Monday, April 18, 2016

Tatya Tope-A Warrior English dreaded to fight with



प्रथम स्वतंत्रता संग्राम सन् 1857 के महासंग्राम में इस महानायक का छापामार गुरिल्ला युद्ध प्रणाली ने अंग्रेजों की नींद उड़ा दी थी ऐसा महायोद्धा जिसको देख अंग्रेजी सेनाएं अपना पाला बदल देती थी | ऐसे अग्रणी वीरों में एक महायोद्धा तात्या टोपे जी (रामचन्द्र पांडुरंग राव योलेकर) के बलिदान दिवस पर भारत माँ के वीर सपूत को कोटि कोटि नमन एवं भावभीनी श्रद्धांजलि |
भारत माता की जय
ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कम्पनी और अंग्रेज़ों के खिलाफ़ भारत के प्रथम स्वाधीनता संग्राम के महानायक, अपनी वीरता और रणनीति के लिये दूर दूर तक विख्यात रामचन्द्र पांडुरंग राव योलेकर उपाख्य तात्या टोपे से शायद ही कोई अपरिचित हो। 18 अप्रैल उन्हीं तात्या टोपे का बलिदान दिवस है। सन 1857 के महान विद्रोह में उनकी भूमिका सबसे महत्त्वपूर्ण, प्रेरणादायक और बेजोड़ थी, जिसे इतिहास कभी नहीं भुला सकता। तात्या का जन्म सन 1814 में महाराष्ट्र में नासिक के निकट पटौदा जिले के येवला नामक गाँव में एक देशस्थ ब्राह्मण परिवार श्रीमती रुक्मिणी बाई एवं पाण्डुरंग राव भट्ट़ के पुत्र के रूप में हुआ था।
उनके पिता पाण्डुरंग राव भट्ट़ (मावलेकर), पेशवा बाजीराव द्वितीय के दरबार के एक सम्माननीय सदस्य थे। तात्या अपने पिताजी के साथ अक्सर पेशवा के दरबार में जाते। बच्चे की प्रतिभा मानो उसके तेजस्वी और मुखर नेत्रों से छलक पड़ती थी इन्हीं विशाल और आकर्षक नेत्रों ने जल्द ही पेशवा का ध्यान अपनी ओर आकर्षित किया। पेशवा बच्चे की प्रखर बुद्धि से प्रभावित हुए और उन्होने एक रत्नजटित टोपी उसे पहना दी। रामचंद्र का प्यार का नाम तात्या था और जब से पेशवा ने बालक तात्या को टोपी पहनाई तब से वह मानो उसकी चिरसंगिनी हो गई लोग अब तात्या को तात्या टोपे कहने लगे और आजन्म यही उनका अपना हो गया।
तात्या एक महत्त्वाकांक्षी नवयुवक थे। उन्होंने अनेक वर्ष बाजीराव के तीन पुत्र- नाना साहब, बाला साहब और बाबा भट्ट के साहचर्य में बिताए और इन्हीं के साथ उन्होंने युद्ध कौशल एवं अन्य शिक्षा दीक्षा प्राप्त की। तात्या ने कुछ सैनिक प्रशिक्षण प्राप्त तो किया था किंतु उन्हें युद्धों का अनुभव बिल्कुल भी नहीं था। तात्या ने पेशवा के पुत्रों के साथ उस काल के औसत नवयुवक की भांति युद्ध प्रशिक्षण प्राप्त किया था। घेरा डालने और हमला करने का जो भी ज्ञान उन्हें रहा हो वह उनके उस कार्य के लिए बिलकुल उपयुक्त न था जिसके लिए भाग्य ने उनका निर्माण किया था। ऎसा प्रतीत होता है कि उन्होंने 'गुरिल्ला' युद्ध जो उनकी मराठा जाति का स्वाभाविक गुण था, अपनी वंश परंपरा से प्राप्त किया था। यह बात उन तरीकों से सिद्ध हो जाती है जिनका प्रयोग उन्होंने ब्रिटिश सेनानायकों से बचने के लिए किया।
बिठूर में तात्या की योग्यताओं और महत्त्वाकांक्षाओं के लिए न के बराबर स्थान था और वह एक उद्धत्त व्यक्ति बनकर ही वहां रहते, यह बात इस तथ्य से स्पष्ट है कि वह कानपुर गए और उन्होंने ईस्ट इंडिया कम्पनी की नौकरी कर ली किंतु शीघ्र ही हतोत्साहित होकर लौट आए। इसके बाद उन्होंने कुछ समय तक महाजनी का काम किया, किंतु इसे बाद में छोड़ दिया क्योंकि यह उनके स्वभाव के बिलकुल प्रतिकूल था। तात्या के पिता पेशवा के गृह प्रबंध के पहले से ही प्रधान थे, इसलिए उन्हें एक लिपिक के रूप में नौकरी पाने में कोई कठिनाई नहीं हुई। किंतु वह अपनी इस हालत से खुश नहीं थे और उनको लगता था कि वह इन सब कामों के लिए नहीं बने हैं।
इसी बीच सन् सत्तावन के विद्रोह की शुरुआत 10 मई को मेरठ से हो गयी और जल्दी ही क्रांति की चिन्गारी समूचे उत्तर भारत में फैल गयी। विदेशी सत्ता का खूनी पंजा मोडने के लिए भारतीय जनता ने जबरदस्त संघर्ष किया और उसने अपने खून से त्याग और बलिदान की अमर गाथा लिखी। सन् 1857 के विद्रोह की लपटें जब कानपुर पहुँचीं और वहाँ के सैनिकों ने नाना साहब को पेशवा और अपना नेता घोषित किया तो तात्या टोपे ने कानपुर में स्वाधीनता स्थापित करने में अगुवाई की। तात्या टोपे को नाना साहब ने अपना सैनिक सलाहकार नियुक्त किया और 1857 तक जिस नाम से लोग अपरिचित थे, 1857 की नाटकीय घटनाओं ने उसे अचानक अंधकार से प्रकाश में ला खड़ा किया।
इस महान विद्रोह के प्रारंभ होने से पूर्व वह राज्यच्युत पेशवा बाजीराव द्वितीय के सबसे बड़े पुत्र बिठूर के राजा, नाना साहब के एक प्रकार से साथी-मुसाहिब मात्र थे, किंतु स्वतंत्रता संग्राम में कानपुर के सम्मिलित होने के पश्चात तात्या पेशवा की सेना के सेनाध्यक्ष की स्थिति तक पहुंच गए। उसके पश्चातवर्ती युद्धों की सभी घटनाओं ने उनका नाम सबसे आगे एक पुच्छलतारे की भांति बढ़ाया, जो अपने पीछे प्रकाश की एक लंबी रेखा छोड़ता गया। उनका नाम केवल देश में नहीं वरन देश के बाहर भी प्रसिद्ध हो गया। मित्र ही नहीं शत्रु भी उनके सैनिक अभियानों को जिज्ञासा और उत्सुकता से देखने और समझने का प्रयास करते थे।
समाचार पत्रों में उनके नाम के लिए विस्तृत स्थान उपलब्ध था। उनके विरोधी भी उनकी प्रशंसा करते थे। उदाहरणार्थ-
कर्नल माल्सन ने उनके संबंध में कहा है, 'भारत में संकट के उस क्षण में जितने भी सैनिक नेता उत्पन्न हुए, वह उनमें सर्वश्रेष्ठ थे।'
सर जार्ज फॉरेस्ट ने उन्हें, 'सर्वोत्कृष्ट राष्ट्रीय नेता' कहा है।
आधुनिक अंग्रेज़ी इतिहासकार, पर्सीक्रास स्टेडिंग ने सैनिक क्रांति के दौरान देशी पक्ष की ओर से उत्पन्न 'विशाल मस्तिष्क' कहकर उनका सम्मान किया। उसने उनके विषय में यह भी कहा है कि 'वह विश्व के प्रसिद्ध छापामार नेताओं में से एक थे।
1857 के दो विख्यात वीरों - झांसी की रानी और तात्या टोपे में से झांसी की रानी को अत्यधिक ख्याति मिली। उनके नाम के चारों ओर यश का चक्र बन गया, किंतु तात्या टोपे के साहसपूर्ण कार्य और विजय अभियान रानी लक्ष्मीबाई के साहसिक कार्यों और विजय अभियानों से कम रोमांचक नहीं थे। रानी लक्ष्मीबाई के युद्ध अभियान जहां केवल झांसी, कालपी और ग्वालियर के क्षेत्रों तक सीमित रहे थे वहां तात्या एक विशाल राज्य के समान कानपुर और मध्य भारत तक फैल गए थे। कर्नल ह्यू रोज- जो मध्य भारत युद्ध अभियान के सर्वेसर्वा थे, ने यदि रानी लक्ष्मीबाई की प्रशंसा 'उन सभी में सर्वश्रेष्ठ वीर' के रूप में की थी तो मेजर मीड को लिखे एक पत्र में उन्होंने तात्या टोपे के विषय में यह कहा था कि वह 'भारत युद्ध नेता और बहुत ही विप्लवकारी प्रकृति के थे और उनकी संगठन क्षमता भी प्रशंसनीय थी।'
तात्या ने अन्य सभी नेताओं की अपेक्षा शक्तिशाली ब्रिटिश शासन की नींव को हिलाकर रख दिया था। उन्होंने शत्रु के साथ लंबे समय तक संघर्ष जारी रखा। जब स्वतंत्रता संघर्ष के सभी नेता एक-एक करके अंग्रेज़ों की श्रेष्ठ सैनिक शक्ति से पराभूत हो गए तो वे अकेले ही विद्रोह की पताका फहराते रहे। रानी लक्ष्मीबाई के बलिदान के बाद का तात्या टोपे का दस माह का जीवन अद्वितीय शौर्य गाथा से भरा जीवन है। लगभग सब स्थानों पर विद्रोह कुचला जा चुका था, लेकिन तात्या ने एक साल की लम्बी अवधि तक मुट्ठी भर सैनिकों के साथ अंग्रेज सेना को झकझोरे रखा। इस दौरान उन्होंने दुश्मन के खिलाफ एक ऐसे जबर्दस्त छापेमार युद्ध का संचालन किया, जिसने उन्हें दुनिया के छापेमार योद्धाओं की पहली पंक्ति में लाकर खडा कर दिया।
इस छापेमार युद्ध के दौरान तात्या टोपे ने दुर्गम पहाडयों और घाटियों में बरसात से उफनती नदियों और भयानक जंगलों के पार मध्यप्रदेश और राजस्थान में ऐसी लम्बी दौड-दौडी जिसने अंग्रेजी कैम्प में तहलका मचाये रखा। बार-बार उन्हें चारों ओर से घेरने का प्रयास किया गया और बार-बार तात्या को लडाइयाँ लडनी पडी, परंतु यह छापामार योद्धा एक विलक्षण सूझ-बूझ से अंग्रेजों के घेरों और जालों के परे निकल गया। तत्कालीन अंग्रेज लेखक सिलवेस्टर ने लिखा है कि ’’हजारों बार तात्या टोपे का पीछा किया गया और चालीस-चालीस मील तक एक दिन में घोडों को दौडाया गया, परंतु तात्या टोपे को पकडने में कभी सफलता नहीं मिली।‘‘
उन्होंने लगातार नौ मास तक उन आधे दर्जन ब्रिटिश कमांडरों को छकाया जो उन्हें पकड़ने की कोशिश कर रहे थे और वे अपराजेय ही बने रहे। सच तो यही है कि सन् 1857 के स्वातंत्र्य योद्धाओं में वही ऐसे तेजस्वी वीर थे जिन्होंने विद्युत गति के समान अपनी गतिविधियों से शत्रु को आश्चर्य में ड़ाल दिया था। वही एकमात्र ऐसे चमत्कारी स्वतन्त्रता सेनानी थे जिन्होंने पूरब, पश्चिम, उत्तर और दक्षिण के सैनिक अभियानों में फिरंगी अंग्रेज़ों के दाँत खट्टे कर दिये थे। अपने अभियानों के क्रम में तात्या को राजस्थान के इन्दरगढ में नेपियर, शाबर्स, समरसेट, स्मिथ, माइकेल और हार्नर नामक ब्रिगेडियर और उससे भी ऊँचे सैनिक अधिकारियों ने हर एक दिशा से घेर लिया। बचकर निकलने का कोई रास्ता नहीं था, लेकिन तात्या में अपार धीरज और सूझ-बूझ थी।
अंग्रेजों के इस कठिन और असंभव घेरे को तोडकर वे जयपुर की ओर भागे। देवास और शिकार में उन्हें अंग्रेजों से पराजित होना पडा। अब उन्हें निराश होकर परोन के जंगल में शरण लेने को विवश होना पडा। अंग्रेजों ने थकहार कर छल का सहारा लिया और अंग्रेज सेनापति होम्स ने तात्या के मित्र ग्वालियर के सरदार मानसिंह के माध्यम से तात्या टोपे को पकड़ने का षड़यंत्र रचा । 7 अप्रैल, 1859 को रात्रि के समय शिवपुरी के बीहड़ जंगल में मानसिंह के ठिकाने पर सोये हुए तात्या टोपे को गोरे सैनिकों ने घेर लिया । रणबाँकुरे तात्या को कोई जागते हुए नहीं पकड सका।
विद्रोह और अंग्रेजों के विरुद्ध युद्ध लडने के आरोप में 15 अप्रैल, 1859 को शिवपुरी में तात्या का कोर्ट मार्शल किया गया। तात्या टोपे ने अदालत में निर्भीकता से कहा “मैंने मातृभूमि की स्वाधीनता के लिए अंग्रेजों के विरुद्ध युद्ध किया है । मैं तोप से उड़ाए जाने या फांसी पर चढ़ने के लिए तैयार हूँ।” कोर्ट मार्शल के सब सदस्य अंग्रेज थे इसलिए परिणाम जाहिर था, उन्हें मौत की सजा दी गयी।शिवपुरी के किले में उन्हें तीन दिन बंद रखा गया। वो 18 अप्रैल 1859 का दिन था, समय दोपहर चार बजे एक मुस्कराता हुआ कैदी जेल से बाहर लाया गया उसके हाथों और पैरों में जंजीरे पड़ी थीं सिपाहियों की निगरानी में उसे फाँसी के तख्त के पास ले जाया गया उसे मौत की सजा सुनाई गई थी कैदी तख्त की ओर निर्भयता से बढ़ा तख़्त पर पैर रखते समय उसमें तनिक भी हिचकिचाहट नहीं थी परिपाटी थी कि मृत्युदंड दिए गए व्यक्ति की आँखें रुमाल से बाँध दी जाए पर जब सिपाही रुमाल लेकर आगे बढ़े तो कैदी मुस्कुराया और उसने इशारे से समझा दिया कि “मुझे उसकी कोई आवश्यकता नही।” उसने अपने हाथ- पैर बँधवाने से भी इनकार कर दिया अपने हाथ से ही उसने उस फंदे को अपनी गर्दन में फँसाया फंदा कसा गया, अंत में एक झटका और पल भर में सब कुछ समाप्त। कहा जाता है कि उन्हें दो बार फ़ांसी पर लटकाकर अंग्रेज़ों ने अपनी संतुष्टि की थी।
इसके बाद बदला लेने के उद्देश्य से अंग्रेज़ सेना के साथ नरवर और ग्वालियर के शासक भी तात्या के परिवारजनों को ढूंढने में लग गये। लम्बे समय तक इस स्वाभिमानी परिवार के सदस्य अपने नाम और वेशभूषा बदलकर अनेक ग़ैर-पारम्परिक पेशों को चुनकर देशभर में भटकते रहे। गर्व की बात यह है कि वर्षों के उत्पीड़न के बावजूद भी स्वस्थ परम्पराओं का सम्मान करने वाला यह परिवार आज सुशिक्षित और समृद्ध हैं। तात्या टोपेज़ ऑपरेशन रेड लोटस के लेखक पराग टोपे अमेरिका में रहते हैं। डॉ राजेश टोपे आयरलैंड में रहे हैं परंतु अधिकांश टोपे परिवारजन भारत में ही रहते हैं।
भारत में 1857 में हुए प्रथम स्वतंत्रता संग्राम के अग्रणी नेता तात्या टोपे के बारे में भले ही इतिहासकार कहते हों कि उन्हें अप्रैल 1859 में फाँसी दी गई थी, लेकिन उनके एक वंशज पराग टोपे ने तात्या टोपे से जुड़े नए तथ्यों का खुलासा करने वाली किताब ‘तात्या टोपेज ऑपरेशन रेड लोटस’ में दावा किया है कि तात्या को मध्यप्रदेश के शिवपुरी में 18 अप्रैल 1859 को तात्या को फाँसी नहीं दी गई थी, बल्कि गुना जिले में छीपा बड़ौद के पास अंग्रेजों से लोहा लेते हुए 1 जनवरी 1859 को तात्या टोपे शहीद हो गए थे। पराग टोपे के अनुसार तात्या को कभी पकड़ा नहीं जा सका था और वे दरअसल एक छापामार युद्ध में शहीद हुए थे।
उनकी शहादत के बाद युद्ध की शैली, सैन्य संचलन आदि में अचानक एक बड़ा अंतर आया। उनकी प्रतीकात्मक फ़ांसी अंग्रेज़ों की एक ज़रूरत थी जिसके बिना स्वतंत्रता संग्राम का पूर्ण पटाक्षेप कठिन था। इस प्रक्रिया के नाट्य रूपांतर में नरवर के राजा ने एक नरबलि देकर अपने गौर प्रभुओं की सहायता की। फ़ांसी लगे व्यक्ति ने अपनी आयु 55 वर्ष बताई थी जबकि उपलब्ध साक्ष्यों के अनुसार उस समय तात्या की आयु 45-46 वर्ष की होनी थी। सत्य जो भी हो, जन्मभूमि की ओर आँख उठाने वालों के छक्के छुड़ा देने वाले तात्या जैसे वीर संसार भर के स्वतंत्रताप्रिय देशभक्तों की नज़र में सदा अमर रहेंगे। तात्या टोपे को श्रद्धांजलि देते हुए राष्ट्रीय कवि स्व. श्रीकृष्ण 'सरल' ने लिखा था-
'दांतों में उंगली दिए मौत भी खड़ी रही,
फौलादी सैनिक भारत के इस तरह लड़े
अंगरेज बहादुर एक दुआ मांगा करते,
फिर किसी तात्या से पाला नहीं पड़े।'
उनके बलिदान दिवस पर कोटि कोटि नमन एवं विनम्र श्रद्धांजलि।

Ajit Singh -Sikh warrior

साहिबजादा अजीत सिंघ जी
• नामः साहिबजादा अजीत सिंघ जी
• जन्मः 26 जनवरी 1687
• जन्म स्थानः श्री पाउँटा साहिब जी
• पिता का नामः श्री गुरू गोबिन्द सिंघ जी...
• दादा का नामः श्री गुरू तेग बहादर साहिब जी
• पड़दादा का नामः श्री गुरू हरगोबिन्द साहिब जी
• किस वंश से संबंधः सोढी वंश
• कब शहीद हुएः 22 दिसम्बर 1705
• कहाँ शहीद हुएः चमकौर की गढ़ी
• किसके खिलाफ लड़ेः लगभग 10 लाख मुगलों के खिलाफ
• अन्तिम सँस्कार का स्थानः चमकौर की गढ़ी
• अन्तिम सँस्कार कब हुआः 25 दिसम्बर 1705


साहिबजादा अजीत सिंघ जी दसवें गुरू श्री गुरू गोबिन्द सिंघ जी के पुत्र, नौवें गुरू श्री गुरू तेग बहादर साहिब जी के पोते और छठवें गुरू श्री गुरू हरगोबिन्द साहिब जी के पड़पोते थे। आपका जन्म 26 जनवरी 1687 के दिन श्री पाउँटा साहिब जी में हुआ था। साहिबजादा अजीत सिंघ जी चुस्त और समझदार और बहुत ही बहादुर नौजवान थे। छोटेपन से ही वो गुरबाणी के प्रति आस्था रखते थे। जैसे ही उन्होंने जवानी में कदम रखा उन्होंने घुड़सवारी,कुश्ती, तलवारबारी और बन्दूक, तीर आदि चलाने में महारत हासिल की। छोटी उम्र में ही आप शस्त्र चलाने में माहिर हो गए थे।
• 12 साल की उम्र में वो 23 मई 1699 के दिन 100 सिंघों का जत्था लेकर श्री आनंदपुर साहिब के नजदीक नूर गाँव गए। उन्होंने वहाँ के रँघड़ों को, जिन्होंने पौठार की सँगत को श्री आनँदपुर साहिब जी आते समय लूट लिया था, सजा दी।
• 29 अगस्त 1700 के दिन जब मुगलों ने किला तारागढ़ पर हमला किया तो साहिबजादा अजीत सिंघ जी ने उनका मुकाबला बड़ी बहादुरी के साथ किया।
• अक्टूबर के पहले हफ्ते, 1700 में जब मुगल फौजों ने किला निरमोहगढ़ पर हमला किया तो साहिबजादा अजीत सिंघ जी सबसे आगे होकर लड़े और उन्होंने कई मुगल हमलावरों के सिर उतार दिए।
• इसी प्रकार जब 15 मार्च 1700 के दिन वह सिक्खों का जत्था लेकर बजरूढ़ गाँव गए। बजरूढ़ गाँव के वासियों ने कई बार सिक्ख सँगतों को जो कि श्री आनँदपुर साहिब जी में गुरू साहिब जी के दर्शन करने के लिए आते थे उन्हें लूट लेते थे। साहिबजादा अजीत सिंघ जी ने उन लूटेरों को सख्त सजा दी।
• इसी प्रकार 7 मार्च 1703 में साहिबजादा अजीत सिंघ जी बस्सी कलाँ गए। बसिआँ का मालिक हाकिम जाबर खान इस इलाके के हिन्दूओं पर हर प्रकार का जूल्म और जबरन लडकियों, औरतों की बेइज्जती करता था। एक प्रसँग में होशियारपुर जिले के जोजे शहर के गरीब ब्राहम्ण की धर्म-पत्नि की डोली हाकम जाबर खान हथिया कर अपने महल ले आया। दुखी ब्राहम्ण धार्मिक आगूओं, राजाओं के पास जाकर रोया,लेकिन उसकी कोई सुनवाई नहीं हुई। फिर देवी दास श्री गुरू गोबिन्द सिंघ जी के पास श्री आनँदपुर सहिब जी जा पहुँचा और घटना कही। गुरू जी ने अजीत सिंघ के साथ200 बहादुर सिक्खों का जत्था हाकम जाबर खान को सबक सिखाने के लिए भेजा। अजीत सिंघ जी ने अपने जत्थे समेत जाबर खान पर हमला किया, धमासान की जँग में घायल जाबर खान को बाँध लिया गया, साथ ही देवी दास की पत्नि को देवी दास के साथ उसके घर भेज दिया। साहिबजादा अजीत सिंघ जी इसके बाद जहाँ पहुँचे वहाँ गुरदुआरा शहीदाँ लदेवाल महिलपुर स्थित है। जखमी सिंघों मे से कुछ रात को शहीद हो गए। उन सिंघों का सँस्कार साहिबजादा अजीत सिंघ जी ने सुबह अपने हाथों से किया।
साहिबजादा अजीत सिंघ जी ने अपनी उम्र का बहुत सारा हिस्सा श्री आनँदपुर साहिब जी में ही गुजारा। वह हमेशा अपने पिता श्री गुरू गोबिन्द सिंघ साहिब जी के साथ ही रहते थे। जब मई 1705 में मुगल फौजों ने श्री आनँदपुर साहिब जी को घेरे में लिया तो आप भी वहीं थे।
20 दिसम्बर 1705 की रात को जब गुरू साहिब जी ने श्री आनँदपुर साहिब जी छोड़ा तो साहिबजादा अजीत सिंघ जी भी इसमें शामिल थे। पाँच सौ सिक्खों का यह काफिला श्री आनँदपुर साहिब जी से कीरतपुर तक चुपचाप निकल गया। गुरू साहिब जी ने साहिबजादा अजीत सिंघ जी एक विशेष जत्था देकर श्री आनँदपुर साहिब जी से भेजा था। यह जत्था सबसे पीछे आ रहा था। इस जत्थे को सरसा नदी पार करके रोपड़ की तरफ जाना था। रोपड़ जाते समय गाँव मलकपुर के पास उनको भाई बचितर सिंघ, जो बहुत जख्मी हालत में थे,वहाँ मिले। उन्होंने उसको साथियों की मदद से उठाया और वहाँ से 6 किलोमीटर दूर कोटला निहँग ले गए।
कीरतपुर से लगभग चार कोस की दूरी पर सरसा नदी है। जिस समय सिक्खों का काफिला इस बरसाती नदी के किनारे पहुँचा तो इसमें भयँकर बाढ़ आई हुई थी और पानी जोरों पर था। इस समय सिक्ख भारी कठिनाई में घिर गए। उनके पिछली तरफ शत्रु दल मारो-मार करता आ रहा था और सामने सरसा नदी फुँकारा मार रही थी, निर्णय तुरन्त लेना था। अतः श्री गुरू गोबिन्द सिंह जी ने कहा कि कुछ सैनिक यहीं शत्रु को युद्ध में उलझा कर रखों और जो सरसा पार करने की क्षमता रखते हैं वे अपने घोड़े सरसा के बहाव के साथ नदी पार करने का प्रयत्न करें।
ऐसा ही किया गया। भाई उदय सिंह तथा जीवन सिंह अपने अपने जत्थे लेकर शत्रु के साथ भिड़ गये। इतने में गुरूदेव जी सरसा नदी पार करने में सफल हो गए। किन्तु सैकड़ों सिंघ सरसा नदी पार करते हुए मौत का शिकार हो गए क्योंकि पानी का वेग बहुत तीखा था। कई तो पानी के बहाव में बहते हुए कई कोस दूर बह गए। जाड़े ऋतु की वर्षा, नदी का बर्फीला ठँडा पानी, इन बातों ने गुरूदेव जी के सैनिकों के शरीरों को सुन्न कर दिया। इसी कारण शत्रु सेना ने सरसा नदी पार करने का साहस नहीं किया।
सरसा नदी पार करने के पश्चात 40 सिक्ख दो बड़े साहिबजादे अजीत सिंह तथा जुझार सिंह के अतिरिक्त गुरूदेव जी स्वयँ कुल मिलाकर 43 व्यक्तियों की गिनती हुईं। नदी के इस पार भाई उदय सिंह मुगलों के अनेकों हमलों को पछाड़ते रहे ओर वे तब तक वीरता से लड़ते रहे जब तक उनके पास एक भी जीवित सैनिक था और अन्ततः वे युद्ध भूमि में गुरू आज्ञा निभाते और कर्त्तव्य पालन करते हुए वीरगति पा गये।
इस भयँकर उथल-पुथल में गुरूदेव जी का परिवार उनसे बिछुड़ गया। भाई मनी सिंह जी के जत्थे में माता साहिब कौर जी व माता सुन्दरी कौर जी और दो टहल सेवा करने वाली दासियाँ थी। दो सिक्ख भाई जवाहर सिंह तथा धन्ना सिंह जो दिल्ली के निवासी थे, यह लोग सरसा नदी पार कर पाए, यह सब हरिद्वार से होकर दिल्ली पहुँचे। जहाँ भाई जवाहर सिंह इनको अपने घर ले गया। दूसरे जत्थे में माता गुजरी जी छोटे साहबज़ादे जोरावर सिंघ और फतेह सिंघ तथा गँगा राम ब्राह्मण ही थे, जो गुरू घर का रसोईया था। इसका गाँव खेहेड़ी यहाँ से लगभग 15 कोस की दूरी पर मौरिंडा कस्बे के निकट था। गँगा राम माता गुजरी जी व साहिबज़ादों को अपने गाँव ले गया।
गुरूदेव जी अपने चालीस सिक्खों के साथ आगे बढ़ते हुए दोपहर तक चमकौर नामक क्षेत्र के बाहर एक बगीचे में पहुँचे। यहाँ के स्थानीय लोगों ने गुरूदेव जी का हार्दिक स्वागत किया और प्रत्येक प्रकार की सहायता की। यहीं एक किलानुमा कच्ची हवेली थी जो सामरिक दृष्टि से बहुत महत्त्वपूर्ण थी क्योंकि इसको एक ऊँचे टीले पर बनाया गया था। जिसके चारों ओर खुला समतल मैदान था। हवेली के स्वामी बुधीचन्द ने गुरूदेव जी से आग्रह किया कि आप इस हवेली में विश्राम करें।
गुरूदेव जी ने आगे जाना उचित नहीं समझा। अतः चालीस सिक्खों को छोटी छोटी टुकड़ियों में बाँट कर उनमें बचा खुचा असला बाँट दिया और सभी सिक्खों को मुकाबले के लिए मोर्चो पर तैनात कर दिया। अब सभी को मालूम था कि मृत्यु निश्चित है परन्तु खालसा सैन्य का सिद्धान्त था कि शत्रु के समक्ष हथियार नहीं डालने केवल वीरगति प्राप्त करनी है।
अतः अपने प्राणों की आहुति देने के लिए सभी सिक्ख तत्पर हो गये। गरूदेव अपने चालीस शिष्यों की ताकत से असँख्य मुगल सेना से लड़ने की योजना बनाने लगे। गुरूदेव जी ने स्वयँ कच्ची गढ़ी (हवेली) के ऊपर अट्टालिका में मोर्चा सम्भाला। अन्य सिक्खों ने भी अपने अपने मोर्चे बनाए और मुगल सेना की राह देखने लगे।
उधर जैसे ही बरसाती नाला सरसा के पानी का बहाव कम हुआ। मुग़ल सेना टिड्डी दल की तरह उसे पार करके गुरूदेव जी का पीछा करती हुई चमकौर के मैदान में पहुँची। देखते ही देखते उसने गुरूदेव जी की कच्ची गढ़ी को घेर लिया। मुग़ल सेनापतियों को गाँव वालों से पता चल गया था कि गुरूदेव जी के पास केवल चालीस ही सैनिक हैं। अतः वे यहाँ गुरूदेव जी को बन्दी बनाने के स्वप्न देखने लगे। सरहिन्द के नवाब वजीर ख़ान ने भोर होते ही मुनादी करवा दी कि यदि गुरूदेव जी अपने आपको साथियों सहित मुग़ल प्रशासन के हवाले करें तो उनकी जान बख्शी जा सकती है। इस मुनादी के उत्तर में गुरूदेव जी ने मुग़ल सेनाओं पर तीरों की बौछार कर दी।
इस समय मुकाबला चालीस सिक्खों का हज़ारों असँख्य (लगभग 10 लाख) की गिनती में मुग़ल सैन्यबल के साथ था। इस पर गुरूदेव जी ने भी तो एक-एक सिक्ख को सवा-सवा लाख के साथ लड़ाने की सौगन्ध खाई हुई थी। अब इस सौगन्ध को भी विश्व के समक्ष क्रियान्वित करके प्रदर्शन करने का शुभ अवसर आ गया था।
• 22 दिसम्बर सन 1704 को सँसार का अनोखा युद्ध प्रारम्भ हो गया। आकाश में घनघोर बादल थे और धीमी धीमी बूँदाबाँदी हो रही थी। वर्ष का सबसे छोटा दिन होने के कारण सूर्य भी बहुत देर से उदय हुआ था, कड़ाके की शीत लहर चल रही थी किन्तु गर्मजोशी थी तो कच्ची हवेली में आश्रय लिए बैठे गुरूदेव जी के योद्धाओं के हृदय में।
• कच्ची गढ़ी पर आक्रमण हुआ। भीतर से तीरों और गोलियों की बौछार हुई। अनेक मुग़ल सैनिक हताहत हुए। दोबारा सशक्त धावे का भी यही हाल हुआ। मुग़ल सेनापतियों को अविश्वास होने लगा था कि कोई चालीस सैनिकों की सहायता से इतना सबल भी बन सकता है। सिक्ख सैनिक लाखों की सेना में घिरे निर्भय भाव से लड़ने-मरने का खेल, खेल रहे थे। उनके पास जब गोला बारूद और बाण समाप्त हो गए किन्तु मुग़ल सैनिकों की गढ़ी के समीप भी जाने की हिम्मत नहीं हुई तो उन्होंने तलवार और भाले का युद्ध लड़ने के लिए मैदान में निकलना आवश्यक समझा।
• सर्वप्रथम भाई हिम्मत सिंघ जी को गुरूदेव जी ने आदेश दिया कि वह अपने साथियों सहित पाँच का जत्था लेकर रणक्षेत्र में जाकर शत्रु से जूझे। तभी मुग़ल जरनैल नाहर ख़ान ने सीढ़ी लगाकर गढ़ी पर चढ़ने का प्रयास किया किन्तु गुरूदेव जी ने उसको वहीं बाण से भेद कर चित्त कर दिया। एक और जरनैल ख्वाजा महमूद अली ने जब साथियों को मरते हुए देखा तो वह दीवार की ओट में भाग गया। गुरूदेव जी ने उसकी इस बुजदिली के कारण उसे अपनी रचना में मरदूद करके लिखा है।
• सरहिन्द के नवाब ने सेनाओं को एक बार इक्ट्ठे होकर कच्ची गढ़ी पर पूर्ण वेग से आक्रमण करने का आदेश दिया। किन्तु गुरूदेव जी ऊँचे टीले की हवेली में होने के कारण सामरिक दृष्टि से अच्छी स्थिति में थे। अतः उन्होंने यह आक्रमण भी विफल कर दिया और सिँघों के बाणों की वर्षा से सैकड़ों मुग़ल सिपाहियों को सदा की नींद सुला दिया।
• सिक्खों के जत्थे ने गढ़ी से बाहर आकर बढ़ रही मुग़ल सेना को करारे हाथ दिखलाये। गढ़ी की ऊपर की अट्टालिका (अटारी) से गुरूदेव जी स्वयँ अपने योद्धाओं की सहायता शत्रुओं पर बाण चलाकर कर रहे थे। घड़ी भर खूब लोहे पर लोहा बजा। सैकड़ों सैनिक मैदान में ढेर हो गए। अन्ततः पाँचों सिक्ख भी शहीद हो गये।
• फिर गुरूदेव जी ने पाँच सिक्खों का दूसरा जत्था गढ़ी से बाहर रणक्षेत्र में भेजा। इस जत्थे ने भी आगे बढ़ते हुए शत्रुओं के छक्के छुड़ाए और उनको पीछे धकेल दिया और शत्रुओं का भारी जानी नुक्सान करते हुए स्वयँ भी शहीद हो गए। इस प्रकार गुरूदेव जी ने रणनीति बनाई और पाँच पाँच के जत्थे बारी बारी रणक्षेत्र में भेजने लगे। जब पाँचवा जत्था शहीद हो गया तो दोपहर का समय हो गया था।
• सरहिन्द के नवाब वज़ीर ख़ान की हिदायतों का पालन करते हुए जरनैल हदायत ख़ान,इसमाईल खान, फुलाद खान, सुलतान खान, असमाल खान, जहान खान, खलील ख़ान और भूरे ख़ान एक बारगी सेनाओं को लेकर गढ़ी की ओर बढ़े। सब को पता था कि इतना बड़ा हमला रोक पाना बहुत मुश्किल है। इसलिए अन्दर बाकी बचे सिक्खों ने गुरूदेव जी के सम्मुख प्रार्थना की कि वह साहिबजादों सहित युद्ध क्षेत्र से कहीं ओर निकल जाएँ।
• यह सुनकर गुरूदेव जी ने सिक्खों से कहा– ‘तुम कौन से साहिबजादों (बेटों) की बात करते हो, तुम सभी मेरे ही साहबजादे हो’ गुरूदेव जी का यह उत्तर सुनकर सभी सिक्ख आश्चर्य में पड़ गये। गुरूदेव जी के बड़े सुपुत्र अजीत सिंघ पिता जी के पास जाकर अपनी युद्धकला के प्रदर्शन की अनुमति माँगने लगे। गुरूदेव जी ने सहर्ष उन्हें आशीष दी और अपना कर्त्तव्य पूर्ण करने को प्रेरित किया।
• साहिबजादा अजीत सिंघ के मन में कुछ कर गुजरने के वलवले थे, युद्धकला में निपुणता थी। बस फिर क्या था वह अपने चार अन्य सिक्खों को लेकर गढ़ी से बाहर आए और मुगलों की सेना पर ऐसे टूट पड़े जैसे शार्दूल मृग-शावकों पर टूटता है। अजीत सिंघ जिधर बढ़ जाते, उधर सामने पड़ने वाले सैनिक गिरते, कटते या भाग जाते थे। पाँच सिंघों के जत्थे ने सैंकड़ों मुगलों को काल का ग्रास बना दिया।
• अजीत सिंघ ने अविस्मरणीय वीरता का प्रदर्शन किया, किन्तु एक एक ने यदि हजार हजार भी मारे हों तो सैनिकों के सागर में से चिड़िया की चोंच भर नीर ले जाने से क्या कमी आ सकती थी। साहिबजादा अजीत सिंह को, छोटे भाई साहिबज़ादा जुझार सिंघ ने जब शहीद होते देखा तो उसने भी गुरूदेव जी से रणक्षेत्र में जाने की आज्ञा माँगी

Sunday, April 17, 2016

बुद्ध बनना: नौटंकी या फैशन

नवबुद्ध बनना: नौटंकी या फैशन

रोहित वेमुला की माँ और भाई ने बुद्ध मत स्वीकार कर लिया। बुद्ध मत स्वीकार करने वाला 99.9 %दलित वर्ग बुद्ध मत को एक फैशन के रूप में स्वीकार करता हैं। उसे महात्मा बुद्ध कि शिक्षाओं और मान्यताओं से कुछ भी लेना देना नहीं होता। उलटे उसका आचरण उससे विपरीत ही रहता हैं। उदहारण के लिए-

1.
मान्यता- महात्मा बुद्ध प्राणी हिंसा के विरुद्ध थे एवं मांसाहार को वर्जित मानते थे।

समीक्षा-  रोहित वेमुला हैदराबाद यूनिवर्सिटी में बीफ फेस्टिवल बनाने वालों में शामिल था। 99.9% नवबौद्ध मांसाहारी है। बुद्ध मत के दो देश के देश दुनिया के सबसे बड़े मांसाहारी हैं। इसे कहते है "नाम बड़े दर्शन छोटे"

2. मान्यता- महात्मा बुद्ध अहिंसा के पूजारी थे। वो किसी भी प्रकार कि वैचारिक हिंसा के विरुद्ध थे।

समीक्षा- किसी भी नवबुद्ध से मिलो। वह झल्लाता हुआ अवसाद से पीड़ित व्यक्ति जैसा दिखेगा। जो सारा दिन ब्राह्मणवाद और मनुवाद के नाम पर सभी का विरोध करता दिखेगा। वह उनका भी विरोध करता दिखेगा जो जातिवाद को नहीं मानते। हर अच्छी बात का विरोध करना उसकी दैनिक दिनचर्या का भाग होगा। महात्मा बुद्ध शारीरिक, मानसिक, वैचारिक सभी प्रकार की हिंसा के विरोधी थे। नवबुद्ध ठीक विपरीत व्यवहार करते हैं।

3. मान्यता- महात्मा बुद्ध संघ अर्थात संगठन की बात करते थे। समाज को संगठित करना उनका उद्देश्य था।

समीक्षा- नवबुद्ध अलगावावादी कश्मीरी नेताओं का समर्थन कर देश और समाज को तोड़ने की नौटंकी करते दीखते हैं।

4. मान्यता- महात्मा बुद्ध धर्म में विश्वास रखते थे।

समीक्षा- नवबुद्ध देश के विरुद्ध षड़यंत्र करने वाले याकूब मेनन जैसे अधर्मी के समर्थन में खड़े होकर अपने आपको ढोंगी सिद्ध करते हैं।

5. मान्यता- महात्मा बुद्ध छल- कपट करने वाले को छल-कपट छोड़ने की शिक्षा देते थे।

समीक्षा- भारत में ईसाई मिशनरी छल-कपट कर निर्धन हिन्दुओं का धर्मान्तरण करती हैं। नवबुद्ध उनका विरोध करने के स्थान पर उनका साथ देते दीखते हैं।

6. मान्यता- महात्मा बुद्ध अत्याचारी व्यक्ति को अत्याचार छोड़ने की प्रेरणा देते थे।

समीक्षा- 1200 वर्षों से भारत भूमि इस्लामिक आक्रमणकारियों के अत्याचार सहती रही। हज़ारों बुद्ध विहार से लेकर नालंदा विश्वविद्यालय इस्लामिक आक्रमणक्रियों ने तहस-नहस कर दिए। नवबौद्ध उसी मानसिकता की पीठ थपथपाते दीखते हैं।

सन्देश- बनना भी है तो महात्मा बुद्ध कि मान्यताओं को जीवन में , व्यवहार में और आचरण में उतारों।

अन्यथा नवबुद्ध बनना तो केवल नौटंकी या फैशन जैसा दीखता हैं।

डॉ विवेक आर्य

Read what Subhas Chandra Bose say about Congress


Subhas Chandra files are now coming out with many anti India activities started by Jawaharlal Nehru and continued by his daughter and now others. Time to learn these Apostrophes .Read more -here

Dr Ambedkar and his word about Islam


सोर्स प्रमाण :- डा अंबेडकर सम्पूर्ण वाग्मय , खण्ड 151
हिन्दू मुस्लिम एकता एक अंसभव कार्य हैं भारत से समस्त मुसलमानों को पाकिस्तान भेजना और हिन्दुओं को वहां से बुलाना ही एक हल है । यदि यूनान तुर्की और बुल्गारिया जैसे कम साधनों वाले छोटे छोटे देश यह कर सकते हैं तो हमारे लिए कोई कठिनाई नहीं । साम्प्रदायिक शांति हेतु अदला बदली के इस महत्वपूर्ण कार्य को न अपनाना अत्यंत उपहासास्पद होगा ।
भारत विभाजन के बाद भी भारत में साम्प्रदायिक समस्या बनी रहेगी । पाकिस्तान में रुके हुए अल्पसंख्यक हिन्दुओं की सुरक्षा कैसे होगी ? मुसलमानों के लिए हिन्दू काफिर सम्मान के योग्य नहीं है ।
मुसलमान की भातृ भावना केवल मुसमलमानों के लिए है । कुरान गैर मुसलमानों को मित्र बनाने का विरोधी है , इसीलिए हिन्दू सिर्फ घृणा और शत्रुता के योग्य है । मुसलामनों के निष्ठा भी केवल मुस्लिम देश के प्रति होती है । इस्लाम सच्चे मुसलमानो हेतु भारत को अपनी मातृभूमि और हिन्दुओं को अपना निकट संबधी मानने की आज्ञा नहीं देता ।
संभवतः यही कारण था कि मौलाना मौहम्मद अली जैसे भारतीय मुसलमान भी अपेन शरीर को भारत की अपेक्षा येरूसलम में दफनाना अधिक पसन्द किया । कांग्रेस में मुसलमानों की स्थिति एक साम्प्रदायिक चौकी जैसी है । गुण्डागर्दी मुस्लिम राजनीति का एक स्थापित तरीका हो गया है । इस्लामी कानून समान सुधार के विरोधी हैं । धर्म निरपेक्षता को नहीं मानते ।
मुस्लिम कानूनों के अनुसार भारत हिन्दुओं और मुसलमानों की समान मातृभूमि नहीं हो सकती । वे भारत जैसे गैर मुस्लिम देश को इस्लामिक देश बनाने में जिहाद आतंकवाद का संकोच नहीं करते ।
:- डा अंबेडकर सम्पूर्ण वाग्मय , खण्ड 151

Wednesday, April 13, 2016

बैसाखी के अवसर पर हिन्दू समाज के लिए सन्देश

बैसाखी के अवसर पर हिन्दू समाज के लिए सन्देश

मुगल शासनकाल के दौरान बादशाह औरंगजेब का आतंक बढ़ता ही जा रहा था। चारों और औरंगज़ेब की दमनकारी नीति के कारण हिन्दू जनता त्रस्त थी। सदियों से हिन्दू समाज मुस्लिम आक्रांताओं के झुंडों पर झुंडों का सामना करते हुए अपना आत्म विश्वास खो बैठा था। मगर अत्याचारी थमने का नाम भी नहीं ले रहे थे। जनता पर हो रहे अत्याचार को रोकने के लिए सिख पंथ के गुरु गोबिन्द सिंह ने बैसाखी पर्व पर आज ही के दिन आनन्दपुर साहिब के विशाल मैदान में अपनी  संगत को आमंत्रित किया। जहां गुरुजी के लिए एक तख्त बिछाया गया और तख्त के पीछे एक तम्बू लगाया गया।  गुरु गोबिन्द सिंह के दायें हाथ में नंगी तलवार चमक रही थी। गोबिन्द सिंह नंगी तलवार लिए मंच पर पहुंचे और उन्होंने ऐलान किया- मुझे एक आदमी का सिर चाहिए। क्या आप में से कोई अपना सिर दे सकता है? यह सुनते ही वहां मौजूद सभी शिष्य आश्चर्यचकित रह गए और सन्नाटा छा गया। उसी समय  दयाराम नामक एक खत्री आगे आया जो लाहौर निवासी था और बोला- आप मेरा सिर ले सकते हैं। गुरुदेव उसे पास ही बनाए गए तम्बू में ले गए। कुछ देर बाद तम्बू से खून की धारा निकलती दिखाई दी। तंबू से निकलते खून को देखकर पंडाल में सन्नाटा छा गया। गुरु गोबिन्द सिंह तंबू से बाहर आए, नंगी तलवार से ताजा खून टपक रहा था। उन्होंने फिर ऐलान किया- मुझे एक और सिर चाहिए। मेरी तलवार अभी भी प्यासी है। इस बार धर्मदास नामक जाट आगे आये जो सहारनपुर के जटवाडा गांव के निवासी थे। गुरुदेव उन्हें भी तम्बू में ले गए और पहले की तरह इस बार भी थोड़ी देर में खून की धारा बाहर निकलने लगी। बाहर आकर गोबिन्द सिंह ने अपनी तलवार की प्यास बुझाने के लिए एक और व्यक्ति के सिर की मांग की। इस बार जगन्नाथ पुरी के हिम्मत राय झींवर (पानी भरने वाले) खड़े हुए। गुरुजी उन्हें भी तम्बू में ले गए और फिर से तम्बू से खून धारा बाहर आने लगी। गुरुदेव पुनः बाहर आए और एक और सिर की मांग की तब द्वारका के युवक मोहकम चन्द दर्जी आगे आए। इसी तरह पांचवी बार फिर गुरुदेव द्वारा सिर मांगने पर बीदर निवासी साहिब चन्द नाई सिर देने के लिए आगे आये। मैदान में इतने लोगों के होने के बाद भी वहां सन्नाटा पसर गया, सभी एक-दूसरे का मुंह देख रहे थे। किसी को कुछ समझ नहीं आ रहा था। तभी तम्बू से गुरु गोबिन्द सिंह केसरिया बाना पहने पांचों  नौजवानों के साथ बाहर आए। पांचों नौजवान वहीं थे जिनके सिर काटने के लिए गुरु गोबिन्द सिंह तम्बू में ले गए थे। गुरुदेव और पांचों नौजवान मंच पर आए, गुरुदेव तख्त पर बैठ गए। पांचों नौजवानों ने कहां गुरुदेव हमारे सिर काटने के लिए हमें तम्बू में नहीं ले गए थे बल्कि वह हमारी परीक्षा थी। तब गुरुदेव ने वहां उपस्थित सिक्खों से कहा आज से ये पांचों मेरे पंज प्यारे हैं। गुरु गोविन्द सिंह के महान संकल्प से खालसा की स्थापना हुई। हिन्दू समाज अत्याचार का सामना करने हेतु संगठित हुआ। इतिहास की यह घटना का मनोवैज्ञानिक पक्ष अत्यन्त महत्वपूर्ण है।

पञ्च प्यारों में सभी जातियों के प्रतिनिधि शामिल हुए थे। इसका अर्थ यही था कि अत्याचार का सामना करने के लिए हिन्दू समाज को जात-पात मिटाकर संगठित होना होगा। तभी अपने से बलवान शत्रु का सामना किया जा सकेगा। खेद है की हिन्दुओं ने गुरु गोविन्द सिंह के सन्देश पर  अमल नहीं किया। जात-पात के नाम पर बटें हुए हिन्दू समाज में संगठन भावना शुन्य हैं। गुरु गोविन्द सिंह ने स्पष्ट सन्देश दिया कि कायरता भूलकर, स्वबलिदान देना जब तक हम नहीं सीखेंगे तब तक देश, धर्म और जाति की सेवा नहीं कर सकेंगे। अन्धविश्वास में अवतार की प्रतीक्षा करने से कोई लाभ नहीं होने वाला। अपने आपको समर्थ बनाना ही एक मात्र विकल्प है। धर्मानुकूल व्यवहार, सदाचारी जीवन, अध्यात्मिकता, वेदादि शास्त्रों का ज्ञान जीवन को सफल बनाने के एकमात्र विकल्प हैं।

1. आज हमारे देश में सेक्युलरता के नाम पर, अल्पसंख्यक के नाम पर, तुष्टिकरण के नाम पर अवैध बांग्लादेशियों को बसाया जा रहा हैं।
 2. हज सब्सिडी दी जा रही है, मदरसों को अनुदान और मौलवियों को मासिक खर्च दिया जा रहा हैं, आगे आरक्षण देने की तैयारी हैं।
3. वेद, दर्शन, गीता के स्थान पर क़ुरान और बाइबिल को आज के लिए धर्म ग्रन्थ बताया जा रहा हैं।
4. हमारे अनुसरणीय राम-कृष्ण के स्थान पर साईं बाबा, ग़रीब नवाज, मदर टेरेसा को बढ़ावा दिया जा रहा हैं।
5. ईसाईयों द्वारा हिन्दुओं के धर्मान्तरण को सही और उसका प्रतिरोध करने वालों को कट्टर बताया जाता रहा हैं।
6. गौरी-ग़जनी को महान और शिवाजी और प्रताप को भगोड़ा बताया जा रहा हैं।
7.1200 वर्षों के भयानक और निर्मम अत्याचारों कि अनदेखी कर बाबरी और गुजरात दंगों को चिल्ला चिल्ला कर भ्रमित किया जा रहा हैं।
8. हिन्दुओं के दाह संस्कार को प्रदुषण और जमीन में गाड़ने को सही ठहराया जा रहा हैं।
9. दीवाली-होली को प्रदुषण और बकर ईद को त्योहार बताया जा रहा हैं।
10. वन्दे मातरम, भारत माता की जय बोलने पर आपत्ति और कश्मीर में भारतीय सेना को बलात्कारी बताया जा रहा हैं।
11. विश्व इतिहास में किसी भी देश, पर हमला कर अत्याचार न करने वाली हिन्दू समाज को अत्याचारी और समस्ते विश्व में इस्लाम के नाम पर लड़कियों को गुलाम बनाकर बेचने वालों को शांतिप्रिय बताया जा रहा हैं।
12. संस्कृत भाषा को मृत और उसके स्थान पर उर्दू, अरबी, हिब्रू और जर्मन जैसी भाषाओँ को बढ़ावा दिया जा रहा हैं।

हमारे देश, हमारी आध्यात्मिकता, हमारी आस्था, हमारी श्रेष्ठता, हमारी विरासत, हमारी महानता, हमारे स्वर्णिम इतिहास सभी को मिटाने के लिए सुनियोजित षड़यंत्र चलाया जा रहा हैं। गुरु गोविन्द सिंह के पावन सन्देश- जातिवाद और कायरता का त्याग करने और संगठित होने मात्र से हिन्दू समाज का हित संभव हैं।

आईये वैसाखी पर एक बार फिर से देश, धर्म और जाति की रक्षा का संकल्प ले।

डॉ विवेक आर्य
Following is by - S Suchindranath Aiyer
The Sikhs are a house divided. In Three. While a great number of them have a natural affinity for the Hindus whose first born were raised as the Khalsa to protect the Hindus from the Moslems, many have taken the more extreme view born from the Akali movement that the British Indian Political Service started at Sialkot (1921 - "Divide to Rule") by means of an Englishman converted to Sikhism who greatly influenced Karag Singh and Kartar Singh. The Akali movement borrows a great deal from Islam, including ideas of iconoclasm and the notion of a "Nation" while repudiating Hinduism. (They moved the Maa Bhawani that Guru Govind Singh worshiped out of Harmandir Saheb to the Durgiani Mandir and renamed Guru Arjun Singh as Guru ArjAn Singh. They also removed the Surya Narayana that Guru Nanak (a Bedi) worshipped after whom the Hari (Narayana) Mandir was originally named. The Third faction finds far great affinity with the British Commonwealth as, after the Sikh wars, seeing the military value of the Sikhs, the British took the Sikh Army into the British Indian Army and in 1857, used them, along with the Pathans, to execute the remnants of the Bengal Native Infantry and to massacre the Brahmins (Man, Woman and Child) of the Bengal Presidency which they did (though Guru Nanak was, himself, born a Brahmin to Bedi parents) Thereafter, apart from dedicated Sikh Regiments, the Sikhs were recruited and deployed in the middle rungs of the British Colonial Police Service through out the Empire, just as Anglo Indians were within India)


War Banners of Maharaja Ranjit Singh: (Karthikeya and Anjaneya)













Flag of Maharaja Ranjit Singh during the Khyber Operation. Chandi Devi flanked by Anjaneya and Karthikeya:
















 

Sunday, April 10, 2016

नकली शंकराचार्य

अद्वैत परम्परा के मठों के मुखिया के लिये प्रयोग की जाने वाली उपाधि है "शंकराचार्य"। शंकराचार्य हिन्दू धर्म में सर्वोच्च धर्म गुरु का पद है, जो कि बौद्ध धर्म में दलाईलामा एवं ईसाई धर्म में पोप के समकक्ष है। जिसकी शुरुआत आदि शंकराचार्य जी ने की। आदि शंकराचार्य जी ने चार मठ में शंकराचार्य बिठाये थे :-
1 ) उत्तर मठ, ज्योतिर्मठ जो कि जोशीमठ में स्थित है।
2) पूर्वी मठ, गोवर्धन मठ जो कि पुरी में स्थित है।
3) दक्षिणी मठ, शृंगेरी शारदा पीठ जो कि शृंगेरी में स्थित है।
4) पश्चिमी मठ, द्वारिका पीठ जो कि द्वारिका में स्थित है। बाद में एक और मठ बना जिसे मान्यता दी गयी। लेकिन आजकल बहुत नकली शंकराचार्य घूम रहे हैं सड़कों पर। करीब 65 शंकराचार्य आपको TV -अख़बारों में दिखेंगे , पर इनमे सिर्फ 5 ही असली हैं, बांकी सभी नकली-ठग स्वयम्भू "शंकराचार्य" हैं।
"दिल्ली पीठ" का कोई इतिहास ही नहीं है, जहाँ के दयानंद नाम के व्यक्ति ने खुद को शंकराचार्य घोषित किया, उन्हें आपने Peace Tv वाले डॉ जोकर नाईक के साथ धर्म की दलाली करते हुए अक्सर देखा होगा। अगर नहीं देखा आपने तो इनकी हरकतें यहाँ देखिये :-https://www.youtube.com/watch?v=X8zasuy9FBA
उतराखंड के मित्र ने बताया करीब 14-15 साल पहले एक आदमी को हरिद्वार में सायकिल चोरी में पकड़कर पब्लिक ने पिटा था -- वो बाद में खुद को शंकराचार्य बताने लगा। जब मैंने उसे जोकर नाईक साथ बैठ धर्म की दलाली करते देखा तो दंग रह गया। अब वो श्रीमान तो नहीं रहे पर उनके पुत्र शंकराचार्य" बने घूम रहे हैं।
शंकराचार्य कोई नेतागिरी या बिजनेस हॉउस नहीं जहाँ बाप की पदवी बेटे को मिले --- समस्त धर्म ग्रंथों के ज्ञान के आधार पर परीक्षा में पास हुए साधक को शंकराचार्य बनाया जाता है। पर नकली ठगों ने "जमात" और "मिशिनरी" से पैसे खाकर स्यंभू शंकराचार्य बने बैठे हैं।
मैं इन इस्लाम प्रेमी शंकराचार्य जी को सादर प्रणाम करते हुए उनसे तथ्य आधारित इस्लाम की कुछ खूबियाँ जान चाहूँगा जिसे देख दोनों पिता-पुत्र इस्लाम की मार्केटिंग करते आ रहे हैं। सबूत के तौर पर आप सिर्फ तथ्य आधारित इस्लाम या कुरान या अल्लाह या हमारे रसूल साहब की कोई खूबी बताएं जिससे आप इस्लाम के प्रशंसक बने ?
अगर अपने Sponsors के खिलाफ वयान देने में में आपको आर्थिक हानि का खतरा है तो आपसे अनुरोध है की आप फ़िल्मी इस्लाम को छोड़ वास्तविकता से परिचित होयें -- अर्थात आप कुरान पढ़ें -- हिंदी-अंग्रेजी सबमे उपलब्ध है--- पूरी किताब पढना संभव न हो तो --- कुछ सूरा और आयत आपको बता रहा हूँ प्लीज़ पढ़िए ---
1) सूरा 2 आयत 190 से 195 , सूरा 9 आयत 5, जिसमे क़त्ल-खून-खराबा का सन्देश कुरान के अल्लाह ने दिया। 
2) सूरा 33 आयत 37 और 50 जिसमे कुरान के अल्लाह चचेरी-ममेरी-फुफेरी-मौसेरी बहन और सगी बहु से सेक्स का अधिकार मुहम्मद सहित सभी मुसलमानों को देते हैं।
3) इसके अलावे आप सूरा -बकरा 2 आयत 223 पढ़िए जिसमे कुरान के अल्लाह औरतों को खेती की तरह जोतने की सलाह देते हैं। सूरा बकरा 2 आयत 228 जिसमे औरत से मर्द का दर्ज ऊपर है। प्लीज़ पढियेगा सूरा -बकरा 2 आयत 282 पढ़िए जिसमे बलात्कार पीड़ित महिला को गवाह लाने होंगे 4 -- अगर औरत गवाह है तो कुल 8 गवाह ---क्योंकि औरतों की गवाही मर्दों की आधी है कुरान के अल्लाह के हिसाब से।
इसके अलावे जन्नत में शराब की नदी और औरत (हूर) और गिलिमा (अल्प व्यसक बच्चे) सेक्स के लिए सप्लाय करने वाले अल्ला की कथा अनंत है. . … आप इतना सा पढ़ लीजिये आँखों में लगा इस्लामी सुनहरा ख्याल बदल जायेगा। आप नकली ही सही पर आपने आदि शंकराचार्य जी का नाम अपने साथ लगाया हुआ है अतः आपकी पदवी को पुनः प्रणाम करता हूँ __/\__ ‪#‎DrAlam‬