Friday, July 29, 2016

अरब देशों में होती थी देवों के देव महादेव की पूजा

राक का एक पुस्तक है जिसे इराकी सरकार ने खुद छपवाया था। इस किताब में 622 ई से पहले के अरब जगत का जिक्र है। आपको बता दें कि ईस्लाम धर्म की स्थापना इसी साल हुई थी। किताब में बताया गया है कि मक्का में पहले शिवजी का एक विशाल मंदिर था जिसके अंदर एक शिवलिंग थी जो आज भी मक्का के काबा में एक काले पत्थर के रूप में मौजूद है। पुस्तक में लिखा है कि मंदिर में कविता पाठ और भजन हुआ करता था।  

 

 

 

प्राचीन अरबी काव्य संग्रह गंथ ‘सेअरूल-ओकुल’ के 257वें पृष्ठ पर हजरतमोहम्मद से 2300 वर्ष पूर्व एवं ईसा मसीह से 1800 वर्ष पूर्व पैदा हुए लबी-बिन-ए-अरव्तब-बिन-ए-तुरफा ने अपनी सुप्रसिद्ध कविता में भारत भूमि एवं वेदों को जो सम्मान दिया है, वह इस प्रकार है-

 

“अया मुबारेकल अरज मुशैये नोंहा मिनार हिंदे।

 

व अरादकल्लाह मज्जोनज्जे जिकरतुन।1।

 

वह लवज्जलीयतुन ऐनाने सहबी अरवे अतुन जिकरा।

 

वहाजेही योनज्जेलुर्ररसूल मिनल हिंदतुन।2।

 

यकूलूनल्लाहः या अहलल अरज आलमीन फुल्लहुम।

 

फत्तेबेऊ जिकरतुल वेद हुक्कुन मालन योनज्वेलतुन।3।

 

वहोबा आलमुस्साम वल यजुरमिनल्लाहे तनजीलन।

 

फऐ नोमा या अरवीयो मुत्तवअन योवसीरीयोनजातुन।4।

 

जइसनैन हुमारिक अतर नासेहीन का-अ-खुबातुन।

 

व असनात अलाऊढ़न व होवा मश-ए-रतुन।5।”

 

अर्थात-(1) हे भारत की पुण्य भूमि (मिनार हिंदे) तू धन्य है, क्योंकि ईश्वर ने अपने ज्ञान के लिए तुझको चुना। (2) वह ईश्वर का ज्ञान प्रकाश, जो चार प्रकाश स्तम्भों के सदृश्य सम्पूर्ण जगत् को प्रकाशित करता है, यह भारतवर्ष (हिंद तुन) में ऋषियों द्वारा चार रूप में प्रकट हुआ। (3) और परमात्मा समस्त संसार के मनुष्यों को आज्ञा देता है कि वेद, जो मेरे ज्ञान है, इनकेअनुसार आचरण करो।(4) वह ज्ञान के भण्डार साम और यजुर है, जो ईश्वर ने प्रदान किये। इसलिए, हे मेरे भाइयों! इनको मानो, क्योंकि ये हमें मोक्ष का मार्ग बताते है।(5) और दो उनमें से रिक्, अतर (ऋग्वेद, अथर्ववेद) जो हमें भ्रातृत्व की शिक्षा देते है, और जो इनकी शरण में आ गया, वह कभी अन्धकार को प्राप्त नहीं होता।

 

इस्लाम मजहब के प्रवर्तक मोहम्मद स्वयं भी वैदिक परिवार में हिन्दू के रूप में जन्में थे, और जब उन्होंने अपने हिन्दू परिवार की परम्परा और वंश से संबंध तोड़ने और स्वयं को पैगम्बर घोषित करना निश्चित किया, तब संयुक्त हिन्दू परिवार छिन्न-भिन्न हो गया और काबा में स्थित महाकाय शिवलिंग (संगेअस्वद) के रक्षार्थ हुए युद्ध में पैगम्बर मोहम्मद के चाचाउमर-बिन-ए-हश्शाम को भी अपने प्राण गंवाने पड़े। उमर-बिन-ए-हश्शाम का अरबमें एवं केन्द्र काबा (मक्का) में इतना अधिक सम्मान होता था कि सम्पूर्ण अरबी समाज, जो कि भगवान शिव के भक्त थे एवं वेदों के उत्सुक गायक तथा हिन्दू देवी-देवताओं के अनन्य उपासक थे, उन्हें अबुल हाकम अर्थात ‘ज्ञान का पिता’ कहते थे। बाद में मोहम्मद के नये सम्प्रदाय ने उन्हें ईर्ष्यावश अबुलजिहाल ‘अज्ञान का पिता’ कहकर उनकी निन्दा की।

 

जब मोहम्मद ने मक्का पर आक्रमण किया, उस समय वहाँ बृहस्पति, मंगल, अश्विनीकुमार, गरूड़, नृसिंह की मूर्तियाँ प्रतिष्ठित थी। साथ ही एक मूर्ति वहाँ विश्वविजेता महाराजा बलि की भी थी, और दानी होने की प्रसिद्धि से उसका एक हाथ सोने का बना था। ‘Holul’ के नाम से अभिहित यह मूर्ति वहां इब्राहम और इस्माइल की मूर्त्तियों के बराबर रखी थी। मोहम्मद ने उन सब मूर्त्तियों को तोड़कर वहां बने कुएं में फेंक दिया, किन्तु तोड़े गये शिवलिंग का एक टुकडा आज भी काबा में सम्मानपूर्वक न केवल प्रतिष्ठित है, वरन् हज करने जाने वाले मुसलमान उस काले (अश्वेत) प्रस्तर खण्ड अर्थात ‘संगे अस्वद’ को आदर मान देते हुए चूमते है।

 

प्राचीन अरबों ने सिन्ध को सिन्ध ही कहा तथा भारतवर्ष के अन्य प्रदेशों को हिन्द निश्चित किया। सिन्ध से हिन्द होने की बात बहुत ही अवैज्ञानिक है। इस्लाम मत के प्रवर्तक मोहम्मद के पैदा होने से 2300 वर्ष पूर्व यानि लगभग 1800 ईश्वी पूर्व भी अरब में हिंद एवं हिंदू शब्द का व्यवहार ज्यों कात्यों आज ही के अर्थ में प्रयुक्त होता था।

 

अरब की प्राचीन समृद्ध संस्कृति वैदिक थी तथा उस समय ज्ञान-विज्ञान, कला-कौशल, धर्म-संस्कृति आदि में भारत (हिंद) के साथ उसके प्रगाढ़ संबंध थे। हिंद नाम अरबों को इतना प्यारा लगा कि उन्होंने उस देश के नाम पर अपनी स्त्रियों एवं बच्चों के नाम भी हिंद पर रखे।

 

अरबी काव्य संग्रह ग्रंथ ‘ से अरूल-ओकुल’ के 253वें पृष्ठ पर हजरत मोहम्मद के चाचा उमर-बिन-ए-हश्शाम की कविता है जिसमें उन्होंने हिन्दे यौमन एवं गबुल हिन्दू का प्रयोग बड़े आदर से किया है। ‘उमर-बिन-ए-हश्शाम’ की कविता नई दिल्ली स्थित मन्दिर मार्ग पर श्री लक्ष्मीनारायण मन्दिर (बिड़लामन्दिर) की वाटिका में यज्ञशाला के लाल पत्थर के स्तम्भ (खम्बे) पर कालीस्याही से लिखी हुई है, जो इस प्रकार है -

 

” कफविनक जिकरा मिन उलुमिन तब असेक ।

 

कलुवन अमातातुल हवा व तजक्करू ।1।

 

न तज खेरोहा उड़न एललवदए लिलवरा ।

 

वलुकएने जातल्लाहे औम असेरू ।2।

 

व अहालोलहा अजहू अरानीमन महादेव ओ ।

 

मनोजेल इलमुद्दीन मीनहुम व सयत्तरू ।3।

 

व सहबी वे याम फीम कामिल हिन्दे यौमन ।

 

व यकुलून न लातहजन फइन्नक तवज्जरू ।4।

 

मअस्सयरे अरव्लाकन हसनन कुल्लहूम ।

 

नजुमुन अजा अत सुम्मा गबुल हिन्दू ।5।

 

अर्थात् –(1) वह मनुष्य, जिसने सारा जीवन पाप व अधर्म में बिताया हो, काम, क्रोध में अपने यौवन को नष्ट किया हो। (2) यदि अन्त में उसको पश्चाताप हो, और भलाई की ओर लौटना चाहे, तो क्या उसका कल्याण हो सकता है ? (3) एक बार भी सच्चे हृदय से वह महादेव जी की पूजा करे, तो धर्म-मार्ग में उच्च से उच्चपद को पा सकता है। (4) हे प्रभु ! मेरा समस्त जीवन लेकर केवल एक दिन भारत (हिंद) के निवास का दे दो, क्योंकि वहां पहुंचकर मनुष्य जीवन-मुक्त हो जाता है। (5) वहां की यात्रा से सारे शुभ कर्मो की प्राप्ति होती है, और आदर्शगुरूजनों (गबुल हिन्दू) का सत्संग मिलता है।
अरब देशों में होती थी देवों के देव महादेव की पूजा
Edited By: Himanshu Ranjan 2016-05-05 11:09:32

Thursday, July 28, 2016

गुरुकुल एवं विज्ञान

भारत में ७ लाख ३२ हज़ार गुरुकुल एवं विज्ञान की २० से अधिक शाखाए थी

 भारत में विज्ञान पर इतना शोध किस प्रकार होता था, तो इसके मूल में है भारतीयों की जिज्ञासा एवं तार्किक क्षमता, जो अतिप्राचीन उत्कृष्ट शिक्षा तंत्र एवं अध्यात्मिक मूल्यों की देन है। "गुरुकुल" के बारे में बहुत से लोगों को यह भ्रम है की वहाँ केवल संस्कृत की शिक्षा दी जाती थी जो की गलत है। भारत में विज्ञान की २० से अधिक शाखाएं रही है जो की बहुत पुष्पित पल्लवित रही है जिसमें प्रमुख १. खगोल शास्त्र २. नक्षत्र शास्त्र ३. बर्फ़ बनाने का विज्ञान ४. धातु शास्त्र ५. रसायन शास्त्र ६. स्थापत्य शास्त्र ७. वनस्पति विज्ञान ८. नौका शास्त्र ९. यंत्र विज्ञान आदि इसके अतिरिक्त शौर्य (युद्ध) शिक्षा आदि कलाएँ भी प्रचुरता में रही है। संस्कृत भाषा मुख्यतः माध्यम के रूप में, उपनिषद एवं वेद छात्रों में उच्चचरित्र एवं संस्कार निर्माण हेतु पढ़ाए जाते थे।
थोमस मुनरो सन १८१३ के आसपास मद्रास प्रांत के राज्यपाल थे, उन्होंने अपने कार्य विवरण में लिखा है मद्रास प्रांत (अर्थात आज का पूर्ण आंद्रप्रदेश, पूर्ण तमिलनाडु, पूर्ण केरल एवं कर्णाटक का कुछ भाग ) में ४०० लोगो पर न्यूनतम एक गुरुकुल है। उत्तर भारत (अर्थात आज का पूर्ण पाकिस्तान, पूर्ण पंजाब, पूर्ण हरियाणा, पूर्ण जम्मू कश्मीर, पूर्ण हिमाचल प्रदेश, पूर्ण उत्तर प्रदेश, पूर्ण उत्तराखंड) के सर्वेक्षण के आधार पर जी.डब्लू.लिटनेरने सन १८२२ में लिखा है, उत्तर भारत में २०० लोगो पर न्यूनतम एक गुरुकुल है। माना जाता है की मैक्स मूलर ने भारत की शिक्षा व्यवस्था पर सबसे अधिक शोध किया है, वे लिखते है "भारत के बंगाल प्रांत (अर्थात आज का पूर्ण बिहार, आधा उड़ीसा, पूर्ण पश्चिम बंगाल, आसाम एवं उसके ऊपर के सात प्रदेश) में ८० सहस्त्र (हज़ार) से अधिक गुरुकुल है जो की कई सहस्त्र वर्षों से निर्बाधित रूप से चल रहे है"।
उत्तर भारत एवं दक्षिण भारत के आकडों के कुल पर औसत निकलने से यह ज्ञात होता है की भारत में १८ वी शताब्दी तक ३०० व्यक्तियों पर न्यूनतम एक गुरुकुल था। एक और चौकानें वाला तथ्य यह है की १८ शताब्दी में भारत की जनसंख्या लगभग २० करोड़ थी, ३०० व्यक्तियों पर न्यूनतम एक गुरुकुल के अनुसार भारत में ७ लाख ३२ सहस्त्र गुरुकुल होने चाहिए। अब रोचक बात यह भी है की अंग्रेज प्रत्येक दस वर्ष में भारत में भारत का सर्वेक्षण करवाते थे उसे के अनुसार १८२२ के लगभग भारत में कुल गांवों की संख्या भी लगभग ७ लाख ३२ सहस्त्र थी, अर्थात प्रत्येक गाँव में एक गुरुकुल। १६ से १७ वर्ष भारत में प्रवास करने वाले शिक्षाशास्त्री लुडलो ने भी १८ वी शताब्दी में यहीं लिखा की "भारत में एक भी गाँव ऐसा नहीं जिसमें गुरुकुल नहीं एवं एक भी बालक ऐसा नहीं जो गुरुकुल जाता नहीं"।
राजा की सहायता के अपितु, समाज से पोषित इन्ही गुरुकुलों के कारण १८ शताब्दी तक भारत में साक्षरता ९७% थी, बालक के ५ वर्ष, ५ माह, ५ दिवस के होते ही उसका गुरुकुल में प्रवेश हो जाता था। प्रतिदिन सूर्योदय से सूर्यास्त तक विद्यार्जन का क्रम १४ वर्ष तक चलता था। जब बालक सभी वर्गों के बालको के साथ निशुल्कः २० से अधिक विषयों का अध्यन कर गुरुकुल से निकलता था। तब आत्मनिर्भर, देश एवं समाज सेवा हेतु सक्षम हो जाता था।
इसके उपरांत विशेषज्ञता (पांडित्य) प्राप्त करने हेतु भारत में विभिन्न विषयों वाले जैसे शल्य चिकित्सा, आयुर्वेद, धातु कर्म आदि के विश्वविद्यालय थे, नालंदा एवं तक्षशिला तो २००० वर्ष पूर्व के है परंतु मात्र १५०-१७० वर्ष पूर्व भी भारत में ५००-५२५ के लगभग विश्वविद्यालय थे। थोमस बेबिगटन मैकोले (टी.बी.मैकोले) जिन्हें पहले हमने विराम दिया था जब सन १८३४ आये तो कई वर्षों भारत में यात्राएँ एवं सर्वेक्षण करने के उपरांत समझ गए की अंग्रेजो पहले के आक्रांताओ अर्थात यवनों, मुगलों आदि भारत के राजाओं, संपदाओं एवं धर्म का नाश करने की जो भूल की है, उससे पुण्यभूमि भारत कदापि पददलित नहीं किया जा सकेगा, अपितु संस्कृति, शिक्षा एवं सभ्यता का नाश करे तो इन्हें पराधीन करने का हेतु सिद्ध हो सकता है। इसी कारण "इंडियन एज्यूकेशन एक्ट" बना कर समस्त गुरुकुल बंद करवाए गए। हमारे शासन एवं शिक्षा तंत्र को इसी लक्ष्य से निर्मित किया गया ताकि नकारात्मक विचार, हीनता की भावना, जो विदेशी है वह अच्छा, बिना तर्क किये रटने के बीज आदि बचपन से ही बाल मन में घर कर ले और अंग्रेजो को प्रतिव्यक्ति संस्कृति, शिक्षा एवं सभ्यता का नाश का परिश्रम न करना पड़े।
उस पर से अंग्रेजी कदाचित शिक्षा का माध्यम अंग्रेजी नहीं होती तो इस कुचक्र के पहले अंकुर माता पिता ही पल्लवित होने से रोक लेते परंतु ऐसा हो न सका। हमारे निर्यात कारखाने एवं उत्पाद की कमर तोड़ने हेतु भारत में स्वदेशी वस्तुओं पर अधिकतम कर देना पड़ता था एवं अंग्रेजी वस्तुओं को कर मुक्त कर दिया गया था। कृषकों पर तो ९०% कर लगा कर फसल भी लूट लेते थे एवं "लैंड एक्विजिशन एक्ट" के माध्यम से सहस्त्रो एकड़ भूमि भी उनसे छीन ली जाती थी, अंग्रेजो ने कृषकों के कार्यों में सहायक गौ माता एवं भैसों आदि को काटने हेतु पहली बार कलकत्ता में कसाईघर चालू कर दिया, लाज की बात है वह अभी भी चल रहा है। सत्ता हस्तांतरण के दिवस (१५-८-१९४७ ) के उपरांत तो इस कुचक्र की गोरे अंग्रेजो पर निर्भरता भी समाप्त हो गई, अब तो इसे निर्बाधित रूप से चलने देने के लिए बिना रीढ़ के काले अंग्रेज भी पर्याप्त थे, जिनमें साहस ही नहीं है भारत को उसके पूर्व स्थान पर पहुँचाने का |
"दुर्भाग्य है की भारत में हम अपने श्रेष्ठतम सृजनात्मक पुरुषों को भूल चुके है। इसका कारण विदेशियत का प्रभाव और अपने बारे में हीनता बोध की मानसिक ग्रंथि से देश के बुद्धिमान लोग ग्रस्त है" – डॉ.कलाम, "भारत २०२० : सहस्त्राब्दी"
आप सोच रहे होंगे उस समय अमेरिका यूरोप की क्या स्थिति थी, तो सामान्य बच्चों के लिए सार्वजानिक विद्यालयों की शुरुआत सबसे पहले इंग्लैण्ड में सन १८६८ में हुई थी, उसके बाद बाकी यूरोप अमेरिका में अर्थात जब भारत में प्रत्येक गाँव में एक गुरुकुल था, ९७ % साक्षरता थी तब इंग्लैंड के बच्चों को पढ़ने का अवसर मिला। तो क्या पहले वहाँ विद्यालय नहीं होते थे? होते थे परंतु महलों के भीतर, वहाँ ऐसी मान्यता थी की शिक्षा केवल राजकीय व्यक्तियों को ही देनी चाहिए बाकी सब को तो सेवा करनी है।
Manisha Singh

|| Free e-Library ||
यह ई पुस्तकालय है, जिसमें दर्जनों अमूल्य ग्रंथों के PDF सहेजे गए हैं, ताकि यह अधिक से अधिक लोगों के काम आ सकें, धर्म और राष्ट्र संबंधी विषय पर PDF में अमूल्य पुस्तकें इन लिंक में संग्रहित हैं, आप विषय देखकर लिंक खोलें तो बहुत सी पुस्तकें मिलेंगी, सभी पुस्तकें आप निशुल्क download कर सकते हैं, इन लिंक्स में सैकड़ों किताबें हैं, जो कई पीढ़ियों की मेहनत का फल हैं, इस हिंद महासागर से मोती चुन लें........
Swami Dayananda - स्वामी दयानंद रचित :-
https://drive.google.com/…/0B1giLrdkKjfRZnUxOEpPSVBHVzQ/edit
Aadi Shankaracharya - आद्य शंकराचार्य :-
https://drive.google.com/open…
Sri Aurobindo - श्री अरविंदो :-
https://drive.google.com/open…
Swami Vivekanand - स्वामी विवेकानन्द :-
https://drive.google.com/open…
Swami Ramteerth - स्वामी रामतीर्थ :-
https://drive.google.com/open…
Sitaram Goel - सीताराम गोयल :-
https://drive.google.com/open…
Veer Savarkar - वीर सावरकर :-
https://drive.google.com/open…
Swami Shivanand - स्वामी शिवानंद :-
https://drive.google.com/open…
हिन्दू, राष्ट्र व हिन्दुराष्ट्र :-
https://drive.google.com/…/0B1giLrdkKjfRNW1scHdGMHQzZ0U/edit
Basic Hinduism -
https://drive.google.com/open…
Hindutva and India :-
https://drive.google.com/open…
Islam Postmortem - इस्लाम की जांच पड़ताल :-
https://drive.google.com/open…
Christianity Postmortem - बाइबिल पर पैनी दृष्टि :-
https://drive.google.com/open…
Autobiography - आत्मकथाएं :-
https://drive.google.com/open…
धर्म एवं आध्यात्म -
https://drive.google.com/…/0B1giLrdkKjfRRzViUEdGMnI2Smc/edit
यज्ञ Yajna -
https://drive.google.com/…/0B1giLrdkKjfRUThPYWlldEd6NVE/edit
Brahmcharya - ब्रह्मचर्य :-
https://drive.google.com/open…
Yog - योग :-
https://drive.google.com/open…
Upanishad - उपनिषद :-
https://drive.google.com/…/0B1giLrdkKjfRNDJiQVFDbVFjbGc/edit
Geeta - श्रीमद्भगवद्गीता :-
https://drive.google.com/open…
Manu and pure Manusmriti - महर्षि मनु व शुद्ध मनुस्मृति :-
https://drive.google.com/open…
Valmeeki and Kamba Ramayan - वाल्मीकि व कम्ब रामायण :-
https://drive.google.com/open…
Books on Vedas - वेदों पर किताबें :-
https://drive.google.com/…/0B1giLrdkKjfRSU9OVzBfbENTcDg/edit
Maharshi Dayananda - महर्षि दयानंद समग्र :-
https://drive.google.com/…/0B1giLrdkKjfRN2RzYVdFZWI1a0U/edit
-------------Complete commentaries on Veda - सम्पूर्ण वेद भाष्य --------
Introduction to the Commentary on the 4 Vedas - ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका :-
https://drive.google.com/…/0B1giLrdkKjfRejNEaUo1RERJdFE/edit
RigVeda - ऋग्वेद सम्पूर्ण -
https://drive.google.com/…/0B1giLrdkKjfROXl0b3B0RFpkWEE/edit
YajurVeda - यजुर्वेद सम्पूर्ण -
https://drive.google.com/…/0B1giLrdkKjfRby02cXFWbnQ2b2M/edit
SamaVeda - सामवेद सम्पूर्ण -
https://drive.google.com/…/0B1giLrdkKjfRNnh4ZG5PdUJ2bkU/edit
AtharvaVeda - अथर्ववेद सम्पूर्ण -
https://drive.google.com/…/0B1giLrdkKjfRMFFXcU9waVl4aDQ/edit

Sunday, July 24, 2016

भारत पर इस्लामिक आक्रमण

–भारत पर इस्लामिक आक्रमण——
सन 632 ईस्वी में मौहम्मद की मृत्यु के उपरांत छ: वर्षों के अंदर ही अरबों ने सीरिया,मिस्र,ईरान,इराक,उत्तरी अफ्रीका,स्पेन को जीत लिया था और उनका इस्लामिक साम्राज्य फ़्रांस के लायर नामक स्थान से लेकर भारत के काबुल नदी तक पहुँच गया था,एक दशक के भीतर ही उन्होंने लगभग समूचे मध्य पूर्व का इस्लामीकरण कर दिया था और इस्लाम की जोशीली धारा स्पेन,फ़्रांस में घुसकर यूरोप तक में दस्तक दे रही थी,अब एशिया में चीन और भारतवर्ष ही इससे अछूते थे.
सन 712 ईस्वी में खलीफा के आदेश पर मुहम्मद बिन कासिम के नेत्रत्व में भारत के सिंध राज्य पर हमला किया गया जिसमे सिंध के राजा दाहिर की हार हुई और सिंध पर अरबों का अधिकार हो गया
अरबों ने इसके बाद भारत के भीतरी इलाको में राजस्थान,गुजरात तक हमले किये,पर प्रतिहार राजपूत नागभट और बाप्पा रावल गुहिलौत ने संयुक्त मौर्चा बनाकर अरबों को करारी मात दी,अरबों ने चित्तौड के मौर्य,वल्लभी के मैत्रक,भीनमाल के चावड़ा,साम्भर के चौहान राजपूत, राज्यों पर भी हमले किये मगर उन्हें सफलता नहीं मिली,

दक्षिण के राष्ट्रकूट और चालुक्य शासको ने भी अरबो के विरुद्ध संघर्ष में सहायता की,कुछ समय पश्चात् सिंध पुन: सुमरा और सम्मा राजपूतो के नेत्रत्व में स्वाधीन हो गया और अरबों का राज बहुत थोड़े से क्षेत्र पर रह गया.
किसी मुस्लिम इतिहासकार ने लिखा भी है कि “इस्लाम की जोशीली धारा जो हिन्द को डुबाने आई थी वो सिंध के छोटे से इलाके में एक नाले के रूप में बहने लगी,अरबों की सिंध विजय के कई सौ वर्ष बाद भी न तो यहाँ किसी भारतीय ने इस्लाम धर्म अपनाया है न ही यहाँ कोई अरबी भाषा जानता है”
अरब तो भारत में सफल नहीं हुए पर मध्य एशिया से तुर्क नामक एक नई शक्ति आई जिसने कुछ समय पूर्व ही बौद्ध धर्म छोडकर इस्लाम धर्म ग्रहण किया था,
अल्पतगीन नाम के तुर्क सरदार ने गजनी में राज्य स्थापित किया,फिर उसके दामाद सुबुक्तगीन ने काबुल और जाबुल के हिन्दू शाही जंजुआ राजपूत राजा जयपाल पर हमला किया,
जंजुआ राजपूत वंश भी तोमर वंश की शाखा है और अब अधिकतर पाकिस्तान के पंजाब में मिलते हैं और अब मुस्लिम हैं कुछ थोड़े से हिन्दू जंजुआ राजपूत भारतीय पंजाब में भी मिलते हैं ।
उस समय अधिकांश अफगानिस्तान(उपगणस्तान),और समूचे पंजाब पर जंजुआ शाही राजपूतो का शासन था,
सुबुक्तगीन के बाद उसके पुत्र महमूद गजनवी ने इस्लाम के प्रचार और धन लूटने के उद्देश्य से भारत पर सन 1000 ईस्वी से लेकर 1026 ईस्वी तक कुल 17 हमले किये,जिनमे पंजाब का शाही जंजुआ राजपूत राज्य पूरी तरह समाप्त हो गया और उसने सोमनाथ मन्दिर गुजरात, कन्नौज, मथुरा,कालिंजर,नगरकोट(कटोच),थानेश्वर तक हमले किये और लाखो हिन्दुओं की हत्याएं,बलात धर्मपरिवर्तन,लूटपाट हुई,
ऐसे में दिल्ली के तंवर/तोमर राजपूत वंश ने अन्य राजपूतो के साथ मिलकर इसका सामना करने का निश्चय किया,
दिल्लीपति राजा जयपालदेव तोमर(1005-1021)—–
गज़नवी वंश के आरंभिक आक्रमणों के समय दिल्ली-थानेश्वर का तोमर वंश पर्याप्त समुन्नत अवस्था में था।महमूद गजनवी ने जब सुना कि थानेश्वर में बहुत से हिन्दू मंदिर हैं और उनमे खूब सारा सोना है तो उन्हें लूटने की लालसा लिए उसने थानेश्वर की और कूच किया,थानेश्वर के मंदिरों की रक्षा के लिए दिल्ली के राजा जयपालदेव तोमर ने उससे कड़ा संघर्ष किया,किन्तु दुश्मन की अधिक संख्या होने के कारण उसकी हार हुई,तोमरराज ने थानेश्वर को महमूद से बचाने का प्रयत्न भी किया, यद्यपि उसे सफलता न मिली।और महमूद ने थानेश्वर में जमकर रक्तपात और लूटपाट की.
दिल्लीपति राजा कुमार देव तोमर(1021-1051)—-
सन् 1038 ईo (संo १०९५) महमूद के भानजे मसूद ने हांसी पर अधिकार कर लिया। और थानेश्वर को हस्तगत किया। दिल्ली पर आक्रमण की तैयारी होने लगी। ऐसा प्रतीत होता था कि मुसलमान दिल्ली राज्य की समाप्ति किए बिना चैन न लेंगे।किंतु तोमरों ने साहस से काम लिया।
गजनी के सुल्तान को मार भगाने वाले कुमारपाल तोमर ने दुसरे राजपूत राजाओं के साथ मिलकर हांसी और आसपास से मुसलमानों को मार भगाया.
अब भारत के वीरो ने आगे बढकर पहाड़ो में स्थित कांगड़ा का किला जा घेरा जो तुर्कों के कब्जे में चला गया था,चार माह के घेरे के बाद नगरकोट(कांगड़ा)का किला जिसे भीमनगर भी कहा जाता है को राजपूत वीरो ने तुर्कों से मुक्त करा लिया और वहां पुन:मंदिरों की स्थापना की.
लाहौर का घेरा——
इ सके बाद कुमारपाल देव तोमर की सेना ने लाहौर का घेरा डाल दिया,वो भारत से तुर्कों को पूरी तरह बाहर निकालने के लिए कटिबद्ध था.इतिहासकार गांगुली का अनुमान है कि इस अभियान में राजा भोज परमार,कर्ण कलचुरी,राजा अनहिल चौहान ने भी कुमारपाल तोमर की सहायता की थी.किन्तु गजनी से अतिरिक्त सेना आ जाने के कारण यह घेरा सफल नहीं रहा.
नगरकोट कांगड़ा का द्वितीय घेरा(1051 ईस्वी)—–
गजनी के सुल्तान अब्दुलरशीद ने पंजाब के सूबेदार हाजिब को कांगड़ा का किला दोबारा जीतने का निर्देश दिया,मुसलमानों ने दुर्ग का घेरा डाला और छठे दिन दुर्ग की दीवार टूटी,विकट युद्ध हुआ और इतिहासकार हरिहर दिवेदी के अनुसार कुमारपाल देव तोमर बहादुरी से लड़ता हुआ वीरगति को प्राप्त हुआ.अब रावी नदी गजनी और भारत के मध्य की सीमा बन गई.
मुस्लिम इतिहासकार बैहाकी के अनुसार “राजपूतो ने इस युद्ध में प्राणप्रण से युद्ध किया,यह युद्ध उनकी वीरता के अनुरूप था,अंत में पांच सुरंग लगाकर किले की दीवारों को गिराया गया,जिसके बाद हुए युद्ध में तुर्कों की जीत हुई और उनका किले पर अधिकार हो गया.”
इस प्रकार हम देखते हैं कि दिल्लीपति कुमारपाल देव तोमर एक महान नायक था उसकी सेना ने न केवल हांसी और थानेश्वर के दुर्ग ही हस्तगत न किए; उसकी वीर वाहिनी ने काँगड़े पर भी अपनी विजयध्वजा कुछ समय के लिये फहरा दी। लाहौर भी तँवरों के हाथों से भाग्यवशात् ही बच गया।
दिल्लीपती राजाअनंगपाल-II ( 1051-1081 )—–
उनके समय तुर्क इबराहीम ने हमला किया जिसमें अनगपाल द्वितीय खुद युद्ध लड़ने गये,,,, युद्ध में एक समय आया कि तुर्क इबराहीम ओर अनगपाल कि आमना सामना हो गया। अनंगपाल ने अपनी तलवार से इबराहीम की गर्दन ऊडा दि थी। एक राजा द्वारा किसी तुर्क बादशाह की युद्ध में गर्दन उडाना भी एक महान उपलब्धि है तभी तो अनंगपाल की तलवार पर कई कहावत प्रचलित हैं।
जहिं असिवर तोडिय रिउ कवालु, णरणाहु पसिद्धउ अणंगवालु ||
वलभर कम्पाविउ णायरायु, माणिणियण मणसंजनीय ||
The ruler Anangapal is famous; he can slay his enemies with his sword. The weight (of the Iron pillar) caused the Nagaraj to shake.
तुर्क हमलावर मौहम्मद गौरी के विरुद्ध तराइन के युद्ध में तोमर राजपूतो की वीरता—
दिल्लीपति राजा चाहाडपाल/गोविंदराज तोमर (1189-1192)—–
गोविन्दराज तोमर पृथ्वीराज चौहान के साथ मिलकर तराइन के दोनों युद्धों में लड़ें,
पृथ्वीराज रासो के अनुसार तराईन के पहले युद्ध में मौहम्मद गौरी और गोविन्दराज तोमर का आमना सामना हुआ था,जिसमे दोनों घायल हुए थे और गौरी हारकर भाग रहा था। भागते हुए गौरी को धीरसिंह पुंडीर ने पकडकर बंदी बना लिया था। जिसे उदारता दिखाते हुए पृथ्वीराज चौहान ने छोड़ दिया। हालाँकि गौरी के मुस्लिम इतिहासकार इस घटना को छिपाते हैं।
पृथ्वीराज चौहान के साथ मिलकर गोरी के साथ युद्ध किया,तराईन दुसरे युद्ध मे मारे गए.
तेजपाल द्वितीय (1192-1193 ई)——-
दिल्ली का अन्तिम तोमर राजा,जिन्होंने स्वतन्त्र 15 दिन तक शासन किया,इन्ही के पास पृथ्वीराज चौहान की रानी(पुंडीर राजा चन्द्र पुंडीर की पुत्री) से उत्पन्न पुत्र रैणसी उर्फ़ रणजीत सिंह था,तेजपाल ने बची हुई सेना की मदद से गौरी का सामना करने की गोपनीय रणनीति बनाई,युद्ध से बची हुई कुछ सेना भी उसके पास आ गई थी.
मगर तुर्कों को इसका पता चल गया और कुतुबुद्दीन ने दिल्ली पर आक्रमण कर हमेशा के लिए दिल्ली पर कब्जा कर लिया।इस हमले में रैणसी मारे गए.
इसके बाद भी हांसी में और हरियाणा में अचल ब्रह्म के नेत्रत्व में तुर्कों से युद्ध किया गया,इस युद्ध में मुस्लिम इतिहासकार हसन निजामी किसी जाटवान नाम के व्यक्ति का उल्लेख करता है जिसे आजकल हरियाणा के जाट बताते हैं जबकि वो राजपूत थे और संभवत इस क्षेत्र में आज भी पाए जाने वाले तंवर/तोमर राजपूतो की जाटू शाखा से थे,
इस प्रकार हम देखते हैं कि दिल्ली के तोमर राजवंश ने तुर्कों के विरुद्ध बार बार युद्ध करके महान बलिदान दिए किन्तु खेद का विषय है कि संभवत: कोई तोमर राजपूत भी दिल्लीपति कुमारपाल देव तोमर जैसे वीर नायक के बारे में नहीं जानता होगा जिसने राष्ट्र और धर्म की रक्षा के लिए अपने राज्य से आगे बढकर कांगड़ा,लाहौर तक जाकर तुर्कों को मार लगाई और अपना जीवन धर्मरक्षा के लिए न्योछावर कर दिया.
दिल्ली के तोमर राजवंश की वीरता को समग्र राष्ट्र की और से शत शत नमन.
सन्दर्भ—
1-राजेन्द्र सिंह राठौर कृत राजपूतो की गौरवगाथा पृष्ठ संख्या 113,116,117
2-डा० अशोक कुमार सिंह कृत सल्तनत काल में हिन्दू प्रतिरोध पृष्ठ संख्या 48,68,69,70
3-देवी सिंह मंडावा कृत सम्राट पृथ्वीराज चौहान पृष्ठ संख्या 94-98
4-दशरथ शर्मा कृत EARLY CHAUHAN DYNASTIES
5- महेंद्र सिंह तंवर खेतासर कृत तंवर/तोमर राजवंश का सांस्कृतिक एवम् राजनितिक इतिहास।
6-दशरथ शर्मा-लेक्चर्स ऑन राजपूत हिस्टरी एंड कल्चर (आर पी नोपानी भाषणमाला १९६९) प्रकाशक: मोतीलाल बनारसीदास, जवाहर नगर, दिल्ली
-BY Manisha Singh

सरदार हरि सिंह नलवा (1791-1837)

सरदार हरि सिंह नलवा (1791-1837) का भारतीय इतिहास में एक सराहनीय एवम् महत्वपूर्ण योगदान रहा है। भारत के उन्नीसवीं सदी के समय में उनकी उपलब्धियों की मिसाल पाना महज असंभव है। इनका निष्ठावान जीवनकाल हमारे इस समय के इतिहास को सर्वाधिक सशक्त करता है। परंतु इनका योगदान स्मरणार्थक एवम् अनुपम होने के बावज़ूद भी पंजाब की सीमाओं के बाहर अज्ञात बन कर रहे गया है। इतिहास की पुस्तकों के पन्नो भी इनका नाम लुप्त है। आज के दिन इनकी अफगानिस्तान से संबंधित उल्लेखनीय परिपूर्णताओं को स्मरण करना उचित होगा। जहाँ ब्रिटिश, रूसी और अमेरिकी सैन्य बलों को विफलता मिली, इस क्षेत्र में सरदार हरि सिंह नलवा ने अपनी सामरिक प्रतिभा और बहादुरी की धाक जमाने के साथ सिख-संत सिपाही होने का उदाहरण स्थापित किया था। आज जब अफगान राष्ट्रपति अहमदज़ई की सरकार भ्रष्टाचार से जूझ रही है, अपने ही राष्ट्र की सुरक्षा जिम्मेदारियों के लिये अंतरराष्ट्रीय बलों पर निर्भर है और अमेरिकी राष्ट्रपति ओबामा के लगभग 300,000 अमेरिकी सैनिक अफगानिस्तान में तैनात, तालिबानी उग्रवादियों की आंतकी घटनाओं से बुरी तरह संशयात्मक है, यह जानना अनिवार्य है कि हरि सिंह नलवा ने स्थानीय प्रशासन और विश्वसनीय संस्थानों की स्थापना कर यहाँ पर प्रशासनिक सफलता प्राप्त की थी। यह इतिहास में पहली बार हुआ था कि पेशावरी पश्तून, पंजाबियों द्वारा शासित थे। जिस एक व्यक्ति का भय पठानों और अफगानियों के मन में, पेशावर से लेकर काबुल तक, सबसे अधिक था; उस शख्सीयत का नाम जनरल हरि सिंह नलुवा है। सिख फौज के सबसे बड़े जनरल हरि सिंह नलवा ने कश्मीर पर विजय प्राप्त कर अपना लौहा मनवाया। यही नहीं, काबुल पर भी सेना चढ़ाकर जीत दर्ज की। खैबर दर्रे से होने वाले इस्लामिक आक्रमणों से देश को मुक्त किया। इसलिये रणनीति और रणकौशल की दृष्टि से हरि सिंह नलवा की तुलना दुनिया के श्रेष्ठ जरनैलों से की जाती है।
सरदार हरि सिंह नलवा का नाम श्रेष्ठतम सिक्खी योद्धाओं की गिनती में आता है। वह महाराजा रणजीत सिंह की सिख फौज के सबसे बड़े जनरल (कमांडर-इन-चीफ) थे। महाराजा रणजीत सिंह के साम्राज्य (1799-1849) को सरकार खालसाजी के नाम से भी निर्दिष्ट किया जाता था। सिख साम्राज्य, गुरू नानक द्वारा शुरू किये गए आध्यात्मिक मार्ग का वह एकगरत रूप था जो गोबिंद सिंह ने खालसा की परंपरा से निश्चित कर के संगठित किया था। गोबिंद सिंह ने मुगलों के खिलाफ प्रतिरोध के लिए एक सैन्य बल की स्थापना करने का निर्णय लिया था। खालसा, गुरु गोबिंद सिंह की उक्ति की सामूहिक सर्वसमिका है । 30 मार्च 1699 को गुरु गोबिंद सिंह ने खालसा मूलतः “संत सैनिकों” के एक सैन्य शक्ति के रूप में स्थापित किया। खालसा उनके द्वारा दिया गया उन सब चेलों का नाम था जिन्होंने अमृत संचार अनुष्ठान स्विकार करके पांच तत्व- केश,कंघा,कड़ा,कच्छा,किरपान का अंगीकार किया्। वह व्यक्ति जो खालसा में शामिल किया जाता,एक खालसा सिख या अम्रित्धारी कहलाता। यह परिवर्तन संभवतः मूलमंत्र के तौर से मानसिकता का जैसे हिस्सा बन जाता और आत्मविश्वास को उत्पन्न करके युद्ध भूमि में सामर्थ्य प्राप्त करने में सफलता प्रदान करता।
… पिछली आठ सदियों की लूटमार, बलात्कार, और इस्लाम के जबरन रूपांतरण के बाद सिखों ने भारतीय उपमहाद्वीप के उस भाग में अपने राज्य की स्थापना की जो सबसे ज़्यादा आक्र्मणकारियों द्वारा आघात था। अपने जीवनकाल में हरि सिंह नलवा, इन क्षेत्रों में निवास करने वाले क्रूर कबीलों के लिए एक आतंक बन गये थे। आज भी उत्तर पश्चिम सीमांत (नौर्थ वेस्टन प्रोविन्स) में एक प्रशासक और सैन्य कमांडर के रूप में हरि सिंह नलवा का प्रदर्शन बेमिसाल है। हरि सिंह नलवा की शानदार उपलब्धियाँ ऐसे हैं कि वह गुरु गोबिंद सिंह द्वारा स्थापित परंपरा का उदाहरण देती हैं और उन्हें इसलिये सर हेनरी ग्रिफिन ने “खालसाजी का चैंपियन” के नाम से सुसज्जित किया है। ब्रिटिश शासकों ने हरि सिंह नलवा की तुलना नेपोलियन के प्रसिद्ध कमांडरों से भी की है।

हरि सिंह नलवा ने महाराजा रणजीत सिंह के निर्देश के अनुसार सिख साम्राज्य की भौगोलिक सीमाओं को पंजाब से लेकर काबुल बादशाहत के बीचोंबीच तक विस्तार किया था। महाराजा रणजीत सिंह के तहत 1807 ई. से लेकर तीन दशकों की अवधि 1837 ई. तक, सिख शासन के दौरान हरि सिंह नलवा लगातार अफगानों के खिलाफ लड़े। अफगानों के खिलाफ जटिल लड़ाई जीतकर नलवा ने उनकी मिट्टी पर कसूर, मुल्तान, कश्मीर और पेशावर में सिख शासन की अर्थव्यवस्था की था। हरि सिंह नलवा के जीवन के परीक्षणों का वर्णन, उन्नीसवीं सदी की पहली छमाही में सिख-अफगान संबंधों का प्रतिनिधित्व है। काबुल बादशाहत के तीन पश्तून वंशवादी के प्रतिनिधि सरदार हरि सिंह नलवा के प्रतिद्वंदी थे। पहले अहमद शाह अबदाली का पोता, शाह शूजा था; दूसरा, फ़तह खान, दोस्त मोहम्मद खान और उनके बेटे, तीसरा, सुल्तान मोहम्मद खान, जो जहीर शाह अफगानिस्तान के राजा का पूर्वज (1933 -73) था।
सिंधु नदी के पार, उत्तरी पश्चिम क्षेत्र में, पेशावर के आसपास, अफगानी लोग कई कबीलों में विभाजित थे। आज भी अफगानिस्तान के विभिन्न कबीले कितने ही वर्षो से आपस में लड रहे हैं। किसी भी नियम के पालन के परे, आक्रामक प्रवृत्ति इन अफ़गानों की नियति है। पूरी तरह से इन क्षेत्रों का नियंत्रण करना हर शासन की समस्यात्मक चुनौती रही है। इस इलाके में सरदार हरि सिंह नलवा ने सिंधु नदी के पार, अपने अभियानों द्वारा अफगान साम्राज्य के एक बड़े हिस्से पर कब्ज़ा करके, सिख साम्राज्य की उत्तर पश्चिम सीमांत को विस्तार किया था। नलवे की सेनाओं ने अफ़गानों को दर्रा खैबर के उस ओर बुरी तरह खदेड कर इन उपद्रवी कबायली अफ़गानों/पठानों की ऐसी गति बनाई कि परिणामस्वरूप हरि सिंह नलवा ने इतिहास की धारा ही बदल दी।
ख़ैबर दर्रा पश्चिम से भारत में प्रवेश करने का एक महत्वपूर्ण मार्ग है। ख़ैबर दर्रे के ज़रिया 500 ईसा पूर्व में यूनानियों के साथ भारत पर आक्रमण करने, लूटने और गुलाम बनाने की प्रक्रिया शुरू हुई। आक्रमणकारियों ने लगातार इस देश की समृध्दि को तहस-नहस किया। यूनानियों, हूणों और शकों के बाद अरबों, तुर्कों, पठानों, मुगलों के कबीले लगभग एक हजार वर्षों तक इस देश में हमलावर बनकर आते रहे। तैमूर लंग, बाबर और नादिरशाह की सेनाओं के हाथों भारत बेहद पीड़ित हुआ था। हरि सिंह नलवा ने ख़ैबर दर्रे का मार्ग बंद करके इस ऐतिहासिक अपमानित प्रक्रिया का पूर्ण रूप से अन्त कर दिया था। प्रसिद्ध सिख जनरलों में सबसे महान योद्धा माने गये इस वीर ने अफगानों को पछाड़ कर यह निम्नलिखित विजयो में भाग लिया: सियालकोट (1802), कसूर (1807), मुल्तान (1818), कश्मीर (1819), पखली और दमतौर (1821-2), पेशावर (1834) और ख़ैबर हिल्स में जमरौद (1836) । हरि सिंह नलवा कश्मीर और पेशावर के गवर्नर बनाये गये। कश्मीर में उन्होने एक नया सिक्का ढाला जो ‘हरि सिन्गी’ के नाम से जाना गया। यह सिक्का आज भी संग्रहालयों में प्रदर्शन पर है. हजारा, सिंध सागर दोआब का विशिष्ट भाग, उनके शासन के तहत सभी क्षेत्रों में से सबसे महत्वपूर्ण इलाका था। हजारा के संकलक ने लिखत में दर्ज किया है कि उस समय केवल हरि सिंह नलवा ही अपने प्रभावी ढंग के कारण, एक मजबूत हाथ के द्वारा इस जिले पर नियंत्रण कर सकते थे।
नोशेरा के युद्ध में स. हरि सिंह नलवा ने महाराजा रणजीत सिंह की सेना का कुशल नेतृत्व किया था। रणनीति और रणकौशल की दृष्टि से हरि सिंह नलवा की तुलना दुनिया के श्रेष्ठ सेनानायकों से की जा सकती है।
महाराजा रणजीत सिंह की नौशेरा के युद्ध में विजय हुई।
पेशावर का प्रशासक यार मोहम्मद महाराजा रणजीत सिंह को नजराना देना कबूल कर चुका था। मोहम्मद अजीम, जो कि काबूल का शासक था, ने पेशावर के यार मोहम्मद पर फिकरा कसा कि वह एक काफिर के आगे झुक गया है। अजीम काबूल से बाहर आ गया। उसने जेहाद का नारा बुलन्द किया, जिसकी प्रतिध्वनि खैबर में सुनाई दी। लगभग पैंतालिस हजार खट्टक और यूसुफ जाई कबीले के लोग सैय्‌यद अकबर शाह के नेतृत्व में एकत्र किये गये। यार मोहम्मद ने पेशावर छोड़ दिया और कहीं छुप गये। महाराजा रणजीत सिंह ने सेना को उत्तर की ओर पेशावर कूच करने का आदेश दिया। राजकुमार शेर सिंह, दीवान चन्द और जनरल वेन्चूरा अपनी – अपनी टुकड़ियों का नेतृत्व कर रहे थे। सरदार हरि सिंह नलवा, अकाली बाबा फूला सिंह, फतेह सिंह आहलुवालिया, देसा सिंह मजीठिया और अत्तर सिंह सन्धावालिये ने सशस्त्र दलों और घुड़सवारों का नेतृत्व किया। तोपखाने की कमान मियां गोस खान और जनरल एलार्ड के पास थी।
भारत में प्रशिक्षित सैन्य दलों के इतिहास में महाराजा रणजीत सिंह द्वारा बनायी गयी गोरखा सैन्य टुकड़ी एक ऐतिहासिक घटना था। गोरखा पहाड़ी क्षेत्रों में रहने वाले थे और पेशावर और खैबर दर्रे के इलाकों में प्रभावशाली हो सकते थे। महाराजा रणजीत सिंह ने पूरबी (बिहारी) सैनिक टुकड़ी का निर्माण भी किया था। इस टुकड़ी में ज्यादातर सैनिक पटना साहिब और दानापुर क्षेत्र के थे, जो कि गुरू गोबिन्द सिंह जी की जन्म स्थली रहा है। सरदार हरि सिंह नलवा की सेना शेर-ए-दिल रजामान सबसे आगे थी। महाराजा की सेना ने पोनटून पुल पार किया। लेकिन बर्फबारी के कारण कुछ दिन रूकना पड़ा। महाराजा रणजीत सिंह के गुप्तचरों से ज्ञात हुआ था कि दुश्मनों की संख्या जहांगीरिया किले के पास बढ रही थी। उधर तोपखाना पहुंचने में देर हो रही थी और उसकी डेढ महीने बाद पहुंचने की संभावना थी। स्थितियां प्रतिकूल थी।
सरदार हरि सिंह नलवा और राजकुमार शेर सिंह ने पुल पार करके किले पर कब्जा कर लिया। लेकिन अब उन्हें अतिरिक्त बल की आवश्यकता थी। उधर दुश्मन ने पुल को नष्ट कर दिया था। ऐसे में प्रातः काल में महाराजा स्वयं घोड़े पर शून्य तापमान वाली नदी के पानी में उतरा। शेष सेना भी साथ थी। लेकिन बड़े सामान और तोपखाना इत्यादि का नुकसान हो गया था। बन्दूकों की कमी भी महसूस हो रही थी। बाबा फूला सिंह जी के मर-जीवड़ों ने फौज की कमान संभाली। उन्होने बहती नदी पार की। पीछे-पीछे अन्य भी आ गये। जहांगीरिया किले के पास पठानों के साथ युद्ध हुआ। पठान यह कहते हुए सुने गये – तौबा, तौबा, खुदा खुद खालसा शुद। अर्थात खुदा माफ करे, खुदा स्वयं खालसा हो गये हैं।
सोये हुए अफगानियों पर अचानक हमले ने दुश्मन को हैरान कर दिया था। लगभग १० हजार अफगानी मार गिराये गये थे। अफगानी भाग खड़े हुए। वे पीर सबक की ओर चले गये थे।
गोरखा सैनिक टुकड़ी के जनरल बलभद्र ने अफगानी सेना को बेहिचक मारा काटा और इस बात का सबूत दिया कि उन विशिष्ट परिस्थितियों में गोरखा लड़ाके कितने कारगर थे। उन्होने जेहादियों पर कई आक्रमण किये। लेकिन अन्त में घिर जाने के कारण बलभद्र शहीद हो गये। सरदार हरि सिंह नलवा, अकाली फूला सिंह और निहंगों की सशक्त जमात जमकर लड़ी। जनरल वेन्चूरा घायल हो गये। अकाली फूला सिंह के घोड़े को गोली लगी। वह एक हाथी पर चढने की रणनीतिक भूल कर बैठे। वे ओट से बाहर आ गये थे और जेहादियों ने उन्हें गोलियों से छननी कर दिया। वे शहीद हो गये।
अप्रैल 1836 में, जब पूरी अफगान सेना ने जमरौद पर हमला किया था, अचानक प्राणघातक घायल होने पर नलवा ने अपने नुमायंदे महान सिंह को आदेश दिया कि जब तक सहायता के लिये नयी सेना का आगमन ना हो जाये उनकी मृत्यु की घोषणा ना की जाये जिससे कि सैनिक हतोत्साहित ना हो और वीरता से डटे रहे। हरि सिंह नलवा की उपस्थिति के डर से अफगान सेना दस दिनों तक पीछे हटी रही। एक प्रतिष्ठित योद्धा के रूप में नलवा अपने पठान दुश्मनों के सम्मान के भी अधिकारी बने।

महाराजा बघेलसिंह – दिल्ली जीती, “मुग़लों” को हराया और कर वसूला

॥ महाराजा बघेलसिंह – दिल्ली जीती, “मुग़लों” को हराया और कर वसूला ॥
महान योद्धा महाराजा बघेलसिंह धालीवाल जिन्होंने दिल्ली और सीमावर्ती क्षेत्रों को जीता , “मुग़ल सत्ता” को परास्त किया और सशक्त “हिन्दू साम्राज्य” की स्थापना की । इन्होने उत्तर भारत के लगभग सभी “नवाबों” को विवश कर दिया था और “भारतीय संस्कृति” की रक्षा की थी । आज इन्हें कितने लोग जानते हैं ?
इनका जन्म १७३० इसवी में हुआ था । इन्होने स्वयं को करोर सिंघिया मिसल से जोड़ लिया था । १७६५ में करोर सिंघिया मिसल के अधिपति सरदार करोरा सिंघजी के असाम्योक निधन के बाद ये मिसल के अधिपति बने । बघेलसिंहजी एक उत्तम योद्धा होने के साथ साथ राजनीति एवं कूटनीति के भी निष्णात पंडित थे ।

उस समय भारतवर्ष पर “अहमद शाह अब्दाली” के नेतृत्व में अफगानों के आक्रमण हुआ करते थे। बघेलसिंहजी के करोर सिंघिया मिसल का सीधा सामना “अब्दाली” से हुआ जिसमे की “अब्दाली” ने एक ही दिन में धोखे से ३०,००० से ४०,००० हिन्दू-सिख बूढ़े-बच्चे और महिलाओं की ह्त्या कर दी । इस घटनाक्रम के उपरांत सिखों ने संगठित होना प्रारंभ किया ।
बघेलसिंहजी ने अम्बाला , करनाल , हिसार , थानेसर , जालंधर दोआब और होशियारपुर पर नियंत्रण कर लिया । बघेलसिंहजी ने पंजाब को “मुग़लों” से स्वतंत्र करा लिया । इसके उपरांत बघेलसिंहजी ने हिन्दू-साम्राज्य का विस्तार प्रारंभ किया । बघेलसिंहजी ने दिल्ली से जुड़े हुए क्षेत्रों जैसे मेरठ , सहारनपुर , शाहदरा और अवध के नवाबों को पराजित किया और उनसे भारी मात्र में कर वसूला ।
३०००० सिपाहियों के साथ बघेलसिंहजी ने यमुना को पार किया और सहारनपुर पर नियंत्रण कर लिया और वहाँ के नवाब “नजीब-उद्-दौला” से ११,००,००० का कर वसूला । इसी क्रम में उन्होंने “ज़बिता खान” को भी परास्त किया और कर प्राप्त किया । मार्च १९७६ , में इन्होने “मुग़ल-शहंशाह शाह आलम द्वितीय” की “शाही मुग़ल सेना” को मुजफ्फरनगर के निकट परास्त किया ।
इससे बौखला कर १७७८ में “शाह आलम द्वितीय” ने ३,००,००० से अधिक “शाही मुग़ल सेना” को “शाही वजीर” “नवाब मजाद-उद्-दौला” के सेनापतित्व में हिन्दू-सिख सेना को कुचलने को भेजा । किन्तु बघेलसिंहजी एक उत्तम रणनीतिकार और राजनीतिज्ञ थे । उन्होंने मुगलों की प्रत्येक चाल को मात दी और मुग़ल सेना को घनौर के निकट बुरी तरह परास्त किया । विराट मुग़ल सेना ने इनके सामने आत्म-समर्पण किया ।
अप्रैल १७८१ में मुगलों के “शाही वजीर” के निकट सम्बन्धी “मिर्ज़ा शफी” ने धोखे से हिन्दू-सिख सैनिक छावनी हथिया ली , "बघेलसिंहजी" ने इसका प्रतिकार शाहाबाद के “खलील बेग खान” को हराकर किया जिसने बड़े भारी सैन्य बल के साथ "बघेलसिंहजी" के समक्ष आत्मसमर्पण किया ।
अब तो सिखों ने दिल्ली पर विजय प्राप्ति की ठान ली और ११, मार्च १७८३ को विजय प्राप्त करके लाल किले में प्रवेश किया । “दीवान –ए-आम” जहां अकबर , शाहजहाँ , जहाँगीर और औरंगजेब दरबार लगाया करते थे वहां “बघेलसिंहजी” का दरबार सजा । "मुग़ल शहंशाह शाह आलम द्वितीय" हाथ बांधे सामने खड़ा था ।
मुग़ल शहंशाह और महल के स्त्री-पुरुषों के प्रार्थना करने पर "बघेल सिंह जी" ने दिल्ली की कुल आय का ३७.५% कर निश्चित करके फिर दिल्ली को छोड़ा । बस , तभी से मुग़ल शहंशाह नाममात्र के शासक रह गए । जब तक हिन्दू साम्राज्य रहा तब तक निर्बाध रूप से कर हिन्दू साम्राज्य को पंहुचता रहा ।
इतिहास में पढाया यह जाता हैं की औरंगजेब के बाद मुग़ल शासन कमज़ोर पड़ गया । अरे , अपनेआप कमज़ोर पडा क्या ? हमारे योद्धाओं ने उन्हें बुरी तरह हराकर कमज़ोर किया । हमारे बच्चों को बताया ही नहीं जा रहा हैं की हमारा गौरव कैसा हुआ करता था (वस्तुतः हम कभी गुलाम रहे ही नहीं)।
किन्तु , सत्य अब अधिक देर तक छिप नहीं सकता ।
-Manisha Singh

तक्षक- कन्नौज नरेश नागभट्ट -मोहम्मद बिन कासिम , islamic terrorism and Raput's resistance


प्राचीन भारत का पश्चिमोत्तर सीमांत!मोहम्मद बिन कासिम के आक्रमण से एक चौथाई सदी बीत चुकी थी। तोड़े गए मन्दिरों, मठों और चैत्यों के ध्वंसावशेष अब टीले का रूप ले चुके थे, और उनमे उपजे वन में विषैले जीवोँ का आवास था। यहां के वायुमण्डल में अब भी कासिम की सेना का अत्याचार पसरा था और जैसे बलत्कृता कुमारियों और सरकटे युवाओं का चीत्कार गूंजता था।कासिम ने अपने अभियान में युवा आयु वाले एक भी व्यक्ति को जीवित नही छोड़ा था, अस्तु अब इस क्षेत्र में हिन्दू प्रजा अत्यल्प ही थी। संहार के भय से इस्लाम स्वीकार कर चुके कुछ निरीह परिवार यत्र तत्र दिखाई दे जाते थे, पर कहीं उल्लास का कोई चिन्ह नही था। कुल मिला कर यह एक शमशान था।
इस कथा का इस शमशान से मात्र इतना सम्बंध है, कि इसी शमशान में जन्मा एक बालक जो कासिम के अभियान के समय मात्र आठ वर्ष का था, वह इस कथा का मुख्य पात्र है। उसका नाम था तक्षक। मुल्तान विजय के बाद कासिम के सम्प्रदायोन्मत्त आतंकवादियों ने गांवो शहरों में भीषण रक्तपात मचाया था। हजारों स्त्रियों की छातियाँ नोची गयीं, और हजारों अपनी शील की रक्षा के लिए कुंए तालाब में डूब मरीं।लगभग सभी युवाओं को या तो मार डाला गया या गुलाम बना लिया गया। अरब ने पहली बार भारत को अपना धर्म दिखया था, और भारत ने पहली बार मानवता की हत्या देखी थी।
तक्षक के पिता सिंधु नरेश दाहिर के सैनिक थे जो इसी कासिम की सेना के साथ हुए युद्ध में वीरगति पा चुके थे। लूटती अरब सेना जब तक्षक के गांव में पहुची तो हाहाकार मच गया। स्त्रियों को घरों से खींच खींच कर उनकी देह लूटी जाने लगी।भय से आक्रांत तक्षक के घर में भी सब चिल्ला उठे। तक्षक और उसकी दो बहनें भय से कांप उठी थीं। तक्षक की माँ पूरी परिस्थिति समझ चुकी थी, उसने कुछ देर तक अपने बच्चों को देखा और जैसे एक निर्णय पर पहुच गयी। माँ ने अपने तीनों बच्चों को खींच कर छाती में चिपका लिया और रो पड़ी। फिर देखते देखते उस क्षत्राणी ने म्यान से तलवार खीचा और अपनी दोनों बेटियों का सर काट डाला। उसके बाद काटी जा रही गाय की तरह बेटे की ओर अंतिम दृष्टि डाली, और तलवार को अपनी छाती में उतार लिया। आठ वर्ष का बालक एकाएक समय को पढ़ना सीख गया था, उसने भूमि पर पड़ी मृत माँ के आँचल से अंतिम बार अपनी आँखे पोंछी, और घर के पिछले द्वार से निकल कर खेतों से होकर जंगल में भागा..............
पचीस वर्ष बीत गए। तब का अष्टवर्षीय तक्षक अब बत्तीस वर्ष का पुरुष हो कर कन्नौज के प्रतापी शासक नागभट्ट द्वितीय का मुख्य अंगरक्षक था। वर्षों से किसी ने उसके चेहरे पर भावना का कोई चिन्ह नही देखा था। वह न कभी खुश होता था न कभी दुखी, उसकी आँखे सदैव अंगारे की तरह लाल रहती थीं। उसके पराक्रम के किस्से पूरी सेना में सुने सुनाये जाते थे। अपनी तलवार के एक वार से हाथी को मार डालने वाला तक्षक सैनिकों के लिए आदर्श था।
कन्नौज नरेश नागभट्ट अपने अतुल्य पराक्रम, विशाल सैन्यशक्ति और अरबों के सफल प्रतिरोध के लिए ख्यात थे। सिंध पर शासन कर रहे अरब कई बार कन्नौज पर आक्रमण कर चुके थे, पर हर बार योद्धा राजपूत उन्हें खदेड़ देते। युद्ध के सनातन नियमों का पालन करते नागभट्ट कभी उनका पीछा नहीं करते, जिसके कारण बार बार वे मजबूत हो कर पुनः आक्रमण करते थे। ऐसा पंद्रह वर्षों से हो रहा था।
आज महाराज की सभा लगी थी। कुछ ही समय पुर्व गुप्तचर ने सुचना दी थी, कि अरब के खलीफा से सहयोग ले कर सिंध की विशाल सेना कन्नौज पर आक्रमण के लिए प्रस्थान कर चुकी है, और संभवत: दो से तीन दिन के अंदर यह सेना कन्नौज की सीमा पर होगी। इसी सम्बंध में रणनीति बनाने के लिए महाराज नागभट्ट ने यह सभा बैठाई थी।नागभट्ट का सबसे बड़ा गुण यह था, कि वे अपने सभी सेनानायकों का विचार लेकर ही कोई निर्णय करते थे। आज भी इस सभा में सभी सेनानायक अपना विचार रख रहे थे। अंत में तक्षक उठ खड़ा हुआ और बोला- महाराज, हमे इस बार वैरी को उसी की शैली में उत्तर देना होगा।
महाराज ने ध्यान से देखा अपने इस अंगरक्षक की ओर, बोले- अपनी बात खुल कर कहो तक्षक, हम कुछ समझ नही पा रहे।
- महाराज, अरब सैनिक महा बर्बर हैं, उनके साथ सनातन नियमों के अनुरूप युद्ध कर के हम अपनी प्रजा के साथ घात ही करेंगे। उनको उन्ही की शैली में हराना होगा।
महाराज के माथे पर लकीरें उभर आयीं, बोले- किन्तु हम धर्म और मर्यादा नही छोड़ सकते सैनिक।
तक्षक ने कहा- मर्यादा का निर्वाह उसके साथ किया जाता है जो मर्यादा का अर्थ समझते हों। ये बर्बर धर्मोन्मत्त राक्षस हैं महाराज। इनके लिए हत्या और बलात्कार ही धर्म है।
- पर यह हमारा धर्म नही हैं बीर,
- राजा का केवल एक ही धर्म होता है महाराज, और वह है प्रजा की रक्षा। देवल और मुल्तान का युद्ध याद करें महाराज, जब कासिम की सेना ने दाहिर को पराजित करने के पश्चात प्रजा पर कितना अत्याचार किया था। ईश्वर न करे, यदि हम पराजित हुए तो बर्बर अत्याचारी अरब हमारी स्त्रियों, बच्चों और निरीह प्रजा के साथ कैसा व्यवहार करेंगे, यह महाराज जानते हैं।
महाराज ने एक बार पूरी सभा की ओर निहारा, सबका मौन तक्षक के तर्कों से सहमत दिख रहा था। महाराज अपने मुख्य सेनापतियों मंत्रियों और तक्षक के साथ गुप्त सभाकक्ष की ओर बढ़ गए।
अगले दिवस की संध्या तक कन्नौज की पश्चिम सीमा पर दोनों सेनाओं का पड़ाव हो चूका था, और आशा थी कि अगला प्रभात एक भीषण युद्ध का साक्षी होगा।
आधी रात्रि बीत चुकी थी। अरब सेना अपने शिविर में निश्चिन्त सो रही थी। अचानक तक्षक के संचालन में कन्नौज की एक चौथाई सेना अरब शिविर पर टूट पड़ी। अरबों को किसी हिन्दू शासक से रात्रि युद्ध की आशा न थी। वे उठते,सावधान होते और हथियार सँभालते इसके पुर्व ही आधे अरब गाजर मूली की तरह काट डाले गए। इस भयावह निशा में तक्षक का सौर्य अपनी पराकाष्ठा पर था। वह घोडा दौड़ाते जिधर निकल पड़ता उधर की भूमि शवों से पट जाती थी। उषा की प्रथम किरण से पुर्व अरबों की दो तिहाई सेना मारी जा चुकी थी। सुबह होते ही बची सेना पीछे भागी, किन्तु आश्चर्य! महाराज नागभट्ट अपनी शेष सेना के साथ उधर तैयार खड़े थे। दोपहर होते होते समूची अरब सेना काट डाली गयी। अपनी बर्बरता के बल पर विश्वविजय का स्वप्न देखने वाले आतंकियों को पहली बार किसी ने ऐसा उत्तर दिया था।
विजय के बाद महाराज ने अपने सभी सेनानायकों की ओर देखा, उनमे तक्षक का कहीं पता नही था।सैनिकों ने युद्धभूमि में तक्षक की खोज प्रारंभ की तो देखा- लगभग हजार अरब सैनिकों के शव के बीच तक्षक की मृत देह दमक रही थी। उसे शीघ्र उठा कर महाराज के पास लाया गया। कुछ क्षण तक इस अद्भुत योद्धा की ओर चुपचाप देखने के पश्चात महाराज नागभट्ट आगे बढ़े और तक्षक के चरणों में अपनी तलवार रख कर उसकी मृत देह को प्रणाम किया। युद्ध के पश्चात युद्धभूमि में पसरी नीरवता में भारत का वह महान सम्राट गरज उठा- आप आर्यावर्त की वीरता के शिखर थे तक्षक.... भारत ने अबतक मातृभूमि की रक्षा में प्राण न्योछावर करना सीखा था, आप ने मातृभूमि के लिए प्राण लेना सिखा दिया। भारत युगों युगों तक आपका आभारी रहेगा।
इतिहास साक्षी है, इस युद्ध के बाद अगले तीन शताब्दियों तक अरबों में भारत की तरफ आँख उठा कर देखने की हिम्मत नही हुई।
===================×××================
साभार- Make_In_India

सोलंकी राजवंश (चालुक्य वंश)

११४२ से ११७२ तक राज्य करने वाले विश्वेश्वर कुमारपाल सोलंकी ने मध्य एशिया तक विजय प्राप्त की थी और भारत के शक्तिशाली सम्राट बने ।
कुमारपाल सोलंकी जयसिंह सिद्धराज के उत्तराधिकारी बने । कुमारपाल रजा रामपाल के पुत्र थे । यह राजवंश चालुक्य वंशी राजाओं की सोलंकी जाती से सम्बन्ध रखते थे तथा इनके राज्य की राजधानी राष्ट्रकूटा (गुजरात) के अंहिलवाडा (आधुनिक कलइ सिद्धपुर पाटन) में थी । कुमारपाल सोलंकी पाटन की गद्दी पर आसीन हुआ। विरावल के प्रसिद्ध सोमनाथ मंदिर का जीर्णोद्धार किये थे । कुमारपाल सोलंकी ने जिन मंदिरों का निर्माण किया उनमे गुजरात का तरंगा मंदिर , भगवन शांतिनाथ का मंदिर तथा श्री तलज मंदिर प्रसिद्ध हैं । राजा कुमारपाल बहुत शक्तिशाली निकला,उसने बग़दादी के खलीफाओं को एवं अरबों , तुर्क के सुल्तान किलिज् अर्सलन द्वितीय को धूल चटा दिया था।

कुछ युद्धों का वर्णन मिला हैं कुमारपाल चरित से जिसकी मैं यहाँ वर्णन करुँगी जो भारतीय इतिहास में जिनका उल्लेख कहीं नहीं मिलता हैं , हमारे भारतीय संस्कृति और भगवा के रक्षको को इतिहास के पन्नों से गायब कर दिया गया। मेरी कोशिस हैं आनेवाली पीढ़ी अपने आपको ग़ुलाम न समझे । और हमारे महान राजाओ की तरह देश धर्म की रक्षक बने।
कुमारपाल सोलंकी के साथ प्रथम युद्ध-:
बग़दादी खलीफा अल-मुक्ताफि सन ११४३ भारत के पश्चिमी प्रांत को रौंध ने का सपना देख कर आक्रमण किया भारत के विश्वेश्वर महाराज कुमारपाल सोलंकी भारत के पश्चिमी प्रान्त के रक्षा कवच बने खड़े थे उन्होंने बगदादी खलीफाओं के लूटेरी सेना को गाजर मूली की तरह काट दिया बगदादी खलीफा दोबारा आँख उठाने की भी हिम्मत नहीं जुटा पाया था । बगदादी खलीफा को बंदी बनानेवाला पहले राजपूत योद्धा थे इतिहास के । सम्राट कुमारपाल ने बगदादी का जिह्वा काट दिया था , ऐसा करने की वजह यह थी जिससे यातनाएँ याद रहे और दोबारा भारत पर आक्रमण करने के बारे में दोबारा सोच भी न सके।
दूसरा युद्ध राष्ट्रकूटा में:
अल-मुस्तांजिद ११६१ में हमला किया यह चेंगिज खान , तैमूर लंग से भी भयंकर क्रुर था जिस भी राज्य में जाता था उस रजा के रानियों को अपने हरम में ले कर रखना और उनसे वैश्यावृत्ति करवाते थे अल-मुस्तांजिद राष्ट्रकूटा पर आक्रमण किया जो अभी की गुजरात हैं राजपूत सोलंकी , चालुक्य के समय राष्ट्रकूटा कहा जाता था अल-मुस्तांजिद की सैन्यबल लाखों की संख्या से अधिक थी कुमारपाल सोलंकी राष्ट्रकूटा के जननायक और हिन्दुओं के रक्षक और खलीफाओं के काल बन थे अल-मुस्तांजिद के लाखों की सेना विश्वेस्वर सोलंकी के सैन्यबल और रणनीति के सामने धराशायी होगया बगदादिओं ने अपनी जान बचाकर भागना उचित समझा। अल-मुस्तांजिद को कैद कर लिया गया उनकी रिहाई के लिए हर्जाने के तौर पर ५लाख दीनार वसूला गया।
तीसरा युद्ध-:
हस्सन-अल-मुस्तादि ११७२ अब्बासिद् ख़लीफ़ा थे जिन्होंने अपना साम्राज्य विस्तार काइरो तक किया था दिग्विजय सम्राट कुमारपाल सोलंकी ने लगातार तीसरी बार खलीफा को हराया और उनकी आधा राज्य मांग लिया काइरो में आज भी कुमारपाल सोलंकी की जारी किया हुआ मुद्रा काइरो प्राचीन मुद्रा लेख में मिलता हैं (Cairo Ancient Coin Inscription) में मिलता हैं जिससे अनुमान लगा सकते हैं दिग्विजय महाराज कुमारपाल सोलंकी ने काइरो तक अपना साम्राज्य विस्तार किया था।
हस्सन-अल-मुस्तादि , ईबन-अल-मुस्तांजिद यह मुहम्मद की पीढ़ियां हैं जो अब्बासिद् साम्राज्य के खलीफ़ा बने थे इन्होंने बेबीलोनिया , अर्मेनिआ और यूरोप के अधिकतर राज्य को इस्लाम की परचम को अपने तलवार के बल पर फैलाया था भारत विजय का सपना सपना रह गया था , सम्राट कुमारपाल सोलंकी सनातन धर्म रक्षक बन कर खलीफाओं को खदेड़ता रहा भारत की पावन भूमि पर मलेच्छ अधर्मियों का परचम लहराने का दुःसाहस नहीं किये कुमारपाल सोलंकी की सीमा सुरक्षा नीति की वजह से कुमारपाल सोलंकी के मृत्यु के बाद भी कई दशक तक सोलंकी वंश शासित राज्य की सीमा सुरक्षित रहे थे।
संदर्भ-: कुमारपाल चरित
Manisha Singh

Wednesday, July 20, 2016

धारा 370 पर अब मोदी लेने जा रहे बड़ा फैसला

नई दिल्ली। जम्मू कश्मीर पर एक दिन पहले आए सुप्रीम कोर्ट के ऐतिहासिक फैसले के बाद आज मोदी सरकार ने भी एक बड़ा फैसला किया है। सूत्रों के मुताबिक मोदी सरकार सभी दलों से इस मसले पर एकसाथ आने की अपील करने वाली है। बताया जा रहा है कि यह अपील जम्मू कश्मीर से धारा 370 हटाने के लिए की जाएगी।

धारा 370 और मोदी सरकार

बीते दिन सुप्रीम कोर्ट की 5 सदस्यीय संविधान पीठ ने एक ऐतिहासिक फैसला सुनाया था। इसमें सु्प्रीम कोर्ट ने कहा कि जम्मू कश्मीर कोर्ट के कानूनी मामले अब देश की किसी भी अदालत में ट्रांसफर किए जा सकते हैं। जम्मू कश्मीर में अभी तक यह प्रावधान नहीं था।

आपको बता दें कि भारतीय जनता पार्टी की ओर से प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार बनकर नरेंद्र मोदी ने जम्मू में एक बड़ी सभा में ये कहकर एक नई बहस छेड़ दी थी कि भारतीय संविधान की धारा 370 पर बहस होनी चाहिए। यह धारा भारतीय संघ के भीतर जम्मू-कश्मीर को विशेष राज्य का दर्जा देती है।

सूत्रों के मुताबिक मोदी सरकार अब धारा 370 पर संसद में बहस कराना चाहती है। लेकिन अभी तक ये जानकारी नहीं मिली है कि ये बहस इसी मानसून सत्र में कराने की योजना है या इसे अभी आगे बढ़ा दिया जाएगा।

आखिर क्या है धारा-370 का सच

  • भारतीय संविधान की धारा 370 जम्मू-कश्मीर राज्य को विशेष दर्जा प्रदान करती है।
  • 1947 में विभाजन के समय जम्मू-कश्मीर के राजा हरिसिंह पहले स्वतंत्र रहना चाहते थे लेकिन उन्होंने बाद में भारत में विलय के लिए सहमति दी।
  • जम्मू-कश्मीर में पहली अंतरिम सरकार बनाने वाले नेशनल कॉफ्रेंस के नेता शेख़ अब्दुल्ला ने भारतीय संविधान सभा से बाहर रहने की पेशकश की थी।
  • इसके बाद भारतीय संविधान में धारा 370 का प्रावधान किया गया जिसके तहत जम्मू-कश्मीर राज्य को विशेष अधिकार मिले हुए हैं।
  • 1951 में राज्य को संविधान सभा को अलग से बुलाने की अनुमति दी गई।
  • नवंबर, 1956 में राज्य के संविधान का कार्य पूरा हुआ। 26 जनवरी, 1957 को राज्य में विशेष संविधान लागू कर दिया गया।

क्या हैं विशेष अधिकार

  • धारा 370 के प्रावधानों के अनुसार, संसद को जम्मू-कश्मीर के बारे में रक्षा, विदेश मामले और संचार के विषय में कानून बनाने का अधिकार है। लेकिन किसी अन्य विषय से संबंधित क़ानून को लागू करवाने के लिए केंद्र को राज्य सरकार का अनुमोदन चाहिए।
  • इसी विशेष दर्जें के कारण जम्मू-कश्मीर राज्य पर संविधान की धारा 356 लागू नहीं होती। इस कारण राष्ट्रपति के पास राज्य के संविधान को बरख़ास्त करने का अधिकार नहीं है।
  • 1976 का शहरी भूमि क़ानून जम्मू-कश्मीर पर लागू नहीं होता। सूचना का अधिकार कानून भी यहां लागू नहीं होता।
  • इसके तहत भारतीय नागरिक को विशेष अधिकार प्राप्त राज्यों के अलावा भारत में कही भी भूमि ख़रीदने का अधिकार है। यानी भारत के दूसरे राज्यों के लोग जम्मू-कश्मीर में ज़मीन नहीं ख़रीद सकते हैं।
  • भारतीय संविधान की धारा 360 जिसमें देश में वित्तीय आपातकाल लगाने का प्रावधान है।वह भी जम्मू-कश्मीर पर लागू नहीं होती।
  • राज्य की महिला अगर राज्य के बाहर शादी करती है तो वह यहां की नागरिकता गंवा देती है।

Tuesday, July 5, 2016

Gurjar Pratihar -Battle of Herat Gurjar Vs Persian

World Famous Battle of Herat 
  Gurjar Vs Persian
Gurjar Samrat Khushnavaz Hoon 
Date 484 bc

Location Herat, Afghanistan
Result Decisive Hephthalite victory.
Belligerents
Hephthalite(Hoon) Empire; Sassanid Empire
Commanders and leaders
Khushnavaz Peroz I  †
Mihran  †
Strength
Unknown 100,000 soldiers[1]
Casualties and losses
Unknown Heavy
The Battle of Herat was a large scale military confrontation that took place in 484 between an invading force of the Sassanid Empire composed of around 100,000 men[1] under the command of Peroz I and a smaller army of the Hun Empire of Gurjar under the command of Khushnavaz Hoon. The battle was a catastrophic defeat for the Sassanid forces who were almost completely wiped out. Peroz, the Sassanid king, was killed in the action.

In 459, the Hoon(Clan Of Gujjar) occupied Bactria and were confronted by the forces of the Sassanid king, Hormizd III. It was then that Peroz, in an apparent pact with the Hephthalites,[2] killed Hormizd, his brother, and established himself as the new king. He would go on to kill the majority of his family and began a persecution of various Christian sects in his territories.

Peroz quickly moved to maintain peaceful relations with the Byzantine Empire to the west. To the east, he attempted to check the Hephthalites, whose armies had begun their conquest of eastern Iran. The Romans supported the Sassanids in these efforts, sending them auxiliary units. The efforts to deter the Hephthalite expansion met with failure when Peroz chased their forces deep into Hephthalite territory and was surrounded. Peroz was taken prisoner in 481 and was made to deliver his son, Kavadh, as a hostage for three years, further paying a ransom for his release.

It was this humiliating defeat which led Peroz to launch a new campaign against the Hephthalites.

The battle::

In 484, after the liberation of his son, Peroz formed an enormous army and marched northeast to confront the Hephthalites. The king marched his forces all the way to Balkh where he established his base camp and rejected emissaries from the Hunnic king Khushnavaz. Peroz's forces advanced from Balkh to Herat. The Huns, learning of Peroz's way of advance, left troops along his path who proceeded to cut off the eventual Sassanid retreat and surround Peroz's army in the desert around the city of Herat. In the ensuing battle, almost all of the Sassanid army was wiped out. Peroz was killed in the action and most of his commanders and entourage were captured, including two of his daughters. The Gurjar forces proceeded to sack Herat before continuing on to a general invasion of the Sassanid Empire.

Aftermath 

The Huns invaded the Sassanid territories which had been left without a central government following the death of the king. Much of the Sassanid land was pillaged repeatedly for a period of two years until a Persian noble from the House of Karen, Sukhra, restored some order by establishing one of Peroz's brothers, Balash, as the new king. The Hunnic Gurjar menace to Sassanid lands continued until the reign of Khosrau I. Balash failed to take adequate measures to counter the Hephthalite incursions, and after a rule of four years, he was deposed in favor of Kavadh I, his nephew and the son of Peroz. After the death of his father, Kavadh had fled the kingdom and took refuge with his former captors, the Hephthalites, who had previously held him as a hostage. He there married one of the daughters of the Hunnic king, who gave him an army to conquer his old kingdom and take the throne.The Sassanids were made to pay tributes to the Hephthalite Gurjar Empire until 496 when Kavadh was ousted and forced to flee once again to Hephthalite territory. King Djamasp was installed on the throne for two years until Kavadh returned at the head of an army of 30,000 troop and retook his throne, reigning from 498 until his death in 531, when he was succeeded by his son, Khosrau I.

References:

^ a b c d e Heritage World Coin Auction #3010. Boston: Heritage Capital Corporation, 2010, pp. 28
^ a b Frye, 1996: 178
^ a b c Dani, 1999: 140
^ Christian, 1998: 220
Much of the information on this page was translated from its Spanish equivalent.
Bibliography 

David Christian (1998). A history of Russia, Central Asia, and Mongolia. Oxford: Wiley-Blackwell, ISBN 0-631-20814-3.
Richard Nelson Frye (1996). The heritage of Central Asia from antiquity to the Turkish expansion. Princeton: Markus Wiener Publishers, ISBN 1-55876-111-X.
Ahmad Hasan Dani (1999). History of civilizations of Central Asia: Volumen III. Delhi: Motilal Banarsidass Publ., ISBN 81-208-1540-8.

Jewel of Pratihar Rajput saved Bharat from Mohammed गुर्जर सम्राट नागभट प्रतिहार

-------गुर्जर सम्राट नागभट प्रतिहार ----

वीर गुर्जर यौद्धा जिसने अरबो को अपने बाजुओं से मथडाला एवं इतना भयाक्रांत कर दिया था की जब गुर्जरेन्द्र नागभट्ट की गुर्जरसेना गुर्जर रणनृत्य करती हुई ,जय भौणा ( गुर्जरो का युद्ध का देवता) व जय गुर्जरेश कहती हुई जोश व वीरता से अरबो से युद्ध के लिए जाए तो अरबी लोग मुल्तान में बने एक शिव मंदिर को नष्ट करने की धमकी देकर अपनी जान बचाते थे और जिससे सैनिक युद्ध क्षेत्र से लौट आते थे। गुर्जरेन्द्र नागभट्ट प्रतिहार वीर साहसी थे जिन्हें इतिहास में नागावलोक व गुर्जरेन्द्र ( गुर्जरो के इन्द्र) के नाम से भी जाना जाता है।

के.एम.पन्निकर ने अपनी पुस्तक "सर्वे ऑफ़ इंडियन हिस्ट्री "में लिखा है -जो शक्ति मोहम्मद साहिब की मृत्यु के सौ साल के अंदर एक तरफ चीन की दिवार तक पंहुच गयी थी ,तथा दूसरी और मिश्र को पराजित करते हुए उतरी अफ्रिका को पार कर के स्पेन को पद दलित करते हुए दक्षिणी फ़्रांस तक पंहुच गयी थी जिस ताकत के पास अनगिनित सेना थी तथा जिसकी सम्पति का कोई अनुमान नही था जिसने रेगिस्तानी प्रदेशों को जीता तथा पहाड़ी व् दुर्लभ प्रांतों को भी फतह किया था। 

इन अरब सेनाओं ने जिन जिन देशों व् साम्राज्यों को विजय किया वंहा कितनी भी सम्पन्न संस्कृति थी उसे समाप्त किया तथा वहां के निवासियों को अपना धर्म छोड़ कर इस्लाम स्वीकार करना पड़ा। ईरान , मिश्र आदि मुल्कों की संस्कृति जो बड़ी प्राचीन व विकसित थी वह इतिहास की वस्तु बन कर रह गयी। अगर अरब हिंदुस्तान को भी विजय कर लेते तो यहां की वैदिक संस्कृति व धर्म भी उन्ही देशों की तरह एक भूतकालीन संस्कृति के रूप में ही शेष रहता।। 

इस सबसे बचाने का भारत में कार्य वीर गुर्जरेन्द्र नागभट्ट व गुर्जरो ने किया प्रतिहार की उपाधि पायी। गुर्जरेन्द्र ने खलीफाओं की महान आंधी को देश में घुसने से रोका और इस प्रकार इस देश की प्राचीन संस्कृति व धर्म को अक्षुण रखा। देश के लिए यह उसकी महान देन है। गुर्जरो में वैसे तो कई महान राजा हुए पर सबसे ज्यादा शक्तिशाली कनिष्क महान,कल्किराज मिहिरकुल हूण,सम्राट तोरमाण हूण , गुर्जर सम्राट खुशनवाज हूण,गुर्जरेन्द्र नागभट्ट प्रथम , गुर्जरेश मिहिरभोज , दहाडता हुआ गुर्जर सम्राट महिपालदेव,सम्राट हुविष्क कसाणा,महाराजा दद्दा चपोतकट, जयभट गुर्जर,वत्सराज रणहस्तिन थे  जिन्होने अपने जीवन मे कभी भी चीनी साम्राज्य,फारस के शहंसाह , मंगोल,तुर्की,रोमन ,मुगल और अरबों को भारत पर पैर जमाने का मौका नहीं दिया । इसीलिए आप सभी मित्रों ने कई प्रसिद्ध ऐतिहासिक किताबो पर भी पढा होगा की गुर्जरो का भारत का प्रतिहार यानी राष्ट्र रक्षक व द्वारपाल व  ईसलाम का सबसे बड़ा दुश्मन बताया गया है।।

ब्रिटिश इतिहासकार कहते थे कि भारत कभी एक  राष्ट्र था ही नहीं वामी इतिहासकार कहते हैं कि भारत राष्ट्रीयता की भावना से एक हुआ ही नहीं धर्म निरपेक्ष इतिहासकार कहते हैं कि हिंदुत्व और इस्लाम में कोई संघर्ष था ही नहीं मुस्लिम कहते है कि इस्लाम के शेरों के सामने निर्वीर्य हिंदू कभी टिके ही नहीं हमें तो यही बताया गया है यही पढाया गया है कि हिंदू सदैव हारते आये हैं .. They are born looser , और आप भी शायद ऐसा ही मानते हों पर क्या ये सच है ?
मानोगे भी क्यों नहीं जब यहाँ के राजा  खुद ही अपनी बेटियाँ पीढीदर पीढी अपने कट्टर दुश्मनो के यहाँ ब्याह के हैं, जिन अत्याचार मुगलो का सिर काटना था उन्हीं की सेनाओ के प्रधान सेनापति हो,सेनाओ में लडते हो, दामाद बनवाकर बारात मंगवाते हो व दामाद जी कहकर खुशामद व गुलामी करते हो वहाँ के लोगो को हारा व हताश ही कहा जायेगा। जहाँ के राजा व उनके सामन्त अंग्रेजो की जय जयकार करते हो व जनता का खून चूसकर कर वसूलते हो वहाँ भारत के स्वर्णिम समय गुर्जर काल यानी गुर्जर प्रतिहार साम्राज्य के काल को बस चार लाइनो में निपटा देते हैं ।

................ बिलकुल भी नहीं ...............

तो फिर सच क्या है ? क्या हमारे पूर्वजों के भी कुछ कारनामे हैं ? कुछ ऐसे कारनामे जिनपर हम गर्व कर सकें ? जवाब है .हाँ ...ऐसे ढेर सारे कारनामे जिन्होंने इस देश ही नहीं विश्व इतिहास को भी प्रभावित किया और जिनके कारण आज हम हमारी संस्कृति जीवित है और हम अपना सिर ऊंचा करके खडे हो सकते हैं क्या थे वे कारनामे ? कौन थे वे जिन्होंने इन्हें अंजाम दिया और हम उनसे अंजान हैं ??

समय - 730 ई.

मुहम्मद बिन कासिम की पराजय के बाद खलीफा हाशिम के आदेश पर जुनैद इब्न अब्द ने मुहम्मद बिन कासिम के अधूरे काम को पूरा करने का बीडा उठाया बेहद शातिर दिमाग जुनैद समझ गया था कि कश्मीर के महान योद्धा शासक ललितादित्य मुक्तापीड और कन्नौज के यशोवर्मन से वह नहीं जीत सकता , इसीलिये उसने दक्षिण में गुर्जरत्रा (गुजरात, वह भूमि जिसकी रक्षा गुर्जर करते थे व शासक थे।) के रास्ते से राजस्थान और फिर मध्यभारत को जीतकर ( और शायद फिर कन्नौज की ओर) आगे बढने की योजना बनाई और अपनी सेना के दो भाग किये -

1- अल रहमान अल मुर्री के नेतृत्व में गुजरात की ओर
2 - स्वयं जुनैद के नेतृत्व में मालवा की ओर

अरब तूफान की तरह आगे बढे नांदीपुरी में दद्द द्वारा स्थापित प्राचीन राज्य ,राजस्थान में मंडोर का हरिश्चंद्र द्वारा स्थापित प्राचीन राज्य , चित्तौड का मोरी राज्य इस तूफान में उखड गये और यहाँ तक की अरब उज्जैन तक आ पहुँचे और अरबों को लगने लगा कि वे स्पेन ,ईरान और सिंध की कहानी भी यहाँ बस दुहराने ही वाले हैं ..स्थित सचमुच भयावनी हो चुकी थी और तब भारत के गौरव को बचाने के लिये अपने यशस्वी पूर्वजों  कनिष्क महान व मिहिरकुल हूण, श्रीराम व लक्ष्मण के नाम पर गुज्जर यानी गुर्जर अपने सुयोग्य गुर्जर युवक  नागभट्ट प्रथम के नेतृत्व में उठ खडे हुए वे थे ---

-------गुर्जर कैसे बने भारतवर्ष के प्रतिहार ----------

- प्रतिहार सूर्यवंशी ( मिहिर यानी हूणो के वंशज) थे।।
- गुर्जर राष्ट्र रक्षक व प्रतिहार उपाधि से नवाजे गये।।
- गुर्जरो को शत्रु संहारक कहा गया । 

वे भारतीय इतिहास के रंगमंच पर ऐसे समय प्रकट हुए जब भारत अब तक के ज्ञात सबसे भयंकर खतरे का सामना कर रहा था . भारत संस्कृति और धर्म , उसकी ' हिंद ' के रूप में पहचान खतरे में थी अरबों के रूप में " इस्लाम " हिंदुत्व " को निगलने के लिये बेचैन था। गुर्जरेन्द्र  नागभट्ट प्रतिहार के नेतृत्व में दक्षिण के गुर्जर चालुक्य राजा विक्रमादित्य द्वितीय, वल्लभी के गुर्जरराज शिलादित्य मैत्रक और उन्हीं गुर्जर मैत्रक वंश  के गुहिलौत वंश के राणा खुम्माण जिन्हें इतिहास " बप्पा रावल " के नाम से जानता है , के साथ एक संघ बनाया गया संभवतः यशोवर्मन और ललितादित्य भी अपने राष्ट्रीय कर्तव्य से पीछे नहीं हटे और उन्होंने भी इस संघ को सैन्य सहायता भेजी . मुकाबला फिर भी गैरबराबरी का था ----

--- 100000 अरबी योद्धा v/s 40000 गुर्जर सैनिक .

और फिर शुरू हुयी कई युद्धों की श्रंखला जिसे भारत के व विश्व  के  इतिहासकार छुपाते आये हैं  व भारत में मुगलो व तुर्को के आगे झुकने वालो का , अकबर जैसे मुगलो को दामाद बनाने वालो का,हारे हुए छोटे रजवाडे के राजाओ का व हारा हुआ व  छोटे युद्धो का इतिहास पढाकर भारत को नपुंसक का देश व पराजितो का दे श बताकर किरकिरी करवा रखी है, कनिष्क महान जैसे सम्राटो जिन्होंने चीन को हराया, खुशनवाज हूण जैसे परम प्रतापी जिन्होंने फारस के बादशाह फिरोज को तीन बार हराया, मिहिरकुल हूण जैसे सम्राट को जिनका शासन मध्यएशिया तक था व गुर्जर सम्राट मिहिरभोज महान व गुर्जरेन्द्र नागभट प्रतिहार जैसे महान शासको को पढा ने से बचते रहे हैं  बस छोटी मोटी हारो पर कलम घिसते रहे हैं।-

........... "गुर्जरत्रा का युद्ध " .............

गुर्जर सम्राट नागभट्ट प्रतिहार ने 730 ई. में अपनी राजधानी भीनमाल जालौर को बनाकर एक शक्तिशाली नये गुर्जर राज्य की नींव डाली।  गुर्जरसेना ने सम्राट के रूप में नागभट्ट का राज्याभिषेक किया। वह कुशल सेनापति एवं प्रबल देशभक्त थे। गुर्जरेन्द्र नागभट्ट का ही काल वह कुसमय था जब अरब लुटेरों का आक्रमण भारत पर प्रारम्भ हो गया। अरबों ने सिंध प्रांत जीत लिया और फिर मालवा और अन्य राज्यों पर आक्रमण करना प्रारम्भ किया। सिंध पर शासन करने वाला राज्यपाल जुनैद एक खतरनाक अरबी था।उसके पास घोडो और डाकुओं की भारी सेना थी। वह तूफान की तरह सारे पश्चिमी भारत को रौंदता हुआ जालौर की ओर आ रहा था।सभी छोटे - छोटे राज्यों में रहने वाले, व्यक्ति अपना स्थान छोडकर भाग रहे थे। गुर्जर सम्राट नागभट्ट  व भडौच के महाराजा जयभट चपोत्कट ही वे प्रथम योद्धाथे जिन्होने गुर्जरत्रा ( गुर्जरदेश,गुर्जरभूमि, गुर्जरराष्ट्र,गुर्जरधरा, गुर्जरमण्डल) ही नहीं अपने भारत देश को अरबों से मुक्त कराने का बीडा उठाया था।नागभट्ट की गुर्जरसेना छोटी थी, किंतु वह स्वयं जितना साहसी, दिलेर और विवेकशील था, वैसे ही उसकी सेना थी। गुर्जरो का गुर्जर रणनृत्य इन युद्धो में बडा  काम आया इस रणनृत्य के जरिये गुर्जर बडी भयंकर व भयभीत करने वाली आवाजे निकालते थे जिससे शत्रु सेना घबरा उठती थी। गुर्जराधिराज नागभट्ट ने जुनैद के विरूद्ध अपनी मुठ्ठी भर  गुर्जरसेना को खडा कर दिया - पहली ही लडाई में ही जुनैद को करारी शिकस्त झेलनी पडी। 

अरबों के खिलाफ गुर्जरेन्द्र की सफलता अल्पकालिक मात्र न थी, बल्कि उसने अरबों की सेनाओं को बहुत पीछे खदेड दिया था। इस विजय का ऐसा प्रभाव पडा की अनेक भयभीत राजा नागभट्ट से आकर मिल गये। एक वर्ष के बाद ही नागभट्ट गुर्जरेन्द्र ने सिंध पर आक्रमण कर दिया और जुनैद का सिर काट लिया। सारी अरब सेना तितर - बितर होकर भाग खडी हुई, दुश्मनो के हाथ से नागभट्ट ने सैनधक, सुराष्ट्र, उज्जैन, मालवा, भड़ौच आदि राज्यों को मुक्त करा लिया। सन 750 में अरब लोग पुनः एकत्र हो गये। भारत विजय का अभियान छेड दिया। सारी पश्चिमी सीमा अरबो के अत्याचार से त्राहि-त्राहि कर उठी। नागभट्ट आग बबूला होकर युद्ध के लिए आक्रोशित हुआ, उसने तुरंत सीमा की रक्षा के लिए कूच कर दिया। 3000 से ऊपर अरब शत्रुओं को मौत के घाट उतार दिया और देश ने चैन की सांस ली, अपने को नागभट्ट नारायण देव के नाम से अलंकृत किया।

तंदूशे प्रतिहार के तनभृति त्रलोक्यरक्षास्पदे। 
देवो नागभट्ट: पुरातन पुने मुतिवर्षे भूणाद भुतम ।।

मर्तवढ चौहान नागभट्ट का सामंत था वह जैसा वीर था वैसा ही सुयोग्य कवि भी। उसने नागभट्ट प्रशस्ति नामक अच्छे ग्रंथ की रचना की है जो इतिहास और काव्य दोनों है। उसने गुर्जरेन्द्र नागभट्ट को वामन अवतार नाम दिया है। जिन्होने राक्षसों से धरती का उद्धार किया था। चौहान सामंत ने, जुनैद के उत्तराधिकारी तमीम को जिस वीरता से पराजित कर चमोत्कट और भड़ौच से मार भगाया कि नागभट्ट प्रतिहार ने उसे सामंत से भड़ौच का राजा ही बना दिया। सन 760 ई. में गुर्जरेन्द्र का स्वर्गवास हो गया । सन 760 - 775 तक उसके पुत्र कक्कुस्थ और पौत्र देवराज प्रतिहार ने गुर्जर राज्य को संभाला।।

अरब सदैव के लिये सिंधु के उस पार धकेल दिये गये और मात्र टापूनुमा शहर " मनसुरा " तक सीमित होकर रह गये इस तरह ना केवल विश्व को यह बताया गया कि हिंदुस्तान के योद्धा शारीरिक बल में श्रेष्ठ हैं बल्कि यह भी कि उनके हथियार उनकी युद्ध तकनीक और रणनीति विश्व में सर्वश्रेष्ठ है।। 

इस तरह भारत की सीमाओं को सुरक्षित रखते हुए उन्होंने अपना नाम सार्थक किया --

जय सम्राट कनिष्क महान 
जय गुर्जरराज मिहिरकुल हूण 
जय गुर्जरेश मिहिरभोज महान 
जय गुर्जरेन्द्र नागभट प्रतिहार 
जय गुर्जरत्रा,जय हिन्द।।।।।।।।।।।।।।।

Monday, July 4, 2016

Indian Muslim has chance to become civilized .Ban madarsa , मदरसेपेप्रतिबन्धलगाओ

Turkey ....... तुर्की 
20वीं सदी में , टर्की जो की एक जाहिल इस्लामिक देश था वहाँ एक राष्ट्रपति हुए . 
मुस्तफा कमाल अतातुर्क . 

उन्होंने  10 साल के अन्दर टर्की को एक जाहिल इस्लामिक देश से एक modern पढालिखा progressive देश बना दिया . 
सबसे पहले उन्होंने एक अभियान चलाया और टर्की को उसकी अरबी जड़ों से काट के तुर्की आत्मसमान को जागृत किया . 
सबसे पहले उन्होंने देश में अरबी भाषा पे प्रतिबन्ध लगा दिया . अरबी लिपि को त्याग कर Latin आधारित नयी लिपि तुर्की भाषा के लिए विकसित की . उन्होंने देश के शिक्षा विदों से पूछा , हम कितने दिनों में पूरे देश को नयी तुर्की लिपि सिखा देंगे ? 
3 से 5 साल में ? 
राष्ट्रपति ने कहा 3 से 5 महीने में करो ये काम .........
उन्होंने कुरआन शरीफ को नयी तुर्की लिपि में लिखवाया . मस्जिदों से अरबी अजान बंद कर दी गयी . अब अजान तुर्की भाषा में होती थी . अतातुर्क ने कहा हमें अरबी इस्लाम नहीं चाहिए . हमें तुर्की इस्लाम चाहिए . हमें अरबी भाषा में कुरआन रटने वाले मुसलमान नहीं चाहिए बल्कि तुर्की भाषा में कुरआन समझने वाले मुसलमान चाहिए .
उन्होंने Turkey को इस्लामिक state से एक सेक्युलर state बना दिया . 
उन्होंने इस्लामिक शरियत की शरई courts जो सदियों से चली आ रही थी उन्हें बंद कर दिया और तुर्की का नया कानून बनाया जो इस्लामिक न हो के modern था . 
इसके बाद उन्हें मुस्लिम सिविल कोड को abolish कर Turkish सिविल कोड बनाया . मौखिक तलाक गैर कानूनी कर दिया . 4 शादियाँ गैर कानूनी कर दी . family planning अनिवार्य कर दी . 

अतातुर्क ने पूरे देश की शिक्षा व्यवस्था बदल दी . नयी तुर्की लिपि में पाठ्य पुस्तकें लिखी गयी . 
मदरसों और दीनी इस्लामिक शिक्षा पे प्रतिबन्ध लगा दिया गया . पूरी तुर्की में modern शिक्षा को अनिवार्य कर दिया गया . नतीजा ये निकला की सिर्फ 2 सालों में देश में साक्षरता 10% से बढ़ के 70 % हो गयी . 

सबसे बड़ा काम जो अतातुर्क ने किया वो देश के इस्लामिक पहनावे और रहन सहन को बदल दिया . इस्लामिक दाढ़ी , कपडे , पगड़ी प्रतिबंधित कर दी . पुरुषों को पगड़ी की जगह Hat पहनने की हिदायत दी गयी .महिलाओं के लिए हिजाब नकाब बुर्का प्रतिबंधित कर दिया . देखते  देखते महिलाएं घरों से बाहर आ के पढने लिखने लगी और काम करने लगी ........पर्दा फिर भी पूरी तरह ख़तम न हुआ था . 
इसके लिए अतातुर्क ने एक तरकीब निकाली . वेश्याओं के लिए बुर्का और पर्दा अनिवार्य कर दिया . इसका नतीजा ये निकला की जो थोड़ी बहुत महिलाएं अभी भी परदे में रहती थी उन्होंने एक झटके में पर्दा छोड़ दिया . अतातुर्क ने रातों रात देश की महिलाओं को इस्लामिक जड़ता और गुलामी से मुक्त कर दिया .........
उन्होंने महिलाओं को समाज में बराबरी का दर्जा दिया . 1935 के आम चुनावों में तुर्की में 18 महिला सांसद चुनी गयी थी . ये वो दौर था जब की अभी बहुत से यूरोपीय देशों में महिलाओं को मताधिकार तक न था . 

मुस्तफा कमाल अतातुर्क ने सिर्फ 10 साल में इस्लामिक Ottoman empire के एक जाहिल देश को एक modern देश बना दिया था . 

ऐ भारत के मुसलमानों ........ आज एक मौक़ा तुम्हे भी मिल रहा है . इस्लामिक जहालत से मुक्त होने का . मदरसों से हटा के अपने बच्चों को स्कूल भेजो . 
फैसला तुम्हे करना है  . तुम्हारी अपनी लीडरशिप ने तो तुम्हे जानबूझ कर आज तक जाहिल रखा है . वो आज भी आपको जाहिल ही रखना चाहते हैं . . आज भारत में भी एक अतातुर्क आया है जो आपको एक सम्मानजनक जीवन देना चाहता है . 
फैसला आपको ही करना है . 

banmadarsa  मदरसेपेप्रतिबन्धलगाओ

Licensed prostitution in shivapuri in MP India

शिवपुरी। बेशक भारत प्रथाओं और परम्पराओं का देश है। यहां अलग-अलग धर्म और जगहों पर अनेक प्रथाएं प्रचलित हैं। लेकिन क्या आपने किसी ऐसी प्रथा के बारे में सुना है, जिसमें औरतों की खरीद फरोख्त होती हो। वह भी दस रुपये के स्टाम्प पर। अगर नही तो हम आपको बता रहे हैं एक ऐसी ही प्रथा के बारे में जो कुप्रथा बन गयी है। यह प्रथा मध्य प्रदेश के शिवपुरी में प्रचलित है और खूब फल-फूल रही है। यह धड़ीचा प्रथा के नाम से प्रचलित है।


इसी प्रथा की शिकार कल्पना अब तक दो पति बदल चुकी है। और दो साल से दूसरे पति रमेश के साथ रह रही है। इसी तरह रज्जो पहले पति को छोड़कर अब दूसरे पति के साथ है।

दरअसल यहां प्रथा की आड़ में गरीब लड़कियों का सौदा होता है। यह सौदा स्थाई और अस्थाई दोनों तरह का होता है। प्रथा की आड़ में यहां एक तरह से औरतों की मंडी लगती है। इसमें क्षेत्र के पुरुष अपनी पसंदीदा औरत की बोली लगाते हैं। सौदा तय होने के बाद बिकने वाली औरत और खरीदने वाले पुरुष के बीच एक अनुबन्ध किया जाता है। यह अनुबन्ध खरीद की रकम के मुताबिक 10 रुपये से लेकर 100 तक के स्टाम्प पर किया जाता है। घटता लिंगानुपात और गरीबी इस प्रथा के फलने-फूलने का मुख्य कारण है। ।

सामान्य तौर पर अनुबंध छह माह से कुछ वर्ष तक के होते हैं। अनुबंध बीच में छोड़ने का भी रिवाज है। इसे छोड़- छुट्टी कहते हैं। इसमें भी अनुबंधित महिला स्टांप पर शपथपत्र देती है कि वह अब अनुबंधित पति के साथ नहीं रहेगी। ऐसे भी बहुत मामले हैं, जिसमें अनुबंध के माध्यम से एक के बाद एक आठ से दस अलग-अलग धड़ीचा प्रथा के विवाह हुए हैं। अनुबंध बीच में तोड़ने पर कई बार अनुबंधित पति को तय राशि लौटानी पड़ती है। कई बार किसी दूसरे पुरुष से ज्यादा रूपये मिलने पर महिलाएं अनुबंध तोड़ देती हैं। रकम बढ़ने पर पति को सहमति से छोड़ने में महिला को कोई परेशानी नहीं होती है।

यहां हर साल करीब 300 से ज्यादा महिलाओं को दस से 100 रूपये तक के स्टांप पर खरीदा और बेचा जाता है। स्टांप पर शर्त के अनुसार खरीदने वाले व्यक्ति को महिला या उसके परिवार को एक निश्चित रकम अदा करनी पड़ती है। रकम अदा करने व स्टांप पर अनुबंध होने के बाद महिला निश्चित समय के लिए उसकी बहू या व्यक्ति की पत्नी बन जाती है। मोटी रकम पर संबंध स्थायी होते हैं, वरना संबंध समाप्त। अनुबंध समाप्त होने के बाद मायके लौटी महिला का दूसरा सौदा कर दिया जाता है। अनुबंध की राशि समयानुसार 50 हजार से 4 लाख रूपये तक हो सकती है।

धड़ीचा प्रथा: घटता लिंगानुपात बड़ा कारण 

यहां प्रति हजार पुरूषों पर 852 महिलाएं हैं। यही कारण है कि यहां बिहार, झारखंड, छत्तीसगढ़, ओडिशा जैसे गरीब राज्यों से महिलाओं को लाकर धड़ीचा के जरिये बेचा जाता है। सामान्य वर्ग से लेकर कोली, धाकड़, लोधी आदिवासी आदि जातियों में यह चलन जारी है। इसमें सबसे ज्यादा परेशानी बच्चों को उठानी पड़ती है। स्टांप पर लिखा जाता है कि महिला स्वेच्छा से उस व्यक्ति के साथ जीवनयापन करना चाहती है। और वह उसकी पत्नी के रूप में अनुबंध की शर्तों के मुताबिक रहेगी। इस बात का भी उल्लेख होता है, इस रिश्ते से जन्मे बच्चों का अनुबंधित पति की संपत्ति पर हक होगा। फिर भी सबसे ज्यादा नुकसान तब होता है, जब मां बाप अनुबंध खत्म कर अलग हो जाते हैं। और बच्चे किसी एक के पास रह जाते हैं। यदि बच्चे महिला के पास रहते हैं तो वह धड़ीचा प्रथा के तहत दोबारा शादी कर बच्चों को अपने साथ ले जाती है, या नही तो अपने नाना नानी के पास छोड़ जाती है।

जानवरों की तरह होती है खरीद-फरोख्त 

गर्ल्स काउंट के प्रमुख रिजवान परवेज बताते हैं कि लिंग अनुपात कम होने से ढेर सारी सामाजिक बुराईंया जन्म लेती हैं। इन्हीं में से एक औरतों को जानवरों की तरह खरीद फरोख्त करना भी है।

सामाजिक कार्यकर्ता और एडवोकेट शैला अग्रवाल का कहना है कि यह अनुबंध पूरी तरह से गैरकानूनी है, कई बार इसे सरकार के समक्ष उठाया गया। लेकिन, महिलाएं या पीड़ित सामने नहीं आती हैं। जिस कारण यह प्रथा चल रही है।