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Wednesday, September 24, 2014

sanskrit language and Tamil

तमिलनाडु के राजनेता सुर्ख़ियों -कारण केंद्रीय माध्यमिक शिक्षा बोर्ड द्वारा संस्कृत सप्ताह बनाने का निश्चय किया गया तो वहां के विपक्ष के नेता से लेकर मुख्य मंत्री जयललिता तक ने इस आदेश को तमिल भाषियों पर जबरन थोपने के जैसा फैसला बताया। उनका कहना था की तमिल भाषा एक स्वतंत्र भाषा हैं एवं उसका संस्कृत से कोई सम्बन्ध नहीं हैं। संस्कृत आर्यों की भाषा हैं जिसे द्रविड़ों पर थोपा जा रहा हैं।

वैसे देखा जाये तो तमिलनाडु के नेताओं को जब वहां पर रहने वाले हिंदी भाषी लोगो के वोट चाहिए होते हैं तब वे हिंदी का प्रयोग करने से पीछे नहीं हटते, मगर जब सुर्ख़ियों में स्थान पाना हो तो 1960 के दशक के पेरियार युग के अंग्रेजों द्वारा थोपी गई विभाजनकारी मानसिकता को पुनर्जीवित करने में उन्हें किसी भी प्रकार से परहेज नहीं हैं।तमिल राजनेता हिंदी/संस्कृत का विदेशी भाषा कहकर विरोध करते हैं और अंग्रेजी का समर्थन करते हैं। क्या अंग्रेजी भाषा की उत्पत्ति तमिलनाडु के किसी गाँव में हुई थी ? इस शंका के समाधान के लिए हमें तमिलनाडु के इतिहास को जानना होगा। रोबर्ट कालद्वेल्ल (Robert Caldwell -1814 -1891 ) के नाम से ईसाई मिश्नरी को इस मतभेद का जनक माना जाता हैं। रोबर्ट कालद्वेल्ल ने भारत आकर तमिल भाषा पर व्याप्त अधिकार कर किया और उनकी पुस्तक A Comparative Grammar of the Dravidian or South Indian Family of Languages, Harrison: London, 1856 में प्रकाशित हुई थी। इस पुस्तक का उद्देश्य तमिलनाडु का गैर ब्राह्मण जनता को ब्राह्मण विरोधी,संस्कृत विरोधी, हिन्दू विरोधी, वेद विरोधी एवं उत्तर भारतीय विरोधी बनाना था जिससे उन्हें भड़का कर आसानी से ईसाई मत में परिवर्तित किया जा सके और इस कार्य में रोबर्ट कालद्वेल्ल को सफलता भी मिली। पूर्व मुख्य मंत्री करूणानिधि के अनुसार इस पुस्तक में लिखा हैं की संस्कृत भाषा के 20 शब्द तमिल भाषा में पहले से ही मिलते हैं जिससे यह सिद्ध होता हैं की तमिल भाषा संस्कृत से पहले विद्यमान थी। तमिलनाडु की राजनीती ब्राह्मण और गैर-ब्राह्मण धुरों पर लड़ी जाती रही हैं। इसीलिए इस पुस्तक को आधार बनाकर हिंदी विरोधी आंदोलन चलाये गए। विडंबना की भाई भाई में भेद डालने वाले रोबर्ट कालद्वेल्ल की मूर्ति को मद्रास के मरीना बीच पर स्थापित किया गया हैं एवं उसकी स्मृति में इसी वर्ष डाक टिकट भी जारी किया गया हैं।
जहाँ तक तमिल और संस्कृत भाषा में सम्बन्ध का प्रश्न हैं तो संस्कृत और तमिल में वैसा ही सम्बन्ध हैं जैसा संस्कृत और विश्व की अन्य भाषाओँ का हैं। संस्कृत जैसे विश्व की अन्य भाषाओँ की जननी हैं वैसे ही तमिल की भी जननी हैं। क्यूंकि न केवल आधुनिक तमिल ग्रंथों में, प्रत्युत पुरातन ग्रंथों में जो तमिल कवितायेँ पाई जाती हैं उनमें बहुत से संस्कृत के शब्द प्रयुक्त किये गए हैं। तमिल की बोलचाल की भाषा तो संस्कृत-शब्दों से भरी पड़ी हैं। कम्ब रामायण में भी अपभ्रंश रूप से अनेक संस्कृत शब्द मिल जायेंगे। तमिल भाषा की लिपि में अक्षर कम होने के कारण संस्कृत के शब्द स्पष्ट रूप से नहीं लिखे जाते। इसलिए अलग लिपि बन गई।
तमिल स्वयं शिक्षक से तमिल, संस्कृत, हिंदी के कुछ शब्दों में समानता
तमिल संस्कृत हिंदी

1. वार्ते वार्ता बात
2. ग्रामम् ग्राम: गांव
3. जलम् जलम् जल
4. दूरम् दूरम् दूर
5. मात्रम् मात्रम् मात्र
6. शीग्रम शीघ्रम शीघ्र
7. समाचारम समाचार: समाचार
इस प्रकार के अनेक उदहारण तमिल, संस्कृत और हिंदी में तमिल स्वयं शिक्षक से समानता के दिए जा सकते हैं। इसी प्रकार से "तमिल लैक्सिकान" के नाम से तमिल के प्रामाणिक कोष को देखने से भी यही ज्ञात होता हैं की तमिल भाषा में संस्कृत के अनेक शब्द विद्यमान हैं। तमिल वेद के नाम से प्रसिद्द त्रिक्कुरल , संत तिरुवल्लुवार द्वारा प्रणीत ग्रन्थ के हिंदी संस्करण की भूमिका में माननीय चक्रबर्ती राजगोपालाचारी लिखते हैं की इस पुस्तक को पढ़कर उत्तर भारतवासी जानेंगे की उत्तरी सभ्यता और संस्कृति का तमिल जाति से कितना घनिष्ठ सम्बन्ध और तादात्म्य हैं। इस ग्रन्थ में अनेक वाक्य वेदों के उपदेश का स्पष्ट अनुवाद प्रतीत होते हैं। इस लेख का विषय अत्यंत गंभीर परन्तु शुष्क हैं इसलिए विस्तार भय से संक्षिप्त ही देने का प्रयास किया हैं। इस विषय पर अधिक प्रकाश के लिए पंडित धर्मदेव विद्यामार्तंड द्वारा रचित वेदों का यथार्थ स्वरुप, Sanskrit-The Mother of all World Languages जैसी पुस्तकों को पढ़ना चाहिए। संस्कृत को विश्व की समस्तभाषाओँ की जननी सिद्ध करने के लिए पंडित जी द्वारा आरम्भ किये कार्य को आगे बढ़ाने की आवश्यकता हैं। फुट डालो और राज करो की विभाजनकारी मानसिकता का प्रतिउत्तर सम्पूर्ण देश को हिंदी भाषा के सूत्र से जोड़ना ही हैं और यही स्वामी दयानंद की मनोकामना थी। आर्यसमाज को भाषा वैज्ञानिकों की सहायता से रोबर्ट कालद्वेल्ल की पुस्तक की तर्कपूर्ण समीक्षा छपवा कर उसे तमिलनाडु में प्रचारित करवाना चाहिए। ऐसा मेरा व्यक्तिगत मानना हैं।


Why Sanskrit is the Divine Mother Language of all World?

The phonology (the speech sound) and morphology (the science of word formation) of the Sanskrit language is entirely different from all of the languages of the world. Some of the unique features of Sanskrit are:
1. The sound of each of the 36 consonants and the 16 vowels of Sanskrit are fixed and precise since the very beginning. They were never changed, altered, improved or modified. All the words of the Sanskrit language always had the same pronunciation as they have today. There was no ‘sound shift,’ no change in the vowel system, and no addition was ever made in the grammar of the Sanskrit in relation to the formation of the words. The reason is its absolute perfection by its own nature and formation, because it was the first language of the world.
2. The morphology of word formation is unique and of its own kind where a word is formed from a tiny seed root (called dhatu) in a precise grammatical order which has been the same since the very beginning. Any number of desired words could be created through its root words and the prefix and suffix system as detailed in the Ashtadhyayi of Panini. Furthermore, 90 forms of each verb and 21 forms of each noun or pronoun could be formed that could be used in any situation.
3. There has never been any kind, class or nature of change in the science of Sanskrit grammar as seen in other languages of the world as they passed through one stage to another.
4. The perfect form of the Vedic Sanskrit language had already existed thousands of years earlier even before the infancy of the earliest prime languages of the world like Greek, Hebrew and Latin etc.
5. When a language is spoken by unqualified people the pronunciation of the word changes to some extent; and when these words travel by word of mouth to another region of the land, with the gap of some generations, it permanently changes its form and shape to some extent. Just like the Sanskrit word matri, with a long ‘a’ and soft ‘t,’ became mater in Greek and mother in English. The last two words are called the ‘apbhransh’ of the original Sanskrit word ‘matri.’ Such apbhranshas of Sanskrit words are found in all the languages of the world and this situation itself proves that Sanskrit was the mother language of the world.
Considering all the five points as explained above, it is quite evident that Sanskrit is the source of all the languages of the world and not a derivation of any language. As such, Sanskrit is the Divine mother language of the world.
-FROM VEDIC TRUTH