Wednesday, November 18, 2015

चन्द्रवंशी पठानिया राजपूतों का सम्पूर्ण इतिहास, History of Pathania Rajput

चन्द्रवंशी पठानिया राजपूतों का सम्पूर्ण इतिहास -----------
मित्रों आज हम आपको पंजाब,जम्मू,हिमाचल प्रदेश के चंद्रवंशी पठानिया राजपूतो(Tanwar/tomar rajput Clan Pathania) के बारे में विस्तृत जानकारी देंगे.यह वंश ईस्वी 1849 तक विदेशी आक्रमणकारियों के विरुध अपने संघर्षों के लिए जाना जाता है आक्रमणकारी चाहे मुसलमान हो या अंग्रेज। इस वंश के राम सिंह पठानिया अंग्रेजों के विरुद्ध अपनी वीरता के लिए विख्यात हैं.यह वंश इतना बहादुर व झुझारू है के आजादी के बाद भी पठानिया राजपूतों ने सेना में 3 महावीर चक्र प्राप्त किये.....
-------------------पठानिया वंश की उत्पत्ति-------------------
इस वंश की उत्पत्ति पर कई मत हैं,
श्री ईश्वर सिंह मढ़ाड कृत राजपूत वंशावली के पृष्ठ संख्या 181-182 के अनुसार पठानिया राजपूत बनाफर वंश की शाखा है,उनके अनुसार बनाफर राजपूत पांडू पुत्र भीम की हिडिम्बा नामक नागवंशी कन्या से विवाह हुआ था हिडिम्बा से उत्पन्न पुत्र घटोत्कच के वंशज वनस्पर के वंशज बनाफर राजपूत हैं,पंजाब के पठानकोट में रहने वाले बनाफर राजपूत ही पठानिया राजपूत कहलाते है.....
किन्तु यह मत सही प्रतीत नहीं होता ,क्योंकि पठानिया राजपूतो के बनाफर राजपूत वंश से सम्बंधित होने का कोई प्रमाण नही मिलता है,

श्री रघुनाथ सिंह कालीपहाडी कृत क्षत्रिय राजवंश के पृष्ठ संख्या 270-271 व 373 के अनुसार पठानिया राजपूत तंवर वंश की शाखा है,
नूरपुर के तंवर वंशी राजा बासु (1580-1613) ने अपने पुरोहित व्यास के साथ महाराणा मेवाड़ अमर सिंह से मुलाकात की थी,इसी व्यास का वंशज सुखानंद सम्वत 1941 वि० को उदयपुर आया था,बासु के समय के ताम्र पत्र के आधार पर सुखानंद के रिकॉर्ड में लिखा था कि "दिल्ली का राज छूटने के बाद राजा दिलीप के पुत्र जैतमल ने नूरपुर को अपनी राजधानी बनाया.
(वीर विनोदभाग-2 पृष्ठ संख्या 228)
निष्कर्ष---सभी वंशावलियों के रिकार्ड्स से भी यह वंश तंवर वंश की शाखा ही प्रमाणित होता है,,पंजाब में पठानकोट में रहने के कारण तंवर वंश की यह शाखा पठानिया के नाम से प्रसिद्ध हुई.वस्तुत: पठानकोट का प्राचीन नाम भी संभवत: पैटनकोट हो सकता है.

--------------पठानकोट एवं नूरपुर राज्य का इतिहास------------
Dynasty--Tanwar rajput Clan(Pathania)

Area--180 km² (1572)
राज्य का नाम--नूरपुर(पुराना नाम धमेरी)
------------इतिहास---------
पठानिया राजपूत तंवर राजा अनंगपाल तंवर के अनुज राजा जैतपाल के वंशज है जिन्होंने उत्तर भारत में धमेरी नाम के राज्य की स्थापना की और पठानकोट नामक शहर बसाया। धमेरी राज्य का नाम बाद में जा कर नूरपुर पड़ा। सं० 1849 में नूरपुर अंग्रेजो के अधीन हो गया।
इस राज्य कि स्थापना 11 वी सदी में (1095 ईस्वी)में दिल्ली के राजा अनंगपाल तंवर द्वित्य के छोटे भाई जैतपाल द्वारा की गई थी,जिन्होंने खुद को पठानकोट में स्थापित किया,उन्होंने यहाँ गजनवी काल से स्थापित मुस्लिम गवर्नर कुजबक खान को पराजित कर उसे मार भगाया और पठानकोट किला और राज्य पर अधिकार जमाया,इसके बाद जैतपाल तंवर और उनके वंशज पठानिया राजपूत कहलाने लगे,उनके बाद क्रमश: खेत्रपाल,सुखीनपाल,जगतपाल,रामपाल,गोपाल,अर्जुनपाल,वर्शपाल,जतनपाल,विदुरथपाल,किरतपाल,काखोपाल पठानकोट के राजा हुए.....
उनके बाद की वंशावली निम्नवत है------

राजा जसपाल(1313-1353)---इनके नो पुत्र हुए जिनसे अलग अलग शाखाएँ चल.
राजा कैलाश पाल(1353-1397)
राजा नागपाल(1397-1438)
राजा पृथीपाल(1438-1473)
राजा भीलपाल(1473-1513)
राजा बख्त्मल(1513-1558) ये अकबर के विरुद्ध शेरशाह सूरी के पुत्र सिकन्दर सूर के विरुद्ध लडे और 1558 ईस्वी में इनकी मृत्यु हुई.
राजा पहाड़ी मल(1558-1580)
राजा बासु देव(1580/1613)-----------
राजा बासु देव के समय उनसे पठानकोट का परगना छिन गया और राजधानी धमेरी स्थान्तरित हो गई,किन्तु बाद में राजा बासु ने अपनी स्थिति को मजबूत किया और अकबर के समय उन्हें 1500 का मंसब मिला जो जहाँगीर के समय बढ़कर 3500 हो गया.हालाँकि राजा बासु पर जहाँगीर को पूरा विश्वास नहीं था जिसका जिक्र तुजुक ए जहाँगीरी में मिलता है,राजा बासु ने नूरपुर धामेरी में बड़ा दुर्ग बनवाया जो आज भी स्थित है,शाहबाद के थाने में राजा बासु की ईस्वी 1613 में मृत्यु हो गई.
राजा सूरजमल(1613-1618)---राजा बासु ने अपने बड़े पुत्र जगत सिंह को राजा बनाया पर जहाँगीर ने उसके छोटे पुत्र सूरजमल को धमेरी का राजा बनाकर तीन हजार जात और दो हजार सवार का मनसबदार बना दिया,उनकी ईस्वी 1618 में चंबा में मृत्यु हो गई.
मियां माधो सिंह को जहागीर ने राजा का ख़िताब दिया उनकी ईस्वी 1623 में मृत्यु हो गई.
राजा जगत सिंह (1618-1646)---
शाहजहाँ के समय राजा जगत सिंह फिर से धामेरी के राजा बन गये.इन्हें पहले 300 का मनसब मिला बाद में बढ़कर 1000 आदमी और 500 घोड़े का हो गया,ईस्वी 1626 में यह बढ़कर 3000 आदमी और 2 हजार घोड़ो का हो गया,ईस्वी 1641 में यह बढ़कर 5 हजार का मनसब हो गया. ईस्वी 1622 में धमेरी का नाम मल्लिका नूरजहाँ के नाम पर बदलकर नूरपुर हो गया, नूरजहाँ यहाँ के प्राकृतिक सौन्दर्य से बहुत प्रभावित थी.शाहजहाँ ने इन्हें बंगश का मुख्याधिकारी बना दिया,ईस्वी 1640 में जगत सिंह ने शाहजहाँ के खिलाफ विद्रोह किया,शाहजहाँ ने इनके विरुद्ध सेना भेजी,जिसके बाद कड़े संघर्ष के बाद उन्होंने ईस्वी 1642 में आत्मसमर्पण किया और जहाँगीर के दरबार में पेश हुए,उनका मनसब बहाल कर दिया गया.ईस्वी 1646 में पेशावर में उनकी मृत्यु हो गई.
राजा राजरूप सिंह(1646–1661)---
राजा जगतसिंह के पुत्र राजरूप सिंह को शाहजहाँ ने कांगड़ा घाटी की फौजदारी दी थी.वे दो हजार जात और दो हजार सवार के मनसबदार थे,बाद में इसे बढ़कर 3500 कर दिया गया,ईस्वी 1661 में इन्हें गजनी का थानेदार भी बनाया गया.ईस्वी 1661 में इनकी मृत्यु हो गई.
राजा मान्धाता सिंह(1661–1700)
राजा दयाद्त्त सिंह (1700–1735)
राजा फ़तेह सिंह (1735–1770)
राजा पृथ्वीसिंह (1770–1805)
राजा वीरसिंह (1805–1846)----नूरपुर के अंतिम शासक राजा,इनके समय में सिख महाराजा रणजीत सिंह ने इस राज्य पर हमला किया जिसका वीरसिंह ने वीरतापूर्वक प्रतिरोध किया किन्तु शत्रु की कई गुनी सेना होने के कारण सिखों ने इनका काफी क्षेत्र छीन लिया,इसके बाद इनके वंशजो पर काफी कम जागीर रह गई.ईस्वी 1846 में एक युद्ध में इनका निधन हो गया.

राजा जसवंत सिंह(1846–1898)---इनके समय में अंग्रेजो ने इस रियासत को अपने क्षेत्र में मिला लिया और विक्रम संवत 1914 में किले को तोड़ कर इसका आधा भाग जसवंत सिंह को दे दिया,अंग्रेजो ने इन्हें मुवाअजे के रूप में बड़ी सम्पत्ति दी.इन्ही के समय वीर वजीर राम सिंह पठानिया ने अंग्रेजो के विरुद्ध बगावत कर उनके दांत खट्टे कर दिए थे.

राजा गगन सिंह(1898–1952)---इनका जन्म ईस्वी 1882 में हुआ था,6th Viceregal Darbari in Kangra District, an honorary magistrate in Kangra District;
मार्च 1909 को वायसरॉय ने इन्हें राजा का खिताब दिया,सन 1952 ईस्वी में इनका निधन हो गया.
राजा देवेन्द्र सिंह(1952-1960)

इनके अतिरिक्त राजा भाऊ सिंह को सन 1650 में शाहपुर स्टेट मिली पर उन्होंने सन 1686 ईस्वी में इस्लाम धर्म गृहण कर लिया,उनके वंशज आज मुस्लिम पठानिया राजपूत हैं.
इस प्रकार हम देखते हैं कि पंजाब ,हिमाचल,जम्मू के पठानिया राजपूत चंद्रवंशी तंवर राजपूतो की ही शाखा हैं और इन्होने लम्बे समय तक पठानकोट,नूरपुर(धमेरी)आदि राज्यों पर राज किया है,यह वंश इतना बहादुर व झुझारू है के आजादी के बाद भी पठानिया राजपूतों ने 3 महावीर चक्र प्राप्त किये। आज पठानिया राजपूत उत्तर पंजाब व हिमाचल में फैले हुए है।सेना में आज भी बड़ी संख्या में पठानिया राजपूत मिलते हैं जिनमे बड़े बड़े आर्मी ऑफिसर भी शामिल हैं.
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सन्दर्भ सूची-----
1-श्री ईश्वर सिंह मढ़ाड कृत राजपूत वंशावली के पृष्ठ संख्या 181-182
2-श्री रघुनाथ सिंह कालीपहाडी कृत क्षत्रिय राजवंश के पृष्ठ संख्या 270-271 व 373
3-वीर विनोदभाग-2 पृष्ठ संख्या 228
4-तजुक-ए-जहाँगीरी
5-http://en.wikipedia.org/wiki/Pathania
6-http://en.wikipedia.org/wiki/Nurpur,_India
7-http://www.indianrajputs.com/view/nurpur
8-http://kshatriyawiki.com/wiki/Tomar
9-A book Twarikh Rajgan-E-Pathania-E-Nurpur, Zila Kangra" i.e. History of Pathania Rajas of Nurpur by Mian Rughnath Singh Pathania.
10- http://gpathania.blogspot.in/2010/…/pathaniawho-are-we.html…
11-http://rajputanasoch/-kshatriyaitihas.blogspot.in/2015/08/blog-post.html

Tuesday, November 17, 2015

अमर सिंह राठौड़

--राजपूती आन बान शान के प्रतीक अमर सिंह राठौड़---

इन्होंने आगरा के किले में बादशाह शाहजहाँ के साले सलावत खान का भरे दरबार में सर काट लिया था क्योंकि सलावत खान ने उन्हें अपशब्द कहे थे।
अर्जुन गौड़ ने उन्हें धोखे से मार दिया।तब उनके शव को किले से वापस लाने का काम किया वीर बल्लू चम्पावत राठौड़ ने।जिन्होंने आगरा किले से अमर सिंह का शव लेकर किले की ऊँची दिवार से अपना घोडा कुदाया था।

शूरवीर अमर सिंह राठौड़(11 दिसम्बर 1613 - 25 जुलाई 1644 )का संक्षिप्त परिचय---

मारवाड़ जोधपुर के राजा गजसिंह की रानी मनसुखदे सोनगरा की कोख से सम्वत 1670(11 दिसम्बर 1613) को अमर सिंह राठौड़ का जन्म हुआ था।ये बचपन से ही बहुत वीर और स्वतंत्र प्रकृति के थे।इनकी प्रवर्ति से इनके पिता भी इनसे सशंकित हो गए और उन्होंने अमरसिंह की बजाय जसवंत सिंह को जोधपुर का युवराज बना दिया।इससे रुष्ट होकर अमर सिंह राठौड़ अपने स्वामिभक्त साथियों सहित जोधपुर छोडकर चले गए।उनकी वीरता और शौर्य से स्वयम बादशाह भी परिचित थे इसलिए उन्होंने आग्रह कर अमर सिंह राठौड़ को आगरा बुलाया और उन्हें मनसब दिया।

अमर सिंह राठौड़ को नागौर का राव बनाकर पृथक राज्य की मान्यता दे दी गई और उन्हें बडौद,झालान,सांगन आदि परगनों की जागीरे भी दी गई।धीरे धीरे अमर सिंह की कीर्ति पुरे देश में फैलने लगी और उनके पुरुषार्थ रणकौशल और वीरता से बादशाह भी बहुत प्रभावित था।किन्तु शाही दरबार में उनके शत्रुओं की संख्या बढ़ती चली गई।

बादशाह के साले सलावत खान का भरे दरबार में वध----

बादशाह के साले सलावत खान बख्शी का लड़का एक विवाद में अमर सिंह के हाथो मारा गया था इसलिये वो अमर सिंह से बदला लेने की फ़िराक में था।
जोधा केसरीसिंह जो कल्ला रायमलौत के पोते थे वो
शाही सेवा छोड़कर अमर सिंह की सेवा में चले गए और अमर सिंह ने उन्हें नागौर की जिम्मेदारी और एक जागीर दे दी जिससे बादशाह भी अमर सिंह से रुष्ट हो गया।

उसी समय एक तरबूज की बेल के छोटे से मामले में नागौर और बीकानेर राज्य में संघर्ष हो गया जिसमें बादशाह ने बीकानेर का पक्ष लिया और अमरसिंह से यमुना तट पर वनो की हाथियों की चराई का कर भी मांग लिया जिससे तनाव बढ़ गया।इन सब घटनाओ के पीछे उसी सलावत खान बक्शी का हाथ था जो लगातार बादशाह के कान भर रहा था।
अब स्वतंत्र विचारो के स्वाभिमानी यौद्धा अमर सिंह ने बादशाह का मनसब छोड़कर नागौर लौटने का मन बना लिया और बादशाह शाहजहाँ से मिलने का समय मांगा।पर बादशाह के साले सलावत खान ने मुलाकात नही होने दी।

विक्रम संवत 1701 की श्रावण सुदी 2 तिथि
(25जुलाई 1644) में अमरसिंह राठौड़ और सलावत खान में भरे दरबार में वाद विवाद हो गया और सलावत खान ने अमर सिंह को गंवार बोल दिया।इतना सुनते ही अमर सिंह राठौड़ से रहा नही गया और उन्होंने कटार निकालकर सीधे सलावत खान के पेट में घुसा दी जिससे उस दुष्ट के वहीँ प्राण निकल गए।

यह दृश्य देखकर पूरे दरबार में हड़कम्प मच गया और सभी दरबारी भाग खड़े हुए।खुद बादशाह शाहजहाँ और शहजादा दारा भी भागकर ऊपर चढ़ गए और वहीँ से उन्होंने अमर सिंह को घेर लेने का हुक्म सुना दिया।किन्तु अमर सिंह ने अकेले लड़ते हुए कई सैनिको का काम तमाम कर दिया।
फिर अर्जुन गौड़ ने धोखे से अमर सिंह पर वार किया जिससे वो गिर गए और शाही सैनिक उनपर टूट पड़े।इस संघर्ष में अर्जुन गौड़ के साथी जगन्नाथ मेड़तिया भी अमर सिंह के पक्ष में रहे।इस प्रकार अकेला लड़ता हुआ ये वीर यौद्धा वहीँ मारा गया।किले के दरवाजे पर खड़े अमर सिंह के 20 सैनिको को भी जब उनकी मृत्यु की जानकारी मिली तो उन्होंने भी तलवारे निकालकर वहीँ मुगलो से संघर्ष किया और अमर सिंह के शव को प्राप्त करने के लिए सैंकड़ो मुगलो को मारकर खुद वीरगति को प्राप्त हो गए।

बाद में ये जानकारी बल्लू चम्पावत राठौड़ को दी गयी तो उन्होंने वीरतापूर्वक अमर सिंह शव वापस लेकर आए।जिसके बाद उनकी रानियां सती हो गयी।
(बल्लू चम्पावत की वीरता पर अलग से पोस्ट की जाएगी)।

अमर सिंह राठौड़ की जयंती हर साल नागौर में समारोहपूर्वक मनाई जाती है जिसमे वीर बल्लू चम्पावत को भी श्रधान्जली अर्पित की जाती है।
राजपूती आन बान शान स्वाभिमान के प्रतीक
वीर अमर सिंह और बल्लू चम्पावत राठौड़ को शत शत नमन।
संदर्भ--
1-राजपूतो की वंशावली व् इतिहास महागाथा पृष्ठ संख्या 131-135(ठाकुर त्रिलोक सिंह धाकरे)
2-क्षत्रिय राजवंश पृष्ठ संख्या 125
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jadeja rajput and muslim war

यदुवंशी क्षत्रिय जाम सत्रसाल उर्फ़ सता जी जाडेजा और मुगलों से तमाचन का युद्ध(सम्वत 1639)-------
जय श्रीकृष्ण----
मजेवाड़ी के मैदान में सम्वत 1633 में जाडेजा राजपुतो ने भान जी दल जाडेजा और जेसा जी वजीर के नेत्रत्व में मुग़ल लश्कर को पस्त कर दिया था |भान जी दल जाडेजा ने मजेवाड़ी में अकबर के शिविर से 52 हाथी, 3530 घोड़े और पालकियों को अपने कब्जे में लिया था और मुगल सेनापति मिर्जा खान तथा अकबर सौराष्ट्र से भाग खड़े हुए थे. सरदार मिर्ज़ा खान ने अहमदाबाद जाकर सूबेदार शाहबुदीन अहमद खान को बताया की किस तरह जाम साहिब की फ़ौज ने उनके लश्कर का बुरी तरह नाश कर दिया और वो अपनी जान बचाकर वहा से भाग निकला | खुद अकबर भी इस हार से बहुत नाराज था | अब मुगल सेना नवानगर को नष्ट करने के प्रयोजन पर लग गई और जल्दी ही कुछ वर्ष बाद सम्वत 1639 में शाहबुदीन ने खुरम नामके सरदार को एक प्रचंड सैन्य के साथ जामनगर पर चढाई करने के लिए भेजा |

मुग़ल सूबे का बड़ा लश्कर जामनगर(नवानगर) के ऊपर आक्रमण करने के लिए आ रहा हे ये बात जाम श्री सताजी साहिब को पता चलते ही उन्होंने जेसा वजीर और कुंवर अजाजी को एक बड़ा लश्कर लेकर उनके सामने युद्ध करने के लिए चल पडे | इस सैन्य में पाटवी कुंवर अजाजी,कुंवर जसाजी,जेसा वजीर, भाराजी, रणमलजी, वेरोजी, भानजी दल, तोगाजी सोढा ये सब भी थे | जाम साहिब सताजी अपने सेना को लेकर तमाचन के गाव के पादर मे उंड नदी ने के किनारे आके अपनी सैन्य छावनी रखी | मुग़ल फ़ौज भी सामने गोलिटा नामके गाव के पास आ कर रुक गई |

मुग़ल फ़ौज के जासूसों ने सूबेदार को कहा की जाम साहिब के लश्कर में तोपे और वीर योद्धाओ का भारी मात्रा में ज़ोर हे, इसिलिए अगर समाधान हो सके तो अच्छा रहेगा | ये बात सुनकर खुरम भी अंदर से डर गया और उसने जाम सताजी को पत्र लिखा:-
“ साहेब आप तो अनामी है, आपके सब भाई, कुंवर और उमराव भी युद्ध से पीछे हठ करे ऐसे कायर नहीं हे | हम तो बादशाह के नोकर होने की वजह से बादशाह जहा हुकुम करे वह हमको जाना पड़ता हे, उनके आदेश के कारण हम यहाँ आए हुए है, पर हमारी इज्जत रहे ये अब आपके हाथ में है |”

इस पत्र को पढ़ते ही जाम साहेब ने जेसा वजीर से सलाह मशवरा करने के बाद जवाब भेजा की “ आप लोग एक मंजिल पीछे हट जाइए” ये जवाब मिलते ही खुरम ने दुसरे दिन सुबह होते ही पड़धरी गाव की दिशा में कुच की , वो एक मंजिल पीछे हट गया | ये देखकर जाम साहिब ने जाम साहिब ने उसे कुछ पोशाक-सोगात देकर उसे कुछ किए बिना अपने लश्कर को लेकर जामनगर की और रवाना हो गए | ये देखते ही कुंवर जसाजी ने जाम साहिब से कहा की हुकुम अगर आपकी अनुमति हो तो हम यहाँ पे थोड़े दिन रुकना चाहते हे | इस बात को कबुल करके जाम साहिब ने भारोजी, महेरामनजी, भानजी दल, जेसो वजीर और तोगाजी सोढा इन सब सरदारों के साथ २०,००० के सैन्य को वह पे रुकने दिया और खुद जामनगर की तरफ रवाना हो गए | कुंवर जसाजी ने तमाचन के पादर में अपना डेरा जमकर वहा पर खाने-पीने की बड़ी मिजबानी करने की तयारी करने लगे |

इस तरफ खुरम का जासूस ये सब देख रहा था | उसने फ़ौरन जाकर खुरम को बताया की जाम साहिब का लश्कर जामनगर जा चूका हे, यहाँ पर सिर्फ २०,००० का सैन्य हे | ये सब लोग मेजबानी में शराब की महफ़िल में व्यस्त हे, ये सही समय हे उनपे आक्रमण करने का | बाद में हम कुंवर को पकडके जाम साहिब को बोलेंगे की मजेवाडी के युद्ध में हुए हमारे नुकशान की भरपाई करो हमारा सामान वापस दो वरना हम आपके कुंवर को मुसलमान बना देंगे | इससे हमारी इज्जत भी रहेंगी और अहमदाबाद जाकर शाहबुदीन सूबेदार और बादशाह को भी खुश कर देंगे .|

इस बात को सुनने के बाद खुरम तैयार होकर अपने शस्त्र के साथ हाथी पर बैठा अपनी तोपों को आगे बढाया अपने सैन्य और घुड़सवार को लेकर तमाचन की तरफ चल पड़ा |

इस बात की जाम साहिब की छावनी में किसी को भनक तक नहीं थी | वह पर सभी आनंद-प्रमोद में मस्त थे | वही परअचानक आसमान में धुल उडती देख जेसा वजीर ने अपने चुनिदा सैनिको को आदेश दिया की “ये धुल किसकी हे पता करके आओ, मुझे लगता हे इन तुर्कों ने हमसे दगा किया हे | सैनिक तुरंत खबर लेके आए की खुरम की फ़ौज हमारे तरफ आगे बढ़ रही हे | इस बात को सुनते ही जेसा वजीर ने कुंवर जसाजी को कहा की “ आप जामनगर को पधारिए हम आपके सेवक यहाँ पे युद्ध करेंगे” कुंवर जेसाजी ने जवाब दिया की “ इस समय अगर में पीठ दिखा कर चला गया तो में राजपुत नहीं रहूँगा, जीतना हारना सब उपरवाले के हाथ में है, पर रणमैदान छोड़ कर चला जाना क्षात्र-धर्मं के खिलाफ है |”

कुंवर जसाजी ने ये कहकर अपनी फ़ौज को तैयार किया और उंड नदी को पार करते हुए सामने की तरफ आ पहोचे | दोनों तरफ से तोपों और बंदुके चलने लगी और कई सैनिक मरने लगे | ये देखकर बारोट कानदासजी रोह्डीआ ने जेसा वजीर से कहा की “हे वजीर तु सब युद्ध कला जनता हे, फिर भी हमारे लोग यहाँ मर रहे है, और तू कुछ बोल क्यों नहीं रहा ? इस तरह लड़ने से हमारी जीत नहीं होगी, मेरी मानो तो हर हर महादेव का नारा बुलाकर अब केसरिया करने का वक़्त आ गया हे, अपने घोड़े पर बैठकर मुग़ल सेना से भिड़ जाओ , फिर उन तुर्कों की क्या औकाद है हम देखते ही उनका संहार कर डालेंगे”

ये सुनकर जेसा वजीर और कुंवर जसाजी, भानजी दल, मेरामणजी, भाराजी सब हर हर महादेव का नारा लगाकर केसरिया करने को तैयार हो गए | हाथ में भाले लेकर सब मुग़ल सेना से भीड़ पडे तलवारे निकल कर सबको काटने लगे चारो तरफ खून ही दिख रहा था, मांसाहारी पक्षी आसमान में दिखने लगे, पुरा रणमैदान रक्त से लाल हो गया था | इतना बड़ा राजपुतो और मुगलो के बीच में युद्ध हुआ था की देखते ही देखते वह १५,००० लाशो से रणमैदान भर गया | खुरम की फ़ौज के सैनिक डर के मारे भागने लगे | खुरम खुद अपने हाथी में से उतरकर घोड़े पर बैठ के भाग गया | जाम श्री सताजी साहिब के सैन्य ने विसामण नाम के गाव तक मुग़ल फ़ौज का मारते मारते पिछा किया | वहां से वे रुक गए जीत के ढोल बजाते हुए रणमैदान में वापस आ कर बादशाही खजाने तंबू, मुग़ल के नगारे, ३२ हाथी, सेंकडो घोड़े, तोपे, रथ आदि लेकर कुंवर जसाजी के साथ जामनगर पधारे |

इतनी सी छोटी उमर में कुंवर जसाजी का ये अदभुत पराक्रम देखकर जाम सताजी बहुत खुश हो गए | उन्होंने जेसा वजीर, महेरामणजी, भाराजी , भानजी दल तथा तोगाजी सोढा आदि सरदारों को अमूल्य भेट अर्पण की इसके साथ ही जो सैनिक युद्ध में वीरगति को प्राप्त हो गए थे उनके परिवार को जागीर में जमीने और अमुक रमक देने का वचन दिया |

जाडेजा राजपुतो ने अपने राजा की गैरहाजरी में भी उनके सरदारों ने सूझ-बूझ का परिचय देकर और अपने से ज्यादा बड़ी मुगल फ़ौज जिससे लड़ने से भी बड़े-बड़े राजा महाराजा डरते थे उसको न केवल हराकर बल्कि रण-मैदान से भगाकर अदम्य शाहस और राजपुती शौर्य का परिचय दिया था |

References:
1- Yaduvansh prakash...pratham khand... page no 185,
2- Saurastra ka itihas page no.559
3---
http://rajputanasoch-kshatriyaitihas.blogspot.in/2015/09/the-battle-of-tamacha.html
4- भंवर अभिजीत सिंह जाडेजा जी 

जाडेजा राजपूतों की शौर्यगाथा का प्रतीक भूचर-मोरी का ऐतिहासिक युद्ध

(सम्वंत 1648)---------------
राजपूत एक वीर स्वाभिमानी और बलिदानी कौम जिनकी वीरता के दुश्मन भी कायल थे, जिनके जीते जी दुश्मन राजपूत राज्यो की प्रजा को छु तक नही पाये अपने रक्त से मातृभूमि को लाल करने वाले जिनके सिर कटने पर भी धड़ लड़ लड़ कर झुंझार हो गए।
आज हम आपको एक ऐसे युद्ध के बारे में बताएँगे जहा क्षात्र-धर्म का पालन करते हुए एक शरणार्थी मुस्लिम को दिए हुए अपने वचन के कारण हजारो राजपुतो ने अपने प्राण न्योछावर कर दिए | भूचर-मोरी का युद्ध सौराष्ट्र के इतिहास का सबसे बड़ा युद्ध माना जाता हे ,जहा पश्चिम के पादशाह का बिरुद मिलने वाले जामनगर के शासक और जाडेजा राजपुत राजवी जाम श्री सताजी से अपने से कई गुना अधिक बड़े और शक्तिशाली मुग़ल रियासत के सामने नहीं झुके | यह युद्ध इतना भयंकर था की इसे सौराष्ट्र का पानीपत भी कहा जाता है |इस युद्ध में दोनों पक्षों के एक लाख से ज्यादा सैनिक शहीद हुए.
युद्ध की पृष्ठभूमि-----
विक्रम सवंत १६२९ में दिल्ही के मुग़ल बादशाह जलालुदीन महमद अकबर ने गुजरात के आखिरी बादशाह मुज्जफर शाह तृतीय से गुजरात को जीत लिया | जिसके परिणाम स्वरुप मुजफ्फर शाह राजपिपला के जंगलो में जाकर कुछ समय के लिए छिप गया, फिर उसने गुजरात के सौराष्ट्र में स्थित जामनगर के राजा जाम सताजी तथा जूनागढ़ के नवाब दौलत खान और कुंडला के काठी लोमान खुमान के पास जाकेर उनसे सहायता लेकर ३०,००० हजार घुड़सवार और २०,००० सैनिक लेकर अहमदाबाद में भारी लुटपाट मचाई और अहमदाबाद, सूरत और भरूच ये तीन शहर कब्जे कर लिए | उस समय अहमदाबाद का मुग़ल सूबेदार मिर्ज़ा अब्दुल रहीम खान (खानेखाना) था | पर वो मुज्जफर शाह के हमले और लूटपाट को रोक नहीं सका | जिसकी वजह से अकबर ने अपने भाई मिर्ज़ा अजीज कोका को गुजरात के सूबेदार के रूप में नियुक्त किया | सूबेदार के रूप में नियुक्त होने के साथ ही उसने मुजफ्फर शाह को कद कर लिया, पर सन १५८३ (वि.सं. १६३९ )को मुजफ्फर शाह मुग़ल केद से भाग छुटा और सौराष्ट्र की तरफ भाग गया | मुजफ्फर शाह ने सौराष्ट्र के कई राजाओ से सहायता की मांग की, पर किसी ने उसकी मदद नहीं की,
आखिर में जामनगर के जाम सताजी ने उसको ये कह के आश्रय दिया की “ शरणागत की रक्षा करना क्षत्रिय का धर्मं है “ और उसके रहने के लिए बरडा डुंगर के क्षेत्र में व्यवस्था कर दी |

इस बात की खबर अहमदाबाद के सूबेदार मिर्ज़ा अजीज कोका को मिलते ही उसने मुजफ्फर शाह को पकड़ने के लिए एक बड़ा लश्कर तैयार किया और विरमगाम के पास में पड़ाव डाला, नवरोज खान तथा सैयद कासिम को एक छोटा लश्कर देकर उसने मोरवी की और इन दोनों को मजफ्फर शाह की खोज करने के लिए भेजा | मुजफ्फर शाह जामनगर में हे इस बात की खबर मिलने पर नवरोज खान ने जाम श्री सताजी को पत्र लिखा कि----
“आप गद्दार मुजफ्फर शाह को अपने राज्य में से निकल दो “ परंतु अपने पास शरणागत के लिए आये हुए को संकट के समय त्याग देना राजपूत धर्मं के खिलाफ है” ये सोच कर जाम श्री सताजी ने नवरोज खान की इस बात को ठुकरा दिया |
इस बात से गुस्से होकर नवरोज खान ने अपने लश्कर को जामनगर की और कुच करने का आदेश दिया | इस बात का पता चलते ही जाम साहिब ने बादशाह के लश्कर को अन्न-पानी की सामग्री उपलब्ध करानी रोक दी, और लश्कर की छावनियो पे हमला करना शुरु कर दिया तथा उनके हाथी, घोड़े व ऊंट को कब्जे में करके लश्कर को काफी नुकशान पहुँचाया |
सोरठी तवारीख में लिखा गया था की “ जाम शाहीब ने मुग़ल लश्कर को इतना नुकशान पहुँचाया और खाध्य सामग्री रोक दी थी की लश्करी छावनी में अनाज की कमी की वजह से उस समय में एक रूपये के भाव से एक शेर अनाज बिकने लगा था”
इस बात की खबर मिर्ज़ा अजीज कोका (जो विरामगाम के पास अपना लश्करी पड़ाव डालके पड़ा था) को मिलते ही उसने भी अपने बड़े लश्कर के साथ जामनगर की और कुछ कर दी और नवरोज खान और सैयद कासिम के सैन्य के साथ जुड़ गया | जाम श्री सताजी ने अपने अस्त्र-शस्त्र और अन्न सामग्री तो जामनगर में ही रखी थी इसलिए अजीज कोका ने अपने लश्कर को जामनगर की और कुच किया | जाम साहिब को जब इस बात की खबर मिली की अजीज कोका अपने सैन्य के साथ जामनगर की तरफ आ रहा हे तब उन्होंने भी अपने सैन्य को मुग़ल लश्कर की दिशा में कुच करवाया |
जामनगर से ५० किमी के अंतर पर स्थित ध्रोल के पास भूचर-मोरी के मैदान में जाम साहिब के लश्कर और मुग़ल लश्कर का आमना-सामना हुआ | उस समय जाम श्री सताजी की मदद के लिए जूनागढ़ के नवाब दौलत खान और कुंडला के काठी लोमा खुमान भी अपने सैन्य के साथ पहुच गए थे.
युद्ध की घटनाएँ----
इस ध्रोल के पास स्थित भुचर-मोरी के मैदान में दोनों लश्करो की और से छोटे छोटे हमले हुए लेकिन इन सभी हमलो में जाम साहिब का लश्कर जीत जाता था | २-३ माह तक ऐसा चलता लेकिन हर हमले में जाम साहिब के लश्कर की ही जीत होती थी | अजीज कोका समझ गया था की उसका लश्कर यहाँ नहीं जीत पाएगा | जिसके कारण उसने जाम साहिब को समाधान करने के लिए पत्र भिजवाया | इस बात की खबर जूनागढ़ के नवाब दौलत खान और काठी लोमा खुमान को पता चलने पर उन्होंने सोचा की “ अगर जाम साहिब ने समाधान से मना कर दिया और लड़ाई हुई तो जाम श्री सताजी की ही जीत होगी और वो हमारे राज्य भी अपने कब्जे में ले लेंगे, इसलिए हमे बादशाह के मुग़ल लश्कर के साथ मिल जाना चाहिए” | उन्होंने सूबे अजीज कोका को गुप्तचर द्वारा खबर भिजवाई की “ आप वापस हमला करो, लड़ाई शुरु होते ही हम आपके लश्कर के साथ मिल जाएँगे और जाम शाहीब के लश्कर पे हमला बोल देंगे” | ये खानगी खबर दौलत खान को मिलते ही उसने समाधान से मन हटाकर जाम साहिब को दुसरे दिन युद्ध का कह भिजवाया |
दूसरी दिन सुबह होते ही जाम साहिब श्री सताजी अपने लश्कर के साथ मुग़ल लश्कर पर टूट पडे और भयंकर युद्ध हुआ उसके परिणाम स्वरुप मुग़ल सैन्य हारने की कगार पर आ गया | ये देखकर नवाब दौलत खान और काठी लोमा खुमान जो जाम साहिब के लश्कर हरोड़ में खड़े थे , वो अपने २४,००० सैनिक के साथ जाम साहिब श्री सताजी को छोडकर मुग़ल लश्कर में मिल गए | जिसके वजह से लड़ाई तीन प्रहर तक लम्बी चली ,
उस समय जेसा वजीर ने जाम श्री सताजी को कहा की “ धोखेबाजो ने हमसे धोखा किया हे, हम लोग जीवित हे तब तक युद्ध को चालू रखेंगे आप अपने परिवार, वंश और गद्दी को बचाय रखने के लिए जामनगर चले जाइए | जाम साहिब को जेसा वजीर की ये सलाह योग्य लगने पर वे हाथी से उतरकर घोड़े पर चढ़ गए और अपने अंगरक्षक के साथ जामनगर की और चले गए, इस तरफ जेसा वजीर और कुमार जसाजी ने मुग़ल लश्कर के साथ लड़ाई को चालू रखा |
दूसरी तरफ इस युद्ध से अनजान जाम साहिब के पाटवी कुंवर अजाजी की शादी हो रही थी इसलिए वे भी जामनगर में ही थे | उनको जब जाम श्री सताजी के जामनगर आने की खबर मिली और पता चला की युद्ध अभी भी चालू ही हे , वे अपने ५०० राजपुत जो जानैया(शादी में दुल्हे की जान में साथ में होने वाले लोग ) थे तथा नाग वजीर को साथ में लेकर भूचर मोरी के मैदान में आ पहोचे | गौर तलब देखने वाली बात ये हे की इस जगह से अतीत साधू की जमात जो हिंगलाज माता की यात्रा पे जा रहे थे वे लश्कर को देखकर जाम साहिब के लश्कर में मिल गए थे |
दुसरे दिन सुबह दोनों लश्करो के बीच युद्ध शुरु हो गया | मुग़ल शाही लश्कर की दाईनी हरावल के सेनापति सैयद कासिम, नवरंग खान और गुजर खान थे | वही बाई हरावल के सेनापति मशहुर सरदार महमद रफ़ी था | हुमायूँ के बेटे मिर्ज़ा मरहम बिच की हरावल का सेनापति था और उसके आगे मिर्ज़ा अनवर और नवाब आजिम था |
जाम श्री साहिब सताजी के सैन्य के अग्र भाग का आधिपत्य जेसा वजीर और कुंवर अजाजी ने किया था | दाईनी हरावल में कुंवर जसाजी और महेरामणजी दुंगरानी थे,वही बाई हरावल में नागडा वजीर , दाह्यो लाड़क, भानजी दल थे | दोनों और से तोपों के गोले दागने के साथ ही युद्ध शुरु हुआ ,जिसके साथ ही महमद रफ़ी ने अपने लश्कर के साथ की जाम श्री के लश्कर पे हमला किया | दूसरी तरफ नवाब अनवर तथा गुजर खान ने कुंवर अजाजी और जेसा वजीर और अतीत साधू की जमात जिसकी संख्या १५०० थी उन पर हमला बोल दिया |
एक लाख से ज्यादा सैनिक मुग़ल के शाही के लश्कर में थे ,जिसमे हिन्दू और मुस्लिम दोनों थे | जाम साहिब के सैनिक की संख्या इनके मुकाबले बहुत कम होने साथ ही में अपने २४,००० साथियो द्वारा धोखा होने पर मुग़ल लश्कर धीरे धीरे जीत की तरफ बढ़ रहा था | इस बात को देखकर कुंवर श्री अजाजी ने अपने घोड़े को दौड़ाकर मिर्ज़ा अजीज कोका के हाथी के पास ला खड़ा किया | उन्होंने अपने घोड़े से लम्बी छलांग मराके घोड़े के अगले दोनों पाव अजीज कोका के हाथी के दांत पर टिका दिए, और अपने भाले से सूबेदार पर ज़ोरदार वार किया जिसके ऊपर एक प्राचीन दोहा भी है की:-
अजमलियो अलंधे, लायो लाखासर धणि ||
दंतूशळ पग दे, अंबाडी अणिऐ हणि || १ ||
पर अजीज कोका हाथी की अंबाडी की कोठी में छुप गया, जिससे भाला अंबाडी के किनारे को चीरते हुए हाथी की पीठ के आरपार निकल के निचे जमीन में घुस गया | उसी समय एक मुग़ल सैनिक ने अजाजी के पीछे से आके तलवार का वार कर दिया इसे देखकर सभी राजपुत हर हर महादेव के नाद के साथ मुग़ल सैनिक पर टूट पडे | युद्ध में हजारो लोगो की क़त्ल करने के बाद जेसा वजीर , महेरामणजी दुंगराणी, भानजी दल, दह्यो लाडक, नाग वजीर और तोगाजी सोढा वीरगति को प्राप्त हुए | वही उसी तरफ मुग़ल शाही लश्कर में महमद रफ़ी, सैयद सफुर्दीन, सैयद कबीर, सैयद अली खान मारे गए |
शाही लश्कर में मुख्य सूबा मिर्ज़ा अजीज कोका और जाम श्री के लश्कर में कुमार श्री जसाजी और थोड़े सैनिक ही बचे थे |
युद्ध के बारे में वहा पे एक शिलालेख भी जाम अजाजी की डेरी में हे , वही बाजूमे दीवार पर एक पुरातन चित्र भी है जिसमे जाम अजाजी अपने घोड़े को कुदाकर हाथी के ऊपर बैठे हुए सूबे की तरफ भाला का प्रहार करते हे...
सवंत सोळ अड़तालमें , श्रावण मास उदार |
जाम अजो सुरपुर गया, वद सातम बुधवार || १ ||
ओगणीसे चौदह परा, विभो जाम विचार |
महामास सुद पांचमे कीनो जिर्नोध्धार || २ ||
जेसो, दाह्यो, नागडो, महेरामण, दलभाण |
अजमल भेला आवटे, पांचे बौध प्रमाण || ३ ||
आजम कोको मारिओ, सुबो मन पसताईं |
दल केता गारत करे, रन घण जंग रचाय || ४ ||
निजामुदीन अहमद लिखते हे की ये लड़ाई हिजरी सवंत १००१ के रजब माह की तारीख ६ को हुई थी | और जामनगर के पुरातन दस्तावेज में भुचर-मोरी की लड़ाई की तारीख विक्रम सवंत १६४८ में हालारी श्रावन वाद ७ को होने को लिखी हे...|
युध्ध में नागडा वजीर ने भी अदभुत शौर्य दिखाया था | कहते हे की जब वह छोटा था तब जब उसकी माँ बैठी हुई होती थी तब उसके स्तन को पीछे खड़ा होकर स्तन से दूध पिता था | इस घटना को एक बार जाम सताजी ने देखा तो उनको बहुत हसी आई थी | जब नागडा वजीर युद्ध में लड़ने के लिए आया था तब उसके पिता जेसा वजीर ने कहा था की “हे नागडा तू जब छोटा था तब जाम साहिब ने तुझे तेरी मा को खड़े होकर स्तनपान करता हुआ देखा था और हस पडे थे, अब समय आ गया हे अपनी मा के दूध की ताकत दिखने का, वो दूध एक शेरनी का हे इस बात को रणभूमि में साबित करना” |
जब युद्ध चल रहा था तब नागडा वजीर ने अदभुत शौर्य दिखाया था | उसके दोनों हाथ के पंजे कट चुके थे लेकिन उसने अपने दोनों हाथ की कलाई की हड्डी में भाले को ठुसकर दुश्मनों को मरना चालू रखा था, इतना ही नही उसकी ऊंचाई भी बहुत होने के कारण उसने बादशाही लश्कर के हाथी के पेट में अपने कटे हुए हाथ को घुसाकर हाथी के पेट में बड़े बड़े घाव(खड्डे की तरह) कर दिए थे जिसके कारण हाथी के पेट से लहू की धारा बहने लगी थी...नागडा वजीर के ऊपर दुहे भी रचे हुए हे की...
भलीए पखे भलां, नर नागडा निपजे नहीं ||
जोयो जोमांना, कुंताना जेवो करण || १ ||
अर्थ:- कुंताजी से जैसे कर्ण जैसा महा पराक्रमी पुत्र उत्पन हुआ, वैसे ही जोमा से नागडा वजीर जैसा महा पराक्रमी पुत्र उत्पन हुआ, इसिलिए कहेते हे की वीरांगनाओ के सिवा महापराक्रमी वीर पुरुष उत्पन नहीं होते...||
जहां पड़ दीठस नाग जबान, सकोकर उभगयंद समान ||
पड़ी सहजोई सचीपहचाण, पट्टकिय नागह लोथ प्रमाण || १ ||
अर्थ:- भुचर-मोरी के मैदान में जब नागडा वजीर के लोथ अर्थात मृत शरीर को उठाया तब गयंद नामके हाथी के समान उसकी उंचाय मालुम होने से सूबेदार को उसकी ऊँचाई का विश्वास हुआ था |
कुमार श्री अजाजी युद्धभूमि में शहीद हो गए और बादशाह का लश्कर नगर की तरफ आ रहा हे यह खबर मिलते ही जाम सताजी ने जनान की सभी राणी को जहाज़ में बिठाकर सुचना दी की अगर मुस्लिम सैन्य आपकी तरफ आए तो अपने जहाज़ को समुद्र में डूबा देना, और अपने कुछ बाकि बचे सैन्य के साथ पहाड़ी इलाके में बदला लेने के लिए निकल पडे क्योकि ज़्यादातर सैन्य भूचर मोरी में शहीद हो गया था |
इस तरफ राणियो का जहाज बंदरगाह से निकले इससे पहेले सचाणा के बारोट इसरदासजी के पुत्र गोपाल बारोट ने कुमार श्री अजाजी (जो रणक्षेत्र में शहीद हुए थे उनकी) की पगड़ी को लाकर राणी को दिखा दी | ये देखकर राणी को सत चड़ा और उन्होंने सैनिको को आज्ञा देकर अपना रथ लेकर भूचर-मोरी के रणक्षेत्र की और चल पड़ी | इस तरफ बादशाह के मुस्लिम सैनिक नगर की और आ रहे थे | उन्होंने राणी के रथ को देखकर उनपर आक्रमण कर दिया, लेकिन उस समय ध्रोल के ठाकोर साहिब अपने भायती राजपुतो के साथ वहा आ पहुचे और मुस्लिम सैन्य को बताया की ये राणी सती होने के लिए आई हे | उन्होंने मुस्लिम सैन्य के साथ समझौता करके कुंवर अजाजी की राणी जिनकी शादी भी पूरी नहीं हुई थी उनको सती होने में पूरी मदद की |
इस युद्ध के अंत में सूबा अजीज कोका जामनगर में आया, और वह पर आके उसने भारी लुटफात मचाई | बाद में उसे पता चला की मुज्जफर शाह जूनागढ़ की और भाग गया हे | उसने नवरंग खान, सैयद कासम और गुज्जरखान को साथ में लेकर जूनागढ़ की और प्रयाण किया | इस बात की खबर जाम सताजी को मिलते ही उसने मुज्जफर शाह को बरडा डुंगर के विस्तार में शरणागत दी...
धन्य हे ऐसे राजपुत जाम सत्रसाल (सताजी) को जिन्होंने क्षत्रिय धर्म का पालन करते हुए अपने राजपाट को त्याग करके एक शरणार्थी की रक्षा की |
बादशाही लश्कर का बारूद और अन्न सामग्री पूरी होने के वजह से उन्होंने जूनागढ़ से लश्कर हटाकर जामनगर में सूबा रखकर बाकि के लश्कर को अहमदाबाद भेज दिया | मुजफ्फर शाह को अहसास हुआ की मेरे लिए जिसने अपने लाखो को शहीद कर दिया और इतनी तकलीफ उठाई उनको अब ज्यादा परेशान नहीं करना चाहिए, इसलिए वो बरडा डुंगर से भाग गया और कच्छ में राव भारमल के शरण में गया |
जामनगर में जाम सताजी की गैरहाजरी का लाभ लेकर राणपुर के जेठवा राणा रामदेवजी के कुंवर राणा भाणजी के राणी कलाबाई ने अपनी फ़ौज से अपना गया हुआ प्रदेश जो जाम साहब में जीत लिया था उसको वापस कब्जे में कर लिया और छाया में राजधानी की स्थापना कर कुंवर खिमाजी को गद्दी पे बिठा दिया |
जब सूबेदार को ऐसी खबर मिली की मुजफ्फर शाह जुनागढ़ में हे तो उसने वहां पर फ़ौज को भेजकर जाम सताजी को पत्र मारफत संदेसा भिजवाया की “जूनागढ़ के नवाब के ऊपर जब तक हमारा सैन्य रहे तब तक आपको शाही लश्कर के अन्न-पानी और राशन की सामग्री मोहैया करानी होगी और इस बात से जाम सताजी के साथ सुलह करके जाम सताजी को वापस वि.सं. १६४९ के माह सुद ३ को जामनगर की गद्दी को सताजी पर बिठाया |
सूबेदार को जब पता चला की मुज्जफर शाह कच्छ में हे तो उन्होंने कच्छ के राव भारमल को संदेसा भिजवाया कच्छ के राव भारमल ने संदेसा मिलते ही मुजफ्फर शाह को अबदल्ला खान की फ़ौज में हाजिर होने के लिए भेजा, और उसे अहमदाबाद की और भेजा लेकिन रास्ते में मुज्जफर शाह ने ध्रोल के पास आत्महत्या कर ली.|
इस तरह जाम सताजी ने एक मुस्लिम सरणार्थी को दिए हुए वचन को निभाते हुए अपनी राजपाट गवाकर और हजारो राजपूतों की सेना के शहीद होते हुए भी अपने क्षात्र-धर्म का पालन किया |||
ध्रोल के पादर में भुचर-मोरी के मैदान में आज भी हर साल श्रावण वद सातम को हज़ारों की संख्या में राजपुत इकठ्ठे होते हे और इन वीर शहीदों की श्रधांजली अर्पण करते हे यहाँ पर बड़ी मात्र में अन्य जाती के लोग भी इन शहीदों को श्रंधाजली अर्पण करते हे | युध्ध में इतनी भारी मात्रा में शहादत हुई थी की आज की तारीख में भी भूचर-मोरी के मैदान की मिट्टी लहू के लाल रंग की है |||
संदर्भ:-
1. “यदुवंश प्रकाश” -- लेखक जामनगर स्टेट राजकवि “मावदानजी भीमजी रत्नु” -- पृष्ठ संख्या 191 से 228…
2. “विभा-विलास” -- देवनागरी लिपि में लिखा हुआ यदुवंश का पुष्तक जिसके लेखक हे -- चारण कवि “व्रजमालजी परबतजी माहेडू”
3. “नगर-नवानगर-जामनगर”--- लेखस इतिहासकार हरकिशन जोषी – पृष्ठ संख्या 71 से 76...
4. “सौराष्ट्र का इतिहास” – लेखक इतिहासकार शंभूप्रसाद हरप्रसाद देसाई – पृष्ठ संख्या 563 से 567…
5. "वंश सुधाकर" -- राज बारोट श्री अभेसंगभाई पोपटभाई
6.राष्ट्रीय शायर ज़वेरचंद मेघाणी लिखित "समरांगन" पुस्तक जो इस युध्ध पर आधारित है...
7. भगवत-गो-मंडल पुस्तक
8. रासमाणा भाग 1-2 -- किन्लोस फोर्बेस
9. जाडेजा राजपूतो का इतिहास -- राजवैध जिवराम कालिदास
10. जामनगर की यशगाथा -- रतिलाल माधवानी
11. जामनगर का इतिहास --दोलारराय मांकड़
12. निजामुदीन अहमद लिखित मुग़लो के शाही दस्तावेज
13. “तारीखे सोरठ” – जूनागढ़ के नवाबी शाशन का इतिहास
14. “मिरांते सिकंदरी” – मुग़ल शाही दस्तावेज
15. Jam The Great -- Maneklal Shah
16. land of Ranji & Dulip
जब शरणागत 140 सुमरा-मुस्लिम कन्या को बचाने के लिए जाडेजा राजपुतो ने किया जौहर और शाका...====================

बात हे विक्रम सवंत 1356(ई.स. 1309) की तब गुजरात के कच्छ क्षेत्र में जाडेजा राजपुतो का राज था |कच्छ के वडसर में जाडेजा राजवी जाम अबडाजी गद्दी पर बिराजमान थे | जाम अबडाजी एक महाधर्मात्मा और वीरपुरुष होने की वजह से उनको “अबडो-अडभंग, अबडो अणनमी” नाम से भी जाना जाता था |


उस समय सिंध के उमरकोट में हमीर सुमरा(सुमरा परमार वंश की शाखा थे जो धर्म परिवर्तन कर मुस्लिम बन गए थे।अब सिंध पाकिस्तान में हैं) जिसको सोरठ के चुडासमा राजवी रा’नवघन ने अपनी मुँह बोली बहेन जासल का अपहरण करने पर मार डाला था, उसके वंश में धोधा और चनसेर नामके दो मुस्लिम-सुमरा शाशक राज करते थे | इन दोनों भाईओ के बिच में आपसी कलह बहुत चलता रहेता था, जिसकी वजह से छोटे भाई चनसेर ने उमरकोट की गद्दी हथियाने के लिए दिल्ली के शाशक अलाउदिन-खिलजी से जाके कहा की “आपके जनान-खाने के लिए अच्छी सी सुन्दर सुमरी कन्या मैंने राखी हुई थी, पर मेरे भाई धोधे ने मेरा राज्य हथिया लिया और खुद सिंध की गद्दी पर बैठ गया | इसलिए में आपके पास सहायता मांगने के लिए आय हु” और कहा की “आप खुद सिंध पधारिए और मुझे मेरी गद्दी वापस दिलवाए तथा स्वयं उस स्वरूपवान सुमरी कन्याओ को कब्जे में ले कर दिल्ही अपने जनान-खाने के लिए ले जाए |

इस बात को सुनकर अलाउदीन खिलजी ने अपना लश्कर लेकर सिंध पर चड़ाई की और अपने सेनापति हुसैन खान के द्वारा धोधा को संदेसा भिजवाया की दिल्लीपति अलाउदीन खिलजी के साथ उस सुमरी कन्याओ का विवाह करवाओ” लेकिन धोधा ने इस बात से मन कर दिया और वो अलाउदीन के साथ लड़ने के लिए तैयार हो गया | और युद्ध में जाते समय उसने अपने वफादार भाग सुमरे को कहा की अगर मुझे कुछ हो जाए तो इन सुमरियो को कच्छ के जाम अबडाजी के पास भेज देना, एक वो ही वीर पुरुष हे जो इन सुमरियो को बचा सकते हे | इतना कह कर धोधा सुमरा अपनी फ़ौज के साथ अलाउदीन से भीड़ गया | उसकी सेना अलाउदीन की विशाल सेना के सामने बहुत छोटी होने के कारण वो युद्ध भूमि में ही मारा गया | जब सरदार हुसैन खान ने घोघे की लाश को पैरो से लात मरी तब उसके भाई चनसेर को बहुत अफ़सोस हुआ और उसने हुसैन खान का सिर धड से अलग कर दिया, बाद में वो भी अलाउदीन के लश्कर द्वारा मारा गया | बाद में अलाउदीन ने जब उमरकोट नगर में जाके देखा तो वह पे सुमरि कन्याओ का नमो निशान नहीं था | उसे बाद में पता चला की सभी सुमरी कन्या कच्छ की तरह जा चुकी हे, इसलिए उसने अपने लश्कर को कच्छ की तरफ कुच करवाया |

इस तरफ कच्छ में भाग सुमरा उस 147 मुस्लिम कन्याओ के साथ कच्छ के वडसर के पास आए, पर ये सुमरी कन्या बहुत चलने के कारण थकी हुई थी जिससे उनको कच्छ के रोहा पर्वत पर आराम करने के लिए कहेकर खुद जाम अबडाजी से मिला और उनसे कहा की “मुझे सिंध के धोधा सुमरा ने आपके पास भेजा हे और सब हकीकत जाम अबडाजी को बताई की अब आप ही इन सुमरी कन्याओ को अलाउदीन के जनान खाने से बचा सकते हे” इसे सुनकर अबडाजी ने संदेशा भिजवाया की की...

भले आवयु भेनरू, अबडो चयतो ईय
अनदिठी आडो फीरां, से डिठे दियां किय...?
(अर्थ:- मेरी बहेनो अच्छा किया आप मेरे पास आ गई, अगर मेरे ध्यान में भी कुछ नही हो फिर भी में उसको बचाने के लिए जाता हु, आप तो स्वयं मेरे पास आई हों अब आपको कैसे जाने दूँ, आप निश्चिंत रहिये।)
और इन सुमरी कन्या को लाने के लिए जाम अबडाजी ने बैल-गाडे भिजवाए पर इन बैल-गाड़े को सुमरी कन्या दुश्मन का लश्कर समज बैठी और डर के मारे इन 147 सुमरी कन्या में से 7 ने वही पर आत्म-हत्या कर लि | बाकि की 140 सुमरी कन्या वहा से वडसर आ पहुची | बादशाह का लश्कर वडसर की तरफ आ रहा हे इस बात को जानकर जाम अबडाजी ने रोहा पर्वत के उपर रात को मशाले जलवाकर खुद बादशाह के लश्कर को युद्ध के लिए आमत्रित किया...!!!अलाउदीन का लश्कर वडसर के पास आ कर रुक गया और दोनों तरफ फौजे इक्कठा हो गई |
जाम अबडाजी की सेना में ओरसा नामका एक मेघवाल जाती का आदमी भी था जो बहुत ही बहादुर था, उसने जाम अबडाजी को कहा की अगर आज्ञा दे तो में अकेला ही रात को जाकर उस अलाउदीन का सिर काट के आपके पास रख दु, लेकिन जाम अबडाजी ने उसे कहा की “ऐसे कपट से वार दुशमन को मारने वाला में जाम अबडाजी नहीं हु फिर भी तुम कुछ ऐसा करो जिससे अलाउदीन की रूह कांप उठे” | ये ओरसा मेघवाल जाती से था जो मृत पशुओ की खाल उतारने का कम करते थे, उसने एक युक्ति निकाली और रात को वो कुत्ते की खाल पहेनकर अलाउदीन के लश्कर में भीतर जाता हुआ उसके तंबू में घुस गया, उसका मन तो सोते हुए अलाउदीन का सिर काटने का ही था, पर जाम अबडाजी के मना करने की वजह से उसने अलाउदीन का शाही खंजर निकल लिया और उसकी जगह अपना खाल उधेड़ने वाला खंजर रख दिया | सुबह फिर जाम अबडाजी ने अलाउदीन खिलजी को संदेशा भिजवाया की “अगर में चाहू तो कपट से तेरा सिर धड से अलग करवा सकता था लेकिन क्षत्रिय ना ही ऐसा करते हे न ही दुसरो से करवाते हैे, इसलिए अब अभी समय है चला जा यहाँ से और भूल जा मुस्लिम सुमरी कन्या को”, और निशानी के तौर पर उसको उसका शाही खंजर भिजवाया | जिसे देखकर अलाउदीन हक्का-बक्का रह गया | उसने सोचा की जिसका एक आदमी उसके इशारे पे ये कार्य कर सकता हे उसके साथ युद्ध नही करता ही अच्छा हैे | इसलिए उसने जाम अबडाजी जो पत्र लिखा की अगर आप उस मुस्लिम सुमरी कन्याओ को मेरे हवाले कर दे तो में आपको कोई भी नुकशान नहीं करूँगा | लेकिन जाम अबडाजी ने जवाब दिया की “मैंने उन सुमरी कन्या को वचन दिया हे की जब तक में जिन्दा हु तब तक आपको उनके साथ कुछ नहीं करने दूंगा, और क्षत्रिय कभी अपनी जुबान से नहीं हिलता” भूल जा उस कन्या को |

इसे सुनकर दुसरे दिन सुबह फिर अलाउदीन ने अबडाजी के लश्कर पर हमला बोल दिया | जाम अबडाजी और ओरसा अपनी सेना के साथ अलाउदीन के लश्कर को काटते काटते उसके हाथी के पास पहुच गए थे तभी ओरसा पर किसी ने पीछे से हमला कर उसे मार डाला | इस पराक्रम को देखकर अलाउदीन ने दूसरी बार जाम अबडाजी को सुलह के लिए संदेसा भिजवाया लेकिन जाम अबडाजी अपनी बात से हिलने वाले कहा थे | दुसरे दिन फिर युद्ध शुरु हो गया इस तरह ये युद्ध ७२ दिनों तक चलता रहा धीरे धीरे जाम अबडाजी का सैन्य कम होता जा रहा था | आखिर में उन्होंने अपनि राणी और राज घराने की औरतो को बुलाकर कहा की अब अंत आ गया हे हम ज्यादा देर तक अलाउदीन के लश्कर का सामना नहीं कर सकेंगे | और उन्होंने सुमरी कन्याओ को वडसर गाव से 2 कोस दूर पर्वत पर भिजवाया और साथ में दूध का प्याला देकर कहा की जब इस दूध का रंग लाल हो जाए तो समाज लेना में इस दुनिया में नहीं रहा |

जिसे सुनकर राजपुत क्षत्राणी ने वडसर के गढ़ के बीचो बिच चंदन की लकड़ी इकठ्ठा की उसकी श्रीफल धुप आदि से पूजा करके फिर चिता जलाके एक के बाद एक राजपुत क्षत्राणी “जय भवानी” के नारे के साथ चिता पर चड गई और इस तरह जौहर व्रत का अनुष्ठान किया | जिसके बाद सभी राजपुत योध्दाओं ने माथे पे राजपुत क्षत्राणी की भस्म लगाकर केसरिया साफा पहेनकर “हर हर महादेव” के नारे के साथ अलाउदीन के लश्कर पर टूट पडे |

जाम अबडाजी अदभुत पराक्रम दिखाकर युद्ध भूमि में सहीद हो गए | एस तरफ सुमरी कन्या के पास रखे दूध के प्याले में दूध का रंग लाल हो गया | वे समज गई की अब उनको बचाने वाला कोई नहीं रहा | कहेते है की उस समय उनकी ऊपरवाले की प्रार्थना से ज़मीन फट गई और सभी सुमरी कन्या उसमे समा गई, एक कन्या का दुप्पटा बहार रह गया था क्योकि उसको किसी मर्द ने छुआ था | अलाउदीन के हाथ में कुछ नहीं लगा और वो भारी पस्तावे के साथ वापस चला गया | बाद में वडसर की गद्दी पे अबडाजी के पुत्र डुंगरसिंह जो लड़ाई के वक़्त उसके माम के यहाँ थे वो बेठे |

ये घटना विक्रम सवंत 1356 में फागुन वद 1 को हुई थी | इस युद्ध में जाम अबडाजी के भाई जाम मोडजी भी सहीद हुए थे | आज भी वडसर गाव जो कच्छ जिल्ले की नलिया तहेसिल में स्थित हे, उस वडसर गाव में नदी के किनारे जाम अबडाजी और जाम मोडजी दोनों के स्मारक मौजूद हे, और हर साल वहा पे होली के दुसरे दिन यानि फागुन वद 1 को इन स्मारकों को लोग वहा पे आकर पूजा करते हैे | और हर साल जन्माष्टमी को वह पे मेला भी लगता है |

कच्छ का लोकसाहित्य में आज भी जाम अबडाजी को याद किया जाता हे उनपे बने काव्यो द्वारा, जिसमे से कुछ पंक्तिया यहाँ पे रख रहे हे....

अठ मुंठुं जे ज्युं मुछदियुं, सोरो हाथ धडो,
सरण रखंधळ सुमरीऊँ, अभंग भड अबडो ||
(अर्थ:- जिसकी मुछे आठ मुठ जितनी लंबी है, और जिसका शरीर सोलह बाज़ुओ जितना ताकतवर है, वो अनभंग अबडा ही शरणागत सुमरियो की रक्षा कर सकता है)

जखरा ! तू जस खरो ब्या मीडे ऐ खान,
मिट्टी उन मकान, असल हुई इतरी ||
(अर्थ:- हे जाम जखरा(अबडाजी का दूसरा नाम) सही में यशस्वी तो तू ही है. दुसरे तो मात्रा कहेने के है | तू जिस मिट्टी से बना है, वो सिर्फ तेरे लिए ही बनी थी किसी और के लिए नहीं |)

जखरा ! तुं जिए, तोजो, मंचो केनि म सुणा,
अखिये ने हिये, नालो तोजे नेहजो ||
(अर्थ:- हे जखरा जाम , तू सदा इतिहास में अमर रहेगा | हमारी आंखे और अंतर में तेरा नाम हमेशा अमर रहेगा |)

जखरे जेडो जुवान, दिसां न को देहमे,
मिट्टी उन मकान असल हुई इतरी ||
(अर्थ:- जाम जखरा जेसा वीर पुरे देशमें एक भी नहीं है, वो जिस मिट्टी से बना था उस मिट्टी से और कोई नहीं बना |)

संदर्भ---:1.http://rajputanasoch-kshatriyaitihas.blogspot.hk/2015/09/140.html
2. यदुवंश प्रकाश- लेखक राजकवि मावदानजी भीमजी रत्नु - पृष्ठ संख्या 81 से 85.
3. कच्छ- कलाधर(कच्छ का इतिहास) - लेखक दुलेराय काराणी - पृष्ठ संख्या 120 से 140.

A special Thanks and Credit for this Post to : Bhanwar Abhijitsinh Jadeja

टीपू सुल्तान हीरो से 'औरंगजेब

टीपू सुल्तान एंटी हिंदू था या नहीं, इस पर बहस होती रहेगी. लेकिन आईए, आपको बताते हैं इतिहास में दर्ज टीपू सुल्तान से जुड़ी वे बातें जो उसे हीरो से 'औरंगजेब' बना देती हैं...
1. 19वीं सदी में ब्रिटिश गवर्मेंट के अधिकारी और लेखक विलियम लोगान ने अपनी किताब 'मालाबार मैनुअल' में लिखा है कि कैसे टीपू सुल्तान ने अपने 30,000 सैनिकों के दल के साथ कालीकट में तबाही मचाई थी. टीपू सुल्तान हाथी पर सवार था और उसके पीछे उसकी विशाल सेना चल रही थी. पुरुषों और महिलाओं को सरेआम फांसी दी गई. उनके बच्चों को उन्हीं के गले में बांध पर लटकाया गया.
2. इसी किताब में विलियम यह भी लिखते हैं कि शहर के मंदिर और चर्चों को तोड़ने के आदेश दिए गए. यहीं नहीं, हिंदू और इसाई महिलाओं की शादी जबरन मुस्लिम युवकों से कराई गई. पुरुषों से मुस्लिम धर्म अपनाने को कहा गया और जिसने भी इससे इंकार किया उसे मार डालने का आदेश दिया गया.
3. कई जगहों पर उस पत्र का भी जिक्र मिलता है, जिसे टीपू सुल्तान ने सईद अब्दुल दुलाई और अपने एक अधिकारी जमान खान के नाम लिखा है. पत्र के अनुसार टीपू सुल्तान लिखता है, 'पैगंबर मोहम्मद और अल्लाह के करम से कालीकट के सभी हिंदूओं को मुसलमान बना दिया है. केवल कोचिन स्टेट के सीमवर्ती इलाकों के कुछ लोगों का धर्म परिवर्तन अभी नहीं कराया जा सका है. मैं जल्द ही इसमें भी कामयाबी हासिल कर लूंगा.'
4. यहां 1964 में प्रकाशित किताब 'लाइफ ऑफ टीपू सुल्तान' का जिक्र भी जरूरी है. इसमें लिखा गया है कि उसने तब मालाबार क्षेत्र में एक लाख से ज्यादा हिंदुओं और 70,000 से ज्यादा ईसाइयों को मुस्लिम धर्म अपनाने के लिए मजबूर किया.
5. इस किताब के अनुसार धर्म परिवर्तन टीपू सुल्तान का असल मकसद था, इसलिए उसने इसे बढ़ावा दिया. जिन लोगों ने इस्लाम स्वीकार किया, उन्हें मजबूरी में अपने बच्चों की शिक्षा भी इस्लाम के अनुसार देनी पड़ी. इनमें से कई लोगों को बाद में टीपू सुल्तान की सेना में शामिल किया गया और अच्छे ओहदे दिए गए.
6. टीपू सुल्तान के ऐसे पत्रों का भी जिक्र मिलता है, जिसमें उसने फ्रेंच शासकों के साथ मिलकर अंग्रेजों को भगाने और फिर उनके साथ भारत के बंटवारे की बात की. ऐसा भी जिक्र मिलता है कि उसने तब अफगान शासक जमान शाह को भारत पर चढ़ाई करने का निमंत्रण दिया, ताकि यहां इस्लाम को और बढ़ावा मिल सके.
कर्नाटक सरकार द्वारा धर्मान्ध शासक टीपू सुल्तान की जयंती सरकारी खर्च पर मनाई जा रही है।
इस निर्णय का विश्व हिन्दू परिषद और बीजेपी द्वारा जमकर विरोध किया जा रहा है जो उचित है।
टीपू हिन्दुओ का बलात् धर्मान्तरण कराने और नरसंहार करने में ओरंगजेब से किसी भी तरह कम नही था फिर भी वामपंथी इतिहासकारो ने नेहरूवादी कांग्रेस की शह पर उसका महिमामण्डन कर इतिहास को विकृत करने का काम किया है।
बीजेपी नेता और संघ परिवार विरोध करने से पहले अपने गिरेबान में झाँककर देख लें कि विकृत इतिहास के शुद्धिकरण का कार्य केंद्र सरकार के अधीन मानव संसाधन विकास मंत्रालय का है जिसमे अटल सरकार में मुरली मनोहर जोशी ने शानदार कार्य किया था और विकृत इतिहास को शुद्ध करवाने का ईमानदारी से प्रयास किया था।जिसे पिछले दस साल में फिर से बिगाड़ दिया गया।
अब मोदी जी ने यह दायित्व अपनी पसन्द से जिस स्मृति ईरानी को दिया है वो स्नातक भी नही है।पिछले डेढ़ साल में स्मृति ईरानी के मंत्रालय ने वामपंथी इतिहास को शुद्ध करने की दिशा में क्या कार्य किया है संघ परिवार के सदस्य इसका आकलन करें।
क्या इसके लिए भी राज्य सभा में बहुमत न होने का बहाना है???
अगर बच्चे इतिहास की किताबो में टीपू सुल्तान को महान पढ़ेंगे तो वो उसे महान ही समझेंगे चाहे कितना ही विरोध प्रदर्शन कर लो कोई लाभ नही।
एक तरफ मानव संसाधन विकास मंत्रालय के अधीन पाठ्यक्रम में टीपू को महान बताना और वहीँ संघ परिवार द्वारा टीपू की जयंती मनाए जाने का विरोध दोहरा मापदण्ड नही तो और क्या है??????

Historical Research on the use of word "Rajput"for Kshatriyas

Historical Research on the use of word "Rajput"for Kshatriyas .क्षत्रियों के लिए राजपूत शब्द के प्रयोग का ऐतिहासिक शोध ।
राजपूत शब्द का उच्चारण करते ही "राजपुताना "स्म्रति पटल पर तुरंत ही आ जाता है ।राजपुताना राजपूत जाति का मुख्य केंद्र था ।भारतवर्ष के इतिहास में राजपूत जाति और राजपुताना का एक विशेष स्थान है ।इस समय भी राजपूत हिन्दुस्तान की वीर जातियों में माने जाते है ।ईसा की शताब्दी से पूर्व राजपूतों को "क्षत्रिय "नाम से पुकारते थे और हिन्दुओं में साहसी व् पराक्रमी जाति भी यही थी जिसके हाथ में हिंदुस्तान भर की सत्ता थी और जिससे अरब ,अफगान ,और तुर्क आदि विदेशी जातियों को उत्तर -पश्चिम भाग से आकर टक्कर लेनी पडी थी ।
7वीं शताब्दी से लगाकर 18 वीं शताबदी तक हिंदुस्तान में बड़ा संघर्ष का समय था ।अरब के आक्रमणकारी मुसलमान योद्धाओं ने प्रथम तो सिंध में राजूतों से लोहा लिया बाद में महमूद गजनी ,गौरी ,ख़िलजी वंशों आदि से इनको दवाने की चेष्टा की ,फिर तुर्क व् मुगलों ने भी ।उस आपत्ति काल में भी राजपूत अपने देश व् मातृभूमि की रक्षा के लिए ,आन और स्त्रियों के मान के लिए ,जीवन न्योछावर करते रहे और अपना सुवतंत्र जीवन किसी न किसी रूप में कायम रखा ।दुःख से कहना पड़ता है कि जिस प्रकार से ब्रिटिशकालमें वीर राजपूतों का पराभव व् पतन हुआ है वैसा कभी भी नहीं हुआ ।राजपूतों का आदर्श सिर्फ यही रहा है कि जीवन संग्राम में विजय पाकर ख्याति के साथ मारना हमारा धर्म है न कि घर में खटिया पर जराजीर्ण होकर प्राण छोड़ना ।
मुगलों के अंतिम काल तक हमने राजस्थान की हवा में उच्चकोटि का वीरत्व देखा था पर वह यकायक आंगल कला से ऐसा छूमंतर हो गया कि लिखते दुःख होता है ,इसका मुख्य कारण है प्राचीन रीति रिवाजों ,आचार विचारों को छोड़ना।अपनी राज्य पद्धति तथा शिक्षा की कमी ने भी इसका साथ दिया ।आपस में जाति भेद आरम्भ होने के कारण एकता का अभाव हो गया और पारस्परिक युद्ध होने लगे ।इसी कारण वह कभी विदेशी शक्तिओं से पूर्णतया लोहा न लेसके और अपनी सुवतंत्रता धीरे धीरे खो बैठे ।बहु विवाह तथा मद्यपान का रिवाज इनका पूर्णतया संहार कर बैठा ।इसी कारण बड़े -बड़े राज्य नस्ट हो गये और होते भी जारहे है ।प्राचीन ग्रंथों में न तो राजपूत जाति का ही उल्लेख है और न राजपूताने का ।
रामायण और महाभारत के समय से लेकर चीनी यात्री हुएनसांग के भारत -भ्रंमन (ई0सन् 629-645 ) तक राजपूत शब्द जाति के अर्थ में प्रयुक्त नहीं होता था ।प्राचीन इतिहास और पुराण ग्रंथों में इस जाति के लिए "क्षत्रिय "शब्द का प्रयुक्त मिलता है तथा वेद और उपनिषद् काल में "राजन्य"शब्द का प्रयोग देखने में आता है। सूत्रकाल में कहीं -कहीं क्षत्रियों के लिए "उग्र"शब्द लिखा गया है ।जैन -ग्रंथों व् मध्यकालीन (ई0स0600 से 1200 तक )ग्रंथों में भी राजपूत शब्द नहीं पाया जाता है।पृथ्वीराजरासो ग्रन्थ में भी -जो विक्रम की सोलहवीं शताब्दी के आस पास रचा माना जाता है ,उसमें भी "राजपूत "शब्द जाति वाचक नहीं ,किन्तु योद्धा के अर्थ में आया है।जैसे "रजपूत टूट पचासरन जीत समर सेना धनिय " "लग्यो सूजाय रजपूत सीस " "बुड गई सारी रजपूती "।उस समय राजपूत जाति कोई विशेष जाति नहीं गिनी जाती थी ।मुसलमानों के आक्रमणों तक यहां के राजा "क्षत्रिय "ही कहलाते थे ।जिस प्रकार राजस्थान या राजपुताना प्रदेश ब्रिटिशकाल की रचना है(विलियम फ्रेंकलिन ,मिलिट्री मेमआर्स आफ मिस्टर जार्ज टामस पृष्ठ 347 सन् 1805 ई0 लन्दन संस्करण ।इसी प्रकार राजपूत का राजपुत्र शब्द मुगलकालीन शासनकाल के पूर्व के इतिहास ग्रंथों में नही मिलता है ।हाँ!इनके स्थान पर क्षत्रिय जाति का उल्लेख पाया जाता है ।हमारे प्राचीन इतिहास और साहित्य में क्षत्रिय जाति का वही स्थान है जो इस समय राजपूत जाति का माना जाता है ।जब हिंदुस्तान में मुगलों का आक्रमण हुआ और उनकी अरबी सभ्यता और उनके मत का नया तूफ़ान आया ,तब उस वक्त के क्षत्रिय राजाओं नेबड़े साहस और पराक्रम से अपने प्राणों की बाजी लगाकर मुकाबला करने का भरसक प्रयत्न किया ,परंतु आपसी फुट के कारण इस तूफान को रोकने में असमर्थ रहे ।परिणाम यह हुआ कि मुगलों का सिक्का भारत पर बैठ गया जिन्होंने इस देश के पूर्व राजाओं का नाम "सामंत या राजपुत्र "रक्खा।
राजपुत्र शब्द का अर्थ "राजकीय वंश में पैदा हुआ "है ।इसी का अपभ्रंश "राजपूत "शब्द है जो बाद में धीरे धीरे मुग़ल बादशाहों के अहद से या कुछ पहले 14 वीं शताब्दी से ,बोल चाल में क्षत्रिय शब्द के स्थान पर व्यवहार में आने लगा ।इससे पहले राजपूत शब्द का प्रयोग जाति के अर्थ में कहीं नही पाया जाता है ।अतः राजपूत कोई जाति नही थी ।मुसलामानों के समय में धीरे धीरे यह शब्द जाति वाचक बन गया ।राजपुताना प्रान्त इन क्षत्रिय वीरों का प्रधान राज्य गिना जाने लगा ।इसके बाद जितनी शासन करने वाली शाखाएं फैलीं ,उनका सम्बन्ध राजस्थान की मूलशाखा से किसी न किसी रूप में अवश्य है ।
"राजपूत "या रजपूत"शब्द संस्कृत के "राजपुत्र"का अपभ्रंश अर्थात लौकिक रूप है। ।प्राचीनकाल में "राजपुत्र"शब्द जाति वाचक नहीं ,किन्तु क्षत्रिय राजकुमारों या राजवंशियों का सूचक था ,क्यों क़ि बहुत प्राचीन काल से प्रायः सारा भारतवर्ष क्षत्रिय वर्ण के अधीन था ।कौटिल्य के अर्थशास्त्र ,कालिदास के काव्य और नाटकों ,अश्वघोष के ग्रंथों ,बाणभट्ट के हर्षचरित तथा कादंबरी आदि पुस्तकों एवं प्राचीन शिलालेखों तथा दानपात्रों में राजकुमारों और राजवंशियों के लिए "राजपुत्र "शब्द का प्रयोग होना पाया जाता है ।देश का शासन क्षत्रिय जाति के ही हाथों में रहता था ।अतः इसी जाति के लोगों का नाम मुगलकाल में जाकर लगभग 14 वीं शताब्दी में "राजपूत"हो गया ।पुराणों में केवल राजपुत्र शब्द आता है।
क्षत्रिय वर्ण वैदिक काल से इस देश पर शासन करता रहा और आर्यों की वर्णव्यवस्था के अनुसार प्रजा का रक्षण करना ,दान देना ,यज्ञ करना ,वेदादि शास्त्रों का अध्ययन करना और विषयासक्ति में न पड़ना आदि क्षत्रियों के धर्म या कर्म माने जाते थे।मुगलों के समय से वही क्षत्रिय जाति "राजपूत "कहलाने लगी lप्राचीन ग्रंथों में राजपूतों के लिए राजपुत्र ,राजन्य ,बाहुज आदि शब्द मिलते है। यजुर्वेद जो स्वयं ईश्वरकृत है ,में भी राजपूतों की खूब चर्चा हुई है।
ब्रध्यतां राजपुत्राश्च बाहू राजन्य कृत :।
बध्यतां राजपुत्राणां क्रन्दता मित्तेरम्।।
इसके बाद पुराणों में सूर्य और चन्द्रवंश जो राजपूतों के वंश है की उत्तपति भी क्षत्रियों से मानी गयी है ।
चंद्रादित्य मनुनांच् प्रवराः क्षत्रियाः स्मतः ।
बाण के हर्षचरित में भी राजपुत्र शब्द का प्रयोग हुआ है।बाण लिखता है ---
अभिजात राजपुत्र प्रेष्यमान कुप्यमुक्ता कुल कुलीन
कुलपुत्र वाहने ।
अर्थात सेना के साथ अभिजात राजपूतों द्वारा भेजे गए पीतल के पत्रों से मढे वाहनों में कुलीन राजपुत्रों की स्त्रियां जा रहीं है ।अतः राजपूत प्राचीन आर्य क्षत्रियों की संतान है ।यदि प्राचीन इतिहास के पन्नें पलटे जायं तो स्थान -स्थान पर यह वर्णन मिलेगा कि राजपूतों ने शकों ,हूणों से अनेक बार युद्ध किये और उनसे देश ,धर्म तथा संस्कृति की रक्षा की ,किन्तु आधुनिक इतिहासकारों ने अपनी कल्पना और अनुमान के आधार पर उन्हें उन्हीं की संतान बना दिया ।
सोलह संस्कारों को धारण करना राजपूतों के लिए अनिवार्य था ।राजपूत अपने गुणों ,वीरता ,साहस ,त्याग ,अतिथि सेवा तथा शरणागत वत्सलता ,प्रजावत्सलता ,अनुशासनप्रियता ,युद्धप्रियता आदि गुणों के साथ -साथ ब्राह्मणों के क्षमा ,दया ,उदारता ,सहनशीलता ,विद्वता आदि गुणों को भी धारण करना होता था ।इसी से भ्रांत होकर कई इतिहासकारों ने राजपूतों को ब्राह्मणों की संतान मान लिया है ,किन्तु जैसा कि इस्पस्ट हो चूका है कि ये ऋषी बाह्मण नही थे ,बल्कि वैदिक ऋषी थे और क्षत्रिय तथा ब्राह्मणों दोनों के पूर्वज थे ,क्यों कि वर्ण -व्यवस्था तो उस युग के बहुत बाद वैवस्वत मनु ने आरम्भ की थी ।
यूरोपियन विद्धवान जैसे नेसफील्ड ,इबटसन राजपूतों को प्राचीन आर्यों की संतान मानते हुए कहते है ,"राजपूत लोग आर्य है और वे उन क्षत्रियों की संतान है जो वैदिक काल से भारत में शासन कर रहे है ।" मि0 टेलवीय हीव्लर , 'भारत के इतिहास 'में लिखते है "राजपूत जाति भारतवर्ष में सबसे कुलीनब और स्वाभिमानी है "।कई इतिहासकारों ने ये सिद्ध किया है कि राजपूत विशुद्ध आर्यों की संतान है और उनकी शारीरिक बनावट ,गुण ,और स्वभाव प्राचीन क्षत्रियों के समान है ।कालिदास रघुवंश में लिखते है :
क्षत्रतिक ल त्रायत इत्युद्ग्र क्षत्रस्य शब्दों भुवणेषु रूढ़:।
राज्मेंन किं कादिवप्रीत वरतेः प्राणैरुप कोशमलीन सर्वा :।।
अर्थात विश्व को आंतरिक और बाह्य अत्याचारों जैसे शोषण ,भूख ,अज्ञान ,अनाचार ,तथा शत्रु द्वारा पहुंचाई गयी जन -धन की हानि से बचाने बाला क्षत्रिय है ।इसके विपरीत कार्य करने वाला न तो क्षत्रिय कहलाने का अधिकारी है और न ही वह शासन करने का अधिकारी हो सकता है ।क्षत्रियों के गुण -कर्म तथा स्वभावों का मनुसमृति में वर्णन करते हुए स्वयं मनु जी कहते है :
प्रजानों रक्षा दान मिज्याध्ययन मेथ च ।
विषयेतवन सकितश्च क्षत्रियस्य समास्त :।।
अर्थात न्याय से प्रजा की रक्षा करना ,सबसे प्रजा का पालन करना ,विद्या ,धर्म की प्रवर्ति और सुपात्रों की सेवा में धन का व्यय करना ,अग्निहोत्री यज्ञ करना व् कराना ,शास्त्रों का पठन ,और पढ़ाना ,जितेन्द्रिय रहकर शरीर और आत्मा को बलवान बनाना ,ये क्षत्रियों के स्वाभाविक कर्म है ।
श्रीमद् भगवदगीता में क्षत्रियों के गुणों और कर्मों का वर्णन करते हुये श्री कृष्ण अर्जुन को कहते है :
शौर्य तेजो धृति दक्षिर्य युद्धे चाप्याप्लायनम ।
दानमीश्वर भावस्य क्षात्रं कर्म स्वभावजम् ।।
अर्थात शौर्य ,तेज ,धैर्य ,दक्षता ,और युद्ध में न भागने का स्वभाव और दान तथा ईश्वर का भाव ये क्षत्रियों के स्वाभाविक गुण तथा कर्म है ।
देश -धर्म तथा संस्कृति की रक्षा में सर्वस्व त्याग की भावना ही राजपूतों का सबसे बड़ा गुण एवं कर्म रहा है ।इसी लिए इस जाति ने मध्यकाल में सैकड़ों साके और जौहर किये ।विश्वामित्र जैसे महामुनि .राजा हरिश्चंद्र जैसे सत्यवादी ,राजा रघु जैसे पराक्रमी ,राजा जनक जैसे राजषि ,श्री राम जैसे पितृभक्त ,श्री कृष्ण जैसे कर्मयोगी ,कर्ण जैसे दानी ,मोरध्वज जैसे त्यागी ,अशोक जैसे प्रजा -वत्सल ,विक्रमादित्य जैसे न्यायकारी ,राजा भोज जैसे विद्धान ,जयमल जैसे वीर ,प्रताप जैसे देशभक्त ,पृथ्वीराज जैसा साहसी योद्धा ,दुर्गादास जैसे स्वामीभक्त अनेक वीर इसी जाति की देंन है ।यहाँ तो पालने में जन्मघुटी के साथ ही देश भक्ति तथा त्याग का पाठ शुरू हो जाता था ।
अपने इन गुण -कर्मों ,स्वभावों तथा पवित्र परम्पराओं के कारण ही राजपूत सफल मानव ,सच्चे सेनानी ,तथा कुशल शासक बनते थे ।ये राजपूत राजा कमल के समान निर्लेप ,सूर्य जैसे तेजस्वी ,चंद्र जैसे शीतल ,तथा पृथ्वी जैसे सहनशील होते थे ,क्यों कि उनका शासन आत्मत्याग और जौहर जैसी पावन परम्पराओं पर आधारित होता था ।वे हँसते -हँसते मृत्यु का आलिंगन करना श्रेयस्कर समझते थे और युद्ध में पीठ दिखाकर भाग जाना मृत्यु से भी बदतर समझते थे । इस जाति ने समय समय पर देश ,धर्म और आर्य सभ्यता की रक्षा की है तथा अपनी मर्यादा व् आन -वान् के लिए सदा हथेली पर जान भी रखी है ।।इतिहास बतलाता है कि इस पराक्रमी क्षत्रिय जाति ने अपने बच्चों सहित शत्रु के साथ लड़कर। अमर यश प्राप्त किया है ।अल्लाउदीन ख़िलजी के हमले और चित्तोड़ और रणथंभोर के शाके आज भी बच्चों की जवान पर है ।इस जाति के प्रत्येक वंश ने न जाने कितने वीरोचित काम किये है जिनका वर्णन सुन कर देशी ही नही किन्तु विदेशी विद्दान भी मुग्ध है जिन्होंने अपने विचार कुछ इस प्रकार व्यक्त किये ।
राजपूतों की ख्याति का बखान करते हुए इतिहासवेत्ता कर्नल टॉड नही अघाते ।
"राजस्थान (राजपुताना)में कोई छोटा से छोटा राज्य भी ऐसा नही है जिसमें थर्मोपॉलि (ग्रीस स्थित )जैसी रणभूमि न हो और शायद ही कोई ऐसा नगर मिले जहाँ लियोनिदास सा वीर पुरुष उत्पन्न न हुआ हो ।"
टॉड अपने राजस्थान के इतिहास की भूमिका में लिखते है ----
"एक वीर जाति का लगातार कई पीढ़ियों तक स्वाधीनता के लिए युद्ध आदि करते रहना ,अपने पूर्वजों के धर्म की रक्षा के लिए अपनी प्रिय वस्तु की भी हानि सहना और सर्वस्व देकर भी शौर्य पूर्वक अपने स्वतत्वों और जातीय स्वतंत्रता को किसी भी प्रकार के लोभ ,लालच में न आकर बचाना ,यह सब मिल कर एक ऐसा चित्र बनाते है कि जिसका ध्यान करने से हमारा शरीर रोमांचित हो जाता है ।"
आगेचल कर टॉड राजपूत जाति का चरित्र -चित्रण इस प्रकार करते है ----
"महान शूरता ,देश भक्ति ,स्वाभिमान ,प्रतिष्ठा ,अथिति सत्कार और सरलता यह गुण सर्वांश में राजपूतों में पाये जाते है ।"
मुग़ल सम्राट अकबर का मंत्री अबुलफजल (यह जोधपुर राज्य के नागौर शहर में एक शेख कुल में जन्मा था ) राजपूतों की वीरता की प्रशंसा इन शब्दों में करता है ----
"विपत्तिकाल में राजपूतों का असली चरित्र जाज्वल्यमान होता है ।राजपूत -सैनिक रणक्षेत्र से भागना जानते ही नहीं है बल्कि जब लड़ाई का रुख संदेहजनक हो जाता है तो वे लोग अपनेघोड़ों से उत्तर जाते है और वीरता के साथ अपने प्राण न्योछावर कर देते है ।"
बर्नियर अपनी भारत यात्रा की पुस्तक में लिखता है कि -----
"राजपूत लोग जब युद्ध क्षेत्र में जाते है ,तब आपस में इस प्रकार गले मिलते है जैसे कि उन्होंने मरने का पूरा निश्चय कर लिया हो ।ऐसी वीरता के उदाहरण संसार की अन्य जातियों में कहाँ पाये जाते है ?किस देश और किस जाति में इस प्रकार की सभ्यता और साहस है और किसने अपने पूर्वजों के रिवाजों को इतनी शताब्दीयों तक अनेक संकट सहते हुए भी कायम रखा है ?
मिस्टर टेलबोय व्हीलर ने अपने "भारत के इतिहास "में राजपूत जाति के विषय में यह लिखा है ----
"राजपूत जाति भारतवर्ष में सबसे कुलीन और स्वाभिमानी है ।यहूदी जाति को छोड़ कर संसार में शायद ही अन्य कोई जाति हो जिसकी उत्पति इतनी पुरानी और शुद्ध हो ।वे क्षत्रिय जाति के उच्च वंशज और जागीरदार है ।ये वीर और दींन अनाथों के रक्षक होते है और अपमान को कभी सहन नहीं करते है और अपनी स्त्रियों के सम्मान का पूर्ण ध्यान रखने बाले होते है ।"
कर्नल वाल्टर (भूतपूर्व एजेंट गवर्नर जनरल ,राजपुताना )बहुत समय तक राजपूताने में रहे थे ।वह भी इस प्रकार लिखते है कि ------
"राजपूतों को अपने महत्वशाली पूर्वजों के इतिहास का गर्व हो सकता है क्यों कि संसार के किसी भी देश के इतिहास में ऐसी वीरता और अभिमान के योग्य चरित्र नहीं मिलते जैसे इन वीरों के कार्यों में पाये जाते है जो कि उन्होंने अपने देश ,प्रतिष्ठा और धार्मिक स्वतंत्रता के लिए किये ।"
डॉ शिफार्ड जो कई वर्षों तक राजपूतों के संसर्ग में रहे थे इस प्रकार लिखते है कि ----
"ऐसे इतिहासों के पढ़ने से जिनमें राजपूतों के उत्तम स्वाभाविक गुण और चरित्र यथावत रूप से दर्शाये गए है ,सम्भव नहीं कि इतिहास के प्रेमी नवयुवक पर उत्तम और उत्तेजक प्रभाव उत्पन्न न हो ।"
यद्धपि इस वीर राजपूत जाति के अनेक साहसी वीर योद्धाओं जिनमे अंतिम हिन्दू सम्राट पृथ्वीराज चौहान ,विश्व प्रसिद्ध योद्धा राणा सांगा ,प्रातः स्मरणीय वीर शिरोमणि महाराणा प्रताप ,महान बलिदानी राजा रामशाह तोमर ,वीरवर छात्र साल बुंदेला ,स्वाभिमानी वीर दुर्गादास राठौड़ ,वीरवर अमर सिंह राठौड़ ,जयमल राठौड़ ,रावत पत्ता ,शरणागत रक्षक रणथम्भोर के राजा हमीर देव चौहान ,गोरा -बादल ,वीर योद्धा मेदिनिराय खंगार ,प्रमुख थे ने मुगलों से जम कर युद्ध किया और अपनी जन्म भूमि की स्वतंत्रता के लिए प्राणों की बाजी लगा दी ।इसी कालमें क्षत्राणियो ने भी युद्ध तक किये और देश की रक्षा में जौहर तक किये जिनमे रानी दुर्गावती ,रानी कर्मवती ,रानी पद्यमिनी तथा हाडी रानी प्रमुख वीरांगनाएं रही ।यही ही नही सन् 1857में ब्रिटिशकाल में भी अनेक राजपूत वीर और वीरांगनाओं ने अपने देश की स्वतंत्रता के लिए प्राण न्योछावर कर दिया।जिनमें झांसी की रानी लक्ष्मीबाई के अलावा और वीरों को इतिहास में वो स्थान हमारे इतिहासकारों ने नही दिया जो दिया जाना चाहिए था ।
जिनमें प्रथम स्वतंत्रता संग्रामसेनानी हिमाचल प्रदेश के नूरपुर एस्टेट के वजीर राम सिंह पठानिया ,1857 की क्रान्ति के नायक विहार की शान बाबू बीर कुंवर सिंह पंवार ,गोण्डा के राजा देवीबक्ष सिंह बिसेन ,अवध का शेर राणा बेणी माधोसिंह बैस , राजपूत जाति को पहला परमवीर चक्र दिलाने वाले पश्चिमी उत्तरप्रदेश के गौरव परमवीर यदुनाथ सिंह राठौड़ ,पीरु सिंह शेखावत ,शैतान सिंह भाटी एवं उस समय की एक और वीरांगना उत्तरप्रदेश की तुलसीपुर एस्टेट की चौहान रानी ईष्वरी कुमारी देवी थी जिन्होंने अपनी वीरता और शौर्यता ,आन ,वान् एवं स्वाभिमान ,त्याग एवंबलिदान पूर्ण कार्यों से इतिहास के पन्नें रंग कर चले गये ।परन्तु अब उनकी ये ख्याति केवल इतिहास के पन्नों में ही रह गई है और दिन प्रतिदिन राजपूत लोग अपने गौरव को भूलते जारहे है ,क्यों न भूले जब कि पश्चिमी सभ्यता और शिक्षा का प्रभाव चारों तरफ पड़ रहा है और समय भी बदल चुका है ।
लार्ड मैकाले का यह कथन भी उल्लेख करने योग्य है कि -----
"जो जाति अपने पूर्वजों के श्रेष्ठ कार्यों का अभिमान नहीं करती वह कोई ऐसी बात ग्रहण न करेगी जो कि बहुत पीढ़ी पीछे उनकी संतानों से सगर्व स्मरण करने योग्य हो ।"
वर्तमान पीढ़ी एवं इसके बाद आने वाली पीढ़ी भी चली जायगी किन्तु राजपूत जाति जिन्दा रहेगी ,राजपूत संस्कृति जिन्दा रहेगी ,किन्तु जिस तेजी से हम संभी क्षेत्रों में पीछे खिसक रहे है यदि यही रफ़्तार जारी रही तो आगामी कुछ वर्षों बाद राजपूत कहाँ होगा यह सोचकर ही दिल में एक हड़कंप पैदा होता है ।
यदि अब भी राजपूत जाति अपने पूर्व गौरव व् इतिहास की ओर ध्यान देवे तो यह जाति संसार में अदिवतीय चमत्कार दिखला सकती है ।लेकिन आज के समय में एकता और शिक्षा के क्षेत्र में अदिवतीय होना होगा तभी ये संभव है ।क्या ये शब्द हमारे बहरे कानों में पड़ेंगे ?
जय हिन्द ।जय राजपूताना ।
लेखक -डा0 धीरेन्द्र सिंह जादौन ,गांव -लढोता ,सासनी ,जिला -हाथरस ,उत्तरप्रदेश ।

प्रतिहार वंश /Pratihar or Parihar Rajput

यूँ तो प्रतिहारो की उत्पत्ति पर कई सारे मत है,किन्तु उनमे से अधिकतर कपोल कल्पनाओं के अलावा कुछ नहीं है। प्राचीन साहित्यों में प्रतिहार का अर्थ "द्वारपाल" मिलता है। अर्थात यह वंश विश्व के मुकुटमणि भारत के पश्चिमी द्वारा अथवा सीमा पर शासन करने के चलते ही प्रतिहार कहलाया।
अब प्रतिहार वंश की उत्पत्ति के बारे में जो भ्रांतियाँ है उनका निराकारण करते है। एक मान्यता यह है की ये वंश अबू पर्वत पर हुए यज्ञ की अग्नि से उत्पन्न हुआ है,जो सरासर कपोल कल्पना है।हो सकता है अबू पर हुए यज्ञ में इस वंश की हाजिरी के कारण इस वंश के साथ साथ अग्निवंश की कथा रूढ़ हो गई हो। खैर अग्निवंश की मान्यता कल्पना के अलावा कुछ नहीं हो सकती और ऐसी कल्पित मान्यताये इतिहास में महत्त्व नहीं रखती।
इस वंश की उत्पत्ति के संबंध में प्राचीन साहित्य,ग्रन्थ और शिलालेख आदि क्या कहते है इसपर भी प्रकाश डालते है।
१) सोमदेव सूरी ने सन ९५९ में यशस्तिलक चम्पू में गुर्जर देश का वर्णन किया है। वह लिखता है कि न केवल प्रतिहार बल्कि चावड़ा,चालुक्य,आदि वंश भी इस देश पर राज करने के कारण गुर्जर कहलाये।
२) विद्व शाल मंजिका,सर्ग १,श्लोक ६ में राजशेखर ने कन्नौज के प्रतिहार राजा भोजदेव के पुत्र महेंद्र को रघुकुल तिलक अर्थात सूर्यवंशी क्षत्रिय बताया है।
३)कुमारपाल प्रबंध के पृष्ठ १११ पर भी गुर्जर देश का वर्णन है...
कर्णाटे,गुर्जरे लाटे सौराष्ट्रे कच्छ सैन्धवे।
उच्चाया चैव चमेयां मारवे मालवे तथा।।
४) महाराज कक्कूड का घटियाला शिलालेख भी इसे लक्ष्मण का वंश प्रमाणित करता है....अर्थात रघुवंशी
रहुतिलओ पड़ीहारो आसी सिरि लक्खणोत्रि रामस्य।
तेण पडिहार वन्सो समुणई एत्थ सम्प्तो।।
५) बाउक प्रतिहार के जोधपुर लेख से भी इनका रघुवंशी होना प्रमाणित होता है।(९ वी शताब्दी)
स्वभ्राता राम भद्रस्य प्रतिहार्य कृतं सतः।
श्री प्रतिहारवड शोयमत श्रोन्नतिमाप्युयात।
इस शिलालेख के अनुसार इस वंश का शासनकाल गुजरात में प्रकाश में आया था।
६) चीनी यात्री हुएन्त त्सांग ने गुर्जर राज्य की राजधानी पीलोमोलो,भीनमाल या बाड़मेर कहा है।
७) भोज प्रतिहार की ग्वालियर प्रशस्ति
मन्विक्षा कुक्कुस्थ(त्स्थ) मूल पृथवः क्ष्मापल कल्पद्रुमाः।
तेषां वंशे सुजन्मा क्रमनिहतपदे धाम्नि वज्रैशु घोरं,
राम: पौलस्त्य हिन्श्रं क्षतविहित समित्कर्म्म चक्रें पलाशे:।
श्लाध्यास्त्स्यानुजो सौ मधवमदमुषो मेघनादस्य संख्ये,
सौमित्रिस्तिव्रदंड: प्रतिहरण विर्धर्य: प्रतिहार आसी।
तवुन्शे प्रतिहार केतन भृति त्रैलौक्य रक्षा स्पदे
देवो नागभट: पुरातन मुने मुर्तिर्ब्बमूवाभदुतम।
अर्थात-सुर्यवंश में मनु,इश्वाकू,कक्कुस्थ आदि राजा हुए,उनके वंश में पौलस्त्य(रावण) को मारने वाले राम हुए,जिनका प्रतिहार उनका छोटा भाई सौमित्र(सुमित्रा नंदन लक्ष्मण) था,उसके वंश में नागभट हुआ। इसी प्रशस्ति के सातवे श्लोक में वत्सराज के लिए लिखा है क़ि उस क्षत्रिय पुंगव(विद्वान्) ने बलपूर्वक भड़ीकुल का साम्राज्य छिनकर इश्वाकू कुल की उन्नति की।
८) देवो यस्य महेन्द्रपालनृपति: शिष्यों रघुग्रामणी:(बालभारत,१/११)
तेन(महिपालदेवेन)च रघुवंश 
मुक्तामणिना(बालभारत)
बालभारत में भी महिपालदेव को रघुवंशी कहा है।
९)ओसिया के महावीर मंदिर का लेख जो विक्रम संवत १०१३(ईस्वी ९५६) का है तथा संस्कृत और देवनागरी लिपि में है,उसमे उल्लेख किया गया है कि-
तस्या कार्षात्कल प्रेम्णालक्ष्मण: प्रतिहारताम ततो अभवत प्रतिहार वंशो राम समुव:।।६।।
तदुंदभशे सबशी वशीकृत रिपु: श्री वत्स राजोडsभवत।
अर्थात लक्ष्मण ने प्रेमपूर्वक उनके प्रतिहारी का कार्य किया,अनन्तर श्री राम से प्रतिहार वंश की उत्पत्ति हुई। उस प्रतिहार वंश में वत्सराज हुआ।
१०) गौडेंद्रवंगपतिनिर्ज्जयदुर्व्विदग्धसदगुर्ज्जरेश्वरदिगर्ग्गलतां च यस्य।
नीत्वा भुजं विहतमालवरक्षणार्त्थ स्वामी तथान्यमपि राज्यछ(फ) लानि भुंक्ते।।
-बडोदे का दानपत्र,Indian Antiquary,Vol 12,Page 160
उक्त ताम्रपत्र के 'गुजरेश्वर' एद का अर्थ 'गुर्जर देश(गुजरात) का राजा' स्पष्ट है,जिसे खिंच तानकर गुर्जर जाती या वंश का राजा मानना सर्वथा असंगत है। संस्कृत साहित्य में कई ऐसे उदाहरण मिलते है।
ये लेख गुजरेश्वर,गुर्जरात्र,गुज्जुर इन संज्ञाओ का सही मायने में अर्थ कर इसे जाती सूचक नहीं स्थान सूचक सिद्ध करता है जिससे भगवान्लाल इन्द्रजी,देवदत्त रामकृष्ण भंडारकर,जैक्सन तथा अन्य सभी विद्वानों के मतों को खारिज करता है जो इस सज्ञा के उपयोग से प्रतिहारो को गुर्जर मानते है।
११) कुशनवंशी राजा कनिष्क के समय में गुर्जरों का भारतवर्ष में आना प्रमाणशून्य बात है,जिसे स्वयं डॉ.भगवानलाल इन्द्रजी ने स्वीकार किया है,और गुप्तवंशियों के समय में गुजरो को राजपूताना,गुजरात और मालवे में जागीर मिलने के विषय में कोई प्रमाण नहीं दिया है। न तो गुप्त राजाओं के लेखो और भडौच से मिले दानपत्रों में इसका कही उल्लेख है।
१२)३६ राजवंशो की किसी भी सूची में इस वंश के साथ "गुर्जर" एद का प्रयोग नहीं किया गया है। यह तथ्य भी गुर्जर एद को स्थानसूचक सिद्धकर सम्बंधित एद का कोइ विशेष महत्व नही दर्शाता।
१३)ब्राह्मण उत्पत्ति के विषय में इस वंश के साथ द्विज,विप्र यह दो संज्ञाए प्रयुक्त की गई है,तो द्विज का अर्थ ब्राह्मण न होकर द्विजातिय(जनेउ) संस्कार से है न की ब्राह्मण से। ठीक इसी तरह विप्र का अर्थ भी विद्वान पंडित अर्थात "जिसने विद्वत्ता में पांडित्य हासिल किया हो" ही है।
१४) कुशनवंशी राजा कनिष्क के समय में गुर्जरों का भारतवर्ष में आना प्रमाणशून्य बात है,जिसे स्वयं डॉ.भगवानलाल इन्द्रजी ने स्वीकार किया है,और गुप्तवंशियों के समय में गुजरो को राजपूताना,गुजरात और मालवे में जागीर मिलने के विषय में कोई प्रमाण नहीं दिया है। न तो गुप्त राजाओं के लेखो और भडौच से मिले दानपत्रों में इसका कही उल्लेख है।
उपरोक्त सभी प्रमाणों के आधार पर हम इस निष्कर्ष पर पहुँचते है की,प्रतिहार वंश निस्संदेह भारतीय मूल का है तथा शुद्ध क्षत्रिय राजपूत वंश है।
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प्रतिहार वंश
संस्थापक- हरिषचन्द्र
वास्तविक - नागभट्ट प्रथम (वत्सराज)
पाल -धर्मपाल
राष्ट्रकूट-ध्रव
प्रतिहार-वत्सराज
राजस्थान के दक्षिण पष्चिम में गुर्जरात्रा प्रदेष में प्रतिहार वंष की स्थापना हुई। ये अपनी उत्पति लक्ष्मण से मानते है। लक्षमण राम के प्रतिहार (द्वारपाल) थे। अतः यह वंष प्रतिहार वंष कहलाया। नगभट्ट प्रथम पष्चिम से होने वाले अरब आक्रमणों को विफल किया। नागभट्ट प्रथम के बाद वत्सराज षासक बना। वह प्रतिहार वंष का प्रथम षासक था जिसने त्रिपक्षीप संघर्ष त्रिदलीय संघर्ष/त्रिराष्ट्रीय संघर्ष में भाग लिया।
त्रिपक्षीय संघर्ष:- 8 वीं से 10 वीं सदी के मध्य लगभग 200 वर्षो तक पष्चिम के प्रतिहार पूर्व के पाल और दक्षिणी भारत के राष्ट्रकूट वंष ने कन्नौज की प्राप्ति के लिए जो संघर्ष किया उसे ही त्रिपक्षीय संघर्ष कहा जाता है।
नागभट्ट द्वितीय:- वत्सराज के पष्चात् षक्तिषाली षासक हुआ उसने भी अरबों को पराजित किया किन्तु कालान्तर में उसने गंगा में डूब आत्महत्या कर ली।
मिहिर भोज प्रथम - इस वंष का सर्वाधिक षक्तिषाली षासक इसने त्रिपक्षीय संघर्ष में भाग लेकर कन्नौज पर अपना अधिकार किया और प्रतिहार वंष की राजधानी बनाया। मिहिर भोज की उपब्धियों की जानकारी उसके ग्वालियर लेख से प्राप्त होती है।
- आदिवराह व प्रीाास की उपाधी धारण की।
-आदिवराह नामक सिक्के जारी किये।
मिहिर भोज के पष्चात् महेन्द्रपाल षासक बना। इस वंष का अन्तिम षासक गुर्जर प्रतिहार वंष के पतन से निम्नलिखित राज्य उदित हुए।
मारवाड़ का राठौड़ वंष
मेवाड़ का सिसोदिया वंष
जैजामुक्ति का चन्देष वंष
ग्वालियर का कच्छपधात वंष
प्रतिहार
8वीं से 10वीं षताब्दी में उत्तर भारत में प्रसिद्ध राजपुत वंष गुर्जर प्रतिहार था। राजस्थान में प्रतिहारों का मुख्य केन्द्र मारवाड़ था। पृथ्वीराज रासौ के अनुसार प्रतिहारों की उत्पत्ति अग्निकुण्ड से हुई है।
प्रतिहार का अर्थ है द्वारपाल प्रतिहार स्वयं को लक्ष्मण वंषिय सूर्य वंषीय या रधुकुल वंषीय मानते है। प्रतिहारों की मंदिर व स्थापत्य कला निर्माण षैली गुर्जर प्रतिहार षैली या महामारू षैली कहलाती है। प्रतिहारों ने अरब आक्रमण कारीयों से भारत की रक्षा की अतः इन्हें "द्वारपाल"भी कहा जाता है। प्रतिहार गुर्जरात्रा प्रदेष (गुजरात) के पास निवास करते थे। अतः ये गुर्जर - प्रतिहार कहलाएं। गुर्जरात्रा प्रदेष की राजधानी भीनमाल (जालौर) थी।
मुहणौत नैणसी (राजपुताने का अबुल-फजल) के अनुसार गुर्जर प्रतिहारों की कुल 26 शाखाएं थी। जिमें से मण्डोर व भीनमाल शाखा सबसे प्राचीन थी।
मण्डौर शाखा का संस्थापक - हरिचंद्र था।
गुर्जर प्रतिहारों की प्रारम्भिक राजधानी -मण्डौर
भीनमाल शाखा
1. नागभट्ट प्रथम:- नागभट्ट प्रथम ने 730 ई. में भीनमाल में प्रतिहार वंष की स्थापना की तथा भीनमाल को प्रतिहारों की राजधानी बनाया।
2. वत्सराज द्वितीय:- वत्सराज भीनमाल प्रतिहार वंष का वास्तिवक संस्थापक था। वत्सराज को रणहस्तिन की उपाधि प्राप्त थी। वत्सराज ने औसियां के मंदिरों का निर्माण करवाया। औसियां सूर्य व जैन मंदिरों के लिए प्रसिद्ध है। इसके समय उद्योतन सूरी ने "कुवलयमाला" की रचना 778 में जालौर में की। औसियां के मंदिर महामारू षैली में बने है। लेकिन औसियां का हरिहर मंदिर पंचायतन षैली में बना है।
-औसियां राजस्थान में प्रतिहारों का प्रमुख केन्द्र था।
-औसिंया (जोधपुर)के मंदिर प्रतिहार कालीन है।
-औसियां को राजस्थान को भुवनेष्वर कहा जाता है।
-औसियां में औसिया माता या सच्चिया माता (ओसवाल जैनों की देवी) का मंदिर है जिसमें महिसासुर मर्दनी की प्रतिमा है।
-जिनसेन ने "हरिवंष पुराण " की रचना की।
वत्सराज ने त्रिपक्षिय संर्घष की षुरूआत की तथा वत्सराज राष्ट्रकूट राजा ध्रुव से पराजित हुआ।
त्रिपक्षिय/त्रिराष्ट्रीय संर्घष
कन्नौज को लेकर उत्तर भारत की गुर्जर प्रतिहार पूर्व में बंगाल का पाल वंष तथा दक्षिणी भारत का राष्ट्रवंष के बीच 100 वर्षो तक के चले संघर्ष को त्रिपक्षिय संघर्ष कहा जाता है।
3. नागभट्ट द्वितीय:- वत्सराज व सुन्दर देवी का पुत्र। नागभट्ट द्वितीय ने अरब आक्रमणकारियों पर पूर्णतयः रोक लगाई। नागभट्ट द्वितीय ने गंगा समाधि ली। नागभट्ट द्वितीय ने त्रिपक्षिय संघर्ष में कन्नौज को जीतकर सर्वप्रथम प्रतिहारों की राजधानी बनाया।
4. मिहिर भोज (835-885 ई.):- मिहिर भोज को आदिवराह व प्रभास की उपाधि प्राप्त थी। मिहिर भोज वेष्णों धर्म का अनुयायी था। मिहिरभोज प्रतिहारों का सबसे अधिक षक्तिषाली राजा था। इस काल चर्माेत्कर्ष का काल था। मिहिर भोज ने चांदी के द्रुम सिक्के चलवाये। मिहिर भोज को भोज प्रथम भी कहा जाता है। ग्वालियर प्रषक्ति मिहिर भोज के समय लिखी गई।
851 ई. में अरब यात्री सुलेमान न मिहिर भोज के समय भारत यात्रा की। अरबीयात्री सुलेमान व कल्वण ने अपनी राजतरंगिणी (कष्मीर का इतिहास) में मिहिर भोज के प्रषासन की प्रसंषा की। सुलेमान ने भोज को इस्लाम का षत्रु बताया।
5. महिन्द्रपाल प्रथम:- इसका गुरू व आश्रित कवि राजषेखर था। राजषेखर ने कर्पुर मंजरी, काव्य मिमांसा, प्रबंध कोष हरविलास व बाल रामायण की रचना की। राजषेखर ने महेन्द्रपाल प्रथम को निर्भय नरेष कहा है।
6. महिपाल प्रथम:- राजषेखर महिपाल प्रथम के दरबार में भी रहा। 915 ई. में अरब यात्री अली मसुदी ने गुर्जर व राजा को बोरा कहा है।
7. राज्यपाल:- 1018 ई. में मुहम्मद गजनवी ने प्रतिहार राजा राज्यपाल पर आक्रमण किया।
8. यषपाल:- 1036 ई. में प्रतिहारों का अन्तिम राजा यषपाल था।
भीनमाल:- हेनसांग/युवाचांग न राजस्थान में भीनमाल व बैराठ की यात्रा की तथा अपने ग्रन्थ सियू की मे भीनमाल को पोनोमोल कहा है। गुप्तकाल के समय का प्रसिद्व गणितज्ञ व खगोलज्ञ ब्रहमागुप्त भीनमाल का रहने वाला था जिससे ब्रहमाण्ड की उत्पत्ति का सिद्धान्त " ब्रहमास्फुट सिद्धान्त (बिग बैन थ्यौरी) का प्रतिपादन किया।
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---प्रतिहार राजपूतो की वर्तमान स्थिति---
भले ही यह विशाल प्रतिहार राजपूत साम्राज्य बाद में खण्डित हो गया हो लेकिन इस वंश के वंशज राजपूत आज भी इसी साम्राज्य की परिधि में मिलते हैँ।
उत्तरी गुजरात और दक्षिणी राजस्थान में भीनमाल के पास जहाँ प्रतिहार वंश की शुरुआत हुई, आज भी वहॉ प्रतिहार राजपूत पड़िहार आदि नामो से अच्छी संख्या में मिलते हैँ।
प्रतिहारों की द्वितीय राजधानी मारवाड़ में मंडोर रही। जहाँ आज भी प्रतिहार राजपूतो की इन्दा शाखा बड़ी संख्या में मिलती है। राठोड़ो के मारवाड़ आगमन से पहले इस क्षेत्र पर प्रतिहारों की इसी शाखा का शासन था जिनसे राठोड़ो ने जीत कर जोधपुर को अपनी राजधानी बनाया। 17वीं सदी में भी जब कुछ समय के लिये मुगलो से लड़ते हुए राठोड़ो को जोधपुर छोड़ना पड़ गया था तो स्थानीय इन्दा प्रतिहार राजपूतो ने अपनी पुरातन राजधानी मंडोर पर कब्जा कर लिया था।
इसके अलावा प्रतिहारों की अन्य राजधानी ग्वालियर और कन्नौज के बीच में प्रतिहार राजपूत परिहार के नाम से बड़ी संख्या में मिलते हैँ।
बुन्देल खंड में भी परिहारों की अच्छी संख्या है। यहाँ परिहारों का एक राज्य नागौद भी है जो मिहिरभोज के सीधे वंशज हैँ।
प्रतिहारों की एक शाखा राघवो का राज्य वर्तमान में उत्तर राजस्थान के अलवर, सीकर, दौसा में था जिन्हें कछवाहों ने हराया। आज भी इस क्षेत्र में राघवो की खडाड शाखा के राजपूत अच्छी संख्या में हैँ। इन्ही की एक शाखा पश्चिमी उत्तर प्रदेश के बुलंदशहर, अलीगढ़, रोहिलखण्ड और दक्षिणी हरयाणा के गुडगाँव आदि क्षेत्र में बहुसंख्या में है। एक और शाखा मढाढ के नाम से उत्तर हरयाणा में मिलती है। व
उत्तर प्रदेश में सरयूपारीण क्षेत्र में भी प्रतिहार राजपूतो की विशाल कलहंस शाखा मिलती है। इनके अलावा संपूर्ण मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश, बिहार और उत्तरी महाराष्ट्र आदि में(जहाँ जहाँ प्रतिहार साम्राज्य फैला था) अच्छी संख्या में प्रतिहार/परिहार राजपूत मिलते हैँ।

प्रतिहार गुज्जर कैसे ??
-प्रतिहारो के गल्लका के लेख में स्पष्ट लिखा है के प्रतिहार सम्राट नागभट्ट जिन्हें गुर्जरा प्रतिहार वंश का संस्थापक भी माना जाता है ने गुर्जरा राज्य पर हमला कर गुज्जरों को गुर्जरा देश से बाहर खदेड़ा व अपना राज्य स्थापित किया... अगर प्रतिहार गुज्जर थे तो खुद को ही अपने देश में हराकर बाहर क्यों खड़ेंगे ?? मिहिर भोज के पिता प्रतिहार क्षत्रिय और पुत्र गुज्जर कैसे ??

- हरश्चरित्र में गुजरादेश का जिक्र बाण भट्ट ने एक राज्य एक भू भाग के रूप में किया है यही बात पंचतंत्र और कई विदेशी सैलानियों के रिकार्ड्स में भी पुख्ता होती है। इस गुर्जरा देस में गुज्जरों को खदेड़ने के बाद जिस भी वंश ने राज्य किया गुर्जरा नरपति या गुर्जर नरेश कहलाया। यदि गुज्जर विदेशी जाती है तो दक्षिण से आये हुए सोलंकी/चालुक्य जैसे वंश भी गुर्जरा पर फ़तेह पाने के बाद गुर्जरा नरेश या गुर्जरेश्वर क्यों कहलाये ?

- गुज्जर एक विदेशी जाती है जो हूणों के साथ भारत आई जिसका मुख्य काम गोपालन और दूध मीट की सेना को सप्लाई था तो आज भी गुजरात में गुर्जरा ब्राह्मण गुर्जरा वैश्य गुर्जरा मिस्त्री गुर्जरा धोभी गुर्जरा नाई जैसी जातियाँ कैसे मिलती है ??

- प्रतिहार राजा हरिश्चंद्र को मंडोर के शीलालेखों में द्विज लिखा है , जिनकी ब्राह्मण और क्षत्रिय पत्नियां थी । यह मिहिर भोज के भी पूर्वज थे। रिग वेद और मनुस्मृति के अनुसार द्विज केवल आर्य क्षत्रिय और ब्राह्मण जातियाँ ही हो सकती थीं। अगर हरिशन्द्र आर्य क्षत्रिय थे तो उनके वंशज विदेशी शूद्र गुज्जर कैसे ??

- प्रतिहारों की राजोरगढ़ के शिलालेखों में प्रतिहारों को गुर्जर प्रतिहार लिखा है ये शिलालेख मण्डोर और गललका के शिलालेख से बाद के है यानी प्रतिहारों के गुर्जरा राज्य पर अधिपत्य के बाद स्थापित किये गए। सभी इतिहासकार इन्हें स्थान सूचक मानतें हैं। तो कुछ विदेशी इतिहासकार ये लिखते है के 12वि पंक्ति में गूजरों का पास के खेतों में खेती करने का जिक्र किया गया है तो इस वजह से कहा जा सकता है प्रतिहार गुज्जर थे। अब ये समझा दी भैया के राजा और क्षत्रिय की पदवी पा चुकी राजवंशी जाती क्यों खेती करेगी ?? जबकि ये तो शूद्रों का कार्य माना जाता था। यानि साफ़ है के गुर्जरा देस से राजोर आये प्रतिहार ही गुर्जरा प्रतिहार कहलाए जिनके राज्य में गुर्जर देश से आये हुए गर्जर यानी गुर्जरा के नागरिक खेती करते थे और ये प्रतिहारों से अलग थे ।।।

- अवंती के प्रतिहार राजा, वत्सराज के ताम्रपत्रों और शिलालेखों से यह पता चलता है के वत्सराज प्रतिहार ने नंदपुरी की पहली और आखिरी गुज्जर बस्ती को उखाड़ फेंका नेस्तेनाबूत कर दिया और भत्रवर्ध चौहान को जयभट्ट गुज्जर के स्थान पर जागीर दी। इस शिलालेखों से भी प्रतिहार और गुज्जरों के अलग होने के सबूत मिलते हैं तो प्रतिहार और गुज्जर एक कैसे ???

- देवनारायण जी की कथा के अनुसार भी उनके पिता चौहान क्षत्रिय और माता गुजरी थी जिससे गूजरों की बगड़ावत वंश निकला यही उधारण राणा हर राय देव से कलस्यां गोत्र के गुज्जरों को उतपत्ति ( करनाल और मुज़्ज़फरगर ब्रिटिश गजट पढ़ें या सदियों पुराने राजपूतों के भाट रिकॉर्ड पढ़ें।) , ग्वालियर के राजा मान सिंह तंवर की गुजरी रानी मृगनयनी से तोंगर या तंवर गुज्जरों की उत्पत्ति के प्रमाण मिलतें हैं तो प्रीतिहार राजपूत वंश गुज्जरों से कैसे उतपन्न हुआ ? क्षत्रिय से शुद्र तो बना जा सकता है पर शुद्र से क्षत्रिय कैसे बना जा सकता है 
- जहाँ जहाँ प्रतिहार वंश का राज रहा है वहाँ आज भी प्रतिहार राजपूतों की बस्ती है और यह बस्तियाँ हजारों साल पुरानी है पर यहाँ गुज्जर प्रतिहार नहीं पाये जाते।
मंडोर के इलाके में इन्दा व देवल प्रतिहार कन्नौज में कलहंस और मूल प्रतिहार , मध्य प्रदेश में प्
रतिहारों को नागोद रियासत व गुजरात में प्रतिहार राजपूतों के आज भी 3 रियासत व् 200 से अधिक गाँव। न कन्नौज में गुज्जर है ना नागोद में ना गुजरात में। और सारे रजवाड़े भी क्षत्रिय व राजपूत प्रतिहार माने जाते है जबकि गुज्जरों में तो प्रतिहार गोत्र व खाप ही नहीं है तो प्रतिहार गुज्जर कैसे ??

- मिहिर भोज नागभट्ट हरिश्चंद्र प्रतिहारों के शिलालेखों और ताम्रपत्रों में इन तीनों को सूर्य वंशी रघु वंशी और लक्षमण के वंश में लिखा है ; गुज्जर विदेशी है तो ये सब खुद को आर्य क्षत्रिय क्यों बता के गए ??!

- राजोरगढ़ के आलावा ग्वालियर कन्नोज मंडोर गल्लका अवंती उज्जैन के शिलालेखों और ताम्रपत्रों में प्रतिहारों के लिये किसी भी पंक्ति व लेख में गुर्जर गू जर गू गुर्जरा या कोई भी मिलता जुलता शब्द या उपाधि नहीं मिलती है साफ है सिर्फ राजोरगढ़ में गुर्जरा देस से आई हुई खाप को गुर्जरा नरेश को उपाधि मिली !! जब बाकि देश के प्रतिहार गुज्जर नहीं तो राजोरगढ़ के प्रतिहार गुज्जर कैसे ??
लेखक--कुंवर विश्वजीत सिंह शिशोदिया(खानदेश महाराष्ट्र)