Thursday, March 8, 2018

आदिनाथ” मंदिर से बनी “अदीना” मस्जिद आइए जानते है कब से शुरु हुआ ये षडयंत्र

“बिजया” मंदिर बना “बीजामंडल” मस्जिद
मूल नाम: बीजा मंडल या बिजया मंदिर (हिन्दू देवी को समर्पित)
स्थान: विदिशा, मध्य प्रदेश
इस्लामिक अत्याचार के बाद परिवर्तित नाम: बीजा मंडल मस्जिद
मध्य प्रदेश की राजधानी भोपाल से लगभग ६० किलोमीटर की दूरी पर स्थित है – विदिशा शहर। विदिशा अपनी बीजामंडल मस्जिद और उसके दिलचस्प इतिहास के लिए प्रसिध्द है।
इस्लामिक राज में भारतवर्ष के बहुत से अद्भुत वैभवशाली मंदिर विनष्ट कर मस्जिद में बदल दिए गए थे। हिन्दू मंदिरों को लूट-खसोट कर, उनकी संपत्ति हड़प कर, उसे तबाह करने के बाद उसी ढहाए हुए मंदिर के बचे हुए अवशेषों से वहां मस्जिद बना दी जाती थी। और इस तरह एक हिन्दू मंदिर मस्जिद में तब्दील कर दिया जाता था, बीजामंडल मस्जिद भी इसी का एक उदाहरण है।
आज अपना सारा वैभव खोकर खड़ा बीजामंडल मुग़ल और इस्लामिक लुटेरों के भीषण क्रूर अत्याचार की दर्दनाक कहानी कह रहा है।
बिजया मंदिर परमार राजाओं द्वारा बनवाया गया प्रतिष्ठा की देवी चर्चिका का मंदिर था। इस मंदिर को ध्वस्त कर उसी की तोड़ी गई सामग्री से वहां बीजामंडल मस्जिद बना दी गई।
वहां मौजूद एक स्तंभ पर मिले संस्कृत अभिलेख के अनुसार मूलतः यह मंदिर विजय दिलाने वाली देवी ‘विजया’ को अर्पित था, जिसे मालवा के राजा नरवर्मन ने बनवाया था। भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण (ASI) भी इसका स्पष्ट उल्लेख करता है।
बीजा या बिजया शब्द – देवी विजया रानी के नाम का ही बिगड़ा हुआ रूप है। इस तरह बीजा मंडल या बिजया मंदिर एक हिन्दू देवी को समर्पित मंदिर था।
सन् १६५८-१७०७ में औरंगजेब की क्रूर निगाह इस पर पड़ी, जिसने अपना शिकार बनाते हुए इसे लूट-खसोट कर तहस-नहस कर दिया। उसने कीमती मूर्तियों को मंदिर के उत्तरी भाग में दबवा दिया और इसे एक मस्जिद में परिवर्तित कर दिया।
भले ही यह परिसर अब भारतीय पुरातत्व विभाग द्वारा स्मारक के रूप में संरक्षित है लेकिन पिछले ३०० वर्षों से इसका इस्तेमाल खासतौर से ईद के मौके पर ईदगाह के रूप में और बड़ी महफिलों के लिए होता आ रहा है।
सन् १९९१ की एक तूफानी रात में इस मस्जिद के उत्तरी किनारे की दीवार भारी बारिश के कारण भहराकर गिर पड़ी। टूट कर उलट-पुलट हो चुकी इस दीवार ने बिजया मंदिर की ३०० वर्ष पुरानी दबी हुई समृद्धि को उजागर कर दिया। भारतीय पुरातत्व विभाग भी यह स्वीकार करता है कि उनके द्वारा वहां खुदाई करवा कर कई तराशी हुई मूर्तियां, बहुमूल्य ख़जाना और प्रतिमाएं प्राप्त की गईं।
बीजामंडल मस्जिद की दिवारों और स्तंभों पर रामायण और महाभारत के अभिलेख खुदे हुए हैं। यह सभी प्रमाण लोगों के देखने के लिए वहां उपलब्ध हैं।
मुसलमानों को इस बात को समझना होगा कि कैसे उनके हिन्दू पूर्वजों (काफिरों) को और उनकी सांस्कृतिक धरोहरों को जबरन इस्लाम में परिवर्तित किया गया है। सांस्कृतिक धरोहर को वापस पाने की इस मुहीम में उन्हें हिन्दुओं के साथ आकर इसे और गति प्रदान करनी चाहिए।




मनीषा सिंह बाईसा जगह मेवाड़ / मेड़ता , राजपुताना राजस्थान की कलम से : 

Sunday, March 4, 2018


कुतुबुद्दीन ऐबक और क़ुतुबमीनार---

किसी भी देश पर शासन करना है तो उस देश के लोगों का ऐसा ब्रेनवाश कर दो कि वो अपने देश, अपनी संस्कृति और अपने पूर्वजों पर गर्व करना छोड़ दें. इस्लामी हमलावरों और उनके बाद अंग्रेजों ने भी भारत में यही किया. हम अपने पूर्वजों पर गर्व करना भूलकर उन अत्याचारियों को महान समझने लगे जिन्होंने भारत पर बेहिसाब जुल्म किये थे।

अगर आप दिल्ली घुमने गए है तो आपने कभी विष्णू स्तम्भ (क़ुतुबमीनार) को भी अवश्य देखा होगा. जिसके बारे में बताया जाता है कि उसे कुतुबुद्दीन ऐबक ने बनबाया था. हम कभी जानने की कोशिश भी नहीं करते हैं कि कुतुबुद्दीन कौन था, उसने कितने बर्ष दिल्ली पर शासन किया, उसने कब विष्णू स्तम्भ (क़ुतुबमीनार) को बनवाया या विष्णू स्तम्भ (कुतूबमीनार) से पहले वो और क्या क्या बनवा चुका था ?

कुतुबुद्दीन ऐबक, मोहम्मद गौरी का खरीदा हुआ गुलाम था. मोहम्मद गौरी भारत पर कई हमले कर चुका था मगर हर बार उसे हारकर वापस जाना पडा था. ख्वाजा मोइनुद्दीन चिश्ती की जासूसी और कुतुबुद्दीन की रणनीति के कारण मोहम्मद गौरी, तराइन की लड़ाई में पृथ्वीराज चौहान को हराने में कामयाबी रहा और अजमेर / दिल्ली पर उसका कब्जा हो गया।

अजमेर पर कब्जा होने के बाद मोहम्मद गौरी ने चिश्ती से इनाम मांगने को कहा. तब चिश्ती ने अपनी जासूसी का इनाम मांगते हुए, एक भव्य मंदिर की तरफ इशारा करके गौरी से कहा कि तीन दिन में इस मंदिर को तोड़कर मस्जिद बना कर दो. तब कुतुबुद्दीन ने कहा आप तीन दिन कह रहे हैं मैं यह काम ढाई दिन में कर के आपको दूंगा।

कुतुबुद्दीन ने ढाई दिन में उस मंदिर को तोड़कर मस्जिद में बदल दिया. आज भी यह जगह "अढाई दिन का झोपड़ा" के नाम से जानी जाती है. जीत के बाद मोहम्मद गौरी, पश्चिमी भारत की जिम्मेदारी "कुतुबुद्दीन" को और पूर्वी भारत की जिम्मेदारी अपने दुसरे सेनापति "बख्तियार खिलजी" (जिसने नालंदा को जलाया था) को सौंप कर वापस चला गय था।

कुतुबुद्दीन कुल चार साल (१२०६ से १२१० तक) दिल्ली का शासक रहा. इन चार साल में वो अपने राज्य का विस्तार, इस्लाम के प्रचार और बुतपरस्ती का खात्मा करने में लगा रहा. हांसी, कन्नौज, बदायूं, मेरठ, अलीगढ़, कालिंजर, महोबा, आदि को उसने जीता. अजमेर के विद्रोह को दबाने के साथ राजस्थान के भी कई इलाकों में उसने काफी आतंक मचाया।

जिसे क़ुतुबमीनार कहते हैं वो महाराजा वीर विक्रमादित्य की वेदशाला थी. जहा बैठकर खगोलशास्त्री वराहमिहर ने ग्रहों, नक्षत्रों, तारों का अध्ययन कर, भारतीय कैलेण्डर "विक्रम संवत" का आविष्कार किया था. यहाँ पर २७ छोटे छोटे भवन (मंदिर) थे जो २७ नक्षत्रों के प्रतीक थे और मध्य में विष्णू स्तम्भ था, जिसको ध्रुव स्तम्भ भी कहा जाता था।

दिल्ली पर कब्जा करने के बाद उसने उन २७ मंदिरों को तोड दिया।विशाल विष्णु स्तम्भ को तोड़ने का तरीका समझ न आने पर उसने उसको तोड़ने के बजाय अपना नाम दे दिया। तब से उसे क़ुतुबमीनार कहा जाने लगा. कालान्तर में यह यह झूठ प्रचारित किया गया कि क़ुतुब मीनार को कुतुबुद्दीन ने बनबाया था. जबकि वो एक विध्वंशक था न कि कोई निर्माता।

अब बात करते हैं कुतुबुद्दीन की मौत की।इतिहास की किताबो में लिखा है कि उसकी मौत पोलो खेलते समय घोड़े से गिरने पर से हुई. ये अफगान / तुर्क लोग "पोलो" नहीं खेलते थे, पोलो खेल अंग्रेजों ने शुरू किया. अफगान / तुर्क लोग बुजकशी खेलते हैं जिसमे एक बकरे को मारकर उसे लेकर घोड़े पर भागते है, जो उसे लेकर मंजिल तक पहुंचता है, वो जीतता है।

कुतबुद्दीन ने अजमेर के विद्रोह को कुचलने के बाद राजस्थान के अनेकों इलाकों में कहर बरपाया था. उसका सबसे कडा विरोध उदयपुर के राजा ने किया, परन्तु कुतुबद्दीन उसको हराने में कामयाब रहा. उसने धोखे से राजकुंवर कर्णसिंह को बंदी बनाकर और उनको जान से मारने की धमकी देकर, राजकुंवर और उनके घोड़े शुभ्रक को पकड कर लाहौर ले आया।

एक दिन राजकुंवर ने कैद से भागने की कोशिश की, लेकिन पकड़ा गया. इस पर क्रोधित होकर कुतुबुद्दीन ने उसका सर काटने का हुकुम दिया. दरिंदगी दिखाने के लिए उसने कहा कि बुजकशी खेला जाएगा लेकिन इसमें बकरे की जगह राजकुंवर का कटा हुआ सर इस्तेमाल होगा. कुतुबुद्दीन ने इस काम के लिए, अपने लिए घोड़ा भी राजकुंवर का "शुभ्रक" चुना।

कुतुबुद्दीन "शुभ्रक" घोडे पर सवार होकर अपनी टोली के साथ जन्नत बाग में पहुंचा. राजकुंवर को भी जंजीरों में बांधकर वहां लाया गया. राजकुंवर का सर काटने के लिए जैसे ही उनकी जंजीरों को खोला गया, शुभ्रक घोडे ने उछलकर कुतुबुद्दीन को अपनी पीठ से नीचे गिरा दिया और अपने पैरों से उसकी छाती पर क् बार किये, जिससे कुतुबुद्दीन वहीं पर मर गया।

इससे पहले कि सिपाही कुछ समझ पाते राजकुवर शुभ्रक घोडे पर सवार होकर वहां से निकल गए. कुतुबुदीन के सैनिको ने उनका पीछा किया मगर वो उनको पकड न सके. शुभ्रक कई दिन और कई रात दौड़ता रहा और अपने स्वामी को लेकर उदयपुर के महल के सामने आ कर रुका. वहां पहुंचकर जब राजकुंवर ने उतर कर पुचकारा तो वो मूर्ति की तरह शांत खडा रहा।

वो मर चुका था, सर पर हाथ फेरते ही उसका निष्प्राण शरीर लुढ़क गया. कुतुबुद्दीन की मौत और शुभ्रक की स्वामिभक्ति की इस घटना के बारे में हमारे स्कूलों में नहीं पढ़ाया जाता है लेकिन इस घटना के बारे में फारसी के प्राचीन लेखकों ने काफी लिखा है. *धन्य है भारत की भूमि जहाँ इंसान तो क्या जानवर भी अपनी स्वामी भक्ति के लिए प्राण दांव पर लगा देते हैं।

।।साभार।।

Thursday, January 11, 2018

एक ऐसा योद्धा जिसे शायद भूल गया भारत


क्या आपने कभी सोचा है कि पूरे उत्तर भारत पर अत्याचार करने वाले मुस्लिम शासक और मुग़ल कभी बंगाल के आगे पूर्वोत्तर भारत पर कब्ज़ा क्यों नहीं कर सके ?
कारण था वो हिन्दू योद्धा जो की इतिहास के पन्नो से गायब है - असम के परमवीर योद्धा "लचित बोरफूकन।" अहोम राज्य (आज का आसाम या असम) के राजा थे चक्रध्वज सिंघा और दिल्ली में मुग़ल शासक था औरंगज़ेब।
औरंगज़ेब का पूरे भारत पे राज करने का सपना अधूरा ही था बिना पूर्वी भारत पर कब्ज़ा जमाये।
इसी महत्वकांक्षा के चलते औरंगज़ेब ने अहोम राज से लड़ने के लिए एक विशाल सेना भेजी। इस सेना का नेतृत्व कर रहा था राजपूत राजा राजाराम सिंह। राजाराम सिंह औरंगज़ेब के साम्राज्य को विस्तार देने के लिए अपने साथ 4000 महाकौशल लड़ाके, 30000 पैदल सेना, 21 राजपूत सेनापतियों का दल, 18000 घुड़सवार सैनिक, 2000 धनुषधारी सैनिक और 40 पानी के जहाजों की विशाल सेनालेकर चल पड़ा अहोम (आसाम) पर आक्रमण करने।
अहोम राज के सेनापति का नाम था "लचित बोरफूकन।" कुछ समय पहले ही लचित बोरफूकन ने गौहाटी को दिल्ली के मुग़ल शासन से आज़ाद करा लिया था।
इससे बौखलाया औरंगज़ेब जल्द से जल्द पूरे पूर्वी भारत पर कब्ज़ा कर लेना चाहता था।
राजाराम सिंह ने जब गौहाटी पर आक्रमण किया तो विशाल मुग़ल सेना का सामना किया अहोम के वीर सेनापति "लचित बोरफूकन" ने।
मुग़ल सेना का ब्रम्हपुत्र नदी के किनारे रास्ता रोक दिया गया। इस लड़ाई में अहोम राज्य के 10000 सैनिक मारे गए और "लचित बोरफूकन" बुरी तरह जख्मी होने के कारण बीमार पड़ गये। अहोम सेना का बुरी तरह नुकसान हुआ।
राजाराम सिंह ने अहोम के राजा को आत्मसमर्पण ने लिए कहा। जिसको राजा चक्रध्वज ने "आखरी जीवित अहोमी भी मुग़ल सेना से लडेगा" कहकर प्रस्ताव अस्वीकार कर दिया।
लचित बोरफुकन जैसे जांबाज सेनापति के घायल और बीमार होने से अहोम सेना मायूस हो गयी थी। अगले दिन ही लचित बोरफुकन ने राजा को कहा कि जब मेरा देश, मेरा राज्य आक्रांताओं द्वारा कब्ज़ा किये जाने के खतरे से जूझ रहा है, जब हमारी संस्कृति, मान और सम्मान खतरे में हैं तो मैं बीमार होकर भी आराम कैसे कर सकता हूँ ? मैं युद्ध भूमि से बीमार और लाचार होकर घर कैसे जा सकता हूँ ? हे राजा युद्ध की आज्ञा दें....
इसके बाद ब्रम्हपुत्र नदी के किनारे सरायघाट पर वो ऐतिहासिक युद्ध लड़ा गया, जिसमे "लचित बोरफुकन" ने सीमित संसाधनों के होते हुए भी मुग़ल सेना को रौंद डाला। अनेकों मुग़ल कमांडर मारे गए और मुग़ल सेना भाग खड़ी हुई। जिसका पीछा करके "लचित बोफुकन" की सेना ने मुग़ल सेना को अहोम राज के सीमाओं से काफी दूर खदेड़ दिया। इस युद्ध के बाद कभी मुग़ल सेना की पूर्वोत्तर पर आक्रमण करने की हिम्मत नहीं हुई। ये क्षेत्र कभी गुलाम नहीं बना।
लोगों को मालूम नहीं कि आज के समय जो NDA कैडेट बेस्ट होता है अर्थात् जो सबसे अच्छा सैनिक NDA पास कर सेना में जाता है उसको "लचित बोरफुकन" मैडल मिलता है।
आज के आसाम में जोरहट शहर में "लचित बोरफुकन" की प्रतिमा है। कभी जोरहट जाएँ तो इस योद्धा को नमन जरूर करें.....

Wednesday, November 22, 2017

Real story of Queen Padmavati


रावल समरसिंह के बाद उनका पुत्र रत्नसिंह चितौड़ की राजगद्दी पर बैठा | रत्नसिंह की रानी पद्मिनी अपूर्व सुन्दर थी | उसकी सुन्दरता की ख्याति दूर दूर तक फैली थी | उसकी सुन्दरता के बारे में सुनकर दिल्ली का तत्कालीन बादशाह अल्लाउद्दीन खिलजी पद्मिनी को पाने के लिए लालायित हो उठा और उसने रानी को पाने हेतु चितौड़ दुर्ग पर एक विशाल सेना के साथ चढ़ाई कर दी | उसने चितौड़ के किले को कई महीनों घेरे रखा पर चितौड़ की रक्षार्थ तैनात राजपूत सैनिको के अदम्य साहस व वीरता के चलते कई महीनों की घेरा बंदी व युद्ध के बावजूद वह चितौड़ के किले में घुस नहीं पाया |
तब उसने कूटनीति से काम लेने की योजना बनाई और अपने दूत को चितौड़ रत्नसिंह के पास भेज सन्देश भेजा कि “हम तो आपसे मित्रता करना चाहते है रानी की सुन्दरता के बारे बहुत सुना है सो हमें तो सिर्फ एक बार रानी का मुंह दिखा दीजिये हम घेरा उठाकर दिल्ली लौट जायेंगे | सन्देश सुनकर रत्नसिंह आगबबुला हो उठे पर रानी पद्मिनी ने इस अवसर पर दूरदर्शिता का परिचय देते हुए अपने पति रत्नसिंह को समझाया कि ” मेरे कारण व्यर्थ ही चितौड़ के सैनिको का रक्त बहाना बुद्धिमानी नहीं है | ” रानी को अपनी नहीं पुरे मेवाड़ की चिंता थी वह नहीं चाहती थी कि उसके चलते पूरा मेवाड़ राज्य तबाह हो जाये और प्रजा को भारी दुःख उठाना पड़े क्योंकि मेवाड़ की सेना अल्लाउद्दीन की विशाल सेना के आगे बहुत छोटी थी | सो उसने बीच का रास्ता निकालते हुए कहा कि अल्लाउद्दीन चाहे तो रानी का मुख आईने में देख सकता है |

अल्लाउद्दीन भी समझ रहा था कि राजपूत वीरों को हराना बहुत कठिन काम है और बिना जीत के घेरा उठाने से उसके सैनिको का मनोबल टूट सकता है साथ ही उसकी बदनामी होगी वो अलग सो उसने यह प्रस्ताव स्वीकार कर लिया |

चितौड़ के किले में अल्लाउद्दीन का स्वागत रत्नसिंह ने अथिती की तरह किया | रानी पद्मिनी का महल सरोवर के बीचों बीच था सो दीवार पर एक बड़ा आइना लगाया गया रानी को आईने के सामने बिठाया गया | आईने से खिड़की के जरिये रानी के मुख की परछाई सरोवर के पानी में साफ़ पड़ती थी वहीँ से अल्लाउद्दीन को रानी का मुखारविंद दिखाया गया | सरोवर के पानी में रानी के मुख की परछाई में उसका सौन्दर्य देख देखकर अल्लाउद्दीन चकित रह गया और उसने मन ही मन रानी को पाने के लिए कुटिल चाल चलने की सोच ली जब रत्नसिंह अल्लाउद्दीन को वापस जाने के लिए किले के द्वार तक छोड़ने आये तो अल्लाउद्दीन ने अपने सैनिको को संकेत कर रत्नसिंह को धोखे से गिरफ्तार कर लिया |

रत्नसिंह को कैद करने के बाद अल्लाउद्दीन ने प्रस्ताव रखा कि रानी को उसे सौंपने के बाद ही वह रत्नसिंह को कैद मुक्त करेगा | रानी ने भी कूटनीति का जबाब कूटनीति से देने का निश्चय किया और उसने अल्लाउद्दीन को सन्देश भेजा कि -“मैं मेवाड़ की महारानी अपनी सात सौ दासियों के साथ आपके सम्मुख उपस्थित होने से पूर्व अपने पति के दर्शन करना चाहूंगी यदि आपको मेरी यह शर्त स्वीकार है तो मुझे सूचित करे | रानी का ऐसा सन्देश पाकर कामुक अल्लाउद्दीन के ख़ुशी का ठिकाना न रहा ,और उस अदभुत सुन्दर रानी को पाने के लिए बेताब उसने तुरंत रानी की शर्त स्वीकार कर सन्देश भिजवा दिया |
उधर रानी ने अपने काका गोरा व भाई बादल के साथ रणनीति तैयार कर सात सौ डोलियाँ तैयार करवाई और इन डोलियों में हथियार बंद राजपूत वीर सैनिक बिठा दिए डोलियों को उठाने के लिए भी कहारों के स्थान पर छांटे हुए वीर सैनिको को कहारों के वेश में लगाया गया |इस तरह पूरी तैयारी कर रानी अल्लाउद्दीन के शिविर में अपने पति को छुड़ाने हेतु चली उसकी डोली के साथ गोरा व बादल जैसे युद्ध कला में निपुण वीर चल रहे थे | अल्लाउद्दीन व उसके सैनिक रानी के काफिले को दूर से देख रहे थे | सारी पालकियां अल्लाउदीन के शिविर के पास आकर रुकीं और उनमे से राजपूत वीर अपनी तलवारे सहित निकल कर यवन सेना पर अचानक टूट पड़े इस तरह अचानक हमले से अल्लाउद्दीन की सेना हक्की बक्की रह गयी और गोरा बादल ने तत्परता से रत्नसिंह को अल्लाउद्दीन की कैद से मुक्त कर सकुशल चितौड़ के दुर्ग में पहुंचा दिया |
http://bit.ly/2h2IYjL


Sunday, June 25, 2017

Story of Jaichand after he helped Mohammedn Gauri kill Prithviraj Chauhan- Decoded,


The name ‘Jaichand’ is today synonymous with treason and treachery. As history tells us, he was initially allied with Prithviraj Chauhan, the ruler of Delhi and north India. This grand alliance, along with some other prominent Rajputs, had enabled Prithviraj Chauhan to crush Mohammed Ghori in the First Battle of Tarain (1191). After the battle, instead of nipping the threat in the bud, Chauhan allowed Ghori to retreat and escape. And that is the point from where things started going from bad to worse. Historians are divided as to what exactly transpired in the one year after the first battle of Tarain. The most popular account is about how Jaichand, the ruler of Kannauj, was unwilling to give his daughter’s hand in marriage to Prithviraj Chauhan, and this then snowballed into a political rivalry. After this, even a few battles were fought between the armies of Prithviraj Chauhan and Jaichand, and in the process Prithviraj lost some of his best generals.
Meanwhile, Mohammed Ghori, still smarting from his defeat, planned extensively for a second invasion. Prithviraj Chauhan cobbled up an alliance to face him, like he had the first time. Jaichand, the powerful ruler of Kannauj with a rich city like Varanasi under him, refused to help. Some chronicles state he actively helped Mohammed Ghori. In the Second Battle of Tarain, the depleted forces of Prithviraj Chauhan were defeated and the ruler of Delhi killed.
That is what history is. Popular knowledge ends with the Second Battle of Tarain. There are some very obvious lessons to be learnt here. But perhaps the bigger lesson lies in knowing what happened to Jaichand a mere two years after staying aloof from the battle that killed Prithviraj Chauhan.
One would believe that for staying away from Tarain he must have been justly rewarded by Mohammed Ghori, the new ruler of Delhi. If not anything else, at least some kind of alliance? A peaceful old age and long-running dynasty for sure? Jaichand, we must remember, ruled over a vast area, stretching from today’s Kannauj to Varanasi. Certainly, if his presence or rather absence decided the battle, he cannot have been an unimportant person. His kingdom included today’s eastern Uttar Pradesh and western Bihar, including the holy city of Varanasi. With the demise of Prithviraj Chauhan, Jaichand automatically became one of the most powerful rulers in north India. But Jaichand’s name is no longer found in history, and India’s history from 1192 takes a definitive turn.
Mohammed Ghori returned to his domains beyond the Khyber Pass, and left Qutubuddin Aibak to ‘settle matters’ in the newly conquered territories. He battled at Delhi and Ajmer, and finished the remnants of Prithviraj Chauhan’s army. Then he turned towards modern day Meerut and Aligarh, areas under the influence of Kannauj and Jaichand. Next in line was Kannauj itself! At this point, Mohammed Ghori once again descended from the Khyber Pass and joined Qutubuddin Aibak. Together, they attacked the person who had aided them just two years before! Jaichand, now fighting all alone and for himself, put on his armour and led his army out of Kannauj.
Somewhere in the region between Kannauj and Etawah, at a place called Chandwar (near modern Firozabad), the two armies clashed. A pitched battle was fought, but in the intervening three years, Mohammed Ghori had increased his army’s size manifold. Even so, Kannauj fought well until an arrow felled Jaichand — and Ghori had a clean sweep of this battlefield too.
A contemporary chronicle, Tarikh e Firoz Shahi, states that Jaichand’s head was presented to Ghori and Qutubuddin Aibak after this battle. Jaichand’s son then prepared to defend Kannauj, but Mohammed Ghori instead made his way to Varanasi. The holy city on the banks of the Ganges was also an important financial centre for the kings of Kannauj. Pillaging and destruction of the city followed. Ghori also occupied the fort of Asni. It is said that Mohammed Ghori, at the end of this campaign, returned with a loot that had to be carried on 1,400 camels!
As for Kannauj, it was once the principal cities of ancient India. Even at the time of Jaichand, it exerted considerable clout. Following his death, the kingdom shrunk to just the size of the city and merely a few years later, Iltutmish finished the remnants. As an ex-KGB spy would say, Jaichand perfectly fit the bill of a “useful idiot”.
The writer is the author of Brahmaputra – The Story of Lachit Barphukan and Sahyadris to Hindukush

Monday, April 17, 2017

भगवान और प्रकृति तथा कलयुग


एक मोटी शंका प्राय: उठा करतीं है कि इस दुनिया को ईशवर ने बनाया है तो ईशवर को किसने बनाया है और ईशवर है तो दिखाई क्यों नही देता । इसका समाधान सरल है । निर्माण सिर्फ़ भौतिक स्थूल पदार्थों का होता है, चेतनस्वरूप निराकार अनादि कारण का नही होता । इस संसार में तीन चीजें अनादि अनन्त है - ईशवर , जीव और जगत का कारण प्रकृति। प्रकृति स्थूल रूप में ही बनती बिगड़ती है पर तत्व रूप में यह भी अनादि अनन्त है।जैसे माता पिता शरीर की रचना करते है , शरीर में रहने वाली आत्मा की नही , माता पिता शरीर की रचना में सहयोगी कारण ही होते है स्वयं उत्पादक नही होते, क्योंकि कोई भी निर्माता रचनाकार होता है उत्पादक नही होता । इसी प्रकार ईशवर इस संसार का रचनाकार, रचियता याने सृजनकार ही है, प्रन्तु प्रकृति (संसार ) का उत्पादक नही।पहले से बनी चली आ रही होने से ही इसे प्रकृति कहते है अत:प्रकृति भी ईशवर और जीव की तरह अपने सुक्ष्म तत्व कारण रूप में अनादि अनन्त है । जैसे जीव के बिना शरीर जड़ होता है वैसे ही ईशवर के बिना प्रकृति जड़ पदार्थ होने से, ईशवर के बिना खुद कुछ नही कर पाती । इसलिए ये तीनों - ईशवर- जीव - प्रकृति अनादि और अनन्त है।इनको पैदा नही किया जा सकता इसलिए इनको पैदा करने वाला भी कोई नही है।संसार में जो भी है वह रूप ही बदलता है कभी नष्ट नही होता और जो नही है वह कभी उत्पन्न नही हो सकता । हम रूप बदलने को ही उत्पत्ति मानते है पर रूप बदलना सिर्फ़ रूप और स्थिति का ही उत्पन्न होता है पदार्थ का उत्पन्न होना नही होता क्योंकि जो' है' वह कभी भी नही हो सकता और जो नही है वह कभी भी 'है' नही हो सकता ।
   दुसरी शंका है कि ईशवर दिखता क्यों नही तो वह इसलिए की ईशवर आँखों का विषय नही है। जैसे हमें शरीर ही दिखता है शरीर के अन्दर रहने वाली आत्मा नही । वैसे ही संसार का हर पदार्थ ही दिखाई देता है संसार में रहने वाला व्याप्त परमात्मा निराकार होने से दिखाई नही देता । किसी चीज़ के दिखाई न देने से उसका न होना सिद्ध नही होता क्योंकि संसार मे ऐसी बहुत सी चीजें है जो है पर दिखाई नही देती ।जैसे दूध में घी, फूलों में सुगंध, अपनी बुराई, दुसरे की भलाई, बीज में वृक्ष, शरीर में होने वाली पीड़ा दिखाई नही देती वैसे ही कण-कण में व्याप्त और विधमान रहने वाला ईशवर भी दिखाई नही देता ।

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🌷 न यंत्र देशोदधृतिर्कामनास्ते न मातृभूमेर्हितं चिन्तनं च।
न राष्ट्ररक्षा बलिदान भाव:श्मशान तुल्यं नर जीवनं तत्।।( महर्षि चाणक्य )

🌷 जहाँ देश के उद्धार के लिए कामना ( इच्छा ) नही है, और न मातृभूमि का हित करने के लिए चिन्तन होता है , न ही राष्ट्र की रक्षा के लिए बलिदान का भाव है उस राष्ट्र में मनुष्य का जीवन श्मशान के समान शोकमय होता होता है।
ओउम्

*🌻भागवत में लिखी ये 10 भयंकर बातें कलयुग में हो रही हैं सच,...*👇
 

1.ततश्चानुदिनं धर्मः
सत्यं शौचं क्षमा दया ।
कालेन बलिना राजन्
नङ्‌क्ष्यत्यायुर्बलं स्मृतिः ॥
 

*कलयुग में धर्म, स्वच्छता, सत्यवादिता, स्मृति, शारीरक शक्ति, दया भाव और जीवन की अवधि दिन-ब-दिन घटती जाएगी.*
 

2.वित्तमेव कलौ नॄणां जन्माचारगुणोदयः ।
धर्मन्याय व्यवस्थायां
कारणं बलमेव हि ॥
 

*कलयुग में वही व्यक्ति गुणी माना जायेगा जिसके पास ज्यादा धन है. न्याय और कानून सिर्फ एक शक्ति के आधार पे होगा !*  
 

3.  दाम्पत्येऽभिरुचि  र्हेतुः
मायैव  व्यावहारिके ।
स्त्रीत्वे  पुंस्त्वे च हि रतिः
विप्रत्वे सूत्रमेव हि ॥

 
*कलयुग में स्त्री-पुरुष बिना विवाह के केवल रूचि के अनुसार ही रहेंगे.*
*व्यापार की सफलता के लिए मनुष्य छल करेगा और ब्राह्मण सिर्फ नाम के होंगे.*
 

4. लिङ्‌गं एवाश्रमख्यातौ अन्योन्यापत्ति कारणम् ।
अवृत्त्या न्यायदौर्बल्यं
पाण्डित्ये चापलं वचः ॥

 

*घूस देने वाले व्यक्ति ही न्याय पा सकेंगे और जो धन नहीं खर्च पायेगा उसे न्याय के लिए दर-दर की ठोकरे खानी होंगी. स्वार्थी और चालाक लोगों को कलयुग में विद्वान माना जायेगा.*
 

5. क्षुत्तृड्भ्यां व्याधिभिश्चैव
संतप्स्यन्ते च चिन्तया ।
त्रिंशद्विंशति वर्षाणि परमायुः
कलौ नृणाम.
 

*कलयुग में लोग कई तरह की चिंताओं में घिरे रहेंगे. लोगों को कई तरह की चिंताए सताएंगी और बाद में मनुष्य की उम्र घटकर सिर्फ 20-30 साल की रह जाएगी.*

 
6. दूरे वार्ययनं तीर्थं
लावण्यं केशधारणम् ।
उदरंभरता स्वार्थः सत्यत्वे
धार्ष्ट्यमेव हि॥
 

*लोग दूर के नदी-तालाबों और पहाड़ों को तीर्थ स्थान की तरह जायेंगे लेकिन अपनी ही माता पिता का अनादर करेंगे. सर पे बड़े बाल रखना खूबसूरती मानी जाएगी और लोग पेट भरने के लिए हर तरह के बुरे काम करेंगे.*
 

7. अनावृष्ट्या  विनङ्‌क्ष्यन्ति दुर्भिक्षकरपीडिताः । शीतवातातपप्रावृड्
हिमैरन्योन्यतः  प्रजाः ॥
 

*कलयुग में बारिश नहीं पड़ेगी और हर जगह सूखा होगा.मौसम बहुत विचित्र अंदाज़ ले लेगा. कभी तो भीषण सर्दी होगी तो कभी असहनीय गर्मी. कभी आंधी तो कभी बाढ़ आएगी और इन्ही परिस्तिथियों से लोग परेशान रहेंगे.*
 

8. अनाढ्यतैव असाधुत्वे
साधुत्वे दंभ एव तु ।
स्वीकार एव चोद्वाहे
स्नानमेव प्रसाधनम् ॥

 
*कलयुग में जिस व्यक्ति के पास धन नहीं होगा उसे लोग अपवित्र, बेकार और अधर्मी मानेंगे. विवाह के नाम पे सिर्फ समझौता होगा और लोग स्नान को ही शरीर का शुद्धिकरण समझेंगे.*
 

9. दाक्ष्यं कुटुंबभरणं
यशोऽर्थे धर्मसेवनम् ।
एवं प्रजाभिर्दुष्टाभिः
आकीर्णे क्षितिमण्डले ॥

 
*लोग सिर्फ दूसरो के सामने अच्छा दिखने के लिए धर्म-कर्म के काम करेंगे. कलयुग में दिखावा बहुत होगा और पृथ्वी पे भृष्ट लोग भारी मात्रा में होंगे. लोग सत्ता या शक्ति हासिल करने के लिए किसी को मारने से भी पीछे नहीं हटेंगे.*
 

10. आच्छिन्नदारद्रविणा
यास्यन्ति गिरिकाननम् ।
शाकमूलामिषक्षौद्र फलपुष्पाष्टिभोजनाः ॥
 

*पृथ्वी के लोग अत्यधिक कर और सूखे के वजह से घर छोड़ पहाड़ों पे रहने के लिए मजबूर हो जायेंगे. कलयुग में ऐसा वक़्त आएगा जब लोग पत्ते, मांस, फूल और जंगली शहद जैसी चीज़ें खाने को मजबूर होंगे.*
   

श्रीमद भागवतम मे लिखी ये बातें इस कलयुग में सच होती दिखाई दे रही है.
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