Sunday, June 15, 2014

बुंदेल केसरी महाराजा छत्रसाल

सत्ता और संघर्ष की बढ़ी-चढ़ी घटनाओं से इतिहास भरा पड़ा है, परंतु स्वतंत्रता और सृजन के लिए जीवन भर संघर्ष करने वाले विरले ही हुए हैं। मध्यकालीन भारत में विदेशी आतताइयों से सतत संघर्ष करने वालों में छत्रपति शिवाजी, महाराणा प्रताप और बुंदेल केसरी छत्रसाल के नाम विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं, परंतु जिन्हें उत्तराधिकार में सत्ता नहीं वरन ‘शत्रु और संघर्ष’ ही विरासत में मिले हों, ऐसे बुंदेल केसरी छत्रसाल ने वस्तुतः अपने पूरे जीवनभर स्वतंत्रता और सृजन के लिए ही सतत संघर्ष किया। शून्य से अपनी यात्रा प्रारंभ कर आकाश-सी ऊंचाई का स्पर्श किया। उन्होंने विस्तृत बुंदेलखंड राज्य की गरिमामय स्थापना ही नहीं की थी, वरन साहित्य सृजन कर जीवंत काव्य भी रचे। छत्रसाल ने अपने ८२ वर्ष के जीवन और ४४ वर्षीय राज्यकाल में ५२ युद्ध किये थे। शौर्य और सृजन की ऐसी उपलब्धि बेमिसाल है । वीरों और हीरोंवाली माटी के इस लाड़ले सपूत ने कलम और करवाल को एक-सी गरिमा प्रदान की थी।
        उनके पिता चंपतरायने पूरे जीवनभर विदेशी मुगलों से संघर्ष करते हुए अपने ही विश्वासघातियों के कारण सन १६६१ में अपनी वीरांगना रानी लालकुंआरि के साथ आत्माहुति दी ।

१. इतिहास पुरुषः महाराजा छत्रसाल

        चंपतराय जब समय भूमि मे जीवन-मरण का संघर्ष झेल रहे थे उन्हीं दिनों ज्येष्ठ शुक्ल ३ संवत १७०७ (सन १६४१) को वर्तमान टीकमगढ़ जिले के लिघोरा विकास खंड के अंतर्गत ककर कचनाए ग्राम के पास स्थित विंध्य-वनों की मोर पहाड़ियों में इतिहास पुरुष छत्रसाल का जन्म हुआ। अपने पराक्रमी पिता चंपतराय की मृत्यु के समय वे मात्र १२ वर्ष के ही थे। वनभूमि की गोद में जन्में, वनदेवों की छाया में पले, वनराज से इस वीर का उद्गम ही तोप, तलवार और रक्त प्रवाह के बीच हुआ।
        पांच वर्ष में ही इन्हें युद्ध कौशल की शिक्षा हेतु अपने मामा साहेबसिंह धंधेर के पास देलवारा भेज दिया गया था। माता-पिता के निधन के कुछ समय पश्चात ही वे बड़े भाई अंगद राय के साथ देवगढ़ चले गये। बाद में अपने पिता के वचन को पूरा करने के लिए छत्रसाल ने पंवार वंश की कन्या देवकुंअरि से विवाह किया।
        जिसने आंख खोलते ही सत्ता संपन्न दुश्मनों के कारण अपनी पारंपरिक जागीर छिनी पायी हो, निकटतम स्वजनों के विश्वासघात के कारण जिसके बहादुर मां-बाप ने आत्महत्या की हो, जिसके पास कोई सैन्य बल अथवा धनबल भी न हो, ऐसे १२-१३ वर्षीय बालक की मनोदशा की क्या आप कल्पना कर सकते हैं ? परंतु उसके पास था बुंदेली शौर्य का संस्कार, बहादुर मां-पिताका
        अदम्य साहस और ‘वीर वसुंधरा’ की गहरा आत्मविश्वास। इसलिए वह टूटा नहीं, डूबा नहीं, आत्मघात नहीं किया वरन् एक रास्ता निकाला।

२. पिताके दोस्त राजा जयसिंहके सेनामें भरती होना

        उसने अपने भाई के साथ पिता के दोस्त राजा जयसिंह के पास पहुंचकर सेना में भरती होकर आधुनिक सैन्य प्रशिक्षण लेना प्रारंभ कर दिया।
        राजा जयसिंह तो दिल्ली सल्तनत के लिए कार्य कर रहे थे अतः औरंगजेब ने जब उन्हें दक्षिण विजय का कार्य सौंपा तो छत्रसाल को इसी युद्ध में अपनी बहादुरी दिखाने का पहला अवसर मिला । सन १६६५ में बीजापुर युद्ध में असाधारण वीरता छत्रसाल ने दिखायी और देवगढ़ (छिंदवाड़ा) के गोंडा राजा को पराजित करने में तो छत्रसाल ने जी-जान लगा दिया। इस सीमा तक कि यदि उनका घोड़ा, जिसे बाद में ‘भलेभाई’ के नाम से विभूषित किया गया उनकी रक्षा न करता तो छत्रसाल शायद जीवित न बचते पर इतने पर भी जब विजयश्री का सेहरा उनके सिर पर न बांध मुगल भाई-भतीजेवाद में बंट गया तो छत्रसाल का स्वाभिमान आहत हुआ और उन्होंने मुगलों की बदनीयती समझ दिल्ली सल्तनत की सेना छोड़ दी।

३. छत्रपति शिवाजी महाराजसे मिलके स्वराज का मंत्र लेना

        इन दिनों राष्ट्रीयता के आकाश पर छत्रपति का सितारा चमचमा रहा था। छत्रसाल दुखी तो थे ही, उन्होंने शिवाजी से मिलना ही इन परिस्थितियों में उचित समझा और सन १६६८ में दोनों राष्ट्रवीरों की जब भेंट हुई तो शिवाजी ने छत्रसाल को उनके उद्देश्यों, गुणों और परिस्थितियें का आभास कराते हुए स्वतंत्र राज्य स्थापना की मंत्रणा दी एवं समर्थ गुरु रामदास के आशीषों सहित ‘भवानी’ तलवार भेंट की-
करो देस के राज छतारे
हम तुम तें कबहूं नहीं न्यारे।
दौर देस मुगलन को मारो
दपटि दिली के दल संहारो।
तुम हो महावीर मरदाने
करि हो भूमि भोग हम जाने।
जो इतही तुमको हम राखें
तो सब सुयस हमारे भाषे।
        शिवाजी से स्वराज का मंत्र लेकर सन १६७० में छत्रसाल वापस अपनी मातृभूमि लौट आयी परंतु तत्कालीन बुंदेल भूमि की स्थितियां बिलकुल भिन्न थीं। अधिकाश रियासतदार मुगलों के मनसबदार थे, छत्रसाल के भाई-बंधु भी दिल्ली से भिड़ने को तैयार नहीं थे। स्वयं उनके हाथ में धन-संपत्ति कुछ था नहीं। दतिया नरेश शुभकरण ने छत्रसाल का सम्मान तो किया पर बादशाह से बैर न करने की ही सलाह दी। ओरछेश सुजान सिंह ने अभिषेक तो किया पर संघर्ष से अलग रहे। छत्रसाल के बड़े भाई रतनशाह ने साथ देना स्वीकार नहीं किया तब छत्रसाल ने राजाओं के बजाय जनोन्मुखी होकर अपना कार्य प्रारंभ किया। कहते हैं उनके बचपन के साथी महाबली तेली ने उनकी धरोहर, थोड़ी-सी पैत्रिक संपत्ति के रूप में वापस की जिससे छत्रसाल ने ५ घुड़सवार और २५ पैदलों की छोटी-सी सेना तैयार कर ज्येष्ठ सुदी पंचमी रविवार वि.सं. १७२८ (सन १६७१) के शुभ मुहूर्त में शहंशाह आलम औरंगजेब के विरूद्ध विद्रोह का बिगुल बजाते हुए स्वराज्य स्थापना का बीड़ा उठाया।

४. औरंगजेबके विरूद्ध संघर्ष का शंखनाद

        छत्रसाल की प्रारंभिक सेना में राजे-रजवाड़े नहीं थे अपितु तेली बारी, मुसलमान, मनिहार आदि जातियों से आनेवाले सेनानी ही शामिल हुए थे। चचेरे भाई बलदीवान अवश्य उनके साथ थे। छत्रसाल का पहला आक्रमण हुआ अपने माता-पिता के साथ विश्वासघात करने वाले सेहरा के धंधेरों पर। मुगल मातहत कुंअरसिंह को ही कैद नहीं किया गया बल्कि उसकी मदद को आये हाशिम खां की धुनाई की गयी और सिरोंज एवं तिबरा लूट डाले गये। लूट की सारी संपत्ति छत्रसाल ने अपने सैनिकों में बांटकर पूरे क्षेत्र के लोगों को उनकी सेना में सम्मिलित होने के लिए आकर्षित किया। कुछ ही समय में छत्रसाल की सेना में भारी वृद्धि होने लगी और उन्हेांने धमोनी, मेहर, बांसा और पवाया आदि जीतकर कब्जे में कर लिए।
        ग्वालियर-खजाना लूटकर सूबेदार मुनव्वर खां की सेना को पराजित किया, बाद में नरवर भी जीता। सन १६७१ में ही कुलगुरु नरहरि दास ने भी विजय का आशीष छत्रसाल को दिया।

५. औरंगजेब के सेनापती को पराजित करना

        ग्वालियर की लूट से छत्रसाल को सवा करोड़ रुपये प्राप्त हुए पर औरंगजेब इससे छत्रसाल पर टूट-सा पड़ा। उसने सेनापती रणदूल्हा के नेतृत्व में आठ सवारों सहित तीस हजारी सेना भेजकर गढ़ाकोटा के पास छत्रसाल पर धावा बोल दिया। घमासान युद्ध हुआ पर दणदूल्हा (रुहल्ला खां) न केवल पराजित हुआ वरन भरपूर युद्ध सामग्री छोड़कर जन बचाकर उसे भागना पड़ा। इस विजय से छत्रसाल के हौसले काफी बुलंद हो गये।
        सन १६७१-८० की अवधि में छत्रसाल ने चित्रकूट से लेकर ग्वालियर तक और कालपी से गढ़ाकोटा तक प्रभुत्व स्थापित कर लिया।
        सन १६७५ में छत्रसाल की भेंट प्रणामी पंथ के प्रणेता संत प्राणनाथ से हुई जिन्होंने छत्रसाल को आशीर्वाद दिया-
छत्ता तोरे राज में धक धक धरती होय जित जित घोड़ा मुख करे तित तित फत्ते होय।

६. बुंदेले राज्य की स्थापना

        इसी अवधि में छत्रसाल ने पन्ना के गौड़ राजा को हराकर, उसे अपनी राजधानी बनाया। ज्येष्ठ शुक्ल तृतीया संवत १७४४ की गोधूलि बेला में स्वामी प्राणनाथ ने विधिवत छत्रसाल का पन्ना में राज्यभिषेक किया। विजय यात्रा के दूसरे सोपान में छत्रसाल ने अपनी रणपताका लहराते हुए सागर, दमोह, एरछ, जलापुर, मोदेहा, भुस्करा, महोबा, राठ, पनवाड़ी, अजनेर, कालपी और विदिशा का किला जीत डाला। आतंक के मारे अनेक मुगल फौजदार स्वयं ही छत्रसाल को चैथ देने लगे।
        बघेलखंड, मालवा, राजस्थान और पंजाब तक छत्रसाल ने युद्ध जीते। परिणामतः यमुना, चंबल, नर्मदा और टोंस मे क्षेत्र में बुंदेला राज्य स्थापित हो गया। सन १७०७ में औरंगजेब का निधन हो गया। उसके पुत्र आजम ने बराबरी से व्यवहार कर सूबेदारी देनी चाही पर छत्रसाल ने संप्रभु राज्य के आगे यह अस्वीकार कर दी।

७. मुहम्मद बंगस का आक्रमण एवं बाजीराव पेशवा का सहाय्य लेना

        महाराज छत्रसाल पर इलाहाबाद के नवाब मुहम्मद बंगस का ऐतिहासिक आक्रमण हुआ। इस समय छत्रसाल लगभग ८० वर्ष के वृद्ध हो चले थे और उनके दोनों पुत्रों में अनबन थी। जैतपुर में छत्रसाल पराजित हो रहे थे। ऐसी परिस्थितियों में उन्हेांने बाजीराव पेशवा को पुराना संदर्भ देते हुए सौ छंदों का एक काव्यात्मक पत्र भेजा जिसकी दो पंक्तियां थीं जो गति गज और ग्राह की सो गति भई है आज बाजी जात बुंदेल की राखौ बाजी लाज।
        फलतः बाजीराव की सेना आने पर बंगश की पराजय ही नहीं हुई वरन उसे प्राण बचाकर अपमानित हो, भागना पड़ा। छत्रसाल युद्ध में टूट चले थे, लेकिन मराठों के सहयोग से उन्हेांने कलंक का टीका सम्मान से पोंछ डाला।
        यहीं कारण था छत्रसाल ने अपने अंतिम समय में जब राज्य का बंटवारा किया तो बाजीराव को तीसरा पुत्र मानते हुए बुंदेलखंड झांसी, सागर, गुरसराय, काल्पी, गरौठा, गुना, सिरोंज और हटा आदि हिस्से के साथ राजनर्तकी मस्तानी भी उपहार में दी। कतिपय इतिहासकार इसे एक संधि के अनुसार दिया हुआ बताते हैं पर जो भी हो अपनी ही माटी के दो वंशों, मराठों और बुंदेलों ने बाहरी शक्ति को पराजित करने में जो एकता दिखायी, वह अनुकरणीय है।

८. राज्य संचालनके बारेमें महाराजा छत्रसाल का सूत्र

        छत्रसाल ने अपने दोनों पुत्रों ज्येष्ठ जगतराज और कनिष्ठ हिरदेशाह को बराबरी का हिस्सा, जनता को समृद्धि और शांति से राज्य-संचालन हेतु बांटकर अपनी विदा वेला का दायित्व निभाया। राज्य संचालन के बारे में उनका सूत्र उनके ही शब्दों में -
राजी सब रैयत रहे, ताजी रहे सिपाहि
छत्रसाल ता राज को, बार न बांको जाहि।
        यही कारण था कि छत्रसाल को अपने अंतिम दिनों में वृहद राज्य के सुप्रशासन से एक करोड़ आठ लाख रुपये की आय होती थी। उनके एक पत्र से स्वष्ट होता है कि उन्होंने अंतिम समय १४ करोड़ रुपये राज्य के खजाने में (तब) शेष छोड़े थे।

९. कलाका सम्मान करनेवाले महाराजा छत्रसाल

        छत्रसाल की तलवार जितनी धारदार थी, कलम भी उतनी ही तीक्ष्ण थी। वे स्वयं कवि तो थे ही कवियों का श्रेष्ठतम सम्मान भी करते थे। अद्वितीय उदाहरण है कि कवि भूषण के बुंदेलखंड में आने पर आगवानी में जब छत्रसाल ने उनकी पालकी में अपना कंधा लगा दिया तो भूषण कह उठेः
और राव राजा एक चित्र में न ल्याऊं-
अब, साटू कौं सराहौं, के सराहौं छत्रसाल को।।

 

१०. प्रतापी छत्रसाल महाराज का निधन

        प्रतापी छत्रसाल ने पौष शुक्ल तृतीया भृगुवार संवत् १७८८ (दिसंबर १७३१) को छतरपुर (नौ गांव) के निकट मऊ सहानिया के छुवेला ताल पर अपना शरीर त्यागा और विंध्य की अपत्यिका में भारतीय आकाश पर सदा-सदा के लिए जगमगाते सितारे बन गये। बुंदेलखंड ही नही संपूर्ण भारत देष ऐसे महान व्यक्तित्व के प्रति पीढ़ी दर पीढ़ी कृतज्ञ रहेगा।

औरंगजेबको कडा प्रतिकार करनेवाले पराक्रमी छत्रपति राजाराम महाराज !

१. मराठेशाहीको अपने

अंकित करनेका हठ मनमें रखनेवाला औरंगजेब !

        ‘मुघल छावनीमें छत्रपति संभाजी महाराजकी हुई अत्यंत क्रूर एवं निर्दय हत्याके कारण हिंदवी स्वराजकी नींव ही डगमगाई थी । मुघल सेना स्वराज्यमें चारों ओरसे घुसकर आक्रमण कर रही थीं । स्वराज्यके गढकोट, चौकीयां एक-एक कर शत्रुका ग्रास बन रही थीं । प्रत्यक्ष राजधानी रायगढको ही औरंगजेबके सेनापति जुल्फीकार खानने घेरा डाला था । सभी मराठा राजपरिवारोंसहित मराठोंकी राजधानी हस्तगत कर दक्खनकी आदिलशाही एवं कुतुबशाहीके साथ मराठेशाही भी अपने अंकित करनेका दुराग्रह मनमें रखकर औरंगजेब महाराष्ट्रमें छावनी कर बैठा था ।
 

२. मुघल सेनाद्वारा ‘छत्रपति’ राजाराम महाराजका पिछा किया जाना

        ऐसे भयंकर संकटमें रायगढपर संभाजी महाराजकी रानी येसूबाई एवं स्वराज्यके प्रमुख अधिकारियोंने एकत्रित आकर राजाराम महाराजको मंचकारोहण कर उन्हें ‘छत्रपति’ घोषित किया । ‘मराठोंका राज्य नामशेष नहीं हुआ है, इतना ही नहीं, तो अंतिम समयतक मराठोंका शत्रुके साथ निश्चयपूर्वक युद्ध जारी ही रहेगा’, यह उन्होंने बादशाहको दर्शाया । ऐसी स्थितिमें रायगढपर राजपरिवारके सभी सदस्योंका एक ही स्थानपर उलझना संकटको निमंत्रण दे सकता था; इसलिए राजाराम महाराज अपने सहकारीयोंके साथ किलेसे बाहर निकलें, किला-दर किला घूमते हुए तथा शत्रुसे प्रतिकार जारी रखते हुए एवं उसमें भी कठिन परिस्थिति आनेपर प्राण बचाने हेतु कर्नाटकमें जिंजीकी ओर निकल जाएं, ऐसा विचार-विमर्श येसूबाईके मार्गदर्शनमें निश्चित हुआ । तद्नुसार राजाराम महाराज रायगढसे निकलकर प्रतापगढपर गए । प्रतापगढसे सज्जनगढ, सातारा, वसंतगढ ऐसा करते हुए पन्हाळगढपर पहुंचे । वे जहां भी गए, वहां वहां मुघल सेना उनके पीछे लगी रही । शीघ्र ही पन्हाळगढको भी मुघलोंने अपना घेरा डाला । स्वराज्यकी स्थिति दिनोंदिन कठिन बनने लगी । तब पूर्वायोजित परामर्शके अनुसार राजाराम महाराजने अपने प्रमुख सहकारीयोंके साथ जिंजीकी ओर जानेका निर्णय लिया ।

३. औरंगजेबको चकमा देकर जिंजीमें पहुंचनेका राजाका कूटनिश्चय

        ‘अपने दबावके कारण मराठोंका नया राजा महाराष्ट्रसे निकलकर जिंजीकी ओर जानेकी संभावना है’, इसका अनुमान धूर्त औरंगजेबने पहलेसे ही किया था एवं उस दृष्टिसे दक्षिणके सभी संभाव्य मार्गोंपर किलेदार एवं थानेदारोंको सतर्क रहनेका आदेश भेजा था । कदाचित राजा समुद्रमार्गसे भाग जाएगा; इसलिए उसने गोवाके पोर्तुगीज व्हॉईसरॉयको भी ध्यान रखनेके लिए कहा था । ‘किसी भी परिस्थितिमें राजाको बंदी बनानेकी’, प्रतिज्ञा उसने की थी तथा ‘किसी भी परिस्थितिमें शत्रुको चकमा देकर जिंजीमें पहुंचनेका’, राजाका कूटनिश्चय था ।
 

४. पन्हाळगढसे सीधे दक्षिणकी ओर न जाकर महाराजका पूर्वकी ओर प्रस्थान

        पन्हाळगढके घेरेके जारी रहते हुए ही २६.९.१६८९ को राजाराम महाराज एवं उनके सहयोगी लिंगायत वाणीका वेश परिधान कर गुप्तरूपसे घेरेसे बाहर निकले । मानसिंग मोरे, प्रल्हाद, निराजी, कृष्णाजी अनंत, निळो मोरेश्वर, खंडो बल्लाळ, बाजी कदम इत्यादि लोग साथ थे । घेरेके बाहर निकलते ही अश्वयात्रा आरंभ हुई । सूर्योदयके समय सभी कृष्णा तटपर स्थित नृसिंहवाडीको पहुंचे । पन्हाळगढसे सीधे दक्षिणकी ओर न जाकर शत्रुको चकमा देनेके लिए महाराज पूर्वकी ओर गए । आग्रासे छटकते समय शिवछत्रपतिने भी ऐसी ही चाल चली थी । वे सीधे दक्षिणकी ओर न जाकर पहले उत्तर एवं तत्पश्चात पूर्व एवं तत्पश्चात दक्षिणकी ओर गए थे । कृष्णाके उत्तरतटसे कुछ समय यात्रा कर उन्होंने पुनः कृष्णा पार कर दक्षिणका मार्ग पकडा; क्योंकि जिंजीकी ओर जाना है, तो कृष्णाको पुनः एक बार पार करना आवश्यक था । यह सब झंझट केवल शत्रुको चकमा देनेके लिए था । महाराजकी शिमोगातककी यात्रा गोकाक-सौंदत्ती-नवलगुंद-अनेगरी-लक्ष्मीश्वर-हावेरी-हिरेकेरूर-शिमोगा ऐसी हुई ।

५. मराठा राजा अपने हाथसे निकल गया है, यह बात मुघलोंके ध्यानमें आना

        मार्गमें स्थानस्थानपर महाराजने बहिर्जी घोरपडे, मालोजी घोरपडे, संताजी जगताप, रूपाजी भोसले इत्यादि अपने सरदारोंको पहलेसे ही भेजा था । यात्रा करते समय महाराज उनसे मिलते थे । इधर महाराष्ट्रमें मुघलोंके ध्यानमें आया कि, मराठा राजा अपने चंगुलसे निकल गया है । स्वयं बादशाहद्वारा विविध मार्गोंपर उनके पीछे सेना भेजी गई थी । ऐसी ही एक सेना वरदा नदीके निकट महाराजके पास पहुंच गई; तब उन्होंने बहिर्जी एवं मालोजी इन बंधुओंकी सहायतासे शत्रुको चकमा देकर नदी पार की; किंतु आगे मुघलोंकी अन्य सेनाने उनका मार्ग रोक दिया । तब रूपाजी भोसले एवं संताजी जगताप जैसे वीर बरछैतोंने (बरछाद्वारा युद्ध करनेवाले) विशालकाय पराक्रमद्वारा मुघलोंको थाम लिया । शीघ्र ही महाराजने संताजीको आगेकी ओर एवं रूपाजीको पिछवाडे रखकर आगे प्रस्थान किया । शत्रुके साथ लडते-लडते, उसे अनपेक्षिततासे चकमा देकर वे तुंगभद्राके तटतक पहुंचे ।

६. रानी चन्नम्माद्वारा राजाराम महाराजको हर प्रकारकी साहायता प्राप्त होना

        मार्गस्थित बिदनूरकी रानी चन्नमाद्वारा प्राप्त सहयोगके कारण यह चकमा देना संभव हुआ । हिंदु धर्म एवं संस्कृतिको इस्लामी आक्रमणसे बचाने हेतु किया गया शिवछत्रपतिका कार्य चन्नमाको ज्ञात था; अतएव राजाराम महाराजको उनके राज्यसे सुरक्षित रूपसे बाहर निकलनेका आवाहन करते ही उसने उन्हें सभी प्रकारकी सहायता की । संकटमें फंसे मराठा राजाको सहायता करना उसने राजधर्म समझा एवं उसका पालन उसने किया । साथहि औरंगजेबके संभाव्य क्रोधकी तनिक भी चिंता न कर महाराजकी यात्राका गुप्तरूपसे उत्तम प्रकारका प्रबंध किया । रानीकी इस सहायताके कारण ही मराठा राजा अपने सहकारीयोके साथ तुंगभद्राके तटपर स्थित शिमोगामें सुरक्षित पहुंचे । रानीकी इस सहायताका समाचार औरंगजेबको मिलते ही उसने उसे दंड देने हेतु प्रचंड सेना भेजी; अपितु इस सेनाके साथ मार्गमें ही संताजी घोरपडेने लडकर रानीकी रक्षा की ।

७. राजाराम महाराजपर तुंगभद्रामें स्थित

द्वीपपर मुघल सेनाकी एक बडी टुकडीद्वारा आक्रमण होना

        राजाराम महाराज एवं उनके सहकारी तुंगभद्रामें स्थित एक द्वीपपर निवास करनेके लिए ठहरे थे । ठीक मध्यरात्रिके समय मुघल सेनाकी एक बडी टुकडीद्वारा उनपर आक्रमण किया गया । इस टुकडीका नेतृत्व विजापुरका सुभेदार सय्यद अब्दुल्ला खान कर रहा था । स्वयं औरंगजेबके आदेशसे ३ दिन तथा ३ रात्रियोंतक अखंड घुडदौड कर अब्दुल्ला खानने राजाराम महाराजका पता लगाया था । सभी ओरसे मुघलोंका घेरा पडते ही मराठे सतर्क हुए एवं उन्होंने अपने राजाकी रक्षा हेतु कडा प्रतिकार करना आरंभ किया । घनघोर युद्ध हुआ ।

८. खानद्वारा राजाके प्रतिरूपको बंदी बनाया जाना

        इस युद्धमें अनेक मराठे मारे गए । अनेक बंदी हुए । खानको बंदियोंमें प्रत्यक्ष मराठोंका राजा दिखाई दिया । उसके हर्षकी सीमा न रही । तत्काल उसने बादशाहको यह समाचार भेजा । बादशाहने राजाको सुरक्षाके साथ लाने हेतु विशेष सेना भेज दी; परंतु शीघ्र ही अब्दुल खानके ध्यानमें आया कि, बंदी किया गया मराठोंका राजा बनावटीr है । सिद्दी जोहरके घेरेमें शिवछत्रपतिने ऐसा ही बहाना कर शिवा काशीदके माध्यमसे शत्रुको चकमा दिया था । हिंदवी स्वराज्यके होमकुंडमें इस समय इसी प्रकारका आत्मबलिदान कर एक अनामी मराठाने मराठाओंके छत्रपतिको बचाया था । धन्य है वह अनामी शूर मराठा वीर! उसके बलिदानके कारण मराठा स्वतंत्रता-समर अधिक तेजस्वी हुआ ।

९. महाराज एवं उनके सहकारीयोंद्वारा

विविध प्रकारके वेषांतर कर अपनी कठीन यात्रा जारी रखना

        शिमोगातककी यात्रा राजाराम महाराज एवं उनके सहकारीयोने अश्वपर सवार होकर पार की थी; अपितु अब मुघलोंने उनके सभी संभाव्य मार्गोंपर गुप्तचरोंका जाल बिछानेके कारण अश्वपर यात्रा करना संकटको आमंत्रण सिद्ध हुआ । तब उन्होंने  यात्री, बैरागी, कार्पाटिक, व्यापारी, भिखारीr जैसे विभिन्न प्रकारके वेषांतर कर अपनी कठीन यात्रा जारी ही रखी । स्थानस्थानपर होनेवाली चौकिया-पहरे इनको चकमा देकर वे शिमोगाके आग्नेयकी ओर १७० मीलकी दूरीपर बंगळुरूमें पहुंचे ।

१०. बंगळुरूके निवासमें स्थानीय लोगोंने

महाराजके बारेमे समाचार तुरंत मुघल थानेदारतक पहुंचाना

        बंगळुरूके निवासमें महाराजपर एक अन्य संकट आया । एक सेवकद्वारा उनके चरण धोते देख कुछ स्थानीय लोगोंके ध्यानमें यह बात आई कि, यह कोई प्रतिष्ठित व्यक्ति दिख रही है । उन्होंने त्वरित यह समाचार मुघल थानेदारतक पहुंचाया । उस कालावधिमें मराठी लोग भी सजग हुए । उन्हें संभाव्य आपत्तिकी आहट लगी । तब खंडो बल्लाळने आगे बढकर महाराजको विनति की कि,‘वे अपने सहकारीयोंके साथ विभिन्न मार्गोंसे आगे निकल जाएं, पिछे हम २-४ लोग मिलकर प्राप्त प्रसंगका सामना करेंगे तथा उससे छुटकारा पाकर मार्गमें निर्धारित स्थानपर आकर मिलेंगे ।’ खंडो बल्लाळकी इस सूचनाके अनुसार महाराज निकल पडे। इधर थानेदारने छापा डाला एवं खंडो बल्लाळ प्रभृतियोंको बंदी बनाकर थानेमें ले गया ।
 

११. हिंदवी स्वराज्यके लिए आत्यंतिक

देहदंड सहनेवाले खंडो बल्लाळ एवं अन्य प्रभृतियां !

        थानेमें खंडो बल्लाळ एवं उनके साथीयोंपर क्रूरतापूर्ण अत्याचार किए गए । उनपर कोडे लगाए गए । सिरपर पत्थर दिए गए । मुंहमें राखके तोबडे थामें गए; अपितु ‘हम यात्री हैं’ इसके अतिरिक्त अधिक जानकारी उनके मुंहसे बाहर नहीं निकली । तब ‘वास्तवमें ही ये यात्रीगण हैं । महाराजके निकटवर्ती होतें, तो इतनी मारपीट होनेपर कुछ कहते’, ऐसा विचार कर थानेदारने उन्हें छोड दिया । छुटकारा पाते ही वे निर्धारित स्थानपर आकर राजाराम महाराजसे मिले । खंडो बल्लाळ प्रभृतियोंने केवल छत्रपति एवं हिंदवी स्वराज्यके लिए ही आत्यंतिक देहदंड सह लिया । स्वामीनिष्ठा एवं स्वराज्यनिष्ठाका यह एक अलौकिक उदाहरण है । इस अलौकिताकी परीक्षामें वे उत्तीर्ण हुए ।
 

१२. राजाराम महाराज मराठोंके अधीन अंबुर नामक स्थानपर पहुंचे

        राजाराम महाराजकी यात्रा जारी ही रही । बंगळुरूके पूर्वकी ओर ६५ मीलकी दूरीपर अंबुर नामक स्थानपर वे पहुंचे । अंबुर थाना मराठोंके अधिकारमें था तथा वहां बाजी काकडे नामक मराठा सरदारका पडाव था । उसे महाराजके आगमनका समाचार प्राप्त होते ही दर्शन हेतु वह त्वरित आया एवं उसने महाराजका यथोचित आदरके साथ सम्मान कर उनका गुप्तवास समाप्त किया । अब महाराज प्रकट रूपसे अपनी सेनासह अंबुरसे वेलोरकी ओर निकले । वेलोरका किला भी मराठोंके अधीन था । २८.१०.१६८९ को महाराज वेलोर पहुंचे । पन्हाळगढसे वेलोरतकका अंतर काटनेके लिए उन्हें लगभग ३३ दिन लगे । वेलोरके निवासमें कर्नाटकके कुछ सरदार अपनी सेनाके साथ उन्हें आकर मिले । वास्तवमें अंबुरसे सीधे दक्खनस्थित जिंजीकी ओर उन्हें जाना चाहिए था; परंतु जिंजीकी ओर जानेमें उनके सामने एक अडचन उपस्थित हुई थी ।
 

१३. जिंजी किला अर्थात कर्र्नाटकके मराठी राज्यका प्रमुख केंद्र

        स्वयं शिवाजी महाराजने इस किलेको जीतकर उसे अभेद्य बनाया था । भविष्यमें महाराष्ट्रके किसी भी मराठी राजाको संकटका सामना करना पडा, तो उसे वहां आश्रय लेना सहज संभव होगा, ऐसी उनकी दूरदृष्टि थी । औरंगजेबके संकटके विषयमें शिवछत्रपति पूर्णतः परिचित थे । भविष्यवाणी की गई थी ठीक उसीके अनुसार ही घटना घटी । औरंगजेबने दक्खनकी ओर आक्रमण किया । मराठी राजा संकटमें पडा । तब जिंजी किला सहायताके लिए आया ।

१४. सौतेली बहनका राजाराम महाराजको प्रतिकार करनेका अविचार

        संभाजीराजाके समय हरजीराजे महाडीक कर्नाटकमें मराठोंके प्रमुख सुभेदार था । कुछ समय पहले ही उनका देहांत हुआ था । उसकी पत्नि, अर्थात् राजाराम महाराजकी सौतेली बहन । हरजीराजाके पश्चात स्वतंत्र होनेका उसका षडयंत्र चल रहा था । उसने जिंजीचा किला साधनसंपत्तिके साथ अपने अधिकारमें लिया था । अब उसने महाराजको प्रतिकार करनेका निश्चय किया एवं वैसी सिद्धता आरंभ की । ‘किला हमारे स्वाधीन करें’, महाराजके इस संदेशको उसने ठुकरा दिया । इतना ही नहीं, तो उन्हें सैनिकी प्रतिकार करने हेतु स्वयं सेना लेकर जिंजीसे बाहर निकलीr; किंतु कुछ अंतर जानेके पश्चात उसकी ही सेनाके अधिकारीयोंने उसे इस अविचारसे परावृत्त किया । अंतमें अपना पक्ष दुर्बल हुआ है, यह देखकर विवश होकर वह किलेमें लौटी । जिंजीमें मराठोंने राजाराम महाराजके पक्षका समर्थन किया । अंतमें अंबिकाबाईको अपने भाईका सम्मान करनेके लिए जिंजीका द्वार खोलना पडा । नवंबर १६८९ के पहले सप्ताहमें राजाराम महाराज अपने सहकारीयोंके साथ जिंजी किलेमें पहुंचे । इस प्रकार जिंजीकी यात्राका अंत सुखदायी हुआ ।
 

१५. जिंजीमें मराठा राज्यके नए पर्वका आरंभ

        मराठा लोगोंद्वारा कर्नाटक एवं जिंजीमें राजाराम महाराजका अधिक उत्साहके साथ स्वागत होनेके कारण मद्रास किनारपट्टीके राजनैतिक वातावरणमें परिवर्तन होने लगा । नए मराठा राजाने जिंजीमें अपनी नई राजधानी स्थापित की । राजसभा सिद्ध हुई । मराठा राज्यके नए पर्वका आरंभ हुआ ।
 

१६. मराठोंका मुघलोंके साथ कडा संघर्ष होना और 

तत्पश्चात महाराजने महाराष्ट्रमें आकर मुघलोंके विरुद्ध बडी धूम मचाना

        आगे चलकर औरंगजेबने जिंजीको अधिकारमें लेकर राजाराम महाराजको बंदी बनाने हेतु जुल्फिकार खानको भेज दिया । इसवी सन १६९० में खानने जिंजीको घेरा डाला, जो ८ वर्षतक जारी रहा । उस कालावधिमें रामचंद्र पंडित, शंकराजी नारायण, संताजी, धनाजी प्रभृतियोंने राजाराम महाराजके नेतृत्वमें मुघलोंके साथ कडा संघर्ष किया । संताजी-धनाजीने इसी कालावधिमें कुटनितिसे लडकर मुघलोंको त्रस्त किया । नाशिकसे जिंजीतक मराठी सेना सभी ओर संचार करने लगी । अंतमें सन १६९७ को यद्यपि जुल्फिकार खानने जिंजीको जीत लिया; उसके पहले ही महाराज किलेसे निकल गए । महाराष्ट्रमें आकर उन्होंने मुघलोके विरूद्ध बडी धूम मचा दी । शत्रुके प्रदेशमें आक्रमण करते समय ही उनके स्वास्थ्यने उनको धोखा दिया एवं सिंहगढपर फागुन कृ. नवमी, शके १६२१ को उनका निधन हुआ ।’

महाराजा भोज - एक विश्ववंदनीय शासक एवं माँ सरस्वती के वरदपुत्र


Maharaja Bhoj

१. माँ सरस्वती के वरदपुत्र ‘महाराजा भोज’

        परमार वंश के सबसे महान अधिपति महाराजा भोज ने धार में १००० ईसवीं से १०५५ ईसवीं तक शासन किया, जिससे कि यहाँ की कीर्ति दूर-दूर तक पहुँची। विश्ववंदनीय महाराजा भोज माँ सरस्वती के वरदपुत्र थे! उनकी तपोभूमि धारा नगरी में उनकी तपस्या और साधना से प्रसन्न हो कर माँ सरस्वती ने स्वयं प्रकट हो कर दर्शन दिए। माँ से साक्षात्कार के पश्चात उसी दिव्य स्वरूप को माँ वाग्देवी की प्रतिमा के रूप में अवतरित कर भोजशाला में स्थापित करवाया।राजा भोज ने धार, माण्डव तथा उज्जैन में सरस्वतीकण्ठभरण नामक भवन बनवाये थे। भोज के समय ही मनोहर वाग्देवी की प्रतिमा संवत् १०९१ (ई. सन् १०३४) में बनवाई गई थी। गुलामी के दिनों में इस मूर्ति को अंग्रेज शासक लंदन ले गए। यह आज भी वहां के संग्रहालय में बंदी है।

२. महान शासक

        महाराजा भोज मुंज के छोटे भाई सिंधुराज का पुत्र थे। रोहक उनके प्रधान मंत्री और भुवनपाल मंत्री थे। कुलचंद्र, साढ़ तथा तरादित्य इनके सेनापति थे जिनकी सहायता से भोज ने राज्यसंचालन सुचारु रूप से किया। अपने चाचा मुंज की ही भाँति वे भी पश्चिमी भारत में एक साम्राज्य स्थापित करना चाहता थे और इस इच्छा की पूर्ति के लिये इसे अपने पड़ोसी राज्यों से हर दिशा में युद्ध करना पड़ा। उन्होंने दाहल के कलबुरी गांगेयदेव तथा तंजौर (तंच्यावूर) के राजेंद्रचोल से संधि की ओर साथ ही साथ दक्षिण पर आक्रमण भी कर दिया, परंतु तत्कालीन राजा चालुक्य जयसिंह द्वितीय ने बहादुरी से सामना किया और अपना राज्य बचा लिया। सन् १०४४ ई. के कुछ समय बाद जयसिंह के पुत्र सोमेश्वर द्वितीय ने परमारों से फिर शत्रुता कर ली और मालव राज्य पर आक्रमण कर भोज को भागने के लिये बाध्य कर दिय। धारानगरी पर अधिकार कर लेने के बाद उसने आग लगा दी, परंतु कुछ ही दिनों बाद सोमेश्वर ने मालव छोड़ दिया और भोज ने राजधानी में लोटकर फिर सत्ताधिकार प्राप्त कर लिया।
        सन् १०१८ ई. के कुछ ही पहले भोज ने इंद्ररथ नामक एक व्यक्ति को, हराया था जो संभवत: कलिंगके गांग राजाओं का सामंत था। जयसिंह द्वितीय तथा इंद्ररथ के साथ युद्ध समाप्त कर लेने पर भोज ने अपनी सेना भारत की पश्चिमी सीमा से लगे हुए देशों की ओर बढ़ाई और पहले लाट नामक राज्य पर, जिसका विस्तार दक्षिण में बंबई राज्य के अंतर्गत सूरत तक था, आक्रमण कर दिया। वहाँ के राजा चालुक्य कीर्तिराज ने आत्मसमर्पण कर दिया और भोज ने कुछ समय तक उसपर अधिकार रखा। इसके बाद लगभग सन् १०२० ई. में भोज ने लाट के दक्षिण में स्थित तथा थाना जिले से लेकर मालागार समुद्रतट तक विस्तृत कोंकण पर आक्रमण किया और शिलाहारों के अरिकेशरी नामक राजा को हराया। कोंकण को परमारों के राज्य में मिला लिया गया। महाराजा भोज के प्रराक्रम के कारण ही मेहमूद गजनवी ने कभी महराजा भोज के राज्य पर आक्रमण नहीं किया! तथा सोमनाथ विजय के पश्चात तलवार के बल पर बनाये गए मुसलमानों को पुन: हिन्दू धर्म में वापस ला कर महान काम किया!
        भोज ने एक बार दाहल के कलचुरी गांगेयदेव के विरुद्ध भी, जिसने दक्षिण पर आक्रमण करने के समय उसका साथ दिया था, चढ़ाई कर दी। गांगेयदेव हार गया परंतु उसे आत्मसमर्पण नहीं करना पड़ा। सन् १०५५ ई. के कुछ ही पहले गांगेय के पुत्र कर्ण ने गुजरात के चौलुक्य भीम प्रथम के साथ एक संधि कर ली और मालव पर पूर्व तथा पश्चिम की ओर से आक्रमण कर दिया। भोज अपना राज्य बचाने का प्रबंध कर ही रहे थे कि बीमारी से उसकी आकस्मिक मृत्यु हो गई और राज्य सुगमता से आक्रमणकारियों के अधिकार में चला गया।

३. अनोखा काव्यरसिक - महाराजा भोज

Bhoj Shala
       माँ सरस्वती की कृपा से महाराजा भोज ने ६४ प्रकार की सिद्ध्या प्राप्त की तथा अपने यूग के सभी ज्ञात विषयो पर ८४ ग्रन्थ लिखे जिसमे धर्म, ज्योतिष्य आयर्वेद, व्याकरण, वास्तुशिल्प, विज्ञान, कला, नाट्यशास्त्र, संगीत, योगशास्त्र, दर्शन, राजनीतीशास्त्र आदि प्रमुख है! 'समरांगण सूत्रधार', 'सरस्वती कंठाभरण', 'सिद्वान्त संग्रह', 'राजकार्तड', 'योग्यसूत्रवृत्ति', 'विद्या विनोद', 'युक्ति कल्पतरु', 'चारु चर्चा', 'आदित्य प्रताप सिद्धान्त', 'आयुर्वेद सर्वस्व श्रृंगार प्रकाश', 'प्राकृत व्याकरण', 'कूर्मशतक', 'श्रृंगार मंजरी', 'भोजचम्पू', 'कृत्यकल्पतरु', 'तत्वप्रकाश', 'शब्दानुशासन', 'राज्मृडाड' आदि की रचना की। "भोज प्रबंधनम्" उनकी आत्मकथा है।
       हनुमान जी द्वारा रचित राम कथा के शिलालेख समुन्द्र से निकलवा कर धारा नगरी में उनकी पुनर्रचना करवाई जो हनुमान्नाटक के रूप में विश्वविख्यात है! तत्पश्चात उन्होंने चम्पू रामायण की रचना की जो अपने गद्यकाव्य के लिए विख्यात है!
        चम्पू रामायण महर्षि वाल्मीकि के द्वारा रचित रामायण के बाद सबसे तथ्य परख महाग्रंथ है! महाराजा भोज वास्तु शास्त्र के जनक माने जाते है! समरान्गंसुत्रधार ग्रन्थ वास्तु शास्त्र का सबसे प्रथम ज्ञात ग्रन्थ है! वे अत्यंत ज्ञानी, भाषाविद् , कवि और कलापारखी भी थे। उनके समय में कवियों को राज्य से आश्रय मिला था। सरस्वतीकंठाभरण उनकी प्रसिद्ध रचना है। इसके अलावा अनेक संस्कृत ग्रंथों, नाटकों, काव्यों और लोक कथाओं में राजा भोज का अमिट स्थान है। ऐसे महान थे राजा भोज कि उनके शासन काल में धारानगरी कलाओं और ज्ञान के लिए सारे विश्व में प्रसिद्ध हो गई थी।
        महाराजा भोज की काव्यात्मक ललित अभिरुचि, सूक्ष्म व वैज्ञानिक दृष्टि उन्हें दूरदर्शी और लोकप्रिय बनाता रहा। मालवमण्डन, मालवाधीश, मालवचक्रवर्ती, सार्वभौम, अवन्तिनायक, धारेश्वर, त्रिभुवननारायण, रणरंगमल्ल, लोकनारायण, विदर्भराज, अहिरराज या अहीन्द्र, अभिनवार्जुन, कृष्ण आदि कितने विरूदों से भोज विभूषित थे।

४. विश्वविख्यात विद्वान

        आइने-ए-अकबरी में प्राप्त उल्लेखों के अनुसार भोज की राजसभा में पांच सौ विद्वान थे। इन विद्वानों में नौ (नौरत्न) का नाम विशेष रूप से उल्लेखनीय है।
        महाराजा भोज ने अपने ग्रंथो में विमान बनाने की विधि का विस्तृत वर्णन किया है। चित्रो के माध्यम से उन्होंने पूरी विधि बताई है! इसी तरह उन्होंने नाव एवं बड़े जहाज बनाने की विधि विस्तारपूर्वक बताई है। किस तरह खिलो को जंगरोधी किया जाये जिससे नाव को पानी में सुरक्षित रखा जा सकता था! इसके अत्रिरिक्त उन्होंने रोबोटिक्स पर भी कम किया था! उन्होंने धारा नगरी के तालाबो में यन्त्र चालित पुतलियो का निर्माण करवाया था जो तालाब में नृत्य करती थी!
        विश्व के अनेक महाविद्यालयो में महाराज भोज के किये गए कार्यो पर शोध कार्य हो रहा है! उनके लिए यह आश्चर्य का विषय है, की उस समय उन्होंने किस तरह विमान, रोबोटिक्स और वास्तुशास्त्र जेसे जटिल विषयों पर महारत हासिल की थी! वैज्ञानिक आश्चर्य चकित है, जो रोबोटिक्स आज भी अपने प्रारम्भिक दौर में है उस समय कैसे उस विषय पर उन्होंने अपने प्रयोग किये और सफल रहे! महाराजा भोज से संबंधित १०१० से १०५५ ई. तक के कई ताम्रपत्र, शिलालेख और मूर्तिलेख प्राप्त होते हैं। इन सबमें भोज के सांस्कृतिक चेतना का प्रमाण मिलता है। एक ताम्रपत्र के अन्त में लिखा है – स्वहस्तोयं श्रीभोजदेवस्य। अर्थात् यह (ताम्रपत्र) भोजदेव ने अपने हाथों से लिखा और दिया है।

५. अप्रतिम स्थापत्य कला

Hinglajgarh
        राजा भोज के समय मालवा क्षेत्र में निर्माण क्रांति आ गई थी। अनेक प्रसाद, मंदिर, तालाब और प्रतिमाएं निर्मित हुई। मंदसौर में हिंगलाजगढ़ तो तत्कालीन अप्रतिम प्रतिमाओं का अद्वितीय नमूना है। राजा भोज ने शारदा सदन या सरस्वती कण्ठभरण बनवाये। वात्स्यायन ने कामसूत्र में इस बात का उल्लेख किया है कि प्रत्येक नगर में सरस्वती भवन होना चाहिए। वहां गोष्ठियां, नाटक व अन्य साहित्यिक-सांस्कृतिक गतिविधियां होते रहना चाहिए।
Shiv Mandir
        राजा भोज के नाम पर भोपाल के निकट भोजपुर बसा है। यहां का विशाल किन्तु खंडित शिवमंदिर आज भी भोज की रचनाधर्मिता और इस्लामिक जेहाद और विध्वंस के उदाहरण के रूप में खड़ा है। यहीं बेतवा नदी पर एक अनोखा बांध बनवाया गया था। इसका जलक्षेत्र २५० वर्गमील है। इस बांध को भी होशंगशाह नामक आक्रंता ने तोड़ कर झील खाली करवा दी थी। यह मानवनिर्मित सबसे बड़ी झील थी जो सिंचाई के काम आती थी। उसके मध्य जो द्वीप था वह आज भी दीप (मंडीद्वीप) नाम की बस्ती है।
        महाराजा भोज ने जहाँ अधर्म और अन्याय से जमकर लोहा लिया और अनाचारी क्रूर आतताइयों का मानमर्दन किया, वहीं अपने प्रजा वात्सल्य और साहित्य-कला अनुराग से वह पूरी मानवता के आभूषण बन गये। मध्यप्रदेश के सांस्कृतिक गौरव के जो स्मारक हमारे पास हैं, उनमें से अधिकांश राजा भोज की देन हैं। चाहे विश्व प्रसिद्ध भोजपुर मंदिर हो या विश्व भर के शिव भक्तों के श्रद्धा के केन्द्र उज्जैन स्थित महाकालेश्वर मंदिर, धार की भोजशाला हो या भोपाल का विशाल तालाब, ये सभी राजा भोज के सृजनशील व्यक्तित्व की देन है। उन्होंने जहाँ भोज नगरी (वर्तमान भोपाल) की स्थापना की वहीं धार, उज्जैन और विदिशा जैसी प्रसिद्ध नगरियों को नया स्वरूप दिया। उन्होंने केदारनाथ, रामेश्वरम, सोमनाथ, मुण्डीर आदि मंदिर भी बनवाए, जो हमारी समृद्ध सांस्कृतिक धरोहर है। इन सभी मंदिरों तथा स्मारकों की स्थापत्य कला बेजोड़ है। इसे देखकर सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है कि एक हजार साल पहले हम इस क्षेत्र में कितने समुन्नत थे।
        महाराजा भोज ने अपने जीवन काल में जितने अधिक विषयों पर कार्य किया है, वो अत्यंत ही चकित करने वाला है। इन सभी को देख कर लगता है की वो कोई देव पुरुष थे ! ये सब कम एक जीवन में करना एक सामान्य मनुष्य के बस की बात नहीं है!

अफ्रीका में मिला ६००० साल पुराना शिवलिंग

shiva in Hindu Religion
दक्षिण अफ्रीका की किसी गुफा की खुदाई करते हुए पुरातत्त्वविदों को ग्रेनाइट से बना 6 हजार वर्ष पुराना शिवलिंग मिला है. पुरातत्त्वविद हैरान हैं कि इतने वर्षों तक शिवलिंग जमीन में सुरक्षित रहा और उसे कोई नुकसान नहीं पहुंचा. इससे यह अंदाजा लगाया जा रहा है कि 6 हजार साल पहले दक्षिण अफ्रीका में भी हिंदू धर्म को मानने वाले रहे होंगे या संभव है किसी खास संप्रदाय के लोग भगवान शिव को मानते होंगे. गौरतलब है कि भगवान शिव की सबसे बड़ी मूर्ति भी दक्षिण अफ्रीका में ही है. 10 मजदूरों द्वारा 10 महीनों में बनाई गई इस मूर्ति का अनावरण बेनोनी शहर के एकटोनविले में किया गया है.
Shiva Linga in  South Africaहिंदू धर्म शायद एकमात्र धर्म है जिसमें इतने अधिक देवी-देवता हैं. फिर भी त्रिदेव (ब्रह्मा, विष्णु, महेश) की जो महिमा है वह किसी और देवता की नहीं हो सकती. खासकर हिंदुओं में भगवान शिव की बहुत मान्यता है. शिव की जो महिमा है वह किसी और देव की नहीं. पर क्योंकि यह हिदुओं के भगवान माने जाते हैं और इतिहास में हिंदू हिंदुस्तान की उपज माने गए हैं, इसलिए हिंदुस्तान से बाहर हिंदुओं के कम ही देवस्थल हैं. अभी हाल में दक्षिण अफ्रीका में खुदाई के दौरान भगवान शिव का प्रतीक एक बड़ा शिवलिंग मिला है.
हिंदू धर्म शायद एकमात्र धर्म है जिसमें इतने अधिक देवी-देवता हैं। फिर भी त्रिदेव (ब्रह्मा, विष्णु, महेश) की जो महिमा है वह किसी और देवता की नहीं हो सकती। खासकर हिंदुओं में भगवान शिव की बहुत मान्यता है। शिव की जो महिमा है वह किसी और देव की नहीं। पर क्योंकि यह हिदुओं के भगवान माने जाते हैं और इतिहास में हिंदू हिंदुस्तान की उपज माने गए हैं, इसलिए हिंदुस्तान से बाहर हिंदुओं के कम ही देवस्थल हैं। अभी हाल में दक्षिण अफ्रीका में खुदाई के दौरान भगवान शिव का प्रतीक एक बड़ा शिवलिंग मिला है।

कांग्रेस सरकार और गाँधी परिवार पाकिस्तान से इतना डरती है?









जानिय की क्यों कांग्रेस सरकार और गाँधी परिवार पाकिस्तान के खिलाफ कोई ठोस कदम नहीं उठा पाती है और क्यों भारत सरकार पाकिस्तान से से इतना डरती है?
पाकिस्तान हमारे सैनिको को यु ही मारता रहता है, उनके सर काट कर लेकर चला जाता है और कांग्रेस सरकार कुछ भी ठोस कदम पाकिस्तान के खिलाफ नहीं उठती है।
पाकिस्तान आंतकी हमले हमारे संसद पर करके देश की अस्मिता और स्वाभिमान पर चोट करता है और उन आतंकवादियों को कई सालो तक न्यायालय के द्वारा मृतु दंड देने के बाद भी फांशी नहीं दी जाती है।
बांग्लादेशी घुसपैठिये पुरे पूर्व भारत के लोगो को उनके गावो से भगा कर कब्ज़ा करते जा रहे है फिर भी भारत सरकार चुप रहते है ब्लकि बंगलादेशियो को राशन कार्ड बात रही है।
भारत के हजारो सेना के जवान पाकिस्तानी आतंकियों द्वारा मारे जाते है फिर भी सरकार आतंवादियों को पेंशन देती है।
कश्मीर से 5 लाख हिन्दुओ को उनके ही राज्य से मार कर निकाल दिया जाता है और हजारो कश्मीरी हिन्दुओ को सरेआम हत्या, बलात्कार किया जाता है फिर भी उन हिन्दुओ को वापस कश्मीर में बसने के लिए सरकार कुछ नहीं करती है और उन्हें मरने के लिए छोर देती है। आज ही 5 लाख से ज्यादा कश्मीरी हिन्दू टेंटो में रह रहे है।
पाकिस्तान में हिन्दु कन्याओ का दिन दहारे उनके घर्रो से अपहरण होता है, उनका धर्म परिवर्तन करवाया जाता है हिन्दुओ को मारा जाता है, उनके मंदिर तोर दिए जाते है और भारत सरकार के मुह से उन हिन्दुओ के नरसंहार को रोकने के लिए एक सब्द भी नहीं निकलता है।
तो क्या कारन है की कांग्रेस और गाँधी परिवार पाकिस्तान से इतना डरती है?
उसका सबसे बड़ा कारण है की गाँधी परिवार और कांग्रेस पार्टी के नेताओ का काला धन विदेशो में जमा है और उस काले धन की पूरी जानकारी पाकिस्तान के पास है। पाकिस्तान का ISI भारत सरकार को ब्लैकमेल करते है और कहते है की हमारी बात मानो नहीं तो तुम्हारे बैंक के खातो की जानकारी पाकिस्तानी अखबारों में छाप देंगे और तुम्हारा राजनीतिक जीवन हमेशा के लिए समाप्त जो जायेगा और यही कारन है की कांग्रेस पाकिस्तान के खिलाफ कभी भी कोई भी ठोस कदम नहीं उठती है।
देश के 99% लोगो को इस बात की जानकारी नहीं है! शेयर करे!
अधिक जानकारी के लिए विडियो देखे:


क्या आप जानते है की सोनिया गाँधी का विदेशो में 1 लाख करोड़ (20 Billion डालर) से भी ज्यादा का काला धन जमा है? इस तरह से पि चिदंबरम के अकाउंट में 50,000 करोड़ से ज्यादा काला धन जमा है?
हमारे देश का लूटा हुआ 70 लाख करोड़ से ज्यादा काला धन विदेशो में है अगर यह धन आ जाये तो हमें अगले 10 सालो तक कोई भी टैक्स भरने की जरुरत नहीं!
अधिक जानकारी के लिए निचे दिए गए वीडियोस देखे:
http://www.youtube.com/watch?v=LkF9OnFLLUg (Sonia Gandhi has 1 Lakh Crore Rupees of Black Money - Dr Subramanian Swamy)
http://www.youtube.com/watch?v=_8uqwxE_NFg ( पि चिदंबरम के पास 50,000 करोड़ से ज्यादा का काला धन है)

MODERN WEAPONS OF USA,RUSSIA,CHINA,INDIA

                                              USA POWER RUSSIAN POWER- CHINA'S POWER- INDIA'S AIRPOWER- AND ASTEROID RESPONSE ABOVE ALL ABOVE-

Saturday, June 14, 2014

Campa Cola Compund - OF ISLAMIST YUSUF PATEL, DARINDA

Campa Cola Compund
Photo: Campa Cola Compund 

What is the fault of the people staying there ??

The Builder, Yusuf Patel a underworld mafia, posed himself as a builder and violated the FSI rules, BMC levied penalty for such violations, and the families who had purchased such apts took the possession of the same !! 

BMC didn't stop them from taking he possession stating that the construction is in the violation of the norms !! BMC collected annual charges of said property from the each flat owner's !!

Instead of punishing the erring builders,officers ( who allowed such constructions) and Politicians of the day, why BMC wants to punish the innocent residents, for no fault of theirs !! 

Builder Yusuf Patel >> 

One of the shrewdest real estate dons in the Mumbai underworld, Yusuf Patel had mastered the art of creating construction space out of thin air. While slumlords extended their empire horizontally, Patel has the dubious distinction of pioneering the acquisition of illegal Floor Space Index (FSI), to send his buildings skyrocketing into space.

While most of the gangs were providing protection to the slumlords, Patel went one step ahead and performed the feat of grabbing additional FSI illegally. The art has, since, been perfected by other dons and even builders.

Patel's FSI scam was perpetrated so subtly that it took the civic authorities 16 long years to find out that the don had tampered with land records.

Born Abdul Majid Abdul Patel, a Memon Muslim, he got involved in smuggling textiles and silver with Haji Mastan around 1963. However, the alliance did not last long because of financial disputes with the syndicate.

In 1977, Janta Dal leader Jai Prakash Narayan offered amnesty to all smugglers. Patel jumped on to the bandwagon and everybody in the underworld thought he had shunned the life of a criminal, that the docks and the goons were things of the past for him. 

While others forgot his dubious past, Patel launched his own construction company and began operating from Pydhonie

Everything seemed normal on the surface until an upright BMC official discovered that a large number of land records from several ward offices had been tampered with Prima facie, investigating officials discovered that Patel had manipulated the deals of two buildings in Tardeo and three in Byculla. 

They would soon discover that there were 50 other cases of gross manipulation of land records, which were carried out in connivance with civic officials.

By the mid-80s, Dawood Ibrahim had also learnt the art of FSI grabbing. He brought in a team of 'white collar' associates to specialise in tampering with land records and corner the lion's share of income from real estate in South Mumbai.

Patel's keeping away from the docks and goons proved to be a blessing in disguise because when things started to get ugly in the Mumbai underworld, he managed to avoid direct confrontation with Karim Lala's nephew Samad and gangsters owing allegiance to Dawood.

http://www.ndtv.com/article/cities/don-of-the-high-rises-how-yusuf-patel-found-success-41507

http://en.wikipedia.org/wiki/Campa_Cola_Compound
What is the fault of the people staying there ??

The Builder, Yusuf Patel a underworld mafia, posed himself as a builder and violated the FSI rules, BMC levied penalty for such violations, and the families who had purchased such apts took the possession of the same !!

BMC didn't stop them from taking he possession stating that the construction is in the violation of the norms !! BMC collected annual charges of said property from the each flat owner's !!

Instead of punishing the erring builders,officers ( who allowed such constructions) and Politicians of the day, why BMC wants to punish the innocent residents, for no fault of theirs !!

Builder Yusuf Patel >>

One of the shrewdest real estate dons in the Mumbai underworld, Yusuf Patel had mastered the art of creating construction space out of thin air. While slumlords extended their empire horizontally, Patel has the dubious distinction of pioneering the acquisition of illegal Floor Space Index (FSI), to send his buildings skyrocketing into space.

While most of the gangs were providing protection to the slumlords, Patel went one step ahead and performed the feat of grabbing additional FSI illegally. The art has, since, been perfected by other dons and even builders.

Patel's FSI scam was perpetrated so subtly that it took the civic authorities 16 long years to find out that the don had tampered with land records.

Born Abdul Majid Abdul Patel, a Memon Muslim, he got involved in smuggling textiles and silver with Haji Mastan around 1963. However, the alliance did not last long because of financial disputes with the syndicate.

In 1977, Janta Dal leader Jai Prakash Narayan offered amnesty to all smugglers. Patel jumped on to the bandwagon and everybody in the underworld thought he had shunned the life of a criminal, that the docks and the goons were things of the past for him.

While others forgot his dubious past, Patel launched his own construction company and began operating from Pydhonie

Everything seemed normal on the surface until an upright BMC official discovered that a large number of land records from several ward offices had been tampered with Prima facie, investigating officials discovered that Patel had manipulated the deals of two buildings in Tardeo and three in Byculla.

They would soon discover that there were 50 other cases of gross manipulation of land records, which were carried out in connivance with civic officials.

By the mid-80s, Dawood Ibrahim had also learnt the art of FSI grabbing. He brought in a team of 'white collar' associates to specialise in tampering with land records and corner the lion's share of income from real estate in South Mumbai.

Patel's keeping away from the docks and goons proved to be a blessing in disguise because when things started to get ugly in the Mumbai underworld, he managed to avoid direct confrontation with Karim Lala's nephew Samad and gangsters owing allegiance to Dawood.

http://www.ndtv.com/article/cities/don-of-the-high-rises-how-yusuf-patel-found-success-41507

http://en.wikipedia.org/wiki/Campa_Cola_Compound