Wednesday, July 2, 2014

भारतीय संस्कृतिके प्रतिनिधिक महाकवि कालिदास

संस्कृत भाषाके एक महाकवि एवं नाटककारके रूपमें पहचाने जानेवाले संत कालिदास विक्रमादित्यके दरबारमें उनके नवरत्नोंमेंसे एक थे । उनका जीवनवृत्तांत, कवित्व तथा उनकी चतुरताके बारेमें अनेक कथाएं प्रचलित हैं ।
        कालिदासजीका जन्म ब्राह्मण कुलमें हुआ । श्रुति, स्मृति, पुराण, सांख्य, योग, वेदांत, संगीत, चित्रकला इत्यादि शास्त्र एवं कलाओंके वे उत्तम ज्ञाता थे । उन्हें विद्या तथा विद्यागुरुके प्रति नितांत आदर था । उनकी नैसर्गिक प्रतिभाको शास्त्राभ्यासकी, कलापरिचयकी एवं सूक्ष्म अवलोकनकी जोड मिली थी । भावकवि, महाकवि एवं नाटककार, इन तीनों भूमिकाओंको उन्होंने समानरूपसे एवं सफलतापूर्वक जीवनमें उतारा हैं ।

भारतीय संस्कृतिके प्रतिनिधिक कवि कालिदास

        कालिदास भारतीय संस्कृतिके प्रतिनिधिक कवि हैं । उनके काव्यका समाज श्रुतिस्मृतिप्रतिपादित नियमोंका अनुसरण करनेवाला है ।  इस समाजके लिए उन्होंने अनेक स्थानोंपर दिव्य जीवन विषयक संदेश दिया । कालिदासका प्रत्येक कृत्य त्यागप्रधान प्रेमकी महानता कथन करनेवाला है । कालिदासका संदेश यही है कि, त्याग एवं तपस्याके अतिरिक्त कोई भी बात उज्ज्वल नहीं हो सकती । राजा एवं राज्यपदके विषयमें कालिदासके विचार मनु समान ही हैं । अनेक स्थानोंपर उन्होंने मनुका उल्लेख किया है । कालिदासकी मान्यता है कि ईश्वरसे ही राजाको राज्याधिकार प्राप्त होता है ।
        प्रा. ए. बी. कीथ के मतानुसार कालिदासद्वारा दिलीप राज्यके रूपमें एक कर्तव्यनिष्ठ आदर्श प्रजापालकका चित्र रेखांकित किया गया है । उसका रघुराजा सद्गुणोंका पुतला ही है; वह प्रजाका खरा पिता था ।
        कालिदासके काव्यमें उनकी सूक्ष्म निरीक्षणशक्तिका स्थान-स्थानपर भान होता है । उनकी विशेषताओंमें प्रकृतिका अवलोकन करके, उसमेंसे मार्मिक अंश ग्रहण करना इत्यादि हैं । उनके काव्यमें मानव एवं प्रकृति मानो एकात्म होकर आगे आते हैं । कालिदासकी प्रतिभा सर्वतोमुखी है । उनकी शैलीको साहित्याचार्योंने आदर्शभूत घोषित कर, उसे ‘वैदर्भी रीति’ नाम दिया गया है । कालिदासका ‘रघुवंश’ महाकाव्य भारतीय टीकाकारोंने सर्वोत्कृष्ट माना है । इस काव्यके कारण उन्हें ‘कविकुलगुरु’ उपाधि प्राप्त हुई; अपितु टीकाकार उसे ‘रघुंकार’ कहना ही अधिक पसंद करते हैं । ‘क इह रघुकारे न रमते ’ - रघुकार कालिदासके स्थानपर कौन रममाण नहीं ? ऐसी उस विषयमें उक्ति है । इससे इस काव्यकी लोकप्रियता ध्यानमें आती है । रघुवंशमें नायक अनेक हैं, तब भी उस उन्नीस सर्गके महाकाव्यमेंका एकसूत्रता कहीं भी न्यून नहीं होती है । इसके लिए कालिदासको ‘रसेश्वर’ पदवी प्राप्त हुई हैं ।
वैदर्भी कविता स्वयं वृतवती श्रीकालिदासं वरम् ।
अर्थ : वैदर्भी कवितासे कालिदास इस वरको स्वयं ही वर लिया है । उनके काव्यमें पढकर निकाले अर्थ की अपेक्षा जो वास्तविक है उसको ही अधिक महत्त्व प्राप्त हुआ है । उन्होंने उपयोग किए विपर्यय (विलोम) यह भी सुलभ; परंतु बडा आशय व्यक्त करते हैं । उदा. - कालिदास की रचनाएं
न हरीश्वरव्याहृतय: कदाचित् पुष्णन्ति लोके विपरीतमर्थम् ।
अर्थ : महात्माओंके वचन किसी भी देश-काल अवस्थामें कभी भी मिथ्या नहीं होते ।
क्रियाणां खलु धर्म्याणां सत्पत्न्यो मूलकारणम् ।
अर्थ : धार्मिक क्रियाओंके लिए पतिव्रता स्त्री मुख्य साधन होती है ।
प्रतिबध्नाति हि श्रेय पूज्यपूजाव्यतिक्रम: ।
अर्थ : पूज्य व्यक्तियोंकी पूजामें (श्रेष्ठोंको मान देनेमें) यदि उलंघ्न हो गया, तो अतिक्रम करनेवाले व्यक्तिके कल्याणको प्रतिबंध करता है ।

        यह और ऐसे ही उनके अनेक लोकोत्तर गुणोंपर लुब्ध होकर जयदेवने कालिदासको ‘कविताकामिनीका विलास’ कहा है । बाणभट्टने उनके काव्यको ‘मधुरसान्द्रमंजिरी’ की उपमा दी है । राजशेखरने उन्हें रससिद्ध सत्कविके अग्रभागी ले जाकर बिठाया है । उसके विषयमें आगे दिया सुभाषित तो सुप्रसिद्ध ही है -
पुरा कवींना गणनाप्रसंङगे कनिष्ठिकाधिष्ठितकालिदास:।
अद्यापि तत्तुल्यकवेरभावात् अनामिकासार्थवती बभूव ।।
अर्थ : पूर्वमें कविके गणनाप्रसंगी कनिष्ठकापर कालिदासको अधिष्ठित किया गया; (परंतु) अबतक उनकी समानताके कवि निर्मित न होनेके कारण अगली अंगुली जो अनामिका है वह खरे अर्थमें अनामिका ही सिद्ध हुई ।

यह रससिद्ध कवीश्वर इस प्रकार रसिकोंके हृदयमें अजय-अमर हुए हैं ।
संदर्भ - भारतीय संस्कृतिकोश, खंड क्र.२


कालिदासके काव्यमें प्रकृति-वर्णन

        आजका आधुनिक एवं भौतिक युगमें लोग प्रकृतिको भूलते जा रहे हैं । प्रकृति ही मानवकी सहचरी एवं साक्षात् परमात्माका रूप है और इसके साथ तादात्म्य रखनेसे ही परमानन्दकी प्राप्ति होती है; क्योंकी मनुष्य जब सभी प्रकारके कृत्रिम साधनोंसे उब जाता है, नीरस हो जाता है तो उसको वास्तविक सुख प्रकृतिकी गोदमें ही प्राप्त होता है । विश्वकवि कालिदास अपने काव्यसे प्रकृति-चित्रणकी दृश्यावलीको सजीव, साक्षात रूपमें हमारी नयनोंके सामने चित्रित करते हैं । महाकविकी ७ रचनाएं विश्व-प्रसिद्ध हैं ।
 
गीतिकाव्य एवं खण्डकाव्य -
१. ऋतुसंहारम् 
२. मेघदूतम्
महाकाव्यम् -
. कुमारसम्भवम् 
४. रघुवंशम्
नाटक -
५. मालविकाग्निमित्रम् 
६. विक्रमोर्वशीयम्
७. अभिज्ञानशाकुन्तलम् ।
        इन सभी गीतिकाव्यों तथा नाटकोंमें महाकवि कालिदासने प्रकृति-चित्रणको तथा प्रकृति-चित्रणमें वर्ण (रंग) संयोजनकी छटा, रसभाव- प्रवणता और मौलिक उद्भावनाओंको कोमलकान्त पदावलीमें ऐसा चित्रित किया है कि इसको ह्रदयंगम करते ही इस दुःख-दैन्यभरे पापतापमय संसारका साथ छूट जाता है ।
        प्रकृति-सम्राट महाकवि कालिदासने प्राकृतिक दृश्योंकी छटारूपी मन्दाकिनीको भारतवर्षके काव्यभूतलपर अविच्छिन्न काव्यधाराके रूपमें प्रवाहमान किया है । इस काव्यधाराने कहीं सूर्योदयके समय निकलेवाली लालिमाको, कहीं हिमालय, मेघ, पशु-पक्षी, लता, सरिता आदिके सौंदर्यको, तो कहीं खेतों-खलिहानों, वनों तथा उद्यानों, नदियों और तडागोंको तो कहीं फल-फूलयुक्त वनस्पतियों, चौकडी भरते हिरण, वराह, नृत्य करते मयुरों, आकाशमें उडते हंस, बक आदिको ऐसा चित्रित किया है; मानो ये सब प्रकृतिके रूपमें साक्षात दृष्टिगोचर हो रहे हों ।
        पृथ्वी एवं स्वर्गलोकके अखिल सौंदर्य, लावण्य एवं रमणीयताको यदि एक ही नामसे व्यक्त करना हो तो केवल कलाकी अथाह अनुभूतिका प्रमाणिक नाम ‘ऋतुसंहारम्’ कहनेसे ही सब स्पष्ट हो जाता है । यह महाकविकी प्रथम रचना है । जिसमें प्रकृति-चित्रणके अनेकानेक चित्र अनायास ही परिलक्षित होते हैं । एक श्लोकमें कवि कहते हैं-
‘विपाण्डुरं कीटरजस्तृणान्वितं भुजङ्गवद्वक्रगतिप्रसर्पितम ।’
अर्थात जब वर्षाका पानी घरोंकी दिवारोंसे प्रथम बार टेढी-मेढी लकीरें बनाता हुआ पीले-पीले सुखे पत्तोंको हटाता हुआ ऐसा प्रतीत होता aहै, मानो काला भुजंग वनमें विचरण कर रहा हो ।

‘मेघदूत’ में भी प्रकृतिके अनुपम वर्णनकी छटा हमें बहुत अधिक प्रभावित करती है, कोई यक्ष जब पहाडी ढलानपर मेघको देखता है, तो वह उस मेघसे अत्यधिक प्रभावित हो जाता है और उसी समय वह यक्ष कह उठता है -
‘धूमो ज्योतिः सलिलमरुतां सन्निपातः क्व मेघः । ’
अर्थ : इस प्रकार धुआं, अग्नि, जल, एवं वायुके समन्वितरूप मेघका ऐसा आकार कालिदास चित्रित करते हैं, मानो आकाशमें मेघ स्वयं ही पर्वतशिखर जैसा सजीव हो उठता है, न केवल मेघ अपितु मालक्षेत्रसे हिमालयकी तराईमें बसी अलकातकके वर्णनमें कालिदासने प्रकृतिके विभिन्न चित्रोंका इतना ह्रदयग्राही वर्णन किया है कि पाठक आत्ममुग्ध, मंत्रमुग्ध हो उठता है । 
        हम यदि महाकवि कालिदासके ‘कुमारसम्भव’ को देखे, पढे तो उसमें भी प्रकृति-चित्रणके ऐसे रमणीय चित्र विद्यमान हैं, जो हमें सहज ही आकृष्ट कर लेते हैं । प्रथम सर्गके प्रथम श्लोकमें -‘अस्युत्तरस्यां दिशि देवतात्मा’ (१.१) इस श्लोकमें हिमालयका महाकविने ऐसा विशद चित्रण किया है, मानो वह पृथ्वीको मापनेका एक अति विशाल शुभ्र दंड हो । कुमारसम्भवमें शिवके महिमामय स्वरूपका दर्शन भी प्रकृति-चित्रणको परिलक्षित करता है -
        चर्मपर बैठे हुए समाधिस्थ शिवका जटा-जूट सर्पोंसे बंधा है, अपने अधखुले नयनोंसे शरीरके भीतर चलनेवाले सब वायुको रोककर शिव इस प्रकार अचल बैठे हैं, जैसे न बरसनेवाला श्याम जलधर (बादल) हो, बिना लहरोंवाला निश्चल गम्भीर जलाशय हो या अचल पवनमें विद्यमान दीपशिखावाला दीपक हो ।
        यदि ‘रघुवंशम्’ को ही लें तो इसमें महाकविने प्राकृतिक छटारूपी मन्दाकिनीको इस प्रकार प्रवाहित किया है, मानो संसारके समस्त रसिकजन उसमें गोता लगाते-लगाते थक गए हों, भूल गए हों । ‘रघुवंशम्’ के द्वितीय सर्गके श्लोक- ‘पुरस्कृता वर्त्मनि’ में राजा दिलीप और धर्मपत्नी सुदक्षिणाके बीच नन्दिनी गाय इस प्रकार सजीव चित्रित होती है, मानो दिन और रात्रिके मध्य सन्ध्याकालीन लालीमा हो । ऐसा चित्र कालिदास ही उपस्थित कर सकते हैं । अन्य कवियोंके लिए यह सर्वथा दुर्लभ और अकल्पनिय ही है ।
        हम यदि ‘अभिज्ञानशाकुन्तलम्’ को लें तो उसमें भी प्राकृतिक दृश्योंका ऐसा अद्भुत और मर्मस्पर्शी वर्णन है कि पाठक उसमें अभिभूत-सा हो जाता है । अभिज्ञानकी नायिका अप्रतिमसुन्दरी शकुन्तला प्रकृतिकी साक्षात् पुत्री परिलक्षित होती है । तपोवनके मृगों, पशु-पक्षीयों तथा लतापादपोंके प्रति उसका ह्रदय बान्धव-स्नेहसे आप्लावित है । तपोवनकी पावन प्रकृतिकी गोदमें पली निसर्गकन्या शकुन्तला जिस समय आश्रम तरुओंको सींचती हुई हमारे सम्मुख आती है, उस समय आश्रमके वृक्षोंके प्रति उसका स्नेह ऐसा प्रतीत होता है, मानो वे उसके सहोदर हों । उसकी विदाईके समय लताओंके पील-पीले पत्ते इस पअकार आभाविहीन दृष्टिगोचर होते हैं, मानो वे स्वयं अश्रुपात कर रहे हों ।
        ऐसा ही चित्रण ‘विक्रमोर्वशीयम्’ के प्रथम अंकमें भी है - ‘आविर्भूते शशिनि तमसा मुच्यमानेव रात्रिः ...’। (७.१) यहां चंद्रमा उदित हो रहा है और रात्रि अन्धकारमें परदेसे निकलती जाती है तथा धुएंका आवरण क्रमशः अदृश्य होता चला जा रहा है, कगारोंके गिरनेसे प्रकृतिका यह दृश्य कितनी गहराईसे प्राकृतिक छटाकी अभिव्यक्तिको चित्रित करता है, यह भी अन्यत्र दुर्लभ है ।
        महाकवि कालिदासने अपने काव्यों और नाटकोंमें प्राकृतिक दृश्योंको ऐसा चित्रांकित किया है, जिसका सौन्दर्य देखते ही बनता है । कालिदासकी सौन्दर्य-दृष्टि भी भारतीय संस्कृतिके मूल्यों और आदर्शोंके अनुरूप पवित्र एवं उदार है । तपस्यासे अर्जित सौन्दर्यको ही महाकवि कालिदास सफल मानते हैं । महाकविके साहित्यका सौन्दर्य और उनकी सौन्दर्य-दृष्टि अनुपम है, अतुलनिय है, जिसका अनुकीर्तन शताब्दियोंसे हो रहा है और सदैव-सदैव होता भी रहेगा ।

साभार : श्रीराजकुमारजी रघुवंशी, कल्याण वर्ष ८३, संख्या १०

महाराजा भोज


महाराजा भोज - एक विश्ववंदनीय शासक एवं माँ सरस्वती के वरदपुत्र
Maharaja Bhoj

१. माँ सरस्वती के वरदपुत्र ‘महाराजा भोज’

        परमार वंश के सबसे महान अधिपति महाराजा भोज ने धार में १००० ईसवीं से १०५५ ईसवीं तक शासन किया, जिससे कि यहाँ की कीर्ति दूर-दूर तक पहुँची। विश्ववंदनीय महाराजा भोज माँ सरस्वती के वरदपुत्र थे! उनकी तपोभूमि धारा नगरी में उनकी तपस्या और साधना से प्रसन्न हो कर माँ सरस्वती ने स्वयं प्रकट हो कर दर्शन दिए। माँ से साक्षात्कार के पश्चात उसी दिव्य स्वरूप को माँ वाग्देवी की प्रतिमा के रूप में अवतरित कर भोजशाला में स्थापित करवाया।राजा भोज ने धार, माण्डव तथा उज्जैन में सरस्वतीकण्ठभरण नामक भवन बनवाये थे। भोज के समय ही मनोहर वाग्देवी की प्रतिमा संवत् १०९१ (ई. सन् १०३४) में बनवाई गई थी। गुलामी के दिनों में इस मूर्ति को अंग्रेज शासक लंदन ले गए। यह आज भी वहां के संग्रहालय में बंदी है।

२. महान शासक

        महाराजा भोज मुंज के छोटे भाई सिंधुराज का पुत्र थे। रोहक उनके प्रधान मंत्री और भुवनपाल मंत्री थे। कुलचंद्र, साढ़ तथा तरादित्य इनके सेनापति थे जिनकी सहायता से भोज ने राज्यसंचालन सुचारु रूप से किया। अपने चाचा मुंज की ही भाँति वे भी पश्चिमी भारत में एक साम्राज्य स्थापित करना चाहता थे और इस इच्छा की पूर्ति के लिये इसे अपने पड़ोसी राज्यों से हर दिशा में युद्ध करना पड़ा। उन्होंने दाहल के कलबुरी गांगेयदेव तथा तंजौर (तंच्यावूर) के राजेंद्रचोल से संधि की ओर साथ ही साथ दक्षिण पर आक्रमण भी कर दिया, परंतु तत्कालीन राजा चालुक्य जयसिंह द्वितीय ने बहादुरी से सामना किया और अपना राज्य बचा लिया। सन् १०४४ ई. के कुछ समय बाद जयसिंह के पुत्र सोमेश्वर द्वितीय ने परमारों से फिर शत्रुता कर ली और मालव राज्य पर आक्रमण कर भोज को भागने के लिये बाध्य कर दिय। धारानगरी पर अधिकार कर लेने के बाद उसने आग लगा दी, परंतु कुछ ही दिनों बाद सोमेश्वर ने मालव छोड़ दिया और भोज ने राजधानी में लोटकर फिर सत्ताधिकार प्राप्त कर लिया।
        सन् १०१८ ई. के कुछ ही पहले भोज ने इंद्ररथ नामक एक व्यक्ति को, हराया था जो संभवत: कलिंगके गांग राजाओं का सामंत था। जयसिंह द्वितीय तथा इंद्ररथ के साथ युद्ध समाप्त कर लेने पर भोज ने अपनी सेना भारत की पश्चिमी सीमा से लगे हुए देशों की ओर बढ़ाई और पहले लाट नामक राज्य पर, जिसका विस्तार दक्षिण में बंबई राज्य के अंतर्गत सूरत तक था, आक्रमण कर दिया। वहाँ के राजा चालुक्य कीर्तिराज ने आत्मसमर्पण कर दिया और भोज ने कुछ समय तक उसपर अधिकार रखा। इसके बाद लगभग सन् १०२० ई. में भोज ने लाट के दक्षिण में स्थित तथा थाना जिले से लेकर मालागार समुद्रतट तक विस्तृत कोंकण पर आक्रमण किया और शिलाहारों के अरिकेशरी नामक राजा को हराया। कोंकण को परमारों के राज्य में मिला लिया गया। महाराजा भोज के प्रराक्रम के कारण ही मेहमूद गजनवी ने कभी महराजा भोज के राज्य पर आक्रमण नहीं किया! तथा सोमनाथ विजय के पश्चात तलवार के बल पर बनाये गए मुसलमानों को पुन: हिन्दू धर्म में वापस ला कर महान काम किया!
        भोज ने एक बार दाहल के कलचुरी गांगेयदेव के विरुद्ध भी, जिसने दक्षिण पर आक्रमण करने के समय उसका साथ दिया था, चढ़ाई कर दी। गांगेयदेव हार गया परंतु उसे आत्मसमर्पण नहीं करना पड़ा। सन् १०५५ ई. के कुछ ही पहले गांगेय के पुत्र कर्ण ने गुजरात के चौलुक्य भीम प्रथम के साथ एक संधि कर ली और मालव पर पूर्व तथा पश्चिम की ओर से आक्रमण कर दिया। भोज अपना राज्य बचाने का प्रबंध कर ही रहे थे कि बीमारी से उसकी आकस्मिक मृत्यु हो गई और राज्य सुगमता से आक्रमणकारियों के अधिकार में चला गया।

Bhoj Shala३. अनोखा काव्यरसिक - महाराजा भोज

       माँ सरस्वती की कृपा से महाराजा भोज ने ६४ प्रकार की सिद्ध्या प्राप्त की तथा अपने यूग के सभी ज्ञात विषयो पर ८४ ग्रन्थ लिखे जिसमे धर्म, ज्योतिष्य आयर्वेद, व्याकरण, वास्तुशिल्प, विज्ञान, कला, नाट्यशास्त्र, संगीत, योगशास्त्र, दर्शन, राजनीतीशास्त्र आदि प्रमुख है! 'समरांगण सूत्रधार', 'सरस्वती कंठाभरण', 'सिद्वान्त संग्रह', 'राजकार्तड', 'योग्यसूत्रवृत्ति', 'विद्या विनोद', 'युक्ति कल्पतरु', 'चारु चर्चा', 'आदित्य प्रताप सिद्धान्त', 'आयुर्वेद सर्वस्व श्रृंगार प्रकाश', 'प्राकृत व्याकरण', 'कूर्मशतक', 'श्रृंगार मंजरी', 'भोजचम्पू', 'कृत्यकल्पतरु', 'तत्वप्रकाश', 'शब्दानुशासन', 'राज्मृडाड' आदि की रचना की। "भोज प्रबंधनम्" उनकी आत्मकथा है।
       हनुमान जी द्वारा रचित राम कथा के शिलालेख समुन्द्र से निकलवा कर धारा नगरी में उनकी पुनर्रचना करवाई जो हनुमान्नाटक के रूप में विश्वविख्यात है! तत्पश्चात उन्होंने चम्पू रामायण की रचना की जो अपने गद्यकाव्य के लिए विख्यात है!
        चम्पू रामायण महर्षि वाल्मीकि के द्वारा रचित रामायण के बाद सबसे तथ्य परख महाग्रंथ है! महाराजा भोज वास्तु शास्त्र के जनक माने जाते है! समरान्गंसुत्रधार ग्रन्थ वास्तु शास्त्र का सबसे प्रथम ज्ञात ग्रन्थ है! वे अत्यंत ज्ञानी, भाषाविद् , कवि और कलापारखी भी थे। उनके समय में कवियों को राज्य से आश्रय मिला था। सरस्वतीकंठाभरण उनकी प्रसिद्ध रचना है। इसके अलावा अनेक संस्कृत ग्रंथों, नाटकों, काव्यों और लोक कथाओं में राजा भोज का अमिट स्थान है। ऐसे महान थे राजा भोज कि उनके शासन काल में धारानगरी कलाओं और ज्ञान के लिए सारे विश्व में प्रसिद्ध हो गई थी।
        महाराजा भोज की काव्यात्मक ललित अभिरुचि, सूक्ष्म व वैज्ञानिक दृष्टि उन्हें दूरदर्शी और लोकप्रिय बनाता रहा। मालवमण्डन, मालवाधीश, मालवचक्रवर्ती, सार्वभौम, अवन्तिनायक, धारेश्वर, त्रिभुवननारायण, रणरंगमल्ल, लोकनारायण, विदर्भराज, अहिरराज या अहीन्द्र, अभिनवार्जुन, कृष्ण आदि कितने विरूदों से भोज विभूषित थे। 

४. विश्वविख्यात विद्वान

        आइने-ए-अकबरी में प्राप्त उल्लेखों के अनुसार भोज की राजसभा में पांच सौ विद्वान थे। इन विद्वानों में नौ (नौरत्न) का नाम विशेष रूप से उल्लेखनीय है।
        महाराजा भोज ने अपने ग्रंथो में विमान बनाने की विधि का विस्तृत वर्णन किया है। चित्रो के माध्यम से उन्होंने पूरी विधि बताई है! इसी तरह उन्होंने नाव एवं बड़े जहाज बनाने की विधि विस्तारपूर्वक बताई है। किस तरह खिलो को जंगरोधी किया जाये जिससे नाव को पानी में सुरक्षित रखा जा सकता था! इसके अत्रिरिक्त उन्होंने रोबोटिक्स पर भी कम किया था! उन्होंने धारा नगरी के तालाबो में यन्त्र चालित पुतलियो का निर्माण करवाया था जो तालाब में नृत्य करती थी!
        विश्व के अनेक महाविद्यालयो में महाराज भोज के किये गए कार्यो पर शोध कार्य हो रहा है! उनके लिए यह आश्चर्य का विषय है, की उस समय उन्होंने किस तरह विमान, रोबोटिक्स और वास्तुशास्त्र जेसे जटिल विषयों पर महारत हासिल की थी! वैज्ञानिक आश्चर्य चकित है, जो रोबोटिक्स आज भी अपने प्रारम्भिक दौर में है उस समय कैसे उस विषय पर उन्होंने अपने प्रयोग किये और सफल रहे! महाराजा भोज से संबंधित १०१० से १०५५ ई. तक के कई ताम्रपत्र, शिलालेख और मूर्तिलेख प्राप्त होते हैं। इन सबमें भोज के सांस्कृतिक चेतना का प्रमाण मिलता है। एक ताम्रपत्र के अन्त में लिखा है – स्वहस्तोयं श्रीभोजदेवस्य। अर्थात् यह (ताम्रपत्र) भोजदेव ने अपने हाथों से लिखा और दिया है।
Hinglajgarh

५. अप्रतिम स्थापत्य कला

        राजा भोज के समय मालवा क्षेत्र में निर्माण क्रांति आ गई थी। अनेक प्रसाद, मंदिर, तालाब और प्रतिमाएं निर्मित हुई। मंदसौर में हिंगलाजगढ़ तो तत्कालीन अप्रतिम प्रतिमाओं का अद्वितीय नमूना है। राजा भोज ने शारदा सदन या सरस्वती कण्ठभरण बनवाये। वात्स्यायन ने कामसूत्र में इस बात का उल्लेख किया है कि प्रत्येक नगर में सरस्वती भवन होना चाहिए। वहां गोष्ठियां, नाटक व अन्य साहित्यिक-सांस्कृतिक गतिविधियां होते रहना चाहिए।
                                                                
महाराजा भोज - एक विश्ववंदनीय शासक एवं माँ सरस्वती के वरदपुत्रShiv Mandir
        राजा भोज के नाम पर भोपाल के निकट भोजपुर बसा है। यहां का विशाल किन्तु खंडित शिवमंदिर आज भी भोज की रचनाधर्मिता और इस्लामिक जेहाद और विध्वंस के उदाहरण के रूप में खड़ा है। यहीं बेतवा नदी पर एक अनोखा बांध बनवाया गया था। इसका जलक्षेत्र २५० वर्गमील है। इस बांध को भी होशंगशाह नामक आक्रंता ने तोड़ कर झील खाली करवा दी थी। यह मानवनिर्मित सबसे बड़ी झील थी जो सिंचाई के काम आती थी। उसके मध्य जो द्वीप था वह आज भी दीप (मंडीद्वीप) नाम की बस्ती है।
        महाराजा भोज ने जहाँ अधर्म और अन्याय से जमकर लोहा लिया और अनाचारी क्रूर आतताइयों का मानमर्दन किया, वहीं अपने प्रजा वात्सल्य और साहित्य-कला अनुराग से वह पूरी मानवता के आभूषण बन गये। मध्यप्रदेश के सांस्कृतिक गौरव के जो स्मारक हमारे पास हैं, उनमें से अधिकांश राजा भोज की देन हैं। चाहे विश्व प्रसिद्ध भोजपुर मंदिर हो या विश्व भर के शिव भक्तों के श्रद्धा के केन्द्र उज्जैन स्थित महाकालेश्वर मंदिर, धार की भोजशाला हो या भोपाल का विशाल तालाब, ये सभी राजा भोज के सृजनशील व्यक्तित्व की देन है। उन्होंने जहाँ भोज नगरी (वर्तमान भोपाल) की स्थापना की वहीं धार, उज्जैन और विदिशा जैसी प्रसिद्ध नगरियों को नया स्वरूप दिया। उन्होंने केदारनाथ, रामेश्वरम, सोमनाथ, मुण्डीर आदि मंदिर भी बनवाए, जो हमारी समृद्ध सांस्कृतिक धरोहर है। इन सभी मंदिरों तथा स्मारकों की स्थापत्य कला बेजोड़ है। इसे देखकर सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है कि एक हजार साल पहले हम इस क्षेत्र में कितने समुन्नत थे।
        महाराजा भोज ने अपने जीवन काल में जितने अधिक विषयों पर कार्य किया है, वो अत्यंत ही चकित करने वाला है। इन सभी को देख कर लगता है की वो कोई देव पुरुष थे ! ये सब कम एक जीवन में करना एक सामान्य मनुष्य के बस की बात नहीं है!

स्वामी विवेकानंद

१. जन्म, बाल्यावस्था तथा शिक्षणशिक्षा

तेजस्वी विचारोंसे ओतप्रोत हिंदु धर्मप्रसारक : स्वामी विवेकानंद        स्वामी विवेकानंदका मूल नाम नरेंद्रनाथ था । उनका जन्म १२ जनवरी १८६३ के दिन कोलकातामें हुआ । बाल्यावस्थामें ही विवेकानंदके व्यवहारमें दो बातें स्पष्ट रूपसे दिखाई देने लगीं । प्रथम वे वृत्तिसे श्रद्धालु एवं दयालु थे तथा बचपनसे ही कोई भी साहसी कृत्य बेधडक साहस एवं निर्भयतासे करते थे । स्वामी विवेकानंदका संपूर्ण कुटुंबपरिवार धार्मिक होनेके कारण बाल्यावस्थामें ही उनपर धर्मविषयक योग्य धार्मिक संस्कार होते गए । १८७० में उनका नामांकन ईश्वरचंद्र विद्यासागरकी पाठशालामें कराया गया । पाठशालामें रहते हुए अध्ययन करनेके साथ-साथ विवेकानंदने बलोपासना भी की । स्वामी विवेकानंदमें स्वभाषाभिमान भी था, यह दर्शानेवाली एक घटना । अंग्रेजी शिक्षणके समय उन्होंने कहा, `गोरोंकी, अर्थात यवनोंकी इस भाषामें मैं कदापि नहीं पढूंगा ।' ऐसा कहकर लगभग ७-८ महीने उन्होंने वह भाषा सीखना ही अस्वीकार कर दिया । अंतमें विवश होकर उन्होंने अंग्रेजी सीखी । विवेकानंदने मैट्रिककी माध्यामिक परीक्षा में प्रथम स्थान प्राप्त कर कुल तथा पाठशालाकी प्रतिष्ठा बढाई । आगे कोलकाताके प्रेसिडेन्सी महाविद्यालयसे उन्होंने `तत्त्वज्ञान' विषयमें एम.ए. किया ।

२. गुरुभेंट तथा संन्यासदीक्षा

        नरेंद्रके घरमें ही पले-बढे उनके एक संबंधी डॉ. रामचंद्र दत्त रामकृष्णजीके भभक्त थे । धर्मके प्रति लगावसे प्रेरित हो नरेंद्र के मनमें बचपनसे ही तीव्र वैराग्य देख डॉ. दत्त एक बार उनसे बोले, `भाई, यदि धर्मलाभ ही तुम्हारे जीवनका उद्देश्य हो, तो तुम ब्राह्मोसमाज इत्यादिके झंझटमें मत पडो । तुम दक्षिणेश्वरमें श्रीरामकृष्णजीके पास जाओ ।' एक दिन उनके पडोसी श्री. सुरेंद्रनाथके घरपर ही उन्हें श्रीरामकृष्ण परमहंसजीके दर्शन हुए । प्रारंभके कुछ दिन श्रीरामकृष्ण नरेंद्रनाथको अपनेसे क्षणभर भी दूर नहीं रखना चाहते थे । उन्हें पास बिठाकर अनेक उपदेश दिया करते । इन दोनोंकी भेंट होनेपर आपसमें बहुत चर्चाएं हुआ करती थीं । श्रीरामकृष्ण अपना अधूरा कार्यभार नरेंद्रनाथपर सौंपनेवाले थे । एक दिन श्रीरामकृष्णने एक कागदके टुकडेपर लिखा, `नरेंद्र लोकशिक्षणका कार्य करेगा ।' कुछ मुंह बनाकर नरेंद्रनाथ उन्हें बोले, `यह सब मुझसे नहीं होगा ।' श्री रामकृष्ण तुरंत दृढतासे बोले, `क्या ? नहीं होगा ? अरे तेरी अस्थियां ये कार्य करेंगी ।' तत्पश्चात श्रीरामकृष्णने नरेंद्रनाथकाको संन्यासदीक्षा देकर उनका नामकरण `स्वामी विवेकानंद' किया ।

३. गुरुके प्रति अनन्य निष्ठा

        एक बार किसी शिष्य ने गुरुदेव की सेवा में घृणा और निष्क्रियता दिखाते हुए नाक-भौं सिकोड़ीं । यह देखकर विवेकानन्द को क्रोध आ गया । वे अपने उस गुरु भाई को सेवा का पाठ पढाते और गुरुदेव की प्रत्येक वस्तु के प्रति प्रेम दर्शाते हुए उनके बिस्तर के पाससे रक्त, कफ आदि से भरी थूकदानी उठाकर फेंकते थे । गुरु के प्रति ऐसी अनन्य भक्ति और निष्ठा के प्रताप से ही वे अपने गुरु की देह और उनके दिव्यतम आदर्शों की उत्तम सेवा कर सके । गुरुदेव को समझ सके और स्वयं के अस्तित्व को गुरुदेव के स्वरूप में विलीन कर सके तथा आगे चलकर समग्र विश्व में भारत के अमूल्य आध्यात्मिक भण्डार की महक पैâला सके । ऐसी थी उनके इस महान व्यक्तित्व की नींव में गुरुभक्ति, गुरुसेवा और गुरु के प्रति अनन्य निष्ठा जिसका परिणाम सारे संसार ने देखा ।

४. धर्मप्रसार के कार्यका प्रारंभ : रामकृष्ण मठकी स्थापना

        श्रीरामकृष्णके महासमाधि लेनेके उपरांत स्वामी विवेकानंदने अपने एक गुरुबंधु तारकनाथकी सहायतासे कोलकाताके निकट वराहनगर भागके एक खंडहरमें रामकृष्ण मठकी स्थापना की । इससे पूर्व उस स्थानपर भूतोंका डेरा है, लोगोंकी ऐसी भ्रांति थी । विवेकानंदने श्रीरामकृष्णकी उपयोगमें लाई गई वस्तुएं तथा उनके भस्म एवं अस्थियोंका कलश वहां रखा और उनके भक्त वहां रहने लगे ।

५. स्वामी विवेकानंदद्वारा दिग्विजित सर्वधर्मपरिषद सभा शिकागो जानेके विषयमें पूर्वसूचना

        एक दिन रात्रि अर्धजागृत अवस्थामें स्वामी विवेकानंदको एक अद्भुत स्वप्न दिखाई दिया । श्री रामकृष्ण ज्योतिर्मय देह धारण कर समुद्र मार्गसे आगे-आगे बढे जा रहे हैं तथा स्वामी विवेकानंदको अपने पीछे-पीछे आनेका संकेत कर रहे हैं । क्षणभरमें स्वामीजीके नेत्र खुल गए । उनका हृदय अवर्णनीय आनंदसे भर उठा । उसके साथ ही `जा', सुस्पष्ट रूपसे उन्हें यह देववाणी सुनाई दी । परदेश प्रस्थान करनेका संकल्प दृढ हो गया । एक-दो दिनमें ही यात्राकी सर्व सिद्धता पूर्ण हो गई ।

६. धर्मसभापरिषद के लिए प्रस्थान

        ३१ मई १८९३ को `पेनिनशुलर' जलयानने मुंबईका समुद्रतट छोडा । स्वामीजी १५ जुलाईको कनाडाके वैंकुवर बंदरगाहपर पहुंचे । वहांसे रेलगाडीसे अमेरिकाके प्रख्यात महानगर शिकागो आए । धर्मसभा परिषद ११ सितंबरको आयोजित हो रही है, ऐसा उन्हें ज्ञात हुआ । धर्मसभापरिषदमें सहभाग लेने हेतु आवश्यक परिचयपत्र उनके पास नहीं था । प्रतिनिधिके रूपमें नाम प्रविष्ट करानेकी कालावधि भी समाप्त हो चुकी थी । विदेशमें स्वामीजी जहां भी जाते, वहां लोग उनकी और आकृष्ट होते जाते । पहले ही दिन हार्वर्ड विद्यापीठमें ग्रीक भाषाके प्रा. जे.एच. राईट स्वामीजीसे चार घंटेतक संवाद करते रहे । स्वामीजीकी प्रतिभा तथा कुशाग्र बुद्धिपर वे इतने मुग्ध हुए कि धर्मपरिषदसभामें प्रतिनिधिके रूपमें प्रवेश दिलवानेका संपूर्ण दायित्व उस प्राध्यापकने स्वयंपर ले लिया ।

७. शिकागो सर्वधर्मपरिषदमें विवेकानंदका सहभाग

        इस सुवर्णभूमिके सत्पुरुषद्वारा संसारको श्रेष्ठतम हिंदु धर्मकी पहचान कराना , यह एक दैवी योग ही था । अमेरिकाके शिकागोमें ११ सितंबर १८९३ को हुई सर्वधर्मपरिषद सभाके माध्यमसे समूचे संसारको आवाहन करनेवाले स्वामी विवेकानंद हिंदु धर्मके सच्चे प्रतिनिधि प्रमाणित हुए । सोमवार, ११ सितंबर १८९३ को प्रात: धर्मगुरुओंके मंत्रोच्चारके उपरांत संगीतमय वातावरणमें धर्मपरिषदका शुभारंभ हुआ । व्यासपीठके मध्यभागमें अमेरिकाके रोमन वैâथलिक पंथके धर्मप्रमुख थे । स्वामी विवेकानंद किसी एक विशिष्ट पंथके प्रतिनिधि नहीं थे । वे संपूर्ण भारतवर्षमें सनातन हिंदु वैदिक धर्मके प्रतिनिधिके नाते इस परिषदमें आए थे । इस परिषदमें छः से सात सहस्र स्त्री-पुरुष उपस्थित थे । अध्यक्षकी सूचनानुसार व्यासपीठसे प्रत्येक प्रतिनिधि अपने पूर्वसे ही सिद्ध किया हुआ भाषण पढकर सुना रहा था । स्वामीजी अपना भाषण लिखकर नहीं लाए थे । अंततः अपने गुरुदेवजीका स्मरण कर स्वामीजी अपने स्थानसे उठे । `अमेरिकाकी मेरी बहनों तथा बंधुओं' कहकर उन्होंने सभाको संबोधित किया । उनकी चैतन्यपूर्ण, तथा ओजस्वी वाणीसे सभी मंत्रमुग्ध हो गए । इन शब्दोंमें कुछ ऐसी अद्भुत शक्ति थी कि स्वामीजीके ये शब्द कहते ही सहस्रों स्त्री-पुरुष अपने स्थान से उठकर खडे हो गए तथा तालियोंका प्रखर स्वर प्रतिध्वनित होने लगा । लोगोंकी हर्षध्वनि और तालियां रोके नहीं रुकती थीं । स्वामीजीके उन भावपूर्ण शब्दोंके अपनत्वसे सभी श्रोताओंके हृदय स्पंदित हो गए । `बहनों और बंधुओं' इन शब्दोंसे सारी मानवजातिका आवाहन करनेवाले स्वामी विवेकानंद एकमेव  वक्ता थे ।
        "हिंदु समाज पददलित होगा; किन्तु घृणास्पद नहीं है । वह दीन होगा-दु:खी होगा; परंतु बहुमूल्य पारमार्थिक संपत्तिका उत्तराधिकारी है । धर्मके क्षेत्रमें तो वह जगद्गुरु हो सकता है, ऐसी उसकी योग्यता है ।' इन शब्दोंमें हिंदु धर्मके महत्त्वका वर्णन कर अनेक शतकोंके उपरांत स्वामी विवेकानंदने हिंदु समाजको उसकी  विस्तृत सीमासे परिचित करा दिया । स्वामीजीने किसी भी धर्मकी निंदा नहीं की, कोई टीका-टिप्पणी नहीं की । किसी भी धर्मको उन्होंने तुच्छ नहीं कहा । अन्योंसे मिला घृणास्पद व्यवहार तथा अपमानकी कीचडमें पडे हिंदु धर्मको एक ओर रखकर उसके मूल तेजस्वी रूपके साथ अंतर्राष्ट्रीय सर्वधर्मपरिषद सभामें सर्वोच्च आसनपर विराजमान कर दिया । इस परिषदमें हिंदुस्थानके विषयमें बोलते हुए उन्होंने कहा, `हिंदुस्थान पुण्यभूमि है, कर्तव्य कर्मभूमि है, यह परिष्कृत सत्य है, जिसे अंतर्दृष्टि तथा आध्यात्मिकताका जन्मस्थान कह सकते हैं, वह हिंदुस्थान है ! प्राचीन कालसे ही यहां अनेक धर्मसंस्थापकोंका उदय हुआ । उन्होंने परम पवित्र एवं सनातन जैसे आध्यात्मिक सत्यके शांतिजलसे त्राहि-त्राहि करनेवाले जगतको तृप्त किया है । संसारमें परधर्मके लिए सहिष्णुता तथा प्रेम केवल इसी भूमिमें अनुभव किया जा सकता है ।"

८. अमेरिकामें  प्रसारकार्य

        २५ वर्ष की अवस्था में नरेन्द्र ने गेरुआ वस्त्र धारण कर लिए थे । तत्पश्चात उन्होंने पैदल ही पूरे भारतवर्ष की यात्रा की । यूरोप-अमेरिका के लोग उस समय पराधीन भारतवासियों को बहुत हीन दृष्टि से देखते थे । वहां लोगों ने बहुत प्रयत्न किया कि स्वामी विवेकानन्द को सर्वधर्म परिषद में बोलने का समय ही न मिले । परन्तु उन्हें थोडा समय मिला । उस परिषद में उनके विचार सुनकर सभी विद्वान चकित हो गए । इसके पश्चात तो अमेरिका में उनका अत्यधिक स्वागत हुआ । वहां उनके भक्तों का एक बडा समुदाय बन गया । तीन वर्ष वे अमेरिका में रहे और वहांके लोगों को उन्होंने भारतीय तत्वज्ञान की अद्भुत ज्योति प्रदान की । उनकी वक्तृत्व-शैली तथा ज्ञान को देखते हुए वहां के मीडिया ने उन्हें साइक्लॉनिक हिन्दु का नाम दिया ।  `अध्यात्म-विद्या और भारतीय दर्शन के बिना विश्व अनाथ हो जायेगा' यह स्वामी विवेकानन्द का दृढ विश्वास था । अमेरिका में उन्होंने रामकृष्ण मिशन की अनेक शाखाएं स्थापित कीं । अनेक अमेरिकी विद्वानोंने उनका शिष्यत्व ग्रहण किया । वे सदा अपने को निर्धनों का सेवक कहते थे । उन्होंने सदैव भारत के गौरव को देश-देशान्तरों में उज्ज्वल करने का प्रयत्न किया ।

९. प्रवचनोंके द्वारा प्रसारकार्य

        परदेशमें भारतका नाम उज्ज्वल कर कोलकाता आनेपर नागरिकोंने आदरके साथ स्वामीजीका बडे प्रमाणपर स्वागत किया । `मेरे अभियानकी योजना', `भारतीय जीवनमें वेदांत', ‘हमारा आजका कर्तव्य', `भारतीय महापुरुष', `भारतका भविष्य' जैसे विषयोंपर उन्होंने व्याख्यान देना आरंभ किया । स्वामी विवेकानंदने परदेश तथा स्वदेशमें दिए व्याख्यानोंसे समय-समयपर ओजपूर्ण स्वरमें अपने मत प्रकट किए । स्वामी विवेकानंदके इन विचारोंका बहुत बडा प्रभाव पडा । परदेशमें भी उन्होंने वेदांतकी वैश्विक वाणीका प्रचार किया । इसके कारण पूरे संसारमें आर्यधर्म, आर्यजाति एवं आर्यभूमिको प्रतिष्ठा मिली ।

१०. स्वामी विवेकानंदजीके विषयमें विद्वानोंके गौरवोद्गार

        गुरुदेव रवीन्द्रनाथ ठाकुर ने एक बार कहा था-"यदि आप भारत को जानना चाहते हैं तो विवेकानन्द को पढिए । उनमें आप सब कुछ सकारात्मक ही पाएंगे, नकारात्मक कुछ भी नहीं ।"
        रोमां रोलां ने उनके  विषयमें कहा था-"उनके द्वितीय होने की कल्पना करना भी असम्भव है वे जहां भी गए, सर्वप्रथम ही रहे । हर कोई उनमें अपने नेता का दिग्दर्शन करता था । वे ईश्वर के प्रतिनिधि थे और सब पर प्रभुत्व प्राप्त कर लेना ही उनकी विशिष्टता थी । हिमालय प्रदेश में एक बार एक अनजान यात्री उन्हें देख ठिठक कर रुक गया और आश्चर्यपूर्वक चिल्ला उठा-‘शिव !’ यह ऐसा हुआ मानो उस व्यक्ति के आराध्य देव ने अपना नाम उनके माथे पर लिख दिया हो ।"
        वे केवल सन्त ही नहीं, एक महान देशभक्त, वक्ता, विचारक, लेखक और मानव-प्रेमी थे । अमेरिका से लौटकर उन्होंने देशवासियों का आह्वान करते हुए कहा था-`नया भारत निकल पडे मोची की दुकान से, भडभूंजे के भाड से, कारखाने से, हाट से, बाजार से; निकल पडे झाडियों, जंगलों, पहाडों एवं पर्वतों से ।' और जनता ने स्वामीजी की पुकार का उत्तर दिया । वह गर्व के साथ निकल पडी । गांधीजी को आजादी की लडाई में जो जन-समर्थन मिला, वह विवेकानन्द के आह्वानका ही फल था । इस प्रकार वे भारतीय स्वतन्त्रता संग्राम के भी एक प्रमुख प्रेरणा-स्रोत बने । उनका विश्वास था कि पवित्र भारतवर्ष धर्म एवं दर्शन की पुण्यभूमि है । यहीं बडे-बडे महात्माओं एवं ऋषियों का जन्म हुआ, यही संन्यास एवं त्याग की भूमि है तथा यहीं-केवल यहीं-आदिकाल से लेकर आज तक मनुष्य के लिए जीवन के सर्वोच्च आदर्श एवं मुक्तिका द्वार खुला हुआ है । उनके कथन-‘उठो, जागो, स्वयं जागकर औरों को जगाओ । अपने नर-जन्म को सफल करो और तब तक नहीं रुको जब तक लक्ष्य प्राप्त न हो जाए ।'

११. `परहितार्थ सर्वस्वका समर्पण अर्थात खरा संन्यास', यह वचन सार्थक !

        भारतकी आध्यात्मिक संस्कृतिके प्रति गर्व होनेपर भी उसमें प्रविष्ट अनिष्ट रूढि, परंपरा, जातिभेद जैसे हीन घटकोंपर अपने भाषणोंसे करारा प्रहार कर निद्रितोंको एक झटकेमें जगा दिया । ऐसेमें वे सौदामिनीके अभिनिवेशसे समाजकी निष्क्रियतापर प्रहार करते तथा अपने देशबांधवोंको जागृत होनेके लिए आतंरिक आवाहन करते । निराकार समाधिमें मग्न रहनेकी स्वयंकी स्वाभाविक प्रवृत्ति एक ओर बाजू रख उन्होंने सर्वसामान्य लोगोंके सुख-दु:खका ऐहिक स्तरपर भी विचार किया तथा उसके लिए परिश्रम किया । इस प्रकार उन्होंने `परहितार्थ सर्वस्वका समर्पण ही सच्चा संन्यास है', यह वचन सार्थ किया ।
        अंग्रेजोंका वर्चस्व रहते हुए भारतभूमि तथा हिंदु धर्मके उद्धारके लिए अहर्निश (दिन-रात) चिंता करनेवाले तथा इस उद्धारकार्यके लिए तन, मन, धन एवं प्राण अर्पण करनेवाले कुछ नवरत्न भारतमें हुए हैं । उनमेंसे एक दैदीप्यमान रत्न थे स्वामी विवेकानंद । धर्मप्रवर्तक, तत्त्वचिंतक, विचारवान एवं वेदांतमार्गी राष्ट्रसंत इत्यादि विविध रूपोंमें विवेकानंदका नाम सर्व जगतमें विख्यात है । तारुण्यमें ही संन्यासाश्रमकी दीक्षा लेकर हिंदु धर्मका प्रसारक बना एक तेजस्वी तथा ध्येयवादी व्यक्तित्व । उनकी जयंतीके निमित्त `अंतर्राष्ट्रीय युवक दिवस' मनाया जाता है । स्वतंत्रताके उपरांत भारतभूमि तथा हिंदु धर्मकी हुई दुरावस्थाको रोकनेके लिए आज भी स्वामी विवेकानंदके तेजस्वी विचारों की आवश्यकता है, भारतवासियोंको इसका ज्ञान हो, इस हेतु यह लेखप्रपंच !

हिंदु रहना जातिवादी रहना नहीं है !

हिंदुओंको स्वयंको हिंदु कहलवा लेना ही लज्जाजनक प्रतीत होने लगा है !

देशमें हिंदुओंको जातिवादी कहनेकी एक प्रथा ही चालू हो गई है । इसलिए हिंदुओंको स्वयंको हिंदु कहलवा लेना ही लज्जाजनक प्रतीत होने लगा है । अतः किसीने यदि हिंदुत्वकी घोषणा की, तो उसे धर्मांध, भगवा आतंकवादी इस प्रकारके लेबल लगाए जाते हैं । हिंदुओंको इस स्थितिसे बाहर निकालकर हिंदुत्वका उद्घोष अधिक तीव्रतासे करनेकी आवश्यकता है । इस विषयपर आगे दिए लेखमें चर्चा की गई है ।

१. इतिहाससे सीख न लेनेवाले भारतीय

हिंदुत्व भारतियोंका प्राण है । केवल इस प्रमुख कारणसे अपना देश अनेक युगोंसे टिका हुआ है । हिंदुओंमें अंतर रहनेमें ही उनके शत्रुओंका सुख है, जो अनेक बार दिखाई दिया है । हमारा इतिहास हमारे लिए अत्यंत कटू है; परंतु संक्षेपमें देखा जाय, तो हिंदुओंकी असफलता एवं पराजय आपसमें अंतर एवं दगाबाजीसे संबंधित हैं । यथा, अलेक्जांडरका विजय एवं अंभी राजासे आरंभ हुई यह शृंखला आगे जयचंद एवं घोरी, जगत शेठ एवं क्लाईव, राणी लक्ष्मीबाई एवं सिंधिया ऐसी चालू ही रही । यह सूची ऐसी ही आगे तक चालू रह सकती है । अपने देशका कामकाज कौनसी दिशामें चल रहा है ?, इस विषयमें अनेक चर्चा एवं वादविवादके कार्यक्रमोंमें न्यायनिवारण करनेपर भी अपने ऐतिहासिक कालसे चलती आई सफलतामें परिवर्तन होनेकी बात समझमें नहीं आती । इतना ही नहीं, अपितु हम इससे कोई सीख भी नहीं लेते ।

२. हिंदु बहुसंख्यक होनेकी वस्तुस्थिति प्रस्तुत करनेपर जातिवादीके रूपमे तिरस्कारित करना

वर्ष २०११ की जनगणनाके अनुसार भारतमें जनसंख्याका विभाजन ८०.५ प्रतिशत हिंदु, १३.४ प्रतिशत मुसलमान, २.३ प्रतिशत ईसाई, १.९ प्रतिशत सिक्ख, ०.८ प्रतिशत बौद्ध, ०.४ प्रतिशत जैन एवं ०.६ प्रतिशत अन्यधर्मीय इस प्रकार है । भारतके भूभागपर ८० प्रतिशत हिंदुओंका अधिवास है, यह वास्तविकता ध्यानमें लेकर जिस समय राष्ट्रीय स्तरकी चर्चामें स्पष्ट रूपसे ‘अपने देशका भवितव्य कैसे होना चाहिए,’ प्रस्तुत किया गया, उस समय स्वयंको गोबेलेजियन प्रवर्तक कहलानेवाले लोगोंने हिंदुओंको जातीवादीके रूपमें तिरस्कारित किया । इसके विरुद्ध कोई प्रभावी उपाय नहीं किया गया । इसालए ये प्रवर्तक अधिक सुदृढ हो गए ।

३. हिंदु रहना अव्यक्त ही रखनेका अर्थ

देशके संयुक्त पुरोगामी सरकारद्वारा पिछले दशकमें किए गए कर्तृत्वोंमे एक कर्तृत्व है, सरकारद्वारा अधिकांश हिंदुओंके साथ पूर्णत: पक्षपात करना । हिंदु रहना अपराध समझकर उनपर दबावतंत्रका उपयोग किया गया । हिंदुओंके सामाजिक बहुमानपर आंच लाई गई तथा ऐसे प्रयास किए गए कि वे हिंदु हैं, यह बात समाजमें घोषित करनेका हिंदुओंको साहस न हो । हिंदु रहना केवल अव्यक्त ही रहना चाहिए, क्योंकि यह उजागरीसे स्पष्ट करना जातीवादी होनेके समान ही है, ऐसा केंद्रकी संयुक्त पुरोगामी सरकारका अलिखित नियम है । यह नियम षडयंत्रद्वारा हिंदुओंमें बोया जा रहा है । कहनेको अत्यंत दु:ख प्रतीत होता है कि एक कार्यक्रममें एक अत्यंत विख्यात व्यक्तिको उसका धर्म कौनसा ?, ऐसा पूछनेपर उस व्यक्तिको अजिबसा लगा एवं उसका चेहरा ही निस्तेज हो गया । उसे इसका उत्तर देनेका साहस नहीं हुआ । उनके नामसे केवल धर्म ही नहीं, अपितु वे कौनसे प्रदेशसे आए, यह भी समझमें आ गया था । उनपर क्षणभरमें हिंदुके रूपमें जातिवादका सिक्का लगेगा इस भयसे उत्पन्न विकृत मनस्थितिका निश्चित रूपसे यह परिणाम था ।

४. हिंदुओंपर पिछले इतिहासका लांछन

संयुक्त पुरोगामी सरकारकी नीति धूर्त एवं कठोर थी । हिंदु अर्थात एक गुट अथवा जाती अथवा आपको जिस नामसे पुकारनेकी चाह हो वह नाम । जो सिंधू नदीके उस पार भूभागमें निवास करते हैं तथा जिन्हें अपनी मातृभूमिका हिंदुकुश पर्वत एवं सिंध प्रांतके सागरसे नीचे उतरे मुसलमान आक्रमकोंसे बचाव करना संभव नहीं हुआ, वे हिंदु । इस पराजयका आघात एवं उसका लांछन अब तक भी हिंदुओंके अंतःकरणमें अंदरतक जमा हुआ है । वे पराजित हुए, उन्होंने राज्य गंवाया । मृत्यु, विध्वंस एवं लूटका सामना किया । लगभग ५०० वर्ष विदेशी आक्रमकोंकी जनताके (प्रजा) रूपमें रहे ।

५. हिंदुओंपर विदेशियोंका धार्मिक वर्चस्व

यह ध्यानमें लेना आवश्यक है कि विदेशियोंका ये केवल राजनीतिक नहीं, अपितु धार्मिक वर्चस्व होनेके कारण ही भारतमें मुसलमान राज्यकी नींव रखी गई । इतिहासका यह भार अपने सभीके मनके अंदरतक संग्रहित है, जो निरंतर हमें इस बातका स्मरण करवाता है कि विदेशी विजेताओंकी दृष्टिमें भारत पराजितोंका देश था । वर्तमानमें भी किसी भी चर्चामें इस विषयको दबा दिया जाता है, उसपर मौन रखा जाता है; परंतु यह बात प्रत्येक व्यक्तिके अंतर्मनको व्यथित करती है । स्वतंत्र भारतमें रहनेकी इच्छा रखनेवाले मुसलमानोंसे संबंध विकसित करनेसे प्रतिबंधित किया जा रहा है । हिंदुओंको यदि देशका भवितव्य सुरक्षित एवं सर्वसमावेशक करना है, तो उन्हें यह शर्तें स्वीकार करनी पडेंगी । इतिहासके विषयमें अत्यंत खुले मनसे, प्रगल्भ तथा विश्वासपात्र संवाद कर यह उपाय ढूंढना चाहिए ।

६. भारतने इस्लामीकरणको विरोध क्यों किया ?

तब भी एक बडा अनुत्तरीत रहस्य शेष रहता ही है । अन्य देशोंमें मुसलमानोंद्वारा पराजित सभी लोगोंको इस्लाममें धर्मपरिवर्तित करते समय भारतने इस्लामीकरणको विरोध क्यों किया ? विजेताओंद्वारा अमानवीय अत्याचार, धार्मिक शुद्धिकरण, वंशहत्या, धर्मपरिवर्तन एवं जिजिया कर इत्यादि सभी उद्देश निष्प्रभ हुए एवं जनताका एक बडा गुट धर्मपरिवर्तित हुए बिना ही रह गया । वर्ष १९०१ की अखंड भारतकी जनगणनाके अनुसार भारतमें १९ करोड ४० लाख हिंदु थे । जिहादकी समस्यापर अनेक तत्त्व प्रस्तुत किए गए; परंतु मूल समस्यापर समाधान कोई नहीं ढूंढ सका । निश्चित रूपसे अपने देशमें राजनीतिक वर्चस्व होते हुए भी मध्ययुगीन जिहादके सभी तंत्र निष्प्रभ सिद्ध हुए । जिस समय विदेशी आक्रमक सत्तामें रहते हैं, उस समय ऐतिहासिक स्मृति, परंपरा एवं दंतकथाओंके माध्यमसे होनेवाली सांस्कृतिक उत्क्रांति न्यून होती है । स्थानीय लोगोंकी आस्था एवं धर्मके स्वयंस्फूर्त विकासको निश्चित कालावधिके उपरांत समाजद्वारा अस्वीकार प्रथाओंके रूपमें विराम दिया जाता है । इस्लामी कार्यकालका ह्रास समीप आया एवं इतिहासमें भारतपर बडा संकट आया । यह संकट इस प्रकार था कि समुद्रमार्गसे बडी संख्यामें आक्रमण- कारियोंका एक गुट आया एवं उसने भारतमें व्यापार कर राजनीतिक सत्ता स्थापित की ।

७. हिंदुओंको १९४७ के विभाजनकी वेदनाएं अब भी चुभती हैं !

स्थल एवं कालसे संपूर्ण रूपसे विसंगत पूर्व एवं पश्चिमके संस्कृतिका मंथन हुआ एवं परस्परविरोधी कल्पनाओंका संयोग हुआ, जिससे स्वातंत्र्य आंदोलन खडा हुआ । अपने देशमें लोकतंत्रकी कल्पना विदेशसे आयात हुई । लोकतंत्र अर्थात संख्या अतिप्राचीन कालावधिसे इस्लामी अमीर-उमरावशाही थी । वे स्वयंको भारतके सिंहासनका अधिकृत वारिस समझते थे । उनके समक्ष लोकतंत्र एवं उसकी संख्याका वैधानिक संकट आया । उनके पूर्वके तत्त्वोंको गौण स्थान मिलनेवाला था । कांग्रेस पक्ष मुस्लिम लीग पक्षसे समझौता करनेमें एवं देन-लेनमें असफल रहा, जिससे स्वतंत्र पाकिस्तानकी जोरदार मांग की गई । मुस्लिम लीगने स्वतंत्र भारतसे बाहर निकलनेका निर्णय लिया था । उसे उपनिवेशवादी शक्तियोंने उकसाया था । अतः भारतीय क्षेत्रके बाहर उन्होंने ऐसे स्थानपर जाकर उनका स्वतंत्र राष्ट्र स्थापित किया, जहांसे स्वतंत्र पाकिस्तानके लिए कभी बलपूर्वक मांग नहीं की गई थी । उत्तरप्रदेश एवं बिहारमें विद्यमान पाकिस्तानके समर्थक भारतमें ही रहे । संभवतः अतिप्राचीन समयमें भारत एवं पाकिस्तानमें रहनेवाली अमीर-उमरावशाही पुनः प्रस्थापित होगी, यह अचर्चित एवं अव्यक्त होगा । बंदुककी एक भी गोली व्यर्थ न जाने देते हुए हम विजयी हुए एवं हम ही हारे, तब भी विभाजनकी वेदनाएं अब भी चुभती हैं । दृढ हिंदु अथवा दृढ हिंदुत्व देखनेकी किसीको आदत नहीं है । बडेबडे वेदसंपन्न, समाजतज्ञ एवं विद्वान हिंदुत्वकी व्याख्या करनेमें असमर्थ रहे । मैं एक नम्र अधिवक्ताके रूपमें उनकी आस्था बढा सकता हूं; परंतु जिस व्याख्याको सर्वोच्च न्यायालयके एक निर्णयसे अंतिम रूप दिया गया है, वह हिंदुत्व मुझे ज्ञात है ।

८. केंद्रकी संयुक्त कांग्रेस सरकारने हिंदुओंमें भय उत्पन्न करना

इस्लामी एवं ब्रिटीश कार्यकालके पूर्वमें भी भारतमें ईसाई मिशनरियोंका आदरातिथ्य किया गया एवं यहुदी तथा पारसी लोगोंको आश्रय दिया गया । किसी भी धर्मको गौण समझकर कभी छल नहीं किया गया । अनेक युगोंसे हिंदुत्व भारतियोंका प्राण हैं एवं संभवतः यही कारण है कि पराजय, वंशहत्या एवं अनेक लोगोंद्वारा वश करनेका प्रयास किए जानेपर भी वह टिका हुआ है । अपनी कुल जनसंख्यामें ८० प्रतिशत लोग वर्तमानमें भारतपर राज्य करनेवाली सत्ताको सुरूंग लगा सकते हैं, ऐसा सुदृढ हिंदुत्व ध्वनित करते हैं । कांग्रेस सरकारने भयसे विकृत मनस्थिति उत्पन्न कर ‘हिंदु’ शब्द जातिवाचक है, ऐसा संबोधित किया । इसमें बहुसंख्यकोंको स्थायी रूपसे दुर्बल बनाया गया है । राष्ट्रीय परामर्शदाता मंडलद्वारा सिद्ध विषारी धार्मिक एवं लक्षि्यत हिंसा विरोधी विधेयकका प्रारुप जो शासन राष्ट्रपर मढना चाहती है एवं अपने देशमें विद्यमान धार्मिक अखंडताका विनाश करना चाहती है । प्रसारमाध्यमोंने बुदि्धवादी एवं नवमतवादियोंका एक वर्ग बढा दिया है । प्रसारमाध्यमोंद्वारा नियमित रूपसे हिंदुओंपर आघात करने हेतु पर्याप्त अवसर दिया जाता है एवं उसको वैधानिक रूपसे मान्यता मिल रही है ।

९. राजनीतिक आलोचक एवं प्रसारमाध्यम हिंदुत्वको धर्मांधता कहते हैं !

अपने देशके अल्पसंख्यकोंको जोरदार रूपसे यह स्पष्ट करना चाहिए कि अतिप्राचीन कालावधिसे समाजमें व्याप्त हिंदुत्वके चैतन्यसे उन्हें कोई भय एवं धोखा नहीं है । उनके धार्मिक अधिकारोंकी रक्षा भारतीय संविधानमें ही की गई है । १९९० के सर्वोच्च न्यायालयके निर्णयमें इस संदर्भमें अंतिम अर्थ बताया गया है कि सर्वसाधारण रूपसे हिंदुत्वका अर्थ है जीवन व्यतीत करनेका एक मार्ग अथवा मनकी एक स्थिति । मूलतत्त्ववादी हिंदु धर्मसे उसकी बरोबरी करना असंभव है । हिंदुत्व अथवा हिंदुवादी शब्दका अर्थ ‘विरोधी अर्थात हिंदु धर्मके अतिरिक्त अन्य धर्मीय सभी लोगोंके विरूद्ध मानसिकता’, ऐसा करना चूक है । राजनीतिक आलोचक एवं प्रसाररमाध्यम हिंदुत्व धर्मांधताका शब्द है, इस बातका समर्थन करते हैं ।

१०. बुद्धिमत्ताका उचित उपयोग किया गया, तो भारत महासत्ता बनेगा !

विश्वमें सभी देश भारतको दुर्बल एवं आंतरिक मतभेदसे नष्ट होते देखना चाहते हैं । एक सुदृढ भारत, जहां अधिकांश लोग उन्नति कर सकेंगे, झगडे न करते हुए एकत्रित रह सकते हैं, वहां सत्ताका समतोल बिगाडते हैं । अपने देशकी मानवी साधनसंपत्ति विकासको प्रेरित करती है । उचित शासनका अभाव होते हुए भी अपने लोंगोंकी सर्वसाधारण बुद्धिमत्ता अन्य अनेक विकसित देशोंके लोगोंकी अपेक्षा बहुत अधिक है । यदि विभाजक शक्ति एवं भ्रष्टाचारके अतिरिक्त राष्ट्रके निर्माण कार्यमें इसका विधायक उपयोग किया गया, तो भारत एक आर्थिक एवं राजनीतिका महासत्ता बनना संभव है ।
- अधिवक्ता राम जेठमलानी (संदर्भ : द संडे गार्डियन)

मेकालेप्रणित शिक्षापद्धतिका भयावह वास्तव

सभी क्षेत्रोंमें भारतकी अधोगति करनेवाली मेकालेप्रणित शिक्षापद्धतिका भयावह वास्तव जानें !मेकालेद्वारा वर्ष १९३१ में कुटिलतासे भारतमें पश्‍िचमी सभ्यतावाली शिक्षाप्रणाली लाई गई । दुर्भाग्यवश पश्‍िचमी सभ्यताकी साम्यवादी विचारधारावाले तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरूद्वारा वही शिक्षापद्धति यथावत स्वतंत्र भारतपर लादी गई । इसलिए देशमें बेरोजगारीके समान समस्याएं बढीं । यहांके कलाकार, परंपरागत कारीगर, वैद्य तथा व्यवसायिक समाजके प्रवाहसे बाहर फेंक दिए गए ।
स्वकेंद्रित बनानेवाली इस शिक्षासे देशका व्यक्ति काला अंग्रेज बन गया । इस शिक्षासे भारतीय व्यक्ति भ्रष्टाचारी, व्यभिचारी एवं संस्कृतिहीन बन गया । वह स्वभाषा, स्वसंस्कृति तथा स्वदेशको तुच्छ  समझने लगा है । 

मेकालेने देशकी संस्कृतिको उखाड दिया !

भारतमें सर्वत्र भ्रमण करते समय ईसाई धर्मप्रचारकके पुत्र मेकालेको भारतीय  समाज  सुसंस्कृत स्थितिमें दिखाई दिया । ऐसे समाजपर राज्य करना अंग्रेजोंके लिए असंभव था; इसलिए उन्होंने भारतमें सर्वत्र भ्रमणकर  इस देशकी संस्कृति तथा शिक्षाप्रणाली नष्ट करने हेतु कुटिलतापूर्वक एक शिक्षाप्रणालीकी रचना की । मेकालेने ब्रिटिश संसदमें सूचित किया कि इस शिक्षासे भारतीय नागरिक काला अंग्रेज बनेगा एवं शतकोंतक ब्रिटिशोंका दास बना रहेगा । भारतमें स्वतंत्र शिक्षाप्रणाली थी । निःस्पृह ब्राह्मणवर्ग संपूर्ण देशमें समाजको विद्यावान बनानेका कार्य कर रहा था । गुरुकुल पद्धति अस्तित्वमें थी । ब्रिटिशोंने इस पद्धतिको नष्ट किया । ब्रिटिशोंद्वारा लिखित विकृत इतिहास विद्यार्थियोंको सिखाया गया एवं अभीतक सिखाया जा रहा है ।

पेट भरनेवाले समाजकी उत्पत्ति !

अभी तक  ७० प्रतिशत समाजको शिक्षाका अवसर नहीं मिलता । शिक्षा ग्रहणके लिए जानेवाले ३० प्रतिशत समाजमें २ से ३ प्रतिशत लोग पूरी शिक्षा ग्रहण कर रोजगार प्राप्त करते हैं । स्वकेंद्रित शिक्षाके कारण समाज केवल पेट भरनेवाला बन गया ।

शिक्षामें दिखावा आ गया !

देशाभिमानका अभाव होनेसे शिक्षित युवक विदेश जा रहे हैं । इस शिक्षामें साहित्य तथा  विचार इत्यादिके विषयमें कोई शिक्षा नहीं दी गई । केवल दिखावटी अंग्रेजी शिक्षा भारतीय समाजद्वारा ग्रहण की गई ।

समाज विघटित हो गया !

पूर्वमें भारतीय समाज अखंड था । बहुसंख्यक श्रमिक समाज एवं लिपिकका कार्य करनेवाले २-३ प्रतिशत समाजमें भेदभाव उत्पन्न हो गया । इस शिक्षासे एक समय समाजमें प्रतिष्ठित ब्राह्मण वर्ग अधिक अपकीर्त हो गया एवं समाजसे दूर चला गया ।

भाषावादकीr उत्पत्ति !

केरलके  तमिल  भाषिक आदि शंकराचार्यको देशने स्वीकार किया था । इस समय भाषावाद नहीं था । मेकालेकी शिक्षापद्धतिके कारण भाषावादकी उत्पत्ति हुई ।

विद्यापीठ बंद हो गए एवं नैतिकताका अधःपतन हो गया !

भारतके प्राचीन तक्षशीला समान अनेक  विद्यापीठ  मेकालेद्वारा  लादी गई शिक्षापद्धतिके कारण इन १०० वर्षोंकी कालावधिमें बंद हो गए । वर्तमानमें भारतमें वैश्विक स्तरका ज्ञान  देनेवाले विद्यापीठ नहीं हैं । सामाजिक  रचना उद्ध्वस्त हो गई है । पूर्वमें विकसित ज्ञान देनेवाले विद्यापीrठ थे । भारतकी आदर्श समाजरचना ज्ञानपर आधारित  थी । मेकालेकी शिक्षापद्धतिसे समाजमें फूट पड गई । एकत्व देखनेवाला समाज विभक्त हो गया । स्त्रियां भ्रष्ट हो गर्इं । मेकालेकी शिक्षापद्धतिके अनुसार शिक्षाग्रहण करनेवाला मनुष्य व्यभिचारी एवं बलात्कारी बन गया । भारत विस्थापित हो गया ।...
पश्‍िचमी सभ्यताका संशोधन कार्य यथारूप लाया गया । इसलिए संशोधनके क्षेत्रमें भारतने आवश्यक प्रगति नहीं की । मेकालेकी शिक्षापद्धतिके कारण संपूर्ण  भारत  भटक गया है । नौकरी हेतु युवक भटकने लगे । भारत विस्थापित हो गया । इस शिक्षापद्धतिके कारण देशमें कागदका राज्य स्थापित हो गया । इस शिक्षासे यहांके नागरिक अनाडी एवं भ्रष्ट हो गए । यहांका नागरिक दास बन गया ।

संतोेंने देशको संवारा !

ऐसे कठिन समयमें प्रत्येक प्रांतमें संत उत्पन्न हुए एवं उन्होंने समाजको अपनी शिक्षासे सुसंस्कृत किया । सभी प्रांतों एवं भाषाओंमें तत्त्वज्ञान बतानेवाले संत उत्पन्न हुए । उन्होंने प्रत्येक घरको गुरुकुलमें रुपांतरित किया ।

प्राचीन परंपरा एवं आधुनिक विज्ञानका समन्वय रहनेवाली शिक्षापद्धति आवश्यक है !

भारतको प्राचीन परंपरा एवं आधुनिक विज्ञानका समन्वय करनेवाली स्वतंत्र शिक्षापद्धतिको स्वीकारना होगा एवं उसे आचरणमें लानेपर ही अगले १०० वर्षोंमें संपूर्ण भारत ज्ञानवान एवं विचारसंपन्न बनेगा ।
- श्री. गिरिश प्रभुणे, सामाजिक कार्यकर्ता, पुणे