Monday, April 18, 2016

चक्रवर्ती सम्राट विक्रमादित्य



विक्रम संवत के प्रवर्तक चक्रवर्ती सम्राट विक्रमादित्य
सन् 2016 नव संवतसर 08 अप्रैल विक्रम 2073
विक्रम संवत के प्रवर्तक चक्रवर्ती सम्राट विक्रमादित्य
यो रुमदेशधिपति शकेश्वरं जित्वा गृहीत्वोज्जयिनी महाहवे |
आनीय संभ्राम्य मुमोचयत्यहो स विक्रमार्कः समस हयाचिक्र्मः||
(- 'ज्योतिविर्दाभरण ' नमक ज्योतिष ग्रन्थ २२/ १७ से .......)
यह श्लोक स्पष्टतः यह बता रहा है कि रुमदेशधिपति .. रोम देश के स्वामी शकराज ( विदेशी राजाओं को तत्कालीन भाषा में शक ही कहते थे , तब शकों के आक्रमण से भारत त्रस्त था ) को पराजित करके विक्रमादित्य ने बंदी बना लिया और उसे उज्जैनी नगर में घुमा कर छोड़ दिया था | यही वह शौर्य है जो पाश्चात्य देशों के ईसाई वर्चस्व वाले इतिहास करों को असहज कर देता है और इससे बच निकालनें के लिए वे एक ही शब्द का उपयोग करते हैं 'यह मिथक है '/ 'यह सही नहीं है'...| उनके साम्राज्य में पूछे भी कौन कि हमारी सही बातें गलत हैं तो आपकी बातें सही कैसे हैं ..? यही कारण है कि आज जो इतिहास हमारे सामनें है वह भ्रामक और झूठा होनें के साथ साथ योजना पूर्वक कमजोर किया गया इतिहास है | पाश्चत्य इतिहासकार रोम की इज्जत बचानें और अपनें को बहुत बड़ा बतानें के लिए चक्रवर्ती सम्राट विक्रमादित्य के अस्तित्व को भी नकारते हैं .., मगर हमारे देश में जो लोक कथाएं , किंवदंतियाँ और मौजूदा तत्कालीन साहित्य है वह बताता है कि श्री राम और श्री कृष्ण के बाद कोई सबसे लोकप्रिय चरित्र है तो वह सम्राट विक्रमादित्य का है ..! वे लोक नायक थे , उनके नाम से सिर्फ विक्रम संवत ही नहीं , बेताल पच्चीसी और सिंहासन बतीसी का यह नायक , भास्कर पुराण में अपने सम्पूर्ण वंश वृक्ष के साथ उपस्थित है | विक्रमादित्य परमार वंश के राजपूत थे उनका वर्णन सूर्यमल्ल मिश्रण कृत वंश भास्कर में भी है | उनके वंश के कई प्रशिद्ध राजाओं के नाम पर चले आरहे नगर व क्षेत्र आज भी हमारे बीच उपस्थित हैं ..!! जैसे देवास , इंदौर, भोपाल और बुन्देलखंड नामों का नाम करण विक्रमादित्य के ही वंशज राजाओं के नाम पर है|
दूसरी बात कई इतिहासकार चन्द्रगुप्त द्वितीय को भी विक्रमादित्य सिद्ध करनें कि कोशिस करते हैं .., यह भी गलत है , क्यों कि शकों के आक्रमण कई सौ साल तक चले हैं और उनसे अनेकों भारतीय सम्राटों ने युद्ध किये और उन्हें वापस भी खदेड़ा ..! बाद के कालखंड में किसी एक शक शाखा को चन्द्रगुप्त ने भी पराजित किया था, तब उनका सम्मान विक्रमादित्य के अलंकारं से किया गया था | क्यों कि उन्होंने मूल विक्रमादित्य जैसा कार्य कर दिखाया था | मूल या आदि विक्रमादित्य की पदवी तो शाकिर और सह्सांक थी | वे उज्जैनी के राजा थे |
विक्रम और शालिवाहन संवत
वर्तमान भारत में दो संवत प्रमुख रूप से प्रचलित हैं , विक्रम संवत और शक-शालिवाहन संवत | दोनों संवतों का सम्बन्ध शकों की पराजय से है | उज्जैन के पंवार वंशीय राजा विक्रमादित्य ने जब शकों को सिंध के बहार धकेल कर महँ विजय प्राप्त की थी , तब उन्हें शाकिर की उपाधि धारण करवाई गई थी तथा तब से ही विक्रम संवत का शुभारम्भ हुआ | विक्रमादित्य की मृत्यु के पश्चात शकों के उपद्रव पुनः प्रारंभ हो गए , तब उन्ही के प्रपोत्र राजा शालिवाहन ने शकों को पुनः पराजित किया और इस अवसर पर शालिवाहन संवत प्रारंभ हुआ , जिसे हमारी केंद्र सरकार ने राष्ट्रिय संवत मन है , जो की सौर गणना पर आधारित है |
सम्राट विक्रमादित्य
उज्जैनी के चक्रवर्ती सम्राट विक्रमादित्य के महान साम्राज्य क्षेत्र में वर्तमान भारत , चीन , नेपाल , भूटान , तिब्बत , पाकिस्तान , अफगानिस्तान, रूस , कजाकिस्तान , अरब क्षेत्र , इराक, इरान, सीरिया, टर्की , माय्मंर ,दोनों कोरिया श्री लंका इत्यादि क्षेत्र या तो सम्मिलित थे अथवा संधिकृत थे | उनका साम्राज्य सुदूर बलि दीप तक पूर्व में और सऊदी अरब तक पश्चिम में था |
"Sayar -UI -Oknu " Makhtal -e - Sultania / Library in Istanbul , Turky के अनुसार सम्राट विक्रमादित्य ने अरब देशों पर शासन किया है , अनेंकों दुर्जेय युद्ध लडे और संधियाँ की |
यह सब इस लिए हुआ कि भारत में किसी भी राजा को सामर्थ्य के अनुसार राज्य विस्तार की परम्परा थी , जो अश्वमेध यज्ञ के नाम से जानी जाती थी | उनसे पूर्व में भी अनेकों राजाओं के द्वारा यह होता रहा है ,राम युग में भी इसका वर्णन मिलता है | कई उदहारण बताते हैं कि विक्रमादित्य की अन्य राज्यों से संधियाँ मात्र कर प्राप्ति तक सिमित नहीं थी , बल्कि उन राज्यों में समाज सुव्यवस्था, शिक्षा का विस्तार , न्याय और लोक कल्याण कार्यों की प्रमुखता को भी संधिकृत किया जाता था | अरब देशों में उनकी कीर्ति इसीलिए है की उन्होंने वहां व्याप्त तत्कालीन अनाचार की समाप्त करवाया था | वर्त्तमान ज्ञात इतिहास में विक्रम जितना बड़ा साम्राज्य और इतनी विजय का कोई समसामयिक रिकार्ड सामनें आता है सिवाय ब्रिटेन की विश्व विजय के | सिकंदर जिसे कथित रूप से विश्व विजेता कहा जाता है , विक्रम के सामनें वह बहुत ही बौना था, उसने सिर्फ कई देशों को लूटा , शासन नहीं किया ..! उसे लुटेरा ही कहा जा सकता है एक शासक के जो कर्तव्य हैं उनकी पूर्ती का कोई इतिहास सिकंदर का नहीं है | जनश्रुतियां हैं की विक्रम की सेना के घोड़े एक साथ तीन समुद्रों का पानी पीते थे |
भारतीय पुरुषार्थ को निकला ...
विक्रमादित्य तो एक उदाहरण मात्र है , भारत का पुराना अतीत इसी तरह के शौर्य से भरा हुआ है | भारत पर विदेशी शासकों के द्वारा लगातार राज्य शासन के बावजूद निरंतर चले भारतीय संघर्ष के लिए येही शौर्य प्रेरणाएं जिम्मेवार हैं | भारत पर शासन कर रही ईस्ट इण्डिया कंपनी और ब्रिटिश सरकार ने उनके साथ हुए कई संघर्ष और १८५७ में हुई स्वतंत्रता क्रांति के लिए भारतीय शौर्य को ही जिम्मेवार माना और उससे भारतियों को विस्मृत करनें का कार्यक्रम संचालित हुआ ताकि भारत की संतानें पुनः आत्मोत्थान प्राप्त न कर सकें | एक सुनियोजित योजना से भारत वासियों को हतोत्साहित करने के लिए प्रेरणा खंडों को लुप्त किया गया , उन्हें इतिहास से निकाल दिया गया , उन महँ अध्यायों को मिथक या कभी अस्तित्व में नहीं रहे ..., इस तरह की भ्रामकता थोपी गई |
अरबी और यूरोपीय इतिहासकार श्री राम , श्री कृष्ण और विक्रमादित्य को इसी कारन लुप्त करते हैं कि भारत का स्वाभिमान पुनः जाग्रत न हो , उसका शौर्य और श्रेष्ठता पुनः जम्हाई न लेने लगे | इसीलिए एक जर्मन इतिहासकार पाक़ हेमर ने एक बड़ी पुस्तक ' इण्डिया - रोड टू नेशनहुड ' लिखी है , इस पुस्तक में उन्होंने लिखा है कि " जब में भारत का इतिहास पढ़ रहा हूँ लगता है कि भारत कि पिटाई का इतिहास पढ़ रहा हूँ ,- भारत के लोग पिटे ,मरे ,पारजित हुए ,यही पढ़ रहा हूँ ! इससे मुझे यह भी लगता है कि यह भारत का इतिहास नहीं है |" पाक हेमर ने आगे उम्मीद की है कि " जब कभी भारत का सही इतिहास लिखा जायेगा , तब भारत के लोगों में , भारत के युवकों में ,उसकी गरिमा की एक वारगी ( उत्प्रेरणा ) आयेगी |"
अर्थात हमारे इतिहास लेखन में योजना पूर्वक अंग्रजों नें उसकी यशश्विता को निकल बहार किया , उसमें से उसके पुरुषार्थ को निकल दिया ,उसके मर्म को निकल दिया , उसकी आत्मा को निकल दिया ..! महज एक मरे हुए शारीर की तरह मुर्दा कर हमें पारोष दिया गया है | जो की झूठ का पुलंदा मात्र है |
भारत अपने इतिहास को सही करे ..!
हाल ही में भारतीय इतिहास एवं सभ्यता के संदर्भ में अँतरराष्ट्रिय संगोष्ठी ११-१३ जनवरी २००९ को नई दिल्ली में हुई , जिसमें १५ देशों के विशेषज्ञ एकत्र हुए थे ,उँ सभी ने एक स्वर में कहा अंग्रेजों के द्वारा लिखा गया लिखाया गया इतिहास झूठा है तथा इस का पुनः लेखन होना चाहिए | इसमें हजारों वर्षो का इतिहास छूठा हुआ है , कई बातें वास्तविकता से मेल नहीं खाती हैं | उन्होंने बताया की विश्व के कई देशों ने स्वतन्त्र होनें के बाद अपने देश के इतिहास को पुनः लिखवाया है उसे सही करके व्यवस्थित किया है | भारत अपने इतिहास को सही करे ..!
बहुत कम है भारतीय इतिहास ....
भारत के नई दिल्ली स्थित संसद भवन ,विश्व का ख्याति प्राप्त विशाल राज प्रशाद है , जब इसे बनाए की योजना बन रही थी ; तब ब्रिटिश सरकार ने एक गुलाम देश में इतनें बड़े राज प्रशाद निर्माण के औचित्य पर प्रश्न खड़ा किया था| इतने विशाल और भव्य निर्माण की आवश्यकता क्या है ? तब ब्रिटिश सरकार को बताया गया कि ; भारत कोई छोटा मोटा देश नहीं है ; यहाँ सैंकड़ों बड़ी बड़ी रियासतें हैं और उनके राज प्रशाद भी बहुत बड़े बड़े तथा विशालतम हैं..! उनकी भव्यता और क्षेत्रफल भी असामान्य रूप से विशालतम हैं ! उनको नियंत्रित करने वाला राज प्रशाद कम से कम इतना बड़ा तो होना चाहिए कि वह उनसे श्रेष्ठ न सही तो कमसे कम सम कक्ष तो हो ..! इसी तथ्य के आधार पर भारतीय संसद भवन के निर्माण कि स्वीकृति मिली !
अर्थात जिस देश में लगातार हजारों राजाओं का राज्य एक साथ चला हो , उस देश का इतिहास महज चंद अध्यायों में पूरा हो गया ..? क्षेत्रफल , जनसँख्या और गुजरे विशाल अतीत के आधार पर यह इतिहास महज राई भर भी नहीं है !न ही एतिहासिक तथ्य हैं , न हीं स्वर्णिम अध्याय ,न हीं शौर्य गाथाएं ...! सब कुछ जो भारत के मस्तक को ऊँचा उठता हो वह गायव कर दिया गया ..!! नष्ट कर दिया गया !!
इस्लाम के आक्रमण ने लिखित इतिहास जलाये यह एक सच और निर्विवाद तथ्य है कि इस्लाम ने जन्मते ही विश्व विजय कि आंधी चलाई उससे अक तरफ यूरोप और दूसरी तरफ पुर्व एसिया गंभीरतम प्रभावित हुआ , जो भी पुराना लिखा था उसे जलाया गया ! बड़े बड़े पुस्तकालय नष्ट कर दिए गए | मगर जन श्रुतियों में इतिहास का बहुत बड़ा हिस्सा बचा हुआ था , जागा परम्परा ने भी इतिहास को बचा कर रखा था | मगर इतिहास संकलन में इन पर गौर ही नहीं किया गया | राजपूताना का इतिहास लिखते हुए कर्नल टाड कहते हैं कि " जब से भारत पर महमूद ( गजनी ) द्वारा आक्रमण होना प्रारम्भ हुआ , तब से मुस्लिम शासकों नें जो निष्ठुरता ; धर्मान्धता दिखाई ,उसको नजर में रखनें पर , बिलकुल आश्चर्य नहीं होता कि भारत में इतिहास के ग्रन्थ बच नहीं पाए ! इस पर से यह असंभवनीय अनुमान निकलना भी गलत है कि हिन्दू लोग इतिहास लिखना जानते नहीं थे | अन्य विकसित देशों में इतिहास लेखन कि प्रवृति प्राचीन कल से पाई जाती थी ,तो क्या अति विकसित हिन्दू राष्ट्र में वह नहीं होगी ?" उन्होंने आगे लिखा है कि "जिन्होनें ज्योतिष - गणित आदि श्रम साध्य शास्त्र सूक्ष्मता और परिपूर्णता के साथ अपनाये | वास्तुकला ,शिल्प ,काव्य ,गायन आदि कलाओं को जन्म दिया ,इतना ही नहीं ; उन कलाओं को / विद्याओं को नियम बध्दता ढांचे में ढाल कर उसके शास्त्र शुध्द अध्ययन कि पध्दति सामनें रखी , उन्हें क्या राजाओं का चरित्र और उनके शासनकाल में घटित प्रसंगों को लिखने का मामूली काम करना न आता ..? "
हर ओर विक्रमादित्य ...भारतीय और सम्बध्द विदेशी इतिहास एवं साहित्य के पृष्ठों पर , भारतीय संवत , लोकप्रिय कथाओं ,ब्राह्मण - बौध्द और जैन साहित्य तथा जन श्रुतियों , अभिलेख (एपिग्राफी ) , मौद्रिक ( न्युमीस्टेटिक्स ) तथा मालव और शकों की संघर्ष गाथा आदि में उपलब्ध विभिन्न स्त्रोतों तथा उनमें निहित साक्ष्यों का परिक्षण सिध्द करता है कि "ईस्वी पूर्व प्रथम शताब्दी में सम्राट विक्रमादित्य का अस्तित्व था , वे मालव गणराज्य के प्रमुख थे ,उनकी राजधानी उज्जैनी थी , उन्होंने मालवा को शकों के अधिपत्य से मुक्त करवाया था और इसी स्मृति में चलाया संवत विक्रम संवत कहलाता है | जो प्रारंभ में कृत संवत , बाद में मालव संवत ,सह्सांक संवत और अंत में विक्रम संवत के नाम से स्थायी रूप से विख्यात हुआ | "
धर्म युध्द जैसा विरोध क्यों ....
डा. राजबली पाण्डेय जो काशी हिन्दू विश्वविद्यालय में प्रोफ़ेसर तथा पुरातत्व विभाग के थे , उन्होंने एक टिप्पणी में कहा कि पाश्चात्य इतिहासकार और उनके भारतीय अनुचर विक्रमादित्य के नाम को सुन कर इस तरह से भड़क उठातें हैं कि जैसे कोई धर्मयुध्द का विषय हो ! वे इतनें दृढ प्रतिज्ञ हो जाते हैं कि सत्य के प्रकाशमान तथ्यों को भी देखना और सुनना नहीं चाहते | डा.पाण्डेय ने विक्रमादित्य पर अंग्रेजी में कई खोज परख लेख लिखे, जिस पर उन्हें राष्ट्रिय स्तर के सम्मान से भी पुरुस्कृत किया गया तथा एक अनुसन्धान परक पुस्तक " विक्रमादित्य" लिखकर यह साबित किया है कि विक्रमादित्य न केवल उज्जैन के सम्राट थे अपितु वे एशिया महाद्वीप के एक बड़े भूभाग के विजेता और शासक थे|
भविष्य पुराण में संवत प्रवर्तक
भविष्य पुराण में संवत प्रवर्तक विक्रमादित्य और संवत प्रवर्तक शालिवाहन का जो संक्षिप्त वर्णन मिलाता है , वह इस प्रकार से है "अग्निवंश के राजा अम्बावती नामक पूरी ( कालांतर में यही स्थान उज्जैन कहलाया ) में राज्य करते थे | उनमें एक राजा प्रमर (परमार) हुए , उनके पुत्र महामर (महमद) ने तीन वर्षें तक , उसके पुत्र देवासि ने भी तीन वर्षों तक ,उसके पुत्र देवदूत ने भी तीन वर्षों तक , उनके पुत्र गंधर्वसेन ने पचास वर्षों तक, राज्य कर वानप्रस्थ लिया | वन में उनके पुत्र विक्रमादित्य हुआ उसने सौ वर्षों तक , विक्रमादित्य के पुत्र देवभक्त ने दस वर्षों तक ,देव भक्त को सकों ने पराजित कर मार दिया , देवभक्त का पुत्र शालिवाहन हुआ और उसनें शकों को फिरसे जीत कर साथ वर्षों तक राज किया |" इसी पुराण में इस वंश के अन्य शासक शालिवर्ध्दन,शकहन्ता , सुहोत्र, हविहोत्र,हविहोत्र के पुत्र इन्द्रपाल ने इन्द्रावती के किनारे नया नगर वसाया (जो इंदौर के नाम से प्रशिध्द है ) , माल्यवान ने मलयवती वसाई, शंका दत्त , भौमराज , वत्सराज , भोजराज , शंभूदत्त , बिन्दुपाल ने बिंदु खंड ( बुन्देल खंड )का निर्माण किया | उसके वंश में राजपाल , महीनर , सोम वर्मा , काम वर्मा , भूमिपाल , रंगपाल , कल्प सिंह हुआ और उसने कलाप नगर वसाया ( कालपी ) उसके पुत्र गंगा सिंह कुरु क्षेत्र में निः संतान मरे गए |
४०० वर्षों का लुप्त इतिहास ...
ब्रिटश इतिहासकार स्मिथ आदि ने आंध्र राजाओं से लेकर हर्षवर्धन के राज्यकाल में कोई एतिहासिक सूत्र नहीं देखते | प्रायः चार सौ वर्षों के इतिहास को घोर अंधकार मय मानते हैं | पर भविष्य पुराण में जो वंश वृक्ष निर्दिष्ट हुआ है , यह उन्ही चार सौ वर्षों के लुप्त कल खंड से सम्बध्द है | इतिहासकारों को इससे लाभ उठाना चाहिए |
भारत में विक्रमादित्य अत्यन्त प्रसिध्द , न्याय प्रिय , दानी , परोपकारी और सर्वांग सदाचारी राजा हुए हैं | स्कन्ध पुराण और भविष्य पुराण ,कथा सप्तशती , वृहत्कथा और द्वात्रिश्न्त्युत्तालिका,सिंहासन बत्तीसी , कथा सरितसागर , पुरुष परीक्षा , शनिवार व्रत की कथा आदि ग्रन्थों में इनका चरित्र आया है | बूंदी के सुप्रशिध्द इतिहासकार सूर्यमल्ल मिश्रण कृत वंश भास्कर में परमार वंशीय राजपूतों का सजीव वर्णन मिलता है इसी में वे लिखते हैं "परमार वंश में राजा गंधर्वसेन से भर्तहरी और विक्रमादित्य नामक तेजस्वी पुत्र हुए, जिसमें विक्रमादित्य नें धर्मराज युधिष्ठर के कंधे से संवत का जुड़ा उतार कर अपने कंधे पर रखा | कलिकाल को अंकित कर समय का सुव्यवस्थित गणितीय विभाजन का सहारा लेकर विक्रम संवत चलाया |" | वीर सावरकर ने इस संदर्भ में लिखा है कि एक इरानी जनश्रुति है कि ईरान के राजा मित्रडोट्स जो तानाशाह हो अत्याचारी हो गया था का वध विक्रम दित्य ने किया था और उस महान विजय के कारण विक्रम संवत प्रारम्भ हुआ |
संवत कौन प्रारंभ कर सकता है
यूं तो अनेकानेक संवतों का जिक्र आता है और हर संवत भारत में चैत्र प्रतिपदा से ही प्रारम्भ होता है | मगर अपने नाम से संवत हर कोई नहीं चला सकता , स्वंय के नाम से संवत चलने के लिए यह जरुरी है कि उस राजा के राज्य में कोई भी व्यक्ति / प्रजा कर्जदार नहीं हो ! इसके लिए राजा अपना कर्ज तो माफ़ करता ही था तथा जनता को कर्ज देने वाले साहूकारों का कर्ज भी राज कोष से चुका कर जनता को वास्तविक कर्ज मुक्ति देता था | अर्थात संवत नामकरण को भी लोक कल्याण से जोड़ा गया था ताकि आम जनता का परोपकार करने वाला ही अपना संवत चला सके | सुप्रशिध्द इतिहासकार सूर्यमल्ल मिश्रण कि अभिव्यक्ति से तो यही लगता है कि सम्राट धर्मराज युधिष्ठर के पश्चात विक्रमादित्य ही वे राजा हुए जिन्होनें जनता का कर्ज (जुड़ा ) अपने कंधे पर लिया | इसी कर्ण उनके द्वारा प्रवर्तित संवत सर्वस्वीकार्य हुआ |
४००० वर्ष पुरानी उज्जनी ...अवंतिका के नाम से सुप्रसिध्द यह नगर श्री कृष्ण के बाल्यकाल का शिक्षण स्थल रहा है , संदीपन आश्रम यहीं है जिसमें श्री कृष्ण, बलराम और सुदामा का शिक्षण हुआ था | अर्थात आज से कमसे कम पांच हजार वर्षों से अधिक पुरानी यह नगरी है | दूसरी प्रमुख बात यह है कि अग्निवंश के परमार राजाओ कि एक शाखा चन्द्र प्र्ध्दोत नामक सम्राट ईस्वी सन के ६०० वर्ष पूर्व सत्तारूढ़ हुआ अर्थात लगभग २६०० वर्ष पूर्व और उसके वंशजों नें तीसरी शताव्दी तक राज्य किया | इसका अर्थ यह हुआ कि ९०० वर्षो तक परमार राजाओं का मालवा पर शासन रहा | तीसरी बात यह है कि कार्बन डेटिंग पध्दति से उज्जेन नगर कि आयु ईस्वी सन से २००० वर्ष पुरानी सिध्द हुई है , इसका अर्थ हुआ कि उज्जेन नगर का अस्तित्व कम से कम ४००० वर्ष पूर्व का है | इन सभी बातों से सवित होता है कि विक्रमादित्य पर संदेह गलत है |
नवरत्न ...
सम्राट विक्रमादित्य कि राज सभा में नवरत्न थे .., ये नो व्यक्ति तत्कालीन विषय विशेषज्ञ थे | संस्कृत काव्य और नाटकों के लिए विश्व प्रशिध्द कालिदास , शब्दकोष (डिक्सनरी) के निर्माता अमर सिंह , ज्योतिष में सूर्य सिध्दांत के प्रणेता तथा उस युग के प्रमुख ज्योतिषी वराह मिहिर थे, जिन्होंने विक्रमादित्य की बेटे की मौत की भविष्यवाणी की थी | आयुर्वेद के महान वैध धन्वन्तरी , घटकर्पर , महान कूटनीतिज्ञ बररुची जैन , बेताल भट्ट , संकु और क्षपनक आदि द्विव्य विभूतियाँ थीं | बाद में अनेक राजाओं ने इसका अनुशरण कर विक्रमादित्य पदवी धारण की एवं नवरतनों को राजसभा में स्थान दिया | इसी वंश के राजा भोज से लेकर अकबर तक की राजसभा में नवरतनों का जिक्र है |
वेतालभट्ट एक धर्माचार्य थे. माना जाता है कि उन्होंने विक्रमादित्य को सोलह छंदों की रचना "नीति -प्रदीप" (Niti-pradīpa सचमुच "आचरण का दीया") का श्रेय दिया है.
विक्रमार्कस्य आस्थाने नवरत्नानि
धन्वन्तरिः क्षपणको मरसिंह शंकू वेताळभट्ट घट कर्पर कालिदासाः। ख्यातो वराह मिहिरो नृपते स्सभायां रत्नानि वै वररुचि र्नव विक्रमस्य।।

Manusmriti and Empowerment of Women



इस लेख में हम महर्षि मनु की अनुपम कृति मनुस्मृति पर थोपे गए तीसरे आरोप -स्त्री विरोधी होने और उनकी अवमानना का विश्लेषण करेंगे |
मनुस्मृति में किए गए प्रक्षेपण को हम पहले लेखों में देख ही चुके हैं और हमने यह भी जानाकि इन नकली श्लोकों को आसानी से पहचान कर अलग किया जा सकता है | प्रक्षेपण रहित मूल मनुस्मृति, महर्षि मनु की अत्यंत उत्कृष्ट कृति है | वेदों केबाद मनुस्मृति ही स्त्री को सर्वोच्च सम्मान और अधिकार देती है | आज के अत्याधुनिक स्त्रीवादी भी इस उच्चता तक पहुँचने में नाकाम रहे हैं |
मनुस्मृति ३.५६ – जिस समाज यापरिवार में स्त्रियों का आदर – सम्मान होता है, वहां देवता अर्थात् दिव्यगुण और सुख़- समृद्धि निवास करते हैं और जहां इनका आदर – सम्मान नहीं होता, वहां अनादर करने वालों के सभी काम निष्फल हो जाते हैं भले ही वे कितना हीश्रेष्ट कर्म कर लें, उन्हें अत्यंत दुखों का सामना करना पड़ता है |
यह श्लोक केवल स्त्रीजाति की प्रशंसाकरने के लिए ही नहीं है बल्कि यह कठोर सच्चाई है जिसको महिलाओं की अवमाननाकरने वालों को ध्यान में रखना चाहिए और जो मातृशक्ति का आदर करते हैं उनकेलिए तो यह शब्द अमृत के समान हैं | प्रकृति का यह नियम पूरी सृष्टि मेंहर एक समाज, हर एक परिवार, देश और पूरी मनुष्य जाति पर लागू होता है |
हमइसलिए परतंत्र हुए कि हमने महर्षि मनु के इस परामर्श की सदियों तक अवमाननाकी |आक्रमणों के बाद भी हम सुधरे नहीं और परिस्थिति बद से बदतर होती गई | १९ वीं शताब्दी के अंत में राजा राम मोहन राय, ईश्वरचन्द्र विद्या सागर औरस्वामी दयानंद सरस्वती के प्रयत्नों से स्थिति में सुधार हुआ और हमने वेदके सन्देश को मानना स्वीकार किया |
कई संकीर्ण मुस्लिम देशों मेंआज भी स्त्रियों को पुरुषों से समझदारी में आधे के बराबर मानते हैं औरपुरुषों को जो अधिकार प्राप्त हैं उसकी तुलना में स्त्री का आधे पर हीअधिकार समझते हैं | अत: ऐसे स्थान नर्क से भी बदतर बने हुए हैं | यूरोप मेंतो सदियों तक बाइबिल के अनुसार स्त्रियों की अवमानना के पूर्ण प्रारूप काही अनुसरण किया गया | यह प्रारूप अत्यंत संकीर्ण और शंकाशील था इसलिए यूरोपअत्यंत संकीर्ण और संदेह को पालने वाली जगह थी | ये तो सुधारवादी युग कीदेन ही माना जाएगा कि स्थितियों में परिवर्तन आया और बाइबिल को गंभीरता सेलेना लोगों ने बंद किया | परिणामत: तेजी से विकास संभव हो सका | परंतु अब भी स्त्री एक कामना पूर्ति और भोगकी वस्तु है न कि आदर और मातृत्व शक्ति के रूप में देखी जाती है और यही वजहहै कि पश्चिमी समाज बाकी सब भौतिक विकास के बावजूद भी असुरक्षितता और आन्तरिक शांति के अभाव से जूझ रहा है |
आइए, मनुस्मृति के कुछ और श्लोकों का अवलोकन करें और समाज को सुरक्षित और शांतिपूर्ण बनाएं –
परिवार में स्त्रियों का महत्त्व –
३.५५ – पिता, भाई, पति या देवर कोअपनी कन्या, बहन, स्त्री या भाभी को हमेशा यथायोग्य मधुर- भाषण, भोजन, वस्त्र, आभूषण आदि से प्रसन्न रखना चाहिए और उन्हें किसी भी प्रकार काक्लेश नहीं पहुंचने देना चाहिए |
३.५७ – जिसकुल में स्त्रियां अपने पति के गलत आचरण, अत्याचार या व्यभिचार आदि दोषोंसे पीड़ित रहती हैं, वह कुल शीघ्र नाश को प्राप्त हो जाता है और जिस कुल मेंस्त्रीजन पुरुषों के उत्तम आचरणों से प्रसन्न रहती हैं, वह कुल सर्वदाबढ़ता रहता है |
३.५८-अनादर के कारण जो स्त्रियां पीड़ित और दुखी: होकर पति, माता-पिता, भाई, देवर आदि को शाप देती हैं या कोसती हैं – वह परिवार ऐसे नष्ट हो जाता हैजैसे पूरे परिवार को विष देकर मारने से, एक बार में ही सब के सब मर जातेहैं |
३.५९ – ऐश्वर्य की कामना करने वाले मनुष्यों को हमेशा सत्कार और उत्सव के समय में स्त्रियोंका आभूषण,वस्त्र, और भोजन आदि से सम्मान करना चाहिए |
३.६२- जो पुरुष, अपनी पत्नी कोप्रसन्न नहीं रखता, उसका पूरा परिवार ही अप्रसन्न और शोकग्रस्त रहता है | और यदि पत्नी प्रसन्न है तो सारा परिवार खुशहाल रहता है |
९.२६ – संतान को जन्म देकर घर काभाग्योदय करने वाली स्त्रियां सम्मान के योग्य और घर को प्रकाशित करनेवाली होती हैं | शोभा, लक्ष्मी और स्त्री में कोई अंतर नहीं है | यहां महर्षि मनु उन्हें घर की लक्ष्मी कहते हैं |
९.२८- स्त्री सभी प्रकार केसुखों को देने वाली हैं | चाहे संतान हो, उत्तम परोपकारी कार्य हो या विवाहया फ़िर बड़ों की सेवा – यह सभी सुख़ स्त्रियों के ही आधीन हैं | स्त्रीकभी मां के रूप में, कभी पत्नी और कभी अध्यात्मिक कार्यों की सहयोगी के रूपमें जीवन को सुखद बनाती है | इस का मतलब है कि स्त्री की सहभागिता किसी भी धार्मिक और अध्यात्मिक कार्यों के लिए अति आवश्यक है |
९.९६ – पुरुष और स्त्री एक-दूसरेके बिना अपूर्ण हैं, अत:साधारण से साधारण धर्मकार्य का अनुष्ठान भी पति -पत्नी दोनों को मिलकर करना चाहिए |
४. १८० – एक समझदार व्यक्ति को परिवार के सदस्यों – माता, पुत्री और पत्नी आदि के साथ बहस या झगडा नहीं करना चाहिए |
९ .४ – अपनी कन्या का योग्य वरसे विवाह न करने वाला पिता, पत्नी की उचित आवश्यकताओं को पूरा न करने वालापति और विधवा माता की देखभाल न करने वाला पुत्र – निंदनीय होते हैं |
बहुविवाह पाप है –
९.१०१ – पति और पत्नी दोनों आजीवन साथ रहें, व्यभिचार से बचें, संक्षेप में यही सभी मानवों का धर्म है |
अत: धर्म के इस मूल तत्व कीअवहेलना कर के जो समुदाय – बहुविवाह, अस्थायी विवाह और कामुकता के लियेगुलामी इत्यादि को ज़ायज ठहराने वाले हैं – वे अपने आप ही पतन और विनाश कीओर जा रहे हैं |
स्त्रियों के स्वाधिकार –
९ .११ – धन की संभाल और उसके व्यय की जिम्मेदारी, घर और घर के पदार्थों कीशुद्धि, धर्म और अध्यात्म केअनुष्ठान आदि, भोजन पकाना और घर की पूरी सार -संभाल में स्त्री को पूर्ण स्वायत्ता मिलनी चाहिए और यह सभी कार्य उसी केमार्गदर्शन में होने चाहिए |
इस श्लोक से यह भ्रांत धारणानिर्मूल हो जाती है कि स्त्रियां वैदिक कर्मकांड का अधिकार नहीं रखतीं | इसके विपरीत उन्हें इन अनुष्ठानों में अग्रणी रखा गया है और जो लोगस्त्रियों के इन अधिकारों का हनन करते हैं – वे वेद, मनुस्मृति और पूरीमानवता के ख़िलाफ़ हैं |
९.१२ – स्त्रियां आत्म नियंत्रणसे ही बुराइयों से बच सकती हैं, क्योंकि विश्वसनीय पुरुषों ( पिता, पति, पुत्र आदि) द्वारा घर में रोकी गई अर्थात् निगरानी में रखी हुई स्त्रियांभी असुरक्षित हैं ( बुराइयों से नहीं बच सकती) | जो स्त्रियां अपनी रक्षास्वयं अपने सामर्थ्य और आत्मबल से कर सकती हैं, वस्तुत: वही सुरक्षित रहतीहैं |
जो लोग स्त्रियों की सुरक्षा केनाम पर उन्हें घर में ही रखना पसंद करते हैं, उनका ऐसा सोचना व्यर्थ है | इसके बजाय स्त्रियों को उचित प्रशिक्षण तथा सही मार्गदर्शन मिलना चाहिएताकि वे अपना बचाव स्वयं कर सकें और गलत रास्ते पर भी न जाएं |स्त्रियोंको चारदिवारी में कैद रखना महर्षि मनु के पूर्णत: विपरीत है |
स्त्रियों की सुरक्षा –
९ .६ – एक दुर्बल पति को भी अपनी पत्नी की रक्षा का यत्न करना चाहिए |
९ .५- स्त्रियां चरित्रभ्रष्टता से बचें क्योंकि अगर स्त्रियां आचरणहीन हो जाएंगी तो सम्पूर्ण समाज ही विनष्ट हो जाता है |
५ .१४९- स्त्री हमेशा स्वयं को सुरक्षित रखे | स्त्री की हिफ़ाजत – पिता, पति और पुत्र का दायित्व है |
इस का मतलब यह नहीं है कि मनुस्त्री को बंधन में रखना चाहते हैं | श्लोक ९.१२ में स्त्रियों कीस्वतंत्रता के लिए उनके विचार स्पष्ट हैं | वे यहां स्त्रियों की सामाजिकसुरक्षा की बात कर रहे हैं | क्योंकि जो समाज, अपनी स्त्रियों की रक्षाविकृत मनोवृत्तियों के लोगों से नहीं कर सकता, वह स्वयं भी सुरक्षित नहींरहता |
इसीलिए जब पश्चिम और मध्य एशिया के बर्बर आक्रमणकारियों ने हम पर आक्रमण किए तब हमारे शूरवीरों ने मां- बहनों के सम्मान के लिए प्राण तक न्यौछावर कर दिए ! महाराणा प्रताप के शौर्य और शिवाजी महाराज के बलिदान की कथाएं आज भी हमें गर्व से भर देती हैं |
हमारी संस्कृति के इस महान इतिहासके बावजूद भी हम ने आज स्त्रियों को या तो घर में कैद कर रखा है या उन्हेंभोग- विलास की वस्तु मान कर उनका व्यापारीकरण कर रहे हैं | अगर हमस्त्रियों के सम्मान की रक्षा करने की बजाय उनके विश्वास को ऐसे ही आहतकरते रहे तो हमारा विनाश भी निश्चित ही है |
विवाह –
९.८९ – चाहे आजीवन कन्या पिता के घर में बिना विवाह के बैठी भी रहे परंतु गुणहीन, अयोग्य, दुष्ट पुरुष के साथ विवाह कभी न करे |
९.९० – ९१- विवाह योग्य आयु होनेके उपरांत कन्या अपने सदृश्य पति को स्वयं चुन सकती है | यदि उसके माता -पिता योग्य वर के चुनाव में असफल हो जाते हैं तो उसे अपना पति स्वयं चुनलेने का अधिकार है |
भारतवर्ष में तो प्राचीन काल मेंस्वयंवर की प्रथा भी रही है | अत: यह धारणा कि माता – पिता ही कन्या केलिए वर का चुनाव करें, मनु के विपरीत है | महर्षि मनु के अनुसार वर केचुनाव में माता- पिता को कन्या की सहायता करनी चाहिए न कि अपना निर्णय उसपर थोपना चाहिए, जैसा कि आजकल चलन है |
संपत्ति में अधिकार-
९.१३० – पुत्र के ही समान कन्याहै, उस पुत्री के रहते हुए कोई दूसरा उसकी संपत्ति के अधिकार को कैसे छीन सकता है ?
९.१३१ – माता की निजी संपत्ति पर केवल उसकी कन्या का ही अधिकार है |
मनुके अनुसार पिता की संपत्ति में तो कन्या का अधिकार पुत्र के बराबर है हीपरंतु माता की संपत्ति पर एकमात्र कन्या का ही अधिकार है | महर्षि मनुकन्या के लिए यह विशेष अधिकार इसलिए देते हैं ताकि वह किसी की दया पर नरहे, वो उसे स्वामिनी बनाना चाहते हैं, याचक नहीं | क्योंकि एक समृद्ध औरखुशहाल समाज की नींव स्त्रियों के स्वाभिमान और उनकी प्रसन्नता पर टिकी हुईहै |
९.२१२ – २१३ – यदि किसी व्यक्ति के रिश्तेदार या पत्नी न हो तो उसकी संपत्ति को भाई – बहनों में समान रूप से बांट देना चाहिए | यदि बड़ा भाई, छोटे भाई – बहनों को उनका उचित भाग न दे तो वह कानूनन दण्डनीय है |
स्त्रियों की सुरक्षा को और अधिकसुनिश्चित करते हुए, मनु स्त्री की संपत्ति को अपने कब्जे में लेने वाले, चाहें उसके अपने ही क्यों न हों, उनके लिए भी कठोर दण्ड का प्रावधान करतेहैं |
८.२८- २९ – अकेली स्त्री जिसकीसंतान न हो या उसके परिवार में कोई पुरुष न बचा हो या विधवा हो या जिसकापति विदेश में रहता हो या जो स्त्री बीमार हो तो ऐसे स्त्री की सुरक्षा कादायित्व शासन का है | और यदि उसकी संपत्ति को उसके रिश्तेदार या मित्र चुरालें तो शासन उन्हें कठोर दण्ड देकर, उसे उसकी संपत्ति वापस दिलाए |
दहेज़ का निषेध –
३.५२ – जो वर के पिता, भाई, रिश्तेदार आदि लोभवश, कन्या या कन्या पक्ष से धन, संपत्ति, वाहन या वस्त्रों को लेकर उपभोग करके जीते हैं वे महा नीच लोग हैं |
इस तरह, मनुस्मृति विवाह मेंकिसी भी प्रकार के लेन- देन का पूर्णत: निषेध करती है ताकि किसी में लालचकी भावना न रहे और स्त्री के धन को कोई लेने की हिम्मत न करे |
इस से आगेवाला श्लोक तो कहता है कि विवाह में किसी वस्तु का अल्प – सा भी लेन- देनबेचना और खरीदना ही होता है जो कि श्रेष्ठ विवाह के आदर्शों के विपरीत है | यहां तक कि मनुस्मृति तो दहेज़ सहित विवाह को ‘दानवी‘ या ‘आसुरी‘ विवाहकहती है |
स्त्रियों को पीड़ित करने पर अत्यंत कठोर दण्ड –
८.३२३- स्त्रियों का अपहरण करनेवालों को प्राण दण्ड देना चाहिए |
९.२३२- स्त्रियों, बच्चों और सदाचारी विद्वानों की हत्या करने वाले को अत्यंत कठोर दण्ड देना चाहिए |
८.३५२- स्त्रियों पर बलात्कारकरने वाले, उन्हें उत्पीडित करने वाले या व्यभिचार में प्रवृत्त करने वालेको आतंकित करने वाले भयानक दण्ड दें ताकि कोई दूसरा इस विचार से भी कांपजाए |
इसी संदर्भ में एक सत्रन्यायाधीश ने बलात्कार के अत्यधिक बढ़ते हुए मामलों को देखते हुए कहा है किइस घृणित अपराध के लिए अपराधी को नामर्द बना देना ही सही सजा लगती है |
देखें – http://timesofindia.indiatimes.com/…/Ca…/articleshow/8130553.
और हम भी कानून में ऐसे प्रावधान के समर्थक हैं |
८.२७५- माता,पत्नी या बेटी पर झूठे दोष लगाकर अपमान करने वाले को दण्डित किया जाना चाहिए |
८.३८९- माता-पिता,पत्नी या संतान को जो बिना किसी गंभीर वजह के छोड़ दे, उसे दण्डित किया जाना चाहिए |
स्त्रियों को प्राथमिकता –
स्त्रियों की प्राथमिकता ( लेडिज फर्स्ट ) के जनक महर्षि मनु ही हैं |
२.१३८- स्त्री, रोगी, भारवाहक, अधिक आयुवाले, विद्यार्थी, वर और राजा को पहले रास्ता देना चाहिए |
३.११४- नवविवाहिताओं, अल्पवयीन कन्याओं, रोगी और गर्भिणी स्त्रियों को, आए हुए अतिथियों से भी पहले भोजन कराएं |
आइए, महर्षि मनु के इन सुन्दर उपदेशों को अपनाकर समाज,राष्ट्र और सम्पूर्ण विश्व को सुख़-शांति और समृद्धि की तरफ़ बढ़ाएं |

रामायण का वैज्ञानिक विश्लेषण ,Ramayan- scientific analysis




लेखक- कृष्णानुरागी वरुण
||•|| रामायण का वैज्ञानिक विश्लेषण ||•||
रामायण एकांगी दृष्टिकोण का वृतांत भर नहीं है।
इसमें कौटुम्बिक सांसारिकता है। राज-समाज
संचालन के कूट मंत्र हैं। भूगोल है। वनस्पति और जीव जगत
हैं। राष्ट्रीयता है। राष्ट्र के प्रति उत्सर्ग का चरम है।
अस्त्र-शस्त्र हैं। यौद्धिक कौशल के गुण हैं।
भौतिकवाद है। कणांद का परमाणुवाद है।
सांख्यदर्शन और योग के सूत्र हैं। वेदांत दर्शन है और अनेक
वैज्ञानिक उपलब्धियां हैं। गांधी का राम-राज्य
और पं. दीनदयाल उपाध्याय का आध्यात्मिक
भौतिकवाद के उत्स इसी रामायण में हैं।
वास्तव में
रामायण और उसके परवर्ती ग्रंथ कवि या लेखक की
कपोल-कल्पना न होकर तात्कालीन ज्ञान के विश्व
कोश हैं। जर्मन विद्वान मैक्समूलर ने तो ऋग्वेद को कहा
भी था कि यह अपने युग का ‘विश्व कोश' है। मसलन
‘एन-साइक्लोपीडिया आफ वर्ल्ड !
लंकाधीश रावण ने नाना प्रकार की विधाओं के
पल्लवन की दृष्टि से यथोचित धन व सुविधाएं उपलब्ध
कराई थीं। रावण के पास लडाकू वायुयानों और
समुद्री जलपोतों के बड़े भण्डार थे। प्रक्षेपास्त्र और
ब्रह्मास्त्रों का अकूत भण्डार व उनके निर्माण में
लगी अनेक वेधशालाएं थीं। दूरसंचार व दूरदर्शन की
तकनीकी-यंत्र लंका में स्थापित थे। राम-रावण युद्ध
केवल राम और रावण के बीच न होकर एक विश्वयुद्ध
था। जिसमें उस समय की समस्त विश्व-शक्तियों ने
अपने-अपने मित्र देश के लिए लड़ाई लड़ी थी।
परिणामस्वरूप ब्रह्मास्त्रों के विकट प्रयोग से लगभग
समस्त वैज्ञानिक अनुसंधान-शालाएं उनके
आविष्कारक, वैज्ञानिक व अध्येता काल-कवलित
हो गए। यही कारण है कि हम कालांतर में हुए
महाभारत युद्ध में भी वैज्ञानिक चमत्कारों को
रामायण की तुलना में उत्कृष्ट व सक्षम नहीं पाते हैं।
यह भी इतना विकराल विश्व-युद्ध था कि
रामायण काल से शेष बचा जो विज्ञान था, वह
महाभारत युद्ध के विंध्वस की लपेट में आकर नष्ट हो
गया। इसीलिए महाभारत के बाद के जितने भी युद्ध
हैं वे खतरनाक अस्त्र-शस्त्रों से लड़े जाकर थल सेना के
माध्यम से ही लड़े गए दिखाई देते हैं। बीसवीं सदी में
हुए द्वितीय विश्व युद्ध में जरूर हवाई हमले के माध्यम से
अमेरिका ने जापान के हिरोशिमा-नागाशाकी में
परमाणु हमले किए।
बाल्मीकी रामायण एवं नाना रामायणों तथा
अन्य ग्रंथों में ‘पुष्पक विमान' के उपयोग के विवरण हैं।
इससे स्पष्ट होता है, उस युग में राक्षस व देवता न केवल
विमान शास्त्र के ज्ञाता थे, बल्कि सुविधायुक्त
आकाशगामी साधनों के रूप में वाहन उपलब्ध भी थे।
रामायण के अनुसार पुष्पक विमान के निर्माता
ब्रह्मा थे। ब्रह्मा ने यह विमान कुबेर को भेंट किया
था। कुबेर से इसे रावण ने छीन लिया। रावण की मृत्यु
के बाद विभीषण इसका अधिपति बना और उसने फिर
से इसे कुबेर को दे दिया। कुबेर ने इसे राम को उपहार में
दे दिया। राम लंका विजय के बाद अयोध्या इसी
विमान से पहुंचे थे।
रामायण में दर्ज उल्लेख के अनुसार पुष्पक विमान मोर
जैसी आकृति का आकाशचारी विमान था, जो
अग्नि-वायु की समन्वयी ऊर्जा से चलता था।
इसकी गति तीव्र थी और चालक की इच्छानुसार इसे
किसी भी दिशा में गतिशील रखा जा सकता था।
इसे छोटा-बड़ा भी किया जा सकता था। यह
सभी ऋतुओं में आरामदायक यानी वतानुकूलित था।
इसमें स्वर्ण खंभ मणिनिर्मित दरवाजे, मणि-स्वर्णमय
सीढियां, वेदियां (आसन) गुप्त गृह, अट्टालिकाएं
(केबिन) तथा नीलम से निर्मित सिंहासन
(कुर्सियां) थे। अनेक प्रकार के चित्र एवं जालियों से
यह सुसज्जित था। यह दिन और रात दोनों समय
गतिमान रहने में समर्थ था। इस विवरण से जाहिर
होता है, यह उन्नत प्रौद्योगिकी और वास्तु कला
का अनूठा नमूना था।
‘ऋग्वेद' में भी चार तरह के विमानों का उल्लेख है।
जिन्हें आर्य-अनार्य उपयोग में लाते थे। इन चार
वायुयानों को शकुन, त्रिपुर, सुन्दर और रूक्म नामों से
जाना जाता था। ये अश्वहीन, चालक रहित ,
तीव्रगामी और धूल के बादल उड़ाते हुए आकाश में उड़ते
थे। इनकी गति पतंग (पक्षी) की भांति, क्षमता तीन
दिन-रात लगातार उड़ते रहने की और आकृति नौका
जैसी थी। त्रिपुर विमान तो तीन खण्डों (तल्लों)
वाला था तथा जल, थल एवं नभ तीनों में विचरण कर
सकता था। रामायण में ही वर्णित हनुमान की
आकाश-यात्राएं, महाभारत में देवराज इन्द्र का
दिव्य-रथ, कार्त्तवीर्य अर्जुन का स्वर्ण विमान एवं
सोम-विमान, पुराणों में वर्णित नारदादि की
आकाश यात्राएं एवं विभिन्न देवी-देवताओं के
आकाशगामी वाहन रामायण-महाभारत काल में
वायुयान और हैलीकॉप्टर जैसे यांत्रिक साधनों की
उपलब्धि के प्रमाण हैं।
किंवदंती तो यह भी है कि गौतम बुद्ध ने भी
वायुयान द्वारा तीन बार लंका की यात्रा की
थी। एरिक फॉन डॉनिकेन की किताब ‘चैरियट्स
ऑफ गॉड्स' में तो भारत समेत कई प्राचीन देशों से
प्रमाण एकत्रित करके वायुयानों की तत्कालीन
उपस्थिति की पुष्टि की गई है। इसी प्रकार डॉ.
ओंकारनाथ श्रीवास्तव ने अनेक पाश्चात्य
अनुसंधानों के मतों के आधार पर संभावना जताई है
कि ‘रामायण' में अंकित हनुमान की यात्राएं
वायुयान अथवा हैलीकॉप्टर की यात्राएं थीं या
हनुमान ‘राकेट बेल्ट‘ बांधकर आकाशगमन करते थे,
जैसाकि आज के अंतरिक्ष-यात्री करते हैं।
हनुमान-
मेघनाद में परस्पर हुआ वायु-युद्ध भी हावरक्रफ्ट से
मिलता-जुलता है। आज भी लंका की पहाड़ियों पर
चौरस मैदान पाए जाते हैं, जो शायद उस कालखण्ड के
वैमानिक अड्डे थे। प्राचीन देशों के ग्रंथों में वर्णित
उड़ान-यंत्रों के वर्णन लगभग एक जैसे हैं। कुछ गुफा-
चित्रों में आकाशचारी मानव एवं अंतरिक्ष वेशभूषा से
युक्त व्याक्तियों के चित्र भी निर्मित हैं। मिस्त्र में
तो दुनिया का ऐसा नक्शा मिला है, जिसका
निर्माण आकाश में उड़ान-सुविधा की पुष्टि करता
है।
इन सब साक्ष्यों से प्रमाणित होता है कि पुष्पक
व अन्य विमानों के रामायण में वर्णन कोई कवि-
कल्पना की कोरी उड़ान नहीं हैं।
ताजा वैज्ञानिक अनुसंधानों ने भी तय किया है
कि रामायण काल में वैमानिकी प्रौद्योगिकी
इतनी अधिक विकसित थी, जिसे आज समझ पाना
भी कठिन है। रावण का ससुर मयासुर अथवा मयदानव
ने भगवान विश्वकर्मा (ब्रह्मा) से वैमानिकी
विद्या सीखी और पुष्पक विमान बनाया। जिसे
कुबेर ने हासिल कर लिया।
पुष्पक विमान की
प्रौद्योगिक का विस्तृत व्यौरा महार्षि
भारद्वाज द्वारा लिखित पुस्तक ‘यंत्र-सर्वेश्वम्' में
भी किया गया था। वर्तमान में यह पुस्तक विलुप्त
हो चुकी है, लेकिन इसके 40 अध्यायों में से एक
अध्याय ‘वैमानिक शास्त्र' अभी उपलब्ध है। इसमें भी
शकुन, सुन्दर, त्रिपुर एवं रूक्म विमान सहित 25 तरह के
विमानों का विवरण है। इसी पुस्तक में वर्णित कुछ
शब्द जैसे ‘विश्व क्रिया दर्पण' आज के राड़ार जैसे यंत्र
की कार्यप्रणाली का रूपक है।
नए शोधों से पता चला है कि पुष्पक विमान एक ऐसा
चमत्कारिक यात्री विमान था, जिसमें चाहे जितने
भी यात्री सवार हो जाएं, एक कुर्सी हमेशा रिक्त
रहती थी। यही नहीं यह विमान यात्रियों की
संख्या और वायु के घनत्व के हिसाब से स्वमेव अपना
आकार छोटा या बड़ा कर सकता था। इस तथ्य के
पीछे वैज्ञानिकों का यह तर्क है कि वर्तमान समय में
हम पदार्थ को जड़ मानते हैं, लेकिन हम पदार्थ की
चेतना को जागृत करलें तो उसमें भी संवेदना सृजित हो
सकती है और वह वातावरण व परिस्थितियों के अनुरूप
अपने आपको ढालने में सक्षम हो सकता है। रामायण
काल में विज्ञान ने पदार्थ की इस चेतना को
संभवतः जागृत कर लिया था, इसी कारण पुष्पक
विमान स्व-संवेदना से क्रियाशील होकर आवश्यकता
के अनुसार आकार परिवर्तित कर लेने की विलक्षणता
रखता था। तकनीकी दृष्टि से पुष्पक में इतनी
खूबियां थीं, जो वर्तमान विमानों में नहीं हैं।
ताजा शोधों से पता चला है कि यदि उस युग का
पुष्पक या अन्य विमान आज आकाश गमन कर लें तो
उनके विद्युत चुंबकीय प्रभाव से मौजूदा विद्युत व
संचार जैसी व्यवस्थाएं ध्वस्त हो जाएंगी। पुष्पक
विमान के बारे में यह भी पता चला है कि वह उसी
व्यक्ति से संचालित होता था इसने विमान संचालन
से संबंधित मंत्र सिद्ध किया हो, मसलन जिसके हाथ
में विमान को संचालित करने वाला रिमोट हो।
शोधकर्ता भी इसे कंपन तकनीक (वाइब्रेशन
टेकनोलॉजी) से जोड़ कर देख रहे हैं। पुष्पक की एक
विलक्षणता यह भी थी कि वह केवल एक स्थान से
दूसरे स्थान तक ही उड़ान नहीं भरता था, बल्कि एक
ग्रह से दूसरे ग्रह तक आवागमन में भी सक्षम था। यानी
यह अंतरिक्षयान की क्षमताओं से भी युक्त था।
रामायण एवं अन्य राम-रावण लीला विषयक ग्रंथों
में विमानों की केवल उपस्थिति एवं उनके उपयोग का
विवरण है, इस कारण कथित इतिहासज्ञ इस पूरे युग
को कपोल-कल्पना कहकर नकारने का साहस कर
डालते हैं। लेकिन विमानों के निर्माण, इनके प्रकार
और इनके संचालन का संपूर्ण विवरण महार्षि
भारद्वाज लिखित ‘वैमानिक शास्त्र' में है। यह ग्रंथ
उनके प्रमुख ग्रंथ ‘यंत्र-सर्वेश्वम्' का एक भाग है। इसके
अतिरक्त भारद्वाज ने ‘अंशु-बोधिनी' नामक ग्रंथ भी
लिखा है, जिसमें ‘ब्रह्मांड
विज्ञान' (कॉस्मोलॉजी) का वर्णन है। इसी ज्ञान
से निर्मित व परिचालित होने के कारण विमान
विभिन्न ग्रहों की उड़ान भरते थे। वैमानिक-शास्त्र
में आठ अध्याय, एक सौ अधिकरण (सेक्शंस) पांच सौ
सूत्र (सिद्धांत) और तीन हजार श्लोक हैं। इस ग्रंथ
की भाषा वैदिक संस्कृत है।
वैमानिक-शास्त्र में चार प्रकार के विमानों का
वर्णन है। ये काल के आधार पर विभाजित हैं। इन्हें तीन
श्रेणियों में रखा गया है। इसमें ‘मंत्रिका' श्रेणी में वे
विमान आते हैं जो सतयुग और त्रेतायुग में मंत्र और
सिद्धियों से संचालित व नियंत्रित होते थे। दूसरी
श्रेणी ‘तांत्रिका' है, जिसमें तंत्र शक्ति से उड़ने वाले
विमानों का ब्यौरा है। इसमें तीसरी श्रेणी में
कलयुग में उड़ने वाले विमानों का ब्यौरा भी है, जो
इंजन (यंत्र) की ताकत से उड़ान भरते हैं। यानी
भारद्वाज ऋषि ने भविष्य की उड़ान प्रौद्योगिकी
क्या होगी, इसका अनुमान भी अपनी दूरदृष्टि से
लगा लिया था। इन्हें कृतक विमान कहा गया है। कुल
25 प्रकार के विमानों का इसमें वर्णन है।
तांत्रिक विमानों में ‘भैरव' और ‘नंदक' समेत 56 प्रकार
के विमानों का उल्लेख है। कृतक विमानों में ‘शकुन',
‘सुन्दर' और ‘रूक्म' सहित 25 प्रकार के विमान दर्ज हैं।
‘रूक्म' विमान में लोहे पर सोने का पानी चढ़ा होने
का प्रयोग भी दिखाया गया है। ‘त्रिपुर' विमान
ऐसा है, जो जल, थल और नभ में तैर, दौड़ व उड़ सकता है।
उड़ान भरते हुए विमानों का करतब दिखाये जाने व
युद्ध के समय बचाव के उपाय भी वैमानिकी-शास्त्र में
हैं। बतौर उदाहरण यदि शत्रु ने किसी विमान पर
प्रक्षेपास्त्र अथवा स्यंदन (रॉकेट) छोड़ दिया है तो
उसके प्रहार से बचने के लिए विमान को तियग्गति
(तिरछी गति) देने, कृत्रिम बादलों में छिपाने या
‘तामस यंत्र' से तमः (अंधेरा) अर्थात धुआं छोड़ दो।
यही नहीं विमान को नई जगह पर उतारते समय भूमि
गत सावधानियां बरतने के उपाय व खतरनाक स्थिति
को परखने के यंत्र भी दर्शाए गए हैं। जिससे यदि
भूमिगत सुरंगें हैं तो उनकी जानकारी हासिल की
जा सके। इसके लिए दूरबीन से समानता रखने वाले यंत्र
‘गुहागर्भादर्श' का उल्लेख है। यदि शत्रु विमानों से
चारों ओर से घेर लिया हो तो विमान में ही लगी
‘द्विचक्र कीली' को चला देने का उल्लेख है। ऐसा
करने से विमान 87 डिग्री की अग्नि-शक्ति
निकलेगी। इसी स्थिति में विमान को गोलाकार
घुमाने से शत्रु के सभी विमान नष्ट हो जाएंगे।
इस शास्त्र में दूर से आते हुए विमानों को भी नष्ट करने
के उपाय बताए गए हैं। विमान से 4087 प्रकार की
घातक तरंगें फेंककर शत्रु विमान की तकनीक नष्ट कर
दी जाती है। विमानों से ऐसी कर्कश ध्वनियां
गुंजाने का भी उल्लेख है, जिसके प्रगट होने से सैनिकों
के कान के पर्दे फट जाएंगे। उनका हृदयाघात भी हो
सकता है। इस तकनीक को ‘शब्द सघण यंत्र' कहा गया
है। युद्धक विमानों के संचालन के बारे में संकेत दिए हैं
कि आकाश में दौड़ते हुए विमान के नष्ट होने की
आशंका होने पर सातवीं कीली अर्थात घुंडी
चलाकर विमान के अंगों को छोटा-बड़ा भी किया
जा सकता है। उस समय की यह तकनीक इतनी
महत्वपूर्ण है कि आधुनिक वैमानिक विज्ञान भी
अभी उड़ते हुए विमान को इस तरह से संकुचित अथवा
विस्तारित करने में समर्थ नहीं हैं।
रामायण काल में वैमानिकी प्रौद्योगिकी
विकास के चरम पर थी, यह इन तथ्यों से प्रमाणित
होता है कि वैमानिक शास्त्र में विमान चालक को
किन गुणों में पारंगत होना चाहिए। यह भी उल्लेख
इस शास्त्र में है। इसमें प्रशिक्षित चालक (पायलट)
को 32 गुणों में निपुण होना जरूरी बताया गया है।
इन गुणों में कौशल चालक ही ‘रहस्यग्नोधिकारी'
अथवा ‘व्योमयाधिकारी' कहला सकता है।
चालक
को विमान-चालन के समय कैसी पोशाक पहननी
चाहिए, यह ‘वस्त्राधिकरण' और इस दौरान किस
प्रकार का आहार ग्रहण करना चाहिए, यह
‘आहाराधिकरण' अध्यायों में किए गए उल्लेख से स्पष्ट
है।
राम-रावण युद्ध केवल धनुष-बाण और गदा-भाला जैसे
अस्त्रों तक सीमित नहीं था। मदनमोहन शर्मा
‘‘शाही'' के तीन खण्डों में छपे बृहद उपन्यास ‘लंकेश्वर'
में दिए उल्लेखों से यह साफ हो जाता है कि
रामायण काल में वैज्ञानिक अविष्कार चरमोत्कर्ष
पर था। राम और रावण दोनों के सेनानायकों ने
भयंकर आयुधों का खुलकर प्रयोग भी किया था।
लंकेश्वर उपन्यास को ही प्रमुख आधार बनाकर
‘‘रावण'' धारावाहिक का प्रसारण जीटीवी पर
किया गया था, जिसमें राम और रावण के चरित्र
को सामान्य मनुष्य की तरह विकसित होते
दिखाया गया था।
लंका उस युग में सबसे संपन्न देश था। लंकाधीश रावण ने
नाना प्रकार की विधाओं के पल्लवन के लिए
यथोचित धन व सुविधाएं भी उपलब्ध कराईं थीं।
रावण के पास लड़ाकू वायुयानों और समुद्री
जलपोतों के बेड़े थे। प्रक्षेपास्त्र और ब्रह्मास्त्रों का
अटूट भण्डार व इनके निर्माण में लगी अनेक वेधशालाएं
थीं। दूर संचार यंत्र भी लंका में उपलब्ध थे।
इस अत्यंत रोचक और अद्भुत रहस्यों से भरे उपन्यास
‘लंकेश्वर' को पढ़ने से एकाएक विश्वास नहीं होता
कि राम-रावण युद्ध के दौरान विज्ञान चरमोत्कर्ष
पर था लेकिन लेखक ने पुराण कालीन ग्रंथों और
विभिन्न रामायणों व अनेक विद्धानों की खोजों
का जो फुटनोटों में ब्यौरा दिया है, उससे यह
विश्वास करना ही पड़ता है कि उस युग में विज्ञान
चरमोत्कर्ष पर था। राम-रावण युद्ध दो संस्कृतियों
के अस्तित्व की कायमी के लिए लड़ा गया भीषण
आणविक युद्ध था, जिसमें विश्व की समस्त शक्तियों
ने भागीदारी की थी।
यह सभी रामायणें निर्विवाद रूप से स्वीकारती हैं
कि रावण के पास पुष्पक विमान था और रावण
सीता को इसी विमान में बिठाकर अपहरण कर ले
गया था। ‘लंकेश्वर' में वायुयानों का उस युग में
उपलब्ध होने का विस्तृत ब्यौरा है- गंधमादन पर्वत,
गृध्रों की नगरी थी। यहां के ग्रध्रराज भूमि, समुद्री
व आकाशीय मार्ग पर भी अधिकार रखते थे। यह
नगरी सम्राट संपाती के पुत्र सुपार्श्व की थी।
संपाती राजा दशरथ के सखा थे। संपाती वैज्ञानिक
था। उसने छोटे-बड़े वायुयानों और अंतरिक्ष यात्री
की वेषभूषा का निर्माण किया था। सुपार्श्व ने
ही हनुमान को लघुयान में बिठाकर समुद्र लंघन कराकर
त्रिकुट पर्वत पर विमान उतारा था। त्रिकुट पर्वत
लंका की सीमा परिधि में था। सुपार्श्व के पास
आग्नेयास्त्र भी थे, जिनसे प्रहार कर हनुमान ने
नागमाता सुरसा को परास्त किया था। इस अस्त्र
के प्रयोग से समुद्र में आग लगी और नाग जाति जलकर
नष्ट हो गई। त्रिकुट पर्वत के पहले मैनाक पर्वत था,
जिसमें रत्नों की खानें थीं। रावण इन रत्नों का
विदेश व्यापार करता था। लंका की संपन्नता का
कारण भी यही खानें थीं। सुपार्श्व ने राम-रावण
युद्ध में राम का साथ दिया था।
‘लंकेश्वर' के अनुसार लंका में ऐसे वायुयान भी थे, जो
आकाश में खडे़ हो जाते थे और आलोप हो जाते थे। इनमें
चालक नहीं होता था। ये स्वचालित थे। उस समय
आठ प्रकार के विमान थे जो सौर्य ऊर्जा से
संचालित होते थे। रावण पुत्र मेघनाद की
निकुम्भिला वेधशाला थी। जिसमें प्रतिदिन एक
दिव्य रथ अर्थात एक लड़ाकू विमान का निरंतर
निर्माण होता रहता था। मेघनाद के पास ऐसे
विचित्र विमान भी थे जो आंख से ओझल हो जाते थे
और फिर धुआं छोड़ते थे। जिससे दिन में भी अंधकार
हो जाता था। यह धुआं विषाक्त गैस अथवा अश्रु गैस
होती थी। ये विमान नीचे आकर बम बारी भी करते
थे।
मेघनाद की वेधशाला में ‘शस्त्रयुक्त स्यंदन' (राकेट)
का भी निर्माण होता था। मेघनाद ने युद्ध में जब
इस स्यंदन को छोड़ा तो यह अंतरिक्ष की ओर बहुत
ही तेज गति से बढ़ा। इन्द्र और वरूण स्यंदन शक्ति से
परिचित थे। उन्होंने मतालि को संकेत कर दूसरा
शक्तिशाली स्यंदन छुड़ाया और मेघनाद के स्यंदन को
आकाश में ही नष्ट कर दिया और इसके अवशेष को समुद्र
में गिरा दिया।
लंका में यानों की व्यवस्था प्रहस्त के सुपुर्द थी।
यानों में ईंधन की व्यवस्था प्रहस्त ही देखता था।
लंका में सूरजमुखी पौधे के फूलों से तेल (पेट्रोल)
निकाला जाता था (अमेरिका में वर्तमान में
जेट्रोफा पौधे से पेट्रोल निकाला जाता है।) अब
भारत में भी रतनजोत के पौधे से तेल बनाए जाने की
प्रक्रिया में तेजी आई है। लंकावासी तेल शोधन में
निरंतर लगे रहते थे। लड़ाकू विमानों को नष्ट करने के
लिए रावण के पास भस्मलोचन जैसा वैज्ञानिक था
जिसने एक विशाल ‘दर्पण यंत्र' का निर्माण किया
था। इससे प्रकाशपुंज वायुयान पर छोड़ने से यान
आकाश में ही नष्ट हो जाते थे। लंका से निष्कासित
किये जाते वक्त विभीषण भी अपने साथ कुछ दर्पण
यंत्र ले आया था। इन्हीं ‘दर्पण यंत्रों' में सुधार कर
अग्निवेश ने इन यंत्रो को चौखटों पर कसा और इन
यंत्रों से लंका के यानों की ओर प्रकाश पुंज फेंका
जिससे लंका की यान शक्ति नष्ट होती चली गई।
बाद में रावण ने अग्निवेश की इस शक्ति से निपटने के
लिए सद्धासुर वैज्ञानिक को नियुक्त किया।
श्री शाही का कहना है कि कथित
बुद्धिजीवियो ंऔर पाखण्डी पूजा-पाठियों
द्वारा रामायणकाल की इन अद्भुत शक्तियों को
अलौकिल व ऐन्द्रिक कहकर इनका महत्व ही समाप्त
करने का षड्यंत्र किया जा रहा है। जबकि ये
शक्तियां ज्ञान का वैज्ञानिक बल थीं। जिसमें
मेघनाद ब्रह्म विद्या का विशारद था। उसका
पांडित्य रावण से भी कहीं बढ़कर था। विस्फोटक व
विंध्वसक अस्त्रो का तो इस युद्ध में खुलकर प्रयोग हुआ
जिसमें ब्रह्मास्त्र सबसे खतरनाक था। इन्द्र ने शंकर से
राम के लिए दिव्यास्त्र और पशुपतास्त्र मांगे थे। इन
अस्त्रों को देते हुए शंकर ने अगस्त्य को चेतावनी देते हुए
कहा, ‘अगस्त्य तुम ब्रह्मास्त्र के ज्ञाता हो और
रावण भी। कहीं अणुयुद्ध हुआ तो वर्षों तक प्रदूषण
रहेगा। जहां भी विस्फोट होगा, वह स्थान वर्षों
तक निवास के लायक नहीं रहेगा। इसलिए पहले युद्ध
को मानव कल्याण के लिए टालना ?' लेकिन अपने-
अपने अहं के कारण युद्ध टला नहीं।
ब्रह्माशास्त्र के
प्रस्तुत परिणामों से स्पष्ट हो जाता है कि
ब्रह्मास्त्र परमाणु बम ही था।
राम द्वारा सेना के साथ लंका प्रयाण के समय
द्रुमकुल्य देश के सम्राट समुद्र ने रावण से मैत्री होने के
कारण राम को अपने देश से मार्ग नहीं दिया तो
राम ने अगस्त्य के अमोध अस्त्र (ब्रह्मास्त्र) को छोड़
दिया। जिससे पूरा द्रुमकुल्य (मरूकान्तार) देश ही
नष्ट हो गया। यह अमोध अस्त्र हाइड्रोजन बम अथवा
एटम बम ही था। मेघनाद की वेधशाला में शीशे (लेड)
की भट्टियां थीं। जिनमें कोयला और विद्युत
धारा प्रवाहित की जाती थी। इन्हीं भट्टियों में
परमाणु अस्त्र बनते थे और नाभिकीय विखण्डन की
प्रक्रिया की जाती थी।
युद्ध के दौरान राम सेना पर सद्धासुर ने ऐसा विकट
अस्त्र छोड़ा जो संभवतः ब्रह्मास्त्र से भी ज्यादा
शक्तिशाली था, जो सुवेल पर्वत की चोटी को
सागर में गिराता हुआ सीधे दक्षिण भारत के गिरी
को समुद्र में गिरा दिया। सद्धासुर का अंत करने के
लिए अगस्त्य ने सद्धासुर के ऊपर ब्रह्मास्त्र छुड़वाया।
जिससे सद्धासुर और अनेक सैनिक तो मारे ही गए
लंका के शिव मंदिर भी विस्फोट के साथ ढहकर समुद्र
में गिर गए। दोनों ओर प्रयोग की गई ये भयंकर परमाणु
शक्तियां थीं। इस सिलसिले में डॉ. चांसरकर ने
ताजा जानकारी देते हुए अपने लेख में लिखा है,
पांडुनीडि का भाग या इससे भी अधिक दक्षिण
भारत का भाग इस परमाणु शक्ति के प्रयोग से सागर
में समा गया था और राम द्वारा ‘‘करूणागल'' के
स्वर्ण और रत्नों से भरे शिव मंदिर, स्वर्ण
अट्टालिकाएं भीषण विस्फोटों से सागर में गिर गईं।
इन विस्फोटों से लंका का ही नहीं अपितु भारत
का भी यथेष्ठ भाग सागर में समा गया था और लंका
से भारत, की दूरी, उस भू-भाग के नष्ट होने से बढ़ गई
थी। नल-सेतु (जल डमरूमध्य) का भाग भी रक्ष
रणनीतिज्ञों ने नष्ट कर दिया होगा। यही कारण
है कि त्रिकुट पर्वत की चोटियां भी तिरूकोणमल के
भाग के साथ लंका के सागर में समा गईं होंगी और
समुद्र भी गहरा हो गया होगा। इसका कारण यह
भी हो सकता है कि युद्ध के बाद अवशेष बम आदि
सामग्री को नष्ट करने के लिए अगस्त्य ने समुद्र में ही
विस्फोट कराकर लंका से विदा ली हो, जिससे
सागर गहरा हो गया। क्योंकि बाल्मीकि
रामायण में उथले उदधि और यहां नावें नहीं चल सकती
का उल्लेख हनुमान करते हैं। अब गहरे पानी पैठकर
पनडुब्बियों से तिरूकोणमलै के रामायणकलीन शिव
मंदिरों के कई अवशेष खोज निकाले हैं।
डिस्कवरी चैनल
द्वारा इन अवशेषों का बड़ा सुंदर प्रस्तुतिकरण
किया गया है। अब तो अमेरिकी अंतरिक्ष एजेंसी
‘नासा' ने त्रेतायुगीन इस ऐतिहासिक पुल को खोज
निकाल कर इसके चित्र भी दुनिया के सामने प्रस्तुत
कर दिए हैं। शेधों से पता चला है कि पत्थरों से बना
यह पुल मानव निर्मित है। इस पुल की लंबाई लगभग
तीस किलोमीटर बताई गई है। यह पुल लगभग 17 लाख
50 हजार साल पुराना आधुनिक वैज्ञानिक तकनीक
के आधार से आंका गया है। नवीनतम दूरसंवेदन तकनीक से
इस सेतु के चित्र लिए गए हैं। अब यह सेतु राम-रावण
युद्ध के प्रमाण का साक्षात उदाहरण बन गया है,
जिसे झुटलाया नहीं जा सकता।
जब रावण अपने अंत समय से पहले वेधशाला में दिव्य-रथ
के निर्माण में लीन था तब अग्निवेश ने अग्निगोले
छोड़कर वेधशाला और उसके पूरे क्षेत्र को नष्ट करने की
कोशिश की। श्री शाही के अनुसार ये अग्निगोले
थर्माइट बम थे, जिसके प्रहारे से इस्पात की मोटी
चादर तक क्षण मात्र में पिघल जाती थी। लंका के हेम
मंदिर, हेमभूषित इन्हीं अग्निगोलों से पिघली थी।
रावण के प्राणों का अंत जब अगस्त्य का ब्रह्मास्त्र
नहीं कर सका तो राम ने रावण पर ब्रह्मा द्वारा
आविष्कृत ब्रह्मास्त्र छोड़ा जो बहुत ही ज्यादा
शक्तिशाली था। इससे रावण के शरीर के अनेक टुकड़े
हो गए और वह मृत्यु का प्राप्त हो गया।
इस विश्व युद्ध में छोटे-मोटे अस्त्रों की तो कोई
गिनती ही नहीं थी। ये अस्त्र भी विकट मारक
क्षमता के थे। शंबूक ने ‘सूर्यहास खड्ग' का अपनी
वेधशाला में आविष्कार किया था। इस खड़्ग में सौर
ऊर्जा के संग्रहण क्षमता थी। जैसे ही इनका प्रयोग
शत्रु दल पर किया जाता तो वे सूर्यहास खड्ग से
चिपक जाते। यह खड्ग शत्रु का रक्त खींच लेता और
चुंबक नियंत्रण शक्ति से धारक के पास वापस आ
जाता। लक्ष्मण ने खड्ग को हासिल करने के लिए ही
शंबूक का वध किया था।

अयोध्या,रामायण,श्री राम




अयोध्या अपने शाब्दिक अर्थ के अनुसार यह अपराजित है.. यह नगर अपने २२०० वर्षों के इतिहास मे अनेकों युद्धों व संघर्षो का प्रत्यक्ष दर्शी रहा है, अयोध्या को राजा मनु द्वारा निर्मित किया गया और यह श्री राम जी का जन्मस्थल है। इसका उल्लेख प्राचीन संस्कृत ग्रंथों जिसमे रामायण व महाभारत सम्मिलित हैं, में आता है। वाल्मिकि रामायण के एक श्लोक मे इसका वर्णन निम्न प्रकार है।
कोसलो नाम मुदितः स्फीतो जनपदो महान्। निविष्ट सरयूतीरे प्रभूत-धन-धान्यवान् ॥१-५-५॥
अयोध्या नाम नगरी तत्रऽऽसीत् लोकविश्रुता। मनुना मानवेन्द्रेण या पुरी निर्मिता स्वयम् ॥१-५-६॥
— श्रीमद्वाल्मीकीरामायणे बालकाण्डे पञ्चमोऽध्यायः
श्री ग्रिफैत्स जो 19 शताब्दी के आख़िर मे बनारस कॉलेज के मुख्य अध्यापक रहे... उन्होने रामायण मे अयोध्या के वर्णन को बड़ी सुंदरता से इस प्रकार अनुवादित किया, उनके शब्दों के अनुसार - " उस नगरी के विशाल एवं सुनियोजित रास्ते और उसके दोनो ओर से निकली पानी की नहरें जिस से राजपथ पर लगे पेड़ तरो ताज़ा रहें और अपने फूलो की महक को फैलाते रहें। एक कतार से लगे हुए और सतल भूमि पर बने बड़े बड़े राजमहल हैं, अनेक मंदिर एवं बड़ी बड़ी कमानें, हवा मे लहराता विशाल राज ध्वज, लहलहाते आम के बगीचे, फलों और फूलों से लदे पेड़, मुंडेर पर कतार से लगे फहराते ध्वजों के इर्द गिर्द और हर द्वार पर धनुष लिए तैनात रक्षक हैं। "
कौशल राज्य के नरेश राजा दशरथ राजा मनु के ५६ वंशज माने जाते हैं, उनकी ३ पत्नियां थी, कौशल्या, सुमीत्रा व कैकेयी, ऐसा माना जाता है श्री राम का जन्म कौशल्या मंदिर मे हुआ था, अतः उसे ही राम जन्म स्थल कहा जाता है. ब्रह्मांड पुराण में अयोध्या को हिंदुओं ६ पवित्र नगरियों से भी अधिक पवित्र माना गया है। जिसका उल्लेख इस पुराण मे इस प्रकार किया गया है -
अयोध्य मथुरा माया, काशी कांचि अवंतिका, एताः पुण्यतमाः प्रोक्ताः पुरीणाम उत्तमोत्तमाः
महर्षि व्यास ने श्री राम कथा का वर्णन उनके द्वारा रचित महाभारत के वनोपाख्यान खंड मे किया है, अयोध्या सदियों से अयोध्या वासियों द्वारा बारंबार निर्मित की गयी है, यह अयोध्या वासियोम की जिजीविषा ही है कि वह इस नगर को अनेकानेक बार पुनर्रचित कर चुके हैं। अलक्षेंद्र (सिकंदर) के लगभग २०० वर्ष बाद, मौर्य शासन काल के दौरान जब बौद्ध धर्म अपनी चरम सीमा पर था, एक ग्रीक राजा मेनंदार अयोध्या पर आक्रमण करनी की नीयत से आया, उसने बुद्ध धर्म द्वारा प्रभावित होने का ढोंग कर बौद्ध भिक्षु होने का कपट किया और अयोध्या पर धोखे से आक्रमण किया एवं इस आक्रमण मे जन्मस्थल मंदिर ध्वस्त हुआ, किंतु सिर्फ़ 3 महीने मे शुंग वंशिय राजा द्युमतमतसेन द्वारा मेनंदार पराजित किया गया और अयोध्या को स्वतंत्र कराया गया।
जन्म स्थान मंदिर की पुनर्रचना राजा विक्रमादित्य ने की, इतिहास मे 6 विक्रमादित्यो का उल्लेख आता है, इस बात पर इतिहासविद एक मत नही है कि किस विक्रमादित्य ने मंदिर का निर्माण किया। कुछ के अनुसार वो विक्रमादित्य जिसने शको को सन ५६ ई.पू. मे पराजित किया और जिसके नाम से शक संवत चलता है, तो कुछ कहते हैं स्कंदगुप्त जो स्वयं को विक्रमादित्य कहलाता था, उसने 5 वी शताब्दी के अंत मे मंदिर निर्माण किया। पी. करनेगी की किताब " ए हिस्टॉरिकल स्कैच ऑफ फ़ैज़ाबाद " मे कही बात साधारणतया सर्वमान्य है। उसमे वो कहते हैं, विक्रमादित्य के पुरातन शहर ढूँढने का मुख्य सूत्र यह है कि जहाँ सरयू बहती है और भगवान शंकर का रूप नागेश्वर नाथ मंदिर जहाँ है। ये भी माना जाता है की विक्रमादित्या ने करीब ३६० मंदिर अयोध्या मे बनवाए और इसके बाद हिंदुओं द्वारा श्री राम की पूजा निरंतर चलती रही.. इसकी पुष्टि नासिक स्थित सातवाहन राजा द्वारा बनाई पुरातन गुफा के शिला लेख मे मिलती है, बहुचर्चित संस्कृत नाटककार भास ने भगवान राम को अर्चना अवतार मे जोड़ा है।
नमो भगवते त्रैलोक्यकारणाय नारायणाय
ब्रह्मा ते ह्रदयं जगतत्र्यपते रुद्रश्च कोपस्तव
नेत्र चंद्रविकाकरौ सुरपते जिव्हा च ते भारती
सब्रह्मेन्द्रमरुद्रणं त्रिभुवनं सृष्टं त्वयैव प्रभो
सीतेयं जलसम्भवालयरता विश्णुर्भवान ग्रह्यताम
श्री राम को विष्णु अवतार मे पूजा जाने की परंपरा है, जिसका प्रमाण पुरानी दस्तकारी एवं शिला लेखों मे मिलते हैं। चौथी शताब्दी के रामटेक मंदिर की दस्तकारी, सन ४२३ ए.डी. का कंधार का शिलालेख, सन ५३३ ए.डी. का बादामी का चालुक्य शिलालेख, आठवीं शताब्दी (ए.डी) का मामल्लापुरम का शिलालेख, ११वीं शताब्दी में जोधपुर के नज़दीक बना अंबा माता मंदिर, ११४५ ए.डी. का रेवा जिले के मुकुंदपुर में बना राम मंदिर, ११६८ ए.डी. का हँसी शिलालेख, रायपुर जिले के राजीम मे बना राजीव लोचन मंदिर इनमे से कुछ हैं।
१२ शताब्दी में अयोध्या मे पांच मंदिर थे, गौप्रहार घाट का गुप्तारी, स्वर्गद्वार घाट का चंद्राहरी, चक्रतीर्थ घाट का विष्णुहरी, स्वर्गद्वार घाट का धर्महरी, और जन्मभूमि स्थान पर विष्णु मंदिर, इसके बाद जब महमूद ग़ज़नवी ने भारत पर आक्रमण किया तो उसने सोमनाथ को लूटा और वापस चला गया. किंतु उसका भतीजा सालार मसूद अयोध्या की ओर बढ़ा, १४ जून १०३३ को मसूद अयोध्या से ४० किलोमीटर दूर बहराइच पहुँचा, यहाँ सुहैल देव के नेतृत्व मे सेना एकत्र हुई और मसूद पर आक्रमण किया दिया, जिसमे मसूद की सेना परास्त हुई, और मसूद मारा गया. मसूद के चरित्रकार अब्दुल रहमान चिश्ती मिरात ए मसूदी मे कहते हैं,
" मौत का सामना है, फिराक़ सूरी नज़दीक है, हिंदुओं ने जमाव किया है, इनका लश्कर बे-इंतेहाँ है. नेपाल से पहाड़ों के नीचे घाघरा तक फौज मुखालिफ़ का पड़ाव है। मसूद की मौत के बाद अजमेर से मुज़फ्फर ख़ान तुरंत आया, पर वो भी मारा गया... अरब ईरान के हर घर का चिराग बुझा है।

नागपाश, Nagpash,-Weapon of mass destruction was a chemical weapon

नागपाश एक ‘तनुकृत और कम शक्ति’ वाला रसायन अस्त्र था जिसका प्रयोग पूरी तरह से वर्जित नहीं था| उसकी मार मैं एक या दो व्यक्ति ही आ सकते थे|NAGPASH was an extremely toned down CHEMICAL weapon, perhaps then not totally prohibited
“विज्ञान का विकास कोइ अस्माकित घटना नहीं होती ! उसके लिये यह आवश्यक है कि अनुकूल वातावरण हो, शिक्षा का स्थर विज्ञान सम्बंधित शोघ को समाज तक पहुचाने की क्षमता रखता हो, तथा समाज और शासन की, विज्ञान से जो आधुनिकरण सम्बंधित लाभ हो रहे हो, या हो सकते हैं , उसक...ी मांग हो !
"सत्ययुग मैं और त्रेता युग मैं श्री राम से पूर्व अनेक युद्ध हुए थे , लेकिन कभी भी सृष्टी का विनाश इस तरह से नहीं होपाया , जैसे की महाभारत के बाद हूआ था ! यह सत्य है की अधिकाँश आधुनीकरण रामायण युद्ध में ही हुए हैं !
"यह एक तथ्य है जिसे नक्कारा नहीं जा सकता ! पूर्ण विनाश , महाभारत की तरह नहीं हो पाया, इस लिये समाज उन्नंती करता गया! उसका एक उद्धारण तो हम सब को मालुम है; शिव धनुष जो की प्रलय स्वरूप, विनाशकारी था(WEAPON OF MASS DESTRUCTION), और जिसको बनाने के लिये विकसित विज्ञान की आवश्यकता थी , वोह श्री राम से पूर्व त्रेता युग मैं था !
"सारे संकेत यह दर्शाते हैं कि विज्ञान उस समय आज से कहीं ज्यादा विकसित था ! कुछ उन्ही संकेतों पर हम यहाँ पर चर्चा करेंगें ! लेकिन इससे पहले यह आवश्यक है कि हम यह समझ लें कि उन संकेतो को अब तक नक्कारा कैसे गया है !
" पुराने समय मैं विज्ञान सम्बंधित सुचना का आभाव था, लेकिन आज क्यूँ ?”
स्पष्ट है की यदि प्रलय स्वरूपि शस्त्र श्री राम से पहले त्रेता युग मैं थे, और विमान भी थे, तो वह समय विज्ञानिक स्थर से विकसित था ! यहाँ तक विकास हो गया था की प्रलय स्वरूपि शस्त्र , जैसे की शिव धनुष को विघटित करा जाने लगा था ; अथार्थ विकास कम से कम आज के समय से अधिक विकसित था ! और हमारी सोच की सीमा है, जितना विकास हमने देखा है , उससे आगे हमें कल्पना का सहारा लेना होता है !

निश्चय ही रसायन शस्त्र मैं भी अंकुश लगाए गए होंगे ! नागपाश एक ‘तनुकृत और कम शक्ति’ वाला रसायन अस्त्र था जिसका प्रयोग संभवत पूरी तरह से वर्जित नहीं था ! उसकी मार मैं एक या दो व्यक्ति ही आ सकते थे !
युद्ध मैं मेघनाथ ने नागपाश रसायन अस्त्र का प्रयोग करा , तो गरुर्ड देव जो कि “हवाई स्वास्थ्य सेवा” थी संभवत: आज के रेड क्रोस जैसी(जिसे अंतररास्ट्रीय मान्यता , युद् छेत्र मैं स्वास्थ सेवा प्रदान करने कि प्राप्त हो), को समय से ले आय, और दोनों , श्री राम और लक्ष्मण के प्राण बचा लिए !
रामायण के विज्ञान का उपयोग नासा और इसरो ने कई अनुसंधान किया है विज्ञान सलाहकार तथा सुरक्षा शोध और विकास विभाग के सचिव रामायण का विज्ञान २१ वीं सदी एवं ६इथ जेनरेशन से भी कई ज़्यादा विकसित और आधुनिक विज्ञान होने का परिचय देता है I
जय श्री राम, जय माता सीता

India was hub of Indutry until 16 th century



हमे सबसे बड़ा झूठ जब पढ़ाया गया कि भारत कृषि प्रधान देश है जब हम ये नहीं समझ पाए के हमारा ध्यान हमारी तकनीक से हटाया जा रहा है ये कृषि हमारे दिमाग में इतनी भर दी गई के हम हमारी असलियत भूल गए | 16विं सदी में भारत के हर छोटे से छोटे गाँवों में बीस से अस्सी प्रकार के व्यवसाय होते थे इतने कारीगर थे हर गाँव में |
जब दुनिया का 70% भाग भारत के बनाए हुए कपडे़ पे निर्भर था और भारत का कपडा सोने के बदले में दिया जाता था किलो से ना की मीटर से |
अंग्रेज भारत के बने जहाज खरीदते थे पुराने और ...10 वर्षों तक उन का प्रयोग करते थे उतना उन्नत व्यावसायिक और कारीगरी ज्ञान था 16विं सदी तक हमारे पास जो भवन बनाने की तकनीक थी उसे ख़त्म कर के हमे बेकार समेंटेड प्रणाली पकड़ा दी गई हमारी उद्योग-कला (Technology) समाप्त की गई और हमारा रसायन ज्ञान हम से छुपा दिया गया |
और इस अर्थव्यवस्था को तोड़ने के लिए हमारे केंद्र मंदिरो पे अंग्रेजो ने अभिग्रहण (Capture) किया जहाँ से सारी व्यवस्था गड़बड़ हुई |
गुरुकुलो में निःशुल्क शिक्षा होती थी, हर पाँच गाँवों में एक वैध होता था जो निःशुल्क उपचार करता था और गाँव वालों द्वारा भिक्षा या अन्य रूप में उन का भरण पोषण होता था | हर पाँच गाँवों के वेधो पे एक शल्य-चिकित्सक (Surgeon) होता था जो की शल्य क्रिया (Operation) सम्बंधित कार्य किया करता था | और भी कई ऐसी बातें है |
अंग्रेजो ने जब हमारी अर्थव्यवस्था समाप्त की तो हम सब बेरोजगार हो गए और निर्धन हो गए ना शिक्षा के लिए गुरुकुल बचे थे | ना कोई कमाई का जातीय केंद्र | 18विं सदी तक दासता (गुलामी) की चपेट में पूरी तरह से अा चुके थे क्योंकि हमारी उद्योग-कला छिन ली गई थी और वाहीं से गरीबी का सील सिला शुरू हुआ अपने पूर्वजो को भूल गए अधिकांश और इस का फ़ायदा उठा के अंग्रेजो ने मूलनिवासी सिद्धान्त (Theories) थोप दी |
मुगलो और ईसाई से लड़ाई हुई लेकिन वो कभी इस तरह की हानि नहीं पहुँचा पाए और आज भी असली खतरा इस्लाम और ईसाई मिशनरी है |

वीरवर कल्ला जी राठौड़, Kalla ji rathod and Akbar

वीरवर कल्ला जी राठौड़ !!

आगरा के किले में अकबर का खास दरबार लगा हुआ था आज म्लेच्छ बादशाह अकबर बहुत खुश था, सयंत रूप से
आपस में हंसी- मजाक चल रहा था | तभी म्लेच्छ अकबर ने अनुकूल अवसर देख बूंदी के राजा भोज से कहा - "
राजा साहब हम चाहते है आपकी छोटी राजकुमारी की सगाई शाहजादा सलीम के साथ हो जाये |"
राजा भोज ने तो अपनी पुत्री किसी मलेच्छ को दे दे ऐसी कभी कल्पना भी नहीं की थी |
उसकी कन्या एक मलेच्छ के साथ ब्याही जाये उसे वह अपने हाड़ावंश
की प्रतिष्ठा के खिलाफ समझते थे | इसलिए राजा भोज ने मन ही मन निश्चय किया कि- वे अपनी पुत्री की सगाई शाहजादा सलीम के साथ
हरगिज नहीं करेंगे |
यदि एसा प्रस्ताव कोई और रखता तो राजा भोज उसकी जबान काट लेते पर ये प्रस्ताव रखने वाला भारत का क्रूर म्लेच्छ अकबर था जिसने छल कर के हिन्दू राजा महाराजा को बंदी बनाया है | राजा भोज से प्रति उत्तर सुनने के लिए म्लेच्छ अकबर ने अपनी निगाहें राजा भोज के चेहरे पर गड़ा दी | राजा भोज को कुछ ही क्षण में उत्तर देना था वे समझ नहीं पा रहे थे कि -बादशाह को क्या उत्तर दिया जाये | इसी उहापोह में उन्होंने सहायता के लिए दरबार में बैठे क्षत्रिय राजाओं व योद्धाओं पर दृष्टि डाली और उनकी नजरे "कल्ला जी राठौड़ "" पर जाकर ठहर गयी |
कल्ला जी राठौड़ राजा भोज की तरफ देखता हुआ अपनी भोंहों तक लगी मूंछों पर
निर्भीकतापूर्वक बल दे रहा था | | राजा भोज को अब उत्तर मिल चुका था उन्होंने म्लेच्छ अकबर से कहा - " जहाँपनाह
मेरी छोटी राजकुमारी की तो सगाई हो चुकी है |"
"किसके साथ ?" म्लेच्छ अकबर ने कड़क कर पूछा |
" जहाँपनाह मेरे साथ,बूंदी की छोटी राजकुमारी मेरी मांग है |"
अपनी मूंछों पर बल देते हुए कल्ला जी राठौड़ ने दृढ़ता के साथ कहा | यह सुनते ही सभी दरबारियों की नजरें कल्ला जी को देखने लगी इस तरह भरे दरबार में म्लेच्छ अकबर बादशाह के आगे मूंछों पर ताव देना अशिष्टता ही नहीं बादशाह का अपमान भी था। साले सूअर के पिल्ले(शहंशाह) की ।
म्लेच्छ अकबर भी समझ गया था कि ये कहानी अभी अभी घड़ी गयी है
पर चतुर म्लेच्छ अकबर बादशाह ने नीतिवश जबाब दिया _ "
फिर कोई बात नहीं |
हमें पहले मालूम होता तो हम ये प्रस्ताव ही नहीं रखते |" और दुसरे ही क्षण म्लेच्छ अकबर बादशाह ने वार्तालाप का विषय बदल दिया | यह घटना सभी दरबारियों के बीच चर्चा का विषय
बन गयी कई दरबारियों ने इस घटना के बाद के बाद म्लेच्छ अकबर बादशाह को कल्ला के खिलाफ उकसाया तो कईयों ने कल्ला जी राठौड़ को सलाह दी आगे से बादशाह के आगे मूंछें नीची करके जाना बादशाह तुमसे बहुत नाराज है |
पर कल्ला को उनकी किसी बात की परवाह नहीं थी |
लोगों की बातों के कारण दुसरे दिन जब कल्ला दरबार में हाजिर हुआ तो केसरिया वस्त्र (युद्ध कर मृत्यु के लिए तैयारी के प्रतीक )धारण किये हुए था | उसकी मूंछे आज और
भी ज्यादा तानी हुई थी | म्लेच्छ अकबर बादशाह उसके रंग ढंग देख समझ गया था और मन ही मन सोच रहा था -"
एसा बांका जवान बिगड़ बैठे तो क्या करदे |" दुसरे ही दिन कल्ला बिना छुट्टी लिए सीधा बूंदी की राजकुमारी हाड़ी को ब्याहने चला गया और उसके साथ फेरे लेकर आगरा के लिए रवाना हो गया | हाड़ी ने भी कल्ला के हाव-भाव देख और
आगरा किले में हुई घटना के बारे में सुनकर अनुमान लगा लिया था कि -उसका सुहाग ज्यादा दिन तक रहने वाला नहीं | सो उसने आगरा जाते
कल्ला को संदेश भिजवाया - " हे प्राणनाथ ! आज तो बिना मिले ही छोड़ कर आगरा पधार रहे है पर
स्वर्ग में साथ चलने का सौभाग्य
जरुर देना |" "अवश्य एसा ही होगा |" जबाब दे
कल्ला आगरा आ गया | उसके हाव-भाव देखकर म्लेच्छ अकबर बादशाह अकबर ने उसे काबुल के उपद्रव दबाने के लिए लाहौर भेज दिया ,लाहौर में उसे
केसरिया वस्त्र पहने देख एक मुग़ल सेनापति ने व्यंग्य से कहा - " कल्ला जी अब ये केसरिया वस्त्र धारण कर क्यों स्वांग बनाये हुए हो ?"
"राजपूत एक बार केसरिया धारण कर लेता है तो उसे बिना निर्णय के उतारता नहीं| यदि तुम में हिम्मत है तो उतरवा दो |" कल्ला ने कड़क कर
कहा | इसी बात पर विवाद हो गया ।और विवाद होने पर कल्ला ने उस मुग़ल सेनापति का एक झटके में सिर धड़ से अलग कर दिया और वहां से बागी हो सीधा बीकानेर आ पहुंचा | उस समय बादशाह के दरबार में रहने वाले प्रसिद्ध कवि बीकानेर के राजकुमार पृथ्वीराज राठौड़ जो इतिहास में पीथल के नाम से
प्रसिद्ध है बीकानेर आये हुए थे,कल्ला ने उनसे कहा -
"काकाजी मारवाड़ जा रहा हूँ वहां चंद्रसेन जी राठौड़ की अकबर के विरुद्ध सहायतार्थ युद्ध करूँगा |
आप मेरे मरसिया (मृत्यु गीत) बनाकर सुना दीजिये |" पृथ्वीराज जी ने कहा -"मरसिया तो मरने के उपरांत बनाये जाते है तुम तो अभी जिन्दा हो तुम्हारे मरसिया कैसे
बनाये जा सकते है।
"काकाजी आप मेरे मरसिया में जैसे युद्ध का वर्णन करेंगे मैं आपको वचन देता हूँ कि मैं उसी अनुरूप युद्ध में
पराक्रम दिखा कर वीरगति को प्राप्त
होवुंगा |" कल्ला ने दृढ निश्चय से कहा |
हालाँकि पृथ्वीराजजी के आगे ये एक विचित्र स्थिति थी । लेकिन कल्ला जी के जिद के सामने उन्हें मरसिया गीत बना कर गाना पडा और
कल्ला जी वही गीत गुनगुनाते हुए निकल पड़े जब वो मारवाड़ के सिवाने के तरफ जा रहे थे तभी उन्हें
सुचना मिली की अकबर की एक
सेना की टुकड़ी उनके मामा के सिरोही के सुल्तान देवड़ा पर आक्रमण करने जा रही है।
कल्ला जी उस सेना से बिच में ही भीड़ गुए और देखते ही देखते अकबर की उस टुकड़ी को बिच में ही ख़त्म कर दिया या यूँ कहलो चुन चुन
के ख़त्म कर दिया। जब ए बात अकबर को मालूम पड़ी तू उसने कल्ला जी दंडित करने के लिए
मोटा रजा उदयसिंह से कहा जो की जोधपुर के थे। और मोटाराजा उदयसिंह ने अपने दलबल के साथ
जाकर सिवाना पर आक्रमण किया जहाँ कल्ला अद्वितीय वीरता के साथ
लड़ते हुए वीरगति को प्राप्त हुआ | कहते है कि "कल्ला का लड़ते लड़ते सिर कट गया था फिर भी वह मारकाट मचाता रहा आखिर घोड़े पर
सवार उसका धड़ उसकी पत्नी हाड़ी के पास गया,उसकी पत्नी ने जैसे गंगाजल के छींटे उसके धड़ पर डाले उसी वक्त उसका धड़ घोड़े से गिर
गया जिसे लेकर हाड़ी चिता में प्रवेश कर उसके साथ स्वर्ग सिधार गयी |
आज भी राजस्थान में मूंछो की मरोड़
का उदहारण दिया जाता है तो कहा जाता है -
" मूंछों की मरोड़ हो तो कल्ला जी राठौड़ जैसी