Thursday, September 24, 2015

हिन्दू होने पर इतना गर्व क्यों.

आखिर हिन्दू होने पर इतना गर्व क्यों...!!!
आइये जानते हैं कि सनातन धर्म पृथ्वी पर सर्वश्रेष्ठ क्यों है..??
कुछ लोग हिन्दू संस्कृति की शुरुआत को सिंधु घाटी की सभ्यता से जोड़कर देखते हैं। जो गलत है।
वास्तव में संस्कृत और कई प्राचीन भाषाओं के इतिहास के तथ्यों के अनुसार प्राचीन भारत में सनातन धर्म के इतिहास की शुरुआत ईसा से लगभग 13 हजार पूर्व हुई थी अर्थात आज से 15 हजार वर्ष पूर्व। इस पर विज्ञान ने भी शोध किया और वह भी इसे सच मानता है।
जीवन का विकास भी सर्वप्रथम भारतीय दक्षिण प्रायद्वीप में नर्मदा नदी के तट पर हुआ, जो विश्व की सर्वप्रथम नदी है। यहां पूरे विश्व में डायनासोरों के सबसे प्राचीन अंडे एवं जीवाश्म प्राप्त हुए हैं।
संस्कृत विश्व की सबसे प्राचीन भाषा है तथा समस्त भारतीय भाषाओं की जननी है। ‘संस्कृत’ का शाब्दिक अर्थ है ‘परिपूर्ण भाषा’। संस्कृत से पहले दुनिया छोटी-छोटी, टूटी-फूटी बोलियों में बंटी थी जिनका कोई व्याकरण नहीं था और जिनका कोई भाषा कोष भी नहीं था। भाषा को लिपियों में लिखने का प्रचलन भारत में ही शुरू हुआ। भारत से इसे सुमेरियन, बेबीलोनीयन और यूनानी लोगों ने सीखा।
ब्राह्मी और देवनागरी लिपियों से ही दुनियाभर की अन्य लिपियों का जन्म हुआ। ब्राह्मी लिपि एक प्राचीन लिपि है जिसे देवनागरी लिपि से भी प्राचीन माना जाता है।
हड़प्पा संस्कृति के लोग इस लिपि का इस्तेमाल करते थे, तब संस्कृत भाषा को भी इसी लिपि में लिखा जाता था।
जैन पौराणिक कथाओं में वर्णन है कि सभ्यता को

मानवता तक लाने वाले पहले तीर्थंकर ऋषभदेव की एक बेटी थी जिसका नाम ब्राह्मी था। उसी ने इस लेखन की खोज की।
प्राचीन दुनिया में सिंधु और सरस्वती नदी के किनारे बसी सभ्यता सबसे समृद्ध, सभ्य और बुद्धिमान थी। इसके कई प्रमाण मौजूद हैं। यह वर्तमान में अफगानिस्तान से भारत तक फैली थी।
प्राचीनकाल में जितनी विशाल नदी सिंधु थी उससे कहीं ज्यादा विशाल नदी सरस्वती थी। दुनिया का पहला धर्मग्रंथ सरस्वती नदी के किनारे बैठकर ही लिखा गया था।
पुरातत्त्वविदों के अनुसार यह सभ्यता लगभग 9,000 ईसा पूर्व अस्तित्व में आई थी, 3,000 ईसापूर्व उसने स्वर्ण युग देखा और लगभग 1800 ईसा पूर्व आते-आते किसी भयानक प्राकृतिक आपदा के कारण यह लुप्त हो गया। एक ओर जहां सरस्वती नदी लुप्त हो गई वहीं दूसरी ओर इस क्षेत्र के लोगों ने पश्चिम की ओर पलायन कर दिया।
सैकड़ों हजार वर्ष पूर्व पूरी दुनियाँ के लोग कबीले, समुदाय, घुमंतू वनवासी आदि में रहकर जीवन-यापन करते थे। उनके पास न तो कोई स्पष्ट शासन व्यवस्था थी और न ही कोई सामाजिक व्यवस्था। परिवार, संस्कार और धर्म की समझ तो बिलकुल नहीं थी। ऐसे में केवल भारतीय हिमालयन क्षेत्र में कुछ मुट्ठीभर लोग थे, जो इस संबंध में सोचते थे। उन्होंने ही वेद को सुना और उसे मानव समाज को सुनाया। उल्लेखनीय है कि प्राचीनकाल से ही भारतीय समाज कबीले में नहीं रहा। वह एक वृहत्तर और विशेष समुदाय में ही रहा।
संपूर्ण धरती पर हिन्दू वैदिक धर्म ने ही लोगों को सभ्य बनाने के लिए अलग-अलग क्षेत्रों में धार्मिक विचारधारा की नए-नए रूप में स्थापना की थी? आज दुनियाभर की
धार्मिक संस्कृति और समाज में हिन्दू धर्म की झलक देखी जा सकती है चाहे वह यहूदी धर्म हो, पारसी धर्म हो या ईसाई-इस्लाम धर्म हो।
क्योंकि
ईसा से 2300-2150 वर्ष पूर्व सुमेरिया, 2000-400
वर्ष पूर्व बेबिलोनिया, 2000-250 ईसा पूर्व ईरान,
2000-150 ईसा पूर्व मिस्र (इजिप्ट), 1450-500
ईसा पूर्व असीरिया, 1450-150 ईसा पूर्व ग्रीस
(यूनान), 800-500 ईसा पूर्व रोम की सभ्यताएं
विद्यमान थीं।
परन्तु इन सभी से भी पूर्व अर्थात आज से 5000 वर्ष पहले महाभारत का युद्ध लड़ा गया था।

महाभारत से भी पहले 7300 ईसापूर्व अर्थात आज से 7300+2000=9300 साल पहले रामायण का रचनाकाल प्रमाणित हो चुका है।
अब चूँकि महर्षि वाल्मीकि रचित रामायण में उससे भी पहले लिखी गई मनुस्मृति का उल्लेख आया है तो आइये अब जानते हैं रामायण से भी प्राचीन मनुस्मृति कब लिखी गई.........!!!
किष्किन्धा काण्ड में श्री राम अत्याचारी बाली को घायल कर उन्हें दंड देने के लिए मनुस्मृति के श्लोकों का उल्लेख करते हुए उसे अनुजभार्याभिमर्श का दोषी बताते हुए कहते हैं- मैं तुझे यथोचित दंड कैसे ना देता ?
श्रूयते मनुना गीतौ श्लोकौ चारित्र वत्सलौ ।।
गृहीतौ धर्म कुशलैः तथा तत् चरितम् मयाअ ।।
वाल्मीकि ४-१८-३०
राजभिः धृत दण्डाः च कृत्वा पापानि मानवाः ।
निर्मलाः स्वर्गम् आयान्ति सन्तः सुकृतिनो यथा ।।
वाल्मीकि ४-१८-३१
शसनात् वा अपि मोक्षात् वा स्तेनः पापात् प्रमुच्यते ।
राजा तु अशासन् पापस्य तद् आप्नोति किल्बिषम् ।
वाल्मीकि ४-१८-३२
उपरोक्त श्लोक ३० में मनु का नाम आया है और श्लोक
३१ , ३२ भी मनुस्मृति के ही हैं एवं उपरोक्त सभी श्लोक मनु अध्याय ८ के है ! जिनकी संख्या कुल्लूकभट्ट कि टीकावली में ३१८ व ३१९ है।
अतः यह सिद्ध हुआ कि श्लोकबद्ध मनुस्मृति जो महर्षि वाल्मीकि रचित रामायण में अनेकों स्थान पर आयी है....वो मनुस्मृति रामायणकाल (9300 साल) के भी पहले विधमान थी ।
अब आईये विदेशी प्रमाणों के आधार पर जानते हैं कि रामायण से भी पहले की मनुस्मृति कितनी प्राचीन है..??
सन १९३२ में जापान ने बम विस्फोट द्वारा चीन की ऐतिहासिक दीवार को तोड़ा तो उसमे से एक लोहे का ट्रंक मिला जिसमे चीनी भाषा की प्राचीन पांडुलिपियां भरी थी ।
वे हस्तलेख Sir Augustus Fritz George के हाथ लग गयीं। वो उन्हें लंदन ले गये और ब्रिटिश म्युजियम में रख दिया । उन हस्तलेखों को Prof. Anthony Graeme ने चीनी विद्वानो से पढ़वाया।
चीनी भाषा के उन हस्तलेखों में से एक में लिखा है -
'मनु का धर्मशास्त्र भारत में सर्वाधिक मान्य है जो वैदिक
संस्कृत में लिखा है और दस हजार वर्ष से अधिक पुराना है' तथा इसमें मनु के श्लोकों कि संख्या 630 भी बताई गई है।
यही विवरण मोटवानी कि पुस्तक 'मनु धर्मशास्त्र :
ए सोशियोलॉजिकल एंड हिस्टोरिकल स्टडीज' पेज २३२
पर भी दिया है ।
इसके अतिरिक्त R.P. Pathak कि Education in the Emerging India में भी पेज १४८ पर है।
अब देखें चीन की दीवार के बनने का समय लगभग 220–206 BC है अर्थात लिखने वाले ने कम से कम 220BC से पूर्व ही मनु के बारे में अपने हस्तलेख में लिखा 220+10000 =10220 ईसा पूर्व
यानी आज से कम से कम 12,220 वर्ष पूर्व तक भारत में मनुस्मृति पढ़ने के लिए उपलब्ध थी ।
मनुस्मृति में सैकड़ों स्थानों पर वेदों का उल्लेख आया है। अर्थात वेद मनुस्मृति से भी पहले लिखे गये। अब हिन्दू धर्म के आधार वेदों की प्राचीनता जानते हैं-
वेदों की उत्पत्ति कब हुई ?
वेदों का रचनाकाल इतना प्राचीन है कि इसके बारे में सही-सही किसी को ज्ञात नहीं है। पाश्चात्य विद्वान वेदों के सबसे प्राचीन मिले पांडुलिपियों के हिसाब से वेदों के रचनाकाल के बारे में अनुमान लगाते हैं। जो अत्यंत हास्यास्पद है।
क्योंकि वेद लिखे जाने से पहले हजारों सालों तक पीढ़ी दर पीढ़ी सुनाए जाते थे। इसीलिए वेदों को "श्रुति" भी कहा जाता है। उस काल में भोजपत्रों पर लिखा जाता था अत: यदि उस कालखण्ड में वेदों को हस्तलिखित भी किया गया होगा तब भी आज हजारों साल बाद उन भोजपत्रों का मिलना असम्भव है।
फिर भी वेदों पर सबसे अधिक शोध करने वाले स्वामी दयानंद जी ने अपने ग्रंथों में ईश्वर द्वारा वेदों की उत्पत्ति का विस्तार से वर्णन किया हैं. ऋग्वेद, यजुर्वेद और सामवेद के पुरुष सूक्त (ऋक १०.९०, यजु ३१ , अथर्व १९.६) में सृष्टी उत्पत्ति का वर्णन है कि परम पुरुष परमात्मा ने भूमि उत्पन्न की, चंद्रमा और सूर्य उत्पन्न किये, भूमि पर भांति भांति के अन्न उत्पन्न किये,पशु पक्षी आदि उत्पन्न किये। उन्ही अनंत शक्तिशाली परम पुरुष ने मनुष्यों को उत्पन्न किया और उनके कल्याण के लिए वेदों का उपदेश दिया।
उन्होंने शतपथ ब्राह्मण से एक उद्धरण दिया और बताया-
‘अग्नेर्वा ऋग्वेदो जायते वायोर्यजुर्वेदः सूर्यात्सामवेदः।।
शत.।।
प्रथम सृष्टि की आदि में परमात्मा ने अग्नि, वायु, आदित्य तथा अंगिरा इन तीनों ऋषियों की आत्मा में एक एक वेद का प्रकाश किया।’ (सत्यार्थप्रकाश, सप्तमसमुल्लास, पृष्ठ 135)
इसलिए वेदों की उत्पत्ति का काल मनुष्य जाति की उत्पत्ति के साथ ही माना जाता है।
स्वामी दयानंद की इस मान्यता का समर्थन ऋषि मनु और ऋषि वेदव्यास भी करते हैं।
परमात्मा ने सृष्टी के आरंभ में वेदों के शब्दों से ही सब
वस्तुओं और प्राणियों के नाम और कर्म तथा लौकिक
व्यवस्थाओं की रचना की हैं. (मनुस्मृति १.२१)
स्वयंभू परमात्मा ने सृष्टी के आरंभ में वेद रूप नित्य दिव्यवाणी का प्रकाश किया जिससे मनुष्यों के सब व्यवहार सिद्ध होते हैं (वेद व्यास,महाभारत शांति पर्व २३२/२४)
कुल मिलाकर वेदों, सनातन धर्म एवं सनातनी परम्परा की शुरूआत कब हुई। ये अभी भी एक शोध का विषय है।
इसका मतलब कि हजारों वर्ष ईसा पूर्व भारत में एक पूर्ण विकसित सभ्यता थी। और यहाँ के लोग पढ़ना-लिखना भी जानते थे।
इसके बाद भारतीय संस्कृति का प्रकाश धीरे-धीरे पूरे विश्व में फैलने लगा। तब भारत का ‘धर्म’ ‍दुनियाभर में अलग-अलग नामों से प्रचलित था। अरब और अफ्रीका में जहां सामी, सबाईन, ‍मुशरिक, यजीदी, अश्शूर, तुर्क, हित्ती, कुर्द, पैगन आदि इस धर्म के मानने वाले समाज थे तो रोम, रूस, चीन व यूनान के प्राचीन समाज के लोग सभी किसी न किसी रूप में हिन्दू धर्म का पालन करते थे। फिर ईसाई और बाद में दुनियाँ की कई सभ्यताओं एवं संस्कृतियों को नष्ट करने वाले धर्म इस्लाम ने इन्हें विलुप्त सा कर दिया।
मैक्सिको में ऐसे हजारों प्रमाण मिलते हैं जिनसे यह सिद्ध होता है। जीसस क्राइस्ट्स से बहुत पहले वहां पर हिन्दू धर्म प्रचलित था। अफ्रीका में 6,000 वर्ष पुराना एक शिव मंदिर पाया गया और चीन, इंडोनेशिया, मलेशिया, लाओस, जापान में हजारों वर्ष पुरानी विष्णु, राम और हनुमान की प्रतिमाएं मिलना इस बात का सबूत है कि हिन्दू धर्म संपूर्ण धरती पर था।
उदाहरण के तौर पर एरिक वॉन अपनी बेस्ट सेलर
पुस्तक ‘चैरियट्स ऑफ गॉड्स’ में लिखते हैं -:
‘‘विश्व की सबसे प्राचीन सुमेरियन सभ्यता(2300 B.C.)से भी प्राचीन लगभग 5,000 वर्ष पुराने महाभारत के तत्कालीन कालखंड में उन्नत सामाजिक व्यवस्था, उन्नत शासन प्रणाली, उन्नत भाषा आदि का विस्तारित विवरण एवं उक्त कालखंड के योद्धाओं द्वारा आज के अत्याधुनिक अस्त्र-शस्त्रों के समान ही अनेक शस्त्रों का प्रयोग केवल कल्पना मात्र नहीं हो सकता। वे किसी ऐसे अस्त्र के बारे में कैसे जानते थे जिसे चलाने से 12 साल तक उस धरती पर सूखा पड़ जाता, ऐसा कोई अस्त्र जो इतना शक्तिशाली हो कि वह माताओं के गर्भ में पलने वाले शिशु को भी मार सके? इसका अर्थ है कि ऐसा कुछ न कुछ तो था जिसका ज्ञान आगे नहीं बढ़ाया गयाअथवा लिपिबद्ध नहीं हुआ और गुम हो गया।’‘
प्राचीन भारत बहुत ही समृद्ध और सभ्य देश था, जहां हर तरह के हथियार इस्तेमाल किये जाते थे, तो वहीं
मानव के मनोरंजन के भरपूर साधन भी थे। ऐसा कोई खेल या मनोरंजन का साधन नहीं है जिसका आविष्कार
भारत में न हुआ हो। आज शेष विश्व में जितनी भी संस्कृतियाँ, सामाजिक व्यवस्थाएँ एवं धार्मिक मान्यताएँ प्रचलित हैं; प्राचीन भारतीय ग्रंथों का गहन अध्ययन करने से ये प्रमाणित हो जाता है कि ये सभी भारत में प्रचलित हिन्दू धर्म एवं संस्कृति से पूरी तरह प्रभावित हैं। कई विश्व विख्यात विद्वानों एवं वैज्ञानिक शोधों ने ये प्रमाणित भी किया है।
संस्कृत और अन्य भाषाओं के ग्रंथों में इस बात के कई प्रमाण मिलते हैं कि भारतीय लोग समुद्र में जहाज द्वारा अरब और अन्य देशों की यात्रा करते थे और सनातन धर्म एवं सभ्यता का परिचय कराते थे। वहीं किसी भी ग्रंथ एवं उल्लेखों में अपने धर्म एवं सभ्यता को प्रचारित करने में किसी भी देश या मानव समूहों में किसी भी प्रकार की जबरदस्ती एवं बलप्रयोग का उल्लेख नहीं मिलता। प्राचीन भारतायों का लम्बी यात्राएं कर विश्व के विभिन्न स्थानों पर जाना केवलमात्र शेष विश्व को सभ्यता से परिचय कराना था।
विमानों से यात्रा करने की कई कहानियां भारतीय ग्रंथों में भरी पड़ी हैं जो इतनी अधिक बार उल्लेखित हुई हैं कि इसे असत्य नहीं माना जा सकता। यहीं नहीं, कई ऐसे ऋषि और मुनि भी थे, जो योगबल से अंतरिक्ष में दूसरे ग्रहों पर जाकर पुन: धरती पर लौट आते थे।
वर्तमान समय में भारत की इस प्राचीन तकनीक और
वैभव का खुलासा कोलकाता संस्कृत कॉलेज के संस्कृत प्रोफेसर दिलीप कुमार कांजीलाल ने 1979 में एंशियंट एस्ट्रोनट सोसाइटी (Ancient Astronaut Society) की म्युनिख (जर्मनी) में संपन्न छठी कांग्रेस के दौरान अपने एक शोध पत्र से किया। जिससे विश्व आश्चर्यचकित हो गया था। उन्होंने उड़ सकने वाले प्राचीन भारतीय विमानों के बारे में एक उद्बोधन दिया और पर्चा प्रस्तुत किया।
संगीत और वाद्ययंत्रों का अविष्कार भारत में ही हुआ है। अत्याधुनिक पाश्चात्य वाद्ययंत्र इन्हीं के रूपान्तर हैं। हिन्दू धर्म का नृत्य, कला, योग और संगीत से गहरा नाता रहा है। हिन्दू धर्म मानता है कि ध्वनि और शुद्ध प्रकाश से ही ब्रह्मांड की रचना हुई है। आत्मा इस जगत का कारण है। चारों वेद, स्मृति, पुराण और गीता आदि धार्मिक ग्रंथों में धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष को साधने के हजारों हजार उपाय बताए गए हैं। उन उपायों में से एक है संगीत। संगीत की कोई भाषा नहीं होती। संगीत आत्मा के सबसे ज्यादा नजदीक माना जाता था।
हिन्दुओं के लगभग सभी देवी और देवताओं के पास अपना एक अलग वाद्य यंत्र है। संगीत का सर्वप्रथम ग्रंथ चार वेदों में से एक सामवेद ही है। इसी के आधार पर भरत मुनि ने नाट्यशास्त्र लिखा और बाद में संगीत रत्नाकर, अभिनव राग मंजरी लिखा गया। दुनियाभर के
संगीत के ग्रंथ सामवेद से प्रेरित हैं।
भारतीय ऋषियों ने ऐसी सैकड़ों ध्वनियों को खोजा, जो प्रकृति में पहले से ही विद्यमान है। उन ध्वनियों के आधार पर ही उन्होंने मंत्रों की रचना की, संस्कृत भाषा की रचना की और ध्यान एवं स्वास्थ्य में लाभदायक ध्यान ध्वनियों की रचना की। इसके अलावा उन्होंने ध्वनि विज्ञान को अच्छे से समझकर इसके माध्यम से शास्त्रों की रचना की और प्रकृति को संचालित करने वाली ध्वनियों की खोज भी की। आज का विज्ञान अभी भी संगीत और ध्वनियों के महत्व और प्रभाव की खोज में लगा हुआ है, लेकिन ऋषि-मुनियों से अच्छा कोई भी संगीत के रहस्य और उसके विज्ञान को नहीं जान पाया।
प्राचीन भारती नृत्य शैली से ही दुनियाभर की नृत्य शैलियां विकसित हुई है। भारतीय नृत्य मनोरंजन के लिए नहीं बना था। भारतीय नृत्य ध्यान की एक विधि के समान कार्य करता है। मूलतः यह प्राचीन हिन्दुओं द्वारा निर्मित एक योग क्रिया है।
सामवेद में संगीत के साथ साथ नृत्य का भी उल्लेख मिलता है। हड़प्पा सभ्यता में नृत्य करती हुई लड़की की मूर्ति पाई गई है। भरत मुनि का नाट्य शास्त्र नृत्यकला का सबसे प्रथम व प्रामाणिक ग्रंथ माना जाता है। इसको पंचवेद भी कहा जाता है। यही नहीं सृष्टि के आरम्भिक हिन्दू ग्रंथों और पुराणों में भी शिव और पार्वती के नृत्य का वर्णन मिलता है।
भारत में प्राचीनकाल से ही ज्ञान को अत्यधिक महत्व दिया जाता था। कला, विज्ञान, गणित और ऐसे अनगिनत क्षेत्र हैं जिनमें भारतीय योगदान अनुपम है। आधुनिक युग के ऐसे बहुत से आविष्कार हैं, जो प्राचीन भारतीय शोधों के निष्कर्षों पर आधारित हैं।
प्राचीन भारतीयों ने एक ओर जहां पिरामिडनुमा मंदिर बनाए तो दूसरी ओर स्तूपनुमा मंदिर बनाकर दुनिया को चमत्कृत कर दिया। आज दुनियाभर के धर्म के प्रार्थना स्थल इसी शैली में बनते हैं। तब हिन्दू मंदिरों को देखना सबसे अद्भुत माना जाता था। मौर्य, गुप्त और विजयनगरम साम्राज्य के दौरान बने हिन्दू मंदिरों की स्थापत्य कला को देखकर हर कोई दांतों तले अंगुली दबाए बिना नहीं रह पाता।
अजंता-एलोरा की गुफाएं हों या वहां का विष्णु मंदिर। कोणार्क का सूर्य मंदिर हो या जगन्नाथ मंदिर या कंबोडिया के अंकोरवाट का मंदिर हो या थाईलैंड के मंदिर… उक्त मंदिरों से पता चलता है कि प्राचीन भारत में किस तरह के मंदिर बनते होंगे। समुद्र में डूबी कृष्ण की द्वारिका के अवशेषों की जांच से पता चलता है कि आज से 5,000 वर्ष पहले जब पूरी दुनियाँ जंगलों में नंगी घूमती थी तब भी हिन्दुओं के मंदिर और महल अत्यंत भव्य होते थे और हिन्दू सभ्यता, संस्कृति एवं ज्ञान से परिपूर्ण ।
भारत के प्राचीन ग्रंथों में कहीं पर भी अन्यायपूर्ण युद्धों की प्रशंसा नहीं की गयी है। लोग साधारणता शान्तिपूर्ण जीवन जीने में विश्वास रखते थे। चारों ओर न्याय, वसुधैव कुटुम्बकम, सुख, शान्ति एवं ज्ञान का बोलबाला था।
परन्तु आठवीं सदी में दुनियाँ की कई सभ्यताओं एवं संस्कृतियों को रौंदता, बर्बाद करता इस्लाम आखिर सोने की चिड़िया कहलाने वाले इस भूभाग पर भी आ धमका और इस पूरे क्षेत्र को धार्मिक एवं सांस्कृतिक रूप से तहस-नहस कर डाला। समस्त ज्ञान-विज्ञान एवं उस समय के भव्य मन्दिरों को नष्ट कर दिया गया। तक्षशिला, नालन्दा एवं विक्रमशिला जैसे विश्वविद्यालयों को नष्ट कर जला दिया गया। उल्लेखों के अनुसार उनमें प्राचीन भारतीय ज्ञान-विज्ञान, कला, संस्कृति, दर्शन, खगोलविज्ञान आदि से सम्बन्धित इतनी अधिक संख्या में पुस्तकें थीं जो कई महीनों तक जलती रहीं और विश्व ने मानव-सभ्यता की इस लिपिबद्ध अनमोल धरोहर को सदा के लिए खो दिया।
इसके साथ ही दुनियाँ की सबसे प्राचीन, सभ्य एवं समृद्ध हिन्दू सभ्यता का पराभव काल आरम्भ हुआ जो कालांतर में मुगल लुटेरों से लेकर अंग्रेजों के शासनकाल तक चलता रहा।
आज देश के स्कूलों में पढ़ने वाले बच्चे वामपंथी इतिहासकारों के द्वारा लिखा गया भारत का नकली इतिहास पढ़ते हैं जिसमें उन्हें बताया जाता है मानों केवल मुगलों के शासन में ही भारत का इतिहास निहित है। उसके पहले का स्वर्णिम काल केवल मनगढ़ंत बातें हैं। आज मैकाले की शिक्षा पद्धति के कारण छात्र अपने ही अतीत से दूर हो गये हैं, एवं अपनी ही संस्कृति का उपहास करते हैं। परन्तु अब झूठ से पर्दा उठने लगा है। अब आशा बँधने लगी है कि भारत अपने खोये गौरव को पुन: प्राप्त करेगा।
वास्तविकता तो यह है कि हमारी अतिप्राचीन एवं अनादि सनातन धर्म से प्रेरित होकर एवं इसी पर मूलाधारित बाद में आने वाली कोई भी अन्य धार्मिक व्यवस्था हमारे आसपास भी नहीं ठहरती। यदि अनुभव, श्रेष्ठता एवं उत्पत्ति काल के सन्दर्भ में देखें तो संसार के अन्य धर्म हमारे सनातन धर्म के पोते, पड़पोते, छड़पोते आदि की भी जगह नहीं ले सकते।
तो हम सब मिलकर इस बात का गर्व क्यों ना करें कि हम उस हिन्दू संस्कृति, उस सनातनी संस्कृति के मानने वाले हैं जिसने जंगलों में नंगी घूमती दुनियाँ को सभ्यता सिखायी, समाजिक व्यवस्था सिखायी, जीने का तरीका सिखाया। और सदियों से अनगिनत अत्याचार सहकर भी हमारे पूर्वजों ने इस महान धर्म को नहीं छोड़ा और हम आज भी उस महान परम्परा का एक हिस्सा बने हुए हैं।
तो गर्व से कहो, हम हिन्दू हैं
जय हिन्द, जय हिन्दू, जय माँ भारती ।

राजपूत अनजाने सच, Some Truth about Rajputs

राजपूत भाइयों कुछ अनभिज्ञ, अनजाने सच जरूर पढ़े व् गर्व से शेयर कर देना।
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1) राजपूतो में पहले सिर के बाल बड़े रखे जाते थे जो गर्दन के नीचे तक होते थे युद्ध में जाते समय बालो के बीच में गर्दन वाली जगह पर लोहे की जाली डाली जाती थी और वहा विषेस प्रकार का चिकना प्रदार्थ लगाया जाता था इससे तलवार से गर्दन पर होने वाले वार से बचा जा सके।
2) युद्ध में धोखे का संदेह होने पर घुसवार अपने घोड़ो से उतर कर जमीनी युद्ध करते थे ।
3) मध्य काल में देवी और देव पूजा होती थी जंग में जाने से पूर्व राजपूत अपनी कुलदेवियो की पूजा अर्चना करते थे जो ही शक्ति का प्रतिक है मेवाड़ के सिसोदिया एकलिंग जी की पूजा करते ।
4) हरावल - राजपूतो की सेना में युद्ध का नेतृत्व करने वाली टुकड़ी को हरावल सेना कहा जाता था जो सबसे आगे रहती थी कई बार इस सम्माननीय स्थान को पाने के लिए राजपूत आपस में ही लड़ बैठते थे इस संदर्भ में उन्टाला दुर्ग वाला चुण्डावत शक्तावत किस्सा प्रसिद्ध है ।
5) किसी बड़े जंग में जाते समय या नय प्रदेश की लालसा में जाते समय राजपूत अपने राज्य का ढोल , झंडा ,राजचिन्ह और कुलदेवी की मूर्ति साथ ले जाते थे।
6) शाका - महिलाओं को अपनी आंखों के आगे जौहर की ज्वाला में कूदते देख पुरूष जौहर कि राख का तिलक कर के सफ़ेद कुर्ते पजमे में और केसरिया फेटा ,केसरिया साफा या खाकी साफा और नारियल कमर कसुम्बा पान कर, केशरिया वस्त्र धारण कर दुश्मन सेना पर आत्मघाती हमला कर इस निश्चय के साथ रणक्षेत्र में उतर पड़ते थे कि तो विजयी होकर लोटेंगे अन्यथा विजय की कामना हृदय में लिए अन्तिम दम तक शौर्यपूर्ण युद्ध करते हुए दुश्मन सेना का ज्यादा से ज्यादा नाश करते हुए रणभूमि में चिरनिंद्रा में शयन करेंगे । पुरुषों का यह आत्मघाती कदम शाका के नाम से विख्यात हुआ ।
7) जौहर : युद्ध के बाद अनिष्ट परिणाम और होने वाले अत्याचारों व व्यभिचारों से बचने और अपनी पवित्रता कायम रखने हेतु अपने सतीत्व के रक्षा के लिए राजपूतनिया अपने शादी के जोड़े वाले वस्त्र को पहन कर अपने पति के पाँव छू कर अंतिम विदा लेती है महिलाएं अपने कुल देवी-देवताओं की पूजा कर,तुलसी के साथ गंगाजल का पानकर जलती चिताओं में प्रवेश क अपने सूरमाओं को निर्भय करती थी कि नारी समाज की पवित्रता अब अग्नि के ताप से तपित होकर कुंदन बन गई है और राजपूतनिया जिंदा अपने इज्जत कि खातिर आग में कूद कर आपने सतीत्व कि रक्षा करती थी । पुरूष इससे चिंता मुक्त हो जाते थे कि युद्ध परिणाम का अनिष्ट अब उनके स्वजनों को ग्रसित नही कर सकेगा । महिलाओं का यह आत्मघाती कृत्य जौहर के नाम से विख्यात हुआ। सबसे ज्यादा जौहर और शाके चित्तोड़ के दुर्ग में हुए ।
8) गर्भवती महिला को जौहर नहीं करवाया जाता था अत:उनको किले पर मौजूद अन्य बच्चों के साथ सुरंगों के रास्ते किसी गुप्त स्थान या फिर किसी दूसरे राज्य में भेज दिया जाता था ।राजपुताने में सबसे ज्यादा जौहर मेवाड़ के इतिहास में दर्ज हैं और इतिहास में लगभग सभी जौहर
इस्लामिक आक्रमणों के दौरान ही हुए हैं जिसमें अकबर और ओरंगजेब के दौरान सबसे ज्यादा हुए हैं ।
9) अंतिम जौहर - पुरे विश्व के इतिहास में अंतिम जौहर अठारवी सदी में भरतपुर के जाट सूरजमल ने मुगल सेनापति के साथ मिलकर कोल के घासेड़ा के राजपूत राजा बहादुर सिंह पर हमला किया था। महाराजा बहादुर सिंह ने जबर्दस्त मुकाबला करते हुए मुगल सेनापति को मार गिराया। पर दुश्मन की संख्या अधिक होने पर किले में मौजूद सभी राजपूतानियो ने जोहर कर अग्नि में जलकर प्राण त्याग दिए उसके बाद राजा और उसके परिवारजनों ने शाका किया। इस घटना का जिकर आप "गुड़गांव जिले के गेजिएटर" में पढ़ सकते है।
10) युद्ध में जाते से पूर्व "चारण/गढ़वी" कवि वीररस सुना कर राजपूतो में जोश पैदा करते और अपना कर्तव्य याद दिलाते कुछ युद्ध जो लम्बे चलते वह चारण भी साथ जाते थे चारण गढ़वी और भाट एक प्रकार के दूत होते थे जो राजपूत राजा के दरबार में बिना किसी रोक टोक आ जा सकते थे चाहे वो दुश्मन राजपूत राजा ही क्यों ना हो 11राजपूताने के ज्यादातर किलो में गुप्त रास्ते बने हुए है आजादी के बाद और सन 1971 के बाद सभी गुप्त रस्ते बंद कर दिए गए है।

Wednesday, September 23, 2015

राम लक्ष्मण व सीता - चित्रकूट


श्री राम लक्ष्मण व सीता सहित चित्रकूट पर्वत की ओर जा रहे थे !
राह बहुत पथरीली और कंटीली थी !
सहसा श्री राम के चरणों में एक कांटा चुभ गया !
.
फलस्वरूप वह रूष्ट या क्रोधित नहीं हुए, ...
बल्कि हाथ जोड़कर धरती से एक अनुरोध करने लगे !
बोले - " माँ , मेरी एक विनम्र प्रार्थना है तुमसे !
क्या स्वीकार करोगी ?"
.
धरती बोली - " प्रभु प्रार्थना नही ,
दासी को आज्ञा दीजिए !"
.
'माँ, मेरी बस यही विनती है कि जब भरत मेरी खोज में
इस पथ से गुज़रे, तो तुम नरम हो जाना !
कुछ पल के लिए अपने आँचल के ये पत्थर और कांटे छुपा लेना !
मुझे कांटा चुभा सो चुभा ! पर मेरे भरत के पाँव में अघात मत करना',
श्री राम विनत भाव से बोले !

श्री राम को यूँ व्यग्र देखकर धरा दंग रह गई !
पूछा - " भगवन, धृष्टता क्षमा हो ! पर क्या भरत आपसे अधिक सुकुमार है ?
जब आप इतनी सहजता से सब सहन कर गए,
तो क्या कुमार भरत नहीं कर पाँएगें ?
फिर उनको लेकर आपके चित में ऐसी व्याकुलता क्यों ?
श्री राम बोले - ' नहीं .....नहीं माता ! आप मेरे कहने का अभिप्राय नहीं समझीं ! भरत को यदि कांटा चुभा, तो वह उसके पाँव को नहीं, उसके हृदय को विदीर्ण कर देगा ! '
'हृदय विदीर्ण !! ऐसा क्यों प्रभु ?',
धरती माँ जिज्ञासा घुले स्वर में बोलीं !
'अपनी पीडा़ से नहीं माँ, बल्कि यह सोचकर कि इसी कंटीली राह से मेरे प्रभु राम गुज़रे होंगे और ये शूल उनके पगों में भी चुभे होंगे !
मैया , मेरा भरत कल्पना में भी मेरी पीडा़ सहन नहीं कर सकता !
इसलिए उसकी उपस्थिति में आप कमल पंखुड़ियों सी कोमल बन जाना ...!!"
अर्थात रिश्ते अंदरूनी एहसास, आत्मीय अनुभूति के दम पर ही टिकते हैं। जहाँ गहरी स्वानुभूति नहीँ, वो रिश्ता नहीँ बल्कि उसे एक
व्यावसायिक संबंध का नामकरण दिया जा सकता है।
इसीलिए कहा गया है कि रिश्ते खून से नहीं, परिवार से नहीँ, समाज से नहीँ, मित्रता से नहीं, व्यवहार से नहीं बनते, बल्कि सिर्फ और सिर्फ "एहसास " से ही बनते और निर्वहन किए जाते हेँ।।
जहाँ एहसास ही नहीं, आत्मीयता ही नहीं ..वहाँ अपनापन कहाँ से आएगा।
धर्म से जुडी खबरों के लिए देखे :-http://10taknews.com/haridarshan

HINDU REVOLUTION : TELESCOPE was Invented by GALILEO ??????

HINDU REVOLUTION : TELESCOPE was Invented by GALILEO ??????:   Historians made us believe that TELESCOPE was invented by GALILEO .. is it ... well in indian temple ,a scene depicting a soldier usin...

Friday, September 18, 2015

जानिए कैसे ख़त्म हुए हमारे गुरुकुल

जानिए कैसे ख़त्म हुए हमारे गुरुकुल
कॉन्वेंट स्कूलों ने किया बर्बाद
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1858 में Indian Education Act बनाया गया।
इसकी ड्राफ्टिंग ‘लोर्ड मैकोले’ ने की थी। लेकिन उसके पहले उसने यहाँ (भारत) के शिक्षा व्यवस्था का सर्वेक्षण कराया था, उसके पहले भी कई अंग्रेजों ने भारत के शिक्षा व्यवस्था के बारे में अपनी रिपोर्ट दी थी। अंग्रेजों का एक अधिकारी था G.W. Litnar और दूसरा था Thomas Munro, दोनों ने अलग अलग इलाकों का अलग-अलग समय सर्वे किया था। 1823 के आसपास की बात है ये Litnar , जिसने उत्तर भारत का सर्वे किया था,उसने लिखा है कि यहाँ 97% साक्षरता है और Munro, जिसने दक्षिण भारत का सर्वे किया था, उसने लिखा कि यहाँ तो 100 % साक्षरता है, और उस समय जब भारत में इतनी साक्षरता है
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मैकोले का स्पष्ट कहना था कि भारत को हमेशा-हमेशा के लिए अगर गुलाम बनाना है तो इसकी “देशी और सांस्कृतिक शिक्षा व्यवस्था” को पूरी तरह से ध्वस्त करना होगा और उसकी जगह “अंग्रेजी शिक्षा व्यवस्था” लानी होगी और तभी इस देश में शरीर से हिन्दुस्तानी लेकिन दिमाग से अंग्रेज पैदा होंगे और जब इस देश की यूनिवर्सिटी से निकलेंगे तो हमारे हित में काम करेंगे
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मैकोले एक मुहावरा इस्तेमाल कर रहा है:“कि जैसे किसी खेत में कोई फसल लगाने के पहले पूरी तरह जोत दिया जाता है वैसे ही इसे जोतना होगा और अंग्रेजी शिक्षा व्यवस्था लानी होगी।”इसलिए उसने सबसे पहले गुरुकुलों को गैरकानूनी घोषित किया, जब गुरुकुल गैरकानूनी हो गए तो उनको मिलने वाली सहायता जो समाज के तरफ से होती थी वो गैरकानूनी हो गयी, फिर संस्कृत को गैरकानूनी घोषित किया और इस देश के गुरुकुलों को घूम घूम कर ख़त्म कर दिया उनमे आग लगा दी, उसमें पढ़ाने वाले गुरुओं को उसने मारा- पीटा, जेल में डाला।
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1850 तक इस देश में ’7 लाख 32 हजार’ गुरुकुल हुआ करते थे और उस समय इस देश में गाँव थे ’7 लाख 50 हजार’, मतलब हर गाँव में औसतन एक गुरुकुल और ये जो गुरुकुल होते थे वो सब के सब आज की भाषा में ‘Higher Learning Institute’ हुआ करते थे उन सबमे 18 विषय पढाया जाता था और ये गुरुकुल समाज के लोग मिल के चलाते थे न कि राजा,महाराजा,और इन गुरुकुलों में शिक्षा निःशुल्क दी जाती थी।
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इस तरह से सारे गुरुकुलों को ख़त्म किया गया और फिर अंग्रेजी शिक्षा को कानूनी घोषित किया गया और कलकत्ता में पहला कॉन्वेंट स्कूल खोला गया, उस समय इसे ‘फ्री स्कूल’ कहा जाता था, इसी कानून के तहत भारत में कलकत्ता यूनिवर्सिटी बनाई गयी, बम्बई यूनिवर्सिटी बनाई गयी, मद्रास यूनिवर्सिटी बनाई गयी और ये तीनों गुलामी के ज़माने के यूनिवर्सिटी आज भी इस देश में हैं और मैकोले ने अपने पिता को एक चिट्ठी लिखी थी बहुत मशहूर चिट्ठी है वो, उसमें वो लिखता है कि:
“इन कॉन्वेंट स्कूलों से ऐसे बच्चे निकलेंगे जो देखने में तो भारतीय होंगे लेकिन दिमाग से अंग्रेज होंगे और इन्हें अपने देश के बारे में कुछ पता नहीं होगा, इनको अपने संस्कृति के बारे में कुछ पता नहीं होगा, इनको अपने परम्पराओं के बारे में कुछ पता नहीं होगा, इनको अपने मुहावरे नहीं मालूम होंगे, जब ऐसे बच्चे होंगे इस देश में तो अंग्रेज भले ही चले जाएँ इस देश से अंग्रेजियत नहीं जाएगी।”
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उस समय लिखी चिट्ठी की सच्चाई इस देश में अब साफ़-साफ़ दिखाई दे रही है और उस एक्ट की महिमा देखिये कि हमें अपनी भाषा बोलने में शर्म आती है, अंग्रेजी में बोलते हैं कि दूसरों पर रोब पड़ेगा, अरे हम तो खुद में हीन हो गए हैं जिसे अपनी भाषा बोलने में शर्म आ रही है, दूसरों पर रोब क्या पड़ेगा।
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लोगों का तर्क है कि अंग्रेजी अंतर्राष्ट्रीय भाषा है, दुनिया में 204 देश हैं और अंग्रेजी सिर्फ 11 देशों में बोली, पढ़ी और समझी जाती है, फिर ये कैसे अंतर्राष्ट्रीय भाषा है। शब्दों के मामले में भी अंग्रेजी समृद्ध नहीं दरिद्र भाषा है। इन अंग्रेजों की जो बाइबिल है वो भी अंग्रेजी में नहीं थी और ईशा मसीह अंग्रेजी नहीं बोलते थे,ईशा मसीह की भाषा और बाइबिल की भाषा अरमेक थी। अरमेक भाषा की लिपि जो थी वो हमारे बंगला भाषा से मिलती जुलती थी, समय के कालचक्र में वो भाषा विलुप्त हो गयी। संयुक्त राष्ट संघ जो अमेरिका में है वहां की भाषा अंग्रेजी नहीं है, वहां का सारा काम फ्रेंच में होता है।
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जो समाज अपनी मातृभाषा से कट जाता है उसका कभी भला नहीं होता और यही मैकोले की रणनीति थी।
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Sardar patel and Hyderabad annexation , Nizam and Patel


17 सितंबर 1948 को हैदराबाद का निज़ाम के इस्लामिक साशन से भारत मे विलय हुआ था.... सरदार पटेल जी को बहुत बहुत धन्यवाद है .

हैदराबाद के निज़ाम बड़े कंजूस थे...

हैदराबाद के निज़ाम के दौलत के बारे में बहुत-से क़िस्से मशहूर रहे हैं। वह बहुत मज़हबी और आलिम मुसलमान थे। वह और मुसलिम शासक वर्ग के कुछ लोग मिलाकर सन् 1947 से पूर्व भारत की सबसे विस्तृत और सबसे बड़ी आबादी वाली रियासत हैदराबाद पर शासन करते थे। उनकी रियासत उस उप-महाद्वीप के बीच में थी और उसमें 2 करोड़ हिन्दू और 30 लाख मुसलमान रहते थे। वह बहुत दुबले-पतले, छोटे-से क़द के बूढ़े आदमी थे। मुश्किल से सवा पाँच फीट का क़द रहा होगा और वज़न सिर्फ 90 पौंड। निज़ाम हिन्दुस्तान के एकमात्र शासक थे जिन्हें ‘एक्ज़ाल्टेड हाइनेस’ का खिताब था; उन्हें यह सम्मान इसलिए दिया गया था कि उन्होंने पहले महायुद्ध के समय अँग्रेजों के युद्धकोष में ढाई करोड़ पौंड की रक़म दी थी।

1947 में निज़ाम दुनिया के सबसे अमीर आदमी माने जाते थे। उनकी दौलत के क़िस्से से ज्यादा मशहूर उनकी कंजूसी के किस्से थे जिसके सहारे वह इतनी दौलत बटोर पाये थे। वह बहुत ही मैला सूती पाजामा पहनते थे और उनके पैरों में बहुत ही घटिया क़िस्म की सलीपरें होती थीं, जो वह बाजार से कुछ रुपयों में ही मँगा लेते थे। पैंतीस साल से वह वही एक फफूँदी लगी हुई तुर्की टोपी पहनते आये थे। हालाँकि उनके पास सौ आदमियों को एक साथ खाना खिलाने भर के लिए काफी सोने के बर्तन थे, लेकिन वह अपने सोने के कमरे में चटाई पर बैठकर टीन की प्लेट में खाना खाते थे। वह इतने कंजूस थे कि उनके मेहमान सिगरेट पीकर जो बुझे हुए टुर्रे छोड़ जाते थे उन्हें वह फिर से सुलगा कर पी लेते थे। एक बार किसी खास मौक़े पर उन्हें शाही दस्तरख़ान पर शैम्पेन रखने पर मजबूर होना पड़ा। उन्होंने बेदिली से एक बोतल मेज पर रखवायी, लेकिन इस बात कड़ी नज़र रखी कि वह पास बैठे हुए तीन-चार मेहमानों से आगे न जाने पाये। 1944 में जब लॉर्ड वेवेल वाइसराय की हैसियत से हैदराबाद आने वाले थे तो निज़ाम ने ख़ास तौर दिल्ली तार भिजवाकर पुछवाया कि लड़ाई के जमाने की ऊँची क़ीमतों को देखते हुए क्या वाइसराय साहब का सचमुच यह आग्रह होगा कि शैम्पेन पिलायी जाये। हफ़्ते में एक बार, इतवार को गिरजाघर से लौटते हुए अँग्रेज रेज़िडेंट उनके यहाँ आता था। हमेशा बड़ी पाबंदी से एक नौकर निज़ाम और उनके मेहमान के लिए ट्रे में एक प्याली चाय, एक बिस्कुट और एक सिगरेट रखकर लाता था। एक इतवार रेज़िडेंट साहब पहले से कोई सूचना दिये बिना किसी बहुत ही ख़ास मेहमान को अपने साथ लेकर आ गये। निज़ाम ने चुपके से नौकर के कान में कुछ कहा और वह दूसरे मेहमान के लिए भी एक ट्रे लेकर आया। उसमें भी वही एक प्याली चाय, एक बिस्कुट और एक सिगरेट रखी थी।

ज़्यादातर रियासतों में यह दस्तूर था कि साल में एक बार बड़-बड़े अमीर-उमरा और जागीदार अपने राजा को एक अशरफ़ी का नज़राना पेश करते थे; राजा अशरफी को छूकर ज्यों-का-त्यों वापस कर देता था। लेकिन हैदराबाद में नज़राने को इस तरह वापस कर देने का कोई दस्तूर नहीं था। निज़ाम हर अशरफी को झपटकर उठा लेते थे और अपने तख्त के पास रखे हुए कागज के एक थैले में डालते जाते थे। एक बार एक अशरफ़ी गिर पड़ी। निज़ाम फ़ौरन कुहनियों और घुटनों के बल रेंगते हुए इस लुढकती हुई अशरफ़ी को पकड़ने के लिए लपके।

निज़ाम का सोने का कमरा किसी गन्दी बस्ती की झोपड़ी की कोठरी मालूम होता था। उसमें टूटा-सा पलंग, एक टूटी-सी मेज और तीन टीन की कुर्सियों के अलावा कोई फ़र्नीचर नहीं था। हर ऐश-ट्रे जली हुई सिगरेटों के टुकड़ों और राख से ऊपर तक भरी रहती थी; यही हाल रद्दी कागज की टोकरियों का था जिन्हें साल में सिर्फ एक बार उनकी सालगिरह के दिन साफ़ किया जाता था। उनके दफ़्तर में धूल से अटे हुए सरकारी काग़ज़ों के ढेर लगे रहते थे और छत पर ढेरों मकड़ी के जाले।

फिर भी उस महल के अँधेरे कोनों में इतनी दौलत छुपी हुई थी कि कोई हिसाब नहीं। निज़ाम की मेज की एक दराज में एक पुराने अख़बार में लिपटा हुआ मशहूर जेकब हीरा रखा रहता था, जो नींबू के बराबर था, पूरे 280 कैरेट का जगमगाता हुआ अनमोल हीरा। निज़ाम उसे पेपरवेट की तरह इस्तेमाल करते थे। उनके बाग़ में जहां चारों ओर झाड़-झँखाड़ उगा रहता था दर्जनों ट्रकें ऊपर तक लदी हुई सोने की ठोस ईटों के बोझ की वजह से पहियों की धुरी तक कीचड़ से धँसी हुई खड़ी रहती थी। निज़ाम के हीरे-जवाहरात तहख़ानों के फ़र्श पर कोयले के टुकड़ों की तरह बिखरे पड़े रहते थे; नीलम, पुखराज, लाल हीरे के मिले-जुले ढेर जगह-जगह लगे रहते थे। कहा जाता था कि उनमें अकेले मोती ही इतने थे कि लन्दन के पिकैडिली सर्कस के सारे फ़ुटपाथ उनसे ढक जाते। उनके पास बीस लाख पौंड से ज्यादा नकद रकम रही होगी- पौंड और रुपयों में-जिसके उन्होंने पुराने अख़बारों में लपेटकर तहख़ानों और दुछत्तियों के धूल से अटे हुए कोनों में ढेर लगा रखे थे। वहाँ पड़े-पड़े निज़ाम की इस दौलत पर ब्याज तो क्या मिलता, उलटे उनमें से हर साल कई हज़ार पौंड के नोट चूहे कुतर जाते थे।

1947 के बाद तो निज़ाम भारत छोड़कर भाग गया, लेकिन उसके धन का क्या हुआ- शायद भारत सरकार को मालूम होगा???
Sanjay Dwivedi

Small story of Mahabharat

भगवान श्री कृष्ण ने कहा हैं :- "धर्मयुद्ध में कोई निरपक्ष नहीं रह सकता " |


महाभारत के युद्ध के समय जब पांडवो और कौरवो दोनों द्वारिका में मदद मांगने गए तो बलराम जी ने किसी की तरफ से भी लड़ने से मना कर दिया और तीर्थ यात्रा पर निकल गए |

और वो जब आये तो महाभारत का अंतिम भाग चल रहा था |
जब उनके देखते देखते भीम ने दुर्योधन की जंघा तोड़ डाली तो बलराम जी भीम का वध करने पर अड़ गए |

तब भगवन श्री कृष्ण ने उन्हें रोकते हुए कहा
"रुक जाओ दाऊ , पहले मेरी बात सुनो फिर जो चाहे वोह करो " |
बलराम जी बोले " अब बोलने को रह क्या गया हैं किशन ??

और में येह भी जानता हूँ की अब इसके बचाव में तुम कुछ भी नहीं कह सकते |
भगवान बोले " यदि बोलने को कुछ ना होता तो बीच में आता ही क्यूँ ??
में यह नहीं कहता की मझले भैया भीम ने किसी मर्यादा का उलंघन नहीं किया हैं
अवश्य किया हैं |
परन्तु हे दाऊ आपने कभी दुर्योधन को तो नहीं रोका |

क्या मर्यादा भी पक्षपात करती हैं दाऊ की यदि दुर्योधन कोई मर्यादा का
उलंघन करेतो वोह ठीक और यदि भीम भैया से कोई मर्यादा का उलंघन हो जाए
तो उनके लिए मृत्युदंड ??

येह तो कोई नहीं न्याय नहीं हैं दाऊ | टूटना ही था इस जंघा को क्यूंकि मंझले
भैया प्रतिज्ञा बद्ध थे , यदि आप उनके स्थान पर रहे होते तो आप क्या करते
दाऊ ?? हे दाऊये ना भूलिए जब येह सब आपके पास सहायता मांगने आये थे
तब आप तीर्थ यात्रापर निकल गए थे दाऊ तीर्थ यात्रा पर ...........

" जब धर्म और अधर्म के बीच युद्ध होने जा रहा हो दाऊ...
तब केवल एक ही तीर्थ स्थान रह जाता हैं ---रणभूमि "

जिस युद्ध से आप भाग गए थे दाऊ उसके अंतिम क्षणो में आकर उस पर अपना प्रभाव डालने कायत्न ना कीजिये |

वैसे आप दाऊ हैं यदि आप फिर भी भीम का वध करना ही चाहते हैं तो
लीजिये में हट जाता हूँ बीच से | बलराम जी लज्जित हो कर वहां से चले गए|
तो फिर बंधुओं अब आप लोग किसकी तरफ से लड़ना चाहेंगे इस धर्मयुद्ध में इसका फैसला आज और अभी कर लो....

अब कृपया ये मत पूछ लेना कोन सा युद्ध......!!!
आप सब समझदार है.....

 Sanjay Dwivedi