Thursday, January 15, 2015

महान सम्राट हर्षवर्धन बैस,KING GREAT HARSHVARDHAN BAIS

महान सम्राट हर्षवर्धन बैस(606-647)***
मित्रो आज हम आपको बैस वंशी महान राजपूत सम्राट हर्षवर्धन बैस के बारे में बताएँगे। हर्षवर्धन ने छठी-सातवी शताब्दी में 41 साल तक लगभग पुरे उत्तर और मध्य भारत पर शासन किया। हर्षवर्धन के राज्य की सीमा एक समय उत्तर पश्चिम में पंजाब से लेकर दक्षिण में नर्मदा नदी और पूर्व में बंगाल और उड़ीसा तक फैली थी। गुप्त साम्राज्य के विघटन के बाद उत्तर भारत छोटे छोटे राज्यो में विभाजित हो गया था। हर्षवर्धन ने इन सभी राज्यो को जीतकर एक विशाल साम्राज्य खड़ा किया। अपने अनेक गुणों के कारण हर्षवर्धन की गिनती भारतीय इतिहास के महान सम्राटों में होती है।


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**वंश परिचय**

 हर्षवर्धन बैस राजपूत वंश में पैदा हुए थे। इसके प्रमाण समकालीन महाकवि बाणभट्ट के हर्षचरित और चीनी यात्री हुएन त्सांग के यात्रा विवरणों से प्राप्त होते है। बाणभट्ट ने अपनी कृति हर्षचरित में हर्षवर्धन को सूर्यवंशी क्षत्रिय लिखा है। कुछ विद्वान हर्षवर्धन के राजपूत होने पर संदेह करते हैं,किन्तु उनके तर्क निराधार हैं,प्रस्तुत हैं कुछ साक्ष्य जो हर्षवर्धन को सूर्यवंशी बैस क्षत्रिय राजपूत सिद्ध करने में पर्याप्त हैं-
1-हुएन त्सांग ने हर्षवर्धन को वैश लिखा है। हालांकि इस आधार पर कुछ इतिहासकारों ने हर्षवर्धन को वैश्य जाती का माना है।चीनी यात्री हुएन त्सांग ने वैशाली को भी वेश्याली लिखा है,इसी कारण कोई आश्चर्य नही कि उन्होंने इसी भाषा दोष के कारण वैस को वैश्य लिख दिया हो,जबकि वो खुद क्षत्रिय को राजा कि जाति बताता है। इसीलिए माना जाता है की हुएन त्सांग ने बैस को वैश लिख दिया है ,उसका अर्थ वैस क्षत्रिय है न कि वैश्य.
2- हर्ष के दरबारी कवि बाणभट्ट ने साफ़-साफ़ हर्ष को क्षत्रिय लिखा है। हर्षवर्धन की बहन का विवाह एक प्रसिद्ध चंद्रवंशी क्षत्रिय वंश मौखरी(मकवाना,झाला) में हुआ था। बाणभट्ट ने इस विवाह सम्बन्ध को सूर्यवंश और चंद्रवंश क्षत्रियों का मिलाप लिखा है जिससे ये सिद्ध होता है की वर्धन वंश सूर्यवंशी क्षत्रिय राजपूत वंश था क्योंकि सूर्यवंश और चन्द्रवंश क्षत्रिय राजपूतों में ही होते है और बैस राजपूत सूर्यवंशी ही है।
बाणभट कि हर्षचरित्र,उच्छ्वास 4,पृष्ठ संख्या 146 में श्लोक हैं,
"तत्त्वां प्राप्य चिरात्ख्लू राज(ज्य) श्रीयाघटितो तेजोमयो सकलजगदीयमान बुधकरणानन्दकारिगुणगणों सेम सूर्यावंशाशिव पुष्यभूति मुखरवंशो"
"अस्ति पुण्यकर्तामधिवासो वासवावास इव वसुधामवतीर्ण;****"
बाणभट की हर्षचरित्र में हर्षवर्धन के वंश को स्पष्ट सूर्यवंशी क्षत्रिय कहा गया है और कई जगह वसु,वास,वासवावास शब्द आये हैं जो हर्षवर्धन को स्पष्ट रूप से वैस/बैस सूर्यवंशी क्षत्रिय कहा गया है।
इतिहासकार डॉ आर बी सिंह के अनुसार बाणभट्ट ने हर्षचरित में वैश्य वर्ण के बारे में बहुत सी निंदनीय बाते लिखी है जैसे "सूदखोर बनिया" तथा "जो लूटेरा ना हो ऐसा बणिक संसार में दुर्लभ है"। अगर हर्षवर्धन वैश्य वर्ण का होता तो उसका आश्रित कवि अपने राजा की जाती के बारे में ऐसी बाते नही बोलता।
इस प्रकार हर्ष के दरबारी राजकवि बाणभट कि हर्षचरित से भी सम्राट हर्षवर्धन का वंश बैस क्षत्रिय राजपूत वंश सिद्ध होता है.
3-हर्षवर्धन की पुत्री का विवाह वल्लभीपुर के सूर्यवंशी मैत्रक क्षत्रिय राजपूत राजा ध्रुवसेन से हुआ था।इन मैत्रक क्षत्रियों के वंशज वाला या वल्ला राजपूत आज भी सौराष्ट्र में मिलते हैं,कई विद्वान गुहिलौत वंश को भी वल्लभी के सुर्यवंश से उत्पन्न बताते हैं.विद्वानों के अनुसार छठी-सातवीं शताब्दी में विवाह संबंधो में वर्ण की शुद्धता पर विशेष ध्यान दिया जाता था इसलिये इन वैवाहिक संबंधो से हर्षवर्धन का क्षत्रिय होना सिद्ध होता है।
4-नेपाल के इतिहास के अनुसार भी यह बैस क्षत्रिय राजवंश था। हर्ष ने नेपाल को जीतकर वहॉ अपना राज्य स्थापित किया था। कनिंघम के अनुसार नेपाल में जो बैस वंशीय राजपूत है वो सम्राट हर्ष के परिवार से है।हर्ष ने अपनी विजय के दौरान उन्हें वहॉ बसाया था।
इतिहासकार अलेक्जेंडर कनिंघम ने भी हर्षवर्धन को बैस राजपूत माना है,
feishe caste identified by sir alexander cunningham with the
bais rajput (ano-beo-of india-432-33)
सातवी सदी में अंशुवर्मा नाम के क्षत्रिय ने नेपाल में जिस राजपूत वंश कि नीव रखी उसे वैश्यठाकुरी वंश(वैस राजपूत)वंश कहा जाता है,इनके लेखो में हर्ष संवत का इस्तेमाल होता था,जो यह सिद्ध करता है कि हर्षवर्धन और अंशुवर्मा एक ही क्षत्रिय वंश बैस राजपूत वंश से थे,इनके लेखो में इन्हें राजपुत्र लिखा है.वैशाली नेपाल के निकट है,अंशुवर्मा का शासन काल और हर्षवर्धन का शासनकाल समकालीन था.
(history of kannouj-by pandit R S Tripathi pp-94)
इतिहासकार स्मिथ भी कन्नौज पर बैस वंशी सम्राट हर्षवर्धन का शासन मानते हैं.वस्तुत: हर्षवर्धन का वंश वैस/बैस क्षत्रिय राजपूत वंश ही था.
5-शम्भुनाथ मिश्र (बैस वंशावली 1752)के पृष्ठ संख्या 2 पर सम्राट हर्षवर्धन से लेकर 25 वी पीढ़ी में राव अभयचंद तक और उसके बाद 1857 इसवी के गदर तक कुल 58 बैसवंशी राजपूतो के नाम दिए गए हैं.यह वंशावली बही के रूप में बैसवारे के बैस राजपूत परिवार रौतापुर में उपलब्ध है.यह क्रमबद्ध वंशावली हर्षवर्धन और आज के बैस राजपूतों का सीधा सम्बन्ध स्थापित करती है.
6-हर्षवर्धन के पिता आदित्यवर्धन कि जब मृत्यु हो जाती है तो उनकी माता सती होने के लिए तैयार हो जाती है और हर्ष से कहती है कि मै वीर की पुत्री,वीर की पत्नी और वीर की जननी हूँ,मेरे लिए सती होने के अतिरिक्त और क्या मार्ग है? इतिहासकार मुंशीराम शर्मा अपनी पुस्तक "वैदिक चिंतामणि" में लिखते हैं कि प्राचीन ग्रंथो में वीर शब्द का अर्थ ही क्षत्रिय होता है और सती प्रथा भी क्षत्रिय राजपूतों कि परम्परा रही है न कि वैश्य या शूद्रों की.
सती प्रथा कि परम्परा से भी हर्षवर्धन क्षत्रिय राजपूत प्रमाणित होता है.
7-चंडिका देवी बैस राजपूतों की कुलदेवी हैं और शिवजी उनके कुलदेवता. हर्षवर्धन बाद में बौद्ध हो गए थे,किन्तु वो चंडिका देवी और शिवजी की आराधना भी करते थे,यह सिद्ध करता है कि हर्षवर्धन बैस राजपूत ही थे.बाणभट से हर्षवर्धन ने चंडिका शतक और चंडिकाकष्टक लिखवाया,हर्ष बैसवाडे स्थित चंडिका के भव्य मन्दिर में नियमित रूप से दर्शनों के लिए आते थे, बैस वंश कि कुलदेवी और कुलदेव के प्रति श्रद्धा हर्षवर्धन को बैस राजपूत सिद्ध करती है. हर्षवर्धन और उनके पूर्वज सूर्य पूजा भी करते थे जो उनके वंश को सूर्यवंशी क्षत्रिय सिद्ध करता है.
8-आखिर में सबसे बड़ा तथ्य यह है की हर्षवर्धन ने अपने राज्याभिषेक समारोह में राजपुत्र की उपाधी ग्रहण की थी।हर्ष खुद को राजपुत्र शिलादित्य कहते थे,वस्तुत:हर्षवर्धन पहले क्षत्रिय राजा थे जिन्होंने राजपुत्र उपाधि को बहुत प्रयोग किया। उनके द्वारा नेपाल में स्थापित बैसठाकुरी वंश के राजा अंशुवर्मा ने भी उसी समय राजपुत्र उपाधि का प्रयोग किया,इसके बाद ही क्षत्रियों में राजपुत्र उपाधि का अधिक प्रयोग होने लगा,पहले यह संज्ञा सिर्फ राजपरिवार के सदस्य प्रयोग करते थे,बाद में सभी क्षत्रिय इसका प्रयोग करने लगे,और कुछ समय बाद क्षत्रियों के लिए राजपुत्र या राजपूत जातिनाम प्रयोग होने लगा। राजपुत्र उपाधि से हर्षवर्धन क्षत्रिय राजपूत प्रमाणित होते है।
इन सब तथ्यों से ये प्रमाणित होता है की हर्षवर्धन बैस राजपूत वंशी राजा थे। प्रसिद्द इतिहासकार कनिंघम, डॉ गौरीशंकर औझा, विश्वेरनाथ रेउ, देवी सिंह मंडावा, डॉ राजबली पांडे, डॉ जगदीश चन्द्र गहलोत, डॉ रामशंकर त्रिपाठी, भगवती प्रसाद पांथरी, पीटन पैटरसन, बुहलर, शैलेन्द्र प्रताप सिंह और प्रो लाल अमरेंद्र सिंह जैसे अनेको इतिहासकारो ने वर्धन वंश को बैस क्षत्रिय माना है। इस सबसे ये ही ज्ञात होता है की जिन इतिहासकारो ने उनके लिये वैश्य, ब्राह्मण या अन्य शब्द का इस्तमाल किया हैँ, वो या तो अज्ञानवष या किसी द्वेष भावना से ग्रस्त होकर किया है।
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**हर्षवर्धन के पूर्वज **
बैस राजपूत वंश उत्तर बिहार के शक्तिशाली वैशाली के लिच्छवी गणराज्य के क्षत्रियोँ से निकला है। जब मगध के नन्द राजवंश ने इस गणराज्य को नष्ट कर दिया तो वहॉ के क्षत्रिय देश के विभिन्न क्षेत्रों में फ़ैल गए। गणराज्य की राजधानी वैशाली नगर से निकास होने के कारण ये क्षत्रिय वैश/बैस के नाम से जाने गए। कालांतर में इनमे से एक शाखा ने श्रीकण्ठ नामक स्थान पर शासन स्थापित किया जिसका नाम बदलकर स्थानेश्वर हो गया।पहले इस स्थान पर श्रीकंठ नामक नागवंशी शासक का राज्य था। बाणभट्ट के अनुसार हर्षवर्धन के किसी पूर्वज का नाम पुष्यभूतिवर्धन था जिसने स्थानेश्वर(वर्तमान थानेश्वर) में राज्य स्थापित किया। इसलिये इस वंश को पुष्यभूती वंश भी कहा जाता है।पुष्यभूति के बाद नरवर्धन,उनके बाद राज्यवर्धन,उसके बाद आदित्यवर्धन,प्रभाकरवर्धन थानेश्वर की गद्दी पर बैठे। इस वंश के पाँचवे और शक्तिशाली शाशक प्रभाकरवर्धन हुए जिन्होंने सिंध, गुजरात और मालवा पर अधिकार कर लिया था और हूणों को भी पराजित किया था। इनकी उपाधी परम् भट्टारक राजाधिराज थी जिससे ज्ञात होता है की इन्होंने अपना स्वतन्त्र राज्य स्थापित कर लिया था। राजा प्रभाकरवर्धन के 2 पुत्र राज्यवर्धन और हर्षवर्धन और एक पुत्री राजश्री थी जिसका विवाह कन्नौज के मौखरी वंश के राजा ग्रहवर्मन से हुआ था जिससे उत्तर भारत के दो शक्तिशाली राजवंशो में मित्रता स्थापित हो गई थी और दोनों की शक्ति काफी बढ़ गई।
606ई. में परभाकरवर्धन की मृत्यु के बाद उनका बड़ा पुत्र राज्यवर्धन गद्दी पर काबिज हुआ। इसी दौरान मौखरी वंश के शाशक ग्रहवर्मन की मालवा के शासक देव गुप्त से युद्ध में पराजय और मृत्यु हो गई। देव गुप्त ने ग्रहवर्मन की पत्नी और राज्यवर्धन की बहन राजश्री को बन्दी बना लिया। राज्यवर्धन से ये ना देखा गया और उसने देव गुप्त के विरुद्ध चढ़ाई कर के उसे पराजित कर दिया। उसी वक्त गौड़(बंगाल) का शाशक शशांक राज्यवर्धन का मित्र बनकर मगध पर चढ़ आया लेकिन उसकी देव गुप्त से गुप्त संधि थी। शशांक ने धोखे से राज्यवर्धन की हत्या कर दी। अपने बड़े भाई की हत्या का समाचार सुनने के बाद हर्षवर्धन ने इसका बदला लेने का प्रण लिया और देव गुप्त के साथ युद्ध कर के उसे मार दिया। हर्ष का 606ई. के लगभग 16 वर्ष की उम्र में ही राज्याभिषेक हुआ और उन्होंने राजपुत्र की उपाधी धारण की।
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**हर्षवर्धन का राजकाल**
हर्ष ने राजगद्दी संभालने के बाद अपने को महान विजेता और योग्य प्रशाशक के रूप में स्थापित किया। हर्ष ने लगभग 41 वर्ष तक शाशन किया। इस दौरान उन्होंने स्थानेश्वर और कन्नौज के राज्य को एक किया और अपनी राजधानी कन्नौज में स्थापित की। उन्होंने शशांक को हराया और बंगाल, बिहार और उड़ीसा को अपने अधीन किया। हर्ष ने वल्लभी(आधुनिक गुजरात) के शासक ध्रुवभट को हरा दिया किन्तु उसकी वीरता को देखकर अपनी पुत्री का विवाह उससे कर दिया,हर्ष ने अपने साम्राज्य का विस्तार कश्मीर, नेपाल, गुजरात, बंगाल, मालवा तक कर लिया था। उन्हें श्रीहर्ष शिलादित्य के नाम से भी जाना जाता है और उन्होंने परम् भट्टारक मगध नरेश की उपाधी धारण कर ली थी। हालांकि हर्षवर्धन का दक्षिणी भारत को जीतने का सपना पूरा नही हो पाया। वातापी के चालुक्य नरेश पुलकेशिन द्वितीय से उसे नर्मदा नदी के तट पर हार का सामना करना पड़ा जिसके बाद दोनों के बीच में संधि के तहत नर्मदा नदी को हर्षवर्धन के राज्य की दक्षिणी सीमा चिन्हित किया गया।
**धर्मपरायण और दानवीर सम्राट**
हर्षवर्धन ना केवल एक धर्मपरायण शाशक थे बल्कि वो सभी पंथो का सम्मान और प्रचार करते थे। शुरुआत में वो सूर्य उपासक थे, बाद में खुद शिव, विष्णु और कालिका की उपासना करते थे लेकिन साथ ही साथ बौद्ध धर्म की महायान शाखा के समर्थक भी थे। ऐसा माना जाता है की हर्ष प्रतिदिन 500 ब्राह्मणों और 1000 बौद्ध भिक्षुओँ को भोजन कराते थे। वो बौद्ध धर्म से बहुत प्रभावित थे और उसके प्रचार के लिये उन्होंने बहुत दान दिया। उन्होंने अनेक स्तूप बनवाए और नालंदा विश्वविद्यालय को भी बहुत दान दिया। नालंदा विश्वविद्यालय की सुरक्षा के लिये उन्होंने उसके चारों ओर एक विशाल दिवार का निर्माण किया। कन्नौज में सैकड़ो बौद्ध विहार थे। डौंडियाखेड़ा, जो कुछ समय पहले तक भी बैस राजपूतो की रियासत रही है, वहा भी सैकड़ो विहार थे। कन्नौज में उन्होंने सन् 643 ई.में एक विशाल बौद्ध सभा का आयोजन किया जिसमे देश विदेश से अनेकों राजा और हजारों बौद्ध भिक्षु सम्मिलित हुए।
इन्होंने अपने समय में पशु हत्या और मांसाहार पर प्रतिबंध लगा दिया। गरीबो के लिये अनाथालय और पर्यटकों के लिये धर्मशालाए बनवाई। इनके समय में दो प्रमुख विश्विद्यालय थे जिसमे बड़ी संख्या में बाहर से विद्यार्थी आते थे, साथ ही अनेक पाठशालाओं का निर्माण इन्होंने करवाया।
हर्षवर्धन प्रत्येक कुम्भ में प्रयाग जाते थे और वहा अपना समस्त धन गरीबो को दान कर देते थे तथा अपनी बहन राज्यश्री से मांगकर कपड़े पहनते थे।
**धर्म, कला और साहित्य का संरक्षक**
हर्ष ना केवल कला और साहित्य के संरक्षक थे बल्कि खुद एक प्रतिष्ठित नाटककार एवं कवि भी थे। उन्होंने 'नागानन्द', 'रत्नावली' एवं 'प्रियदर्शिका' नामक नाटकों की रचना की। इनके दरबार में बाणभट्ट, हरिदत्त एवं जयसेन जैसे प्रसिद्ध कवि एवं लेखक शोभा बढ़ाते थे। बाणभट्ट ने हर्ष के काल के ऊपर हर्षचरित नामक ग्रन्थ लिखा जो की संस्कृत में लिखा पहला ऐतिहासिक काव्य ग्रन्थ है। इन्होंने हुएन त्सांग जैसे अनेक विद्वानों को भी प्रश्रय दिया।
***महान प्रशासक***
हर्षवर्धन एक महान प्रशाशक थे। वो अपने राज्य के प्रशाशन में व्यक्तिगत रूची लेते थे। उनका प्रशाशन बहुत सुव्यवस्थित था और जनता बहुत खुशहाल थी। इनके राज्य में कर बहुत कम होते थे और बड़े अपराध भी कम थे। अपराध करने वालोँ को कठोर सजा दी जाती थी। बड़े अपराध में नाक, कान, हाथ, पैर काट दिए जाते थे। इनके समय विदेशी नागरिक भी आने से डरते थे। एक बार हुएन त्सांग को भी सीमा पर रोक लिया गया था।
उनकी सेना भी उच्च कोटि की थी। हर्षवर्धन अपना अधिकतर समय युद्धभूमी पर सौनिक शिविरो में ही बिताते थे। वर्षा ऋतु को छोड़कर बाकी समय उनकी सेना विजय अभियान पर ही रहती थी। बाणभट्ट और हुएन त्सांग से उनकी भेंट सैन्य शिविरो में ही हुई थी।
हर्षवर्धन अच्छे कूटनीतिज्ञ भी थे। अनेक राजाओं से उनके मैत्रीपूर्ण सम्बंध थे। उन्होंने चीन के शासकों से भी पहली बार कूटनीतिक सम्बंध स्थापित किये और कई दूत चीन भेजे। चीन शाशक की तरफ से भी कई दूत भारत आए।
अंत में हम इतना कह सकते है की हर्षवर्धन निस्संदेह भारतीय इतिहास के एक महान व्यक्तित्व है। वह एक कुशल शाशक, महान विजेता, दानशील और प्रजावत्सल, धर्मपरायण जैसे गुणों से युक्त व्यक्तित्व के धनी थे। साथ ही एक उच्च कोटि के कवि और नाटककार भी थे। गुप्त साम्राज्य के बाद के अव्यवस्था के दौर में इतना विशाल साम्राज्य स्थापित करने वाले पहले और संभवतया आखिरी शाशक थे। उन्होंने सभी धर्मो को समान आदर दिया और विद्या,कला, साहित्य का प्रसार किया। विद्वानों को भी वो बहुत आदर करते थे। इसलिये वो संस्कृति के महान संरक्षक और विद्या अनुरागी के रूप में भी जाने जाते हैँ। इसके साथ ही वो महान दानवीर भी थे। कूटनीति और सैन्य संचालन के क्षेत्र में भी उन्होंने महान कार्य किये। हर्ष ने अपनी माता और बहन को सती होने से बचाया और अपने भाई और बहन के पति की हत्या का बदला लिया। उन्होंने आपनी विधवा बहन राजश्री का जीवन भर संरक्षण किया। इनसे पता चलता है की एक शक्तिशाली शाशक होने के बावजूद पारिवार से लगाव जैसे मानवीय गुण भी उनके व्यक्तित्व का हिस्सा थे।
हर्ष ने अपने राज्याभिषेक के समय ईस्वी सन 606 से हर्ष संवत प्रारम्भ किया.
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***हर्षवर्धन की मृत्यु के बाद***
हर्षवर्धन की मृत्यु 647ई. में हुई। उनकी मृत्यु के बाद कमजोर शासकों की वजह से उनका राज्य कई छोटे-छोटे राज्यो में विभाजित हो गया।हर्ष कि मृत्यु के बाद किसी अर्जुन ने कन्नौज पर अधिकार कर लिया,उसका हर्ष से या बैस वंश से क्या सम्बन्ध था ये ज्ञात नहीं है,अर्जुन ने चीनी दूत के साथ दुर्व्यवहार किया जिससे चीनी दूत अपने साथ नेपाल और तिब्बत कि सेना लेकर आया और अर्जुन हारकर कैद हो गया, हर्षवर्धन के विवरण में उनके मामा भंडी का जिक्र मिलता है,बाद में कन्नौज पर भंडी वंश के आयुध शासको का जिक्र मिलता है जिसे कुछ इतिहासकार राष्ट्रकूट वंश(राठौड़)का भी बताते हैं।
हर्षवर्धन के बाद उनके वंशज कन्नौज के आस पास ही कई शक्तियों के अधीन सामन्तों के रूप में शाशन करते रहे। हर्षवर्धन से 24 वीं पीढ़ी में बैस सामंत केशव राय ने मुहम्मद गोरी के विरुद्ध राजा जयचन्द की तरफ से चंदावर के युद्ध में भाग लिया। उनके पुत्र राव अभयचन्द ने उन्नाव,राय बरेली स्थित बैसवारा की स्थापना की। आज भी सबसे ज्यादा बैस राजपूत इसी बैसवारा क्षेत्र में निवास करते है। हर्षवर्धन से लेकर राव अभयचन्द तक 25 शासक/सामन्त हुए, जिनकी वंशावली इस प्रकार है-
1.हर्षवर्धन
2.यशकर्ण
3.रणशक्ति
4.धीरचंद
5.ब्रजकुमार
6.घोषचन्द
7.पूरनमल
8.जगनपति
9.परिमलदेव
10.मनिकचंद
11.कमलदेव
12.यशधरदेव
13.डोरिलदेव
14.कृपालशाह
15.रतनशाह
16.हिंदुपति
17.राजशाह
18.परतापशाह
19.रुद्रशाह
20.विक्रमादित्य
21-ताम्बेराय
22.क्षत्रपतिराव
23.जगतपति
24.केशवराव
25.अभयचंद
इन्ही हर्षवर्धन के वंशज राव अभयचंद बैस ने सन 1230 के लगभग बैसवारा राज्य कि नीव रखी.
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सन्दर्भ--------
1-हर्षचरित्र बाणभट्ट उच्छ्वास 4,पृष्ठ संख्या 146
2-ठाकुर ईश्वर सिंह मढ़ाड कृत राजपूत वंशावली के प्रष्ठ संख्या 112-114
3-देवी सिंह मंडावा कृत राजपूत शाखाओं का इतिहास के पृष्ठ संख्या 67-74
4-महान इतिहासकार गौरिशंकर ओझा जी कृत राजपूताने का इतिहास के पृष्ठ संख्या154-162
5-श्री रघुनाथ सिंह कालीपहाड़ी कृत क्षत्रिय राजवंश के प्रष्ठ संख्या 78,79 एवं 368,369
6-डा देवीलाल पालीवाल कि कर्नल जेम्स तोड़ कृत राजपूत जातियों का इतिहास प्रष्ठ संख्या 182
7-ठाकुर बहादुर सिंह बीदासर कृत क्षत्रिय वंशावली एवं जाति भास्कर
8-http://kshatriyawiki.com/wiki/Bais
9-https://www.google.co.in/url
10-http://www.indianrajputs.com/dynasty/Bais
11-http://wakeuprajput.com/orgion_bais.php
12-feishe caste identified by sir alexander cunningham with the
bais rajput (ano-beo-of india-432-33)
13-history of kannouj-by pandit jankisharan tripathi pp-94)
14-शम्भुनाथ मिश्र (बैस वंशावली 1752)के पृष्ठ संख्या 2
15-इतिहासकार मुंशीराम शर्मा की पुस्तक "वैदिक चिंतामणि"
16-विश्वेरनाथ रेउ, डॉ राजबली पांडे, डॉ जगदीश चन्द्र गहलोत, डॉ रामशंकर त्रिपाठी, भगवती प्रसाद पांथरी, पीटन पैटरसन, बुहलर, शैलेन्द्र प्रताप सिंह और प्रो लाल अमरेंद्र सिंह जैसे अनेको इतिहासकारो ने वर्धन वंश को बैस क्षत्रिय माना है।
17-http://books.google.co.in/…/about/The_Harshacharita.html%E2…
18- Cunningham, Alexander. The Ancient Geography of India: The Buddhist Period, Including the Campaigns of Alexander, and the Travels of Hwen-Thsang. 1871, Thübner and Co. Reprint by Elbiron Classics. 2003., p. 377.
19-http://www.encyclopedia.com/to…/Harsha_(Indian_emperor).aspx
20-http://www.kurukshetra.nic.in/…/Archeolog…/harsh_ka_tila.htm
21-http://www.encyclopedia.com/to…/Harsha_(Indian_emperor).aspx
22-http://www.britannica.com/EBchecked/topic/256065/Harsha
23-https://books.google.co.in/books
24-https://books.google.co.in/books
25-https://books.google.co.in/books
26-https://books.google.co.in/books
27-https://books.google.co.in/books
28-https://books.google.co.in/books
29-https://books.google.co.in/books
30-https://books.google.co.in/books
FROM RAJPUTANA SOCH

बैस राजपूतो /bais, vais rajput

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जय राजपूताना--------
मित्रों आज हम आपको मध्य और पूर्वी उत्तर प्रदेश के बहुत सशक्त राजपूत वंश बैस क्षत्रियों के बारे में जानकारी देंगे..............
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बैस राजपूतो के गोत्र,प्रवर,आदि------
वंश-बैंस सूर्यवंशी क्षत्रिय कुल है।हालाँकि कुछ विद्वान इन्हें नागवंशी भी बताते हैं.
गोत्र-भारद्वाज है
प्रवर-तीन है : भारद्वाज ; बार्हस्पत्य और अंगिरस
वेद-यजुर्वेद 
कुलदेवी-कालिका माता
इष्ट देव-शिव जी 
ध्वज-आसमानी और नाग चिन्ह 
वंश नाम उचारण---
   BAIS RAJPUT
   Bhais Rajput
   Bhains Rajput
   Bhainse Rajput
   Bains Rajput
   Bens Rajput
   Bhens Rajput
   Bhense Rajput
   Baise Rajput
   Bes Rajput
   Bayas Rajput
   Vais Rajput
प्रसिद्ध बैस व्यक्तित्व----शालिवाहन,हर्षवर्धन,त्रिलोकचंद,सुहेलदेव,अभयचंद,
राणा बेनीमाधवबख्श सिंह,मेजर ध्यानचंद आदि 

शाखाएँ--कोट बहार बैस,कठ बैस,डोडिया बैस,त्रिलोकचंदी(राव,राजा,नैथम,सैनवासी) बैस,प्रतिष्ठानपुरी बैस,रावत,कुम्भी,नरवरिया,भाले सुल्तान,चंदोसिया,आदि
 
प्राचीन एवं वर्तमान राज्य और ठिकाने--प्रतिष्ठानपुरी,स्यालकोट,स्थानेश्वर, मुंगीपट्टम्म,कन्नौज,बैसवाडा, कस्मांदा, बसन्तपुर, खजूरगाँव थालराई ,कुर्रिसुदौली, देवगांव,मुरारमउ, गौंडा, थानगाँव,कटधर आदि 

परम्पराएँ---
बैस राजपूत नागो को नहीं मारते हैं,नागपूजा का इनके लिए विशेष महत्व है,इनमे ज्येष्ठ भ्राता को टिकायत कहा जाता था,और सम्पत्ति का बड़ा हिस्सा आजादी से पहले तक उसे ही मिलता था.मुख्य गढ़ी में टिकायत परिवार ही रहता था और शेष भाई अलग किला/मकान बनाकर रहते थे,बैस राजपूतो में आपसी भाईचारा बहुत ज्यादा होता है.बिहार के सोनपुर का पशु मेला बैस राजपूतों ने ही प्रारम्भ किया था.

वर्तमान निवास--यूपी के अवध में स्थित बैसवाडा, मैनपुरी, एटा, बदायूं, कानपूर, इलाहबाद,बनारस,आजमगढ़,बलिया,बाँदा,हमीरपुर,प्रतापगढ़,सीतापुर,रायबरेली,उन्नाव,लखनऊ,हरदोई,फतेहपुर,गोरखपुर,बस्ती,मिर्जापुर,गाजीपुर,गोंडा,बहराइच,बाराबंकी,
बिहार,पंजाब,पाक अधिकृत कश्मीर,पाकिस्तान में बड़ी आबादी है और मध्य प्रदेश और राजस्थान के कुछ हिस्सों में भी थोड़ी आबादी है.
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बैस क्षत्रियों कि उत्पत्ति-----
बैस राजपूतों कि उतपत्ति के बारे में कई मत प्रचलित हैं 
1-ठाकुर ईश्वर सिंह मढ़ाड कृत राजपूत वंशावली के प्रष्ठ संख्या 112-114 के अनुसार सूर्यवंशी राजा वासु जो बसाति जनपद के राजा थे,उनके वंशज बैस राजपूत कहलाते हैं ,बसाति जनपद महाभारत काल तक बना रहा है.
2-देवी सिंह मंडावा कृत राजपूत शाखाओं का इतिहास के पृष्ठ संख्या 67-74 के अनुसार वैशाली से निकास के कारण ही यह वंश वैस या बैस या वैश कहलाया,इनके अनुसार बैस सूर्यवंशी हैं,इनके किसी पूर्वज ने किसी नागवंशी राजा कि सहायता से उन्नति कि,इसीलिए बैस राजपूत नाग पूजा करते हैं और इनका चिन्ह भी नाग है,
3-महाकवि बाणभट ने सम्राट हर्षवर्धन जो कि बैस क्षत्रिय थे उनकी बहन राज्यश्री और कन्नौज के मौखरी(मखवान,झाला) वंशी महाराजा गृहवर्मा के विवाह को सूर्य और चन्द्र वंश का मिलन बताया है,मौखरी चंद्रवंशी थे अत: बैस सूर्यवंशी सिद्ध होते हैं.
4-महान इतिहासकार गौरिशंकर ओझा जी कृत राजपूताने का इतिहास के पृष्ठ संख्या 154-162 में भी बैस राजपूतों को सूर्यवंशी सिद्ध किया गया है,
5-श्री रघुनाथ सिंह कालीपहाड़ी कृत क्षत्रिय राजवंश के प्रष्ठ संख्या 78,79 एवं 368,369 के अनुसार भी बैस सूर्यवंशी क्षत्रिय हैं 
6-डा देवीलाल पालीवाल कि कर्नल जेम्स तोड़ कृत राजपूत जातियों का इतिहास के प्रष्ठ संख्या 182 के अनुसार बैस सूर्यवंशी क्षत्रिय हैं.
7-ठाकुर बहादुर सिंह बीदासर कृत क्षत्रिय वंशावली एवं जाति भास्कर में बैस वंश को स्पष्ट सूर्यवंशी बताया गया है.
8-इनके झंडे में नाग का चिन्ह होने के कारण कई विद्वान इन्हें नागवंशी मानते हैं,लक्ष्मण को शेषनाग का अवतार भी माना जाता है.अत: कुछ विद्वान बैस राजपूतो को लक्ष्मण का वंशज और नागवंशी मानते हैं,कुछ विद्वानों के अनुसार भरत के पुत्र तक्ष से तक्षक नागवंश चला जिसने तक्षिला कि स्थापना की,बाद में तक्षक नाग के वंशज वैशाली आये और उन्ही से बैस राजपूत शाखा प्रारम्भ हुई.
9-कुछ विद्वानों के अनुसार बैस राजपूतों के आदि पुरुष शालिवाहन के पुत्र का नाम सुन्दरभान या वयस कुमार था जिससे यह वंश वैस या बैस कहलाया,जिन्होंने सहारनपुर कि स्थापना की.
10-कुछ विद्वानों के अनुसार गौतम राजा धीरपुंडीर ने 12 वी सदी के अंत में राजा अभयचन्द्र को 22 परगने दहेज़ में दिए इन बाईस परगनों के कारण यह वंश बाईसा या बैस कहलाने लगा.
11-कुछ विद्वान इन्हें गौतमी पुत्र शातकर्णी जिन्हें शालिवाहन भी कहा जाता है उनका वंशज मानते हैं,वहीं कुछ के अनुसार बैस शब्द का अर्थ है वो क्षत्रिय जिन्होंने बहुत सारी भूमि अपने अधिकार में ले ली हो.

बैस वंश कि उत्पत्ति के सभी मतों का विश्लेष्ण एवं निष्कर्ष--------

बैस राजपूत नाग कि पूजा करते हैं और इनके झंडे में नाग चिन्ह होने का यह अर्थ नहीं है कि बैस नागवंशी हैं,महाकवि बाणभट ने सम्राट हर्षवर्धन जो कि बैस क्षत्रिय थे उनकी बहन राज्यश्री और कन्नौज के मौखरी(मखवान,झाला) वंशी महाराजा गृहवर्मा के विवाह को सूर्य और चन्द्र वंश का मिलन बताया है,मौखरी चंद्रवंशी थे अत: बैस सूर्यवंशी सिद्ध होते हैं.

लक्ष्मण जी को शेषनाग का अवतार माना जाता है किन्तु लक्ष्मन जी नागवंशी नहीं रघुवंशी ही थे और उनकी संतान आज के प्रतिहार(परिहार) और मल्ल राजपूत है,

जिन विद्वानों ने 12 वी सदी में धीरपुंडीर को अर्गल का गौतमवंशी राजा लिख दिया और उनके द्वारा दहेज में अभयचन्द्र को 22 परगने दहेज़ में देने से बैस नामकरण होने का अनुमान किया है वो बिलकुल गलत है,क्योंकि धीरपुंडीर गौतम वंशी नहीं पुंडीर क्षत्रिय थे जो उस समय हरिद्वार के राजा थे,बाणभट और चीनी यात्री ह्वेंस्वांग ने सातवी सदी में सम्राट हर्ष को स्पष्ट रूप से बैस या वैश वंशी कहा है तो 12 वी सदी में बैस वंशनाम  कि उतपत्ति का सवाल ही नहीं है,किन्तु यहाँ एक प्रश्न उठता है कि अगर बैस वंश कि मान्यताओं के अनुसार शालिवाहन के वंशज वयस कुमार या सुंदरभान सहारनपुर आये थे तो उनके वंशज कहाँ गए?
बैस वंश कि एक शाखा त्रिलोकचंदी है और सहारनपुर के वैश्य जैन समुदाय कि भी एक शाखा त्रिलोकचंदी है इन्ही जैनियो के एक व्यक्ति राजा साहरनवीर सिंह ने अकबर के समय सहारनपुर नगर बसाया था,आज के सहारनपुर,हरिद्वार का क्षेत्र उस समय हरिद्वार के पुंडीर शासको के नियन्त्रण में था तो हो सकता है शालिवाहन के जो वंशज इस क्षेत्र में आये होंगे उन्हें राजा धीर पुंडीर ने दहेज़ में सहारनपुर के कुछ परगने दिए हों और बाद में ये त्रिलोकचंदी बैस राजपूत ही जैन धर्म ग्रहण करके व्यापारी हो जाने के कारण वैश्य बन गए हों और इन्ही त्रिलोकचंदी जैनियों के वंशज राजा साहरनवीर ने अकबर के समय सहारनपुर नगर कि स्थापना कि हो,
और बाद में इन सभी मान्यताओं में घालमेल हो गया हो.अर्गल के गौतम राजा अलग थे उन्होंने वर्तमान बैसवारे का इलाका बैस वंशी राजा अभयचन्द्र को दहेज़ में दिया था,

गौतमी पुत्र शातकर्णी को कुछ विद्वान बैस वंशावली के शालिवाहन से जोड़ते हैं किन्तु नासिक शिलालेख में गौतमी पुत्र श्री शातकर्णी को एक ब्राह्मण (अद्वितिय ब्राह्मण) तथा खतिय-दप-मान-मदन अर्थात क्षत्रियों का मान मर्दन करने वाला आदि उपाधियों से सुशेभित किया है। इसी शिलालेख के लेखक ने गौतमीपुत्र की तुलना परशुराम से की है। साथ ही दात्रीशतपुतलिका में भी शालीवाहनों को मिश्रित ब्राह्मण जाति तथा नागजाति से उत्पन्न माना गया है।
अत:गौतमीपुत्र शातकर्णी अथवा शालिवाहन को बैस वंशी शालिवाहन से जोड़ना उचित प्रतीत नहीं होता क्योंकि बैसवंशी सूर्यवंशी क्षत्रिय हैं.

उपरोक्त सभी मतो का अधयन्न करने पर हमारा निष्कर्ष है कि बैस राजपूत सूर्यवंशी हैं,प्राचीन काल में सूर्यवंशी इछ्वाकू वंशी राजा विशाल ने वैशाली राज्य कि स्थापना कि थी,विशाल का एक पुत्र लिच्छवी था यहीं से सुर्यवंश कि लिच्छवी, शाक्य(गौतम), मोरिय(मौर्य), कुशवाहा(कछवाहा) ,बैस शाखाएँ अलग हुई,
जब मगध के राजा ने वैशाली पर अधिकार कर लिया और मगध में शूद्र नन्दवंश का शासन स्थापित हो गया और उसने क्षत्रियों पर जुल्म करने शुरू कर दिए तो वैशाली से सूर्यवंशी क्षत्रिय पंजाब,तक्षिला,महाराष्ट्र,स्थानेश्वर,दिल्ली,आदि में आ बसे,दिल्ली क्षेत्र पर भी कुछ समय बैस वंशियों ने शासन किया,बैंसों की एक शाखा पंजाब में आ बसी। इन्होंने पंजाब में एक नगर श्री कंठ पर अधिकार किया , जिसका नाम आगे चलकर थानेश्वर हुआ।
दिल्ली क्षेत्र थानेश्वर के नजदीक है अत:दिल्ली शाखा,थानेश्वर शाखा,सहारनपुर शाखा का आपस में जरुर सम्बन्ध होगा ,
बैसवंशी सम्राट हर्षवर्धन अपनी राजधानी थानेश्वर से हटाकर कन्नौज ले गए,हर्षवर्धन ने अपने राज्य का विस्तार बंगाल,असम,पंजाब,राजपूताने,मालवा,नेपाल तक किया और स्वयं राजपुत्र शिलादित्य कि उपाधि धारण की.
हर्षवर्द्धन के पश्चात् इस वंश का शासन समाप्त हो गया और इनके वंशज कन्नौज से आगे बढकर अवध क्षेत्र में फ़ैल गए,इन्ही में आगे चलकर त्रिलोकचंद नाम के प्रसिद्ध व्यक्ति हुए इनसे बैस वंश कि कई शाखाएँ चली,इनके बड़े पुत्र बिडारदेव के वंशज भालेसुल्तान वंश के बैस हुए जिन्होंने सुल्तानपुर कि स्थापना की.इन्ही बिडारदेव के वंशज राजा सुहेलदेव हुए जिन्होंने महमूद गजनवी के भतीजे सैय्यद सलार मसूद गाजी को बहराइच के युद्ध में उसकी सेना सहित मौत के घाट उतार दिया था और खुद भी शहीद हो गए थे.
चंदावर के युद्ध में हर्षवर्धन के वंशज केशवदेव भी जयचंद के साथ युद्ध लड़ते हुए शहीद हो गए बाद में उनके वंशज अभयचंद ने अर्गल के गौतम राजा कि पत्नी को तुर्कों से बचाया जिसके कारण गौतम राजा ने अभयचंद से अपनी पुत्री का विवाह कर उसे 1440 गाँव दहेज़ में दे दिए जिसमें विद्रोही भर जाति का दमन कर अभयचंद ने बैस राज्य कि नीव रखी जिसे आज बैसवाडा या बैसवारा कहा जाता है,इस प्रकार सूर्यवंशी बैस राजपूत आर्याव्रत के एक बड़े भू भाग में फ़ैल गए.
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बैसवंशी राजपूतों का सम्राट हर्षवर्धन से पूर्व का इतिहास----
बैस राजपूत मानते हैं कि उनका राज्य पहले मुर्गीपाटन पर था और जब इस पर शत्रु ने अधिकार कर लिया तो ये प्रतिष्ठानपुर आ गए,वहां इस वंश में राजा शालिवाहन हुए,जिन्होंने विक्रमादित्य 
को हराया और शक सम्वत इन्होने ही चलाया,कुछ ने गौतमी पुत्र शातकर्णी को शालिवाहन मानकर उन्हें बैस वंशावली का शालिवाहन बताया है,और पैठण को प्रतिष्ठानपुर बताया और कुछ ने स्यालकोट को प्रतिष्ठानपुर बताया है,
किन्तु यह मत सही प्रतीत नहीं होते ,कई वंशो बाद के इतिहास में यह गलतियाँ कि गई कि उसी नाम के किसी प्रसिद्ध व्यक्ति को यह सम्मान देने लग गए,शालिवाहन नाम के इतिहास में कई अलग अलग वंशो में प्रसिद्ध व्यक्ति हुए हैं.भाटी वंश में भी शालिवाहन हुए हैं और सातवाहन वंशी गौतमीपुत्र शातकर्णी को भी शालिवाहन कहा जाता था,
विक्रमादित्य के विक्रम सम्वत और शालिवाहन के शक सम्वत में पूरे 135 वर्ष का फासला है अत:ये दोनों समकालीन नहीं हो सकते.दक्षिण के गौतमीपुत्र शातकर्णी को नासिक शिलालेख में स्पष्ट:ब्राह्मण लिखा है अत:इसका सूर्यवंशी बैस वंश से सम्बन्ध होना संभव नहीं है.
वस्तुत: बैस इतिहास का प्रतिष्ठानपुर न तो दक्षिण का पैठण है और न ही पंजाब का स्यालकोट है यह प्रतिष्ठानपुर इलाहबाद(प्रयाग) के निकट और झूंसी के पास था.
किन्तु इतना अवश्य है कि बैस वंश में शालिवाहन नाम के एक प्रसिद्ध राजा अवश्य हुए जिन्होंने प्रतिष्ठानपूरी में एक बड़ा बैस राज्य स्थापित किया,शालिवाहन कई राज्यों को जीतकर उनकी कन्याओं को अपने महल में ले आये,जिससे उनकी पहली तीन क्षत्राणी रानियाँ खिन्न होकर अपने पिता के घर चली गयी,इन तीन रानियों के वंशज बाद में भी बैस कहलाते रहे और बाद कि रानियों के वंशज कठबैस कहलाये,
ये प्रतिष्ठानपुर(प्रयाग)के शासक थे,
इन्ही शालिवाहन के वंशज त्रिलोकचंद बैस ने दिल्ली(उस समय कुछ और नाम होगा) पर अधिकार कर लिय.स्वामी दयानंद सरस्वती के अनुसार दिल्ली पर  
सन 404 ईस्वी में राजा मुलखचंद उर्फ़ त्रिलोकचंद प्रथम ने विक्रमपाल को हराकर शासन स्थापित किया इसके बाद, विक्र्मचन्द,  कर्तिकचंद, रामचंद्र, अधरचन्द्र, कल्याणचन्द्र, भीमचंद्र, बोधचन्द्र, गोविन्दचन्द्र और प्रेमो देवी ने दो सो से अधिक वर्ष तक शासन किया,वस्तुत ये दिल्ली के बैस शासक स्वतंत्र न होकर गुप्त वंश और बाद में हर्षवर्धन बैस के सामंत के रूप में यहाँ पर होंगे,इसके बाद यह वंश दिल्ली से समाप्त हो गया,और सातवी सदी के  बाद में पांडववंशी अर्जुनायन तंवर क्षत्रियों(अनंगपाल प्रथम) ने प्राचीन इन्द्रप्रस्थ के स्थान पर दिल्ली कि स्थापना की.

वस्तुत:बैसवारा ही बैस राज्य था.(देवी सिंह मंडावा कृत राजपूत शाखाओं का इतिहास पृष्ठ संख्या 70,एवं ईश्वर सिंह मढ़ाड कृत राजपूत वंशावली पृष्ठ संख्या 113,114)
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बैस वंश कि शाखाएँ-----
कोट बाहर बैस---शालिवाहन कि जो रानियाँ अपने पीहर चली गयी उनकी संतान कोट बाहर बैस कहलाती है.
कठ बैस---शालिवाहन कि जो जीती हुई रानियाँ बाद में महल में आई उनकी संतान कोट बैस या कठ बैस कहलाती हैं,
डोडिया बैस---डोडिया खेडा में रहने के कारण राज्य हल्दौर जिला बिजनौर 
त्रिलोकचंदी बैस---त्रिलोकचंद के वंशज इनकी चार उपशाखाएँ हैं राव,राजा,नैथम,सैनवासी
प्रतिष्ठानपूरी बैस---प्रतिष्ठानपुर में रहने के कारण 
चंदोसिया---ठाकुर उदय बुधसिंह बैस्वाड़े से सुल्तानपुर के चंदोर में बसे थे उनकी संतान चंदोसिया बैस कहलाती है.
रावत--फतेहपुर,उन्नाव में 
भाले सुल्तान--ये भाले से लड़ने में माहिर थे मसूद गाजी को मारने वाले सुहेलदेव बैस संभवत:इसी वंश के थे,रायबरेली,लखनऊ,उन्नाव में मिलते हैं.
कुम्भी एवं नरवरिया--बैसवारा में मिलते हैं
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बैसवंशी राजपूतो कि वर्तमान स्थिति-------
बैस राजपूत वंश वर्तमान में भी बहुत ससक्त वंश मन जाता है,ब्रिटिश गजेटियर में भी इस वंश कि सम्पन्नता और कुलीनता के बारे में विस्तार से लिखा गया है,अवध,पूर्वी उत्तरप्रदेश के बैसवारा में बहुत से बड़े जमीदार बैस वंश से थे,बैस वंशी राणा बेनीमाधवबख्श सिंह और दुसरे बैस जमीदारों ने सन 1857 इसवी में अवध क्षेत्र में अंग्रेजो से जमकर लोहा लिया था,बैस राजपूतों द्वारा अंग्रेजो का जोरदार विरोध करने के बावजूद अंग्रेजो कि हिम्मत इनकी जमिदारियां खत्म करने कि नहीं हुई,बैस राजपूत अपने इलाको के सरताज माने जाते हैं और सबसे साफ़ सुथरे सलीकेदार वस्त्र धारण करने से इनकी अलग ही पहचान हो जाती है,अंग्रेजी ज़माने से ही इनके पक्के ऊँचे आवास इनकी अलग पहचान कराते थे,इनके बारे में लिखा है कि 
"The Bais Rajput became so rich at a time it is recorded that each Bais Rajput held Lakhs (Hundreds of thousands) of rupees a piece which could buy them nearly anything. To hold this amount of money you would have to have been extremely rich.
This wealth caused the Bais Rajput to become the "best dressed and housed people"[22] in the areas they resided. This had an influence on the areas of Baiswara and beyond as recorded the whole area between Baiswara and Fyzabad was:
जमीदारी के अतिरिक्त बैस राजपूत राजनीती और व्यापार के क्षेत्र में भी कीर्तिमान बना रहे हैं,कई बड़े व्यापारी और राजनेता भारत और पाकिस्तान में बैस बंश से हैं जो विदेशो में भी व्यापार कर रहे हैं,राजनीती और व्यापार के अतिरिक्त खेलो कि दुनियां में मेजर ध्यानचंद जैसे महान हॉकी खिलाडी,उनके भाई कैप्टन रूप सिंह आदि बड़े खिलाडी बैस वंश में पैदा हुए हैं.कई प्रशासनिक अधिकारी,सैन्य अधिकारी बैस वंश का नाम रोशन कर रहे हैं.
वस्तुत: जिस सूर्यवंशी बैस वंश में शालिवाहन,हर्षवर्धन,त्रिलोकचंद,सुहेलदेव,अभयचंद,
राणा बेनीमाधवबख्श सिंह,मेजर ध्यानचंद आदि महान व्यक्तित्व हुए हैं उन्ही के वंशज 
भारत,पाकिस्तान,पाक अधिकृत कश्मीर,कनाडा,यूरोप में बसा हुआ बैस राजपूत वंश आज भी पूरे परिश्रम,योग्यता से अपनी सम्पन्नता और प्रभुत्व समाज में कायम किये हुए है और अपने पूर्वजो कि गौरवशाली परम्परा का पालन कर रहा है.

सन्दर्भ-------
1-हर्षचरित्र बाणभट्ट 
2-ठाकुर ईश्वर सिंह मढ़ाड कृत राजपूत वंशावली के प्रष्ठ संख्या 112-114
3-देवी सिंह मंडावा कृत राजपूत शाखाओं का इतिहास के पृष्ठ संख्या 67-74
4-महान इतिहासकार गौरिशंकर ओझा जी कृत राजपूताने का इतिहास के पृष्ठ संख्या154-162 
5-श्री रघुनाथ सिंह कालीपहाड़ी कृत क्षत्रिय राजवंश के प्रष्ठ संख्या 78,79 एवं 368,369
6-डा देवीलाल पालीवाल कि कर्नल जेम्स तोड़ कृत राजपूत जातियों का इतिहास प्रष्ठ संख्या 182
7-ठाकुर बहादुर सिंह बीदासर कृत क्षत्रिय वंशावली एवं जाति भास्कर 
8-http://kshatriyawiki.com/wiki/Bais
9-https://www.google.co.in/url?sa=t&rct=j&q=&esrc=s&source=web&cd=1&cad=rja&uact=8&ved=0CBwQFjAA&url=http%3A%2F%2Fhi.wikipedia.org%2Fwiki%2F%25E0%25A4%25B8%25E0%25A4%25BE%25E0%25A4%25A4%25E0%25A4%25B5%25E0%25A4%25BE%25E0%25A4%25B9%25E0%25A4%25A8&ei=GTGyVOW9IJG3uQSV9IGwBQ&usg=AFQjCNGPsESz0CXT6F0Fc7bjZS2UbIjXdQ
10-http://www.indianrajputs.com/dynasty/Bais
11-http://wakeuprajput.com/orgion_bais.php

नोट-इस पोस्ट के बाद बैस वंश से सम्बंधित चार पोस्ट अलग से की जाएंगी 
1-सम्राट हर्षवर्धन बैस और राजा अभयचंद बैस 
2-राजा सुहेलदेव बैस 
3-राणा बेनीमाधव सिंह 
4-मेजर ध्यानचन्द्र सिंह बैस 
यह आर्टिकल  Rajputana Soch राजपूताना सोच और क्षत्रिय इतिहास पेज कि बौद्धिक संपत्ति है,इस पोस्ट को अधिक से अधिक शेयर करें और कॉपी भी करें तो हमारे पेज का नाम/लिंक सन्दर्भ में जरुर दें.बैस राजपूतो के गोत्र,प्रवर,आदि------
वंश-बैंस सूर्यवंशी क्षत्रिय कुल है।हालाँकि कुछ विद्वान इन्हें नागवंशी भी बताते हैं.
गोत्र-भारद्वाज है
प्रवर-तीन है : भारद्वाज ; बार्हस्पत्य और अंगिरस
वेद-यजुर्वेद
कुलदेवी-कालिका माता
इष्ट देव-शिव जी
ध्वज-आसमानी और नाग चिन्ह
प्रसिद्ध बैस व्यक्तित्व----शालिवाहन,हर्षवर्धन,त्रिलोकचंद,सुहेलदेव,अभयचंद,
राणा बेनीमाधवबख्श सिंह,मेजर ध्यानचंद आदि
शाखाएँ--कोट बहार बैस,कठ बैस,डोडिया बैस,त्रिलोकचंदी(राव,राजा,नैथम,सैनवासी) बैस,प्रतिष्ठानपुरी बैस,रावत,कुम्भी,नरवरिया,भाले सुल्तान,चंदोसिया,आदि
प्राचीन एवं वर्तमान राज्य और ठिकाने--प्रतिष्ठानपुरी,स्यालकोट,स्थानेश्वर, मुंगीपट्टम्म,कन्नौज,बैसवाडा, कस्मांदा, बसन्तपुर, खजूरगाँव थालराई ,कुर्रिसुदौली, देवगांव,मुरारमउ, गौंडा, थानगाँव,कटधर आदि
परम्पराएँ---

 बैस राजपूत नागो को नहीं मारते हैं,नागपूजा का इनके लिए विशेष महत्व है,इनमे ज्येष्ठ भ्राता को टिकायत कहा जाता था,और सम्पत्ति का बड़ा हिस्सा आजादी से पहले तक उसे ही मिलता था.मुख्य गढ़ी में टिकायत परिवार ही रहता था और शेष भाई अलग किला/मकान बनाकर रहते थे,बैस राजपूतो में आपसी भाईचारा बहुत ज्यादा होता है.बिहार के सोनपुर का पशु मेला बैस राजपूतों ने ही प्रारम्भ किया था.
वर्तमान निवास--यूपी के अवध में स्थित बैसवाडा, मैनपुरी, एटा, बदायूं, कानपूर, इलाहबाद,बनारस,आजमगढ़,बलिया,बाँदा,हमीरपुर,प्रतापगढ़,सीतापुर,रायबरेली,उन्नाव,लखनऊ,हरदोई,फतेहपुर,गोरखपुर,बस्ती,मिर्जापुर,गाजीपुर,गोंडा,बहराइच,बाराबंकी,
बिहार,पंजाब,पाक अधिकृत कश्मीर,पाकिस्तान में बड़ी आबादी है और मध्य प्रदेश और राजस्थान के कुछ हिस्सों में भी थोड़ी आबादी है.
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बैस क्षत्रियों कि उत्पत्ति-----
बैस राजपूतों कि उतपत्ति के बारे में कई मत प्रचलित हैं
1-ठाकुर ईश्वर सिंह मढ़ाड कृत राजपूत वंशावली के प्रष्ठ संख्या 112-114 के अनुसार सूर्यवंशी राजा वासु जो बसाति जनपद के राजा थे,उनके वंशज बैस राजपूत कहलाते हैं ,बसाति जनपद महाभारत काल तक बना रहा है.
2-देवी सिंह मंडावा कृत राजपूत शाखाओं का इतिहास के पृष्ठ संख्या 67-74 के अनुसार वैशाली से निकास के कारण ही यह वंश वैस या बैस या वैश कहलाया,इनके अनुसार बैस सूर्यवंशी हैं,इनके किसी पूर्वज ने किसी नागवंशी राजा कि सहायता से उन्नति कि,इसीलिए बैस राजपूत नाग पूजा करते हैं और इनका चिन्ह भी नाग है,
3-महाकवि बाणभट ने सम्राट हर्षवर्धन जो कि बैस क्षत्रिय थे उनकी बहन राज्यश्री और कन्नौज के मौखरी(मखवान,झाला) वंशी महाराजा गृहवर्मा के विवाह को सूर्य और चन्द्र वंश का मिलन बताया है,मौखरी चंद्रवंशी थे अत: बैस सूर्यवंशी सिद्ध होते हैं.
4-महान इतिहासकार गौरिशंकर ओझा जी कृत राजपूताने का इतिहास के पृष्ठ संख्या 154-162 में भी बैस राजपूतों को सूर्यवंशी सिद्ध किया गया है,
5-श्री रघुनाथ सिंह कालीपहाड़ी कृत क्षत्रिय राजवंश के प्रष्ठ संख्या 78,79 एवं 368,369 के अनुसार भी बैस सूर्यवंशी क्षत्रिय हैं
6-डा देवीलाल पालीवाल कि कर्नल जेम्स तोड़ कृत राजपूत जातियों का इतिहास के प्रष्ठ संख्या 182 के अनुसार बैस सूर्यवंशी क्षत्रिय हैं.
7-ठाकुर बहादुर सिंह बीदासर कृत क्षत्रिय वंशावली एवं जाति भास्कर में बैस वंश को स्पष्ट सूर्यवंशी बताया गया है.
8-इनके झंडे में नाग का चिन्ह होने के कारण कई विद्वान इन्हें नागवंशी मानते हैं,लक्ष्मण को शेषनाग का अवतार भी माना जाता है.अत: कुछ विद्वान बैस राजपूतो को लक्ष्मण का वंशज और नागवंशी मानते हैं,कुछ विद्वानों के अनुसार भरत के पुत्र तक्ष से तक्षक नागवंश चला जिसने तक्षिला कि स्थापना की,बाद में तक्षक नाग के वंशज वैशाली आये और उन्ही से बैस राजपूत शाखा प्रारम्भ हुई.
9-कुछ विद्वानों के अनुसार बैस राजपूतों के आदि पुरुष शालिवाहन के पुत्र का नाम सुन्दरभान या वयस कुमार था जिससे यह वंश वैस या बैस कहलाया,जिन्होंने सहारनपुर कि स्थापना की.
10-कुछ विद्वानों के अनुसार गौतम राजा धीरपुंडीर ने 12 वी सदी के अंत में राजा अभयचन्द्र को 22 परगने दहेज़ में दिए इन बाईस परगनों के कारण यह वंश बाईसा या बैस कहलाने लगा.
11-कुछ विद्वान इन्हें गौतमी पुत्र शातकर्णी जिन्हें शालिवाहन भी कहा जाता है उनका वंशज मानते हैं,वहीं कुछ के अनुसार बैस शब्द का अर्थ है वो क्षत्रिय जिन्होंने बहुत सारी भूमि अपने अधिकार में ले ली हो.
बैस वंश कि उत्पत्ति के सभी मतों का विश्लेष्ण एवं निष्कर्ष--------
बैस राजपूत नाग कि पूजा करते हैं और इनके झंडे में नाग चिन्ह होने का यह अर्थ नहीं है कि बैस नागवंशी हैं,महाकवि बाणभट ने सम्राट हर्षवर्धन जो कि बैस क्षत्रिय थे उनकी बहन राज्यश्री और कन्नौज के मौखरी(मखवान,झाला) वंशी महाराजा गृहवर्मा के विवाह को सूर्य और चन्द्र वंश का मिलन बताया है,मौखरी चंद्रवंशी थे अत: बैस सूर्यवंशी सिद्ध होते हैं.
लक्ष्मण जी को शेषनाग का अवतार माना जाता है किन्तु लक्ष्मन जी नागवंशी नहीं रघुवंशी ही थे और उनकी संतान आज के प्रतिहार(परिहार) और मल्ल राजपूत है,
जिन विद्वानों ने 12 वी सदी में धीरपुंडीर को अर्गल का गौतमवंशी राजा लिख दिया और उनके द्वारा दहेज में अभयचन्द्र को 22 परगने दहेज़ में देने से बैस नामकरण होने का अनुमान किया है वो बिलकुल गलत है,क्योंकि धीरपुंडीर गौतम वंशी नहीं पुंडीर क्षत्रिय थे जो उस समय हरिद्वार के राजा थे,बाणभट और चीनी यात्री ह्वेंस्वांग ने सातवी सदी में सम्राट हर्ष को स्पष्ट रूप से बैस या वैश वंशी कहा है तो 12 वी सदी में बैस वंशनाम कि उतपत्ति का सवाल ही नहीं है,किन्तु यहाँ एक प्रश्न उठता है कि अगर बैस वंश कि मान्यताओं के अनुसार शालिवाहन के वंशज वयस कुमार या सुंदरभान सहारनपुर आये थे तो उनके वंशज कहाँ गए?
बैस वंश कि एक शाखा त्रिलोकचंदी है और सहारनपुर के वैश्य जैन समुदाय कि भी एक शाखा त्रिलोकचंदी है इन्ही जैनियो के एक व्यक्ति राजा साहरनवीर सिंह ने अकबर के समय सहारनपुर नगर बसाया था,आज के सहारनपुर,हरिद्वार का क्षेत्र उस समय हरिद्वार के पुंडीर शासको के नियन्त्रण में था तो हो सकता है शालिवाहन के जो वंशज इस क्षेत्र में आये होंगे उन्हें राजा धीर पुंडीर ने दहेज़ में सहारनपुर के कुछ परगने दिए हों और बाद में ये त्रिलोकचंदी बैस राजपूत ही जैन धर्म ग्रहण करके व्यापारी हो जाने के कारण वैश्य बन गए हों और इन्ही त्रिलोकचंदी जैनियों के वंशज राजा साहरनवीर ने अकबर के समय सहारनपुर नगर कि स्थापना कि हो,
और बाद में इन सभी मान्यताओं में घालमेल हो गया हो.अर्गल के गौतम राजा अलग थे उन्होंने वर्तमान बैसवारे का इलाका बैस वंशी राजा अभयचन्द्र को दहेज़ में दिया था,
गौतमी पुत्र शातकर्णी को कुछ विद्वान बैस वंशावली के शालिवाहन से जोड़ते हैं किन्तु नासिक शिलालेख में गौतमी पुत्र श्री शातकर्णी को एक ब्राह्मण (अद्वितिय ब्राह्मण) तथा खतिय-दप-मान-मदन अर्थात क्षत्रियों का मान मर्दन करने वाला आदि उपाधियों से सुशेभित किया है। इसी शिलालेख के लेखक ने गौतमीपुत्र की तुलना परशुराम से की है। साथ ही दात्रीशतपुतलिका में भी शालीवाहनों को मिश्रित ब्राह्मण जाति तथा नागजाति से उत्पन्न माना गया है।
अत:गौतमीपुत्र शातकर्णी अथवा शालिवाहन को बैस वंशी शालिवाहन से जोड़ना उचित प्रतीत नहीं होता क्योंकि बैसवंशी सूर्यवंशी क्षत्रिय हैं.
उपरोक्त सभी मतो का अधयन्न करने पर हमारा निष्कर्ष है कि बैस राजपूत सूर्यवंशी हैं,प्राचीन काल में सूर्यवंशी इछ्वाकू वंशी राजा विशाल ने वैशाली राज्य कि स्थापना कि थी,विशाल का एक पुत्र लिच्छवी था यहीं से सुर्यवंश कि लिच्छवी, शाक्य(गौतम), मोरिय(मौर्य), कुशवाहा(कछवाहा) ,बैस शाखाएँ अलग हुई,
जब मगध के राजा ने वैशाली पर अधिकार कर लिया और मगध में शूद्र नन्दवंश का शासन स्थापित हो गया और उसने क्षत्रियों पर जुल्म करने शुरू कर दिए तो वैशाली से सूर्यवंशी क्षत्रिय पंजाब,तक्षिला,महाराष्ट्र,स्थानेश्वर,दिल्ली,आदि में आ बसे,दिल्ली क्षेत्र पर भी कुछ समय बैस वंशियों ने शासन किया,बैंसों की एक शाखा पंजाब में आ बसी। इन्होंने पंजाब में एक नगर श्री कंठ पर अधिकार किया , जिसका नाम आगे चलकर थानेश्वर हुआ।
दिल्ली क्षेत्र थानेश्वर के नजदीक है अत:दिल्ली शाखा,थानेश्वर शाखा,सहारनपुर शाखा का आपस में जरुर सम्बन्ध होगा ,
बैसवंशी सम्राट हर्षवर्धन अपनी राजधानी थानेश्वर से हटाकर कन्नौज ले गए,हर्षवर्धन ने अपने राज्य का विस्तार बंगाल,असम,पंजाब,राजपूताने,मालवा,नेपाल तक किया और स्वयं राजपुत्र शिलादित्य कि उपाधि धारण की.
हर्षवर्द्धन के पश्चात् इस वंश का शासन समाप्त हो गया और इनके वंशज कन्नौज से आगे बढकर अवध क्षेत्र में फ़ैल गए,इन्ही में आगे चलकर त्रिलोकचंद नाम के प्रसिद्ध व्यक्ति हुए इनसे बैस वंश कि कई शाखाएँ चली,इनके बड़े पुत्र बिडारदेव के वंशज भालेसुल्तान वंश के बैस हुए जिन्होंने सुल्तानपुर कि स्थापना की.इन्ही बिडारदेव के वंशज राजा सुहेलदेव हुए जिन्होंने महमूद गजनवी के भतीजे सैय्यद सलार मसूद गाजी को बहराइच के युद्ध में उसकी सेना सहित मौत के घाट उतार दिया था और खुद भी शहीद हो गए थे.
चंदावर के युद्ध में हर्षवर्धन के वंशज केशवदेव भी जयचंद के साथ युद्ध लड़ते हुए शहीद हो गए बाद में उनके वंशज अभयचंद ने अर्गल के गौतम राजा कि पत्नी को तुर्कों से बचाया जिसके कारण गौतम राजा ने अभयचंद से अपनी पुत्री का विवाह कर उसे 1440 गाँव दहेज़ में दे दिए जिसमें विद्रोही भर जाति का दमन कर अभयचंद ने बैस राज्य कि नीव रखी जिसे आज बैसवाडा या बैसवारा कहा जाता है,इस प्रकार सूर्यवंशी बैस राजपूत आर्याव्रत के एक बड़े भू भाग में फ़ैल गए.
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बैसवंशी राजपूतों का सम्राट हर्षवर्धन से पूर्व का इतिहास----
बैस राजपूत मानते हैं कि उनका राज्य पहले मुर्गीपाटन पर था और जब इस पर शत्रु ने अधिकार कर लिया तो ये प्रतिष्ठानपुर आ गए,वहां इस वंश में राजा शालिवाहन हुए,जिन्होंने विक्रमादित्य
को हराया और शक सम्वत इन्होने ही चलाया,कुछ ने गौतमी पुत्र शातकर्णी को शालिवाहन मानकर उन्हें बैस वंशावली का शालिवाहन बताया है,और पैठण को प्रतिष्ठानपुर बताया और कुछ ने स्यालकोट को प्रतिष्ठानपुर बताया है,
किन्तु यह मत सही प्रतीत नहीं होते ,कई वंशो बाद के इतिहास में यह गलतियाँ कि गई कि उसी नाम के किसी प्रसिद्ध व्यक्ति को यह सम्मान देने लग गए,शालिवाहन नाम के इतिहास में कई अलग अलग वंशो में प्रसिद्ध व्यक्ति हुए हैं.भाटी वंश में भी शालिवाहन हुए हैं और सातवाहन वंशी गौतमीपुत्र शातकर्णी को भी शालिवाहन कहा जाता था,
विक्रमादित्य के विक्रम सम्वत और शालिवाहन के शक सम्वत में पूरे 135 वर्ष का फासला है अत:ये दोनों समकालीन नहीं हो सकते.दक्षिण के गौतमीपुत्र शातकर्णी को नासिक शिलालेख में स्पष्ट:ब्राह्मण लिखा है अत:इसका सूर्यवंशी बैस वंश से सम्बन्ध होना संभव नहीं है.
वस्तुत: बैस इतिहास का प्रतिष्ठानपुर न तो दक्षिण का पैठण है और न ही पंजाब का स्यालकोट है यह प्रतिष्ठानपुर इलाहबाद(प्रयाग) के निकट और झूंसी के पास था.
किन्तु इतना अवश्य है कि बैस वंश में शालिवाहन नाम के एक प्रसिद्ध राजा अवश्य हुए जिन्होंने प्रतिष्ठानपूरी में एक बड़ा बैस राज्य स्थापित किया,शालिवाहन कई राज्यों को जीतकर उनकी कन्याओं को अपने महल में ले आये,जिससे उनकी पहली तीन क्षत्राणी रानियाँ खिन्न होकर अपने पिता के घर चली गयी,इन तीन रानियों के वंशज बाद में भी बैस कहलाते रहे और बाद कि रानियों के वंशज कठबैस कहलाये,
ये प्रतिष्ठानपुर(प्रयाग)के शासक थे,
इन्ही शालिवाहन के वंशज त्रिलोकचंद बैस ने दिल्ली(उस समय कुछ और नाम होगा) पर अधिकार कर लिय.स्वामी दयानंद सरस्वती के अनुसार दिल्ली पर
सन 404 ईस्वी में राजा मुलखचंद उर्फ़ त्रिलोकचंद प्रथम ने विक्रमपाल को हराकर शासन स्थापित किया इसके बाद, विक्र्मचन्द, कर्तिकचंद, रामचंद्र, अधरचन्द्र, कल्याणचन्द्र, भीमचंद्र, बोधचन्द्र, गोविन्दचन्द्र और प्रेमो देवी ने दो सो से अधिक वर्ष तक शासन किया,वस्तुत ये दिल्ली के बैस शासक स्वतंत्र न होकर गुप्त वंश और बाद में हर्षवर्धन बैस के सामंत के रूप में यहाँ पर होंगे,इसके बाद यह वंश दिल्ली से समाप्त हो गया,और सातवी सदी के बाद में पांडववंशी अर्जुनायन तंवर क्षत्रियों(अनंगपाल प्रथम) ने प्राचीन इन्द्रप्रस्थ के स्थान पर दिल्ली कि स्थापना की.
वस्तुत:बैसवारा ही बैस राज्य था.(देवी सिंह मंडावा कृत राजपूत शाखाओं का इतिहास पृष्ठ संख्या 70,एवं ईश्वर सिंह मढ़ाड कृत राजपूत वंशावली पृष्ठ संख्या 113,114)
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बैस वंश कि शाखाएँ-----
कोट बाहर बैस---शालिवाहन कि जो रानियाँ अपने पीहर चली गयी उनकी संतान कोट बाहर बैस कहलाती है.
कठ बैस---शालिवाहन कि जो जीती हुई रानियाँ बाद में महल में आई उनकी संतान कोट बैस या कठ बैस कहलाती हैं,
डोडिया बैस---डोडिया खेडा में रहने के कारण राज्य हल्दौर जिला बिजनौर
त्रिलोकचंदी बैस---त्रिलोकचंद के वंशज इनकी चार उपशाखाएँ हैं राव,राजा,नैथम,सैनवासी
प्रतिष्ठानपूरी बैस---प्रतिष्ठानपुर में रहने के कारण
चंदोसिया---ठाकुर उदय बुधसिंह बैस्वाड़े से सुल्तानपुर के चंदोर में बसे थे उनकी संतान चंदोसिया बैस कहलाती है.
रावत--फतेहपुर,उन्नाव में
भाले सुल्तान--ये भाले से लड़ने में माहिर थे मसूद गाजी को मारने वाले सुहेलदेव बैस संभवत:इसी वंश के थे,रायबरेली,लखनऊ,उन्नाव में मिलते हैं.
कुम्भी एवं नरवरिया--बैसवारा में मिलते हैं
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बैसवंशी राजपूतो कि वर्तमान स्थिति-------
बैस राजपूत वंश वर्तमान में भी बहुत ससक्त वंश मन जाता है,ब्रिटिश गजेटियर में भी इस वंश कि सम्पन्नता और कुलीनता के बारे में विस्तार से लिखा गया है,अवध,पूर्वी उत्तरप्रदेश के बैसवारा में बहुत से बड़े जमीदार बैस वंश से थे,बैस वंशी राणा बेनीमाधवबख्श सिंह और दुसरे बैस जमीदारों ने सन 1857 इसवी में अवध क्षेत्र में अंग्रेजो से जमकर लोहा लिया था,बैस राजपूतों द्वारा अंग्रेजो का जोरदार विरोध करने के बावजूद अंग्रेजो कि हिम्मत इनकी जमिदारियां खत्म करने कि नहीं हुई,बैस राजपूत अपने इलाको के सरताज माने जाते हैं और सबसे साफ़ सुथरे सलीकेदार वस्त्र धारण करने से इनकी अलग ही पहचान हो जाती है,अंग्रेजी ज़माने से ही इनके पक्के ऊँचे आवास इनकी अलग पहचान कराते थे,इनके बारे में लिखा है कि
"The Bais Rajput became so rich at a time it is recorded that each Bais Rajput held Lakhs (Hundreds of thousands) of rupees a piece which could buy them nearly anything. To hold this amount of money you would have to have been extremely rich.
This wealth caused the Bais Rajput to become the "best dressed and housed people"[22] in the areas they resided. This had an influence on the areas of Baiswara and beyond as recorded the whole area between Baiswara and Fyzabad was:
जमीदारी के अतिरिक्त बैस राजपूत राजनीती और व्यापार के क्षेत्र में भी कीर्तिमान बना रहे हैं,कई बड़े व्यापारी और राजनेता भारत और पाकिस्तान में बैस बंश से हैं जो विदेशो में भी व्यापार कर रहे हैं,राजनीती और व्यापार के अतिरिक्त खेलो कि दुनियां में मेजर ध्यानचंद जैसे महान हॉकी खिलाडी,उनके भाई कैप्टन रूप सिंह आदि बड़े खिलाडी बैस वंश में पैदा हुए हैं.कई प्रशासनिक अधिकारी,सैन्य अधिकारी बैस वंश का नाम रोशन कर रहे हैं.
वस्तुत: जिस सूर्यवंशी बैस वंश में शालिवाहन,हर्षवर्धन,त्रिलोकचंद,सुहेलदेव,अभयचंद,
राणा बेनीमाधवबख्श सिंह,मेजर ध्यानचंद आदि महान व्यक्तित्व हुए हैं उन्ही के वंशज
भारत,पाकिस्तान,पाक अधिकृत कश्मीर,कनाडा,यूरोप में बसा हुआ बैस राजपूत वंश आज भी पूरे परिश्रम,योग्यता से अपनी सम्पन्नता और प्रभुत्व समाज में कायम किये हुए है और अपने पूर्वजो कि गौरवशाली परम्परा का पालन कर रहा है.
सन्दर्भ-------
1-हर्षचरित्र बाणभट्ट
2-ठाकुर ईश्वर सिंह मढ़ाड कृत राजपूत वंशावली के प्रष्ठ संख्या 112-114
3-देवी सिंह मंडावा कृत राजपूत शाखाओं का इतिहास के पृष्ठ संख्या 67-74
4-महान इतिहासकार गौरिशंकर ओझा जी कृत राजपूताने का इतिहास के पृष्ठ संख्या154-162
5-श्री रघुनाथ सिंह कालीपहाड़ी कृत क्षत्रिय राजवंश के प्रष्ठ संख्या 78,79 एवं 368,369
6-डा देवीलाल पालीवाल कि कर्नल जेम्स तोड़ कृत राजपूत जातियों का इतिहास प्रष्ठ संख्या 182
7-ठाकुर बहादुर सिंह बीदासर कृत क्षत्रिय वंशावली एवं जाति भास्कर
8-http://kshatriyawiki.com/wiki/Bais
9-https://www.google.co.in/url…
10-http://www.indianrajputs.com/dynasty/Bais
11-http://wakeuprajput.com/orgion_bais.php
-RAJPUTANA SOCH

लोहड़ी का पर्व +मुस्लिम राजपूत योद्धा दुल्ला भट्टी

सभी देशवासियों को लोहड़ी पर्व कि हार्दिक बधाई ।

लोहड़ी का पर्व एक मुस्लिम राजपूत योद्धा दुल्ला भट्टी कि याद में पुरे पंजाब और उत्तर भारत में मनाया जाता है ,
लोहड़ी की शुरुआत के बारे में मान्यता है कि यह राजपूत शासक दुल्ला भट्टी द्वारा गरीब कन्याओं सुन्दरी और मुंदरी की शादी करवाने के कारण शुरू हुआ है. दरअसल दुल्ला भट्टी पंजाबी आन का प्रतीक है. पंजाब विदेशी आक्रमणों का सामना करने वाला पहला प्रान्त था ।ऐसे में विदेशी आक्रमणकारियों से यहाँ के लोगों का टकराव चलता था .

दुल्ला भट्टी का परिवार मुगलों का विरोधी था.वे मुगलों को लगान नहीं देते थे. मुगल बादशाह हुमायूं ने दुल्ला के दादा सांदल भट्टी और पिता फरीद खान भट्टी का वध करवा दिया.
दुल्ला इसका बदला लेने के लिए मुगलों से संघर्ष करता रहा. मुगलों की नजर में वह डाकू था लेकिन वह गरीबों का हितेषी था. मुगल सरदार आम जनता पर अत्याचार करते थे और
दुल्ला आम जनता को अत्याचार से बचाता था.

दुल्ला भट्टी मुग़ल शासक अकबर के समय में पंजाब में रहता था। उस समय पंजाब में स्थान स्थान पर हिन्दू लड़कियों को यौन गुलामी के लिए बल पूर्वक मुस्लिम अमीर लोगों को बेचा जाता था।

दुल्ला भट्टी ने एक योजना के तहत लड़कियों को न सिर्फ मुक्त करवाया बल्कि उनकी शादी भी हिन्दू लडको से करवाई और उनकी शादी कि सभी व्यवस्था भी करवाई।

सुंदर दास नामक गरीब
किसान भी मुगल सरदारों के अत्याचार से
त्रस्त था. उसकी दो पुत्रियाँ थी सुन्दरी और
मुंदरी. गाँव का नम्बरदार इन लडकियों पर
आँख रखे हुए था और सुंदर दास को मजबूर कर
रहा था कि वह इनकी शादी उसके साथ कर दे.
सुंदर दास ने अपनी समस्या दुल्ला भट्टी को बताई.
दुल्ला भट्टी ने इन लडकियों को अपनी पुत्री मानते हुए नम्बरदार
को गाँव में जाकर ललकारा. उसके खेत जला दिए और लडकियों की शादी वहीं कर दी।जहाँ सुंदर दास चाहता था. इसी के प्रतीक रुप में रात को आग जलाकर लोहड़ी मनाई
जाती है.!!
दुल्ले ने खुद ही उन दोनों का कन्यादान किया। कहते हैं दुल्ले ने शगुन के रूप में उनको शक्कर दी थी। इसी कथा की हमायत
करता लोहड़ी का यह गीत है, जिसे लोहड़ी के दिन
गाया जाता है :
सुंदर, मुंदरिये हो,
तेरा कौन विचारा हो,
दुल्ला भट्टी वाला हो,
दुल्ले धी (लडकी)व्याही हो,
सेर शक्कर पाई हो।

दुल्ला भट्टी मुगलों कि धार्मिक नीतियों का घोर विरोधी था। वह सच्चे अर्थों में धर्मनिरपेक्ष था.उसके पूर्वज संदल बार रावलपिंडी के शासक थे जो अब पकिस्तान में स्थित हैं। वह सभी पंजाबियों का नायक था।
आज भी पंजाब(पाकिस्तान)में बड़ी आबादी भाटी राजपूतों की है जो वहां के सबसे बड़े जमीदार हैं।
जय राजपुताना।लोहड़ी का पर्व एक मुस्लिम राजपूत योद्धा दुल्ला भट्टी कि याद में पुरे पंजाब और उत्तर भारत में मनाया जाता है ,
लोहड़ी की शुरुआत के बारे में मान्यता है कि यह राजपूत शासक दुल्ला भट्टी द्वारा गरीब कन्याओं सुन्दरी और मुंदरी की शादी करवाने के कारण शुरू हुआ है. दरअसल दुल्ला भट्टी पंजाबी आन का प्रतीक है. पंजाब विदेशी आक्रमणों का सामना करने वाला पहला प्रान्त था ।ऐसे में विदेशी आक्रमणकारियों से यहाँ के लोगों का टकराव चलता था ....
दुल्ला भट्टी का परिवार मुगलों का विरोधी था.वे मुगलों को लगान नहीं देते थे. मुगल बादशाह हुमायूं ने दुल्ला के दादा सांदल भट्टी और पिता फरीद खान भट्टी का वध करवा दिया.
दुल्ला इसका बदला लेने के लिए मुगलों से संघर्ष करता रहा. मुगलों की नजर में वह डाकू था लेकिन वह गरीबों का हितेषी था. मुगल सरदार आम जनता पर अत्याचार करते थे और
दुल्ला आम जनता को अत्याचार से बचाता था.
दुल्ला भट्टी मुग़ल शासक अकबर के समय में पंजाब में रहता था। उस समय पंजाब में स्थान स्थान पर हिन्दू लड़कियों को यौन गुलामी के लिए बल पूर्वक मुस्लिम अमीर लोगों को बेचा जाता था।
दुल्ला भट्टी ने एक योजना के तहत लड़कियों को न सिर्फ मुक्त करवाया बल्कि उनकी शादी भी हिन्दू लडको से करवाई और उनकी शादी कि सभी व्यवस्था भी करवाई।
सुंदर दास नामक गरीब
किसान भी मुगल सरदारों के अत्याचार से  त्रस्त था. उसकी दो पुत्रियाँ थी सुन्दरी और  मुंदरी. गाँव का नम्बरदार इन लडकियों पर  आँख रखे हुए था और सुंदर दास को मजबूर कर  रहा था कि वह इनकी शादी उसके साथ कर दे.
सुंदर दास ने अपनी समस्या दुल्ला भट्टी को बताई.  दुल्ला भट्टी ने इन लडकियों को अपनी पुत्री मानते हुए नम्बरदार  को गाँव में जाकर ललकारा. उसके खेत जला दिए और लडकियों की शादी वहीं कर दी।जहाँ सुंदर दास चाहता था. इसी के प्रतीक रुप में रात को आग जलाकर लोहड़ी मनाई  जाती है.!!

 दुल्ले ने खुद ही उन दोनों का कन्यादान किया। कहते हैं दुल्ले ने शगुन के रूप में उनको शक्कर दी थी। इसी कथा की हमायत  करता लोहड़ी का यह गीत है, जिसे लोहड़ी के दिन  गाया जाता है :
सुंदर, मुंदरिये हो,
तेरा कौन विचारा हो,
दुल्ला भट्टी वाला हो,
दुल्ले धी (लडकी)व्याही हो,
सेर शक्कर पाई हो।
दुल्ला भट्टी मुगलों कि धार्मिक नीतियों का घोर विरोधी था। वह सच्चे अर्थों में धर्मनिरपेक्ष था.उसके पूर्वज संदल बार रावलपिंडी के शासक थे जो अब पकिस्तान में स्थित हैं। वह सभी पंजाबियों का नायक था।
आज भी पंजाब(पाकिस्तान)में बड़ी आबादी भाटी राजपूतों की है जो वहां के सबसे बड़े जमीदार हैं।

Tuesday, January 13, 2015

ISLAM MEANS TERRORISM-CHILD LEARNS EXECUTION -WHERE IS MOHAMMED CARTOON HERE?

A new ISIS propaganda video purports to show a Kazakh child soldier executing two men identified as Russian "spies."Islam is not only doing heinous crime against non Muslims and also sometimes Muslims but a video by ISIL arm in twitter account publishes a child killing two Russian Spy as they said.
Detail is here- click buzzfeed
Although Islam means terrorism started from Mohammed but Europe and USA do not take it that way until fire comes to Arabia and Kuwait. Turkey is a sympathizer to ISIL as President states that ISIL are not terrorist , ans short of goalless young people. And Turkey and Saudi wants to establish a Soloman Empire as you should all know and ISIL is basically raised by SAUDI AND TURKEY and gets GUN,ARMS from USA via those two countries and Qatar. Click here for detail.
Click here to see whay Islam is=terrorism as started by Mohammed

#CHARLIEHEBDO OF INDIA. PARIS LIKE TERRORISM HAPPENNING IN INDIA SINCE 700 YEARS

Read this book that was regarding satanic prophet that was written in  ""Download RangeelaRasul" in Hindi  back 200 years ago by an Indian Writer, and ultimately his publisher was murdered by ISLAMIC knife.
अंग्रेजी राज के काल में मुसलमानों ने अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का फायदा उठाते हुए सबसे पहले 1845 ई में हिन्दू धर्म की आलोचना करते हुए रद्दे हनूद (हिन्दू मत का खंडन) नामक किताब लिखी जिसका प्रतिउत्तर चौबे बद्रीदास ने रद्दे मुसलमान (मुस्लिम मत का खंडन) नामक पुस्तक लिख कर दिया। इसके बाद अब्दुल्लाह नामक व्यक्ति ने 1856 ई में हिन्दू देवी देवी-देवताओं की कठोर आलोचना और निंदा करते हुए तोहफतुल-हिन्द (भारत की सौगात) के नाम से उर्दू में प्रकाशित की। पंडित लेखराम जी के अनुसार इस पुस्तक से अनेक अज्ञानी हिन्दू मुसलमान बने। ऐसी विकट स्थिति में मुरादाबाद निवासी मुंशी इन्द्रमणि हिन्दू धर्म की रक्षा के लिए तोहफतुल-इस्लाम (इस्लाम का उपहार) के नाम से फारसी में दिया। सैय्यद महमूद हुसैन ने इसके खंडन में खिलअत-अल-हनूद नामक पुस्तक छापी। उसके प्रतिउत्तर में मुंशी जी ने पादाशे इस्लाम नामक पुस्तक 1866 में छापी।इसके तीन वर्ष पश्चात मुंशी जी ने एक मुसलमान द्वारा लिखी पुस्तक असूले दीने हिन्दू (हिन्दू धर्म के सिद्धांत) नामक पुस्तक का उत्तर देने के लिए असूले दीने अहमद (इस्लाम के सिद्धांत) के नाम से लिखी।






इस पर मुसलमानों ने अत्यंत अश्लील पुस्तक 'तेगे फकीर बर गर्दने शरीर' (दुष्ट व्यक्तियों की गर्दन पर फकीर की तलवार) और हदिया उल असलाम नामक पुस्तक छापी। इसके जवाब में मुंशी जी ने हमलये हिन्द(1863), समसामे हिन्द और सौलते हिन्द (1868) नामक तीन पुस्तकें मेरठ से छपवायीं।






इसके स्वरुप मुसलमानों में तीव्र प्रतिक्रिया हुई और एक मुस्लिम पत्र जामे जमशीद ने 16 मई 1881 के अंक में मुंशी जी के विरुद्ध मुसलमानों को उतेजित किया जिसके कारण सरकार ने मुंशी जी के खिलाफ़ वारंट निकाल दिया एवं कचहरी में मुकदमा चलाया गया। यद्यपि मुंशी जी द्वारा वकीलों द्वारा पूछे गए सभी प्रश्नों का सप्रमाण उत्तर दिया गया मगर फिर भी निचली अदालत ने 500 रुपये जुर्माना किया एवं उनकी पुस्तकों को फड़वा दिया। मुंशी जी ने उपरतली अदालत में अपील की। तत्कालीन आर्य समाचार मेरठ, आर्यदर्पण शाहजहाँपुर आदि में लेख लिखे। भारत सरकार, गवर्नर जनरल शिमला आदि को आवेदनपत्र भेजे। गवर्नर ने मुक़दमे की कार्यवाही शिमला मंगवाई मगर मामला विचाराधीन है कहकर जुर्माने की रकम को घटाकर 100 रुपये कर दिया गया और मुसलमानों द्वारा हिन्दुओं के विरुद्ध लिखी गई पुस्तकों को नजरअंदाज कर दिया गया। मामला हाई कोर्ट में गया मगर जुर्माना बहाल रखा गया। अंत में तीव्र आंदोलन होने पर मुंशी जी का जुर्माना भी क्षमा कर दिया गया। स्वामी दयानंद ने आर्यसमाज के पत्रों के माध्यम से मुंशी जी की धन से सहायता करने की अपील भी निकाली थी। मुंशी जी ने मेला चाँदपुर शास्त्रार्थ में स्वामी जी के साथ आर्यसमाज के पक्ष को प्रस्तुत किया था और आर्यसमाज मुरादाबाद के प्रधान पद पर भी रहे थे। स्वामी दयानंद पर इस मुक़दमे के कारण अंग्रेज सरकार की न्यायप्रियता एवं पक्षपात रहित सोच पर अनेक संशय उत्पन्न हो गए। सही पक्ष होते हुए भी मुंशी जी को तंग किया गया, उनकी पुस्तकें नष्ट की गई एवं मुसलमानों की पुस्तकों पर कोई कार्यवाही नहीं की गई। स्वामी जी शांत बैठने वालो में से नहीं थे। अपने लंदन में पढ़ रहे अपने शिष्य पंडित श्याम जी कृष्ण जी को लंदन की पार्लियामेंट में इस मामले को उठाने की सलाह अपने पत्र व्यवहार में दी जिससे की अंग्रेज सरकार द्वारा भारत में सामान्य जनता के विरुद्ध कैसा व्यवहार होता है इससे लंदन निवासी परिचित हो सके। अंग्रेजों द्वारा पक्षपात करने के कारण स्वामी दयानंद का चिंतन निश्चित रूप से स्वदेशी राजा एवं स्वतंत्रता की ओर पहले से अधिक प्रेरित होना कोई अतिश्योक्ति नहीं है।


अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के पक्षधर स्वामी दयानंद ने सत्यार्थ प्रकाश की रचना कर चिर काल से सो रही मानव जाति को जगाया। सत्यार्थ प्रकाश आरम्भ के दस समुल्लासों की बजाय अंत के चार समुल्लासों के कारण अधिक चर्चा में रहा है। सत्यार्थ प्रकाश के विपक्ष में इतना अधिक साहित्य लिखा गया कि एक वृहद पुस्तकालय ही बन जाये। इसका मूल कारण स्वामी जी के उद्देश्य को ठीक प्रकार से समझना नहीं था। स्वामी जी का उद्देश्य किसी की भावना को आहत करना नहीं अपितु सत्य का मंडन एवं असत्य का खंडन था और मनुष्य के जीवन का उद्देश्य भी यही है। स्वामी जी का कहना था कि मत-मतान्तर के आपसी मतभेद के चलते धर्म का ह्रास हुआ है एवं मानव जाति की व्यापक हानि हुई है और जब तक यह मतभेद नहीं छूटेगा तब तक आनंद नहीं होगा। पंडित गंगाप्रसाद उपाध्याय जी के अनुसार सत्यार्थ प्रकाश के माध्यम से स्वामी दयानंद ने रूढ़िवादी एवं असत्य मान्यताओं पर जो कुठाराघात किया वह सैद्धांतिक, पक्षपात रहित एवं तर्कसंगत था जबकि उससे पहले लिखी गई पुस्तकों में प्राय: भद्दी गलियां एवं अश्लील भाषा की भरमार अधिक होती थी। स्वामी जी सामाजिक चेतना के पक्षधर थे।

स्वामी दयानंद के पश्चात पंडित लेखराम द्वारा अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अंतर्गत आर्यमर्यादा का पालन करते हुए वैदिक धर्म के विरुद्ध प्रकाशित हो रही पुस्तकों का प्रतिउत्तर दिया। पंडित जी द्वारा रचित रिसाला जिहाद के विरुद्ध मुसलमानों ने 1892 में कोर्ट में केस किया था जिसकी पैरवी लाला लाजपत राय जी द्वारा बखूबी की गई थी। अनंतत जीत आर्यसमाज की हुई थी। अहमदिया जमात के मिर्जा गुलाम अहमद ने बरहीन अहमदिया नामक पुस्तक चंदा मांग कर छपवाई. पंडित जी ने उसका उत्तर तकजीब ए बरहीन अहमदिया लिखकर दिया। मिर्जा ने सुरमाये चश्मे आर्या (आर्यों की आंख का सुरमा) लिखा जिसका पंडित जी ने उत्तर नुस्खाये खब्ते अहमदिया (अहमदी खब्त का ईलाज) लिख कर दिया। अंत में धोखे से पंडित जी को पेट में छुरा मारकर क़त्ल कर दिया गया। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के लिए पंडित लेखराम जी का अमर बलिदान हुआ।

सन १९२३ में मुसलमानों की ओर से दो पुस्तकें "१९ वीं सदी का महर्षि" और “कृष्ण,तेरी गीता जलानी पड़ेगी ” प्रकाशित हुई थी। पहली पुस्तक में आर्यसमाज के संस्थापक स्वामी दयानंद का सत्यार्थ प्रकाश के १४ सम्मुलास में कुरान की समीक्षा से खीज कर उनके विरुद्ध आपतिजनक एवं घिनोना चित्रण प्रकाशित किया था जबकि दूसरी पुस्तक में श्री कृष्ण जी महाराज के पवित्र चरित्र पर कीचड़ उछाला गया था। उस दौर में विधर्मियों की ऐसी शरारतें चलती ही रहती थी पर धर्म प्रेमी सज्जन उनका प्रतिकार उन्ही के तरीके से करते थे। महाशय राजपाल ने स्वामी दयानंद और श्री कृष्ण जी महाराज के अपमान का प्रति उत्तर १९२४ में "रंगीला रसूल" के नाम से पुस्तक छाप कर दिया, जिसमे मुहम्मद साहिब की जीवनी व्यंग्यात्मक शैली में प्रस्तुत की गयी थी। यह पुस्तक उर्दू में थी और इसमें सभी घटनाएँ इतिहास सम्मत और प्रमाणिक थी। पुस्तक में लेखक के नाम के स्थान पर “दूध का दूध और पानी का पानी "छपा था। वास्तव में इस पुस्तक के लेखक पंडित चमूपति जी थे जो की आर्यसमाज के श्रेष्ठ विद्वान् थे। वे महाशय राजपाल के अभिन्न मित्र थे। मुसलमानों के ओर से संभावित प्रतिक्रिया के कारण चमूपति जी इस पुस्तक में अपना नाम नहीं देना चाहते थे। इसलिए उन्होंने महाशय राजपाल से वचन ले लिया की चाहे कुछ भी हो जाये,कितनी भी विकट स्थिति क्यूँ न आ जाये वे किसी को भी पुस्तक के लेखक का नाम नहीं बतायेगे। महाशय राजपाल ने अपने वचन की रक्षा अपने प्राणों की बलि देकर की पर पंडित चमूपति सरीखे विद्वान् पर आंच तक न आने दी। १९२४ में छपी रंगीला रसूल बिकती रही पर किसी ने उसके विरुद्ध शोर न मचाया फिर महात्मा गाँधी ने अपनी मुस्लिमपरस्त निति में इस पुस्तक के विरुद्ध एक लेख लिखा। इस पर कट्टरवादी मुसलमानों ने महाशय राजपाल के विरुद्ध आन्दोलन छेड़ दिया। सरकार ने उनके विरुद्ध १५३ए धारा के अधीन अभियोग चला दिया। अभियोग चार वर्ष तक चला। राजपाल जी को छोटे न्यायालय ने डेढ़ वर्ष का कारावास तथा १००० रूपये का दंड सुनाया गया। इस फैसले के विरुद्ध अपील करने पर सजा एक वर्ष तक कम कर दी गई। इसके बाद मामला हाई कोर्ट में गया। कँवर दिलीप सिंह की अदालत ने महाशय राजपाल को दोषमुक्त करार दे दिया। मुसलमान इस निर्णय से भड़क उठे। खुदाबख्स नामक एक पहलवान मुसलमान ने महाशय जी पर हमला कर दिया जब वे अपनी दुकान पर बैठे थे पर संयोग से आर्य सन्यासी स्वतंत्रानंद जी महाराज एवं स्वामी वेदानन्द जी महाराज वह उपस्थित थे। उन्होंने घातक को ऐसा कसकर दबोचा की वह छुट न सका। उसे पकड़ कर पुलिस के हवाले कर दिया गया, उसे सात साल की सजा हुई। रविवार ८ अक्टूबर १९२७ को स्वामी सत्यानन्द जी महाराज को महाशय राजपाल समझ कर अब्दुल अज़ीज़ नमक एक मतान्ध मुसलमान ने एक हाथ में चाकू ,एक हाथ में उस्तरा लेकर हमला कर दिया। स्वामी जी घायल कर वह भागना ही चाह रहा था की पड़ोस के दूकानदार महाशय नानकचंद जी कपूर ने उसे पकड़ने का प्रयास किया। इस प्रयास में वे भी घायल हो गए तो उनके छोटे भाई लाला चूनीलाल जी जी उसकी ओर लपके। उन्हें भी घायल करते हुए हत्यारा भाग निकला पर उसे चौक अनारकली, लाहौर पर पकड़ लिया गया। उसे चोदह वर्ष की सजा हुई ओर तदन्तर तीन वर्ष के लिए शांति की गारंटी का दंड सुनाया गया। स्वामी सत्यानन्द जी के घाव ठीक होने में करीब डेढ़ महीना लगा। ६ अप्रैल १९२९ को महाशय राजपाल अपनी दुकान पर आराम कर रहे थे। तभी इल्मदीन नामक एक मतान्ध मुसलमान ने महाशय जी की छाती में छुरा घोप दिया जिससे महाशय जी का तत्काल प्राणांत हो गया। हत्यारा अपने जान बचाने के लिए भागा ओर महाशय सीताराम जी के लकड़ी के टाल में घुस गया। महाशय जी के सुपुत्र विद्यारतन जी ने उसे कस कर पकड़ लिया। पुलिस हत्यारे को पकड़ कर ले गई और बाद में मुसलमानों द्वारा पूरा जोर लगाने पर भी इल्मदीन को फाँसी की सजा हुई। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता में यह निराला बलिदान था।

लाहौर में आर्यसमाज के पुस्तक विक्रेता वीर परमानन्द जी को जेठ की दोपहरी में उस समय मार दिया गया जब वह उर्दू सत्यार्थ प्रकाश की प्रतियोँ को लेने अपनी दुकान पर गए थे। मुसलमानों के लिए सत्यार्थ प्रकाश के १४ वे समुल्लास में कुरान की समीक्षा के उद्देश्य को मजहबी आक्रोश में हिंसा का रास्ता अपनाना दुर्भाग्यपूर्ण फैसला था।
अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की रक्षा की पंक्ति में वीर नाथूराम जी का बलिदान स्मरणीय है। वीर नाथूराम का जन्म 1 अप्रैल 1904 को हैदराबाद सिंध प्रान्त में हुआ था। पंजाब में उठे आर्य समाज के क्रांतिकारी आन्दोलन से आप प्रभावित होकर 1927 में आप आर्यसमाज में सदस्य बनकर कार्य करने लगे। उन दिनों इस्लाम और ईसाइयत को मानने वाले हिन्दुओं को अधिक से अधिक धर्म परिवर्तन कर अपने मत में सम्मिलित करने की फिराक में रहते थे। 1931 मेंअहमदिया (मिर्जाई) मत की अंजूमन ने सिंध में कुछ विज्ञापन निकल कर हिन्दू धर्म और हिन्दू वीरों पर गलत आक्षेप करने शुरू कर दिए। जिसे पढ़कर आर्यवीर नाथूराम से रहा न गया और उन्होंने ईसाईयों द्वारा लिखी गयी पुस्तक ‘तारीखे इस्लाम’ का उर्दू से सिन्धी में अनुवाद कर उसे प्रकाशित किया और एक ट्रैक लिखा जिसमे मुसलमान मौलवियों से इस्लाम के विषय में शंका पूछी गई थी। ये दोनों साहित्य नाथूराम जी ने निशुल्क वितरित की थी । इससे मुसलमानों में खलबली मच गई। उन्होंने भिन्न भिन्न स्थानों में उनके विरुद्ध आन्दोलन शुरू कर दिया। इन हलचलों और विरोध का परिणाम हुआ की सरकार ने नाथूराम जी पर अभियोग आरंभ कर दिया। नाथूराम जी ने कोर्ट में यह सिद्ध किया की प्रथम तो ये पुस्तक मात्र अनुवाद है इसके अलावा इसमें जो तर्क दिए गए है वे सब इस्लाम की पुस्तकों में दिए गए प्रमाणों से सिद्ध होते है। जज ने उनकी दलीलों को अस्वीकार करते हुए उन्हें 1000 रूपये दंड और कारावास की सजा सुनाई। इस पक्षपात पूर्ण निर्णय से सारे सिंध में तीखी प्रतिक्रिया हुई। इस निर्णय के विरुद्ध चीफ़ कोर्ट में अपील करी गई। 20 सितम्बर 1934 को कोर्ट में जज के सामने नाथूराम जी ने अपनी दलीले पेश करी। अब जज को अपना फैसला देना था। तभी एक चीख से पूरी अदालत की शांति भंग हो गई। अब्दुल कय्यूम नामक मतान्ध मुस्लमान ने नाथूराम जी पर चाकू से वार कर उन्हें घायल कर दिया जिससे वे शहिद हो गए। चीफ जज ने वीर नाथूराम के मृत देह को सलाम किया। बड़ी धूम धाम से वीर नाथूराम की अर्थी निकली। हजारो की संख्या में हिन्दुओ ने वीर नाथूराम को विदाई दी। अब्दुल कय्यूम को पकड़ लिया गया। उसे बचाने की पूरजोर कोशिश की गयी मगर उसे फांसी की सजा हुई।


आर्यसमाज के इतिहास में अनेक इस प्रकार की घटनाओं का उद्देश्य अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की रक्षा करना था मगर पाठकों को मन में एक शंका बार बार उठ रही होगी कि मकबूल फ़िदा हुसैन द्वारा हिन्दू देवी देवताओं की नग्न पेंटिंग के विरुद्ध जो प्रतिक्रिया हुई थी , 300 रामायण के नाम से रामानुजम द्वारा रचित निबंध जिसे दिल्ली के विश्वविद्यालय में पढ़ाने पर प्रतिक्रिया हुई थी, सीता सिंग्स थे ब्लूज (sita sings the blues) नामक रामायण पर आधारित तथ्यों से विपरीत जो फ़िल्म बनी थी, आमिर खान द्वारा अभिनीत pk जैसी फिल्में भी तो अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता है। फिर तो इनका विरोध करना मूर्खता है।

इस शंका का उत्तर अत्यंत स्पष्ट है। वह है इन सभी कार्यों को करने का उद्देश्य क्या है। किसी भी गलत तथ्य को गलत कहना सत्यता है जबकि किसी भी सही तथ्य को गलत कहना असत्यता है। आज जो ढोंग अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के नाम पर हो रहा है वह इसी श्रेणी में आता है। हिंदी देवी देवताओं की नग्न पेंटिंग के माध्यम से हुसैन कौन सा समाज सुधार कर रहे थे? रामानुजम की पुस्तक में लिखे एक तथ्य को पढ़िये। उसमें लिखा हे लक्ष्मण की सीता माता पर टेढ़ी दृष्टि थी जबकि वाल्मीकि रामायण कहती है लक्ष्मण जी ने कभी सीता माता का मुख नहीं देखा था। उन्होंने केवल उनके चरण देखे थे जिन्हें वे प्रतिदिन सम्मान देने के लिए छूते थे। रामायण पर आधारित फ़िल्म में रामायण में वर्णित मर्यादा, पिता-पुत्र, भाई-भाई में परस्पर प्रेम के स्थान पर प्रक्षिप्त रामायण के भागों को दिखाना कहां तक उचित है? pk फ़िल्म आस्था और श्रद्धा पर प्रश्न तो करती है मगर भटके हुओं को रास्ता दिखाने में असफल हो जाती है। जब आमिर खान यह कहता हैं कि मुझे ईश्वर के विषय में नहीं मालूम तब यह स्पष्ट हो जाता है कि फिल्म बनाने वाले को इसका उद्देश्य नहीं मालूम। इस प्रकार से यह फिल्म जिज्ञासु प्रवृति के व्यक्ति को असंतुष्ट कर नास्तिक बनने की प्रेरणा देती है और केवल धन कमाने का धंधा मात्र दीखता है।


अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता अत्यंत आवश्यक है मगर यह कार्य तभी संभव है जब इसे पक्षपात रहित विद्वान करे। पक्षपाती लोग अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता अन्यों के प्रति दुर्भावना के लिए जब जब करते है तब तब संसार का अहित होता है और होता रहेगा। पक्षपात रहित लोग समाज के कल्याण के लिए उद्घोष करते है तभी उन्हें समाज सुधारक की श्रेणी में गिना जाता है। आज देश को तोड़ने वाली शक्तियाँ, हिन्दू समाज में सामाजिक दूरियाँ पैदा कर उसे असंगठित करने के लिए अभिव्यक्ति के नाम पर उलटे सीधे प्रपंच कर समाज का अहित कर रही है। अभिव्यक्ति पर अंकुश होना दकियानूसी सोच है मगर अभिव्यक्ति का अनियंत्रित होना मीठे जहर के समान है। सदाचारी, पुरुषार्थी, धर्मात्मा मनुष्यों के हाथों में समाज का मार्गदर्शन होना चाहिए जिससे कि धर्मविरोधी, नास्तिक, भोग-विलासी, देशद्रोही ताकतों को अवसर न मिले। अंत में उन सभी महान आत्माओं को श्रद्धांजलि जिन्होंने समाज सुधार के लक्ष्य से अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के लिए अपने जीवन की आहुति दी।



डॉ विवेक आर्य
सम्पूर्ण विश्व में पेरिस में हुए हमले में शार्लि अब्दो पत्रिका के 10 कार्टूनिस्टों की हत्या की कड़े शब्दों में आलोचना की गई है एवं इसे अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर हमला बताया गया। निश्चित रूप से आतंकवादियों की हिंसक प्रतिक्रिया निंदनीय है। भारत का "सेक्युलर" मीडिया अपनी चिरपरिचित मनोवृति में आतंकी हिंसा को pk फिल्म के विरुद्ध हुई प्रतिक्रिया से तुलना करने में अपनी बड़ाई समझ रहा है। परन्तु अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के मूलभूत उद्देश्य से प्राय: सभी सेकुलरवादी अनभिज्ञ है। इस लेख का उद्देश्य अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के उद्देश्य को भारतीय इतिहास की सहायता से समझना है।

Monday, January 12, 2015

AAP ,KEJRIWAL is controlled by Ford foundation and CIA

http://shankhanad.blogspot.com/2014/05/aapkejriwal-is-traitor-and-liar.html

China Considering ban on BURQUA,HIJAB

With what went and going on all over world, China and Russia knows  how to deal with extremists because their gove is real govet when it comes to forcing law and taking decisions without VOTE BANK POLITICS. What Europe is going through is what India has gone through and going on for last 800 years  when Islamist came to terrorise EDUCATED INDIAN ELITES who had mastery not only on science but also on spirituality via Buddha. But Buddha went to far extreme  so monks stopped using arms training etc which was against PIOS GITA BOOK OF HINDUS. As per Gita Book, no one needs to search for so called GOD anywhere. Just do your work, designed far and Karma will give you bad or good effect. Kill terrorists as God Krishna did.  Buddha and later Gandhi was part of islamization in India. Europe must learn from China now otherwise it will become ISLAMIST country. India seems gatehering momentum after Modi is in power 8 months ago.Before Modi, India was almost dead from action as all leaders were playing VOTE politics and filling their bank balance in name of terrorism -both islamic and christian conversion propoganda. Christian must stop conversion game in India otherwise they will be treated as Islamist are now in India.
Chinese authorities have banned women in the capital city of Xinjiang—an autonomous western region where Muslims account for almost half of the population—from wearing burqas in public, according to a brief article on a government-run website, Tianshan News. Local legislators for Urumqi proposed the ban in December, and now the regional legislature has approved it.
It’s not clear when the ban will go into effect. State media said only that it will be implemented after being modified to meet comments proposed in a meeting over the weekend.
Ever since a group of Uighur Muslims went on a killing spree in a train station in Kunming last March, Chinese officials have ratcheted up restrictions on a group they see as potential extremists. Xinjiang officials later banned students and civil servants from fasting for Ramadan, and authorities in the Xinjiang city of Karamy barred anyone wearing burqas, niqabs, hijabs or simply “large beards” from taking public buses.
The state-run news agency Xinhua justified the burqa ban by pointing out that burqas are also banned in France (perhaps not the best example to use, given the recent extremist attack on French magazine Charlie Hebdo). The Xinhua report in English said, “Burqas are not traditional dress for Uighur women… The regulation is seen as an effort to curb growing extremism that forced Uighur women to abandon their colorful traditional dress and wear black burqas.”
 QZ.COM