Saturday, January 30, 2016

कश्मीर की देश भक्ती ने गजनी को दो बार धुल चटाई थी

जब कश्मीर की देश भक्ती ने गजनी को दो बार धुल चटाई थी 

राजाओं की गौरवपूर्ण श्रंखला से कश्मीर का इतिहास भरा पड़ा है। जब हम कश्मीर के इतिहास के स्वर्णिम पृष्ठों का अवलोकन करते हैं तो ज्ञात होता है कि भारतीय संस्कृति को अपनी गौरव-गरिमा से लाभान्वित करने में कश्मीर के राजाओं ने महत्वपूर्ण योगदान किया। चूंकि यह योगदान अब से 1000 वर्ष पूर्व या उससे भी पूर्व किया जा रहा था तो इस योगदान को कश्मीर के राजाओं का भारतीय स्वातंत्रय समर में योगदान भी माना जाना चाहिए। कारण ये है कि जिस काल को भारतीय इतिहास का अंधकार युग कहा जाता है उसमें गौरवकृत्यों का उपलब्ध होना निश्चय ही इतिहास का गौरवपूर्ण पक्ष है। सचमुच एक ऐसा पक्ष कि जिसकी उपेक्षा करने का अर्थ है-आत्महत्या। ….और यह भी सत्य है कि भारत जैसा जीवन्त राष्ट्र कभी भी आत्महत्या के पथ पर नही जा सकता। जहां तक इतिहास के साथ छल करने वालों का प्रश्न है तो ऐसे तो ना जाने कितने छलों को इस जीवन्त राष्ट्र ने हंस हंसकर सहन किया है। आइए, अब हम राजा अवन्तिवर्मन से आगे बढ़ें।

पराक्रमी देशभक्त शंकरवर्मन

राजा अवन्तिवर्मन की मृत्यु के पश्चात उसका पुत्र शंकरवर्मन कश्मीर का राजा बना। यह राजा बहुत ही पराक्रमी था। उसने कश्मीर तक सीमित न रहकर बाहर निकलना ही श्रेयस्कर समझा। अत: अथर्ववेद (12-3-1) के इस आदेश को अंगीकार कर वह राज्य विस्तार के लिए निकल पड़ा कि ‘तुम शक्तिशाली होकर अन्यों पर राज्य करो।’ देशभक्तों को ऋग्वेद (1-80-3) ने भी यह कहकर प्रोत्साहित किया है कि ‘देशभक्त स्वराज्य की उपासना करते हैं।’

जिस देश की संस्कृति राजा को और देशभक्तों को ऐसी प्रेरणा करती हो तो उस देश का शंकरवर्मन अपने कश्मीर के किले में स्वयं को कैसे कैद रख सकता था? किला एक सुरक्षित स्थान अवश्य है, परंतु चाहे वह कितना ही सुरक्षित और स्वैर्गिक आनंद देने वाला क्यों ना हो, दिग्दिगन्त की विजय की कामना करने वाले राजा के लिए तो वह कारागार के समान ही हो जाता है। इसलिए स्वराज्य के साधक राजा के लिए उससे बाहर निकलना ही उचित होता है। अत: शंकरवर्मन कश्मीर से बाहर निकला और उसने ललितादित्य के समय में विजित प्रदेशों को पुन: अपने राज्य में सम्मिलित करने का संकल्प व्यक्त किया। फलस्वरूप उसकी सेनाओं ने काबुल तक अपनी विजय पताका फहराई। काबुल का शासक उस समय लल्लैय्या नाम का हिंदू शासक था। लल्लैय्या शंकरवर्मन का सामना नही कर सका और वह युद्घ में पराजित हो गया। कहा जाता है कि उसकी प्रजा भी उसके साथ नही थी। शंकरवर्मन की विजय पताका बड़े गौरव के साथ काबुल में फहरा उठी। इतिहास लेखकों का मानना है कि सम्राट ललितादित्य के समय में कश्मीर सैन्य दृष्टि से शक्तिशाली था, और अवन्तिवर्मन के समय में आर्थिक दृष्टि से शक्तिशाली था, जबकि शंकरवर्मन के समय में दोनों रूपों में ही शक्तिशाली हो गया था।

नरेन्द्र सहगल लिखते हैं-’इतिहास जानता है कि काबुल (गान्धार) के बहादुर हिंदू राजाओं और वहां की शूरवीर हिंदू प्रजा ने चार सौ वर्षों तक निरंतर अरबों और अन्य मुस्लिम आक्रमण कारियों का साहस के साथ सामना किया। परंतु एक दिन भी पराधीनता स्वीकार नही की। भारत इस कालखण्ड (663 से 1021 ई. तक) में अपनी उत्तर पश्चिमी सीमाओं को सुरक्षित रख सका।’

शंकरवर्मन के पश्चात उसका व्यवहार कुशल पुत्र गोपालवर्मन कश्मीर के राज्य सिंहासन पर आरूढ़ हुआ। गोपालवर्मन ने अपने सैन्याधिकारी प्रभाकर देव को काबुल भेजकर शांति व्यवस्था पर अपना नियंत्रण रखा। प्रभाकर देव ने राजा लल्लैय्या से वार्तालाप की और वार्तालाप के उपरांत वहां का शासन लल्लैय्या के पुत्र कामलुक को सौंप दिया।

पराजित राजा को सत्ताच्युत कर वहां का शासन प्रबंध उसी के किसी परिजन को या प्रजा में लोकप्रिय किसी व्यक्ति केा सौंप देना भारत की प्राचीन परंपरा है। रामायण काल में भगवान राम ने रावण को पराजित किया तो वहां का शासन विभीषण को सौंप दिया गया था और महाभारत में कृष्णजी ने कंस को मारा तो अपने  नाना को ही पुन: राज्य गद्दी सौंप दी। यह परंपरा नैतिक भी है और कूटिनीतिक भी है। हां, विदेशियों में ऐसी प्रवृत्ति का सर्वथा अभाव मिलता है। भारतीय शासकों ने अपनी इस परंपरा का तब उल्लंघन करना आरंभ किया था जब उन पर विदेशियों का प्रभाव पड़ने लगा था।

महमूद गजनवी और पराक्रमी राजा संग्रामराज

जो तेगों के साये में पले बढ़े होने का दम्भ भरते रहे हैं और इसी दम्भ  से पनपी क्रूरता के कारण जिन्होंने विश्व में लाखों करोड़ों लोगों का वध किया, उनमें से एक महमूद गजनवी भी था। बड़ी क्रूरता से ईरान और तुर्किस्थान में इस क्रूर आक्रांता ने अमानवीयता का प्रदर्शन किया था। भारत के कुछ क्षेत्रों में भी इसने रक्तिम् होली खेली थी। परंतु कश्मीर की भूमि वह पावन भूमि रही है, जिसने इस क्रूर आक्रांता को एक बार नही अपितु दो-दो बार पराजित कर भगाया। पराजय भी इतनी भयानक थी कि तीसरी बार कश्मीर जाने का सपना ही नही देख सका था-महमूद गजनवी।

गजनवी के समय (1003 से 1028 ई.) कश्मीर पर वीर प्रतापी शासक महाराजा संग्रामराज का शासन था। संग्रामराज ने कश्मीरी सीमाओं को पूर्णत: सुरक्षित रखने तथा विदेशी आक्रांता से कश्मीर की प्रजा की रक्षा करने हेतु सीमाओं पर विशेष सुरक्षा व्यवस्था की थी, अलबरूनी हमें बताता है-’कश्मीर के लोग अपने देश की वास्तविक शक्ति के विषय में विशेष रूप से उत्कंठित रहते हैं। इसलिए वे कश्मीर के प्रवेश द्वार और उसकी ओर खुलने वाली सड़कों की ओर सदा मजबूत निगाह रखते हैं। फलस्वरूप उनके साथ कोई वाणिज्य व्यापार कर पाना बहुत कठिन है।….इस समय तो वे किसी अनजाने हिंदू को भी प्रवेश नही करने देते हैं। दूसरे लोगों की तो बात ही छोड़िए।’ सन 1015 में महमूद गजनवी कश्मीर पर पहला आक्रमण करता है। उसकी सेनाएं तौसी नामक मैदान में आ डटीं। महाराजा संग्राम राज की सुरक्षा व्यवस्था उच्चतम मानकों की थी। अत: महाराजा को तुरंत उक्त आक्रमण की सूचना मिल गयी। इसलिए राजा ने सफल कूटिनीति और युद्घ नीति का अनुकरण करते हुए अपने बौद्घिक विवेक और यौद्घिक संचालन का परिचय दिया। राजा ने काबुल के राजा त्रिलोचनपाल को युद्घ में सहायता के लिए आमंत्रित किया। राजा त्रिलोचन पाल ने योजना के अंतर्गत तौसी की ओर बढ़न आरंभ किया। युद्घ के मैदान में आगे की ओर से संग्रामराज की सेना आयी तो गजनवी की सेना के पृष्ठ भाग पर त्रिलोचनपाल की सेना ने पूर्व नियोजित योजना के अनुसार धावा बोल दिया।

महमूद की सेना पहाड़ों के बीच दोनों ओर से भारतीय स्वतंत्रता प्रेमी सैनिकों से घिर चुकी थी। जितने भर भी छल, छदम षडयंत्र और घात प्रतिघातों को महमूद अब से पूर्व युद्घों में अपनाता रहा था, वो सब धरे के धरे रह गये। भागने के लिए घिरे हुए आक्रांता को रास्ता खोजने पर भी नही मिल रहा था। कश्मीर व काबुल का ऐसा समीकरण बैठा कि शत्रु को दिन में तारे दिखा दिये गये। कश्मीर का तौसी युद्घ क्षेत्र स्वतंत्रता संघर्ष और स्वाभिमान की रक्षा का साक्षी बना और हमारे सैनिकों ने हजारों शत्रुओं का वध कर युद्घक्षेत्र में शवों का ढेर लगा दिया। लोहकोट के दुर्ग पर महमूद का कब्जा था। संग्राम राज की सेना ने किले को व्यूह रचना को तोड़कर दुर्ग में प्रवेश किया। महमूद भारतीय सैनिकों को दुर्ग में प्रवेश करते देखकर अत्यंत भयभीत हो गया था। अत: वह एक सुरक्षित स्थान पर छिप गया। किसी प्रकार महमूद गजनवी अपनी प्राणरक्षा कर भागने में सफल हो सका। ‘कैम्ब्रिज हिस्ट्री ऑफ इण्डिया’ में इस युद्घ का बड़ा रोचक वर्णन किया गया है-

‘भारत में महमूद की यह पहली और बड़ी पराजय थी। उसकी सेना अपरिचित पहाड़ी मार्गों पर रास्ता भूल गयी और उसका पीछे मुड़ने का मार्ग बाढ़ के पानी ने रोक लिया। परंतु अत्यधिक प्राणहानि के पश्चात यह सेना मैदानी क्षेत्रों में भागी और अस्त व्यस्त स्थिति में गजनी तक पहुंच सकी।’

कश्मीर में मिली इस पराजय से महमूद को पता चल गया कि भारत अपने स्वाभिमान और स्वतंत्रता की रक्षा के लिए कितना समर्पित है और किसी क्षेत्र विशेष पर नियंत्रण कर लेने मात्र से हिंदुस्तान की स्वाधीनता को नष्ट नही किया जा सकता। भारतवर्ष पर शासन करने के लिए एक नही अनेकों शक्तियों से टक्कर लेनी होगी।….और यह भी पता नही कि इन शक्तियों में से कौन सी शक्ति कितनी शक्तिमान हो? महमूद ने पहली बार भारत के विषय में गंभीरता से सोचा। वह अपमान और प्रतिशोध सम्मिश्रित भावों से व्याकुल था। इसलिए उसने एक बार पुन: भाग्य आजमाने का निर्णय लिया। उसने प्रतिवर्ष भारत पर आक्रमण करने के अपने संकल्प को विस्मृत कर दिया और पूरे छह वर्ष पश्चात अर्थात 1021 में उसने कश्मीर पर  पुन: आक्रमण किया। प्रतिवर्ष आक्रमण करने वाले आक्रांता का कश्मीर पर आक्रमण करने का साहस छह वर्ष में लौटा। स्पष्ट है कि उसे तौसी का युद्घ क्षेत्र देर तक स्मरण रहा। 1021 ई. में भी महमूद ने लोहकोट पर ही पड़ाव डाला। त्रिलोचनपाल को जैसे ही महमूद के आक्रमण की भनक लगी, उसने उसे पुन: खदेड़ने का अभियान तुरंत आरंभ कर दिया। त्रिलोचनपाल की सहायतार्थ महाराजा संग्रामराज ने भी अपनी सेना भेज दी। महमूद को अपनी पिछली पराजय का स्मरण था। वह पिछले घावों को सहलाते सहलाते  भारत की कश्मीर में अपने पांवों को रख ही रहा था कि पुन: अप्रत्याशित मार पड़नी आरंभ हो गयी। उसे पिछला अनुभव भीतर तक सिहराने लगा। स्थिति इस बार भी वही बन गयी थी, पृष्ठ भाग और सामने दोनों ओर से उसे त्रिलोचनापाल और महाराजा संग्रामराज की स्वतंत्रता प्रेमी सेना ने घेर लिया था। वह जिस दीपक को बुझाने आया था भारत की स्वतंत्रता का यह दीपक और भी प्रचण्ड होता जा रहा था और ऐसा लग रहा था कि यह दीपक अब महमूद के लिए ही भस्मासुर बनने वाला था। महमूद गजनवी को फिर  प्राण रक्षा के लिए कश्मीर से गजनी की ओर भगाना पड़ा और इस बार वह ऐसा भागा कि फिर कभी जीवन में कश्मीर की ओर पैर करके भी नही सोया। धन्य है त्रिलोचनपाल, धन्य हैं महाराजा संग्राम राज और धन्य है उनकी सेना के वीर सैनानी जिन्होंने अपनी स्वतंत्रता के प्रति अगाध निष्ठा का ऐसा परिचय विदेशी आक्रांता को दिया। भारत के इतिहास में इन सभी स्वतंत्रता सैनानियों का नाम सदा सम्मान से ही लिया जाएगा।

मुस्लिम इतिहासकार नजीम ने अपनी पुस्तक ‘महमूद ऑफ गजनवी’ में लिखा है:-महमूद गजनवी ने अपनी पिछली पराजय का प्रतिशोध लेने और अपनी खोई हुई प्रतिष्ठा को पुन: प्राप्त करने हेतु 1021 ई. में कश्मीर पर पुराने मार्ग से ही पुन: आक्रमण किया। परंतु फिर लोह कोट के किले ने उसका रास्ता रोक लिया। एक मास की असफल किलेबंदी के पश्चात विनाश की संभावना से भयभीत होकर महमूद ने दुम-दबाकर भाग जाने में ही कुशलता समझी। इस पराजय से उसे कश्मीर राज्य की अजेय शक्ति का आभास हो गया और कश्मीर को हस्तगत करने का अपना उद्देश्य उसने सदा सर्वदा के लिए त्याग दिया।

तौसी:स्वतंत्रता का एक स्मारक

स्वतंत्रता के 1235 वर्षीय संघर्ष का स्मारक सचमुच तौसी का युद्घ क्षेत्र भी है। जिसे नमन किये बिना हजारों बलिदानियों का बलिदान व्यर्थ चला जाएगा। राजा त्रिलोचनपाल के साथ इतिहास ने अन्यास किया है। महमूद गजनवी के एक चाटुकार इतिहासकार पीर हसन ने राजा त्रिलोचन पाल की शौर्य-गाथा को अपनी ‘पराधीन लेखनी’ से कलंकित करने का प्रयास किया और हमें वही कलंकित लेखनी की कलंकित गाथा पढ़ाई गयी। पीर हसन लिखता है:-

‘संग्रामराज ने अपने भीतर मुकाबले की ताव न देखकर बहुत से तोहफे तहलीफ के साथ खुद को सुल्तान की मुलाजिमत में पहुंचाया। सुल्तान ने फरमाया तूने खुद को क्यों आजिज और जलील किया। राजा ने जवाब में कहा कि शरीफ  लोग मेहमान की खातिर तवाजह अपने लिए फकर और तरक्की का सबब समझते हैं। सुल्तान महमूद ने उसकी हुस्नबयानी से महफूल होकर उम्दा उम्दा पोशाकों से सरफराज  किया और खिराजशाही मुकर्रर करके कश्मीर की हुकूमत उसी के हवाले कर दी।’

महाराजा त्रिलोचनपाल के लिए पीर हसन का यह कथन कितना भ्रामक व मिथ्या हो सकता है, इसका पता हमें डा. रघुनाथ सिंह के इस कथन से चल जाता है-’पीर हसन का वर्णन एकांगी तथा महमूद गजनवी की महत्ता और कश्मीरियों की हीनता दिखाने का प्रयास मात्र है। किसी इतिहास में उक्त घटना का समर्थन नही मिलता। महमूद गजनवी ने कभी कश्मीर उपत्यका में प्रवेश नही किया। पीर हसन की बातें असत्य हैं। संग्रामराज को विश्व की दृष्टि में गिराने तथा गजनवी की महत्ता प्रमाणित करने केे लिए यह कथा घड़ दी गयी है कि महमूद कश्मीर में आया और संग्रामराज ने अपनी पताका झुका दी।’

बस, हर विदेशी शत्रु इतिहास लेखक का भारत के विषय में यही प्रयास रहा है कि इसके लोगों को और इसके महान सेनापतियों, राजा महाराजाओं को जितना हो सके उतना  पतित रूप में दिखाओ। जिससे कि इस देश के लोगों को अपने अतीत से घृणा हो जाए और वो ये मानने लगें कि भारत का इतिहास तो निरंतर अपमान और तिरस्कार की एक ऐसी गाथा है जिसने हमें हर क्षण और हर पग पर अपमानित और तिरस्कृत किया है। जबकि कल्हण हमारे मत का समर्थन करते हुए लिखता है कि -इस अवसर पर त्रिलोचनपाल ने मुस्लिम आक्रामकों से अंतिम बार पंजाब में सामना किया था। ज्ञात होता है कि महमूद झेलम से कश्मीर जाने वाली किसी उपत्यका में त्रिलोचनपाल से संघर्ष कर पीछे हट गया। कश्मीर के कुछ सीमांत राजाओं ने गजनवी की अधीनता स्वीकार की होगी। परंतु कश्मीर ने महमूद से लोहा लिया।  संग्रामराज ने महमूद के सम्मुख मस्तक नही झुकाया था।

वो अनूठे बलिदानी देशभक्त

सोमनाथ का मंदिर लूटा जा चुका था। देश के लोगों में इस मंदिर के लूटे जाने के पश्चात वेदना बार बार देशभक्त हृदयों में ज्वार भरने का कार्य कर रही थी। लोग किसी भी मूल्य पर महमूद से प्रतिशोध चाहते थे। क्योंकि उस क्रूर शासक ने हमारे धर्म और राष्ट्र दोनों को ही अपवित्र कर दिया था। इसलिए जब वह देश से निकलकर जा रहा था, तो हमारे कुछ लोगों ने योजना बनाई कि उसके सैन्य दल को कच्छ के रेगिस्तान में भ्रमित कर दिया जाए। हमारे  लोगों को अपने इस वीरता से भरे कृत्य के परिणाम का भली प्रकार ज्ञान था कि इस कृत्य से मृत्यु उनका गले का हार बनकर आएगी। परंतु देशभक्ति के ज्वार के समक्ष मृत्यु को तो बहुत छोटी सी बात माना जाता है। मानो, जीवन ने अर्द्घविराम लिया और नया जीवन पाकर फिर चल पड़ा। प्राचीन काल से ही भारत के हर देशभक्त ने युद्घ में इसी भावना से आत्मोत्सर्ग किया है। कृष्ण ने गीता में अर्जुन को बस ये ही तो समझाया है कि जिसे तू इन सबका काल मान रहा है वह काल नही है, अपितु जीवन के लिए मात्र अर्द्घविराम है। अत: इसी भावना से उस समय (1026 ई.) हमारे देशभक्त नागरिक भी भर गये थे। मुस्लिम लेखक मिन्हाज ने लिखा है-’रास्ता बताने वालों की मांग पर एक हिंदू सामने आया और  उसने रास्ता बताने का वचन दिया। जब कुछ देर तक इस्लामी सेना उसके पीछे चली और थमने का समय आया तो लोग पानी की तलाश में निकल पड़े। परंतु पानी का दूर दूर तक भी नामोनिशान नही था। सुल्तान ने रास्ता दिखाने वाले को अपने सामने हाजिर करने का हुक्म दिया और पूछा कि पानी कहां मिल सकता है? उसने जवाब दिया-’मैंने सारी उम्र अपने देवता सोमनाथ की सेवा में गुजारने का प्रण लिया है, और मैं तुझे तथा तेरी सेना को इस जलहीन रेगिस्तान में इसीलिए लाया हूं कि तुम सब एक घूंट पानी के लिए तरस- तरस कर मर जाओ।

सुल्तान ने (काफिर के मुंह से शब्द सुनकर) हुक्म दिया उस रास्ता बताने वाले का कत्ल कर दिया जाए।’

अगले ही क्षण कच्छ की भूमि की गोद में एक देशभक्त और धर्मभक्त भारतीय नागरिक का सिर मां भारती की सेवा के लिए हवा में तैरता हुआ धड़ाम से आ पड़ा। मां धन्य हो गयी, ऐसा लाल जनकार और एक मां प्रसन्न हो गयी ऐसे  लाल का सर अपनी गोद में पाकर। उस अनाम देशभक्त का नाम-धाम अभी ज्ञात नही है पर वह अनाम शूरवीर  भारतीय स्वातंत्रय समर का एक स्मारक अवश्य है।

….और वह ही क्यों? जब वह मां भारती की गोद में जा लेटा, तब रास्ता बताने के लिए दो अन्य आत्मघाती बने हिंदू सामने आए। मुहम्मद उफी की ‘जमी-उल-हिकायत’ से हमें ज्ञात होता है-’दो हिंदू सामने आये और उन्होंने रास्ता बताने के लिए अपनी सेवाएं प्रस्तावित कीं। वे तीन दिन तक रास्ता बताते रहे और उसे (महमूद गजनवी को) रेगिस्तान में ले गये। जहां पानी तो क्या घास तक भी नही थी।

सुल्तान ने पूछा कि यह कैसा रास्ता था जिस पर वह चल रहे थे और क्या आसमान में कोई बस्ती या बाशिंदे भी थे या नहीं? उन्हेांने तब उत्तर दिया कि वे मुखिया राज मुखिया राजा (जिस व्यक्ति ने शत्रु सेना को भ्रमित कर अपरिमित कष्ट पहुंचाने के लिए ऐसी योजना बनायी और उन आत्मघाती देशभक्तों को इस पवित्र कार्य के लिए नियुक्त किया था) के बताये रास्ते पर चल रहे हैं और वे निर्भीक होकर उसको भटकाने का काम कर रहे हैं। अब (महमूद) समुंदर तुम्हारे सामने है और हिंद की सेना तुम्हारे पीछे। हमने अपना काम पूर्ण किया। अब तुम जो चाहो सो करो। तुम्हारी फौज का कोई भी आदमी अब बच नही पाएगा।’

ऐसे वीर प्रतापी शासक ऐसी अनूठी सेनाएं और ऐसे अदभुत देशभक्त नागरिकों के रहते भी यदि भारत को और हिंदू समाज को कायरों का समाज कहा जाता है तो ये केवल अपने गौरवपूर्ण अतीत को भली प्रकार न समझने का परिणाम है। वास्तव में ये वीर प्रतापी शासक, ये अनूठी सेनाएं और अदभुत देशभक्त नागरिक ही तो वो कारण थे जिनसे ‘हमारी हस्ती नही मिटी’ और हम अपनी स्वतंत्रता के लिए सदियों तक लड़ते रहे।

संभवत: यजुर्वेद (9-23) में यह व्यवस्था ऐसे राष्ट्र प्रेमी लोगों के लिए ही की गयी है-

वयं राष्ट्रे जागृयाम पुरोहिता: स्वाहा।

अर्थात हम अग्रसर होकर अपने राष्ट्र में जागृत रहें ऐसा, हम मानते हैं।

क्या यह स्वाभाविक प्रश्न नही है कि जिस देश का आदि धर्मग्रंथ राष्ट्र के प्रति ऐसी  उदात्त राष्ट्रीय भावनाओं और कामनाओं से ओतप्रोत  हो उस देश के नागरिक इस प्रकार की उदात्त राष्ट्रीय भावनाओं से क्यों कर अछूते रह  सकते हैं?

हमारी मातृभूमि मां है और मां के मर्मस्थल को आहत करना कोई भी मातृभक्त नही चाहता। उसी प्रकार का प्यारा और पवित्र संबंध हमने अपनी मातृभूमि के प्रति प्राचीन काल से ही स्थापित किया है। अत: मां के मर्म स्थल को और हृदय को चोट न पहुंचाने के लिए हमें वेद ने यों आदेशित किया है-

मा तो मर्म विमृग्वरि मा ते हृदयमार्पियम्।  (अथर्व 12-1-35) अर्थात हे मातृभूमि हम तेरे हृदय और मर्मस्थल को चोट न पहुंचावें।

राष्ट्रप्रेम की ऐसी उत्तुंग भावना और माता पुत्र का ऐसा पवित्र संबंध विश्व में केवल और केवल भारतीय  संस्कृति में ही है, अर्थात वैदिक संस्कृति में। यदि अन्यत्र कहीं ये संबंध है भी तो वह इतनी आत्मीयता का नही है क्योंकि वह भारतीय संस्कृति की अनुकृति मात्र है। परछाई है, वास्तविकता नही है। अनुकृति और परछाई में भ्रांति हो सकती है, परंतु वास्तविकता में नही हो सकती। इसलिए अपने विषय में हम इस आत्मघाती सोच से बाहर निकलें कि इस देश में राष्ट्र, राष्ट्रवाद और राष्ट्रीयता का या देश और देशभक्ति का सर्वथा अभाव रहा हो।हम जीवन्तता के उपासक रहे हैं, हम जिज्ञासु रहे हैं, हम जिजीविषा के भक्त रहे हैं, और ये तीनों बातें वहीं मिलती हैं-जहां  लक्ष्य के प्रति समर्पण होता है, जहां समूह के प्रति, राष्ट्र और समाज के प्रति व्यक्ति अपने कर्त्तव्यों को समझता है, और उन्हीं के लिए जीवन को जीता है। भारत ने इन्हीं के लिए जीवन जीना सिखाया है, इसलिए भारत की हर मान्यता और उसकी संस्कृति का हर मूल्य अविस्मरणीय है, पूज्यनीय है और वंदनीय है।

Godse saved India from Gandhi terrorist

पिछले 67 सालों से इस देश में गांधी को 
सबसे बड़ा महात्मा और गोडसे को
सबसे बड़ा आतंकवादी बताया जाता है .......
लेकिन मित्रो क्या आपने कभी सोचा....
कि आखिर क्या थी गोडसे की विवशता ..????
क्या गोडसे नही जानते थे की 
एक आम आदमी को मारने में और एक
राष्ट्रपिता बने को मारने में क्या अंतर है ..?????? और 
क्या गोडसे को अंदाजा नहीं था कि गांधी को 
मारने के बाद क्या होगा उनके परिवार का ..?????
कैसे कैसे कष्ट सहने पड़ेंगे गोडसे के परिवार और 
सम्बन्धियों को और मित्रों को ..????
आखिर क्या था गांधी वध का वास्तविक कारण ..???
क्या थी विभाजन की पीड़ा ..?????
विभाजन के समय क्या क्या हुआ था ..????

आज मीडिया और सेकुलर गिरोह कहता है कि 
"गोडसे आतन्कवादी हैं"... "हत्यारा हैं' ....
परन्तु गोडसे का तो कभी निर्दोष लोगों को 
मारने का पूर्व में कोई रिकॉर्ड नहीं था
न ही गांधी को मारते समय गोडसे ने उनके साथ उपस्थित
लोगों को मारा था .......
तो गोडसे को आतन्कवादी और हत्यारा कैसे कहा
जा सकता हैं .????
.
हत्यारा तो इस गांधी को कहना चाहिए 
क्योंकि जिस गांधी की वजह से लाखों हत्याएँ और 
देश का भयंकर नुकसान हुआ .......
.
यदि गांधी थोड़े दिन और ज़िंदा रह जाता 
तो भारत का नक्शा कुछ ऐसे होना था .....
East पाकिस्तान(आज का बंगलादेश)से पाकिस्तान तक 
चौड़ी सड़क की planning चल रही थी ......
मगर भारत माँ का सीना कटने से बचाया 
भारत माँ के सच्चे सुपुत्र नथु राम गोडसे जी ने 
जिन्होंने गांधी का वध कर देश को बचाया .....
.
उस समय जो हालात थे और गांधी मुस्लिम तुष्टीकरण की खातिर एक के बाद एक भारत को और हिन्दुओं को 
जख्म दिये जा रहा था
यदि गोडसे की जगह कोई भी सच्चा राष्ट्रभक्त होता
तो गांधी को बहुत पहले ही मार देता ......
.
गांधी भक्तों और सेकुलर गिरोह को खुली चुनौती हैं
गांधी वध के बाद हुई अदालती कार्रवाई की बहस और हुतात्मा गोडसे के बयानों व सभी पक्षों को सार्वजनिक करके 
मीडिया में इस पर खुलकर बहस करायी जाए ......
मेरा दावा है दूध का दूध और पानी का पानी हो जाएगा...
परन्तु नहीं ......

गांधी ब्रांड को स्थापित करने वाला वामपंथी गिरोह
कभी सच को बाहर नहीं आने देगा ......
क्योंकि ब्रह्मचर्य प्रयोग के नाम पर कुकर्म करने वाले 
बापू की करतूतों का कच्चा चिट्ठा जब खुलेगा 
तो इस गांधी ब्रांड की धज्जियां उड जायेगी ........ और 
एक बार जब बात निकली तो बहुत दूर तक जायेगी ......
#राष्ट्रहित_में_शेयर_करे...........>>>>>>>>>>

Thursday, January 28, 2016

Real Quran was burned by 3rd Caliph

Nancy Papadopoulos's photo.Real Quran is burned.
Muhammad repeatedly calls attention to the fact that the Qur'an is not written, like other sacred books, in a strange language, but in Arabic, and therefore is intelligible to all. At that time, along with foreign ideas, many foreign words had crept into the language, especially Aramaic terms for religious conceptions of Jewish and Christian origin. Some of these had already passed into general use, while others were confined to a more limited circle. Muhammad, who could not ...
Jeremy Stevens's photo.Ron Klein's photo.fully express his new ideas in the common language of his countrymen, but had frequently to find out new terms for himself, made free use of such Jewish and Christian words, as was done, though perhaps to a smaller extent, by certain thinkers and poets of that age who had more or less risen above the level of heathenism. In Muhammad's case this is the less wonderful, because he was indebted to the instruction of Jews and Christians whose Arabic - as the Qur'an pretty clearly intimates with regard to one of them - was very defective.




● "And if he (Muhammad) had forged a (((false saying))) concerning Us, We surely should have seized him by his right hand, and then certainly should have cut off his Aorta and none of you {Muslims} could withhold Us from punishing him." (Qur'an 69:44-47)
● "The Prophet in his ailment in which he died, used to say: "O 'Aisha! I still feel the pain caused by the food I ate at Khaibar, and at this time, I feel as if my Aorta is being cut from that poison." (Sahih Bukhari... 5:59:713)
● "Therefore thus saith the Lord of hosts concerning the [false] prophets: Behold, I will feed them with wormwood [something bitter, or extremely unpleasant], and make them drink the water of gall [drink poisonous water]." (Jeremiah 23:15)
● "But the [false] prophet, which shall presume to speak a word in My name, which I have not commanded him to speak, or that shall speak in the name of other gods [Allah], even that prophet shall die." (Deuteronomy 18:20)
● "I have fabricated things against God and have imputed to Him words which He has not spoken.” — [False] Prophet Muhammad (Al-Tabari
6:111)
 "Allah's Messenger said: There is none amongst you {Muslims} with whom is not an attaché from amongst the → jinn (devil). They (the Companions) said: Allah's Messenger, with you too? Thereupon he said: → Yes." (Sahih Muslim 39:6757)
● "O Muhammad! I think that → your Satan ← has forsaken you, for I have not seen him with you for two or three nights!" (Sahih Bukhari 6:60:475)
● "There came to me an inviter on behalf of the → Jinn and I went along with him and recited to them {Muslims} the Qur'an." (Sahih Muslim 4:903)
● "And remember when We said to the angels: "Prostrate to Adam." So they prostrated except Iblis (Satan). He was one of the → Jinns." (Qur'an 18:50)
● "The Prophet [Muhammad] said: Verily, Satan flows through the human being {Muslims} like blood.” (Sahih Muslim 2174)












Tuesday, January 26, 2016

TEJAS,Indian fighter plane is in Bahrain Air show


India has entered in a mega private venture by allowing TATA ans Reliance in military field.
India’s Reliance Defense announced that it has entered into a manufacturing and maintenance partnership with Russian Almaz-Antey, manufacturer of the S-400 air defense missile system.
The agreement will focus on radars and automated control systems as areas of partnership for the air defense missile systems, S-400 as well as offset policies of the Indian Ministry of Defense, Reliance said in a statement Thursday.
“Working with Reliance Defence will help us develop new directions for both Companies to address future requirements of the Indian Armed Forces," Vice-Chairman of AlmazAntey V F Medovnikov said.
Reliance Defence Ltd. is a wholly owned subsidiary of Reliance Infrastructure Limited.
Under India’s offsets policy, foreign defense contractors are required to invest a percentage of the value of any deal in India to build an industrial base to reduce defense imports.

defenseworld

Monday, January 25, 2016

WHO GAVE BHARATA ITS INDEPENDENCE FROM BRITISH RULE ?

WHO GAVE BHARATA ITS INDEPENDENCE FROM BRITISH RULE ?
Who freed India, Gandhi or Bose? New book claims Netaji's INA had more impact on British rulers than Gandhi or Nehru's non-violence.
While the declassification of the Netaji files has sparked a massive debate on the need to rewrite modern Indian history, a yet-to be-published book - Bose: An Indian Samurai - by Netaji scholar and military historian General GD Bakshi claims that former British prime minister Clement Atlee said the role played by Netaji’s Indian National Army was paramount in India being granted Independence, while the non-violent movement led by Gandhi was dismissed as having had minimal effect.
In the book, Bakshi cites a conversation between the then British PM By Rahul Kanwal in New Delhi Attlee and then Governor of West Bengal Justice PB Chakraborty.
The conversation is placed in 1956 when Attlee - the leader of Labour Party and the British premier who had signed the decision to grant Independence to India - had come to India and stayed in Kolkata as Chakraborty’s guest.
Letter
Chakraborty, who was then the Chief Justice of the Calcutta High Court and was serving as the acting Governor of West Bengal, had written a letter to the publisher of RC Majumdar’s book, A History of Bengal, in which he wrote: “When I was acting governor, Lord Attlee, who had given us Independence by withdrawing British rule from India, spent two days in the governor’s palace at Calcutta during his tour of India. At that time I had a prolonged discussion with him regarding the real factors that had led the British to quit India.”
british-pm-clement-attlee
Former British PM Clement Atlee had said that the role played by Netaji’s Indian National Army was significant in India becoming independent


Clement Atlee reportedly described Gandhi's influence on the British decision to leave India as "minimal".


“My direct question to Attlee was that since Gandhi’s Quit India Movement had tapered off quite some time ago and in 1947 no such new compelling situation had arisen that would necessitate a hasty British departure, why did they had to leave?”
“In his reply Attlee cited several reasons, the main among them being the erosion of loyalty to the British crown among the Indian Army and Navy personnel as a result of the military activities of Netaji,” Chakraborty said.
“Toward the end of our discussion I asked Attlee what was the extent of Gandhi’s influence upon the British decision to leave India. Hearing this question, Attlee’s lips became twisted in a sarcastic smile as he slowly chewed out the word, ‘m-i-n-i-m-a-l’,” Chakraborty added.
This startling conversation was first published by the Institute of Historical Review by author Ranjan Borra in 1982, in his piece on Subhas Chandra Bose, the Indian National Army and the war of India’s liberation.
To understand the significance of Attlee’s assertion, we have to go back in time to 1945. The Second World War had ended. The allied powers, led by Britain and the United States, had won. The Axis powers led by Hitler’s Germany had been vanquished. The victors wanted to impose justice on the defeated armies.
In India, officers of Netaji Bose’s Indian National Army were put on trial for treason, torture, murder. This series of court martials, came to be known as the Red Fort Trials.
Soldiers' mutiny
Indians serving in the British armed forces were inflamed by the Red Fort Trials. In February 1946, almost 20,000 sailors of the Royal Indian Navy serving on 78 ships mutinied against the Empire. They went around Mumbai with portraits of Netaji and forced the British to shout Jai Hind and other INA slogans.
The rebels brought down the Union Jack on their ships and refused to obey their British masters. This mutiny was followed by similar rebellions in the Royal Indian Air Force and also in the British Indian Army units in Jabalpur. The British were terrified.
After the Second World War, 2.5 million Indian soldiers were being de-commissioned from the British Army. Military intelligence reports in 1946 indicated that the Indian soldiers were inflamed and could not be relied upon to obey their British officers.
There were only 40,000 British troops in India at the time. Most were eager to go home and in no mood to fight the 2.5 million battle-hardened Indian soldiers who were being demobilised.
It is under these circumstances that the British decided to grant Independence to India. The idea behind putting these documents in the public domain, is not to in any way undermine the significant contribution of Mahatma Gandhi or Pandit Nehru, but to spark a debate about the real significance of the role played by Netaji’s Indian National Army.
School textbooks are dominated by the role played by the non-violent movement, while the role of the INA is dismissed in a few cursory paragraphs.
The time has come to revisit modern Indian history and acknowledge the immense contribution of Netaji in helping India win its freedom.
http://www.dailymail.co.uk/indiahome/indianews/article-3416178/Who-freed-India-Gandhi-Bose-New-book-claims-Netaji-s-INA-impact-British-rulers-Gandhi-Nehru-s-non-violence.html
dimensiontoday 

Quran and terrorism

आज लाखो मुस्लिम सडक पर उतर कर हिन्दू महासभा के कमलेश तिवारी जी को फांसी पर लटका देने के लिए सरकार के सामने सडको पर जुलुस निकाल रहे है क्योंकि जब आजम खान ने आरएसएस को "गे" कहा तो जवाब मे कमलेश जी ने कहा कि मुहम्मद वास्तव मे पहले होमो सेक्सुअल थे। बस बात भडक गयी।
लेकिन अब मेआपको बता दूँ कि कुरआन एक ऐसा मजहबी ग्रन्थ है जो पूरी दुनिया को सबसे ज्यादा मुर्ख बनाता है। इसमे अगर लिखा है कि मानव हत्या करना जिहाद है तो दूसरी तरफ लिखा है एक मानव हत्या पूरी मानवता की हत्या है।
कही पर जानव...रो की हत्या भी मना है तो उसी मे कही लिखा है पेट से निकाल कर भ्रूण जानवर की हत्या भी जायज है।
अगर कही लिखा है होमो इंसान को सजाए मौत दी जानी चाहिए तो दूसरी तरफ उसी होमो सेक्सुअल आदमी को जन्नत मे सेक्स और सेवा के लिए देने की बात भी है।
अब जो मायावती लालू कांग्रेस को वोट देने वाले मूर्खों की जमात है वो इन सब ने उलझ कर रह जाते हैं। क्योंकि मुस्लमान मुर्ख बनाने केलिए क्या करता है वह देखिये...
अगर मुस्लिम का कहीं पर वर्चस्व नही है और हिन्दू या ईसाई के सामने कमजोर है या खुद को बचाने के लिए कहेगा कि ..
"इस्लाम में एक मानव की हत्या भी पूरी मानवता की हत्या है.. ये लिखा है"
जब मुस्लिम ताकतवर रहेंगे तो कहेंगे ..

 "गैर मुस्लिमों की हत्या करना जिहाद याने अल्लाह का कार्य है"
हिन्दू भी सेक्युलर है तो अच्छे लगने वाले परिभाषा को सुन कर विश्वास करता है दूसरे को सुनता ही नही।
कुरान मे जन्नत मे होमो भी रहेंगे सेवा के लिए ऐसा वर्णन है - "और उनके चारो तरफ लडके घूम रहे होंगे, वह ऐसे सुन्दर है,जैसे छुपे हुए मोती हो "सूरा -अत तूर 52 :24
इन लडको की हकीकत कुरान की इस आयत से पता चलती है, जो कहती है कि, "ऐसे पुरुष जो औरतो के लिए अशक्त हो (who lack vigour ) सूरा -नूर 24 :३१ बोलचाल की भाषा मे हम ऐसे पुरुषो नपुंसक या हिजडा (Eunuchs ) कहते है, आज भी ये प्रथा अफगानिस्तान, पाकिस्तान, अरब मे मौजूद हैजिसे "बच्चा बाजी " कहा जाता है, इसी तरह भारत मे हिजडा बनाने कि प्रथा भी मुस्लिम शासक ही लाये थे जिनको "मुखन्निस(Arabic مخنثون "effeminate ones") कहते है। यह ऐसे लडके या पुरुष होते है, जिनका पुरुषांग काट दियाजाता ताकि वह स्त्री जैसे दिखे, और जब वह हरम मे काम करे तो वहां की औरतो से कोई शारीरिक सम्बन्ध नही बना सकें परन्तु इनका मालिक इनसे समलैंगिक सम्बन्ध बना सके।
छोटे छोटे लडको या तो खरीद कर या अगवा करके उठाव लिया जाता है। फिर उनको लडकियो के कपडे पहिना कर नाच कराया जाता है और नाच के बाद उनके साथ कुकर्म किया जाता है, कभी कभी ऐसे लडको को खस्सी करके (Castrated ) हिजडा बना दिया जाता है। यह परम्परा अफगानिस्तान, सरहदी पाकिस्तान मे अधिक है। इस कुकर्म के लिए 9 से 14 साल के लडको को लिया जाता है। अफगानिस्तान मे गरीबी और अशिक्षा अधिक होने के कारण वहां बच्चाबाजी एक जायज मनोरंजन है ।
इसका विकिपेडिया लिंक https://en.m.wikipedia.org/wiki/Bacha_Bazi
अल उद्दीन का सेनापति “मालिक काफूर ” हिजडा था, और कुतुबुद्दीन का सेनापति “खुसरू खान ” भी हिजडा ही था महमूद गजनवी और उसके हिजडे गुलाम के “गिलमा बाजी” (homo sexual ) प्रेम यानि कुकर्म (Sodomy ) को इकबाल जैसे शायर ने भी आदर्श बताया है क्योंकि यह कुरान और इस्लाम के अनुकूल है। इसलिए मे कमलेश तिवारी जी का सच्चाई के आधार पर पूरी तरह समर्थन करता हूँ। मुसलमानो की बात का तो ऐसा है की अपने हिसाब से कोई भी सूरा या आयत निकाल कर पटक देते हैं।
https://www.facebook.com/photo.php?fbid=150084062030648&set=a.116071312098590.1073741828.100010871649924&type=3&theater

Rangeela Rasool

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Hindi Rangeela Rasool
1 -अल्लाह का नाम लिए बिना जानवर को मारना हराम है . लेकिन जिहाद के नाम से हजारों इंसानों का क़त्ल करना हलाल है .
2-यहूदियों ,ईसाइयों से दोस्ती करना हराम है . लेकिन यहूदियों ,ईसाईयों का क़त्ल करना हलाल है .
3-टी वी और सिनेमा देखना हराम है . लेकिन सार्वजनिक रूप से औरतों को पत्थर मार हत्या करते हुए देखना हलाल है .
...
4-किसी औरत को बेपर्दा देखना हराम है . लेकिन किसी गुलाम औरत को बेचते समय नंगा करके देखना हलाल है .
5-शराब का धंदा करना हराम है . लेकिन औरतों ,बच्चों को गुलाम बना कर बेचने का धंदा हलाल है .
6-संगीत सुनना हराम है . लेकिन जिहाद के कारण मारे गए निर्दोष लोगों के घर वालों की चीख पुकार सुनना हलाल है .
7-घोड़ों की दौड़ पर दाव लगाना हराम है . लेकिन काफिरों के घोड़े चुरा कर बेचना हलाल है
8-औरतों को एक से अधिक पति रखना हराम है . लेकिन मर्दों लिए एक से अधिक पत्नियाँ रखना हलाल है .
9-चार से अधिक औरतें रखना हराम है . लेकिन अपने हरम में सैकड़ों रखेंलें रखना हलाल है .
10किसी मुस्लिम का दिल दुखाना हराम है . लेकिन किसी गैर मुस्लिम सर कटना हलाल है .
11-औरतों के साथ व्यभिचार करना हराम है . लेकिन जिहाद में पकड़ी गयी औरतों के साथ सामूहिक बलात्कार करना हलाल है .
12-जब किसी औरत की पत्थर मार कर हत्या की जारही हो,तो उसे बचाना हराम है . जब उसी अपराध के लिए औरत को जिन्दा जलाया जा रहा हो,तमाशा देखना हलाल है .
इन थोड़े से मुद्दों को ध्यान से पढ़ने से उन लोगों की आँखें खुल जाना चाहिए तो इस्लाम को शांति का धर्म समझ बैठे ह