Wednesday, April 1, 2015

भारत में इस्लामी आक्रमण एवं धर्मान्तरण का खूनी इतिहास

भारत में इस्लामी आक्रमण एवं धर्मान्तरण का खूनी इतिहास । ऐतिहासिक प्रमाणों के साथ।
शेर शाह सूरी (१५४०-१५४५)शेरशाह सूरी एक अफगान था जिसने देहली में केवल पाँच वर्ष राज्य किया।वामपंथी इतिहासकार कहते हैं कि उसने पेशावर से लेकर पूर्वी बंगाल तक छतीस सौ मील लम्बी ग्रांड ट्रंक रोड बनाई,,जबकि पाँच साल के इतने छोटे समय के दौरान वह अनेकों युद्धों में फंसा रहा और पूरी सड़क के आधे क्षेत्र में भी उसका शासन नहीं था तो आखिर उसने इतनी लम्बी सड़क बनाई कैसे..??और सड़क के निर्माण का उस समय के किसी भी ऐतिहासिक अभिलेख में कोई भी वर्णन उपलब्ध नहीं है।यही नहीं सेकुलरिस्ट उसे धर्मनिरपेक्ष, परोपकारी और दयालु कहकरउसकी प्रशंसा भी करते हैं। अब्बास खान रिजिवी ने अपने इतिहास अभिलेख तारीख-ई-शेरशाही में लिखा-
"१५४३ में शेरहशाह ने रायसीन के हिन्दू दुर्ग पर आक्रमण किया। छः महीने के घोर संघर्ष के उपरान्त रायसीन का राजा पूरनमल हार गया। शेर शाह द्वारा दिये गये सुरक्षा और सम्मान के वचन का हिन्दुओं ने विश्वास कर लिया, और समर्पण कर दिया। किन्तु अगले दिन प्रातः काल हिन्दू, जैसे ही किले से बाहर आये, शेरशाह के आदेश पर अफगानों ने चारों ओर से आक्रमण कर दिया, और हिन्दुओं का वध प्रारम्भ कर दिया और एक आँख के इशारे मात्र समय में ही, सबके सब वध हो गये। महाराज पूरनमल की पत्नियाँ और परिवार बन्दी बना लिये गये। पूरन मल की एक पुत्री और उसके बड़े भाई के तीन पुत्रों को जीवित ले जाया गया और शेष को मार दिया गया। शेरशाह ने राजा पूरनमल की पुत्री को किसी घुम्मकड़ बाजीगर को दे दिया जो उसे बाजार में नचा सके, और लड़कों को बधिया(खस्सी) प्रक्रिया द्वारा नपुंसक बनाकर अफसरों के हरम में औरतों की देखभाल करने के लिए
भेज दिया।''(तारीख-ई-शेरशाही : अब्बास खान शेरवानी, अनुवाद एलिएट और डाउसन, खण्ड IV, पृष्ठ ४०३)
अब्बास खान ने आगे लिखा-
'' उसने अपने घुड़सवारों को आदेश दिया कि हिन्दू गाँवों की जाँच पड़ताल करें, उन्हें मार्ग में जो पुरुष मिलें, उन्हें वध कर दें, औरतों और बच्चों को बन्दी बना लें, पशुओं को पकड़ लें, किसी को भी खेती न करने दें, पहले से बोई फसलों को नष्ट कर दें, और किसी को भी पड़ोस के भागों से कुछ भी न लाने दें।'' (उसी पुस्तक में पृष्ठ ३१६)
अहमद शाह अब्दाली (१७५७ और १७६१)
मथुरा और वृन्दावन में जिहाद (१७५७)
''किसान जाटों ने निश्चय कर लिया था कि ब्रज भूमि की पवित्र राजधानी में मुसलमान आक्रमणकारी उनकी लाशों पर होकर ही जा सकेंगे... मथुरा के आठ मील उत्तर में २८फरवरी १७५७ को जवाहर सिंह ने दस हजार से भी कम आदमियों के साथ आक्रमणकारियों का जीवन मरण की बाजी लगाकर, प्रतिरोध किया।
"सूर्योदय के बाद युद्ध नौ घण्टे तक चला। हिन्दू प्रतिरोधक अब आक्रमणकारियों के सामने बुरी तरह धराशायी हो गये। प्रथम मार्च के दिन निकलने के बहुत प्रारम्भिक काल में अफगान अश्वारोही फौज नें मथुरा शहर में किसी प्रकार की भी दया नहीं दिखाने की मनस्थिति में पूरे चार घण्टे तक, हिन्दू जनसंख्या का बिना किसी पक्षपात के, भरपूर मात्रा में,
दिल खोलकर, नरसंहार व विध्वंस किया। अंतत: प्राणरक्षार्थ काफिर हिन्दू अल्लाह के पंथ इस्लाम के प्रकाश में आये उनमें लगभग सभी के सभी निहत्थे असुरक्षित व असैनिक ही थे। उनमें से कुछ पुजारी थे... ''मूर्तियाँ तोड़ दी गईं और इस्लामी वीरों द्वारा, पोलों की गेदों की भाँति, ठुकराई गईं'', (हुसैनशाही पृष्ठ ३९)''
''नरसंहार के पश्चात ज्योंही अहमद शाह की सेनायें मथुरा से आगे चलीं गई तो नजीब व उसकी सेना, वहाँ पीछे तीन दिन तक रूकी रही। असंखय धन लूटा और बहुत सी सुन्दर हिन्दू महिलाओं को बन्दी बनाकर ले गया।'' (नूर १५ b )
यमुना की नीली लहरों ने अपनी उन सभी पुत्रियों को शाश्वत शांति दी जितनी उसकी गोद में दौड़कर समा सकीं। कुछ अन्यों ने, अपने सम्मान सुरक्षा और अपमान से बचाव के लिए निकटस्थ, अपने घरों के कुओं में, कूदकर मृत्यु का आलिंगन कर लिया। किन्तु उनकी उन बहिनों के लिए, जो जीवित तो रही परन्तु उनके सामने मृत्यु से भी कहीं अधिक बुरा जीवन था। घटना के पन्द्रह दिन बाद एक मुस्लिम प्रत्यक्षदर्शी ने विध्वंस हुए शहर के दृश्य का वर्णन किया है। ''गलियों और बाजारों में सर्वत्र वध किये हुए काफिर व्यक्तियों के
सिर रहित, धड़, बिखरे पड़े थे। सारे शहर में आग लगी हुई थी। बहुत से भवनों को तोड़ दिया गया था। जमुना में बहने वाला पानी, पीले जैसे रंग का था मानो कि रक्त से दूषित हो गया हो।'' ''मथुरा के विनाश से मुक्ति पा, जहान खान आदेशों के अनुसार देश में लूटपाट करता हुआ घूमता फिरा। मथुरा से सात मील उत्तर में, वृन्दावन भी नहीं बच सका...
पूर्णतः शांत स्वभाव वाले, आक्रामकताहीन, सन्त विष्णु भक्तों का वृन्दावन में भीषण नरसंहार किया गया।
(६ मार्च) उसी मुसलमान डाइरी लेखक ने वृन्दावन का भ्रमण कर लिखा था; ' 'जहाँ कहीं तुम देखोगे काफिरों के शवों के ढेर देखने को मिलेंगे। तुम अपना मार्ग बड़ी कठिनाई से ही निकाल सकते थे,क्योंकि शवों की संख्या के आधिक्य और बिखराव तथा रक्त के बहाव के कारण मार्ग पूरी तरह रुक गया था। एक स्थान पर जहाँ हम पहुँचे तो देखा कि.... दुर्गन्ध और सड़ान्ध हवा में इतनी अधिक थी कि मुँह खोलने और साँस लेना भी कष्ट कर था''(फॉल ऑफ दी मुगल ऐम्पायर-सर जदुनाथ सरकार, नई दिल्ली १९९९ पृष्ठ ६९-७०)
अब्दाली का गोकुल पर आक्रमण
''अपन डेरे की एक टुकड़ी को गोकुल विजय के लिए भेजा गया। किन्तु यहाँ पर राजपूताना और उत्तर भारत के नागा सन्यासी सैनिक रूप में थे। राख लपेटे नग्न शरीर चार हजार सन्यासी सैनिक, बाहर खड़े थे और तब तक लड़ते रहे जब तक उनमें से सारे के सारे मर न गये, और उतने ही शत्रु पक्ष के सैनिकों की भी मृत्यु हुई। सारे वैरागी तो मर गये, किन्तु शहर के देवता गोकुल नाथ बचे रहे, जैसा कि एक मराठा समाचार पत्र ने लिखा।''(राजवाड़े प ६३, उसी पुस्तक में, पृष्ठ ७०-७१)
पानीपत में जिहाद (१७६१)
''युद्ध के प्रमुख स्थल पर कत्ल हुए शवों के इकत्तीस, पृथक-पृथक, ढेर गिने गये थे। प्रत्येक ढेर में शवों की संख्या, पाँच सौं से लेकर एक हजार तक, और चार ढेरों में पन्द्रह सौ तक शव थे, कुल मिलाकर अट्ठाईस हजार शव थे। इनके अतिरिक्त मराठा डेरे के चारों ओर की रवाई शवों से पूरी तरह भरी हुई थी। लम्बी घेराबन्दी के कारण, इनमें से कुछ रोगों, और अकाल के शिकार थे, तो कुछ घायल आदमी थे, जो युद्ध स्थल से बचकर, रेंग रेंग कर, वहाँ मरने आ पहुँचे थे। भूख और थकान के कारण, मरने वालों के शवों से, जंगल और सड़क
भरे पड़े थे।उनमें तीन चौथाई असैनिक और एक चौथाई सैनिक थे। जो घायल पड़े थे शीत की विकरालता के कारण मर गये।''
''संघर्षमय महाविनाश के पश्चात पूर्ण निर्दयतापूर्वक, नर संहार प्रारम्भ हुआ। मूर्खता अथवा हताशा वश कई लाख मराठे जो विरोधी वातावरण वाले शहर पानीपत में छिप गये थे, उन्हें अगले दिन खोज लिया गया, और एक मैदान में ले जाकर तलवार से वध कर दिया गया। एक विवरण के अनुसार अब्दुल समद खान के पुत्रों और मियाँ कुत्ब को अपने पिता की मृत्यु का बदला ले लेने के लिए पूरे एक दिन भर मराठों के लाइन लगाकर वध करने की शाही, अनुमति मिल गई थी'', और इसमें लगभग नौ हजार लोगों का वध किया गया था (खभाऊ खबर १२३,;)
वे सभी प्रत्यक्षतः, असैनिक व निहत्थे ही थे। प्रत्यक्षदर्शी काशीराज पण्डित ने इस दृश्य का वर्णन इस प्रकार किया है-
''प्रत्येक सैनिक ने, अपने-अपने डेरों से, सौ या दो सौ,बन्दी बाहर निकाले, और यह चीखते हुए, कि, वह अपने देश से जब चला था तब उसकी माँ, बाप, बहिन और पत्नी ने उससे कहा था कि पवित्र जिहाद में विजय पा लेने के बाद वह उन प्रत्येक के नाम से इतने काफिरों का वध करे कि उन अविश्वासियों के वध के कारण, उन्हें धार्मिक श्रेष्ठता की मान्यता मिल जाए', और उन्हें डेरों के बाहरी क्षेत्रों में ले जाकर तलवारों से वध कर दिया। ( ' सुरा ८ आयत ५९-६०)
''इस प्रकार हजारों सैनिक और अन्य नागरिक पूर्ण निर्ममता पूर्वक कत्ल कर दिये गये। शाह के डेरे में उसके सरदारों के आवासों को छोड़कर, प्रत्येक डेरे के सामने कटे हुए शिरों के ढेर पड़े हुए थे।'' (उसी पुस्तक में, पृष्ठ २१०-११)
१४-औरंगजेब (१६५८ - १७०७)
औरंगजेब द्वारा हिन्दुओं पर अमानवीय अत्याचारों की गाथा इतनी लम्बी है कि उसे संक्षिप्त लेख में बिल्कुल नहीं लिखा जा सकता है। उसकी केवल दो नीतियाँ थी काफिरों,सिखों को पकड़कर उन्हें इस्लाम या मृत्यु में से एक स्वीकार करवाना और दूसरा मन्दिरों का विध्वंस करके उनके स्थान पर मस्जिदें
खड़ी करवाना। 
गुरु तेग बहादुर का वध गुरुजी ने हिन्दू ब्राह्मणों के गुहार पर कश्मीर में धर्म परिवर्तन के प्रतिरोध का नेतृत्व किया,इससे औरंगजेब क्रुद्ध हो गया और उसने गुरु जी को बन्दी बना लिया। औरंगजेब ने गुरु जी के सामने मृत्यु और इस्लाम में से एक को चुन लेने का विकल्प प्रस्तुत किया। गुरु जी ने धर्म त्याग देने को मना कर दिया और शहंशाह के आदेशानुसार , पाँच दिन तक अमानवीय यंत्रणायें देने के उपरान्त, गुरु जी का सिर काट दिया गया।
(विचित्र नाटक-गुरु गोविन्द सिंहः ग्रन्थ सूरज प्रकाश-भाई सन्तोख सिंह : इवौल्यूशन ऑफ खालसा, प्रोफैसर आई बनर्जी, १९६२)
औरंगजेब द्वारा भारतीय हिन्दू समाज के एक बड़े हिस्से को अत्याचारिक तरीकों द्वारा नरसंहार एवं धर्मान्तरित कर देने एवं प्राचीन भव्य मन्दिरों का विध्वंस कर देने की लम्बी कहानी अत्यंत संक्षिप्त रूप में पढ़ें:
औरंगजेब द्वारा मन्दिरों का विनाश
''सीतादास जौहरी द्वारा सरशपुर के निकट बनवाये गये चिन्तामन मन्दिर का विध्वंस कर, उसके स्थान पर शहजादे औरंगजेब के आदेशानुसार १६४५ में क्वातुल-इस्लाम नामक मस्जिद बनावा दी ग्ई।'' (मीरात-ई- अहमदी, २३२)। दी बौम्बे गजेटियर खण्ड I भाग I पृष्ठ २८० ''मन्दिर में एक गाय का वध भी किया गया।''
''मेरे ओदशानुसार, मेरे प्रवेश से पूर्व के दिनों में, अहमदाबार और गुजरात के अन्य परगनों में अनेकों मन्दिरों का विध्वंस कर दिया गया था।(मीरात पृष्ठ. २७५)
''औरंगाबाद के निकट सतारा गाँव में पहाड़ी के शिखर पर खाण्डेराय का मूर्ति युक्त एक मन्दिर था। अल्लाह की कृपा से मैंने उसे ध्वंस कर दिया।''(कालीमात-ई-अहमदी, पृष्ठ ३७२)
१९ दिसम्बर १६६१ को मीर जुम्ला ने, कूचविहार शहर में प्रवेश किया और आदेश दिया कि सभी हिन्दू मन्दिरों को ध्वंस कर दिया जाए और उनके स्थन पर मस्जिदें बनवा दी जाएँ।
"जनरल ने स्वयं, युद्ध की कुल्हाड़ी लेकर, नारायण की मूर्ति का ध्वंस कर दिया।'' (स्टुअर्ट्स बंगाल)
''जैसे ही शहंशाह ने सुना कि दाराशिकोह ने मथुरा के केशवराय मन्दिर में पत्थरों की एक बाड़ को पुनः स्थापित करा दिया है, उसने कटाक्ष किया, कि इस्लामी पंथ में तो मन्दिर की ओर देखना भी पाप है और इसने मन्दिर की बाड़ को पुनः स्थापित करा दिया है। मुहम्मदियों के लिए वह आचरण जनक नहीं है। बाड़ को हटा दो। उसके आदेशानुसार मथुरा के फौज दार अब्दुलनबी खान ने बाड़ को हटा दिया एवं इस युद्ध में बड़ी संख्या में काफिरों का नरसंहार हुआ।''(अखबारातः ९वाँ वर्ष, स्बीत ७, १४ अक्टूबर १६६६)
२० नवम्बर १६६५ ''गुजरात प्रान्त के निकट के क्षेत्रों के लोगों ने ध्वंस किये गये मन्दिरों को पुनः बना लिया है... अतः शहंशाह आदेश देते हैं कि... पुनः स्थापित मन्दिरों को ध्वंस कर दिया जाए'' (फरमान जो मीरात २७३ में दिया गया)
९ अप्रैल १६६९ ''सभी प्रान्तों के गवर्नरों को शहंशाह ने आदेश दिया कि काफिरों के सभी स्कूलों और मन्दिरों का विध्वंस कर दिया जाए और उनकी शिक्षा और धार्मिक क्रियाओं को पूरी शक्ति के साथ समाप्त कर दिया जाए- ''मासिर-ई-आलमगीरी"
मई १६६९ ''सलील बहादुर को मालारान के मन्दिर को तोड़ने के लिए भेजा गया।'' (मासीर-ई-आलम गीरी ८४)
२ सितम्बर १६६९ ''शाही आदेशानुसार शहंशाह के अफसरों ने बनारस के विश्वनाथ मन्दिर का ध्वंस कर दिया (उसी पुस्तक में, ८८)
जनवरी १६७० ''रमजान के इस महीने में शहंशाह ने मथुरा के केशव मन्दिर के ध्वंस का आदेश किया। उसके अफसरों ने आज्ञा पालन किया बहुत बड़े खर्च के साथ उस मन्दिर के स्थान पर एक मस्जिद बना दी गई। महान पन्थ इस्लाम के अल्लाह की खयाति बढ़ कि मन्दिर में स्थापित छोटी बड़ी सारी मूर्तियाँ, जिनमें बहुमूल्य जवाहरात जड़े हुए थे, आगरा नगर में लाई गईं, और जहाँनारा मस्जिद की सीढ़ियों में लगा दी गईं ताकि, उन्हें निरन्तर पैरों तले रौंदा जा सकें।'' (उसी पुस्तक में पृष्ठ ९५-९६)
''सैनोन के सीता राम जी मन्दिर का उसने आंशिक ध्वंस किया; उसके अफसरों में से एक ने पुजारी को काट डाला, मूर्ति को तोड़ दिया, और गोंड़ा की देवीपाटन के मन्दिर में गाय काटकर मन्दिर को अपवित्र कर दिया।'' (क्रुक का एन. डब्ल्यू. पी. ११२)
''कटक से लेकर उड़ीसा की सीमा पर मेदिनीपुर तक के सभी थानों के फौजदारों, प्रशासन अधिकारियों के लिए आदेश प्रसारित किये गये कि; विगत दस बारह सालों में, जो भी मूर्ति घर बना हो, भले वह ईंटों से बनाया गया हो, या मिट्टी से, प्रत्येक को अविलम्ब नष्ट कर दिया जाए। घृणित अविश्वासियों को इस्लाम पंथ के प्रकाश में लाया जाए अन्यथा उनका वध कर दिया जाए।" [मराकात-ई-अबुल हसन, (१६७० में पूर्ण की गई) पृष्ठ २०२]
''उसने ८ मार्च १६७९ को खण्डेला और शानुला के मन्दिरों का ध्वंस कर दिया और आसपास, अड़ौस पड़ौस, अन्य के मन्दिरों को भी ध्वंस कर दिया।'' (मासीर-ई-आलमगीरी १७३)
२५ मई १६७९, ''जोधपुर में मन्दिरों का ध्वंस करके और खण्डित मूर्तियों की कई गाड़ियाँ भर कर खान जहान बहादुर लौटा। शहंशाह ने आदेश दिया कि मूर्तियों, जिनमें अधिकांश
सोने, चाँदी, पीतल, ताँबा या पत्थर की थीं, को दरबार के चौकोर मैदान में बिखेर दिया जाए और जामा मस्जिद की सीढ़ियों में लगा दिया जाए ताकि उनकों पैरों तले रौंदा जा सके।''
(मासीर-ई-आलमगीरी पृष्ठ १७५)
१७ जनवरी १९८० ''उदयपुर के महाराणा के महल के सामने स्थित, एक विशाल मन्दिर, जो अपने युग के महान भवनों में से एक था, और काफिरों ने जिसके निर्माण के ऊपर
अपार धन व्यय किया था, उसे विध्वंस कर दिया गया, और उसकी मूर्तियाँ खण्डित कर दी गईं।'' (मासीर-ई- आलमगीरी १६८)
''२४ जनवरी को शहंशाह उदय सागर झील को देखने गया और उसके किनारे स्थित तीनों मन्दिरों के ध्वंस का आदेश दे आया।'' (पृष्ठ १८८, उसी पुस्तक में)।
''२९ जनवरी को हसन अली खाँ ने सूचित किया कि उदयपुर के चारों ओर के अन्य १७२ मन्दिर ध्वंस कर दिये गये हैं'' (उसी पुस्तक में पृष्ठ १८९)
''१० अगस्त १६८० आबू टुराब दरबार में लौटा और उसने सूचित किया कि उसने आमेर में ६६ मन्दिर तोड़ दिये हैं'' (पृष्ठ १९४)।
२ अगस्त १६८० को पश्चिमी मेवाड़ में सोमेश्वर मन्दिर को तोड़ देने का आदेश दिया गया। (ऐडुब २८७a और २९०a)
सितम्बर १६८७ गोल कुण्डा की विजय के पश्चात् शहंशाह ने 'अब्दुल रहीम खाँ को हैदराबाद शहर का कोतवाल नियुक्त किया और आदेश दिया कि गैर मुसलमानों के रीति रिवाजों व
परम्पराओं तथा इस्लाम धर्म विरुद्ध नवीन विचारों को समाप्त कर दें, काफिरों का वध कर दें अथवा इस्लाम में दीक्षित कर लें और मन्दिरों को ध्वंस कर उनके स्थानों पर मस्जिदें बनवा दें।'' (खफ़ी खान ii ३५८-३५९)
''१६९३ में शहंशाह ने वाद नगर के मन्दिर हाटेश्वर, जो नागर ब्राह्मणों का संरक्षक था, को ध्वंस करने का आदेश किया'' - (मीरात ३४६)
१६९८ के मध्य में ''हमीदुद्दीन खाँन बहादुर, जिसे बीजापुर के मन्दिरों को ध्वंस करने और उस स्थान पर मस्जिद बनाने के लिए नियुक्त किया था, आदेशों का पालन कर दरबार में वापिस आया था। शहंशाह ने उसकी प्रशंसा की थी।'' (मीरात ३९६)
''मन्दिर का ध्वंस किसी भी समय सम्भव है क्योंकि वह अपने स्थान से भाग कर नहीं जा सकता'' -(औरंगजेब से जुल्फि कार खान और मुगल खान को पत्र (कलीमत-ई-तय्यीबात ३९ं)
''अभियानों के मध्य कुल्हाड़ियाँ ले जाने वाले सरकारी आदमियों के पास पर्याप्त शक्ति व अवसर नहीं रहता अत: गैर-मुसलमानों के मन्दिरों को, तोड़ कर चूरा करने के लिए ,तुम्हें एक दरोगा नियुक्त कर देना चाहिए जो बाद में सुविधानुसार मन्दिरों को ध्वंस करा के उनकी नीवों को खुदवा दिया करे।''(औरंगजेब से, रुहुल्ला खान को कांलीमत-ई-औरंगजेब
में पृष्ठ ३४ रामपुर M.S. और ३५a I.0.L.M.S. ३३०१)
१ जनवरी १७०५
''कुल्हाड़ीधारी आदमियों के दरोगा, मुहम्मद खलील को शहंशाह ने बुलाया... ओदश दिया कि पण्ढरपुर के मन्दिरों को ध्वंस कर दिया जाए और डेरे के कसाइयों को ले जाकर, मन्दिरों में गायों का वध कराया जाए... आज्ञा पालन हुई'' (अखबारात ४९-७)
इस्लामी शैतानों की सूची इतनी लम्बी है एवं भारत समेत पूरी दुनियाँ में उनके द्वारा किये गये भीषण रक्तपात एवं अमानवीय अत्याचारों द्वारा करवाये गये धर्मपरिवर्तन की कहानी भी इतनी लम्बी है कि इन्हें संक्षिप्त से भी संक्षिप्त करके लिखना उन सभी असहाय भारतीय नागरिकों के साथ अन्याय है जो इनके हाथों बेरहमी से मारे गये। सच तो ये है कि मुगल और अन्य सभी मुस्लिम आक्रमणकारी भारत में अय्याशी, लूट-खसोट, मार-काट एवं अन्य तरीकों से इसे दारूल हरब से दारूल इस्लाम बनाने में ही लगे रहे। इन्होंने देश को कुछ इमारतों, कब्रों, मजारों एवं एक बड़ी धर्मान्तरित आबादी के अलावा कुछ नहीं दिया। इनके हजार साल के शासन काल में एक भी वैज्ञानिक आविष्कार नहीं हुआ। बल्कि इस देश की आर्थिक, सामाजिक एवं सांस्कृतिक दशा में विनाशकारी एवं विभाजनकारी बदलाव आ गये। कभी-कभी तो लगता है इनसे बेहतर तो ब्रिटिश थे जिन्होंने लूट-खसोट तो किया पर भारत को कानूनी एवं संवैधानिक लोकतंत्र, रेल, पुल, डाक, टेलीफोन, बिजली, चिकित्सा क्रान्ति, तरह- तरह के आवागमन के साधन एवं ज्ञान विज्ञान की नयी- नयी तकनीकें भी देकर गये जिनका लाभ हमें आज तक मिल रहा है।

Saturday, March 28, 2015

Jain city/Temple below Fatehpur Sikari

Below Fatehpur Sikri lies a destroyed Jain City/Temples (Archaeological Survey of India).

First Hindu King of Kashmir

Lha-chen-Rgyalbu-Rinchan was first non Hindu king of Kashmir who belonged to Islamic faith(convert). He was not a born Muslim but Buddhist by faith. Rinchan’s father was killed in some internal disputes in Ladakh leading him to run away in exile and settle as a refugee in Kashmir. He took refuge in castle of Ram Chand commander of Raja Sahadeva. Here he met Shamshir a Persian Muslim immigrant- another fellow like him. Rinchan first won confidence of Ram Chand and later killed him to ascent himself to throne and proclaimed himself as king of Kashmir on 6th October 1320.He gained peace by marrying Ram Chand’s daughter Kota Rani and appointing his son Rawan Chand on his father’s post of commander in chief and Shamsir as vazir(Minister) of his kingdom.
Even after securing peace he did not feel secure. He wanted to remove stigma that he captured throne by fraud. Therefore he made an attempt to identify himself with the country and the people to understand and follow their culture, religion and traditions, as one of them. To begin with he expressed desire to accept Saiva cult which was most popular form of religion followed in Kashmir. He approached Devaswami Pundit who was head guru of Court Pundits of Kashmir in order to become his disciple and entreated him as his devotees. Devaswami Pundit appeared to be a very strong head man but without imagination. He turned down request of Rinchan as he was Buddhist by origin. (Ref Jonaraja page 20-21).
Hindu Kashmir lost this opportunity forever but Shamshir made full use of it. Finding Rinchan in a state of confusion, he consoled him, pleaded him and requested him to leave the decision to chance. It was agreed that he would accept the religion of that person whom he would first see the next morning. By sheer chance of manipulation by Shamshir it happened, that Rinchan eyes fell on a Muslim fakir Sayed Sharafuddin Bulbul shah the very next morning. He accepted Islam from Bulbul shah and adopted name of Shah Sadruddin as first Muslim ruler of Kashmir.
After accepting Islam Rinchan founded Rinchanpura a quarter in Kashmir and build first mosque in Kashmir known as “Bud Masheed” on the site of a Buddhist temple. Not very far from here he built another mosque at Ali Kadal and started a Langarkhana (public charity kitchen) after his mentor Bulbul Shah as Bulbul Langer. He even named his only son born with Hindu wife Kota Rani as Haidar and trusted him to the care of Shamshir. Under Rinchan rule state religion of Kashmir became Islam and full patronage was given for conversion to Islam to both Hindus as well as Buddhists leading to rapid decline in their numbers. Rinchan was later attacked by relatives of king Sahadeva and he died of wounds on 25 November 1353.

First war of independence of India started 10 June 1801,in Tamilnadu

The Marudhu Pandiyar brothers (Periya Marudhu and Chinna Marudhu) ruled Sivagangai, Tamil Nadu towards the end of the 18th century. The Marudhu brothers were the first to issue a proclamation of independence from the colonial British rule from Trichy Thiruvarangam Temple, Tamil Nadu on 10 June 1801, more than 56 years before what is generally said to be the First War of Indian Independence which broke out mainly in Northern India in the year 1857.
The Marudhu brothers were the sons of Udayar Servai alias Mookiah Palaniappan Agamudayar Servai and Anandayer alias Ponnathal.Marudhu Pandiyar, the Elder was born on 15.12.1748 in a small hamlet called Narikkudi near Aruppukkottai in then Ramnad principal state (now Virudhunagar district). In 1753 the younger Marudhu Pandiyar was born in Ramnad. Their father "Udayar Servai" served as the General in the Ramnad state military and he shifted his family to Virudhunagar from Narikkudi.
Earlylife
The Marudhu brothers were trained in native martial arts at Surankottai which traditionally served as a training centre for the Ramnad state army. The Valari boomerang is a peculiar weapon unique to India used originally by the indigenous people (ancient Tamils) of the South Asia. Two forms of this weapon are used in India. These are normally made of wood. They are known as Valari sticks in Sangam Tamil. It is said that Marudhu brothers were great experts in the art of throwing the Valari stick and using it as a weapon. It is said that Marudhu brothers successfully used Valari in their Poligar Wars against the British colonial forces. They contested in and won many competitions of martial arts and distinguished themselves as brave warrirors. The Raja of Ramnad Muthu Vijaya Raghunatha Sethupathy issued the title of Pandiyas to honour the Marudhu Pandiyargal.
They were in close association with Veera Pandiya Kattabomman of Panchalankurichi. Kattabomman held frequent consultations with the Marudhus. After the execution of Kattabomman in 17 October 1799 at Kayattar, Chinna Marudhu gave asylum to Kattabomman's brother Oomaidurai. But the British took this reason to invade and attacked Sivaganga in 1801 with a powerful army. The Maruthu Pandiyars and their allies were quite successful and captured three districts from the British. The British considered it such a serious threat to their future in India that they rushed additional troops from Britain to put down the Maruthu Pandiyars' rebellion. These forces surrounded the Maruthu Pandiyars' army at Kalayar Koil, and the latter scattered. The Maruthu Brothers and their top commanders escaped. They regrouped and fought the British and their allies at Viruppatchi, Dindigul and Cholapuram. While they won the battle at Viruppatchi, they lost the other two battles.

भरतपुर स्तिथ लौहगढ़ के मिट्टी का यह किला तोपों पर पड़ा था भारी, 13 लड़ाईयों में नहीं जीत सके थे अंग्रेज

लौहगढ़ किले के सभी फाइल फोटोजयपुर। भरतपुर स्तिथ लौहगढ़ के किले को अपने देश का एक मात्र अजेय किला कहा जाता है। मिट्टी से बने इस किले को दुश्मन नहीं जीत पाए। अंग्रेजों ने तेरह बार बड़ी तोपों से इस पर आक्रमण किया था।
लौहगढ़ के इस किले का निर्माण 18वीं शताब्दी के आरंभ में जाट शासक महाराजा सूरजमल ने करवाया था। उन्होंने ने ही भरतपुर रियासत बसाई थी। उन्होंने एक ऐसे किले की कल्पना की जो बेहद मजबूत हो और कम पैसे में तैयार हो जाए। उस समय तोपों तथा बारूद का प्रचलन बढ़ रहा था। किले को बनाने में एक विशेष प्रकार की विधि का प्रयोग किया गया। यह विधि कारगर रही इस कारण बारूद के गोले भी दीवार पर बेअसर रहे।
मिट्टी का यह किला तोपों पर पड़ा था भारी, 13 लड़ाईयों में नहीं जीत सके थे अंग्रेजमिट्टी का यह किला तोपों पर पड़ा था भारी, 13 लड़ाईयों में नहीं जीत सके थे अंग्रेजलौहगढ़ का यह अजेय किला ज्यादा बड़ा को नहीं है। किले के चारों और मिट्टी की बहुत मोटी दीवार है। इस दीवार को बनाने से पहले पत्थर की एक मोटी दीवार बनाई गई। इसके बनने के बाद इस पर तोप के गोलो का असर नहीं हो इसके लिए दीवारों के चारो ओर चौड़ी कच्ची मिट्टी की दीवार बनाई गयी और नीचे गहरी और चौड़ी खाई बना कर उसमे पानी भरा गया। जब तोप के गोले दीवार से टकराते थे तो वह मिट्टी की दावार में धस जाते थे। अनगिनत गौले इस दीवार में आज भी धसे हुए हैं। इसी वजह से दुश्मन इस किले को कभी भी जीत नहीं पाए। राजस्थान का इतिहास लिखने वाले अंग्रेज इतिहासकार जेम्स टाड के अनुसार इस किले की सबसे बड़ी खासियत है कि इसकी दीवारें जो मिट्टी से बनी हुई हैं। इसके बावजूद इस किले को फतह करना लो
राजस्थान का पूर्वी द्वार
किले को राजस्थान का पूर्व सिंह द्वार भी कहा जाता है। अंग्रेजों ने इस किले को अपने साम्राज्य में लेने के लिए 13 बार हमले किए। इन आक्रमणों में एक बार भी वो इस किले को भेद न सके। ऐसा कहा जाता है कि अंग्रेजों की सेना बार-बार हारने से हताश हो गई तो वहां से भाग गई। ये भी कहावत है कि भरतपुर के जाटों की वीरता के आगे अंग्रेजों की एक न चली थी।
मिट्टी का यह किला तोपों पर पड़ा था भारी, 13 लड़ाईयों में नहीं जीत सके थे अंग्रेज
हे के चने चबाने से कम नहीं था।अंग्रेजी सेना से लड़ते–लड़ते होल्कर नरेश जशवंतराव भागकर भरतपुर आ गए थे। जाट राजा रणजीत सिंह ने उन्हें वचन दिया था कि आपको बचाने के लिये हम सब कुछ कुर्बान कर देंगे। अंग्रेजों की सेना के कमांडर इन चीफ लार्ड लेक ने भरतपुर के जाट राजा रणजीत सिंह को खबर भेजी कि या तो वह जसवंतराव होल्कर अंग्रेजों के हवाले कर दे अन्यथा वह खुद को मौत के हवाले समझे।
मिट्टी का यह किला तोपों पर पड़ा था भारी, 13 लड़ाईयों में नहीं जीत सके थे अंग्रेजयह धमकी जाट राजा के स्वभाव के सर्वथा खिलाफ थी। उन्होंने लार्ड लेक को संदेश भिजवाया कि वह अपने हौंसले आजामा ले। हमने लड़ना सीखा है, झुकना नहीं। अंग्रेजी सेना के कमांडर लार्ड लेक को यह बहुत बुरा लगा और उसने तत्काल भारी सेना लेकर भरतपुर पर आक्रमण कर दिया।
ग्रेजी सेना तोप से गोले उगलती जा रही थी और वह गोले भरतपुर की मिट्टी के उस किले के पेट में समाते जा रहे थे। तोप के गोलों के घमासान हमले के बाद भी जब भरतपुर का किला ज्यों का त्यों डटा रहा तो अंग्रेजी सेना में आश्चर्य और सनसनी फैल गयी। इतिहासकारों का कहना है कि लार्ड लेक के नेतृत्व में अंग्रेजी सेनाओं ने 13 बार इस किले में हमला किया और हमेशा उसे मुँह की खानी पड़ी। अंग्रेजी सेनाओं को वापस लौटना पड़ा।
भरतपुर की इस लड़ाई पर किसी कवि ने लिखा था –
हुई मसल मशहूर विश्व में, आठ फिरंगी नौ गोरे।
लड़ें किले की दीवारों पर, खड़े जाट के दो छोरे।

Friday, March 27, 2015

COWS AND ISLAM

एक मुस्लिम ने मुझसे गाय को माता मानने के विषय में कुछ ऐसा सवाल किया और उसको मुझे जवाब देना पड़ा...
गाय को माँ मानकर पूजने के लिए किसी ने कहा कि आप जानवर को भी पूजते हो... गाय माता कैसे हो सकती है???
जहाँ तक बात है जानवर को पूजने की तो आप ये याद कीजिये कि मूसा ने आमीन को जिन्दा करने के लिए एक गाय के बछड़े की मांग की थी...
...
आखिर वो काम किसी और जानवर से क्यों नहीं हो सकता था???
मूसा ने गाय की पूँछ के एक बाल से आमीन को जिन्दा कर दिया तो आप ये समझो कि जब एक बाल में एक इंसान को फिर से जन्म देने की ताकत है तो पूरी गाय में कितने गुण होंगे??? ये तो बात रही इस्लाम की...
अब आते हैं सनातन धर्म पर क्योंकि गाय को हम सनातनी पूजते हैं...
गाय में ईश्वर के गुण हैं और इंसान के जीवन में एक गाय जितना महत्व है ये बात आप इससे अंदाज़ा लगा सकते हैं कि माँ के बाद एक गाय का ही दूध ऐसा है जो नवजात बच्चे को माँ के दूध बराबर लाभ पहुंचाता है...
और इसीलिए गाय में सनातनी लोग माँ के रूप में मानते हैं विश्वास करते हैं...

दरगाहों मे सर पटकने जानेवाले सनातन धर्मी (हिन्दू) लोगोँ को संदेश

दरगाहों मे सर पटकने जानेवाले सनातन धर्मी (हिन्दू) लोगोँ को संदेश :--
ख्वाजा गरीब नवाज़, अमीर खुसरो, निजामुद्दीन औलिया की दरगाह पर जाकर मन्नत मांगने वाले सनातन धर्मियों से , पूरे देश में स्थान स्थान पर बनी कब्रों,मजारों या दरगाहों पर हर वीरवार को जाकर शीश झुकाने व मन्नत करने वालों से मेरे कुछ प्रश्न हैं :-
२. ज्यादातर कब्र या मजार उन मुसलमानों की हैं जो हमारे पूर्वजो से लड़ते हुए मारे गए थे,...
उनकी कब्रों पर जाकर मन्नत मांगना क्या उन वीर पूर्वजो का अपमान नहीं हैं जिन्होंने अपने प्राण धर्म रक्षा करते की बलि वेदी पर समर्पित कर दियें थे?

३. क्या हिन्दुओ के राम, कृष्ण अथवा ३३ कोटि देवता शक्तिहीन हो चुकें हैं जो मुसलमानों की कब्रों पर सर पटकने के लिए जाना आवश्यक हैं?
४. जब गीता में श्री कृष्ण जी महाराज ने कहाँ हैं की कर्म करने से ही सफलता प्राप्त होती हैं तो मजारों में दुआ मांगने से क्या हासिल होगा?
"यान्ति देवव्रता देवान् पितृन्यान्ति पितृव्रताः
भूतानि यान्ति भूतेज्या यान्ति मद्याजिनोऽपिमाम्"
श्री मद भगवत गीता में भी भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं कि भूत प्रेत, मुर्दा, पितृ (खुला या दफ़नाया हुआ अर्थात् कब्र,मजार अथवा समाधि) को सकामभाव से पूजने वाले स्वयं मरने के बाद भूत-प्रेत व पितृ की योनी में ही विचरण करते हैं व उसे ही प्राप्त करते हैं l
५. भला किसी मुस्लिम देश में वीर शिवाजी, महाराणा प्रताप, हरी सिंह नलवा आदि वीरो की स्मृति में कोई स्मारक आदि बनाकर उन्हें पूजा जाता हैं तो भला हमारे ही देश पर आक्रमण करनेवालो की कब्र पर हम क्यों शीश झुकाते हैं?
६. क्या संसार में इससे बड़ी मुर्खता का प्रमाण आपको मिल सकता हैं?
७. हिन्दू जाति कौन सी ऐसी अध्यात्मिक प्रगति मुसलमानों की कब्रों की पूजा कर प्राप्त कर रहीं हैं जो वेदों- उपनिषदों में कहीं नहीं गयीं हैं?
८. कब्र, मजार पूजा को हिन्दू मुस्लिम एकता की मिसाल और सेकुलरता की निशानी बताना हिन्दुओ को अँधेरे में रखना नहीं तो क्या हैं ?
आशा हैं इस लेख को पढ़ कर आपकी बुद्धि में कुछ प्रकाश हुआ होगा l अगर आप आर्य राजा श्री राम और श्री कृष्ण जी महाराज की संतान हैं तो तत्काल इस मुर्खता पूर्ण अंधविश्वास को छोड़ दे और अन्य हिन्दुओ को भी इस बारे में बता कर उनका अंधविश्वास दूर करे|अपने धर्म को जानिए l इस अज्ञानता के चक्र में से बाहर निकलिए l