Friday, May 22, 2015

Ottoman Empire- Part 1 उस्मानिया साम्राज्य – खिलाफत और खलीफा के संक्षिप्त इतिहास- Part 2


भारत उन दिनों आज से कहीं बड़ा था. पाकिस्तान और बांग्लादेश ही नहीं, श्री लंका और म्यांमार (बर्मा) भी ब्रिटिश भारत का हिस्सा हुआ करते थे तब भी, सेना में भर्ती के लिए अंग्रेजों की पसंद उत्तरी और उत्तर-पश्चिमी भारत के सिख, मुसलमान और हिंदू क्षत्रिय ही होते थे. उनके बीच से सैनिक व असैनिक किस्म के कुल मिलाकर लगभग 15 लाख लोग भर्ती किए गए थे अगस्त 1914 और दिसंबर 1919 के बीच उनमें से 6,21,224 लड़ने-भिड़ने के लिए और 4,74,789 दूसरे सहायक कामों के लिए अन्य देशों में भेजे गए इस दौरान एशिया, अफ्रीका और यूरोप के विभिन्न मोर्चों पर कुल मिलाकर करीब आठ लाख भारतीय सैनिक जी-जान से लड़े इनमें 74,187 मृत या लापता घोषित किए गए और 69, 214 घायल हुए ,,इस लड़ाई में भारत का योगदान सैनिकों व असैनिक कर्मियों तक ही सीमित नहीं था भारतीय जनता के पैसों से 1,70,000 पशु और 3,70,000 टन के बराबर रसद भी मोर्चों पर भेजी गई.
लड़ाई का खर्च चलाने के लिए गुलाम भारत की अंग्रेज सरकार ने लंदन की सरकार को 10 करोड़ पाउन्ड अलग से दिए भारत की गरीब जनता का यह पैसा कभी लौटाया नहीं गया मिलने के नाम पर पैदल सैनिकों को केवल 11 रुपये मासिक वेतन मिलता था..!!
13, 000 भारतीय सैनिकों को बहादुरी के पदक मिले और 12 को ‘विक्टोरिया क्रॉस.’ किसी भारतीय को कोई ऊंचा अफसर नहीं बनाया गया न कभी यह माना गया कि भारी संख्या में जानलेवा हथियारोंवाली ‘औद्योगिक युद्ध पद्धति’ से और यूरोप की बर्फीली ठंड से अपरिचित भारतीय सैनिकों के खून-पसीने के बिना इतिहास के उस पहले विश्वयुद्ध में ब्रिटेन की हालत बड़ी खस्ता हो जाती…यह है गाँधीवादी सेक्यूलर बुर्के में अंग्रेजियत के कुकर्म छुपाने में ही सहायक रही कांग्रेस पार्टी की आजतक की कुल व मुख्य उपलब्धि ।
1915 के आखिर तक फ्रांस और बेल्जियमवाले मोर्चों पर के लगभग सभी भारतीय पैदल सैनिक तुर्की के उस्मानी साम्राज्यवाले मध्यपूर्व में भेज दिये गए. केवल दो घुड़सवार डिविजन 1918 तक यूरोप में रहे. तुर्की भी नवंबर 1914 से मध्यवर्ती शक्तियों की ओर से युद्ध में कूद पड़ा था. भारतीय सैनिक यूरोप की कड़ाके की ठंड सह नहीं पाते थे. मध्यपूर्व के अरब देशों में यूरोप जैसी ठंड नहीं पड़ती. वे भारत से बहुत दूर भी नहीं हैं, इसलिए भारत से वहां रसद पहुंचाना भी आसान था. यूरोप के बाद उस्मानी साम्राज्य ही मुख्य रणभूमि बन गया था. इसलिए कुल मिलाकर 5,88,717 भारतीय सैनिक और 2,93,152 असैनिक कर्मी वहां के विभिन्न मोर्चों पर भेजे गए ब्रिटेन, फ्रांस और रूस का मित्रराष्ट्र-गुट तुर्क साम्राज्य की राजधानी कोंस्तांतिनोपल पर, जिसे अब इस्तांबूल कहा जाता है, कब्जा करने की सोच रहा था. इस उद्देश्य से ब्रिटिश और फ्रांसीसी युद्धपोतों ने, 19 फरवरी, 1915 को, तुर्की के गालीपोली प्रायद्वीप के तटवर्ती भाग पर- जिसे दर्रेदानियल (डार्डेनल्स) जलडमरूमध्य के नाम से भी जाना जाता है- गोले बरसाए. लेकिन न तो इस गोलाबारी से और न बाद की गोलीबारियों से इच्छित सफलता मिल पाई,, इसलिए तय हुआ कि गालीपोली में पैदल सैनिकों को उतारा जाए. 25 अप्रैल, 1915 को भारी गोलाबारी के बाद वहां ऑस्ट्रेलिया और न्यूजीलैंड के सैनिक उतारे गए. पर वे भी तेजी से आगे नहीं बढ़ पा रहे थे. उनकी सहायता के लिए भेजे गए करीब 3000 भारतीय सैनिकों में से आधे से अधिक मारे गए. गालीपोली अभियान अंततः विफल हो गया. जिस तुर्क कमांडर की सूझबूझ के आगे मित्रराष्ट्रों की एक न चली, उसका नाम था गाजी मुस्तफा कमाल पाशा. युद्ध में पराजय के कारण उस्मानी साम्राज्य के विघटन के बाद वही वर्तमान तुर्की का राष्ट्रपिता और पहला राष्ट्रपति कमाल अतातुर्क कहलाया. 1919-20 में 27 देशों के पेरिस सम्मेलन द्वारा रची गई वर्साई संधि ने उस्मानी व ऑस्ट्रियाई-हंगेरियाई साम्राज्य का अंत कर दिया और यूरोप सहित मध्यपूर्व के नक्शे को भी एकदम से बदल दिया,,मध्यपूर्व में भेजे गए भारतीय सैनिकों में से 60 प्रतिशत मेसोपोटैमिया (वर्तमान इराक) में और 10 प्रतिशत मिस्र तथा फिलिस्तीन में लड़े. इन देशों में वे लड़ाई से अधिक बीमारियों से मरे. उनके पत्रों के आधार पर इतिहासकार डेविड ओमिसी का कहना है,
 
‘सामान्य भारतीय सैनिक ब्रिटिश सम्राट के प्रति अपनी निष्ठा जताने और अपनी जाति की इज्जत बचाने की भावना से प्रेरित होकर लड़ता था. एकमात्र अपवाद वे मुस्लिम-बहुल इकाइयां थीं, जिन्होंने तुर्कीवाले उस्मानी साम्राज्य के अंत की आशंका से अवज्ञा अथवा बगावत का रास्ता अपनाया. उन्हें कठोर सजाएं भुगतनी पड़ीं.’ एक दूसरे इतिहासकार और अमेरिका में पेन्सिलवैनिया स्टेट यूनिवर्सिटी के प्रोफेसर फिलिप जेंकिन्स इस बगावत का एक दूसरा पहलू भी देखते हैं. उनका मानना है कि वास्तव में प्रथम विश्वयुद्ध में उस्मानी साम्राज्य के विरुद्ध लड़ने से मुस्लिम सैनिकों का इनकार और युद्ध में पराजय के साथ उस्मानी साम्राज्य का छिन्न-भिन्न हो जाना ही वह पहला निर्णायक आघात है जिसने आज के इस्लामी जगत में अतिवाद और आतंकवाद जैसे आंदोलन पैदा किए. अपने एक लेख में वे लिखते हैं, ‘वही उस पृथकतावाद की ओर भी ले गया, जिसने अंततः इस्लामी पाकिस्तान को जन्म दिया और वे नयी धाराएं पैदा कीं जिनसे ईरानी शियापंथ बदल गया.’. प्रो. जेंकिन्स का तर्क है कि ‘जब युद्ध छिड़ा था, तब उस्मानी साम्राज्य ही ऐसा एकमात्र शेष बचा मुस्लिम राष्ट्र था, जो अपने लिए महाशक्ति के दर्जे का दावा कर सकता था. उसके शासक जानते थे कि रूस व दूसरे यूरोपीय देश उसे जीतकर खंडित कर देंगे. जर्मनी के साथ गठजोड़ ही आशा की अंतिम किरण थी. 1918 में युद्ध हारने के साथ ही सारा साम्राज्य बिखरकर रह गया.’ प्रो. जेंकिन्स का मत है कि 1924 में नये तुर्की द्वरा ‘खलीफा’ के पद को त्याग देना 1,300 वर्षों से चली आ रही एक अखिल इस्लामी सत्ता का विसर्जन कर देने के समान था. इस कदम ने ‘एक ऐसा आघात पीछे छोड़ा है, जिससे सुन्नी इस्लामी दुनिया आज तक उबर नहीं सकी,,, प्रो. जेंकिन्स के शब्दों में, ‘खलीफत के अंत की आहटभर से’ ब्रिटिश भारत की तब तक शांत मुस्लिम जनता एकजुट होने लगी. उससे पहले भारत के मुसलमान महात्मा गांधी की हिंदू-बहुल कांग्रेस पार्टी के स्वतंत्रता की ओर बढ़ते झुकाव से संतुष्ट थे. लेकिन अब, खिलाफत आंदोलन चलाकर मुस्लिम अधिकारों और एक मुस्लिम राष्ट्र की मांग होने लगी. यही आंदोलन 1947 में भारत के रक्तरंजित विभाजन और पाकिस्तान के जन्म का स्रोत बना.’
स्मरणीय यह भी है कि महात्मा गांधी प्रथम विश्वयुद्ध के समय पूर्ण स्वतंत्रता के लिए कोई आन्दोलन छेड़कर ब्रिटिश सरकार की परेशानियां बढ़ाने के बदले उसे समर्थन देने के पक्षधर थे. ब्रिटिश अधिकारी भी यही संकेत दे रहे थे कि संकट के इस समय में भारतीय नेताओं का सहयोग भारत में स्वराज या स्वतंत्रता का इंतजार घटा सकता है. लेकिन, युद्ध का अंत होने के बाद सब कुछ पहले जैसा ही रहा. लंदन में ब्रिटिश मंत्रिमंडल की बैठकों में तो यहां तक कहा गया कि भारत को अपना शासन आप चलाने लायक बनने में अभी 500 साल लगेंगे…!!
भारतीय राजनीति में जिन्ना का उदय 1916 में कांग्रेस के एक नेता के रूप में हुआ था, जिन्होने हिन्दू-मुस्लिम एकता पर जोर देते हुए मुस्लिम लीग के साथ लखनऊ समझौता करवाया था। गौरतलब है कि 1910 ई. में वे बम्बई के मुस्लिम निर्वाचन क्षेत्र से केन्द्रीय लेजिस्लेटिव कौंसिल के सदस्य चुने गए, 1913 ई. में मुस्लिम लीग में शामिल हुए और 1916 ई. में उसके अध्यक्ष हो गए जिन्ना अखिल भारतीय मुस्लिम लीग के अध्यक्ष की हैसियत से संवैधानिक सुधारों की संयुक्त कांग्रेस लीग योजना पेश की। इस योजना के अंतर्गत कांग्रेस लीग समझौते से मुसलमानों के लिए अलग निर्वाचन क्षेत्रों तथा जिन प्रान्तों में वे अल्पसंख्यक थे, वहाँ पर उन्हें अनुपात से अधिक प्रतिनिधित्व देने की व्यवस्था की गई। इसी समझौते को ‘लखनऊ समझौता’ कहते हैं।
लखनऊ की बैठक में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के उदारवादी और अनुदारवादी गुटों का फिर से मेल हुआ। इस समझौते में “संभावित स्वराज वाली भारत सरकार” के ढांचे और हिंदू तथा मुसलमान समुदायों के बीच सम्बन्धों के बारे में प्रावधान था और बाल गंगाधर तिलक ही इस समझौते के प्रमुख निर्माता थे तिलक को देश लखनऊ समझौता और केसरी अखबार के भी लिए याद करता है।
पहले के हिसाब से ये प्रस्ताव गोपाल कृष्ण गोखले के राजनीतिक विधान को आगे बढ़ाने वाले थे इनमें प्रावधान था कि प्रांतीय और केंद्रीय विधायिकाओं का तीन-चौथाई हिस्सा व्यापक मताधिकार के जारिये चुना जाये और केंद्रीय कार्यकारी परिषद के सदस्यों सहित कार्यकारी परिषदों के आधे सदस्य परिषदों द्वारा ही चुने गए भारतीय हों,, केंद्रीय कार्यकारी के प्रावधान को छोडकर ये प्रस्ताव आमतौर पर 1919 के भारत सरकार अधिनियम में शामिल थे काँग्रेस प्रांतीय परिषद चुनाव में मुसलमानों के लिए अलग निर्वाचक मण्डल तथा पंजाब एवं बंगाल को छोडकर, जहां उन्होने हिंदू और सिख अल्पसंख्यकों को कुछ रियायतें दी, सभी प्रान्तों में उन्हें रियायत (जनसंख्या के अनुपात से ऊपर) देने पर भी सहमत हो गई यही समझौता कुछ इलाकों और विशेष समूहों को पसंद नहीं था, लेकिन इसने 1920 से गांधी के असहयोग आंदोलन के बुर्के में खिलाफत आंदोलन के लिए तथाकथित हिंदू मुस्लिम सहयोग का रास्ता साफ किया बस खोते जनाधार को पा कर और बढाने और स्वराज के नाम पर तथाकथित आजादी आंदोलन के पहले कांग्रेसी कदम का सच यही था “मुस्लिम तुष्टिकरण” ।
कांग्रेस ने मो.अली जौहर, खिलाफत कमेटी, मुस्लिम लीग, जमीयत उल उलेमा और नवाबों, जागीरदारों, जमींदारों के साथ मिल कर भारत में पहले आधिकारिक “जिहाद” और “इस्लाम खतरे में” के नारे के जन्म की नींव रखी जिसमें संपूर्ण आजादी की मांग तो गौण थी अपितु ब्रिटिश राज की प्रथम विश्वयुद्धीय लडाई के लिये सैनिक जुटाने के प्रयत्न ही मुख्य थे और भारत की अधिकांश जनता का इससे ध्यान हटाने या ध्यान बंटाने को मुसलमानों हेतु ‘खिलाफत आंदोलन’ और महामूर्ख हिंदुओं हेतु ‘असहयोग आंदोलन’ ब्रिटिश राज के ही अधीन रहने वाले “स्वराज उर्फ डोमेनियन स्टेट स्टेटस” के लिये, आंतरिक शासन सत्ता प्राप्ति हेतु कुलीन लोगों द्वारा शुरू कर आम भारतीय को मूर्ख बनाया गया जिसका उदाहरण लखनऊ पैक्ट है।
“अगर हिन्दू-मुस्लिम एकता वाले ऐतिहासिक लखनऊ समझौते को संविधान में मान लिया गया होता तो शायद न देश का बंटवारा होता और न ही जिन्ना की कोई गलत तस्वीर हमारे मन में होती।” यह सत्य तो हमारे वर्तमान राष्ट्रपति श्री प्रणब मुखर्जी द्वारा भी कहा गया है।
जिन्ना भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के समर्थक थे, परन्तु गांधी के असहयोग आंदोलन के बुर्के में खिलाफत आंदोलन के समर्थन चलाये जाने का उन्होंने तीव्र विरोध किया और इसी प्रश्न पर खिलाफत आंदोलन और असहयोग आंदोलन की असफलता के चलते काँग्रेस से अलग हो गए इसके बाद से मो.अली जौहर, डॉ. मुख्तार अहमद अंसारी, मौलाना अबुल कलाम, अब्दुल रहमान सिद्दीकी और चौधरी खलीक उज्जमां की संगत में उनके ऊपर हिंदू राज्य की स्थापना के भय का भूत सवार हो गया उन्हें यह मुस्लिम जेहादी ग़लत फ़हमी हो गई कि हिन्दू बहुल हिंदुस्तान में मुसलमानों को उचित प्रतिनिधित्व कभी नहीं मिल सकेगा सो वह एक नए राष्ट्र पाकिस्तान की स्थापना के घोर समर्थक और प्रचारक बन गए थे।
जिन्ना व मुस्लिम लीग गिरोह का कहना था कि अंग्रेज लोग जब भी सत्ता का हस्तांतरण करें, उन्हें उसे हिन्दुओं के हाथ में न सौंपें, हालाँकि वह बहुमत में हैं ऐसा करने से भारतीय मुसलमान को हिन्दुओं की अधीनता में रहना पड़ेगा, जिन्ना अब भारतीयों की स्वतंत्रता के अधिकार के बजाए मुसलमानों के अधिकारों पर अधिक ज़ोर देने लगे इस के लिये उन्हे कांग्रेस के अप्रत्यक्ष सहयोग के साथ साथ उन्हें अंग्रेज़ों का सामान्य कूटनीतिक समर्थन मिलता रहा जो अंग्रेजों ने सऊदो व वहाबियों समेत मुस्तफा कमाल माशा ‘अतातुर्क’ को सऊदी अरब निर्माण , आधुनिक ‘सेक्यूलर तुर्की’ निर्माण और तुर्की के सुन्नी खलीफत के खात्मे हेतु दिया था इसके फलस्वरूप वे अंत में भारतीय मुसलमानों के नेता के रूप में देश की राजनीति में उभड़े। मोहम्मद अली जिन्ना ने मुस्लिम लीग का पुनर्गठन किया और ‘क़ायदे आज़म’ (महान नेता) व पाकिस्तान के राष्ट्रपिता ‘अता पाकिस्तान’ के रूप में विख्यात हुए साथ ही अंग्रेज कूटनीति के कारण मुस्तफा कमाल पाशा भी ‘अता तुर्क’ बने और गांधी ‘जी’ को हम स्वयंभू “राष्ट्रपिता यानि अता हिंदुस्तान” के रूप में मानते ही हैं।
अब वापिस खिलाफत आंदोलन और उसके प्रमुख रहे अन्य लीडरों की और चलते हैं …!
बहुत से प्रबुद्ध पाठकों समेत आम जनता तक ने डॉ. मुख्तार अहमद अंसारी और चौधरी खलीक उज्जमां समेत अब्दुल रहमान सिद्दीकी आदि के बारे में नहीं सुना होगा …!
चलिये सिलेसिलवार हम अखिल भारतीय खिलाफत कमेटी / All India Khilafat Committee और मुस्लिम लीग के लीडरों से पाकिस्तान के जन्मदाता रहे “असल कांग्रेसी सहयोगियों ” से दो चार होते हैं-
1.) डॉ. मुख्तार अहमद अंसारी
आजकल के प्रचलित ‘सेक्यूलर’ किंतु वास्तविकता का गला घोंट चुके “लिखित इतिहास” में कहते हैं कि डॉ मुख्तार अहमद अंसारी –
एक भारतीय राष्ट्रवादी और राजनेता होने के साथ-साथ भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस और मुस्लिम लीग के पूर्व अध्यक्ष थे।
वे जामिया मिलिया इस्लामिया विश्वविद्यालय के संस्थापकों में से एक थे, 1928 से 1936 तक वे इसके कुलाधिपति भी रहे
किंतु वास्तविकता में डॉ. मुख्तार अहमद अंसारी खिलाफत कमेटी के प्रमुख सदस्य व जन्मदाताओं में से एक होने के अलावा कट्टर इस्लामी व्यक्ति थे जो कि तुर्की के खलीफा और उसके लोगों की मदद के लिये मालो असबाब समेत एक पूरा मेडिकल मिशन ले कर हिंदुस्तान से तुर्की गये थे जिसकी गवाह उपर लगी फोटो है और उसमें शानिल लोगों के बारे में आगे बताता चलूंगा …!
डॉ मुख्तार अहमद अंसारी का जन्म 25 दिसम्बर 1880 को नॉर्थ-वेस्टर्न प्रोविन्सेस (अब उत्तरप्रदेश ) के गाजीपुर जिले में यूसुफपुर-मोहम्मदाबाद शहर में हुआ था,,उन्होंने विक्टोरिया हाई स्कूल में शिक्षा ग्रहण की और बाद में वे और उनका परिवार हैदराबाद चले गए वहां जाने के बाद अंसारी ने मद्रास मेडिकल कॉलेज से चिकित्सा की डिग्री प्राप्त की और छात्रवृत्ति पर अध्ययन के लिए इंग्लैंड चले गए जहाँ उन्होंने एम.डी. और एम.एस. दोनों की उपाधियाँ हासिल की कहा जाता है कि वे एक उच्च श्रेणी के छात्र थे और उन्होंने लंदन में लॉक हॉस्पिटल और चैरिंग क्रॉस हॉस्पिटल में कार्य किया वे सर्जरी क्षेत्र में भारत के अग्रणी थे और आज भी लंदन के चैरिंग क्रॉस हॉस्पिटल में उनके कार्य के सम्मान में एक अंसारी वार्ड मौजूद है।
डॉ. अंसारी इंग्लैंड में अपने प्रवास के दौरान भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन में शामिल हुए. वे वापस दिल्ली आये तथा काँग्रेस व मुस्लिम लीग दोनों में शामिल हो गए,, 1916 की “लखनऊ संधि” की बातचीत में उन्होंने एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाई और 1918 से 1920 के बीच लीग के अध्यक्ष के रूप में कार्य किया।
डा.अंसारी खिलाफत आंदोलन के एक मुखर समर्थक थे और उन्होंने इस्लाम के खलीफा, तुर्की के सुल्तान को हटाने के मुस्तफा कमाल तथा ब्रिटिश राज के निर्णय के खिलाफ सरकारी खिलाफत निकाय, लीग और कांग्रेस पार्टी को एक साथ लाने और ब्रिटिश राज द्वारा तुर्की की आजादी की मान्यता का विरोध करने के लिए प्रमुख लीडर की तरह ही काम किया..!!
1927 के सत्र के दौरान वे भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के अध्यक्ष भी रहे. 1920 के दशक में लीग के भीतर अंदरूनी लड़ाई और राजनीतिक विभाजन और बाद में चौधरी खलीक उज्जमां, जिन्ना और मुस्लिम अलगाववाद के उभार के तथाकथित परिणाम स्वरूप डॉ॰ अंसारी महात्मा गांधी और कांग्रेस पार्टी के करीब आ गए लेकिन यह आधा सच है वास्तविकता यह है कि डॉ. अंसारी (जामिया मिलिया इस्लामिया की फाउंडेशन समिति) के संस्थापकों में से एक थे और 1927 में इसके प्राथमिक संस्थापक, डॉ.हाकिम अजमल खान की मौत के कुछ ही समय बाद उन्होंने दिल्ली में जामिया मिलिया इस्लामिया विश्वविद्यालय के कुलाधिपति के रूप में भी काम किया,, डा.अंसारी परिवार एक महलनुमा घर में रहता था जिसे उर्दू में दारुस सलाम या अंग्रेजी में एडोबे ऑफ पीस कहा जाता था, महात्मा गांधी जब भी दिल्ली आते थे, डा.अंसारी परिवार ही अक्सर उनका स्वागत करता था और यह घर कांग्रेस की राजनीतिक गतिविधियों का एक नियमित आधार था और डा. मुख्तार अहमद अंसारी महात्मा गांधी के बहुत करीबी थे जिस कारण गांधी व कांग्रेस ने धार्मिक आधार पर, Two Nation Theory / द्विराष्ट्रवाद सिद्धांत के तहत भारत विभाजन के बावजूद मुसलमानों को भारत में उनकी विलासी व आलीशान ‘विरासतों’ और धन संपत्ति से अलग नहीं होने दिया , कुल मिला कर खिलाफत आंदोलनों से लेकर पाकिस्तान निर्माण तक जिन मुसलमानों ने हिंदू खून की होली खेली वो तो यहाँ से गये ही नहीं जो गये भी वो अपने आधे से ज्यादा नाते रिश्तेदार यहीं छोड कर गये अपनी तथाकथित विरासत और “आजादी” की लडाई में अपने ‘योगदान’ गिनवाने को…!!
Choudhry Khaliquzzaman seconding the Lahore Resolution with Muhammad Ali Jinnah chairing the Lahore session
2.) चौधरी खलीक उज्जमां / Choudhry Khaliquzzaman (25 December 1889 – 1973)
ये साहब तो पाकिस्तानी बन गये थे और पाकिस्तान शब्द की मूल उपज का जरिया इनका दिमाग ही था,,,
चौधरी खलीक उज्जमां भी यूनाईटेड प्रोविंसेंसेज यानि आज के उत्तर प्रदेश के मिर्जापुर निवासी कट्टर सुन्नी मुस्लिम घराने के खानदानी जमींदार और 1916 में MAO College से BA,L.L.B. पढे हुऐ नामी वकील ही थे (तब और आज तक की सार्थक राजनैतिक परंपरा अनुसार)
ये भी अखिल भारतीय मु्स्लिम लीग तथा खिलाफत कमेटी के प्रमुख लीडरान में से एक थे,, ये डॉ. अंसारी के तुर्की गये मेडिकल मिशन के भी प्रमुख सदस्य थे, ये खिलाफत आंदोलन के दौरान तुर्की में जनसत्ता परिवर्तन के बाद बदला लेने की ख्वाहिशों के साथ मोहम्मद अली जौहर के साथ अफगानिस्तान में हिंदू व हिंदुस्तान के खिलाफ सेना बनाने के अभियान के मुख्य सूत्रधारों में से एक थे लेकिन जब अफगानियों ने 18000 से ज्यादा “भारतीय” मुसलमान ‘बिरादरान’ को लूटपाट कर कत्ल कर दिया तो इन्ही जनाब के नेतृत्व में बचेखुचे ‘भारतीय’ मुसलमानों ने भारत आकर मोपला दंगों सहित कई कत्लेआम तुर्की के खलीफा की खिलाफत के संबंध में किये थे और सेक्यूलर कांग्रेस व डरपोक सेक्यूलर भारत की जलील नींव रखी थी..!!
यानि कुल जमा बात यह है कि चौधरी खलीक उज्जमां खिलाफत आंदोलन के असफल हो जाने और हालिया मुस्लिम अत्याचारों के अपेक्षित होते जवाब को लेकर भारी दबाव में थे कि उनको तुरूप का इक्का मुहम्मद इकबाल नामक शायर के रूप में मिल गया और चौधरी खलीक फिर जी उठे ।
इकबाल के दादा सहज सप्रू हिंदू कश्मीरी पंडित थे जो बाद में सिआलकोट आ गए और मुसलमान बन गये,चौधरी खलीक उज्जमां के नेतृत्व काल में ही सर मुहम्मद इकबाल उर्फ अल्लामा इकबाल ने ही भारत विभाजन और पाकिस्तान की स्थापना का विचार सबसे पहले उठाया था।
1930 में इन्हीं के नेतृत्व में मुस्लिम लीग की पूरी कमेटी ने सबसे पहले भारत के विभाजन की माँग उठाई। इसके बाद चौधरी खलीक उज्जमां ने जिन्ना को भी मुस्लिम लीग में शामिल होने के लिए प्रेरित किया और उनके साथ पाकिस्तान की स्थापना के लिए काम किया इन्हें पाकिस्तान व पाकिस्तानी इतिहास निर्माण में बहुत सम्मानीय स्थान प्राप्त हैं, पाकिस्तान में चौधरी खलीक उज्जमां / Choudhry Khaliq-Uz-Zaman के नाम पर सडकें, स्कूल, चौक, पार्क व कॉलेज हैं, चौधरी खलीक उज्जमां की 11 अगस्त 1947 की स्पीच पाकिस्तान निर्माण की राह में मील का पत्थर मानी जाती है।
मोहनदास करमचन्द्र गाँधी (कुछ के लिए महात्मा ) उसे अनाधिकारिक रूप से तो भारत का राष्ट्रपिता (अता हिंदुस्तान) कहा जाता है परन्तु उस व्यक्ति ने भारत की कितनी और किस तरह से सेवा की थी इस सम्बन्ध में लोग चर्चा करने से भी डरते हैं या करना चाहते ही नहीं, गांधी के अनुयायी गांधी का असली चेहरा देखना व दिखाना ही नहीं चाहते हैं क्यूँ की वो इतना ज्यादा भयानक है उसे देखने के लिए गांधीवादियों व भारत को साहस जुटाना होगा , सभी गांधीवादी , महात्मा गांधी (??) को अहिंसा का पुजारी (??) मानते हैं जिसने कभी भी किसी तरह की हिंसा नहीं की परन्तु वास्तविकता तो यह है की बीसवी सदी के सबसे पहले हिन्दुओं के नरसंहार का तानाबाना बुनने और खिलाफत आंदोलन को भारत व्यापी हिंदू मुस्लिम एकता की आड़ में गांधी नेतृत्व की कांग्रेसी देन है, भारत में इस्लामी जिहाद और पहली बार ‘इस्लाम खतरे में’ सरीखे आत्मघाती नारे की इजाद का सहयोग और मुसलमानों में 1000 साल की तत्कालीन भारत पर रही हूकूमत का झूठा संहारी प्रचार भी इसी मोहनदास करमचन्द्र गांधी नेतृत्व की कांग्रेस ने ही किया था ..!!
हमारी इतिहास की किताबों (जो की कम्युनिस्टों / कांग्रेसियत ने ही लिखी हैं ) में खिलाफत आन्दोलन भी पढाया जाता है और यह बताया जाता है कि ये खिलाफत आन्दोलन राष्ट्रीय भावनाओं का उभार था जिसमे देश के हिन्दुओं और मुसलमानों ने कंधे से कन्धा मिलकर भाग लिया था परन्तु इस बारे कुछ नहीं बताया जाता है एक विदेशी शासन और वहां की सत्ता का संघर्ष का संघर्ष भारत के राष्ट्रीय भावनाओं का उभार कैसे हो सकता है ?
खिलाफत आन्दोलन एक विशुद्ध सांप्रदायिक इस्लामिक चरमपंथी आन्दोलन था जो की इस भावना से संचालित था की पूरी दुनिया इस्लामिक और गैर इस्लामिक दो तरह के राष्ट्रों में बंटी हुई है और पूरी दुनिया के मुस्लिमों ने, तुर्की के खलीफा के पद को समाप्त किये जाने को गैर इस्लामिक देश के इस्लामिक देश पर आक्रमण के रूप में देखा था जिसमें ब्रिटेन के साथ बडी संख्या में भारतीय गैर मुसलमान ही शामिल थे सो इस कारण ये खिलाफत आन्दोलन एक सुन्नी इस्लामिक आन्दोलन था जो की मुसलमानों के द्वारा गैर मुस्लिमों के विरुद्ध शुरू किया गया था और इसे भारत में अली बंधुओं , डा.अंसारी, चौधरी खलीक, जमीयत उल उलेमा समेत अखिल भारतीय खिलाफत कमेटी ने नेतृत्व प्रदान किया था ..और वकील मोहनदास करमचन्द गांधी जो की उस समय कांग्रेस का नेतृत्व कर रहे थे , उसने इस खिलाफत आन्दोलन को समर्थन देने की घोषणा की ध्यान रहे की खिलाफत आन्दोलन अपने प्रारंभ से ही एक हिंसक आन्दोलन था और इस अहिंसा के कथित पुजारी ने इस हिंसक आन्दोलन को अपना समर्थन दिया (ये वही अहिंसा का पुजारी है जिसने चौरी चौरा में कुछ पुलिसकर्मियों के मरे जाने पर अपना आंदोलन वापस ले लिया था, तथाकथित रूप से हिंसा का समर्थन ना करने की कह कर संपूर्ण आजादी की मांग कर रहे भगत सिंह, राजगुरू, सुखदेव को गोलमेज सम्मेलन के नाम पर फांसी चढाने में अप्रत्यक्ष सहयोग किया, दोनो विश्वयुद्धों में लाखों भारतीय अंग्रेज मदद हेतु स्वराज के झांसे दे कर मरवाये ) और इस गांधी के समर्थन का अर्थ कांग्रेस का समर्थन था इस खिलाफत आन्दोलन के प्रारंभ से इसका स्वरूप हिन्दुओं के विरुद्ध दंगों का था और गांधी ने उसे अपना नेतृत्व प्रदान करके और अधिक व्यापक और विस्तृत रूप दे दिया ..ताकि अंग्रेजों के खिलाफ एकत्रित होता असंतोष और सुनियोजित विद्रोह फलित ना होने पाये और अंग्रेज़ व अंग्रेजियत को सम्भलने का समय मिलता रहे उनका कोई नुकसान ना होने पाये।
जब अली भाइयों के नेतृत्व में संपूर्ण खिलाफत कमेटी ने कबाईलियों और अफगानिस्तान के अमीर को भारत पर आक्रमण के लिए आमंत्रित किया था तब इस कथित अहिंसक महात्मा ने कहा था कि –
“यदि कोई बाहरी शक्ति इस्लाम की प्रतिष्ठा की रक्षा के लिए और न्याय दिलाने के लिए आक्रमण करती है तो वो उसे वास्तविक सहायता न भी दें तो उसके साथ उनकी पूरी सहानुभूति रहेगी “(गांधी सम्पूर्ण वांग्मय – 17.527 – 528)
अब यह तो स्पष्ट ही है की वो आक्रमणकर्ता हिंसक ही होता और इस्लाम की परिपाटी के अनुसार हिन्दुओं का पूरी शक्ति के साथ कत्लेआम भी करता तो क्या ऐसे आक्रमण का समर्थन करने वाला व्यक्तिअ हिंसक कहला सकता है .. ??
बात इतने पर भी ख़त्म नहीं होती है , जब अंग्रेजों ने पूरी दुनिया में इस आन्दोलन को कुचल दिया और खिलाफत आन्दोलन असफल हो गया तो भारत के मुसलमानों ने क्रोध में आकर पूरी शक्ति से हिन्दुओं की हत्याऐं करनी शुरू कर दी और इसका सबसे ज्यादा प्रभाव मालाबार और दक्षिण संबंधी क्षेत्र में देखा गया था जब वहां पर मुसलमानों द्वारा हिन्दुओं की हत्याऐं की जा रही थीं तब इस मोहनदास करमचन्द गांधी ने कहा था कि –
“अगर कुछ हिन्दू मुसलमानों के द्वारा मार भी दिए जाते हैं तो क्या फर्क पड़ता है ??
अपने मुसलमान भाइयों के हाथों से मरने पर हिन्दुओं को स्वर्ग मिलेगा ….”
मुख्यतया भारत में अखिल भारतीय खिलाफत कमेटी ने जमियत-उल-उलेमा के सहयोग से खिलाफत आंदोलन का संगठन किया तथा मोहम्मद अली ने 1920 में खिलाफत घोषणापत्र प्रसारित किया राष्ट्रीय आंदोलन का नेतृत्व गांधी व कांग्रेस ने किया जो तथाकथित असहयोग आंदोलन था बाद में यह दोनों आंदोलन गांधी जी के प्रभाव में एक हो गए मई, 1920 तक खिलाफत कमेटी ने महात्मा गांधी की अहिंसात्मक असहयोग योजना का तथाकथित समर्थन किया दो कि वास्तविकता में किया ही नहीं, सितंबर 1920-21 में कांग्रेस के विशेष अधिवेशन ने असहयोग आंदोलन के दो ध्येय घोषित किए – “स्वराज्य तथा खिलाफत की माँगों की स्वीकृति”
जब नवंबर, 1922 में तुर्की में मुस्तफा कमाल पाशा ने सुल्तान खलीफा मोहम्मद चतुर्थ को ख़ारिज कर अब्दुल मजीद को पदासीन किया और उसके समस्त राजनीतिक अधिकार आपने पास ले लिए तब भारत से खिलाफत कमेटी ने 1924 में विरोधप्रदर्शन के लिए एक प्रतिनिधिमंडल तुर्की भेजा। राष्ट्रीयतावादी मुस्तफा कमाल ने उसकी हर बार उपेक्षा की और 3 मार्च, 1924 को उन्होंने खलीफा का पद समाप्त कर खिलाफत का अंत कर दिया इस प्रकार, भारत का खिलाफत आंदोलन भी अपने आप समाप्त हो गया था पर इसे ब्रिटेन ,यूरोपियन, सऊदों + वहाबियों की पुरजोर मदद हेतु भावी रणनीति व अर्थव्यवस्था की धुरी समेत धर्म आधारित राजनैतिक रूप देकर गाँधीवादी हिंदू अहिंसा व मुस्लिम जनित हक की हिंसा के जामे में परवान चढाया गया।
मोहम्मद अली और उनके भाई मौलाना शौकत अली ,शेख शौकत अली सिद्दीकी, डा. मुख्तार अहमद अंसारी, रईस उल मुहााजिरीन बैरिस्टर जनवरी मुहम्मद जुनेजो, हसरत मोहानी सैयद अता उल्लाह शाह बुखारी, मौलाना अबुल कलाम आजाद और जैसे अन्य मुस्लिम नेताओं के साथ शामिल हो गए डॉ. हाकिम अजमल खान ऑल इंडिया खिलाफत कमेटी और इस्लामी हकूक बुलंद करने को / बनाने के लिए,, मुसलमान कमेटी लखनऊ, भारत में हाथे शौकत अली, मकान मालिक शौकत अली सिद्दीकी के परिसर पर आधारित था वे सिर्फ मुसलमानों के बीच राजनीतिक एकता बनाने और खिलाफत की रक्षा के लिए अपने प्रभाव का इस्तेमाल करने के उद्देश्य से 1920 में खिलाफत घोषणापत्र के द्वारा, जो ब्रिटिश विरोधी आह्वान किया कि खिलाफत की रक्षा और भारतीय मुसलमानों के लिए एकजुट होना है और इस उद्देश्य के लिए ब्रिटिश, हिंदू जवाबदेह है प्रकशित हुआ ..!!
1920 में खिलाफत नेताओं और भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस राजनीतिक दल के बीच एक गठबंधन बनाया गया था कांग्रेस नेता मोहनदास गांधी हमेशा ही ब्रिटिश राज और खिलाफत नेताओं के लिए ही काम करते हैं और खिलाफत और स्वराज के कारणों के लिए एक साथ लड़ने का झांसेदार वादा गैर मुसलमानो से करते जाते हैं,, खिलाफत के समर्थन में गांधी और कांग्रेस के संघर्ष के दौरान हिंदू – मुस्लिम एकता को सुनिश्चित करने में मदद की जाने का ढोंग रचा जाता है पर मूल में ब्रिटिश सऊदी कूटनीति है यह सब कांग्रेसी नेता पचा जाते हैं।
इसका प्रत्यक्ष प्रमाण है कि जब भारत के लोग 1919 में महात्मा गांधी समर्थित और मौलाना महमूद हसन, मौलाना मुहम्मद अली जौहर, मौलाना हसरत मोहानी, मौलाना अबुल कलाम आजाद समेत कई मुसलिम नेताओं की अगुआई में हिजाज यानी मक्का और मदीना के पवित्र स्थल ब्रिटेन के हाथों में जाने के डर से खिलाफत आंदोलन चला रहे थे, अब्दुल अजीज इब्न सऊद ब्रिटेन के साथ मिल कर उस्मानिया खिलाफत और स्थानीय कबीलों को मार भगाने के लिए लड़ रहा था। अंग्रेजों के दिए हथियार और आर्थिक मदद से अब्दुल अजीज इब्न सऊद ने वर्तमान सऊदी अरब की स्थापना की और वर्षों से ‘वक्फ’ यानी ‘धर्मार्थ समर्पित सार्वजनिक स्थल’ वाले मक्का और मदीना के संयुक्त नाम ‘हिजाज’ को भी ‘सऊदी अरब’ कर दिया गया।
सोकल, कासोक और कालटैक्स के बाद अमेरिका की मर्जर कंपनी अरेबियन ब्रिटिश अमेरिकन आॅयल कंपनी यानी ‘आरामको’ ने व्यवस्थित रूप से 1943 में सऊदी अरब में तेल उत्पादन का कार्य शुरू किया। सैकड़ों तेल कुओं वाले सऊदी अरब को तरल सोने की खान के रूप में ‘घावर’ तेल कुआं मिला, जो दुनिया का सबसे बड़ा तेल उत्पादक कुआं है।
क्या यह सब देश दुनिया से जुडे विलासी बंगलों व कारागारों में रहते, ब्रिटेन व दुनिया घूमते ब्रिटिश व मुस्लिम लीग के परम मित्र ही रहे कांग्रेसियों और गांधी नेहरू को नहीं पता था…??
विश्वास करना मुश्किल है कि Discovery Of India लिखने वाला नेहरू तथा सत्य व ब्रह्मचर्य के प्रयोग वाला दूरंदेशी मोहनदास करमचंद गांधी इस सब कारणों व भविष्य से अंजान रहे होंगे…!!
असहयोग आन्दोलन का संचालन स्वराज की माँग को लेकर किया गया। इसका उद्देश्य सरकार के साथ प्रत्यक्ष सहयोग न करके कार्यवाही में अप्रत्यक्ष बाधा उपस्थित करना ही था, जो कि पूर्णतया आम जन विशेषकर हिंदुओं को मूरख बनाने व आजादी के सर्वोत्तम समय को भुलावे में डाल कर अंग्रेजियत की मदद करने का ही आंदोलन सरीखा था,जनता का मूल मुद्दों से ध्यान भटकाने वाला यह असहयोग आन्दोलन गांधी ने 1 अगस्त 1920 को ही आरम्भ किया था ।
कलकत्ता अधिवेशन में गांधी ने प्रस्ताव पेश करते हुए कहा कि, “अंग्रेज़ी सरकार शैतान है, जिसके साथ सहयोग सम्भव नहीं, अंग्रेजी सरकार को अपनी भूलों पर कोई दु:ख नहीं है, अत: हम कैसे स्वीकार कर सकते हैं कि नवीन व्यवस्थापिकाएँ हमारे स्वराज्य का मार्ग प्रशस्त करेंगी। स्वराज्य की प्राप्ति के लिए हमारे द्वारा प्रगतिशील अहिंसात्मक असहयोग की नीति अपनाई जानी चाहिए।”
गांधी जी के इस प्रस्ताव का विरोध करते हुए उस समय ही ऐनी बेसेंट ने कहा कि, “यह प्रस्ताव भारतीय स्वतंत्रता को सबसे बड़ा धक्का है।” गांधी जी के इस विरोध तथा समाज और सभ्य जीवन के विरुद्ध संघर्ष की घोषणा का सुरेंद्रनाथ बनर्जी , मदनमोहन मालवीय ,देशबंधु चितरंजन दास, विपिन चंद्र पाल, जिन्ना, शंकर नायर, सर नारायण चन्द्रावरकर ने प्रारम्भ में विरोध किया। फिर भी अली बन्धुओं एवं मोतीलाल नेहरू, जवाहरलाल नेहरू के समर्थन से यह प्रस्ताव “कांग्रेस” ने स्वीकार कर लिया यही वह क्षण था, जहाँ से भारत हेतु भयावह मुस्लिम व अंग्रेजियत के तुष्टिकारक ‘गांधी व नेहरू मिश्रित युग’ की शुरुआत हुई थी।
दिसम्बर1920 में नागपुर में आयोजित कांग्रेस अधिवेशन में असहयोग प्रस्ताव से सम्बन्धित लाला लाजपत राय एवं चितरंजन दास ने अपना विरोध वापस ले लिया तो गांधी ने नागपुर में कांग्रेस के पुराने लक्ष्य अंग्रेज़ी साम्राज्य के अंतर्गत ‘स्वशासनीय स्वराज’ के स्थान पर अंग्रेज़ों के अंतर्गत ‘स्वराज्य’ का नया लक्ष्य घोषित किया साथ ही गांधी जी ने यह भी कहा कि यदि आवश्यक हुआ तो स्वराज्य के लक्ष्य को अंग्रेज़ी साम्राज्य से बाहर भी प्राप्त किया जा सकता है तब जिन्ना और चौधरी खलीक उज्जमां के चेलों और मोहम्मद अली जौहर ने ‘स्वराज्य’ के उद्देश्य का विरोध इस आधार पर किया कि उसमें यह स्पष्ट नहीं किया गया था कि अंग्रेजी साम्राज्य से कोई सम्बन्ध बनाये रखा जायेगा या नहीं ,, ऐनी बेसेन्ट, मोहम्मद अली जौहर, जिन्ना एवं लाल, बाल, पाल सभी गांधी जी के प्रस्ताव से असंतुष्ट होकर कांग्रेस छोड़कर चले गए।
नागपुर अधिवेशन का ऐतिहासिक दृष्टिकोण से महत्त्व इसलिए है, क्योंकि यहाँ पर वैधानिक साधनों के अंतर्गत स्वराज्य प्राप्ति के लक्ष्य को त्यागकर सरकार के विरोध करने की बात रूपी झांसे को स्वीकार किया गया।
इसी बीच 5 फ़रवरी 1922 को देवरिया ज़िले के चौरी चौरा नामक स्थान पर पुलिस ने जबरन एक जुलूस को रोकना चाहा, इसके फलस्वरूप जनता ने क्रोध में आकर थाने में आग लगा दी, जिसमें एक थानेदार एवं 21 सिपाहियों की मृत्यु हो गई। इस घटना से गांधी जी स्तब्ध रह गए। 12 फ़रवरी 1922 को बारदोली में हुई कांग्रेस की बैठक में असहयोग आन्दोलन को समाप्त करने के निर्णय के बारे में गांधी जी ने यंग इंडिया (जी हाँ यंग इंडिया जो अब नई कंपनियों के मातहती में राहुल गांधी, प्रियंका गांधी व राबर्ट वाड्रे की व्यक्तिगत संपत्तियों में शुमार है और जिस की अचल संपत्तियों को लेकर उन पर एक मामूली व खबरों से जानबूझकर दूर रखा गया केस भी चल रहा है) में लिखा था कि-
“आन्दोलन को हिंसक होने से बचाने के लिए मैं हर एक अपमान, हर एक यातनापूर्ण बहिष्कार, यहाँ तक की मौत भी सहने को तैयार हूं। ”
(कितना बडा झूठ और कितना भयावह नाटक करके भारत व हिंदुओं को धोखा दिया गया, मोपला कांड पर हिंसक चुप्पी साधे हुऐ यह व्याभिचारी महात्मा 21 ब्रिटिशराज के सिपाहियों की मौत व थाने की आग पर हिल कर आंदोलन बंद कर दिया…??
नहीं,,, कारण तो वो थे जो मैनें आपको उपर बताये हैं, यह आंदोलन गले पड रहा था तो किसी ना किसी रूप से बंद करना ही था)
असहयोग आन्दोलन के स्थगन पर मोतीलाल नेहरू ने कहा था कि –
“यदि कन्याकुमारी के एक गाँव ने अहिंसा का पालन नहीं किया, तो इसकी सज़ा हिमालय के एक गाँव को क्यों मिलनी चाहिए।”
अपनी प्रतिक्रिया में नेताजी सुभाषचंद्र बोस ने कहा था कि –
“ठीक इस समय, जबकि जनता का उत्साह चरमोत्कर्ष पर था, वापस लौटने का आदेश देना राष्ट्रीय दुर्भाग्य से कम नहीं”
आन्दोलन के स्थगित करने का प्रभाव गांधी जी की लोकप्रियता पर पड़ा, 13 मार्च 1922 को गांधी जी को गिरफ़्तार किया गया तथा न्यायाधीश ब्रूम फ़ील्ड ने गांधी जी को असंतोष भड़काने के अपराध में 6 वर्ष की सुविधाओं सहित क़ैद की सज़ा सुनाई किंतु ‘स्वास्थ्य सम्बन्धी कारणों’ से उन्हें 5 फ़रवरी 1924 को रिहा कर दिया गया।

Monday, May 18, 2015

Facts about Ancient Hindu Temples


When Arabians and Europeans came to India, the then Hindu kings thought that they were “Athiti” (Guests) hence considered as “Deva” (God). So kings provided them free land and money to build Churches and Mosques along with freedom to worship. Go check old documents – the land for Churches and Mosques was donated by Hindu Kings. (I have never heard otherwise happening anywhere in the world! Will Saudi Arabia or Vatican give a small piece of land to build a Hindu temple?)
Another aspect: Ancient temples (Devalaya) were not a place for prayers. Temples never had a prayer hall like that in Churches or Mosque (Prarthanalaya). Of course, there were mandapa = pillared outdoor hall for performing arts and public rituals in temples. When you go to an old temple, the sanctum sanctorum itself is very small and dark. Hardly two or three people can stand in front of it.
That means temples had some other purpose. Fact: – temples were powerhouses of energy. Every ritual, prayer, ceremonies were only secondary to be in a temple but the main thing is to be in the field of consecrated energy.I don’t know how did they do it, but I have read somewhere that even individual karmic energy can be stored and retrieved in temple. But we lost all those ancient wisdom on energy contact and we are left only with rituals or we have become overly ritualistic, without understanding the real significance of temples.


Another fact is that temples were store house of enormous treasures too. This explains gigantic fort around the temple. Recently Sri Padmanabhaswamy Temple of Thiruvananthapuram was in the news as it became one of the richest Hindu Temple in India. It is believed that the total assets of Sri Padmanabhaswamy Temple have now exceeded the assets of the Tirupati Balaji Temple in Andhra Pradesh. The wealth accumulated in the temples was used purely for dharma deeds.
The priest, mostly a poor Brahmin, in the temple would get one or two meals a day, that’s all. There were chaultries (inns) and rest houses associated with those temples that provided food and shelter for the poor and needy. All the karma was done based on the concept “Sarvam Sri Krishnarpanam Astu” (Everything I offer to Krishna or the divine). Everybody followed the dharmic way of life – the symbolic centre of this system was the temple.
That was our ancient economic system – our dharma was based on sharing and caring. Our ancestors built huge store house of energy, wisdom (libraries and universities) and physical wealth associated with the temple premises. They worked hard and stored everything as treasure for coming generations. And temples were highest seat of marvelous architecture, sculptures, arts and science. And that’s when the anceint world called :”Glory that was India.”
The Dark Age began with the arrival of the brutal, religious fanatic, barbaric invaders who attacked, looted and destroyed the temple-economy. According to independent historians, more than hundred thousand Hindu temples (the likes of Somanatha temple) were destroyed by those demonic invaders and killed nearly 75 million Hindus (preferred death to giving up their dharma) during the process. The entire temple-system was thus perished. They burned away our universities and libraries.
While our ancestors gave importance to education, arts, music, health, environment and nature, the barbaric invaders did not build even one school or hospital. All they did was to build palaces and gardens for their enjoyment, tombs to perpetuate their memory and forts for their security. Lot of beautiful temples were destroyed and converted to tombs – one example could be the Taj Mahal!
Naturally, those ordinary peace-loving Hindus around the temple-system became very scared and insecure; hence they tried protecting the remaining temples. They believed that non-Hindus may destroy it. But, alas, the cunning, pimp-ish Hindu politicians failed the remaining temple-system.
An ardent follower of sanatan dharma like me would not blame any other religions for this downfall. It is our own politicians, who arrogantly taken over the right to manage richest temples in India. For the most part, the temples and its wealth are transferred arbitrarily by the government for “secular”, non-Hindu purposes. The most damaging side-effect of this is lack of resources for maintenance and upkeep of temples, leading to irreparable damage to many medieval and ancient structures. I have personally seen and experienced this.
Hindus are now feeling insecure and scared, not because of Muslims or any other religions, but because of our own “Hindu Secular Politicians” (all political parties included) who are worst and crooked than the brutal and barbaric invaders.
Source: udaypai.in

Sunday, May 17, 2015

TIPU SULTAN- Murderer

टीपू सुल्तान ने १४ दिसम्बर १७८८ को कालीकट के अपने सेना नायक को पत्र लिखा-
''मैं तुम्हारे पास मीर हुसैन अली के साथ अपने दो अनुयायी भेज रहा हूँ। उनके साथ तुम सभी हिन्दुओं को बन्दी बना लेना और यदि वो इस्लाम कबूल ना करे तो उनका वध कर देना।'' मेरा आदेश है कि बीस वर्ष से कम उम्र वालों को काराग्रह में रख लेना और शेष में से पाँच हजार का पेड़ पर लटकाकार वध कर देना।''
(भाषा पोशनी-मलयालम जर्नल, अगस्त १९२३)
(२) बदरुज़ समाँ खान को पत्र लिखा (दिनांक १९ जनवरी १७९०)
''क्या तुम्हें मालूम नहीं है कि मैंने मलाबार में एक बड़ी विजय प्राप्त की है चार लाख से अधिक हिन्दुओं को मुसलमान बना लिया गया । मैंनें अब उस रमन नायर की ओर बढ़ने का निश्चय किया हैं ताकि उसकी प्रजा को इस्लाम में धर्मान्तरित किया जाए। मैंने रंगापटनम वापस जाने का विचार त्याग दिया है।''
(उसी पुस्तक में)
‌३)अब्दुल कादर को पत्र लिखा (दिनांक २२ मार्च१७८८)
"बारह हजार से अधिक, हिन्दुओं को इस्लाम में धर्मान्तरित किया गया। इनमें अनेकों नम्बूदिरी थे। इस उपलब्धि का हिन्दुओं के बीच व्यापक प्रचार किया जाए। ताकि स्थानीय हिन्दुओं में भय व्याप्त हो और उन्हें इस्लाम में धर्मान्तरित किया जाए। किसी भी नम्बूदिरी को छोड़ा न जाए।''
(उसी पुस्तक में)
टीपू ने हिन्दुओं पर अत्यार एवं उनके धर्मान्तरण के लिए कुर्ग एवं मलाबार के विभिन्न क्षेत्रों में अपने सेना नायकों को अनेकों पत्र लिखे थे। जिन्हें प्रख्यात विद्वान और इतिहासकार सरदार पाणिक्कर ने लन्दन के इन्डिया आॅफिस लाइब्रेरी तक पहुँच कर ढूँढ निकाला था।
इन सूचनाओं, सन्देशों एवं पत्रों को आप भी RTI के माध्यम से प्राप्त कर पढ़ सकते हैं..।
टीपू का अपने सेनानायक को एक और पत्र-
''जिले के प्रत्येक हिन्दू का इस्लाम में धर्मान्तरण किया जाना चाहिए; अन्यथा उनका वध करना सर्वोत्तम है; उन्हें उनके छिपने के स्थान में खोजा जाना चाहिए; उनका इस्लाम में सम्पूर्ण धर्मान्तरण के लिए सभी मार्ग व युक्तियाँ सत्य-असत्य, कपट और बल सभी का प्रयोग किया जाना चाहिए।''
(हिस्टौरीकल स्कैचैज ऑफ दी साउथ ऑफ इण्डिया इन
एन अटेम्पट टू ट्रेस दी हिस्ट्री ऑफ मैसूर- मार्क विल्क्स, खण्ड २
 पृष्ठ १२०)
मैसूर के तृतीय युद्ध (१७९२) के पहले से ही टीपू अफगानिस्तान के कट्टर इस्लामी शासक जमनशाह जो भारत में हिन्दुओं के खून की होली खेलने वाले अहमदशाह अब्दाली का परपोता था को पत्र लिखा करता था जिसे कबीर कौसर ने अपनी पुस्तक 'हिस्ट्री ऑफ टीपू सुल्तान' (पृ'१४१-१४७) में इसका अनुवाद किया है।
उस पत्र व्यवहार के कुछ अंश पढ़िये-
टीपू के ज़मन शाह के लिए पत्र
(i) ''महामहिम आपको सूचित किया गया होगा कि,
मेरी महान अभिलाषा का उद्देश्य जिहाद (धर्म युद्ध)
है। मेरी इस युक्ति का अल्लाह 'नोआ के आर्क' की भाँति रक्षा करता है और त्यागे हुए काफिरों की बढ़ी हुई भुजाओं को काटता रहता है।''

(ii) ''टीपू से जमनशाह को, पत्र दिनांक शहबान
का सातवाँ १२११ हिजरी (तदनुसार ५ फरवरी १७९७):
''... .इन परिस्थितियों में जो, पूर्व से लेकर पश्चिम तक,मैं विचार करता हूँ कि अल्लाह और उसके पैगम्बर के आदेशों से हमें अपने धर्म के शत्रुओं के विरुद्ध जिहाद करने के लिए, संगठित हो जाना चाहिए। इस क्षेत्र में इल्लाम के अनुयाई, शुक्रवार के दिन एक निश्चित किये हुए स्थान पर एकत्र होकर प्रार्थना करते हैं।
''हे अल्लाह! उन लोगों को, जिन्होंने इस्लाम का मार्ग रोक रखा है, कत्ल कर दो। उनके पापों को लिए, उनके निश्चित दण्ड द्वारा, उनके सिरों को दण्ड दो।''
मेरा पूरा विश्वास है कि सर्वशक्तिमान अल्लाह अपने प्रियजनों के हित के लिए उनकी प्रार्थनाएं स्वीकार कर लेगा और''तेरी (अल्लाह की) सेनायें ही विजयी होंगी'',
टीपू ने अपनी बहुचर्चित तलवार' पर फारसी भाषा में लिखवाया-
''मेरे मालिक मेरी मदद कर कि मैं संसार से सभी काफिरों(गैर-मुसलमानों) को समाप्त कर दूँ"!
(हिस्ट्री ऑफ मैसूर सी.एच. राव खण्ड ३, पृष्ठ
१०७३)
श्री रंगपटनम के किले में प्राप्त टीपू का खुद लिखवाया एक शिला लेख पढ़िये-
शिलालेख के शब्द इस प्रकार हैं- ''हे सर्वशक्तिमान
अल्लाह! काफिरों(गैर-मुसलमानों) के समस्त समुदाय को समाप्त कर दे। उनकी सारी जाति को बिखरा दो, उनके पैरों को लड़खड़ा दो अस्थिर कर दो! और उनकी बुद्धियों को फेर दो! मृत्यु को उनके निकट ला दो, उनके पोषण के
साधनों को समाप्त कर दो। उनकी जिन्दगी के दिनों को कम कर दो। उनके शरीर सदैव उनकी चिंता के विषय बने रहें, उनके नेत्रों की दृष्टि छीन लो, उनके चेहरे काले कर दो, उनकी जीभ को बोलने के अंग को, नष्ट कर दो! उन्हें शिदौद की भाँति कत्ल कर दो जैसे फ़रोहा को डुबोया था, उन्हें भी डुबो दो, और उन पर अपार क्रोध करो। हे संसार के मालिक मुझे अपनी मदद दो।''
(उसी पुस्तक में पृष्ठ १०७४)
टीपू का जीवन चरित्र
टीपू की फारसी में लिखी, 'सुल्तान-उत-तवारीख'
और 'तारीख-ई-खुदादादी' नाम वाली दो जीवनियाँ हैं।
ये दोनों ही जीवनियाँ लन्दन की इण्डिया ऑफिस लाइब्रेरी में एम.एस. एस. क्रमानुसार ५२१ और २९९ रखी हुई हैं। इन
दोनों जीवनियों में टीपू ने स्वयं को इस्लाम का सच्चा नायक दिखाने के लिए हिन्दुओं पर ढाये अमानवीय अत्याचारों और यातनाओं, का विस्तृत वर्णन खुद ही किया है।
यहाँ तक कि मोहिब्बुल हसन, जिसने अपनी पुस्तक, हिस्ट्री ऑफ टीपू सुल्तान में टीपू को एक समझदार, उदार, और धर्मनिरपेक्ष शासक बताया था उसको भी स्वीकार करना पड़ा था कि
''तारीख यानी कि टीपू की जीवनियों के पढ़ने के बाद टीपू का जो चित्र उभरता है वह एक ऐसे धर्मान्ध, काफिरों से नफरत के लिए मतवाले पागल का है जो गैर-मुस्लिम लोगों की हत्या और उनके इस्लाम में बलात परिवर्तन कराने में सदैव लिप्त रहा आया।''
(हिस्ट्री ऑफ टीपू सुल्तान, मोहिब्बुल हसन, पृष्ठ ३५७)
टीपू ने १७८६ में गद्दी पर बैठते ही मैसूर को मुस्लिम राज्य घोषित कर दिया था और एक आम दरबार में घोषणा की ---
"मैं सभी काफिरों को मुसलमान बनाकर रहूंगा। "तुंरत ही उसने सभी हिन्दुओं को फरमान भी जारी कर दिया और मैसूर के गाँव- गाँव के मुस्लिम अधिकारियों के पास लिखित सूचना भिजवादी कि,
"सभी हिन्दुओं को इस्लाम में दीक्षा दो। जो स्वेच्छा से मुसलमान न बने उसे बलपूर्वक मुसलमान बनाओ और जो पुरूष विरोध करे, उनका कत्ल करवा दो। उनकी स्त्रियों को पकड़कर उन्हें दासी बनाकर मुसलमानों में बाँट दो।"
यह तांडव टीपू ने इतनी तेजी से चलाया कि, पूरे हिंदू समाज में त्राहि त्राहि मच गई. इस्लामिक दानवों से बचने का कोई उपाय न देखकर धर्म रक्षा के विचार से
हजारों हिंदू स्त्री पुरुषों ने अपने बच्चों सहित तुंगभद्रा आदि नदियों में कूद कर जान दे दी। हजारों ने अग्नि में प्रवेश कर अपनी जान दे दी।
इतिहासकार पाणिक्कर के अनुमान से टीपू ने अपने राज्य में लगभग ५ लाख हिन्दुओं को जबरन मुसलमान बनाया था जबकि वास्तविक संख्या इससे कहीं अधिक है।
प्रत्यक्षदर्शियों के वर्णन-
दक्षिण भारत में इस्लाम के प्रसार के लिए टीपू द्वारा किये गये भीषण अत्याचारों और यातनाओं को एक पुर्तगाली यात्री और इतिहासकार, फ्रा बारटोलोमाको ने १७९० में अपनी आँखों से देखा था।
उसने जो कुछ मलाबार में देखा उसे अपनी पुस्तक, 'वौयेज टू ईस्ट इण्डीज' में लिख दिया था-
''कालीकट में हिन्दू आदमियों और औरतों को छोटी गलतियों के लिए फाँसी पर लटका दिया जाता था। ताकि वो जल्दी से जल्दी इस्लाम स्वीकार कर लें।
पहले माताओं को उनके बच्चों को उनकी गर्दनों से बाँधकर लटकाकर फाँसी दी जाती थी। उस बर्बर टीपू द्वारा नंगे हिन्दुओं और ईसाई लोगों को हाथियों की टांगों से बँधवा दिया जाता था और हाथियों को तब तक दौड़ाया जाता था जब तक कि उन असहाय निरीह विपत्तिग्रस्त प्राणियों के शरीरों के चिथड़े-चिथड़े नहीं हो
 जाते थे।
मन्दिरों और गिरिजों में आग लगाने, खण्डित करने, और ध्वंस करने के आदेश दिये जाते थे।
टीपू की सेना से बचकर भागने वालों और वाराप्पुझा पहुँच पाने वाले अभागे व्यक्तियों से सुनकर मैं विचलित हो उठा था... मैंने स्वंय अनेकों ऐसे विपत्ति ग्रस्त व्यक्तियों को वाराप्पुझा नदी को नाव द्वारा पार जाने के लिए सहयोग किया था।' '
(वौयेज टू ईस्ट इण्डीजः फ्रा बारटोलोमाको पृष्ठ १४१-१४२)
टीपू द्वारा मन्दिरों का विध्वंस
दी मैसूर गज़टियर बताता है कि ' 'टीपू ने दक्षिण भारत में आठ सौ से अधिक मन्दिर नष्ट किये थे।''
के.पी. पद्मानाभ मैनन द्वारा लिखित, 'हिस्ट्री ऑफ कोचीन और श्रीधरन मैनन द्वारा लिखित, हिस्ट्री ऑफ केरल' उन नष्ट किये गये मन्दिरों में से कुछ का वर्णन करते हैं-
''चिन्गम महीना ९५२ मलयालम कैलेंडर यानी अगस्त १७८६ में टीपू की फौज ने प्रसिद्ध पेरुमनम मन्दिर की मूर्तियों का ध्वंस किया और त्रिचूर ओर करवन्नूर नदी के मध्य के सभी मन्दिरों का ध्वंस कर दिया।
इरिनेजालाकुडा और थिरुवांचीकुलम के भव्य मन्दिरों को भी टीपू की सेना द्वारा नष्ट किया गया।
''अन्य प्रसिद्ध प्राचीन मन्दिरों में से कुछ, जिन्हें लूटा गया और नष्ट किया गया, था, वे थे-
त्रिप्रंगोट, थ्रिचैम्बरम्, थिरुमवाया, थिरवन्नूर, कालीकट थाली, हेमम्बिका मन्दिरपालघाट का जैन मन्दिर, माम्मियूर, परम्बाताली, पेम्मायान्दु, थिरवनजीकुलम, त्रिचूर का बडक्खुमन्नाथन मन्दिर, वेलूर शिवा मन्दिर आदि।''
टीपू ने अपनी डायरी में लिखा-
"चिराकुल राजा ने मेरी सेना द्वारा स्थानीय मन्दिरों को विनाश से बचाने के लिए मुझे चार लाख रुपये का सोना चाँदी देने का प्रस्ताव रखा था। किन्तु मैंने उत्तर दिया ''यदि सारी दुनिया भी मुझे दे दी जाए तो भी मैं हिन्दू मन्दिरों को ध्वंस करने से नहीं रुकूँगा''
(फ्रीडम स्ट्रगिल इन केरल : सरदार के.एम.पाणिक्कर)
 टीपू द्वारा केरल की विजय का प्रलयंकारी एवं सजीव वर्णन, 'गजैटियर ऑफ केरल के सम्पादक और विखयात इतिहासकार ए. श्रीधर मैनन द्वारा किया गया है। उसके अनुसार-
"हिन्दू लोग, विशेष कर नायर और सरदार जाति के लोग जिन्होंने टीपू के पहले से ही इस्लामी आक्रमणकारियों का प्रतिरोध किया था, टीपू के क्रोध का प्रमुख निशाना बन गये थे।
सैकड़ों नायर महिलाओं और बच्चों को पकड़ कर श्री रंगपटनम ले जाया गया और डचों के हाथ दास के रूप में बेच दिया गया था। हजारों ब्राह्मणों, क्षत्रियों और हिन्दुओं के अन्य सम्माननीय जाति के लोगों को इस्लाम या मृत्यु में से एक चुनने को बाध्य किया गया।''
हमारे मार्क्सिस्ट इतिहासकारों ने धर्मनिरपेक्षता का झूठा ढोंग कर टीपू सुल्तान को वीर और देशभक्त पुरुष के रूप में वर्णन किया है। किन्तु सच्चाई तो ये है कि टीपू का सम्बन्ध उस राष्ट्र,उस मिट्टी से कभी भी नहीं रहा जो उसका गृह स्थान था। वह केवल हिन्दू भूमि का एक मुस्लिम शासक था। जैसा उसने स्वंय कहा था उसके जीवन का उद्देश्य अपने राज्य को दारुल इस्लाम (इस्लामी देश) बनाना था। टीपू ब्रिटिशों से अपने ताज की सुरक्षा के लिए लड़ा था न कि देश को विदेशी गुलामी से मुक्त कराने के लिए।
उसने तो स्वयं भारत पर आक्रमण करने, और राज्य करने के लिए अफगानिस्तान के जहनशाह को आमंत्रित
किया था।(जहनशाह को लिखे पत्रों को पढ़िये)
भारत के सैक्यूलरिस्टों ने राष्ट्रीय एकता और धर्मनिरपेक्षता की आड़ लेकर हमेशा से ही इतिहास, साहित्य और पुस्तकों से लेकर आजादी की लड़ाई और आजादी के बाद के भारत-पाकिस्तान युद्धों तक में मुस्लिमों को जबरदस्ती हीरो बनाने की कोशिश की है। प्रयास अच्छा है परन्तु इस प्रयास में हमलावरों, लुटेरों, खूनियों और हत्यारों को भी नायकों की तरह प्रस्तुत करना समझ से परे है।
लेकिन अब वोटबैंक के लालची राजनीतिज्ञों के आदेश पर लिखने वाले इन पैसों के भूखे लेखकों की समझ में आ जाना चाहिए कि इन मुस्लिम अत्याचारियों और हमलावरों के, हिन्दुओं पर किये गये अत्याचारों, को दबाने, छिपाने से, कोई भी लाभ नहीं हो सकेगा
 क्योंकि अब राष्ट्रवादियों के हाथों में सदी के संचार का सबसे बड़ा हथियार सोशल मीडिया आ चुका है। जो इन नकली धर्मनिरपेक्ष लेखकों के हर झूठ की परतें उघाड़ कर रख देगा।
सामान्य हिन्दुओं को भी समझ लेना चाहिए कि, अपने देश के इतिहास का पूर्ण ज्ञान, और अपने पूर्वजों के भाग्य-दुर्भाग्य, से पाठ सीख लेना अनिवार्य है; क्योंकि इतिहास की पुनरावृत्ति जरूर होती है।

हमारे देश के अलग अलग जगहों के असली नाम जाने

जानिये हमारे देश के कइ गांव ओर शहरो के असली नाम
सब से पहले हमारे देश इंडिया का असली नाम
भारत , आर्यावर्त या हिन्दूस्तान था !

अब गांव ओर शहरो के नाम..>>
***********************!
कानपुर का असली नाम कान्हापुर !
दिल्ली का असली नाम इन्द्रप्रस्थ !
हैदराबाद का असली नाम भाग्यनगर !
इलाहाबाद का असली नाम प्रयाग !
औरंगाबाद का असली नाम संभाजी नगर/ देवगिरी  !
भोपाल का असली नाम भोजपाल !
लखनऊ का असली नाम लक्ष्मणपूरी !
अहमदाबाद का असली नाम कर्णावती !
अलीगढ़ का असली नाम हरीगढ़ !
मिराज का असली नाम शिवप्रदेश !
मुजफ्फरनगर का असली नाम लक्ष्मीनगर !
शामली का असली नाम श्यामली !
रोहतक का असली नाम रोहितास पुर !
पोरबंदर का असली नाम सुदामा पुरी !
पटना का असली नाम पाटली पुत्र !
नांदेड का असली नाम नंदीग्राम !
आजमगढ का असली नाम आर्य गढ !
अजमेर का असली नाम अजय मेरु !
उज्जैन का असली नाम अवंतिका !
जमशेदपुर का असली नाम काली माटी !
बिशाखापट्टनम का असली नाम विजात्रापश्म !
गुवाहटी का असली नाम गौहाटी !
सुल्तानगँज का असली नाम चम्पानगरी !
बुरहानपुर का असली नाम ब्रह्म पुर !
इंदौर का असली नाम इंदुर !
नशरुलागंज का असली नाम भीरुंदा !
 सोनीपत का असली नाम स्वणॅ प्रस्थ !
पानीपत का असली नाम पर्ण प्रस्थ !
बागपत का असली नाम बाग प्रस्थ !
ओसामानाबाद का असली नाम धारा शिव ( महाराष्ट्र मे ) !
देवरिया का असली नाम देवपुरी ( उत्तर प्रदेश मे )

इन शहरों को फिर से इनके पुराने नाम दिए जाएँ

ये सभी नाम मुगलो, अंग्रेजो ओर आज तक
की सभी सरकार ने बदले है !

ज्यादा कुछ नहीं तो हम सोशल मीडिया में
ही इनका असली नाम लिखा करे !
आपके ध्यान मे ओर कोइ ऐ

मोती लाल नेहरु की एक धर्म पत्नी और चार अन्य अवैध पत्नियाँ थीं

 
क्या आप जानते हैं मोती लाल नेहरु की एक धर्म पत्नी और चार अन्य अवैध पत्नियाँ थीं |

(1) श्रीमती स्वरुप कुमारी बक्शी :- (विवाहिता पत्नी) से दो संतानें थीं |

(2) थुस्सू रहमान बाई :- से श्री जवाहरलाल नेहरु और शैयद हुसैन (अपने मालिक मुबारक अली से पैदा हुए थे | मालिक को निपटा दिया उसके बाद उसकी धन संपत्ति और बीबी बच्चे हथिया लिए थे)

(3) श्रीमती मंजरी :- से श्री मेहरअली सोख्ता (आर्य समाजी नेता)

(4) ईरान की वेश्या :- से मुहम्मद अली जिन्ना |

(5) नौकरानी (रसोइया) :- से शेख अब्दुल्ला (कश्मीर के मुख्यमंत्री )

(क) श्रीमती स्वरुप कुमारी बक्शी (विवाहिता पत्नी) से दो संतानें थीं | A. श्रीमती कृष्णा w/o श्री जय सुख लाल हाथी (पूर्व राज्यपाल ) B. श्रीमती विजय लक्ष्मी पंडित w/o श्री आर.एस.पंडित (पूर्व. राजदूत रूस), पहले विजय लक्ष्मी पंडित ने अपने आधे भाई शैयद हुसैन से शारीरिक सम्बन्ध स्थापित किये थे जिससे संतान हुई चंद्रलेखा जिसको श्री आर.एस.पंडित ने अपनी बेटी के रूप में स्वीकार किया |

(ख.) थुस्सू रहमान बाई - से श्री जवाहरलाल नेहरु और शैयद हुसैन - शैयद हुसैन इनके मालिक मुबारिक अली की संतान थी जिनको इन्होने मुबारिक की मौत के बाद अपना लिया था | मुबारक अली की एक और संतान थी मंज़ूर अली जो कि इंदिरा की खुनी पिता थे |

जवाहर लाल नेहरु ने कमला कोल को कभी अपनी पत्नी नहीं माना था और सुहागरात भी नहीं मनाई थी |  कमला कश्मीरी पंडित थी यह जवाहर को एकदम पसंद नहीं थी, वैसे वो सिर्फ मुल्ले या अँग्रेज़ को ही ऊँची Race का घोडा मानते थे |

कमला की जिंदगी एक दासी के जैसी थी जिस अबला नारी को मंजूर अली ने ही हाथ थाम लिया था | इसी करण वश नेहरु को इंदिरा जरा भी नही सुहाती थी | अब जब क़ानूनी तौर पर इंदिरा ही उसकी बेटी थी इसलिए न चाहते हुए भी उसको इंदिरा को आगे बढ़ाना पड़ा हलाकि उसके जीते जी इंदिरा कोई खेल नहीं कर पाए थी | वो तो बेचारे शास्त्री जी इसकी बातों में आकर ताशकंत चले गए थे पाकिस्तान से समझौता करने वहाँ इंदिरा ने याह्या खान की मदद से शास्त्री जी को जहर दिलवा कर मरवा डाला था और बताया की मौत ह्रदय की गति रुकने से हो गए | कोई पोस्टमार्टम नहीं कोई रिपोर्ट नहीं. इंदिरा ने मौका पाते ही झट से कुर्सी हड़प ली थी |

प्रियदर्शिनी नेहरु उर्फ़ मैमूना बेगम उर्फ़ श्रीमती इंदिरा खान w/o श्री फिरोज जहाँगीर
खान (पर्शियन मुस्लमान) जो कि बाद में गाँधी बन गए थे | से दो पुत्र एक राजीव खान (पिता फ़िरोज़ जहाँगीर खान) और संजय खान (पिता मोहम्मद युनुस), तीसरा बच्चा जो म. ओ. मथाई (जवाहरलाल का पी ऐ) जिसको गिरा दिया गया क्योंकि वो आशंका थी की कही रंग दबा हुआ (काला) निकला तब कैसे मुह छुपाएगी |

(ग.) श्रीमती मंजरी - से एक पुत्र श्री मेहर अली सोख्ता (आर्य समाजी नेता )

(घ.) ईरान की वेश्या - से मुहम्मद अली जिन्ना

(ङ.) नौकरानी (रसोइया ) से शेख अब्दुल्ला (कश्मीर के मुख्यमंत्री ). शेख अब्दुल्लाह के दो पुत्र फारूक अब्दुल्ला , पुत्र उमर अब्दुल्ला

नेहरु ने देश के तीन टुकड़े किये थे | इंडिया (इंदिरा के लिए), पाकिस्तान (अपने आधे भाई जिन्ना के लिए) और कश्मीर (अपने आधे भाई शेख अब्दुल्लाह के लिए) | अरे वाह एक ही परिवार तीनो जगह सियासत भाई मानना पड़ेगा नेहरु के दिमाग को |
यह वही नेहरु है जिनके मुह बोले पिता मोतीलाल के पिता गयासुद्दीन गाजी जमुना नहर वाले दिल्ली से चम्पत हो गए थे 1857 की म्युटिनी में और जाकर छुप गए कश्मीर में | जहाँ अपना नाम परिवर्तित किया था गयासुद्दीन गाजी से पंडित गंगाधर नेहरु नया नाम और सर पर गाँधी टोपी लगाये पहुच लिए इलाहबाद | लड़के को वकील बनाया और लगा दिया मुबारक अली की लॉ कंपनी में |

टिप्पणी :- एक घर से तीन प्रधानमन्त्री और चौथा राहुल को कांग्रेस बनाने जा रही है |

साभार - जॉन मथाई की आत्मकथा से (जवाहरलाल नेहरु के व्यक्तिगत सचिव )

Saturday, May 16, 2015

Why India is poor despite Top economy until 18 th century- British and Islamist LOOTED.

Q. IF INDIA WAS WORLD TOP ECONOMY TILL 18TH CENTURY ..WHY IS INDIA SO POOR TODAY ?
A. BRITISH MILKING OF WEALTH ... £ 222 BILLION POUNDS in its 200+ years of direct and indirect rule.
The “drain of wealth” from India to Britain during the two centuries of colonial rule was very real, very substantial and there are strong reasons to believe that India may have looked significantly different (and far better) economically and socially had it not been for the two centuries of British rule.
The beginning of this period can probably be traced back to the Battle of Plasssey. As Prof. Richards writes in the introduction to his paper “Imperial Finance Under the East India Company 1762-1859”, “On June 23,1757, Robert Clive, commanding a small force of East India Company professional troops, defeated and killed Siraju-ud-daula, the ruling Nawab of Bengal, on the battlefield of Plassey. The battle marked a significant turning point in world history, for it permitted the English East India Company to gain control over the rich resources of the Mughal successor state in northeastern Bengal and Bihar.
…This was the starting point for a century-long process of British conquest and dominion over the entire Indian subcontinent and beyond.”

In his research on the subject, Prof Maddison mentions the burden imposed by the administrative machinery of the State: “…British salaries were high: the Viceroy received £25,000 a year, and governors £10,000…From 1757 to 1919, India also had to meet administrative expenses in London, first of the East India Company, and then of the India Office, as well as other minor but irritatingly extraneous charges. The cost of British staff was raised by long home leave in the UK, early retirement and lavish amenities in the form of subsidized housing, utilities, rest houses, etc.”
Prof. Richards mentions that although the Company “raised their revenue demands in each territory … to the highest assessments made by previous Indian regimes” they were still insufficient to “meet the combined administrative, military and commercial expenses of the Company”

Thursday, May 14, 2015

How congress kept India underdeveloped for decades while China took off



India-China-Modi-Xi

Here’s a look at how things have changed:

When Li visited in 1991, per capita GDP for the two countries was practically equal. Although India’s economy is said to be growing faster than China’s at this moment, China’s has bested India for decades. Per capita GDP in China was $6,807.4 in 2013, almost six times India’s:



Tap image to zoom

China’s foreign direct investment, which was about equal with India’s as well in 1991, has far outstripped it in recent years, thanks in part to protectionist policies in India, and China’s higher GDP per capita attracting more consumer goods companies.



Tap image to zoom

Although both countries were heavily agrarian in the 1990s, industry in China has always contributed a lot more to GDP, and that has not changed. Industry here refers to mining, manufacturing, construction, electricity, water, and gas.



Tap image to zoom

China, known for its export-oriented economy saw the share of GDP contributed by exports swell substantially in the mid-2000s. But India has caught up in the last few years, because of the rapid growth in its services sector driven by information technology and financial services:



Tap image to zoom

Helping to contribute to China manufacturing and export boom were a vast improvement on transportation and connectivity in the country. That’s in part because China’s spending on infrastructure is way higher than India’s. On an average China spent 8% of its GDP in in the period from 1992 to 2011, while India only 3.9%. Here is how both countries compare to other big economies:

Infrastructure_spending_from_1992-2011-_Weighted_average_%_of_GDP_Infrastructure_spending_chartbuilder (1)
Back in 1991, India and China together accounted for half the world’s malnourished children. Since then, malnourishment in both countries has dropped but not at the same pace—India’s rates of child malnutrition are about five times as high as China’s, and still some of the worst in the world.

Three decades ago, about the same percentage of the population in both India and China lacked access to what the World Bank calls “improved sanitation facilities,” defined as flush or compost toilets, or well-built latrines. But here, too, China has shown marked improvement over India:



Tap image to zoom

One place where both countries have grown similarly fast in the past decade is telecommunications. Thanks to their huge populations, China and India are the top two countries in overall mobile subscribers. India at one point briefly overtook China in mobile subscribers, though China has pulled ahead.



Tap image to zoom




India-China-Modi-Xi

http://qz.com/398282/why-on-earth-is-narendra-modi-going-to-mongolia/
 
 अति आवश्यक है :—
.
1- रानी लक्ष्मी बाई की मौत के पीछे सिंधिया परिवार का कितना हाथ था ?
2- चन्द्र शेखर आज़ाद की मृत्यु नेहरू के घर पर गरमा गरम बहस के कुछ घंटे बाद ही क्यों हो जाती है ?
3- भगत सिंह के पहचान में मुख्य भूमिका निभाने वाले शोभा सिंह से ऐसा कांग्रेसियों का कौन सा प्रेम है जो उसके नाम पर दिल्ली में सरकारी इमारतों का नाम रखवा दिया ?
4- नेता जी सुभाष चन्द्र बोस की मौत के पीछे नेहरु की कितनी भूमिका रही ?
5- लोर्ड माउंट बेटन की बीबी से नेहरू के ऐसे कौन से रिश्ते थे जिस कारण वह अंग्रेजो की हर बात मान लेते थे और भारत माता के दो टुकड़े करने के लिए राज़ी हो गए ?
6- सरदार पटेल जैसे महान नेता को नेपथ्य में धकेलने में नेहरू का कितना हाथ था ?
7- कश्मीर के मुद्दे को जान बुझकर अपने कश्मीरी रिश्तेदारों के कारण लटकाकर रखने में नेहरू की कितनी भूमिका थी ?
8- नेहरु के समय जनसंघ के महान नेता श्यामा प्रसाद के मौत के पीछे नेहरु की कितनी भूमिका रही ?
9- लाल बहादुर शास्त्री के मौत में इंदिरा गांधी का क्या योगदान था ?
10- जनसंघ के महान विचारक और प्रसिद्द दार्शनिक पंडित दीन दयाल उपाध्याय एवं श्यामा प्रसाद मुख़र्जी की मौत में इंदिरा गांधी एवं कांग्रेस की क्या भूमिका थी ?
11- संजय गांधी के मौत में इंदिरा गांधी का क्या योगदान रहा ?
12- इंदिरा गांधी के गोली मारे जाने के बाद सोनिया गांधी द्वारा उन्हें अस्पताल में ले जाने में की गयी देरी जान बूझकर थी या संयोग था,,
इसकी जांच क्यों न की जाय ?
13-भोपाल गैस त्रासदी के मुख्य अभियुक्त एंडरसन को देश से भगाने में गांधी परिवार का क्या योगदान रहा ?
14- 1984 में दंगाईयो को भड़का कर लाखों सिक्ख भाइयो को मरवाने वाला कौन है ?
15- माधव राव ऐसा कौन सा राज़ जानते थे जिसके कारण उनकी असामयिक मौत हो गयी ?
16- राजेश पायलेट की असामयिक मृत्यु के पीछे किसका हाथ हैं ?
17- क्वात्रोची के बंद खातो को चुपके से बिना देश को बताये चालू कर देने के पीछे किसका हाथ था ?
18- रोबेर्ट वाड्रा के परिवार वालो के रहस्यमय मौत की जिम्मेवारी किस पर है ?
19- सुल्तानपुर के गेस्ट हाउस में रात को शराब पीकर अपने अंग्रेज मित्रो के साथ लड़की के साथ बलात्कार करने वाला कौन है ?
20- राहुल गांधी किस नियम के अंतर्गत अवैध होते हुए भी भारत में दोहरी नागरिकता ग्रहण किये हुए है ?
21- किस हैसियत से सोनिया गाँधी भारतीय वायुसेना के विमानों में सफर करती थी ?
22- रोबर्ट वाड्रा को किस अधिकार से एअरपोर्ट चेकिंग से छूट मिली हुई थी ?
23- सोनिया गाँधी का इलाज सरकारी खजाने से क्यों कराया जाता था ,, उन्हें ऐसी कौनसी बीमारी है जिसका इलाज भारत में नहीं हो सकता ?
सच्चे हिन्दू हो तो हिन्दूस्थान के प्रत्येक नागरिक तक यह संदेश पहुंचाये और हिन्दू होने का
होने का कर्तव्य निभायें
from www.harsh80.wordpress.com