टीपू सुल्तान ने १४ दिसम्बर १७८८ को कालीकट के अपने सेना नायक को पत्र लिखा-
''मैं
तुम्हारे पास मीर हुसैन अली के साथ अपने दो अनुयायी भेज रहा हूँ। उनके साथ
तुम सभी हिन्दुओं को बन्दी बना लेना और यदि वो इस्लाम कबूल ना करे तो उनका
वध कर देना।'' मेरा आदेश है कि बीस वर्ष से कम उम्र वालों को काराग्रह में
रख लेना और शेष में से पाँच हजार का पेड़ पर लटकाकार वध कर देना।''
(भाषा पोशनी-मलयालम जर्नल, अगस्त १९२३)
(२) बदरुज़ समाँ खान को पत्र लिखा (दिनांक १९ जनवरी १७९०)
''क्या
तुम्हें मालूम नहीं है कि मैंने मलाबार में एक बड़ी विजय प्राप्त की है चार
लाख से अधिक हिन्दुओं को मुसलमान बना लिया गया । मैंनें अब उस रमन नायर की
ओर बढ़ने का निश्चय किया हैं ताकि उसकी प्रजा को इस्लाम में धर्मान्तरित
किया जाए। मैंने रंगापटनम वापस जाने का विचार त्याग दिया है।''
(उसी पुस्तक में)
३)अब्दुल कादर को पत्र लिखा (दिनांक २२ मार्च१७८८)
"बारह
हजार से अधिक, हिन्दुओं को इस्लाम में धर्मान्तरित किया गया। इनमें अनेकों
नम्बूदिरी थे। इस उपलब्धि का हिन्दुओं के बीच व्यापक प्रचार किया जाए।
ताकि स्थानीय हिन्दुओं में भय व्याप्त हो और उन्हें इस्लाम में धर्मान्तरित
किया जाए। किसी भी नम्बूदिरी को छोड़ा न जाए।''
(उसी पुस्तक में)
टीपू
ने हिन्दुओं पर अत्यार एवं उनके धर्मान्तरण के लिए कुर्ग एवं मलाबार के
विभिन्न क्षेत्रों में अपने सेना नायकों को अनेकों पत्र लिखे थे। जिन्हें
प्रख्यात विद्वान और इतिहासकार सरदार पाणिक्कर ने लन्दन के इन्डिया आॅफिस
लाइब्रेरी तक पहुँच कर ढूँढ निकाला था।
इन सूचनाओं, सन्देशों एवं पत्रों को आप भी RTI के माध्यम से प्राप्त कर पढ़ सकते हैं..।
टीपू का अपने सेनानायक को एक और पत्र-
''जिले
के प्रत्येक हिन्दू का इस्लाम में धर्मान्तरण किया जाना चाहिए; अन्यथा
उनका वध करना सर्वोत्तम है; उन्हें उनके छिपने के स्थान में खोजा जाना
चाहिए; उनका इस्लाम में सम्पूर्ण धर्मान्तरण के लिए सभी मार्ग व युक्तियाँ
सत्य-असत्य, कपट और बल सभी का प्रयोग किया जाना चाहिए।''
(हिस्टौरीकल स्कैचैज ऑफ दी साउथ ऑफ इण्डिया इन
एन अटेम्पट टू ट्रेस दी हिस्ट्री ऑफ मैसूर- मार्क विल्क्स, खण्ड २
पृष्ठ १२०)
मैसूर के तृतीय युद्ध (१७९२) के पहले से ही टीपू अफगानिस्तान
के कट्टर इस्लामी शासक जमनशाह जो भारत में हिन्दुओं के खून की होली खेलने
वाले अहमदशाह अब्दाली का परपोता था को पत्र लिखा करता था जिसे कबीर कौसर ने
अपनी पुस्तक 'हिस्ट्री ऑफ टीपू सुल्तान' (पृ'१४१-१४७) में इसका अनुवाद
किया है।
उस पत्र व्यवहार के कुछ अंश पढ़िये-
टीपू के ज़मन शाह के लिए पत्र
(i) ''महामहिम आपको सूचित किया गया होगा कि,
मेरी महान अभिलाषा का उद्देश्य जिहाद (धर्म युद्ध)
है। मेरी इस युक्ति का अल्लाह 'नोआ के आर्क' की भाँति रक्षा करता है और त्यागे हुए काफिरों की बढ़ी हुई भुजाओं को काटता रहता है।''
(ii) ''टीपू से जमनशाह को, पत्र दिनांक शहबान
का सातवाँ १२११ हिजरी (तदनुसार ५ फरवरी १७९७):
''...
.इन परिस्थितियों में जो, पूर्व से लेकर पश्चिम तक,मैं विचार करता हूँ कि
अल्लाह और उसके पैगम्बर के आदेशों से हमें अपने धर्म के शत्रुओं के विरुद्ध
जिहाद करने के लिए, संगठित हो जाना चाहिए। इस क्षेत्र में इल्लाम के
अनुयाई, शुक्रवार के दिन एक निश्चित किये हुए स्थान पर एकत्र होकर
प्रार्थना करते हैं।
''हे अल्लाह! उन लोगों को, जिन्होंने इस्लाम का
मार्ग रोक रखा है, कत्ल कर दो। उनके पापों को लिए, उनके निश्चित दण्ड
द्वारा, उनके सिरों को दण्ड दो।''
मेरा पूरा विश्वास है कि सर्वशक्तिमान
अल्लाह अपने प्रियजनों के हित के लिए उनकी प्रार्थनाएं स्वीकार कर लेगा
और''तेरी (अल्लाह की) सेनायें ही विजयी होंगी'',
टीपू ने अपनी बहुचर्चित तलवार' पर फारसी भाषा में लिखवाया-
''मेरे मालिक मेरी मदद कर कि मैं संसार से सभी काफिरों(गैर-मुसलमानों) को समाप्त कर दूँ"!
(हिस्ट्री ऑफ मैसूर सी.एच. राव खण्ड ३, पृष्ठ
१०७३)
श्री रंगपटनम के किले में प्राप्त टीपू का खुद लिखवाया एक शिला लेख पढ़िये-
शिलालेख के शब्द इस प्रकार हैं- ''हे सर्वशक्तिमान
अल्लाह!
काफिरों(गैर-मुसलमानों) के समस्त समुदाय को समाप्त कर दे। उनकी सारी जाति
को बिखरा दो, उनके पैरों को लड़खड़ा दो अस्थिर कर दो! और उनकी बुद्धियों को फेर दो! मृत्यु को उनके निकट ला दो, उनके पोषण के
साधनों को
समाप्त कर दो। उनकी जिन्दगी के दिनों को कम कर दो। उनके शरीर सदैव उनकी
चिंता के विषय बने रहें, उनके नेत्रों की दृष्टि छीन लो, उनके चेहरे काले
कर दो, उनकी जीभ को बोलने के अंग को, नष्ट कर दो! उन्हें शिदौद की भाँति
कत्ल कर दो जैसे फ़रोहा को डुबोया था, उन्हें भी डुबो दो, और उन पर अपार
क्रोध करो। हे संसार के मालिक मुझे अपनी मदद दो।''
(उसी पुस्तक में पृष्ठ १०७४)
टीपू का जीवन चरित्र
टीपू की फारसी में लिखी, 'सुल्तान-उत-तवारीख'
और 'तारीख-ई-खुदादादी' नाम वाली दो जीवनियाँ हैं।
ये दोनों ही जीवनियाँ लन्दन की इण्डिया ऑफिस लाइब्रेरी में एम.एस. एस. क्रमानुसार ५२१ और २९९ रखी हुई हैं। इन
दोनों
जीवनियों में टीपू ने स्वयं को इस्लाम का सच्चा नायक दिखाने के लिए
हिन्दुओं पर ढाये अमानवीय अत्याचारों और यातनाओं, का विस्तृत वर्णन खुद ही
किया है।
यहाँ तक कि मोहिब्बुल हसन, जिसने अपनी पुस्तक, हिस्ट्री ऑफ
टीपू सुल्तान में टीपू को एक समझदार, उदार, और धर्मनिरपेक्ष शासक बताया था
उसको भी स्वीकार करना पड़ा था कि
''तारीख यानी कि टीपू की जीवनियों के
पढ़ने के बाद टीपू का जो चित्र उभरता है वह एक ऐसे धर्मान्ध, काफिरों से
नफरत के लिए मतवाले पागल का है जो गैर-मुस्लिम लोगों की हत्या और उनके
इस्लाम में बलात परिवर्तन कराने में सदैव लिप्त रहा आया।''
(हिस्ट्री ऑफ टीपू सुल्तान, मोहिब्बुल हसन, पृष्ठ ३५७)
टीपू ने १७८६ में गद्दी पर बैठते ही मैसूर को मुस्लिम राज्य घोषित कर दिया था और एक आम दरबार में घोषणा की ---
"मैं सभी काफिरों
को मुसलमान बनाकर रहूंगा। "तुंरत ही उसने सभी हिन्दुओं को फरमान भी जारी कर
दिया और मैसूर के गाँव- गाँव के मुस्लिम अधिकारियों के पास लिखित सूचना
भिजवादी कि,
"सभी हिन्दुओं को इस्लाम में दीक्षा दो। जो स्वेच्छा से
मुसलमान न बने उसे बलपूर्वक मुसलमान बनाओ और जो पुरूष विरोध करे, उनका कत्ल
करवा दो। उनकी स्त्रियों को पकड़कर उन्हें दासी बनाकर मुसलमानों में बाँट
दो।"
यह तांडव टीपू ने इतनी तेजी से चलाया कि, पूरे हिंदू समाज में
त्राहि त्राहि मच गई. इस्लामिक दानवों से बचने का कोई उपाय न देखकर धर्म
रक्षा के विचार से
हजारों हिंदू स्त्री पुरुषों ने अपने बच्चों सहित
तुंगभद्रा आदि नदियों में कूद कर जान दे दी। हजारों ने अग्नि में प्रवेश कर
अपनी जान दे दी।
इतिहासकार पाणिक्कर के अनुमान से टीपू ने अपने राज्य
में लगभग ५ लाख हिन्दुओं को जबरन मुसलमान बनाया था जबकि वास्तविक संख्या
इससे कहीं अधिक है।
प्रत्यक्षदर्शियों के वर्णन-
दक्षिण भारत में
इस्लाम के प्रसार के लिए टीपू द्वारा किये गये भीषण अत्याचारों और यातनाओं
को एक पुर्तगाली यात्री और इतिहासकार, फ्रा बारटोलोमाको ने १७९० में अपनी
आँखों से देखा था।
उसने जो कुछ मलाबार में देखा उसे अपनी पुस्तक, 'वौयेज टू ईस्ट इण्डीज' में लिख दिया था-
''कालीकट
में हिन्दू आदमियों और औरतों को छोटी गलतियों के लिए फाँसी पर लटका दिया
जाता था। ताकि वो जल्दी से जल्दी इस्लाम स्वीकार कर लें।
पहले माताओं को
उनके बच्चों को उनकी गर्दनों से बाँधकर लटकाकर फाँसी दी जाती थी। उस बर्बर
टीपू द्वारा नंगे हिन्दुओं और ईसाई लोगों को हाथियों की टांगों से बँधवा
दिया जाता था और हाथियों को तब तक दौड़ाया जाता था जब तक कि उन असहाय निरीह
विपत्तिग्रस्त प्राणियों के शरीरों के चिथड़े-चिथड़े नहीं हो
जाते थे।
मन्दिरों और गिरिजों में आग लगाने, खण्डित करने, और ध्वंस करने के आदेश दिये जाते थे।
टीपू
की सेना से बचकर भागने वालों और वाराप्पुझा पहुँच पाने वाले अभागे
व्यक्तियों से सुनकर मैं विचलित हो उठा था... मैंने स्वंय अनेकों ऐसे
विपत्ति ग्रस्त व्यक्तियों को वाराप्पुझा नदी को नाव द्वारा पार जाने के
लिए सहयोग किया था।' '
(वौयेज टू ईस्ट इण्डीजः फ्रा बारटोलोमाको पृष्ठ १४१-१४२)
टीपू द्वारा मन्दिरों का विध्वंस
दी मैसूर गज़टियर बताता है कि ' 'टीपू ने दक्षिण भारत में आठ सौ से अधिक मन्दिर नष्ट किये थे।''
के.पी.
पद्मानाभ मैनन द्वारा लिखित, 'हिस्ट्री ऑफ कोचीन और श्रीधरन मैनन द्वारा
लिखित, हिस्ट्री ऑफ केरल' उन नष्ट किये गये मन्दिरों में से कुछ का वर्णन
करते हैं-
''चिन्गम महीना ९५२ मलयालम कैलेंडर यानी अगस्त १७८६ में टीपू
की फौज ने प्रसिद्ध पेरुमनम मन्दिर की मूर्तियों का ध्वंस किया और त्रिचूर
ओर करवन्नूर नदी के मध्य के सभी मन्दिरों का ध्वंस कर दिया।
इरिनेजालाकुडा और थिरुवांचीकुलम के भव्य मन्दिरों को भी टीपू की सेना द्वारा नष्ट किया गया।
''अन्य प्रसिद्ध प्राचीन मन्दिरों में से कुछ, जिन्हें लूटा गया और नष्ट किया गया, था, वे थे-
त्रिप्रंगोट,
थ्रिचैम्बरम्, थिरुमवाया, थिरवन्नूर, कालीकट थाली, हेमम्बिका मन्दिरपालघाट
का जैन मन्दिर, माम्मियूर, परम्बाताली, पेम्मायान्दु, थिरवनजीकुलम,
त्रिचूर का बडक्खुमन्नाथन मन्दिर, वेलूर शिवा मन्दिर आदि।''
टीपू ने अपनी डायरी में लिखा-
"चिराकुल
राजा ने मेरी सेना द्वारा स्थानीय मन्दिरों को विनाश से बचाने के लिए मुझे
चार लाख रुपये का सोना चाँदी देने का प्रस्ताव रखा था। किन्तु मैंने उत्तर
दिया ''यदि सारी दुनिया भी मुझे दे दी जाए तो भी मैं हिन्दू मन्दिरों को
ध्वंस करने से नहीं रुकूँगा''
(फ्रीडम स्ट्रगिल इन केरल : सरदार के.एम.पाणिक्कर)
टीपू द्वारा केरल की विजय का प्रलयंकारी एवं सजीव वर्णन, 'गजैटियर ऑफ केरल
के सम्पादक और विखयात इतिहासकार ए. श्रीधर मैनन द्वारा किया गया है। उसके
अनुसार-
"हिन्दू लोग, विशेष कर नायर और सरदार जाति के लोग जिन्होंने
टीपू के पहले से ही इस्लामी आक्रमणकारियों का प्रतिरोध किया था, टीपू के
क्रोध का प्रमुख निशाना बन गये थे।
सैकड़ों नायर महिलाओं और बच्चों को
पकड़ कर श्री रंगपटनम ले जाया गया और डचों के हाथ दास के रूप में बेच दिया
गया था। हजारों ब्राह्मणों, क्षत्रियों और हिन्दुओं के अन्य सम्माननीय जाति
के लोगों को इस्लाम या मृत्यु में से एक चुनने को बाध्य किया गया।''
हमारे
मार्क्सिस्ट इतिहासकारों ने धर्मनिरपेक्षता का झूठा ढोंग कर टीपू सुल्तान
को वीर और देशभक्त पुरुष के रूप में वर्णन किया है। किन्तु सच्चाई तो ये है
कि टीपू का सम्बन्ध उस राष्ट्र,उस मिट्टी से कभी भी नहीं रहा जो उसका गृह
स्थान था। वह केवल हिन्दू भूमि का एक मुस्लिम शासक था। जैसा उसने स्वंय कहा
था उसके जीवन का उद्देश्य अपने राज्य को दारुल इस्लाम (इस्लामी देश) बनाना
था। टीपू ब्रिटिशों से अपने ताज की सुरक्षा के लिए लड़ा था न कि देश को
विदेशी गुलामी से मुक्त कराने के लिए।
उसने तो स्वयं भारत पर आक्रमण करने, और राज्य करने के लिए अफगानिस्तान के जहनशाह को आमंत्रित
किया था।(जहनशाह को लिखे पत्रों को पढ़िये)
भारत
के सैक्यूलरिस्टों ने राष्ट्रीय एकता और धर्मनिरपेक्षता की आड़ लेकर हमेशा
से ही इतिहास, साहित्य और पुस्तकों से लेकर आजादी की लड़ाई और आजादी के
बाद के भारत-पाकिस्तान युद्धों तक में मुस्लिमों को जबरदस्ती हीरो बनाने की
कोशिश की है। प्रयास अच्छा है परन्तु इस प्रयास में हमलावरों, लुटेरों,
खूनियों और हत्यारों को भी नायकों की तरह प्रस्तुत करना समझ से परे है।
लेकिन
अब वोटबैंक के लालची राजनीतिज्ञों के आदेश पर लिखने वाले इन पैसों के भूखे
लेखकों की समझ में आ जाना चाहिए कि इन मुस्लिम अत्याचारियों और हमलावरों
के, हिन्दुओं पर किये गये अत्याचारों, को दबाने, छिपाने से, कोई भी लाभ
नहीं हो सकेगा
क्योंकि अब राष्ट्रवादियों के हाथों में सदी के संचार का सबसे बड़ा हथियार
सोशल मीडिया आ चुका है। जो इन नकली धर्मनिरपेक्ष लेखकों के हर झूठ की परतें
उघाड़ कर रख देगा।
सामान्य हिन्दुओं को भी समझ लेना चाहिए कि, अपने देश
के इतिहास का पूर्ण ज्ञान, और अपने पूर्वजों के भाग्य-दुर्भाग्य, से पाठ
सीख लेना अनिवार्य है; क्योंकि इतिहास की पुनरावृत्ति जरूर होती है।