Thursday, December 4, 2014

RAMDEV JI

रामदेव जी राजस्थान के एक लोक देवता हैं। 15वी. शताब्दी के आरम्भ में पश्चिम राजस्थान के पोकरण नामक प्रसिद्ध नगर के पास रुणिचा नामक स्थान में तोमर वंशीय राजपूत और रुणिचा के शासक अजमाल जी के घर चैत्र शुक्ला पंचमी वि.स. 1409 को बाबा रामदेव पीर अवतरित हुए

बाबा रामदेव की ख्याति बढ़ती गयी और चमत्कार होने से लोग गांव गांव से रूणिचा आने लगे। यह बात मौलवियों और पीरों को नहीं भाई। जब उन्होंने देखा कि इस्लाम खतरे में पड़ गया और मुसलमान बने हिन्दू फिर से हिन्दू बन रहे हैं और सोचने लगे कि किस प्रकार रामदेव जी को नीचा दिखाया जाय और उनकी अपकीर्ति हो। उधर भगवान श्री रामदेव जी घर घर जाते और लोगों को उपदेश देते कि उँच-नीच, जात-पात कुछ नहीं है, हर जाति को बराबर अधिकार मिलना चाहिये। पीरों ने श्री रामदेव जी को नीचा दिखाने के कई प्रयास किये पर वे सफल नहीं हुए। अन्त में सब पीरों ने विचार किया कि अपने जो सबसे बड़े पीर जो मक्का में रहते हैं उनको बुलाओ वरना इस्लाम नष्ट हो जाएगा। तब सब पीर व मौल्वियों ने मिलकर मक्का मदीना में खबर दी कि हिन्दुओं में एक महान पीर पैदा हो गया है, जो हनारे द्वारा बहला फुसलाकर हिन्दूओ को मुसलमान बनाये गए है उनको वापस हिन्दू बना रहा है, अन्धे को अपने तप, और ईश्वर की क्रपा से आंखे दे रहा है, अतिथियों की सेवा करना ही अपना धर्म समझता है, उसे रोका नहीं गया तो इस्लाम संकट में पड़ जाएगा। यह खबर जब मक्का पहुँची तो पाँचों पीर मक्का से रवाना होने की तैयारी करने लगे। कुछ दिनों में वे पीर रूणिचा की ओर पहुँचे। पांचों पीरों ने भगवान रामदेव जी से पूछा कि हे भाई रूणिचा यहां से कितनी दूर है, तब भगवान रामदेवजी ने कहा कि यह जो गांव सामने दिखाई दे रहा है वही रूणिचा है, क्या मैं आपके रूणिचा आने का कारण पूछ सकता हूँ ? तब उन पाँचों में एक पीर बोला हमें यहां रामदेव जी से मिलना है और उसकी पीराई देखनी है। जब प्रभु बोले हे पीरजी मैं ही रामदेव हूँ आपके समाने खड़ा हूँ कहिये मेरे योग्य क्या सेवा है।


श्री रामदेव जी के वचन सुनकर कुछ देर पाँचों पीर प्रभु की ओर देखते र
हे और मन ही मन हँसने लगे। रामदेवजी ने पाँचों पीरों का बहुत सेवा सत्कार किया। प्रभू पांचों पीरों को लेकर महल पधारे, वहां पर गद्दी, तकिया और जाजम बिछाई गई और पीरजी गद्दी तकियों पर विराजे मगर श्री रामदेव जी जाजम पर बैठ गए और बोले हे पीरजी आप हमारे मेहमान हैं, हमारे घर पधारे हैं आप हमारे यहां भोजन करके ही पधारना। इतना सुनकर पीरों ने कहा कि हे रामदेव भोजन करने वाले कटोरे हम मक्का में ही भूलकर आ गए हैं। हम उसी कटोरे में ही भोजन करते हैं दूसरा बर्तन वर्जित है। हमारे इस्लाम में लिखा हुआ है और पीर बोले हम अपना इस्लाम नहीं छोड़ सकते आपको भोजन कराना है तो वो ही कटोरा जो हम मक्का में भूलकर आये हैं मंगवा दीजिये तो हम भोजन कर सकते हैं वरना हम भोजन नहीं करेंगे। तब रामदेव जी ने कहा कि अगर ऐसा है तो मैं आपके कटोरे मंगा देता हूँ। ऐसा कहकर भगवान रामदेव जी ने अपने ईश्वर को याद किया और भगवान की क्रपा से एक ही पल में पाँचों कटोरे पीरों के सामने रख दिये और कहा पीर जी अब आप इस कटोरे को पहचान लो और भोजन करो। जब पीरों ने पाँचों कटोरे मक्का वाले देखे तो पाँचों पीरों को अचम्भा हुआ और मन में सोचने लगे कि मक्का कितना दूर है। यह कटोरे हम मक्का में छोड़कर आये थे। यह कटोरे यहां कैसे आये तब पाँचों पीर श्री रामदेव जी के चरणों में गिर पड़े और क्षमा माँगने लगे और कहने लगे हम पीर हैं मगर आप महान् पीर हैं। आज से आपको दुनिया रामापीर के नाम से पूजेगी। इस तरह से पीरों ने भोजन किया और श्री रामदेवजी को पीर की पदवी मिली और रामसापीर, रामापीर कहलाए।

आज भी मुस्लिम रामदेवरा में उन्हें पीर मान कर शीश झुकाते है

ARAB ATTACKS AND RAJPUTANA

सन 712 ई० में अरबों ने सिंध पर आधिकार जमा कर भारत पर विजय पाने की ठान ली। इस काल में न तो कोई केन्द्रीय सत्ता थी और न कोई बुद्धिमान और कूटनीतिक शासक था जो अरबों की इस चुनौती का सामना करता। फ़लतः अरबों ने आक्रमणो की बाढ ला दी और सन 725 ई० में जैसलमेर, मारवाड, मांडलगढ और भडौच आदि इलाकों पर अपना आधिकार जमा लिया। ऐसे लगने लगा कि शीघ्र ही मध्य पूर्व की भांति भारत में भी इस्लाम का कहर बरसने लगेगा । ऐसे समय में दो शक्तियों का वरदान साबित हुई भारत को बचाने के लिए । एक ओर जहां नागभाट ने जैसलमेर. मारवाड, मांडलगढ से अरबों को खदेड कर जालौर में प्रतिहार राज्य की नींव डाली, वहां दूसरी ओर बप्पा रायडे ने चित्तौड के प्रसिद्ध दुर्ग पर अधिकार कर सन 734 ई० में मेवाड में गुहिल वंश को स्थापित किया और इस प्रकार अरबों के भारत विजय के मनसूबों पर पानी फ़ेर दिया।

मेवाड का गुहिल वंश संसार के प्राचीनतम राज वंशों में माना जाता है। मेवाड राज्य की केन्द्रीय सत्ता का पवित्र स्थल सौराष्ट्र रहा है। जिसकी राजधानी बल्लभीपुर थी और जिसके शासक सूर्य वंशी क्षत्रिय कहलात्र थे। यही सत्ता विस्थापन के बाद जब ईडर में स्थापित हुई तो गहलौत मान से प्रचलित हुई। ईडर से मेवाड स्थापित होने पर रावल गहलौत हो गई। कालान्तर में इसकी एक शाखा सिसोदे की जागीर की स्थापना करके सिसोदिया हो गई। चुंकि यह केन्द्रीय रावल गहलौत शाखा कनिष्ठ थी। इसलिय्र इसे राणा की उपाधि मिली। उन दिनों राजपुताना में यह परम्परा थी कि लहुरी शाखा को राणा उपाधि से सम्बोधित किया जाता था। कुछ पीढियों बाद एक युद्ध में रावल शाखा का अन्त हो गया और मेवाड की केन्द्रीय सत्ता पर सिसोदिया राणा का आधिपत्य हो गया। केन्द्र और उपकेन्द्र पहचान के लिए केन्द्रीय सत्ता के राणा महाराणा हो गये। अस्तु गहलौत वंश का इतिहास ही सिसोदिया वंश का इतिहास है।
मान्यता है कि सिसोदिया क्षत्रिय भगवान राम के कनिष्ठ पुत्र लव के वंशज हैं। सूर्यवंश के आदि पुरुष की 65 वीं पीढी में भगवान राम हुए 195 वीं पीढी में वृहदंतक हुये। 125 वीं पीढी में सुमित्र हुये। 155 वी. पीढी अर्थात सुमित्र की 30 वीं पीढी में गुहिल हु जो गहलोत वंश की संस्थापक पुरुष कहलाये। गुहिल से कुछ पीढी पहले कनकसेन हुए जिन्होंने सौराष्ट्र में सूर्यवंश के राज्य की स्थापना की। गुहिल का समय 540 ई० था। बटवारे में लव को श्री राम द्वारा उत्तरी पश्चिमी क्षेत्र मिला जिसकी राजधानी लवकोट थी। जो वर्तमान में लाहौर है। ऐसा कहा जाता है कि कनकसेन लवकोट से ही द्वारका आये। हालांकि वोश्वस्त प्रमाण नहीं है। टाड मानते है कि 145 ई० में कनकसेन द्वारका आये तथा वहां अपने राज्य की परमार शासक को पराजित कर स्थापना की जिसे आज सौराष्ट्र क्षेत्र कहा जाता है। कनकसेन की चौथी पीढी में पराक्रमी शासक सौराष्ट्र के विजय सेन हुए जिन्होने विजय नगर बसाया। विजय सेन ने विदर्भ की स्थापना की थी। जिसे आज सिहोर कहते हैं। तथा राजधानी बदलकर बल्लभीपुर ( वर्तमान भावनगर ) बनाया। इस वंश के शासकों की सूची कर्नल टाड देते हुए कनकसेन, महामदन सेन, सदन्त सेन, विजय सेन, पद्मादित्य, सेवादित्य, हरादित्य, सूर्यादित्य, सोमादित्य और शिला दित्य बताया। - 524 ई० में बल्लभी का अन्तिम शासक शिलादित्य थे। हालांकि कुछ इतिहासकार 766 ई० के बाद शिलादित्य के शासन का पतन मानते हैं। यह पतन पार्थियनों के आक्रमण से हुआ। शिलादित्य की राजधानी पुस्पावती के कोख से जन्मा पुत्र गुहादित्य की सेविका ब्रहामणी कमलावती ने लालन पालन किया। क्योंकि रानी उनके जन्म के साथ ही सती हो गई। गुहादित्य बचपन से ही होनहार था और ईडर के भील मंडालिका की हत्या करके उसके सिहांसन पर बैठ गया तथा उसके नाम से गुहिल, गिहील या गहलौत वंश चल पडा। कर्नल टाड के अनुसार गुहादित्य की आठ पीढियों ने ईडर पर शासन किया ये निम्न हैं - गुहादित्य, नागादित्य, भागादित्य, दैवादित्य, आसादित्य, कालभोज, गुहादित्य, नागादित्य।
जेम्स टाड के अनुसार शिकार के बहाने भीलों द्वारा नागादित्य की हत्या कर दी। इस समय इसके पुत्र बप्पा की आयु मात्र तीन वर्ष की थी। बप्पा की भी एक ब्राहमणी ने संरक्षण देकर अरावली के बीहड में शरण लिया। गौरीशंकर ओझा गुहादित्य और बप्पा के बीच की वंशावली प्रस्तुत की, वह सर्वाधिक प्रमाणिक मानी गई है जो निम्न है - गुहिल, भोज, महेन्द्र, नागादित्य, शिलादित्य, अपराजित, महेन्द्र द्वितीय और कालभोज बप्पा आदि। यह एक संयोग ही है कि गुहादित्य और मेवाड राज्य में गहलोत वंश स्थापित करने वाले बप्पा का बचपन अरावली के जंगल में उन्मुक्त, स्वच्छन्द वातावरण में व्यतीत हुआ। बप्पा के एक लिंग पूजा के कारण देवी भवानी का दर्शन उन्हे मिला और बाबा गोरखनाथ का आशिर्वाद भी। बडे होने पर चित्तौड के राजा से मिल कर बप्पा ने अपना वंश स्थापित किया और परमार राजा ने उन्हे पूरा स्नेह दिया। इसी समय विदेशी आक्रमणकारियों के आक्रमण को बप्पा ने विफ़ल कर चित्तोड से उन्हे गजनी तक खदेड कर अपने प्रथम सैन्य अभिमान में ही सफ़लता प्राप्त की। बप्पा द्वारा धारित रावल उपाधि रावल रणसिंह ( कर्ण सिंह ) 1158 ई० तक निर्वाध रुप से चलती रही। रावण रण सिंह के बाद रावल गहलोत की एक शाखा और हो गई। जो सिसोदिया के जागीर पर आसीन हुई जिसके संस्थापक माहव एवं राहप दो भाई थे। सिसोदा में बसने के कारण ये लोग सिसोदिया गहलौत कहलाये।
सत्ता परिवर्तन, स्थान परिवर्तन, व्यक्तिगत महत्वकांक्षा एवं राजपरिवार में संख्या वृद्धि से ही राजपूत वंशों में अनेक शाखाओं एवं उपशाखाओं ने जन्म लिया है। यह बाद गहलौत वंश के साथ भी देखने को मिली है। बप्पा के शासन काल मेवाड राज्य के विस्तार के साथ ही उसकी प्रतिष्ठा में भी अत्यधिक वृद्धि हुई है। बप्पा के बाद गहलौत वंश की शाखाओं का निम्न विकास हुआ।
1. अहाडिया गहलौत - अहाड नामक स्थान पर बसने के कारण यह नाम हुआ।
2. असिला गहलौत - सौराष्ट्र में बप्पा के पुत्र ने असिलगढ का निर्माण अपने नाम असिल पर किया जिससे इसका नाम असिला पडा।
3. पीपरा गहलौत - बप्पा के एक पुत्र मारवाड के पीपरा पर आधिपत्य पर पीपरा गहलौत वंश चलाया।
4. मागलिक गहलौत - लोदल के शासक मंगल के नाम पर यह वंश चला।
5. नेपाल के गहलोत - रतन सिंह के भाई कुंभकरन ने नेपाल में आधिपत्य किया अतः नेपाल का राजपरिवार भी मेवाढ की शाखा है।
6. सखनियां गहलौत - रतन सिंह के भाई श्रवण कुमार ने सौराष्ट्र में इस वंश की स्थापना की।
7. सिसौद गहलौत - कर्णसिंह के पुत्र को सिसौद की जागीर मिली और सिसौद के नाम पर सिसौदिया गहलौत कहलाया

भदौरिया वंश (Bhadhauriya Vansh)

============भदौरिया वंश (Bhadhauriya Vansh) ============== 
जय राजपुताना मित्रों,
आज हम आपको भदौरिया राजपूत कुल के बारे में कुछ जानकारी देंगे,
भदौरिया राजपूत चौहान राजपूतो की शाखा है,इनका गोत्र वत्स है और इनकी चार शाखाए राउत, मेनू, तसेला, कुल्हिया, अठभईया हैं,

भदौरिया राजपूत कुल का नाम है। इनका नाम ग्वालियर के ग्राम भदावर पर पड़ा। इस वंश के महाराजा को 'महेन्द्र' (पृथ्वी का स्वामी) की उपाधि से संबोधित किया जाता है। यह उपाधि आज भी इस कुल के मुखिया के नाम रहती है |
इस कुटुम्ब के संस्थापक मानिक राय, अजमेर के चौहान को मना जाता है, उनके पुत्र राजा चंद्रपाल देव (७९४-८१६) ने ७९३ में "चंद्रवार" (आज का फिरोजाबाद) रियासत की स्थापना की और वहां एक किले का निर्माण कराया जो आज भी फिरोजाबाद में स्थित है।
८१६ में उनके पुत्र राजा भदों राव (८१६-८४२) ने भदौरा नामक शहर की स्थापना की और अपने राज्य की सीमा को आगरा में बाह तक बढ़ा दिया,
रज्जू भदौरिया ने सदा अकबर का प्रतिरोध किया,जौनपुर के शर्की सुल्तान हुसैनशाह को भी भदौरिया राजपूतो ने हराया था,
इन्होने दिल्ली के सुल्तान सिकन्दर लोदी के विरुद्ध भी बगावत की थी,


जब मुगलों के साम्राज्य का पतन हो रहा था, तब भदौरिया प्रभावशाली व सर्वशक्तिमान थे | १७०७ में सम्राट औरंगजेब की मृत्यु के बाद हुयी लडाई में भदावर के राजा कल्याण सिंह भदौरिया ने पर धौलपुर कब्जा किया और १७६१ तक धौलपुर भदावर रियासत का हिस्सा रहा | १७०८ में भदावर सैनिक, उम्र-ऐ-उज्ज़म महाराजाधिराज श्रीमान महाराजा महेंद्र गोपाल सिंह भदौरिया ने गोंध पर धावा बोला, राणा भीम सिंह जाट को युद्ध में हरा कर गोंध के किले पर कब्जा किया और गोंध को भदावर में मिला लिया १७३८ तक गोंध भदावर की हिस्सा रहा ,

पहले इनके चार राज्य थे ,चाँदवार, भदावर, गोंध, धौलपुर,
इनमे गोंध इन्होने जाट राजाओ से जीता था,अब सिर्फ एक राज्य बचा है भदावर जो इनकी प्रमुख गद्दी है,राजा महेंद्र अरिदमन सिंह इस रियासत के राजा हैं और यूपी सरकार में मंत्री हैं.ये रियासत आगरा चम्बल इलाके में स्थित है,

अब भदौरिया राजपूत आगरा ,इटावा,भिंड,ग्वालियर में रहते हैं
(तस्वीर में भदौरिया राजपूतो का चम्बल का अटेर दुर्ग जहाँ खून का तिलक लगाकर ही राजा से मिलते थे गुप्तचर)

सिख धर्म के उत्थान में राजपूतो का योगदान"/ SIKKH DHARMA AND RAJPUT HISTORY

सिख धर्म के उत्थान में राजपूतो का योगदान"

सिख राजपूतो में "बछितर सिंह मन्हास,बाजसिंह पवार,बन्दा सिंह बहादुर, जैसे यौद्धा और मिल्खा सिंह(राठौर),जीव मिल्खा सिंह जैसे महान खिलाडी राजपूत समाज से थे।
आज हम बज्जर सिंह राठौर से शुरुवात कर रहे हैं।

सरदार बज्जर सिंह राठौड जिन्होने गुरू गोविंद सिंह जी को अस्त्र शस्त्र की दीक्षा थी ---
सरदार बज्जर सिंह राठौड सिक्खो के दसवे गुरू श्री गोविंद सिंह जी के गुरू थे ,जिन्होने उनको शस्त्र चलाने मे निपुण बनाया था। बज्जर सिंह जी ने गुरू गोविंद सिंह जी को ना केवल युद्ध की कला सिखाई बल्कि उनको बिना शस्त्र के द्वंध युद्ध, घुड़सवारी, तीरंदाजी मे भी निपुण किया। उन्हे राजपूत -मुगल युद्धो का भी अनुभव था और प्राचीन भारतीय युद्ध मे भी पारंगत थे और वो बहुत से खूंखार जानवरो के साथ अपने शिष्यों को लडवाकर उनकी परिक्षा लेते थे। गुरू गोविंद सिंह जी ने अपने ग्रन्थ बछ्छित्तर नाटक मे भी उनका वर्णन किया है। उनके द्वारा आम सिक्खो का सैन्यिकरण किया गया जो पहले ज्यादातर किसान और व्यापारी ही थे, ये केवल सिक्ख ही नही बल्की पूरे देश मे क्रांतिकारी परिवर्तन साबित हुआ।बज्जर सिंह राठौड जी की इस विशेषता की तारिफ ये कहकर की जाती है के उन्होंने ना केवल राजपूतों को बल्की खत्री सिक्ख गुरूओ को भी शिक्षा दीक्षा दी।
पारिवारिक प्रष्टभूमि बज्जर सिंह सूर्यवंशी राठौड राजपूत वंश के शासक वर्ग से संबंध रखते थे। वो मारवाड के राठौड राजवंश के वंशंज थे

वंशावली--
राव सीहा जी
राव अस्थान
राव दुहड
राव रायपाल
राव कान्हापाल
राव जलांसी
राव चंदा
राव टीडा
राव सल्खो
राव वीरम देव
राव चंदा
राव रीढमल
राव जोधा
राव लाखा
राव जोना
राव रामसिंह प्रथम
राव साल्हा
राव नत्थू
राव उडा ( उडाने राठौड इनसे निकले 1583 मे मारवाड के पतंन के बाद पंजाब आए)
राव मंदन
राव सुखराज
राव रामसिंह द्वितीय
सरदार बज्जर सिंह ( अपने वंश मे सरदार की उपाधि लिखने वाले प्रथम व्यक्ति) इनकी पुत्री भीका देवी का विवाह आलम सिंह चौहान (नचणा) से हुआ जिन्होंने गुरू गोविंद सिंह जी के पुत्रो को शास्त्र विधा सिखाई--।

Sardar Bajjar Singh Rathore
Sardar Bajjar Singh Rathore was a teacher of tenth Sikh Guru, Guru Gobind Singh, in 17th century India.
Rathore trained Guru Gobind Singh in the intricacies of warfare, as well as in unarmed combat, equestrianism, armed combat, musketry, archery and foot tactics. A veteran of the Rajput-Mughal wars, he was well steeped in ancient Indian battle lore and often tested his disciple by pitting him against wild-beasts. The Guru reflects on these sessions, in the Bachittra Natak.
His militarisation of common Sikhs who were mostly farmers, and a few traders was a big turning point in history of sikhism and India as well.
He was great enough in not keeping his warrior skills or Shastravidya exclusive to his Rajput princelyhood but imparted on to khatri Sikh Gurus.
Family Background
He was scion of the great Suryavanshi Rathore Rajput ruling elite.
Family Tree
He was a descendant of the royal house of Marwar:
*.Rao Siha
*.Rao Asthan
*.Rao Duhad
*.Rao Raipal
*.Rao Kanha Pal
*.Rao Jalnsi
*.Rao Chada
*.Rao Tida
*.Rao Salkho
*.Rao Viram Deo
*.Rao Chanda
*.Rao Ridmal --------Rao Jodha ( First son of Rao Ridmal )
*.Rao Lakha ( seventh son of Rao Ridmal )
*.Rao Jauna
*.Rao Ram Singh I
*.Rao Salha
*.Rao Nathu
*.Rao Uda ( Udaane Rathore ) ( came to Punjab during fall of marwar in 1583 )
*.Rao Mandan
*.Rao Sukhraj
*.Rao Ram Singh II
*.Sardar Bajjar Singh ( first to use sardar title in his line )
*.His daughter Bhikha Devi was married to Alam Singh Chauhan ( Nachna) who gave Shastarvidya to Sahibzadas of tenth Sikh Guru.

Source- Wikipedia.
One can also refer to-
1. http://punjabrevenue.nic.in/ /gazropr4.htm
2. http://www.thesikhencyclopedia.c/ om/biographies/sikh-martyrs /alam-singh-nachna

Wednesday, December 3, 2014

RANI PADMAVATI

Photo: क्षत्रिय रण बाँकुरे लिख गए एक अमर गाथा … स्वर्णिम इतिहास 
विश्व इतिहास की सबसे साहसिक घटनाओं में से एक

दिल्ली के बादशाह अलाउद्दीन खिलजी ने जब चित्तोड़ की महारानी पद्यमिनी के रूप की चर्चा सुनी ,तो वह रानी को पाने के लिए आतुर हो बैठा । उसने राणा रत्न सिंह को संदेश भेजा की वह रानी पद्यमिनी को उसको सोंप दे वरना वह चित्तोड़ की ईंट से ईंट बजा देगा। अलाउद्दीन की धमकी सुनकर राणा रत्न सिंह ने भी उस नरपिशाच को जवाब दिया की वह उस दुष्ट से रणभूमि में बात करेंगे।
कामपिपासु अलाउद्दीन ने महारानी को अपने हरम में डालने के लिए सन 1303 में चित्तोड़ पर आक्रमण कर दिया। भारतीय वीरो ने उसका स्वागत अपने हथियारों से किया। राजपूतों ने इस्लामिक नरपिशाचों की उतम सेना वाहिनी को मूली गाजर की तरह काट डाला। एक महीने चले युद्ध के पश्चात् अलाउद्दीन को दिल्ली वापस भागना पड़ा। चित्तोड़ की तरफ़ से उसके होसले पस्त हो गए थे। परन्तु वह महारानी को भूला नही था।कुछ समय बाद वह पहले से भी बड़ी सेना लेकर चित्तोड़ पहुँच गया। चित्तोड़ के 10000 सैनिको के लिए इस बार वह लगभग100,000 की सेना लेकर पहुँचा। परंतु उसकी हिम्मत चित्तोड़ पर सीधे सीधे आक्रमण की नही हुई। उस अलाउद्दीन ने आस पास के गाँवो में आगलगवा दी,हिन्दुओं का कत्लेआम शुरू कर दिया। हिंदू ललनाओं के बलात्कार होने लगे।
उसके इस आक्रमण का प्रतिकार करने के लिए जैसे ही राजपूत सैनिक दुर्ग से बहार आए ,अलाउदीन ने एक सोची समझी रणनीति के अनुसार कुटिल चाल चली। उसने राणा को संधि के लिए संदेश भेजा। राणा रत्न सिंह भी अपनी प्रजा के कत्लेआम से दुखी हो उठे थे। अतः उन्होने अलाउद्दीन को दुर्ग में बुला लिया। अथिति देवो भवः का मान रखते हुए राणा ने अलाउद्दीन का सत्कार किया तथा उस वहशी को दुर्ग के द्वार तक छोड़ने आए। अलाउद्दीन ने राणा से निवेदन किया की वह उसके तम्बू तक चले ।
राणा रत्न सिंह उसके झांसे में आ गए। जैसे ही वो उसकी सेना के दायरे में आए मुस्लमान सैनिकों ने झपटकर राणा व उनके साथिओं को ग्रिफ्तार कर लिया। अब उस दरिन्दे ने दुर्ग में कहला भेजा कि महारानी पद्यमिनी को उसके हरम में भेज दिया जाय ,अन्यथा वह राणा व उसके साथियों को तड़पा तड़पा कर मार डालेगा। चित्तोड़ की आन बान का प्रश्न था।कुछ चुनिन्दा राजपूतों की बैठक हुई। बैठक
में एक आत्मघाती योजना बनी। जिसके अनुसार अलाउद्दीन को कहला भेजा की रानी पद्यमिनी अपनी 700  दासिओं के साथ अलाउद्दीन के पास आ रही हैं। योजना के अनुसार महारानी के वेश में एक 14 वर्षीय राजपूत बालक बादल को शस्त्रों से सुसज्जित करके पालकी में बैठा दिया गया। बाकि पाल्किओं में भी चुनिन्दा ७०० राजपूतों को दासिओं के रूप में हथियारों से सुसज्जित करके बैठाया गया। कहारों के भेष में भी राजपूत सैनिकों को तैयार किया गया।लगभग 2100 राजपूत वीर गोरा ,जो की बादल का चाचा था, के नेत्र्तव्य में 100,000 इस्लामिक पिशाचों से अपने राणा को आजाद कराने के लिए चल दिए।
अलाउद्दीन ने जैसे ही दूर से छदम महारानी को आते देखा ,तो वह खुशी से चहक उठा। रानी का कारंवा उसके तम्बू से कुछ दूर आकर रूक गया। अलाउद्दीन के पास संदेश भेजा गया कि महारानी राणा से मिलकर विदा लेना चाहती हैं। खुशी में पागल हो गए अलाउद्दीन ने बिना सोचे समझे राणा रत्न सिंह को रानी की पालकी के पास भेज दिया।
जैसे ही राणा छदम रानी की पालकी के पास पहुंचे ,लगभग 500 राजपूतों ने राणा को अपने घेरे में ले लिया,और दुर्ग की तरफ़ बढ गए। अचानक चारो और हर हर महादेव के नारों से आकाश गूंजा, बचे हुए 2100 राजपूत 100,00 तुर्क सेना पर यमदूत बनकर टूट पड़े।
इस अचानक हुए हमले से तुर्की सेना के होश उड़ गए और charo और भागने लगे

2100  हिंदू राजपूत वीरों ने अलाउद्दीन की लगभग 9000 की सेना को देखते ही देखते काट डाला। और सदा के लिए भारत माता की गोद में सो गए। इस आत्मघाती रणनीति में दो वीर पुरूष गोरा व बादल भारत की पोराणिक कथाओं के नायक बन गए। इस युद्ध में अलाउद्दीन खिलजी भी बुरी तरह घायल हुआ।
यह इतिहास की घटना विश्व इतिहास की महानतम साहसिक घटनाओं में से एक है।
सौजन्य से:- किरण बेदी जी / मीडिया माफियाक्षत्रिय रण बाँकुरे लिख गए एक अमर गाथा … स्वर्णिम इतिहास 
विश्व इतिहास की सबसे साहसिक घटनाओं में से एक

दिल्ली के बादशाह अलाउद्दीन खिलजी ने जब चित्तोड़ की महारानी पद्यमिनी के रूप की चर्चा सुनी ,तो वह रानी को पाने के लिए आतुर हो बैठा । उसने राणा रत्न सिंह को संदेश भेजा की वह रानी पद्यमिनी को उसको सोंप दे वरना वह चित्तोड़ की ईंट से ईंट बजा देगा। अलाउद्दीन की धमकी सुनकर राणा रत्न सिंह ने भी उस नरपिशाच को जवाब दिया की वह उस दुष्ट से रणभूमि में बात करेंगे।
कामपिपासु अलाउद्दीन ने महारानी को अपने हरम में डालने के लिए सन 1303 में चित्तोड़ पर आक्रमण कर दिया। भारतीय वीरो ने उसका स्वागत अपने हथियारों से किया। राजपूतों ने इस्लामिक नरपिशाचों की उतम सेना वाहिनी को मूली गाजर की तरह काट डाला। एक महीने चले युद्ध के पश्चात् अलाउद्दीन को दिल्ली वापस भागना पड़ा। चित्तोड़ की तरफ़ से उसके होसले पस्त हो गए थे। परन्तु वह महारानी को भूला नही था।कुछ समय बाद वह पहले से भी बड़ी सेना लेकर चित्तोड़ पहुँच गया। चित्तोड़ के 10000 सैनिको के लिए इस बार वह लगभग100,000 की सेना लेकर पहुँचा। परंतु उसकी हिम्मत चित्तोड़ पर सीधे सीधे आक्रमण की नही हुई। उस अलाउद्दीन ने आस पास के गाँवो में आगलगवा दी,हिन्दुओं का कत्लेआम शुरू कर दिया। हिंदू ललनाओं के बलात्कार होने लगे।

उसके इस आक्रमण का प्रतिकार करने के लिए जैसे ही राजपूत सैनिक दुर्ग से बहार आए ,अलाउदीन ने एक सोची समझी रणनीति के अनुसार कुटिल चाल चली। उसने राणा को संधि के लिए संदेश भेजा। राणा रत्न सिंह भी अपनी प्रजा के कत्लेआम से दुखी हो उठे थे। अतः उन्होने अलाउद्दीन को दुर्ग में बुला लिया। अथिति देवो भवः का मान रखते हुए राणा ने अलाउद्दीन का सत्कार किया तथा उस वहशी को दुर्ग के द्वार तक छोड़ने आए। अलाउद्दीन ने राणा से निवेदन किया की वह उसके तम्बू तक चले ।
राणा रत्न सिंह उसके झांसे में आ गए। जैसे ही वो उसकी सेना के दायरे में आए मुस्लमान सैनिकों ने झपटकर राणा व उनके साथिओं को ग्रिफ्तार कर लिया। अब उस दरिन्दे ने दुर्ग में कहला भेजा कि महारानी पद्यमिनी को उसके हरम में भेज दिया जाय ,अन्यथा वह राणा व उसके साथियों को तड़पा तड़पा कर मार डालेगा। चित्तोड़ की आन बान का प्रश्न था।कुछ चुनिन्दा राजपूतों की बैठक हुई। बैठक
में एक आत्मघाती योजना बनी। जिसके अनुसार अलाउद्दीन को कहला भेजा की रानी पद्यमिनी अपनी 700 दासिओं के साथ अलाउद्दीन के पास आ रही हैं। योजना के अनुसार महारानी के वेश में एक 14 वर्षीय राजपूत बालक बादल को शस्त्रों से सुसज्जित करके पालकी में बैठा दिया गया। बाकि पाल्किओं में भी चुनिन्दा ७०० राजपूतों को दासिओं के रूप में हथियारों से सुसज्जित करके बैठाया गया। कहारों के भेष में भी राजपूत सैनिकों को तैयार किया गया।लगभग 2100 राजपूत वीर गोरा ,जो की बादल का चाचा था, के नेत्र्तव्य में 100,000 इस्लामिक पिशाचों से अपने राणा को आजाद कराने के लिए चल दिए।
अलाउद्दीन ने जैसे ही दूर से छदम महारानी को आते देखा ,तो वह खुशी से चहक उठा। रानी का कारंवा उसके तम्बू से कुछ दूर आकर रूक गया। अलाउद्दीन के पास संदेश भेजा गया कि महारानी राणा से मिलकर विदा लेना चाहती हैं। खुशी में पागल हो गए अलाउद्दीन ने बिना सोचे समझे राणा रत्न सिंह को रानी की पालकी के पास भेज दिया।
जैसे ही राणा छदम रानी की पालकी के पास पहुंचे ,लगभग 500 राजपूतों ने राणा को अपने घेरे में ले लिया,और दुर्ग की तरफ़ बढ गए। अचानक चारो और हर हर महादेव के नारों से आकाश गूंजा, बचे हुए 2100 राजपूत 100,00 तुर्क सेना पर यमदूत बनकर टूट पड़े।
इस अचानक हुए हमले से तुर्की सेना के होश उड़ गए और charo और भागने लगे

2100 हिंदू राजपूत वीरों ने अलाउद्दीन की लगभग 9000 की सेना को देखते ही देखते काट डाला। और सदा के लिए भारत माता की गोद में सो गए। इस आत्मघाती रणनीति में दो वीर पुरूष गोरा व बादल भारत की पोराणिक कथाओं के नायक बन गए। इस युद्ध में अलाउद्दीन खिलजी भी बुरी तरह घायल हुआ।
यह इतिहास की घटना विश्व इतिहास की महानतम साहसिक घटनाओं में से एक है।
सौजन्य से:- किरण बेदी जी / मीडिया माफिया

HISTORY OF TOMAR RAJPUTANA

=========चन्द्रवंशी तंवर(तोमर)राजपूतो का इतिहास=========

Photo: जय श्रीकृष्ण-----------------

मित्रों ये पोस्ट इतिहास प्रेमियों के लिए लिखी गयी है,आपसे निवेदन है कि इसे ज्यादा से ज्यादा शेयर करे,अगर कॉपी भी करे तो हमारे पेज का लिंक या सोर्स जरुर दें,

=========चन्द्रवंशी तंवर(तोमर)राजपूतो का इतिहास=========

तोमर या तंवर उत्तर-पश्चिम भारत का एक राजपूत वंश है। तोमर राजपूत क्षत्रियो में चन्द्रवंश की एक शाखा है और इन्हें पाण्डु पुत्र अर्जुन का वंशज माना जाता है.इनका गोत्र अत्री एवं व्याघ्रपद अथवा गार्गेय्य होता है। क्षत्रिय वंश भास्कर,पृथ्वीराज रासो,बीकानेर वंशावली में भी यह वंश चन्द्रवंशी लिखा हुआ है,यही नहीं कर्नल जेम्स टॉड जैसे विदेशी इतिहासकार भी तंवर वंश को पांडव वंश ही मानते हैं.
उत्तर मध्य काल में ये वंश बहुत ताकतवर वंश था और उत्तर पश्चिमी भारत के बड़े हिस्से पर इनका शाशन था। देहली जिसका प्राचीन नाम ढिल्लिका था, इस वंश की राजधानी थी और उसकी स्थापना का श्रेय इसी वंश को जाता है।

नामकरण---------
तंवर अथवा तोमर वंश के नामकरण की कई मान्यताएं प्रचलित हैं,कुछ विद्वानों का मानना है कि राजा तुंगपाल के नाम पर तंवर वंश का नाम पड़ा,पर सर्वाधिक उपयुक्त मान्यता ये प्रतीत होती है 

इतिहासकार ईश्वर सिंह मडाड की राजपूत वंशावली के पृष्ठ संख्या 228 के अनुसार,,,,,,,
"पांडव वंशी अर्जुन ने नागवंशी क्षत्रियो को अपना दुश्मन बना लिया था,नागवंशी क्षत्रियो ने पांड्वो को मारने का प्रण ले लिया था,पर पांडवो के राजवैध धन्वन्तरी के होते हुए वे पांड्वो का कुछ न बिगाड़ पाए !अतः उन्होंने धन्वन्तरी को मार डाला !इसके बाद अभिमन्यु पुत्र परीक्षित को मार डाला !परीक्षित के बाद उसका पुत्र जन्मेजय राजा बना !अपने पिता का बदला लेने के लिए जन्मेजय ने नागवंश के नो कुल समाप्त कर दिए !नागवंश को समाप्त होता देख उनके गुरु आस्तिक जो की जत्कारू के पुत्र थे,जन्मेजय के दरबार मैं गए व् सुझाव दिया की किसी वंश को समूल नष्ट नहीं किया जाना चाहिए व सुझाव दिया की इस हेतु आप यज्ञ करे !महाराज जन्मेजय के पुरोहित कवष के पुत्र तुर इस यज्ञ के अध्यक्ष बने !इस यग्य में जन्मेजय के पुत्र,पोत्र अदि दीक्षित हुए !क्योकि इन सभी को तुर ने दीक्षित किया था इस कारण ये पांडव तुर,तोंर या बाद तांवर तंवर या तोमर कहलाने लगे !ऋषि तुर द्वारा इस यज्ञ का वर्णन पुराणों में भी मिलता है.

महाभारत काल के बाद तंवर वंश का वर्णन----------

महाभारत काल के बाद पांडव वंश का वर्णन पहले तो 1000 ईसा पूर्व के ग्रंथो में आता है जब हस्तिनापुर राज्य को युधिष्ठर वंश बताया गया,पर इसके बाद से लेकर बौद्धकाल,मौर्य युग से लेकर गुप्तकाल तक इस वंश के बारे में कोई जानकारी नहीं मिलती,समुद्रगुप्त के शिलालेख से पाता चलता है कि उन्होंने मध्य और पश्चिम भारत की यौधेय और अर्जुनायन क्षत्रियों को अपने अधीन किया था,यौधेय वंश युधिष्ठर का वंश माना जा सकता है और इसके वंशज आज भी चन्द्रवंशी जोहिया राजपूत कहलाते हैं जो अब अधिकतर मुसलमान हो गए हैं,इन्ही के आसपास रहने वाले अर्जुनायन को अर्जुन का वंशज माना जा सकता है और ये उसी क्षेत्रो में पाए जाते थे जहाँ आज भी तंवरावाटी और तंवरघार है,यानि पांडव वंश ही उस समय तक अर्जुनायन के नाम से जाना जाता था और कुछ समय बाद वही वंश अपने पुरोहित ऋषि तुर द्वारा यज्ञ में दीक्षित होने पर तुंवर, तंवर,तूर,या तोमर के नाम से जाना गया.(इतिहासकार महेन्द्र सिंह तंवर खेतासर भी अर्जुनायन को ही तंवर वंश मानते हैं)

तंवर वंश और दिल्ली की स्थापना ------------

ईश्वर का चमत्कार देखिये कि हजारो साल बाद पांडव वंश को पुन इन्द्रप्रस्थ को बसाने का मौका मिला,और ये श्रेय मिला अनंगपाल तोमर प्रथम को.
दिल्ली के तोमर शासको के अधीन दिल्ली के अलावा पंजाब ,हरियाणा,पश्चिमी उत्तर प्रदेश भी था,इनके छोटे राज्य पिहोवा,सूरजकुंड,हांसी,थानेश्वर में होने के भी अभिलेखों में उल्लेख मिलते हैं.इस वंश ने बड़ी वीरता के साथ तुर्कों का सामना किया और कई सदी तक उन्हें अपने क्षेत्र में अतिक्रमण करने नहीं दिया

दिल्ली के तंवर(तोमर) शासक (736-1193 ई)------

1.अनगपाल तोमर प्रथम (736-754 ई)-दिल्ली के संस्थापक राजा थे जिनके अनेक नाम मिलते हैं जैसे बीलनदेव, जाऊल इत्यादि।
2.राजा वासुदेव (754-773)
3.राजा गंगदेव (773-794)
4.राजा पृथ्वीमल (794-814)-बंगाल के राजा धर्म पाल के साथ युद्ध
5.जयदेव (814-834)
6.राजा नरपाल (834-849)
7.राजा उदयपाल (849-875)
8.राजा आपृच्छदेव (875-897)
9.राजा पीपलराजदेव (897-919)
10.राज रघुपाल (919-940)
11.राजा तिल्हणपाल (940-961)
12.राजा गोपाल देव (961-979)-इनके समय साम्भर के राजा सिहराज और लवणखेडा के तोमर सामंत सलवण के मध्य युद्ध हुआ जिसमें सलवण मारा गया तथा उसके पश्चात दिल्ली के राजा गोपाल देव ने सिंहराज पर आक्रमण करके उन्हें युद्ध में मारा

12.सुलक्षणपाल तोमर (979-1005)-महमूद गजनवी के साथ युद्ध किया
13.जयपालदेव (1005-1021)-महमूद गजनवी के साथ युद्ध किया, महमूद ने थानेश्वसर ओर मथुरा को लूटा
14.कुमारपाल (1021-1051)-मसूद के साथ युद्ध किया और 1038 में हाँसी के गढ का पतन हुआ, पाच वर्ष बाद कुमारपाल ने हासी, थानेश्वसर के साथ साथ कांगडा भी जीत लिया

16.अनगपाल द्वितीय (1051-1081)-लालकोट का निर्माण करवाया और लोह स्तंभ की स्थापना की, अनंगपाल द्वितीय ने 27 महल और मन्दिर बनवाये थे।दिल्ली सम्राट अनगपाल द्वितीय ने तुर्क इबराहीम को पराजित किया

17.तेजपाल प्रथम(1081-1105)
18.महिपाल(1105-1130)-महिलापुर बसाया और शिव मंदिर का निर्माण करवाया
19.विजयपाल (1130-1151)-मथुरा में केशवदेव का मंदिर

20.मदनपाल(1151-1167)-
मदनपाल अथवा अनंगपाल तृतीय के समय अजमेर के प्रतापी शासक विग्रहराज चौहान उर्फ़ बीसलदेव ने दिल्ली राज्य पर अपना अधिकार कर लिया और संधि के कारण मदनपाल को ही दिल्ली का शासक बना रहने दिया,मदनपाल ने बीसलदेव के साथ मिलकर तुर्कों के हमलो के विरुद्ध युद्ध किया और उन्हें मार भगाया,मदलपाल तोमर ने विग्रहराज चौहान उर्फ़ बीसलदेव के शोर्य से प्रभावित होकर उससे अपनी पुत्री देसलदेवी का विवाह किया,पृथ्वीराज रासो में बाद में किसी ने काल्पनिक कहानी जोड़ दी है कि दिल्ली के राजा अनंगपाल ने अपनी दो पुत्रियों की शादी एक कन्नौज के जयचंद के साथ और दूसरी कमला देवी का विवाह पृथ्वीराज चौहान के साथ की,जिससे पृथ्वीराज चौहान का जन्म हुआ,जबकि सबसे प्रमाणिक ग्रन्थ पृथ्वीराज विजय के अनुसार सच्चाई ये है कि पृथ्वीराज चौहान की माता चेदी राज्य की कर्पूरी देवी थी,और पृथ्वीराज चौहान न तो अनंगपाल तोमर का धेवता था न ही जयचंद उसका मौसा था,ये सारी कहानी काल्पनिक थी.

21.पृथ्वीराज तोमर(1167-1189)-अजमेर के राजा सोमेश्वर और पृथ्वीराज चव्हाण इनके समकालीन थे
22.चाहाडपाल/गोविंदराज (1189-1192)-पृथ्वीराज चौहान के साथ मिलकर गोरी के साथ युद्ध किया,तराईन दुसरे युद्ध मे मारा गया।पृथ्वीराज रासो के अनुसार 
तराईन के पहले युद्ध में मौहम्मद गौरी और गोविन्दराज तोमर का आमना सामना हुआ था,जिसमे दोनों घायल हुए थे और गौरी भाग रहा था। भागते हुए गौरी को धीरसिंह पुंडीर ने पकडकर बंदी बना लिया था। जिसे उदारता दिखाते हुए पृथ्वीराज चौहान ने छोड़ दिया। हालाँकि गौरी के मुस्लिम इतिहासकार इस घटना को छिपाते हैं।

23.तेजपाल द्वितीय (1192-1193 ई)-दिल्ली का अन्तिम तोमर राजा , जिन्होंने स्वतन्त्र 15 दिन तक शासन किया, और कुतुबुद्दीन ने दिल्ली पर आक्रमण कर हमेशा के लिए दिल्ली पर कब्जा कर लिया।

ग्वालियर,चम्बल,ऐसाह गढ़ी का तोमर वंश--------------

दिल्ली छूटने के बाद वीर सिंह तंवर ने चम्बल घाटी के ऐसाह गढ़ी में अपना राज स्थापित किया जो इससे पहले भी अर्जुनायन तंवर वंश के समय से उनके अधिकार में था,बाद में इस वंश ने ग्वालियर पर भी अधिकार कर मध्य भारत में एक बड़े राज्य की स्थापना की,यह शाखा ग्वालियर स्थापना के कारण ग्वेलेरा कहलाती है,माना जाता है कि ग्वालियर का विश्वप्रसिद्ध किला भी तोमर शासको ने बनवाया था.यह क्षेत्र आज भी तंवरघार कहा जाता है और इस क्षेत्र में तोमर राजपूतो के 1400 गाँव कहे जाते हैं.
वीर सिंह के बाद उद्दरण,वीरम,गणपति,डूंगर सिंह,कीर्तिसिंह,कल्याणमल,और राजा मानसिंह हुए,
राजा मानसिंह तोमर बड़े प्रतापी शासक हुए,उनके दिल्ली के सुल्तानों से निरंतर युद्ध हुए,उनकी नो रानियाँ राजपूत थी,पर एक दीनहींन गुज्जर जाति की लडकी मृगनयनी पर मुग्ध होकर उससे भी विवाह कर लिया,जिसे नीची जाति की मानकर रानियों ने महल में स्थान देने से मना कर दिया जिसके कारण मानसिंह ने छोटी जाति की होते हुए भी मृगनयनी गूजरी के लिए अलग से ग्वालियर में गूजरी महल बनवाया.इस गूजरी रानी पर राजपूत राजा मानसिंह इतने आसक्त थे कि गूजरी महल तक जाने के लिए उन्होंने एक सुरंग भी बनवाई थी,जो अभी भी मौजूद है पर इसे अब बंद कर दिया गया है.
मानसिंह के बाद विक्रमादित्य राजा हुए,उन्होंने पानीपत की लड़ाई में अपना बलिदान दिया,उनके बाद रामशाह तोमर राजा हुए,उनका राज्य 1567 ईस्वी में अकबर ने जीत लिया,इसके बाद राजा रामशाह तोमर ने मुगलों से कोई संधि नहीं की और अपने परिवार के साथ महाराणा उदयसिंह मेवाड़ के पास आ गए,हल्दीघाटी के युद्ध में राजा रामशाह तोमर ने अपने पुत्र शालिवाहन तोमर के साथ वीरता का असाधारण प्रदर्शन कर अपने परिवारजनों समेत महान बलिदान दिया,उनके बलिदान को आज भी मेवाड़ राजपरिवार द्वारा आदरपूर्वक याद किया जाता है.

मालवा में रायसेन में भी तंवर राजपूतो का शासन था ,यहाँ के शासक सिलहदी उर्फ़ शिलादित्य तंवर राणा सांगा के दामाद थे और खानवा के युद्ध में राणा सांगा की और से लडे थे,कुछ इतिहासकार इन पर राणा सांगा से धोखे का भी आरोप लगाते हैं ,पर इसके प्रमाण पुष्ट नही हैं,सिल्ह्दी पर गुजरात के बादशाह बहादुर शाह ने 1532 इसवी में हमला किया,इस हमले में  सिलहदी तंवर की पत्नी जो राणा सांगा की पुत्री थी उन्होंने 700 राजपूतानियो और अपने दो छोटे बच्चों के साथ जौहर किया और सिल्हदी तंवर अपने भाई के साथ वीरगति को प्राप्त हुए,
बाद में रायसेन को पूरनमल को दे दिया गया,कुछ वर्षो बाद 1543 इसवी में रायसेन के मुल्लाओ की शिकायत पर शेरशाह सूरी ने इसके राज्य पर हमला किया और पूरणमल की रानियों ने जौहर कर लिया और पूरणमल मारे गये इस प्रकार इस राज्य की समाप्ति हुई.

तंवरावाटी और तंवर ठिकाने ---------------
देहली में तोमरो के पतन के बाद तोमर राजपूत विभिन्न दिशाओ में फ़ैल गए। एक शाखा ने उत्तरी राजस्थान के पाटन में जाकर अपना राज स्थापित किया जो की जयपुर राज्य का एक भाग था। ये अब 'तँवरवाटी'(तोरावाटी) कहलाता है और वहाँ तँवरों के ठिकाने हैं। मुख्य ठिकाना पाटण का ही है,एक ठिकाना खेतासर भी है,इनके अलावा पोखरण में भी तंवर राजपूतो के ठिकाने हैं,बाबा रामदेव तंवर वंश से ही थे जो बहुत बड़े संत माने जाते हैं,आज भी वो पीर के रूप में पूजे जाते हैं.

मेवाड़ के सलुम्बर में भी तंवर राजपूतो के कई ठिकाने हैं जिनमे बोरज तंवरान एक ठिकाना है,
इसके अतिरिक्त हिमाचल प्रदेश में बेजा ठिकाना और कोटि जेलदारी,बीकानेर में दाउदसर ठिकाना,mandholi जागीर,भी तंवर राजपूतो के ठिकाने हैं,धौलपुर की स्थापना भी तंवर राजपूत धोलनदेव ने की थी। 18 वी सदी के आसपास अंग्रेजो ने जाटों को धौलपुर दे दिया। ये जाट गोहद से सिंधिया द्वारा विस्थापित किये गए थे और पूर्व में इनके पूर्वज राजा मानसिंह तोमर की सेवा में थे और उनके द्वारा ही इन्हें गोहद में बसाया गया था।अब भी धौलपुर में कायस्थपाड़ा तंवर राजपूतो का ठिकाना है।

तंवरवंश की शाखाएँ------
तंवर वंश की प्रमुख शाखाएँ रुनेचा,ग्वेलेरा,बेरुआर,बिल्दारिया,खाति,इन्दोरिया,जाटू,जंघहारा,सोमवाल हैं,इसके अतिरिक्त पठानिया वंश भी पांडव वंश ही माना जाता है,इसका प्रसिद्ध राज्य नूरपुर है,इसमें वजीर राम सिंह पठानिया बहुत प्रसिद्ध यौद्धा हुए हैं.जिन्होंने अंग्रेजो को नाको चने चबवा दिए थे.
इन शाखाओं में रूनेचा राजस्थान में,ग्वेलेरा चम्बल क्षेत्र में,बेरुआर यूपी बिहार सीमा पर,बिलदारिया कानपूर उन्नाव के पास,इन्दोरिया मथुरा, बुलन्दशहर,आगरा में मिलते हैं,मेरठ मुजफरनगर के सोमाल वंश भी पांडव वंश माना जाता है,जाटू तंवर राजपूतो की भिवानी हरियाणा में 1440 गाँव की रियासत थी,इस शाखा के तंवर राजपूत हरियाणा में मिलते हैं,जंघारा राजपूत यूपी के अलीगढ,बदायूं,बरेली शाहजहांपुर आदि जिलो में मिलते हैं,ये बहुत वीर यौद्धा माने जाते हैं इन्होने रुहेले पठानों को कभी चैन से नहीं बैठने दिया,और अहिरो को भगाकर अपना राज स्थापित किया...
पूर्वी उत्तर प्रदेश का जनवार राजपूत वंश भी पांडववंशी जन्मेजय का वंशज माना जाता है। इस वंश की बलरामपुर समेत कई बड़ी स्टेट पूर्वी यूपी में हैं।
इनके अतिरिक्त पाकिस्तान में मुस्लिम जंजुआ राजपूत भी पांडव वंशी कहे जाते हैं जंजुआ वंश ही शाही वंश था जिसमे जयपाल,आनंदपाल,जैसे वीर हुए जिन्होंने तुर्क महमूद गजनवी का मुकाबला बड़ी वीरता से किया था,जंजुआ राजपूत बड़े वीर होते हैं और पाकिस्तान की सेना में इनकी बडी संख्या में भर्ती होती है.इसके अलावा वहां का जर्राल वंश भी खुद को पांडव वंशी मानता है,
मराठो में भी एक वंश तंवरवंशी है जो तावरे या तावडे कहलाता है ,महादजी सिंधिया का एक सेनापति फाल्किया खुद को बड़े गर्व से तंवर वंशी मानता था.

तोमर/तंवर राजपूतो की वर्तमान आबादी-------

तोमर राजपूत वंश और इसकी सभी शाखाएँ न सिर्फ भारत बल्कि पाकिस्तान में भी बड़ी संख्या में मिलती है,चम्बल क्षेत्र में ही तोमर राजपूतो के 1400 गाँव हैं,इसके अलावा पश्चिमी उत्तर प्रदेश के पिलखुआ के पास तोमरो के 84 गाँव हैं,भिवानी में 84 गाँव जिनमे बापोड़ा प्रमुख है,,मेरठ में गढ़ रोड पर 12 गाँव जिनमे सिसोली और बढ्ला बड़े गाँव हैं,
कुरुक्षेत्र में 12 गाँव,गढ़मुक्तेश्वर में 42 गाँव हैं जिनमे भदस्याना और भैना प्रसिद्ध हैं. बुलन्दशहर में 24 गाँव,खुर्जा के पास 5 गाँव तोमर राजपूतो के हैं,हरियाणा में मेवात के नूह के पास 24 गाँव हैं जिनमे बिघवाली प्रमुख है.
ये सिर्फ वेस्ट यूपी और हरियाणा का थोडा सा ही विवरण दिया गया है,इनकी जनसँख्या का,अगर इनकी सभी प्रदेशो और पाकिस्तान में हर शाखाओ की संख्या जोड़ दी जाये तो इनके कुल गाँव की संख्या कम से कम 6000 होगी,चौहान राजपूतो के अलावा राजपूतो में शायद ही कोई वंश होगा जिसकी इतनी बड़ी संख्या हो.

जाट, गूजर और अहीर में तोमर राजपूतो से निकले गोत्र-----------

कुछ तोमर राजपूत अवनत होकर या तोमर राजपूतो के दूसरी जाती की स्त्रियों से सम्बन्ध होने से तोमर वंश जाट, गूजर और अहीर जैसी जातियो में भी चला गया।जाटों में कई गोत्र है जो अपने को तोमर राजपूतो से निकला हुआ मानते है जैसे सहरावत ,राठी ,पिलानिया, नैन, मल्लन,बेनीवाल, लाम्बा,खटगर, खरब, ढंड, भादो, खरवाल, सोखिरा,ठेनुवा,रोनिल,सकन,बेरवाल और नारू। ये लोग पहले तोमर या तंवर उपनाम नहीँ लगाते थे लेकिन इनमे से कई गोत्र अब तोमर या तंवर लगाने लगे है। उत्तर प्रदेश के बड़ौत क्षेत्र के सलखलेन् जाट भी अपने को किसी सलखलेन् का वंशज बताते है जिसे ये अनंगपाल तोमर का धेवता बताते है और इस आधार पर अपने को तोमर बताने लगे है।गूँजरो में भी तोमर राजपूतो के अवशेष मिलते है। खटाना गूजर अपने को तोमर राजपूतो से निकला हुआ मानते है। ग्वालियर के पास तोंगर गूजर मिलते है जो ग्वालियर के राजा मान सिंह तोमर की गूजरी रानी मृगनयनी के वंशज है जिन्हें गूजरी माँ की औलाद होने के कारण राजपूतों ने स्वीकार नहीँ किया। दक्षिणी दिल्ली में भी तँवर गूजरों के गाँव मिलते है। मुस्लिम शाशनकाल में जब तोमर राजपूत दिल्ली से निष्काषित होकर बाकी जगहों पर राज करने चले गए तो उनमे से कुछ ने गूजर में शादी ब्याह कर मुस्लिम शासकों के अधीन रहना स्वीकार किया।इसके अलावा सहारनपुर में छुटकन गुर्जर भी खुद को तंवर वंश से निकला मानते हैं और करनाल,पानीपत ,सोहना के पास भी कुछ गुज्जर इसी तरह तंवर सरनेम लिखने लगे हैं,हरयाणा के अहिरो में भी दयार गोत्र मिलती है जो अपने को तोमर राजपूतो से निकला हुआ मानते है।दिल्ली में रवा राजपूत समाज में भी तंवर वंश शामिल हो गया है.....

इस प्रकार हम देखते हैं कि चन्द्रवंशी पांडव वंश तोमर/तंवर राजपूतो का इतिहास बहुत शानदार रहा है,वर्तमान में भी तोमर राजपूत राजनीति,सेना,प्रशासन,में अपना दबदबा कायम किये हुए है,पूर्व थलसेनाध्यक्ष जनरल वी के सिंह भिवानी हरियाणा के तंवर राजपूत हैं,और आज केंद्र सरकार में मंत्री भी हैं,मध्य प्रदेश के नरेंद्र सिंह तोमर भी केंद्र सरकार में मंत्री हैं,प्रसिद्ध एथलीट और बाद में मशहूर बागी पान सिंह तोमर के बारे में सभी जानते ही हैं,स्वतंत्रता सेनानी रामप्रसाद बिस्मिल भी तोमर राजपूत थे,इनके अतिरिक्त सैंकड़ो राजनीतिज्ञ,प्रशासनिक अधिकारी,समाजसेवी,सैन्य अधिकारी,खिलाडी तंवर वंशी राजपूत हैं 
तोमर क्षत्रिय राजपूतो के बारे में कहा गया है की 

"अर्जुन के सुत सो अभिमन्यु नाम उदार.
तिन्हते उत्तम कुल भये तोमर क्षत्रिय उदार."

सोर्स-------------
ईश्वर सिंह मडाड; राजपूत वंशावली 
महेंद्र सिंह खेतासर जी की तंवर/तोमर राजवंश का राजनितिक और सांस्कृतिक इतिहास 
दशरथ शर्मा : दिल्ली का तोमर राज्य, राजस्थान भारती, भाग ३, अंक ३, ४, पृo १७२६;
गौरीशंकर हीराचंद ओझा : राजपूताने का इतिहास, पहला भाग, पृo २६४-२६८।
books.google.es/books/about/Prithviraj_raso.html?id=4ymMbwAACAAJ&redir_esc=y
Rajputane ka Itihas ( History of Rajputana), Publisher: Vaidika Yantralaya, Ajmer 1927.
www.forgottenbooks.com/books/District_Gazetteers_of_the_United_Provinces_of_Agra_and_Oudh_v4_1000724877
https://archive.org/details/tribesandcastes03croogoog
https://archive.org/details/glossaryoftribes03rose
https://archive.org/details/glossaryoftribes03rose
www.forgottenbooks.com/books/District_Gazetteers_of_the_United_Provinces_of_Agra_and_Oudh_v4_1000724877
https://archive.org/details/glossaryoftribes03rose
http://www.khabarexpress.com/Gwalior-Ki-Gujari-Rani-article_480.html
http://www.southasiaarchive.com/Content/sarf.100009/223005
https://archive.org/details/glossaryoftribes03rose

संलग्न फोटो में ------महाराजा अनंगपाल,अर्जुन-श्रीकृष्ण,बाबा रामदेव पीर,राजा रामशाह तंवर,विक्रमादित्य तंवर,शालिवाहन तंवर,ग्वालियर किला,केन्द्रीय मन्त्री जनरल वी के सिंह तंवर और नरेंद्र सिंह तोमर जी।
संलग्न फोटो में ------महाराजा अनंगपाल,अर्जुन-श्रीकृष्ण,बाबा रामदेव पीर,राजा रामशाह तंवर,विक्रमादित्य तंवर,शालिवाहन तंवर,ग्वालियर किला,केन्द्रीय मन्त्री जनरल वी के सिंह तंवर और नरेंद्र सिंह तोमर जी।

तोमर या तंवर उत्तर-पश्चिम भारत का एक राजपूत वंश है। तोमर राजपूत क्षत्रियो में चन्द्रवंश की एक शाखा है और इन्हें पाण्डु पुत्र अर्जुन का वंशज माना जाता है.इनका गोत्र अत्री एवं व्याघ्रपद अथवा गार्गेय्य होता है। क्षत्रिय वंश भास्कर,पृथ्वीराज रासो,बीकानेर वंशावली में भी यह वंश चन्द्रवंशी लिखा हुआ है,यही नहीं कर्नल जेम्स टॉड जैसे विदेशी इतिहासकार भी तंवर वंश को पांडव वंश ही मानते हैं.
उत्तर मध्य काल में ये वंश बहुत ताकतवर वंश था और उत्तर पश्चिमी भारत के बड़े हिस्से पर इनका शाशन था। देहली जिसका प्राचीन नाम ढिल्लिका था, इस वंश की राजधानी थी और उसकी स्थापना का श्रेय इसी वंश को जाता है।



नामकरण---------
तंवर अथवा तोमर वंश के नामकरण की कई मान्यताएं प्रचलित हैं,कुछ विद्वानों का मानना है कि राजा तुंगपाल के नाम पर तंवर वंश का नाम पड़ा,पर सर्वाधिक उपयुक्त मान्यता ये प्रतीत होती है

इतिहासकार ईश्वर सिंह मडाड की राजपूत वंशावली के पृष्ठ संख्या 228 के अनुसार,,,,,,,
"पांडव वंशी अर्जुन ने नागवंशी क्षत्रियो को अपना दुश्मन बना लिया था,नागवंशी क्षत्रियो ने पांड्वो को मारने का प्रण ले लिया था,पर पांडवो के राजवैध धन्वन्तरी के होते हुए वे पांड्वो का कुछ न बिगाड़ पाए !अतः उन्होंने धन्वन्तरी को मार डाला !इसके बाद अभिमन्यु पुत्र परीक्षित को मार डाला !परीक्षित के बाद उसका पुत्र जन्मेजय राजा बना !अपने पिता का बदला लेने के लिए जन्मेजय ने नागवंश के नो कुल समाप्त कर दिए !नागवंश को समाप्त होता देख उनके गुरु आस्तिक जो की जत्कारू के पुत्र थे,जन्मेजय के दरबार मैं गए व् सुझाव दिया की किसी वंश को समूल नष्ट नहीं किया जाना चाहिए व सुझाव दिया की इस हेतु आप यज्ञ करे !महाराज जन्मेजय के पुरोहित कवष के पुत्र तुर इस यज्ञ के अध्यक्ष बने !इस यग्य में जन्मेजय के पुत्र,पोत्र अदि दीक्षित हुए !क्योकि इन सभी को तुर ने दीक्षित किया था इस कारण ये पांडव तुर,तोंर या बाद तांवर तंवर या तोमर कहलाने लगे !ऋषि तुर द्वारा इस यज्ञ का वर्णन पुराणों में भी मिलता है.

महाभारत काल के बाद तंवर वंश का वर्णन----------

महाभारत काल के बाद पांडव वंश का वर्णन पहले तो 1000 ईसा पूर्व के ग्रंथो में आता है जब हस्तिनापुर राज्य को युधिष्ठर वंश बताया गया,पर इसके बाद से लेकर बौद्धकाल,मौर्य युग से लेकर गुप्तकाल तक इस वंश के बारे में कोई जानकारी नहीं मिलती,समुद्रगुप्त के शिलालेख से पाता चलता है कि उन्होंने मध्य और पश्चिम भारत की यौधेय और अर्जुनायन क्षत्रियों को अपने अधीन किया था,यौधेय वंश युधिष्ठर का वंश माना जा सकता है और इसके वंशज आज भी चन्द्रवंशी जोहिया राजपूत कहलाते हैं जो अब अधिकतर मुसलमान हो गए हैं,इन्ही के आसपास रहने वाले अर्जुनायन को अर्जुन का वंशज माना जा सकता है और ये उसी क्षेत्रो में पाए जाते थे जहाँ आज भी तंवरावाटी और तंवरघार है,यानि पांडव वंश ही उस समय तक अर्जुनायन के नाम से जाना जाता था और कुछ समय बाद वही वंश अपने पुरोहित ऋषि तुर द्वारा यज्ञ में दीक्षित होने पर तुंवर, तंवर,तूर,या तोमर के नाम से जाना गया.(इतिहासकार महेन्द्र सिंह तंवर खेतासर भी अर्जुनायन को ही तंवर वंश मानते हैं)

तंवर वंश और दिल्ली की स्थापना ------------

ईश्वर का चमत्कार देखिये कि हजारो साल बाद पांडव वंश को पुन इन्द्रप्रस्थ को बसाने का मौका मिला,और ये श्रेय मिला अनंगपाल तोमर प्रथम को.
दिल्ली के तोमर शासको के अधीन दिल्ली के अलावा पंजाब ,हरियाणा,पश्चिमी उत्तर प्रदेश भी था,इनके छोटे राज्य पिहोवा,सूरजकुंड,हांसी,थानेश्वर में होने के भी अभिलेखों में उल्लेख मिलते हैं.इस वंश ने बड़ी वीरता के साथ तुर्कों का सामना किया और कई सदी तक उन्हें अपने क्षेत्र में अतिक्रमण करने नहीं दिया

दिल्ली के तंवर(तोमर) शासक (736-1193 ई)------

1.अनगपाल तोमर प्रथम (736-754 ई)-दिल्ली के संस्थापक राजा थे जिनके अनेक नाम मिलते हैं जैसे बीलनदेव, जाऊल इत्यादि।
2.राजा वासुदेव (754-773)
3.राजा गंगदेव (773-794)
4.राजा पृथ्वीमल (794-814)-बंगाल के राजा धर्म पाल के साथ युद्ध
5.जयदेव (814-834)
6.राजा नरपाल (834-849)
7.राजा उदयपाल (849-875)
8.राजा आपृच्छदेव (875-897)
9.राजा पीपलराजदेव (897-919)
10.राज रघुपाल (919-940)
11.राजा तिल्हणपाल (940-961)
12.राजा गोपाल देव (961-979)-इनके समय साम्भर के राजा सिहराज और लवणखेडा के तोमर सामंत सलवण के मध्य युद्ध हुआ जिसमें सलवण मारा गया तथा उसके पश्चात दिल्ली के राजा गोपाल देव ने सिंहराज पर आक्रमण करके उन्हें युद्ध में मारा

12.सुलक्षणपाल तोमर (979-1005)-महमूद गजनवी के साथ युद्ध किया
13.जयपालदेव (1005-1021)-महमूद गजनवी के साथ युद्ध किया, महमूद ने थानेश्वसर ओर मथुरा को लूटा
14.कुमारपाल (1021-1051)-मसूद के साथ युद्ध किया और 1038 में हाँसी के गढ का पतन हुआ, पाच वर्ष बाद कुमारपाल ने हासी, थानेश्वसर के साथ साथ कांगडा भी जीत लिया

16.अनगपाल द्वितीय (1051-1081)-लालकोट का निर्माण करवाया और लोह स्तंभ की स्थापना की, अनंगपाल द्वितीय ने 27 महल और मन्दिर बनवाये थे।दिल्ली सम्राट अनगपाल द्वितीय ने तुर्क इबराहीम को पराजित किया

17.तेजपाल प्रथम(1081-1105)
18.महिपाल(1105-1130)-महिलापुर बसाया और शिव मंदिर का निर्माण करवाया
19.विजयपाल (1130-1151)-मथुरा में केशवदेव का मंदिर

20.मदनपाल(1151-1167)-
मदनपाल अथवा अनंगपाल तृतीय के समय अजमेर के प्रतापी शासक विग्रहराज चौहान उर्फ़ बीसलदेव ने दिल्ली राज्य पर अपना अधिकार कर लिया और संधि के कारण मदनपाल को ही दिल्ली का शासक बना रहने दिया,मदनपाल ने बीसलदेव के साथ मिलकर तुर्कों के हमलो के विरुद्ध युद्ध किया और उन्हें मार भगाया,मदलपाल तोमर ने विग्रहराज चौहान उर्फ़ बीसलदेव के शोर्य से प्रभावित होकर उससे अपनी पुत्री देसलदेवी का विवाह किया,पृथ्वीराज रासो में बाद में किसी ने काल्पनिक कहानी जोड़ दी है कि दिल्ली के राजा अनंगपाल ने अपनी दो पुत्रियों की शादी एक कन्नौज के जयचंद के साथ और दूसरी कमला देवी का विवाह पृथ्वीराज चौहान के साथ की,जिससे पृथ्वीराज चौहान का जन्म हुआ,जबकि सबसे प्रमाणिक ग्रन्थ पृथ्वीराज विजय के अनुसार सच्चाई ये है कि पृथ्वीराज चौहान की माता चेदी राज्य की कर्पूरी देवी थी,और पृथ्वीराज चौहान न तो अनंगपाल तोमर का धेवता था न ही जयचंद उसका मौसा था,ये सारी कहानी काल्पनिक थी.

21.पृथ्वीराज तोमर(1167-1189)-अजमेर के राजा सोमेश्वर और पृथ्वीराज चव्हाण इनके समकालीन थे
22.चाहाडपाल/गोविंदराज (1189-1192)-पृथ्वीराज चौहान के साथ मिलकर गोरी के साथ युद्ध किया,तराईन दुसरे युद्ध मे मारा गया।पृथ्वीराज रासो के अनुसार
तराईन के पहले युद्ध में मौहम्मद गौरी और गोविन्दराज तोमर का आमना सामना हुआ था,जिसमे दोनों घायल हुए थे और गौरी भाग रहा था। भागते हुए गौरी को धीरसिंह पुंडीर ने पकडकर बंदी बना लिया था। जिसे उदारता दिखाते हुए पृथ्वीराज चौहान ने छोड़ दिया। हालाँकि गौरी के मुस्लिम इतिहासकार इस घटना को छिपाते हैं।

23.तेजपाल द्वितीय (1192-1193 ई)-दिल्ली का अन्तिम तोमर राजा , जिन्होंने स्वतन्त्र 15 दिन तक शासन किया, और कुतुबुद्दीन ने दिल्ली पर आक्रमण कर हमेशा के लिए दिल्ली पर कब्जा कर लिया।

ग्वालियर,चम्बल,ऐसाह गढ़ी का तोमर वंश--------------

दिल्ली छूटने के बाद वीर सिंह तंवर ने चम्बल घाटी के ऐसाह गढ़ी में अपना राज स्थापित किया जो इससे पहले भी अर्जुनायन तंवर वंश के समय से उनके अधिकार में था,बाद में इस वंश ने ग्वालियर पर भी अधिकार कर मध्य भारत में एक बड़े राज्य की स्थापना की,यह शाखा ग्वालियर स्थापना के कारण ग्वेलेरा कहलाती है,माना जाता है कि ग्वालियर का विश्वप्रसिद्ध किला भी तोमर शासको ने बनवाया था.यह क्षेत्र आज भी तंवरघार कहा जाता है और इस क्षेत्र में तोमर राजपूतो के 1400 गाँव कहे जाते हैं.
वीर सिंह के बाद उद्दरण,वीरम,गणपति,डूंगर सिंह,कीर्तिसिंह,कल्याणमल,और राजा मानसिंह हुए,
राजा मानसिंह तोमर बड़े प्रतापी शासक हुए,उनके दिल्ली के सुल्तानों से निरंतर युद्ध हुए,उनकी नो रानियाँ राजपूत थी,पर एक दीनहींन गुज्जर जाति की लडकी मृगनयनी पर मुग्ध होकर उससे भी विवाह कर लिया,जिसे नीची जाति की मानकर रानियों ने महल में स्थान देने से मना कर दिया जिसके कारण मानसिंह ने छोटी जाति की होते हुए भी मृगनयनी गूजरी के लिए अलग से ग्वालियर में गूजरी महल बनवाया.इस गूजरी रानी पर राजपूत राजा मानसिंह इतने आसक्त थे कि गूजरी महल तक जाने के लिए उन्होंने एक सुरंग भी बनवाई थी,जो अभी भी मौजूद है पर इसे अब बंद कर दिया गया है.
मानसिंह के बाद विक्रमादित्य राजा हुए,उन्होंने पानीपत की लड़ाई में अपना बलिदान दिया,उनके बाद रामशाह तोमर राजा हुए,उनका राज्य 1567 ईस्वी में अकबर ने जीत लिया,इसके बाद राजा रामशाह तोमर ने मुगलों से कोई संधि नहीं की और अपने परिवार के साथ महाराणा उदयसिंह मेवाड़ के पास आ गए,हल्दीघाटी के युद्ध में राजा रामशाह तोमर ने अपने पुत्र शालिवाहन तोमर के साथ वीरता का असाधारण प्रदर्शन कर अपने परिवारजनों समेत महान बलिदान दिया,उनके बलिदान को आज भी मेवाड़ राजपरिवार द्वारा आदरपूर्वक याद किया जाता है.

मालवा में रायसेन में भी तंवर राजपूतो का शासन था ,यहाँ के शासक सिलहदी उर्फ़ शिलादित्य तंवर राणा सांगा के दामाद थे और खानवा के युद्ध में राणा सांगा की और से लडे थे,कुछ इतिहासकार इन पर राणा सांगा से धोखे का भी आरोप लगाते हैं ,पर इसके प्रमाण पुष्ट नही हैं,सिल्ह्दी पर गुजरात के बादशाह बहादुर शाह ने 1532 इसवी में हमला किया,इस हमले में सिलहदी तंवर की पत्नी जो राणा सांगा की पुत्री थी उन्होंने 700 राजपूतानियो और अपने दो छोटे बच्चों के साथ जौहर किया और सिल्हदी तंवर अपने भाई के साथ वीरगति को प्राप्त हुए,
बाद में रायसेन को पूरनमल को दे दिया गया,कुछ वर्षो बाद 1543 इसवी में रायसेन के मुल्लाओ की शिकायत पर शेरशाह सूरी ने इसके राज्य पर हमला किया और पूरणमल की रानियों ने जौहर कर लिया और पूरणमल मारे गये इस प्रकार इस राज्य की समाप्ति हुई.

तंवरावाटी और तंवर ठिकाने ---------------
देहली में तोमरो के पतन के बाद तोमर राजपूत विभिन्न दिशाओ में फ़ैल गए। एक शाखा ने उत्तरी राजस्थान के पाटन में जाकर अपना राज स्थापित किया जो की जयपुर राज्य का एक भाग था। ये अब 'तँवरवाटी'(तोरावाटी) कहलाता है और वहाँ तँवरों के ठिकाने हैं। मुख्य ठिकाना पाटण का ही है,एक ठिकाना खेतासर भी है,इनके अलावा पोखरण में भी तंवर राजपूतो के ठिकाने हैं,बाबा रामदेव तंवर वंश से ही थे जो बहुत बड़े संत माने जाते हैं,आज भी वो पीर के रूप में पूजे जाते हैं.

मेवाड़ के सलुम्बर में भी तंवर राजपूतो के कई ठिकाने हैं जिनमे बोरज तंवरान एक ठिकाना है,
इसके अतिरिक्त हिमाचल प्रदेश में बेजा ठिकाना और कोटि जेलदारी,बीकानेर में दाउदसर ठिकाना,mandholi जागीर,भी तंवर राजपूतो के ठिकाने हैं,धौलपुर की स्थापना भी तंवर राजपूत धोलनदेव ने की थी। 18 वी सदी के आसपास अंग्रेजो ने जाटों को धौलपुर दे दिया। ये जाट गोहद से सिंधिया द्वारा विस्थापित किये गए थे और पूर्व में इनके पूर्वज राजा मानसिंह तोमर की सेवा में थे और उनके द्वारा ही इन्हें गोहद में बसाया गया था।अब भी धौलपुर में कायस्थपाड़ा तंवर राजपूतो का ठिकाना है।

तंवरवंश की शाखाएँ------
तंवर वंश की प्रमुख शाखाएँ रुनेचा,ग्वेलेरा,बेरुआर,बिल्दारिया,खाति,इन्दोरिया,जाटू,जंघहारा,सोमवाल हैं,इसके अतिरिक्त पठानिया वंश भी पांडव वंश ही माना जाता है,इसका प्रसिद्ध राज्य नूरपुर है,इसमें वजीर राम सिंह पठानिया बहुत प्रसिद्ध यौद्धा हुए हैं.जिन्होंने अंग्रेजो को नाको चने चबवा दिए थे.
इन शाखाओं में रूनेचा राजस्थान में,ग्वेलेरा चम्बल क्षेत्र में,बेरुआर यूपी बिहार सीमा पर,बिलदारिया कानपूर उन्नाव के पास,इन्दोरिया मथुरा, बुलन्दशहर,आगरा में मिलते हैं,मेरठ मुजफरनगर के सोमाल वंश भी पांडव वंश माना जाता है,जाटू तंवर राजपूतो की भिवानी हरियाणा में 1440 गाँव की रियासत थी,इस शाखा के तंवर राजपूत हरियाणा में मिलते हैं,जंघारा राजपूत यूपी के अलीगढ,बदायूं,बरेली शाहजहांपुर आदि जिलो में मिलते हैं,ये बहुत वीर यौद्धा माने जाते हैं इन्होने रुहेले पठानों को कभी चैन से नहीं बैठने दिया,और अहिरो को भगाकर अपना राज स्थापित किया...
पूर्वी उत्तर प्रदेश का जनवार राजपूत वंश भी पांडववंशी जन्मेजय का वंशज माना जाता है। इस वंश की बलरामपुर समेत कई बड़ी स्टेट पूर्वी यूपी में हैं।
इनके अतिरिक्त पाकिस्तान में मुस्लिम जंजुआ राजपूत भी पांडव वंशी कहे जाते हैं जंजुआ वंश ही शाही वंश था जिसमे जयपाल,आनंदपाल,जैसे वीर हुए जिन्होंने तुर्क महमूद गजनवी का मुकाबला बड़ी वीरता से किया था,जंजुआ राजपूत बड़े वीर होते हैं और पाकिस्तान की सेना में इनकी बडी संख्या में भर्ती होती है.इसके अलावा वहां का जर्राल वंश भी खुद को पांडव वंशी मानता है,
मराठो में भी एक वंश तंवरवंशी है जो तावरे या तावडे कहलाता है ,महादजी सिंधिया का एक सेनापति फाल्किया खुद को बड़े गर्व से तंवर वंशी मानता था.

तोमर/तंवर राजपूतो की वर्तमान आबादी-------

तोमर राजपूत वंश और इसकी सभी शाखाएँ न सिर्फ भारत बल्कि पाकिस्तान में भी बड़ी संख्या में मिलती है,चम्बल क्षेत्र में ही तोमर राजपूतो के 1400 गाँव हैं,इसके अलावा पश्चिमी उत्तर प्रदेश के पिलखुआ के पास तोमरो के 84 गाँव हैं,भिवानी में 84 गाँव जिनमे बापोड़ा प्रमुख है,,मेरठ में गढ़ रोड पर 12 गाँव जिनमे सिसोली और बढ्ला बड़े गाँव हैं,
कुरुक्षेत्र में 12 गाँव,गढ़मुक्तेश्वर में 42 गाँव हैं जिनमे भदस्याना और भैना प्रसिद्ध हैं. बुलन्दशहर में 24 गाँव,खुर्जा के पास 5 गाँव तोमर राजपूतो के हैं,हरियाणा में मेवात के नूह के पास 24 गाँव हैं जिनमे बिघवाली प्रमुख है.
ये सिर्फ वेस्ट यूपी और हरियाणा का थोडा सा ही विवरण दिया गया है,इनकी जनसँख्या का,अगर इनकी सभी प्रदेशो और पाकिस्तान में हर शाखाओ की संख्या जोड़ दी जाये तो इनके कुल गाँव की संख्या कम से कम 6000 होगी,चौहान राजपूतो के अलावा राजपूतो में शायद ही कोई वंश होगा जिसकी इतनी बड़ी संख्या हो.

जाट, गूजर और अहीर में तोमर राजपूतो से निकले गोत्र-----------

कुछ तोमर राजपूत अवनत होकर या तोमर राजपूतो के दूसरी जाती की स्त्रियों से सम्बन्ध होने से तोमर वंश जाट, गूजर और अहीर जैसी जातियो में भी चला गया।जाटों में कई गोत्र है जो अपने को तोमर राजपूतो से निकला हुआ मानते है जैसे सहरावत ,राठी ,पिलानिया, नैन, मल्लन,बेनीवाल, लाम्बा,खटगर, खरब, ढंड, भादो, खरवाल, सोखिरा,ठेनुवा,रोनिल,सकन,बेरवाल और नारू। ये लोग पहले तोमर या तंवर उपनाम नहीँ लगाते थे लेकिन इनमे से कई गोत्र अब तोमर या तंवर लगाने लगे है। उत्तर प्रदेश के बड़ौत क्षेत्र के सलखलेन् जाट भी अपने को किसी सलखलेन् का वंशज बताते है जिसे ये अनंगपाल तोमर का धेवता बताते है और इस आधार पर अपने को तोमर बताने लगे है।गूँजरो में भी तोमर राजपूतो के अवशेष मिलते है। खटाना गूजर अपने को तोमर राजपूतो से निकला हुआ मानते है। ग्वालियर के पास तोंगर गूजर मिलते है जो ग्वालियर के राजा मान सिंह तोमर की गूजरी रानी मृगनयनी के वंशज है जिन्हें गूजरी माँ की औलाद होने के कारण राजपूतों ने स्वीकार नहीँ किया। दक्षिणी दिल्ली में भी तँवर गूजरों के गाँव मिलते है। मुस्लिम शाशनकाल में जब तोमर राजपूत दिल्ली से निष्काषित होकर बाकी जगहों पर राज करने चले गए तो उनमे से कुछ ने गूजर में शादी ब्याह कर मुस्लिम शासकों के अधीन रहना स्वीकार किया।इसके अलावा सहारनपुर में छुटकन गुर्जर भी खुद को तंवर वंश से निकला मानते हैं और करनाल,पानीपत ,सोहना के पास भी कुछ गुज्जर इसी तरह तंवर सरनेम लिखने लगे हैं,हरयाणा के अहिरो में भी दयार गोत्र मिलती है जो अपने को तोमर राजपूतो से निकला हुआ मानते है।दिल्ली में रवा राजपूत समाज में भी तंवर वंश शामिल हो गया है.....

इस प्रकार हम देखते हैं कि चन्द्रवंशी पांडव वंश तोमर/तंवर राजपूतो का इतिहास बहुत शानदार रहा है,वर्तमान में भी तोमर राजपूत राजनीति,सेना,प्रशासन,में अपना दबदबा कायम किये हुए है,पूर्व थलसेनाध्यक्ष जनरल वी के सिंह भिवानी हरियाणा के तंवर राजपूत हैं,और आज केंद्र सरकार में मंत्री भी हैं,मध्य प्रदेश के नरेंद्र सिंह तोमर भी केंद्र सरकार में मंत्री हैं,प्रसिद्ध एथलीट और बाद में मशहूर बागी पान सिंह तोमर के बारे में सभी जानते ही हैं,स्वतंत्रता सेनानी रामप्रसाद बिस्मिल भी तोमर राजपूत थे,इनके अतिरिक्त सैंकड़ो राजनीतिज्ञ,प्रशासनिक अधिकारी,समाजसेवी,सैन्य अधिकारी,खिलाडी तंवर वंशी राजपूत हैं
तोमर क्षत्रिय राजपूतो के बारे में कहा गया है की

"अर्जुन के सुत सो अभिमन्यु नाम उदार.
तिन्हते उत्तम कुल भये तोमर क्षत्रिय उदार."

सोर्स-------------
ईश्वर सिंह मडाड; राजपूत वंशावली
महेंद्र सिंह खेतासर जी की तंवर/तोमर राजवंश का राजनितिक और सांस्कृतिक इतिहास
दशरथ शर्मा : दिल्ली का तोमर राज्य, राजस्थान भारती, भाग ३, अंक ३, ४, पृo १७२६;
गौरीशंकर हीराचंद ओझा : राजपूताने का इतिहास, पहला भाग, पृo २६४-२६८।
books.google.es/books/about/Prithviraj_raso.html?id=4ymMbwAACAAJ&redir_esc=y
Rajputane ka Itihas ( History of Rajputana), Publisher: Vaidika Yantralaya, Ajmer 1927.
www.forgottenbooks.com/books/District_Gazetteers_of_the_United_Provinces_of_Agra_and_Oudh_v4_1000724877
https://archive.org/details/tribesandcastes03croogoog
https://archive.org/details/glossaryoftribes03rose
https://archive.org/details/glossaryoftribes03rose
www.forgottenbooks.com/books/District_Gazetteers_of_the_United_Provinces_of_Agra_and_Oudh_v4_1000724877
https://archive.org/details/glossaryoftribes03rose
http://www.khabarexpress.com/Gwalior-Ki-Gujari-Rani-article_480.html
http://www.southasiaarchive.com/Content/sarf.100009/223005
https://archive.org/details/glossaryoftribes03rose

KING RAMSHAH TANWAR

ग्वालियर पर मुगलों का अधिकार होने के बाद राजा रामशाह तंवर अपने परिवार और कुछ विश्वासपात्र सैनिको के साथ मेवाड़ आ गए थे,मेवाड़ में महाराणा प्रताप ने उनका स्वागत किया,राजा रामशाह तंवर के पुत्र शालिवाहन तंवर महाराणा प्रताप के बहनोई थे,
हल्दीघाटी के युद्ध से पूर्व की घटनाएँ-------
Photo: कृपया इस पोस्ट को ज्यादा से ज्यादा शेयर करें..................

------राजा रामशाह तंवर और हल्दीघाटी का युद्ध ------
==================================
मित्रों पिछली पोस्ट में हम तंवर/तोमर वंश की उत्पत्ति और इतिहास पर प्रकाश डाल चुके हैं,आज हम भारतवर्ष के इतिहास में महाभारत के बाद सबसे प्रसिद्ध हल्दीघाटी युद्ध में राजा रामशाह तंवर और उनके परिवार के महान बलिदान पर जानकारी देंगे................
==================================
हम पहले बता ही चुके हैं कि ग्वालियर पर मुगलों का अधिकार होने के बाद राजा रामशाह तंवर अपने परिवार और कुछ विश्वासपात्र सैनिको के साथ मेवाड़ आ गए थे,मेवाड़ में महाराणा प्रताप ने उनका स्वागत किया,राजा रामशाह तंवर के पुत्र शालिवाहन तंवर महाराणा प्रताप के बहनोई थे,
हल्दीघाटी के युद्ध से पूर्व की घटनाएँ-------

मुगल सम्राट अकबर ने धीरे धीरे पुरे उत्तर भारत पर अपना अधिकार कर लिया था,राजस्थान में भी आमेर,मारवाड़ जैसे बड़े राज्यों ने अकबर की अधीनता स्वीकार कर ली थी,परन्तु स्वाभिमानी महाराणा प्रताप ने बड़े प्रलोभनों और दबाव के बावजूद अकबर की अधीनता स्वीकार करने से इनकार कर दिया ,
अकबर ने वर्ष 1576 इसवी की गर्मियों में मानसिंह और आसफखान को एक बड़ी सेना के साथ मेवाड़ पर हमला करने के लिए भेजा,
अकबर की इस योजना की सबसे पहले जानकारी कुम्भलगढ़ के रामशाह तंवर के सैनिक शिविर में पहुंची,उन्होंने तुरंत अपने पुत्र शालिवाहन को इसकी सूचना देने के लिए महाराणा प्रताप के पास भेजा ,प्रताप ने बिना विचलित हुए इस हमले की खबर सुनकर इसका सामना करने के लिए सब सरदारों को रामशाह की हवेली पर बुलाया,इस बैठक में राव संग्राम,कल्याण चूंडावत,बीदा झाला,भीम डोड,युवराज अमरसिंह,भामाशाह,हरदास चौहान आदि वीर एकत्रित हुए......

जब प्रताप हवेली में पहुंचे तो रामशाह तंवर ने उनका स्वागत किया और हवेली में आने का उपकार माना.युद्ध के विचार विमर्श में राजा रामशाह ने सलाह दी कि मुगलों को घाटी में आने दिया जाए और उन्हें घेर कर मारा जाए,पर युवा सरदारों ने इसका विरोध किया और आगे बढ़कर मैदान में लड़ने में शौर्य समझा,और राजा रामशाह के भयभीत होने का मजाक किया जो उन्हें अच्छा नहीं लगा.
अंत में प्रताप ने उचित जगह लड़ने का निर्णय लिया.

इस प्रकार जब मुगल सेना मेवाड़ पहुंची तो महाराणा और उनके वीर यौद्धा उसका सामना करने को तैयार हो गए.............
==================================
हल्दीघाटी का विश्वप्रसिद्ध युद्ध------------

महराणा और उनके वीर यौद्धाओं की छोटी सी सेना अस्त्र शस्त्र से सुसज्जित होकर देवताओं की स्तुति कर युद्ध के लिए निकलने लगी,रानियों ने उनकी आरती उतारी और इस प्रकार उनकी सेना ने कूच किया,मार्ग में पड़ने वाले गाँवो के लोगो ने उनका आदर सत्कार किया और स्त्रियों ने बधावा गीत गाए.लोह्सिंह गाँव होते हुए महाराणा प्रताप हल्दीघाटी पहुंचे जहाँ 18 जून 1576 को यह प्रसिद्ध युद्ध हुआ.

मेवाड़ की सेना के दायें कमान का नेत्रत्व राजा रामशाह तंवर कर रहे थे,उनके साथ उनके पुत्र शालिवाहन,भवानी सिंह,प्रतापसिंह,और पौत्र बलभद्र भी थे,बाई कमान का नेत्रत्व मानसिंह झाला कर रहे थे,हरावल में किशनदास चूंडावत,भीमसिंह डोडिया,रामदास राठौड़ आदि थे.

युद्ध से पूर्व रामशाह ने अपने पुत्रों समेत महाराणा का इस प्रकार अभिवादन किया जिस प्रकार महाभारत के युद्ध में द्रुपद अपने पुत्रों के साथ पांड्वो की सहायता में युद्ध करने आए थे.

युद्ध प्रारम्भ होने से पूर्व जैसे ही महाराणा का विजय निशान का हाथी घाटी से बाहर निकला,राजा रामशाह की सैन्य कमान ने हाथी से पीछे घाटी से निकलकर मुगल सेना की हरावल पर ऐसा भयंकर प्रहार किया मुग़ल सेना पीछे की और भाग खड़ी हुई,
इस भगदड़ में जब बदायुनी ने आसफ खान से पूछा कि हम शत्रु राजपूत और मुगलों के अधीन राजपूतों में फर्क कैसे करें?तो आसफ खान ने कहा कि तीर चलाते जाओ चाहे जिस और का भी राजपूत मरे,फायदा तो इस्लाम का ही है,
बदायुनी ने बाद में लिखा कि राजपूतों की भीड़ इतनी थी कि मेरा एक भी तीर ख़ाली नहीं गया,
पर आसफ खान भी राजपूतों के शौर्य के आगे ठहर न सका,महाराणा की हरावल ने मुगलों की हरावल को कुचल कर रख दिया,खुद महाराणा प्रताप के वार से शहजादा सलीम और मानसिंह मरने से बाल बाल बचे,मुगल सेनापति जगन्नाथ कछवाह भी बाल बाल बचा,हाथी की सूंड में बंधी तलवार से महाराणा प्रताप का घोडा चेतक भी घायल हो गया.

किन्तु दुर्भाग्य से मुगलों की दाई कमान के सैय्यद भागे नहीं बल्कि उन्होंने भी डटकर युद्ध किया,इसी समय मुगलों की अतिरिक्त सेना उनकी सहायता के लिए वहां पहुँच गयी और इस अतिरिक्त सेना से युद्ध का पासा ही पलट गया,खुद मुगलों ने यह झूठी अफवाह भी उडा दी कि स्वयं अकबर एक और बड़ी सेना लेकर पहुँचने ही वाला है.

शत्रु सेना कि संख्या कई गुनी देखकर राजपूत समझ गये कि अब विजय संभव नहीं है इसलिए भविष्य में संघर्ष जारी रखने के लिए पहले तो महाराणा को युद्ध भूमि से सुरक्षित जाने को बड़ी मुश्किल से तैयार किया गया,उसके बाद राजपूतो ने रणभूमि में आत्मबलिदान का निर्णय लिया.

कुंवर शालिवाहन ने अभिमन्यु सा युद्ध किया और अभिमन्यु की तरह ही उन्हें सैंकड़ो मुगलों ने घेर कर शहीद किया,इसके बाद राजा रामशाह घायल शेर की तरह मुगलों पर टूट पड़े और वीरता से लड़ते हुए रणभूमि में वीरगति को प्राप्त हुए.रामशाह तंवर के दो अन्य पुत्र भानसिंह और प्रतापसिंह भी वीरगति को प्राप्त हुए,इस भीषण युद्ध में केवल बलभद्र ही घायल होकर बच सका,
इस युद्ध में बीदा झाला और मानसिंह झाला ने भी वन्दनीय त्याग किया,रामदास राठौड़,भीम सिंह डोडिया,देवीचंद चौहान,बाबु खंडेराव भदौरिया,दुर्गा तोमर आदि सैंकड़ो वीरो ने जिस पराक्रम से युद्ध कर अपना बलिदान दिया उससे राजपूतो और हिंदुत्व की कीर्ति आज भी चहुँ और फैली हुई है.

इतिहासकार और इस युद्ध में स्वयं भाग लेने वाला बदायुनी लिखता है कि अगर मुगलों की दाई कमान के सैय्यद भी बाकि मुगलों की तरह भाग पड़ते तो इस युद्ध में मुगलों की हार निश्चित थी,बदायुनी ने यह भी लिखा कि रामशाह तंवर महाराणा की सेना में सदैव आगे रहता था और इस युद्ध में उसने ऐसी प्रचंड वीरता दिखाई जिसका वर्णन करना असम्भव है,
इस युद्ध के दशकों बाद भी इसमें भाग लेने वाले मुग़ल सैनिक दक्षिण भारत में भी इस युद्ध की भीषणता और राजपूतों के शौर्य के किस्से सुनाया करते थे.

हल्दीघाटी के युद्धस्थल के रक्तताल में राजा रामशाह तंवर और कुंवर शालिवाहन तंवर की छत्र समाधियाँ आज भी विधमान हैं.............

हल्दीघाटी के सभी शहीदों को हमारा शत शत नमन,
जय राजपूताना.....................

सोर्स.................
1-उदयपुर राज्य का इतिहास गौरीशंकर ओझा 
2-राजपूतों की गौरव गाथा राजेन्द्र सिंह राठौड़ बीदासर



मुगल सम्राट अकबर ने धीरे धीरे पुरे उत्तर भारत पर अपना अधिकार कर लिया था,राजस्थान में भी आमेर,मारवाड़ जैसे बड़े राज्यों ने अकबर की अधीनता स्वीकार कर ली थी,परन्तु स्वाभिमानी महाराणा प्रताप ने बड़े प्रलोभनों और दबाव के बावजूद अकबर की अधीनता स्वीकार करने से इनकार कर दिया ,
अकबर ने वर्ष 1576 इसवी की गर्मियों में मानसिंह और आसफखान को एक बड़ी सेना के साथ मेवाड़ पर हमला करने के लिए भेजा,


अकबर की इस योजना की सबसे पहले जानकारी कुम्भलगढ़ के रामशाह तंवर के सैनिक शिविर में पहुंची,उन्होंने तुरंत अपने पुत्र शालिवाहन को इसकी सूचना देने के लिए महाराणा प्रताप के पास भेजा ,प्रताप ने बिना विचलित हुए इस हमले की खबर सुनकर इसका सामना करने के लिए सब सरदारों को रामशाह की हवेली पर बुलाया,इस बैठक में राव संग्राम,कल्याण चूंडावत,बीदा झाला,भीम डोड,युवराज अमरसिंह,भामाशाह,हरदास चौहान आदि वीर एकत्रित हुए......

जब प्रताप हवेली में पहुंचे तो रामशाह तंवर ने उनका स्वागत किया और हवेली में आने का उपकार माना.युद्ध के विचार विमर्श में राजा रामशाह ने सलाह दी कि मुगलों को घाटी में आने दिया जाए और उन्हें घेर कर मारा जाए,पर युवा सरदारों ने इसका विरोध किया और आगे बढ़कर मैदान में लड़ने में शौर्य समझा,और राजा रामशाह के भयभीत होने का मजाक किया जो उन्हें अच्छा नहीं लगा.
अंत में प्रताप ने उचित जगह लड़ने का निर्णय लिया.

इस प्रकार जब मुगल सेना मेवाड़ पहुंची तो महाराणा और उनके वीर यौद्धा उसका सामना करने को तैयार हो गए.............
==================================
हल्दीघाटी का विश्वप्रसिद्ध युद्ध------------

महराणा और उनके वीर यौद्धाओं की छोटी सी सेना अस्त्र शस्त्र से सुसज्जित होकर देवताओं की स्तुति कर युद्ध के लिए निकलने लगी,रानियों ने उनकी आरती उतारी और इस प्रकार उनकी सेना ने कूच किया,मार्ग में पड़ने वाले गाँवो के लोगो ने उनका आदर सत्कार किया और स्त्रियों ने बधावा गीत गाए.लोह्सिंह गाँव होते हुए महाराणा प्रताप हल्दीघाटी पहुंचे जहाँ 18 जून 1576 को यह प्रसिद्ध युद्ध हुआ.

मेवाड़ की सेना के दायें कमान का नेत्रत्व राजा रामशाह तंवर कर रहे थे,उनके साथ उनके पुत्र शालिवाहन,भवानी सिंह,प्रतापसिंह,और पौत्र बलभद्र भी थे,बाई कमान का नेत्रत्व मानसिंह झाला कर रहे थे,हरावल में किशनदास चूंडावत,भीमसिंह डोडिया,रामदास राठौड़ आदि थे.

युद्ध से पूर्व रामशाह ने अपने पुत्रों समेत महाराणा का इस प्रकार अभिवादन किया जिस प्रकार महाभारत के युद्ध में द्रुपद अपने पुत्रों के साथ पांड्वो की सहायता में युद्ध करने आए थे.

युद्ध प्रारम्भ होने से पूर्व जैसे ही महाराणा का विजय निशान का हाथी घाटी से बाहर निकला,राजा रामशाह की सैन्य कमान ने हाथी से पीछे घाटी से निकलकर मुगल सेना की हरावल पर ऐसा भयंकर प्रहार किया मुग़ल सेना पीछे की और भाग खड़ी हुई,
इस भगदड़ में जब बदायुनी ने आसफ खान से पूछा कि हम शत्रु राजपूत और मुगलों के अधीन राजपूतों में फर्क कैसे करें?तो आसफ खान ने कहा कि तीर चलाते जाओ चाहे जिस और का भी राजपूत मरे,फायदा तो इस्लाम का ही है,
बदायुनी ने बाद में लिखा कि राजपूतों की भीड़ इतनी थी कि मेरा एक भी तीर ख़ाली नहीं गया,
पर आसफ खान भी राजपूतों के शौर्य के आगे ठहर न सका,महाराणा की हरावल ने मुगलों की हरावल को कुचल कर रख दिया,खुद महाराणा प्रताप के वार से शहजादा सलीम और मानसिंह मरने से बाल बाल बचे,मुगल सेनापति जगन्नाथ कछवाह भी बाल बाल बचा,हाथी की सूंड में बंधी तलवार से महाराणा प्रताप का घोडा चेतक भी घायल हो गया.

किन्तु दुर्भाग्य से मुगलों की दाई कमान के सैय्यद भागे नहीं बल्कि उन्होंने भी डटकर युद्ध किया,इसी समय मुगलों की अतिरिक्त सेना उनकी सहायता के लिए वहां पहुँच गयी और इस अतिरिक्त सेना से युद्ध का पासा ही पलट गया,खुद मुगलों ने यह झूठी अफवाह भी उडा दी कि स्वयं अकबर एक और बड़ी सेना लेकर पहुँचने ही वाला है.

शत्रु सेना कि संख्या कई गुनी देखकर राजपूत समझ गये कि अब विजय संभव नहीं है इसलिए भविष्य में संघर्ष जारी रखने के लिए पहले तो महाराणा को युद्ध भूमि से सुरक्षित जाने को बड़ी मुश्किल से तैयार किया गया,उसके बाद राजपूतो ने रणभूमि में आत्मबलिदान का निर्णय लिया.

कुंवर शालिवाहन ने अभिमन्यु सा युद्ध किया और अभिमन्यु की तरह ही उन्हें सैंकड़ो मुगलों ने घेर कर शहीद किया,इसके बाद राजा रामशाह घायल शेर की तरह मुगलों पर टूट पड़े और वीरता से लड़ते हुए रणभूमि में वीरगति को प्राप्त हुए.रामशाह तंवर के दो अन्य पुत्र भानसिंह और प्रतापसिंह भी वीरगति को प्राप्त हुए,इस भीषण युद्ध में केवल बलभद्र ही घायल होकर बच सका,
इस युद्ध में बीदा झाला और मानसिंह झाला ने भी वन्दनीय त्याग किया,रामदास राठौड़,भीम सिंह डोडिया,देवीचंद चौहान,बाबु खंडेराव भदौरिया,दुर्गा तोमर आदि सैंकड़ो वीरो ने जिस पराक्रम से युद्ध कर अपना बलिदान दिया उससे राजपूतो और हिंदुत्व की कीर्ति आज भी चहुँ और फैली हुई है.

इतिहासकार और इस युद्ध में स्वयं भाग लेने वाला बदायुनी लिखता है कि अगर मुगलों की दाई कमान के सैय्यद भी बाकि मुगलों की तरह भाग पड़ते तो इस युद्ध में मुगलों की हार निश्चित थी,बदायुनी ने यह भी लिखा कि रामशाह तंवर महाराणा की सेना में सदैव आगे रहता था और इस युद्ध में उसने ऐसी प्रचंड वीरता दिखाई जिसका वर्णन करना असम्भव है,
इस युद्ध के दशकों बाद भी इसमें भाग लेने वाले मुग़ल सैनिक दक्षिण भारत में भी इस युद्ध की भीषणता और राजपूतों के शौर्य के किस्से सुनाया करते थे.

हल्दीघाटी के युद्धस्थल के रक्तताल में राजा रामशाह तंवर और कुंवर शालिवाहन तंवर की छत्र समाधियाँ आज भी विधमान हैं.............

हल्दीघाटी के सभी शहीदों को हमारा शत शत नमन,
जय राजपूताना.....................

सोर्स.................
1-उदयपुर राज्य का इतिहास गौरीशंकर ओझा
2-राजपूतों की गौरव गाथा राजेन्द्र सिंह राठौड़ बीदासर