्थ : पूर्वमें कविके गणनाप्रसंगी कनिष्ठकापर कालिदासको अधिष्ठित किया गया; (परंतु) अबतक उनकी समानताके कवि निर्मित न होनेके कारण अगली अंगुली जो अनामिका है वह खरे अर्थमें अनामिका ही सिद्ध हुई ।

यह रससिद्ध कवीश्वर इस प्रकार रसिकोंके हृदयमें अजय-अमर हुए हैं ।
संदर्भ - भारतीय संस्कृतिकोश, खंड क्र.२


कालिदासके काव्यमें प्रकृति-वर्णन

        आजका आधुनिक एवं भौतिक युगमें लोग प्रकृतिको भूलते जा रहे हैं । प्रकृति ही मानवकी सहचरी एवं साक्षात् परमात्माका रूप है और इसके साथ तादात्म्य रखनेसे ही परमानन्दकी प्राप्ति होती है; क्योंकी मनुष्य जब सभी प्रकारके कृत्रिम साधनोंसे उब जाता है, नीरस हो जाता है तो उसको वास्तविक सुख प्रकृतिकी गोदमें ही प्राप्त होता है । विश्वकवि कालिदास अपने काव्यसे प्रकृति-चित्रणकी दृश्यावलीको सजीव, साक्षात रूपमें हमारी नयनोंके सामने चित्रित करते हैं । महाकविकी ७ रचनाएं विश्व-प्रसिद्ध हैं ।
 
गीतिकाव्य एवं खण्डकाव्य -
१. ऋतुसंहारम् 
२. मेघदूतम्
महाकाव्यम् -
. कुमारसम्भवम् 
४. रघुवंशम्
नाटक -
५. मालविकाग्निमित्रम् 
६. विक्रमोर्वशीयम्
७. अभिज्ञानशाकुन्तलम् ।
        इन सभी गीतिकाव्यों तथा नाटकोंमें महाकवि कालिदासने प्रकृति-चित्रणको तथा प्रकृति-चित्रणमें वर्ण (रंग) संयोजनकी छटा, रसभाव- प्रवणता और मौलिक उद्भावनाओंको कोमलकान्त पदावलीमें ऐसा चित्रित किया है कि इसको ह्रदयंगम करते ही इस दुःख-दैन्यभरे पापतापमय संसारका साथ छूट जाता है ।
        प्रकृति-सम्राट महाकवि कालिदासने प्राकृतिक दृश्योंकी छटारूपी मन्दाकिनीको भारतवर्षके काव्यभूतलपर अविच्छिन्न काव्यधाराके रूपमें प्रवाहमान किया है । इस काव्यधाराने कहीं सूर्योदयके समय निकलेवाली लालिमाको, कहीं हिमालय, मेघ, पशु-पक्षी, लता, सरिता आदिके सौंदर्यको, तो कहीं खेतों-खलिहानों, वनों तथा उद्यानों, नदियों और तडागोंको तो कहीं फल-फूलयुक्त वनस्पतियों, चौकडी भरते हिरण, वराह, नृत्य करते मयुरों, आकाशमें उडते हंस, बक आदिको ऐसा चित्रित किया है; मानो ये सब प्रकृतिके रूपमें साक्षात दृष्टिगोचर हो रहे हों ।
        पृथ्वी एवं स्वर्गलोकके अखिल सौंदर्य, लावण्य एवं रमणीयताको यदि एक ही नामसे व्यक्त करना हो तो केवल कलाकी अथाह अनुभूतिका प्रमाणिक नाम ‘ऋतुसंहारम्’ कहनेसे ही सब स्पष्ट हो जाता है । यह महाकविकी प्रथम रचना है । जिसमें प्रकृति-चित्रणके अनेकानेक चित्र अनायास ही परिलक्षित होते हैं । एक श्लोकमें कवि कहते हैं-
‘विपाण्डुरं कीटरजस्तृणान्वितं भुजङ्गवद्वक्रगतिप्रसर्पितम ।’
अर्थात जब वर्षाका पानी घरोंकी दिवारोंसे प्रथम बार टेढी-मेढी लकीरें बनाता हुआ पीले-पीले सुखे पत्तोंको हटाता हुआ ऐसा प्रतीत होता aहै, मानो काला भुजंग वनमें विचरण कर रहा हो ।

‘मेघदूत’ में भी प्रकृतिके अनुपम वर्णनकी छटा हमें बहुत अधिक प्रभावित करती है, कोई यक्ष जब पहाडी ढलानपर मेघको देखता है, तो वह उस मेघसे अत्यधिक प्रभावित हो जाता है और उसी समय वह यक्ष कह उठता है -
‘धूमो ज्योतिः सलिलमरुतां सन्निपातः क्व मेघः । ’
अर्थ : इस प्रकार धुआं, अग्नि, जल, एवं वायुके समन्वितरूप मेघका ऐसा आकार कालिदास चित्रित करते हैं, मानो आकाशमें मेघ स्वयं ही पर्वतशिखर जैसा सजीव हो उठता है, न केवल मेघ अपितु मालक्षेत्रसे हिमालयकी तराईमें बसी अलकातकके वर्णनमें कालिदासने प्रकृतिके विभिन्न चित्रोंका इतना ह्रदयग्राही वर्णन किया है कि पाठक आत्ममुग्ध, मंत्रमुग्ध हो उठता है । 
        हम यदि महाकवि कालिदासके ‘कुमारसम्भव’ को देखे, पढे तो उसमें भी प्रकृति-चित्रणके ऐसे रमणीय चित्र विद्यमान हैं, जो हमें सहज ही आकृष्ट कर लेते हैं । प्रथम सर्गके प्रथम श्लोकमें -‘अस्युत्तरस्यां दिशि देवतात्मा’ (१.१) इस श्लोकमें हिमालयका महाकविने ऐसा विशद चित्रण किया है, मानो वह पृथ्वीको मापनेका एक अति विशाल शुभ्र दंड हो । कुमारसम्भवमें शिवके महिमामय स्वरूपका दर्शन भी प्रकृति-चित्रणको परिलक्षित करता है -
        चर्मपर बैठे हुए समाधिस्थ शिवका जटा-जूट सर्पोंसे बंधा है, अपने अधखुले नयनोंसे शरीरके भीतर चलनेवाले सब वायुको रोककर शिव इस प्रकार अचल बैठे हैं, जैसे न बरसनेवाला श्याम जलधर (बादल) हो, बिना लहरोंवाला निश्चल गम्भीर जलाशय हो या अचल पवनमें विद्यमान दीपशिखावाला दीपक हो ।
        यदि ‘रघुवंशम्’ को ही लें तो इसमें महाकविने प्राकृतिक छटारूपी मन्दाकिनीको इस प्रकार प्रवाहित किया है, मानो संसारके समस्त रसिकजन उसमें गोता लगाते-लगाते थक गए हों, भूल गए हों । ‘रघुवंशम्’ के द्वितीय सर्गके श्लोक- ‘पुरस्कृता वर्त्मनि’ में राजा दिलीप और धर्मपत्नी सुदक्षिणाके बीच नन्दिनी गाय इस प्रकार सजीव चित्रित होती है, मानो दिन और रात्रिके मध्य सन्ध्याकालीन लालीमा हो । ऐसा चित्र कालिदास ही उपस्थित कर सकते हैं । अन्य कवियोंके लिए यह सर्वथा दुर्लभ और अकल्पनिय ही है ।
        हम यदि ‘अभिज्ञानशाकुन्तलम्’ को लें तो उसमें भी प्राकृतिक दृश्योंका ऐसा अद्भुत और मर्मस्पर्शी वर्णन है कि पाठक उसमें अभिभूत-सा हो जाता है । अभिज्ञानकी नायिका अप्रतिमसुन्दरी शकुन्तला प्रकृतिकी साक्षात् पुत्री परिलक्षित होती है । तपोवनके मृगों, पशु-पक्षीयों तथा लतापादपोंके प्रति उसका ह्रदय बान्धव-स्नेहसे आप्लावित है । तपोवनकी पावन प्रकृतिकी गोदमें पली निसर्गकन्या शकुन्तला जिस समय आश्रम तरुओंको सींचती हुई हमारे सम्मुख आती है, उस समय आश्रमके वृक्षोंके प्रति उसका स्नेह ऐसा प्रतीत होता है, मानो वे उसके सहोदर हों । उसकी विदाईके समय लताओंके पील-पीले पत्ते इस पअकार आभाविहीन दृष्टिगोचर होते हैं, मानो वे स्वयं अश्रुपात कर रहे हों ।
        ऐसा ही चित्रण ‘विक्रमोर्वशीयम्’ के प्रथम अंकमें भी है - ‘आविर्भूते शशिनि तमसा मुच्यमानेव रात्रिः ...’। (७.१) यहां चंद्रमा उदित हो रहा है और रात्रि अन्धकारमें परदेसे निकलती जाती है तथा धुएंका आवरण क्रमशः अदृश्य होता चला जा रहा है, कगारोंके गिरनेसे प्रकृतिका यह दृश्य कितनी गहराईसे प्राकृतिक छटाकी अभिव्यक्तिको चित्रित करता है, यह भी अन्यत्र दुर्लभ है ।
        महाकवि कालिदासने अपने काव्यों और नाटकोंमें प्राकृतिक दृश्योंको ऐसा चित्रांकित किया है, जिसका सौन्दर्य देखते ही बनता है । कालिदासकी सौन्दर्य-दृष्टि भी भारतीय संस्कृतिके मूल्यों और आदर्शोंके अनुरूप पवित्र एवं उदार है । तपस्यासे अर्जित सौन्दर्यको ही महाकवि कालिदास सफल मानते हैं । महाकविके साहित्यका सौन्दर्य और उनकी सौन्दर्य-दृष्टि अनुपम है, अतुलनिय है, जिसका अनुकीर्तन शताब्दियोंसे हो रहा है और सदैव-सदैव होता भी रहेगा ।

साभार : श्रीराजकुमारजी रघुवंशी, कल्याण वर्ष ८३, संख्या १०