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Tuesday, July 5, 2016

Gurjar Pratihar -Battle of Herat Gurjar Vs Persian

World Famous Battle of Herat 
  Gurjar Vs Persian
Gurjar Samrat Khushnavaz Hoon 
Date 484 bc

Location Herat, Afghanistan
Result Decisive Hephthalite victory.
Belligerents
Hephthalite(Hoon) Empire; Sassanid Empire
Commanders and leaders
Khushnavaz Peroz I  †
Mihran  †
Strength
Unknown 100,000 soldiers[1]
Casualties and losses
Unknown Heavy
The Battle of Herat was a large scale military confrontation that took place in 484 between an invading force of the Sassanid Empire composed of around 100,000 men[1] under the command of Peroz I and a smaller army of the Hun Empire of Gurjar under the command of Khushnavaz Hoon. The battle was a catastrophic defeat for the Sassanid forces who were almost completely wiped out. Peroz, the Sassanid king, was killed in the action.

In 459, the Hoon(Clan Of Gujjar) occupied Bactria and were confronted by the forces of the Sassanid king, Hormizd III. It was then that Peroz, in an apparent pact with the Hephthalites,[2] killed Hormizd, his brother, and established himself as the new king. He would go on to kill the majority of his family and began a persecution of various Christian sects in his territories.

Peroz quickly moved to maintain peaceful relations with the Byzantine Empire to the west. To the east, he attempted to check the Hephthalites, whose armies had begun their conquest of eastern Iran. The Romans supported the Sassanids in these efforts, sending them auxiliary units. The efforts to deter the Hephthalite expansion met with failure when Peroz chased their forces deep into Hephthalite territory and was surrounded. Peroz was taken prisoner in 481 and was made to deliver his son, Kavadh, as a hostage for three years, further paying a ransom for his release.

It was this humiliating defeat which led Peroz to launch a new campaign against the Hephthalites.

The battle::

In 484, after the liberation of his son, Peroz formed an enormous army and marched northeast to confront the Hephthalites. The king marched his forces all the way to Balkh where he established his base camp and rejected emissaries from the Hunnic king Khushnavaz. Peroz's forces advanced from Balkh to Herat. The Huns, learning of Peroz's way of advance, left troops along his path who proceeded to cut off the eventual Sassanid retreat and surround Peroz's army in the desert around the city of Herat. In the ensuing battle, almost all of the Sassanid army was wiped out. Peroz was killed in the action and most of his commanders and entourage were captured, including two of his daughters. The Gurjar forces proceeded to sack Herat before continuing on to a general invasion of the Sassanid Empire.

Aftermath 

The Huns invaded the Sassanid territories which had been left without a central government following the death of the king. Much of the Sassanid land was pillaged repeatedly for a period of two years until a Persian noble from the House of Karen, Sukhra, restored some order by establishing one of Peroz's brothers, Balash, as the new king. The Hunnic Gurjar menace to Sassanid lands continued until the reign of Khosrau I. Balash failed to take adequate measures to counter the Hephthalite incursions, and after a rule of four years, he was deposed in favor of Kavadh I, his nephew and the son of Peroz. After the death of his father, Kavadh had fled the kingdom and took refuge with his former captors, the Hephthalites, who had previously held him as a hostage. He there married one of the daughters of the Hunnic king, who gave him an army to conquer his old kingdom and take the throne.The Sassanids were made to pay tributes to the Hephthalite Gurjar Empire until 496 when Kavadh was ousted and forced to flee once again to Hephthalite territory. King Djamasp was installed on the throne for two years until Kavadh returned at the head of an army of 30,000 troop and retook his throne, reigning from 498 until his death in 531, when he was succeeded by his son, Khosrau I.

References:

^ a b c d e Heritage World Coin Auction #3010. Boston: Heritage Capital Corporation, 2010, pp. 28
^ a b Frye, 1996: 178
^ a b c Dani, 1999: 140
^ Christian, 1998: 220
Much of the information on this page was translated from its Spanish equivalent.
Bibliography 

David Christian (1998). A history of Russia, Central Asia, and Mongolia. Oxford: Wiley-Blackwell, ISBN 0-631-20814-3.
Richard Nelson Frye (1996). The heritage of Central Asia from antiquity to the Turkish expansion. Princeton: Markus Wiener Publishers, ISBN 1-55876-111-X.
Ahmad Hasan Dani (1999). History of civilizations of Central Asia: Volumen III. Delhi: Motilal Banarsidass Publ., ISBN 81-208-1540-8.

Jewel of Pratihar Rajput saved Bharat from Mohammed गुर्जर सम्राट नागभट प्रतिहार

-------गुर्जर सम्राट नागभट प्रतिहार ----

वीर गुर्जर यौद्धा जिसने अरबो को अपने बाजुओं से मथडाला एवं इतना भयाक्रांत कर दिया था की जब गुर्जरेन्द्र नागभट्ट की गुर्जरसेना गुर्जर रणनृत्य करती हुई ,जय भौणा ( गुर्जरो का युद्ध का देवता) व जय गुर्जरेश कहती हुई जोश व वीरता से अरबो से युद्ध के लिए जाए तो अरबी लोग मुल्तान में बने एक शिव मंदिर को नष्ट करने की धमकी देकर अपनी जान बचाते थे और जिससे सैनिक युद्ध क्षेत्र से लौट आते थे। गुर्जरेन्द्र नागभट्ट प्रतिहार वीर साहसी थे जिन्हें इतिहास में नागावलोक व गुर्जरेन्द्र ( गुर्जरो के इन्द्र) के नाम से भी जाना जाता है।

के.एम.पन्निकर ने अपनी पुस्तक "सर्वे ऑफ़ इंडियन हिस्ट्री "में लिखा है -जो शक्ति मोहम्मद साहिब की मृत्यु के सौ साल के अंदर एक तरफ चीन की दिवार तक पंहुच गयी थी ,तथा दूसरी और मिश्र को पराजित करते हुए उतरी अफ्रिका को पार कर के स्पेन को पद दलित करते हुए दक्षिणी फ़्रांस तक पंहुच गयी थी जिस ताकत के पास अनगिनित सेना थी तथा जिसकी सम्पति का कोई अनुमान नही था जिसने रेगिस्तानी प्रदेशों को जीता तथा पहाड़ी व् दुर्लभ प्रांतों को भी फतह किया था। 

इन अरब सेनाओं ने जिन जिन देशों व् साम्राज्यों को विजय किया वंहा कितनी भी सम्पन्न संस्कृति थी उसे समाप्त किया तथा वहां के निवासियों को अपना धर्म छोड़ कर इस्लाम स्वीकार करना पड़ा। ईरान , मिश्र आदि मुल्कों की संस्कृति जो बड़ी प्राचीन व विकसित थी वह इतिहास की वस्तु बन कर रह गयी। अगर अरब हिंदुस्तान को भी विजय कर लेते तो यहां की वैदिक संस्कृति व धर्म भी उन्ही देशों की तरह एक भूतकालीन संस्कृति के रूप में ही शेष रहता।। 

इस सबसे बचाने का भारत में कार्य वीर गुर्जरेन्द्र नागभट्ट व गुर्जरो ने किया प्रतिहार की उपाधि पायी। गुर्जरेन्द्र ने खलीफाओं की महान आंधी को देश में घुसने से रोका और इस प्रकार इस देश की प्राचीन संस्कृति व धर्म को अक्षुण रखा। देश के लिए यह उसकी महान देन है। गुर्जरो में वैसे तो कई महान राजा हुए पर सबसे ज्यादा शक्तिशाली कनिष्क महान,कल्किराज मिहिरकुल हूण,सम्राट तोरमाण हूण , गुर्जर सम्राट खुशनवाज हूण,गुर्जरेन्द्र नागभट्ट प्रथम , गुर्जरेश मिहिरभोज , दहाडता हुआ गुर्जर सम्राट महिपालदेव,सम्राट हुविष्क कसाणा,महाराजा दद्दा चपोतकट, जयभट गुर्जर,वत्सराज रणहस्तिन थे  जिन्होने अपने जीवन मे कभी भी चीनी साम्राज्य,फारस के शहंसाह , मंगोल,तुर्की,रोमन ,मुगल और अरबों को भारत पर पैर जमाने का मौका नहीं दिया । इसीलिए आप सभी मित्रों ने कई प्रसिद्ध ऐतिहासिक किताबो पर भी पढा होगा की गुर्जरो का भारत का प्रतिहार यानी राष्ट्र रक्षक व द्वारपाल व  ईसलाम का सबसे बड़ा दुश्मन बताया गया है।।

ब्रिटिश इतिहासकार कहते थे कि भारत कभी एक  राष्ट्र था ही नहीं वामी इतिहासकार कहते हैं कि भारत राष्ट्रीयता की भावना से एक हुआ ही नहीं धर्म निरपेक्ष इतिहासकार कहते हैं कि हिंदुत्व और इस्लाम में कोई संघर्ष था ही नहीं मुस्लिम कहते है कि इस्लाम के शेरों के सामने निर्वीर्य हिंदू कभी टिके ही नहीं हमें तो यही बताया गया है यही पढाया गया है कि हिंदू सदैव हारते आये हैं .. They are born looser , और आप भी शायद ऐसा ही मानते हों पर क्या ये सच है ?
मानोगे भी क्यों नहीं जब यहाँ के राजा  खुद ही अपनी बेटियाँ पीढीदर पीढी अपने कट्टर दुश्मनो के यहाँ ब्याह के हैं, जिन अत्याचार मुगलो का सिर काटना था उन्हीं की सेनाओ के प्रधान सेनापति हो,सेनाओ में लडते हो, दामाद बनवाकर बारात मंगवाते हो व दामाद जी कहकर खुशामद व गुलामी करते हो वहाँ के लोगो को हारा व हताश ही कहा जायेगा। जहाँ के राजा व उनके सामन्त अंग्रेजो की जय जयकार करते हो व जनता का खून चूसकर कर वसूलते हो वहाँ भारत के स्वर्णिम समय गुर्जर काल यानी गुर्जर प्रतिहार साम्राज्य के काल को बस चार लाइनो में निपटा देते हैं ।

................ बिलकुल भी नहीं ...............

तो फिर सच क्या है ? क्या हमारे पूर्वजों के भी कुछ कारनामे हैं ? कुछ ऐसे कारनामे जिनपर हम गर्व कर सकें ? जवाब है .हाँ ...ऐसे ढेर सारे कारनामे जिन्होंने इस देश ही नहीं विश्व इतिहास को भी प्रभावित किया और जिनके कारण आज हम हमारी संस्कृति जीवित है और हम अपना सिर ऊंचा करके खडे हो सकते हैं क्या थे वे कारनामे ? कौन थे वे जिन्होंने इन्हें अंजाम दिया और हम उनसे अंजान हैं ??

समय - 730 ई.

मुहम्मद बिन कासिम की पराजय के बाद खलीफा हाशिम के आदेश पर जुनैद इब्न अब्द ने मुहम्मद बिन कासिम के अधूरे काम को पूरा करने का बीडा उठाया बेहद शातिर दिमाग जुनैद समझ गया था कि कश्मीर के महान योद्धा शासक ललितादित्य मुक्तापीड और कन्नौज के यशोवर्मन से वह नहीं जीत सकता , इसीलिये उसने दक्षिण में गुर्जरत्रा (गुजरात, वह भूमि जिसकी रक्षा गुर्जर करते थे व शासक थे।) के रास्ते से राजस्थान और फिर मध्यभारत को जीतकर ( और शायद फिर कन्नौज की ओर) आगे बढने की योजना बनाई और अपनी सेना के दो भाग किये -

1- अल रहमान अल मुर्री के नेतृत्व में गुजरात की ओर
2 - स्वयं जुनैद के नेतृत्व में मालवा की ओर

अरब तूफान की तरह आगे बढे नांदीपुरी में दद्द द्वारा स्थापित प्राचीन राज्य ,राजस्थान में मंडोर का हरिश्चंद्र द्वारा स्थापित प्राचीन राज्य , चित्तौड का मोरी राज्य इस तूफान में उखड गये और यहाँ तक की अरब उज्जैन तक आ पहुँचे और अरबों को लगने लगा कि वे स्पेन ,ईरान और सिंध की कहानी भी यहाँ बस दुहराने ही वाले हैं ..स्थित सचमुच भयावनी हो चुकी थी और तब भारत के गौरव को बचाने के लिये अपने यशस्वी पूर्वजों  कनिष्क महान व मिहिरकुल हूण, श्रीराम व लक्ष्मण के नाम पर गुज्जर यानी गुर्जर अपने सुयोग्य गुर्जर युवक  नागभट्ट प्रथम के नेतृत्व में उठ खडे हुए वे थे ---

-------गुर्जर कैसे बने भारतवर्ष के प्रतिहार ----------

- प्रतिहार सूर्यवंशी ( मिहिर यानी हूणो के वंशज) थे।।
- गुर्जर राष्ट्र रक्षक व प्रतिहार उपाधि से नवाजे गये।।
- गुर्जरो को शत्रु संहारक कहा गया । 

वे भारतीय इतिहास के रंगमंच पर ऐसे समय प्रकट हुए जब भारत अब तक के ज्ञात सबसे भयंकर खतरे का सामना कर रहा था . भारत संस्कृति और धर्म , उसकी ' हिंद ' के रूप में पहचान खतरे में थी अरबों के रूप में " इस्लाम " हिंदुत्व " को निगलने के लिये बेचैन था। गुर्जरेन्द्र  नागभट्ट प्रतिहार के नेतृत्व में दक्षिण के गुर्जर चालुक्य राजा विक्रमादित्य द्वितीय, वल्लभी के गुर्जरराज शिलादित्य मैत्रक और उन्हीं गुर्जर मैत्रक वंश  के गुहिलौत वंश के राणा खुम्माण जिन्हें इतिहास " बप्पा रावल " के नाम से जानता है , के साथ एक संघ बनाया गया संभवतः यशोवर्मन और ललितादित्य भी अपने राष्ट्रीय कर्तव्य से पीछे नहीं हटे और उन्होंने भी इस संघ को सैन्य सहायता भेजी . मुकाबला फिर भी गैरबराबरी का था ----

--- 100000 अरबी योद्धा v/s 40000 गुर्जर सैनिक .

और फिर शुरू हुयी कई युद्धों की श्रंखला जिसे भारत के व विश्व  के  इतिहासकार छुपाते आये हैं  व भारत में मुगलो व तुर्को के आगे झुकने वालो का , अकबर जैसे मुगलो को दामाद बनाने वालो का,हारे हुए छोटे रजवाडे के राजाओ का व हारा हुआ व  छोटे युद्धो का इतिहास पढाकर भारत को नपुंसक का देश व पराजितो का दे श बताकर किरकिरी करवा रखी है, कनिष्क महान जैसे सम्राटो जिन्होंने चीन को हराया, खुशनवाज हूण जैसे परम प्रतापी जिन्होंने फारस के बादशाह फिरोज को तीन बार हराया, मिहिरकुल हूण जैसे सम्राट को जिनका शासन मध्यएशिया तक था व गुर्जर सम्राट मिहिरभोज महान व गुर्जरेन्द्र नागभट प्रतिहार जैसे महान शासको को पढा ने से बचते रहे हैं  बस छोटी मोटी हारो पर कलम घिसते रहे हैं।-

........... "गुर्जरत्रा का युद्ध " .............

गुर्जर सम्राट नागभट्ट प्रतिहार ने 730 ई. में अपनी राजधानी भीनमाल जालौर को बनाकर एक शक्तिशाली नये गुर्जर राज्य की नींव डाली।  गुर्जरसेना ने सम्राट के रूप में नागभट्ट का राज्याभिषेक किया। वह कुशल सेनापति एवं प्रबल देशभक्त थे। गुर्जरेन्द्र नागभट्ट का ही काल वह कुसमय था जब अरब लुटेरों का आक्रमण भारत पर प्रारम्भ हो गया। अरबों ने सिंध प्रांत जीत लिया और फिर मालवा और अन्य राज्यों पर आक्रमण करना प्रारम्भ किया। सिंध पर शासन करने वाला राज्यपाल जुनैद एक खतरनाक अरबी था।उसके पास घोडो और डाकुओं की भारी सेना थी। वह तूफान की तरह सारे पश्चिमी भारत को रौंदता हुआ जालौर की ओर आ रहा था।सभी छोटे - छोटे राज्यों में रहने वाले, व्यक्ति अपना स्थान छोडकर भाग रहे थे। गुर्जर सम्राट नागभट्ट  व भडौच के महाराजा जयभट चपोत्कट ही वे प्रथम योद्धाथे जिन्होने गुर्जरत्रा ( गुर्जरदेश,गुर्जरभूमि, गुर्जरराष्ट्र,गुर्जरधरा, गुर्जरमण्डल) ही नहीं अपने भारत देश को अरबों से मुक्त कराने का बीडा उठाया था।नागभट्ट की गुर्जरसेना छोटी थी, किंतु वह स्वयं जितना साहसी, दिलेर और विवेकशील था, वैसे ही उसकी सेना थी। गुर्जरो का गुर्जर रणनृत्य इन युद्धो में बडा  काम आया इस रणनृत्य के जरिये गुर्जर बडी भयंकर व भयभीत करने वाली आवाजे निकालते थे जिससे शत्रु सेना घबरा उठती थी। गुर्जराधिराज नागभट्ट ने जुनैद के विरूद्ध अपनी मुठ्ठी भर  गुर्जरसेना को खडा कर दिया - पहली ही लडाई में ही जुनैद को करारी शिकस्त झेलनी पडी। 

अरबों के खिलाफ गुर्जरेन्द्र की सफलता अल्पकालिक मात्र न थी, बल्कि उसने अरबों की सेनाओं को बहुत पीछे खदेड दिया था। इस विजय का ऐसा प्रभाव पडा की अनेक भयभीत राजा नागभट्ट से आकर मिल गये। एक वर्ष के बाद ही नागभट्ट गुर्जरेन्द्र ने सिंध पर आक्रमण कर दिया और जुनैद का सिर काट लिया। सारी अरब सेना तितर - बितर होकर भाग खडी हुई, दुश्मनो के हाथ से नागभट्ट ने सैनधक, सुराष्ट्र, उज्जैन, मालवा, भड़ौच आदि राज्यों को मुक्त करा लिया। सन 750 में अरब लोग पुनः एकत्र हो गये। भारत विजय का अभियान छेड दिया। सारी पश्चिमी सीमा अरबो के अत्याचार से त्राहि-त्राहि कर उठी। नागभट्ट आग बबूला होकर युद्ध के लिए आक्रोशित हुआ, उसने तुरंत सीमा की रक्षा के लिए कूच कर दिया। 3000 से ऊपर अरब शत्रुओं को मौत के घाट उतार दिया और देश ने चैन की सांस ली, अपने को नागभट्ट नारायण देव के नाम से अलंकृत किया।

तंदूशे प्रतिहार के तनभृति त्रलोक्यरक्षास्पदे। 
देवो नागभट्ट: पुरातन पुने मुतिवर्षे भूणाद भुतम ।।

मर्तवढ चौहान नागभट्ट का सामंत था वह जैसा वीर था वैसा ही सुयोग्य कवि भी। उसने नागभट्ट प्रशस्ति नामक अच्छे ग्रंथ की रचना की है जो इतिहास और काव्य दोनों है। उसने गुर्जरेन्द्र नागभट्ट को वामन अवतार नाम दिया है। जिन्होने राक्षसों से धरती का उद्धार किया था। चौहान सामंत ने, जुनैद के उत्तराधिकारी तमीम को जिस वीरता से पराजित कर चमोत्कट और भड़ौच से मार भगाया कि नागभट्ट प्रतिहार ने उसे सामंत से भड़ौच का राजा ही बना दिया। सन 760 ई. में गुर्जरेन्द्र का स्वर्गवास हो गया । सन 760 - 775 तक उसके पुत्र कक्कुस्थ और पौत्र देवराज प्रतिहार ने गुर्जर राज्य को संभाला।।

अरब सदैव के लिये सिंधु के उस पार धकेल दिये गये और मात्र टापूनुमा शहर " मनसुरा " तक सीमित होकर रह गये इस तरह ना केवल विश्व को यह बताया गया कि हिंदुस्तान के योद्धा शारीरिक बल में श्रेष्ठ हैं बल्कि यह भी कि उनके हथियार उनकी युद्ध तकनीक और रणनीति विश्व में सर्वश्रेष्ठ है।। 

इस तरह भारत की सीमाओं को सुरक्षित रखते हुए उन्होंने अपना नाम सार्थक किया --

जय सम्राट कनिष्क महान 
जय गुर्जरराज मिहिरकुल हूण 
जय गुर्जरेश मिहिरभोज महान 
जय गुर्जरेन्द्र नागभट प्रतिहार 
जय गुर्जरत्रा,जय हिन्द।।।।।।।।।।।।।।।

Tuesday, February 16, 2016

History of Pratihar/ Parihar Rajput

== = क्षत्रिय सम्राट वत्सराज प्रतिहार === 

प्रतिहार एक ऐसा वंश है जिसकी उत्पत्ति पर कई महान इतिहासकारों ने शोध किए जिनमे से कुछ अंग्रेज भी थे और वे अपनी सीमित मानसिक क्षमताओं तथा भारतीय समाज के ढांचे को न समझने के कारण इस वंश की उतपत्ति पर कई तरह के विरोधाभास उतपन्न कर गए।

प्रतिहार एक शुद्ध क्षत्रिय वंश है जिसने गुर्जरा
देश से गुज्जरों को खदेड़ने व राज करने के कारण गुर्जरा सम्राट की भी उपाधि पाई। आये
जानिए प्रतिहार वंश और सम्राट वत्सराज
को।                        

= = = सम्राट वत्सराज प्रतिहार ===  

सम्राट वत्सराज (775 से 800 ईस्वीं तक) प्रतिहार\परिहार राजवंश का संस्थापक एवं वह देवराज एवं भूमिका देवी का प्रबल प्रतापी पुत्र थे । उसने शास्त्र सूत्र ग्रहण करते ही अपने पूर्वज सम्राट नागभट्ट की भांति राज्य की चारों दिशाओं में वृद्धि करने का निश्चय किया । उस समय उज्जैन में श्रीहर्ष का ममेरा भाई भण्डि शासन कर रहा था, वह बार बार जालौर राज्य को आधीनता में लेने का पैगाम भेज रहा था। देवराज प्रतिहार उससे डर रहा था। वत्सराज ने शासन ग्रहण करते ही उज्जैन पर आक्रमण कर दिया, राजा भण्डि को कैद कर लिया और उसके संपूर्ण परिवार को राज्य से बाहर कर दिया। वत्सराज ने ही प्रतिहार साम्राज्य की राजधानी उज्जैन को बनाया।

ख्यानादि भण्डिकुलां मदोत्कट काटि प्रकार लुलंघतो।
यः साम्राज्य मरधाज्य कारमुक सखां सख्य हहादग्रहीत।।

मण्डौर राज्य के कमजोर हो जाने के बाद भारत में तीन महाशक्तियां अस्तित्व में थीं।

प्रतिहार साम्राज्य - उज्जैन, राजा वत्सराज
पाल साम्राज्य - गौड़, राजा धर्मपाल
राष्ट्रकूट साम्राज्य - दक्षिण भारत राजा धु्रव

वत्सराज ने सम्मुख साम्राज्य के लिए पाल और राष्ट्रकूट दोनों ही समान खतरे थे। दोनों की निगाहें उज्जैन पर लगी थी । वत्सराज भी अवसर व साधन की प्रतिक्षा कर रहा था। भण्डि पर विजय प्राप्त होने से ववत्सराज को पर्याप्त धन युद्ध सामग्री और सैन्य बल पप्राप्त हो गया। इससे संपन्न होकर प्रतिहार वंश के प्रमुख शत्रु धर्मपाल पर वत्सराज ने ही आक्रमण कर दिया। गंगा यमुना के दोआब मे लडा गया युद्ध अति भयानक था, अंततः धर्मपाल पीछे हटने लगा, वत्सराज ने उसे बंगाल की खाडी तक खदेडा, यहां पर पुनः एक निर्णायक युद्ध हुआ। इस युद्ध में धर्मपाल ने ही संधि प्रस्ताव भेजा और उज्जैन साम्राज्य की आधीनता स्वीकार कर ली। गौड राज्य की विजय से सम्राट वत्सराज प्रतिहार का हौसला इतना बुलंद हुआ कि धर्मपाल ने और ध्रुव(राष्ट्रकूट) ने एक - एक राजछत्र और राज्यलक्ष्मी उसे भेंट कर दिया।

"हैसा स्वीकृत गौड़ राज्य कमलां मनतं प्रवेश्या विरात"

सन् 780 से 781 की महान विजय के समानांतर सन् 798 अर्थात 18 वर्ष तक उज्जैन साम्राज्य का अकंटक यह काल न केवल राजस्थान वरन संपूर्ण उत्तरी भारत का वैभव काल था। प्रशासन की स्वच्छता न्याय की आस्था और कृषि व्यापार की संपन्नता ने उज्जैन को भारत का मुकुट और वत्सराज प्रतिहार को राजाधिराज का पद दिया।।

Pratihara / Pratihar / Parihar Rulers of india

जय माँ भवानी।।
जय क्षात्र धर्म।।
नागौद रियासत।।

Tuesday, November 17, 2015

प्रतिहार वंश /Pratihar or Parihar Rajput

यूँ तो प्रतिहारो की उत्पत्ति पर कई सारे मत है,किन्तु उनमे से अधिकतर कपोल कल्पनाओं के अलावा कुछ नहीं है। प्राचीन साहित्यों में प्रतिहार का अर्थ "द्वारपाल" मिलता है। अर्थात यह वंश विश्व के मुकुटमणि भारत के पश्चिमी द्वारा अथवा सीमा पर शासन करने के चलते ही प्रतिहार कहलाया।
अब प्रतिहार वंश की उत्पत्ति के बारे में जो भ्रांतियाँ है उनका निराकारण करते है। एक मान्यता यह है की ये वंश अबू पर्वत पर हुए यज्ञ की अग्नि से उत्पन्न हुआ है,जो सरासर कपोल कल्पना है।हो सकता है अबू पर हुए यज्ञ में इस वंश की हाजिरी के कारण इस वंश के साथ साथ अग्निवंश की कथा रूढ़ हो गई हो। खैर अग्निवंश की मान्यता कल्पना के अलावा कुछ नहीं हो सकती और ऐसी कल्पित मान्यताये इतिहास में महत्त्व नहीं रखती।
इस वंश की उत्पत्ति के संबंध में प्राचीन साहित्य,ग्रन्थ और शिलालेख आदि क्या कहते है इसपर भी प्रकाश डालते है।
१) सोमदेव सूरी ने सन ९५९ में यशस्तिलक चम्पू में गुर्जर देश का वर्णन किया है। वह लिखता है कि न केवल प्रतिहार बल्कि चावड़ा,चालुक्य,आदि वंश भी इस देश पर राज करने के कारण गुर्जर कहलाये।
२) विद्व शाल मंजिका,सर्ग १,श्लोक ६ में राजशेखर ने कन्नौज के प्रतिहार राजा भोजदेव के पुत्र महेंद्र को रघुकुल तिलक अर्थात सूर्यवंशी क्षत्रिय बताया है।
३)कुमारपाल प्रबंध के पृष्ठ १११ पर भी गुर्जर देश का वर्णन है...
कर्णाटे,गुर्जरे लाटे सौराष्ट्रे कच्छ सैन्धवे।
उच्चाया चैव चमेयां मारवे मालवे तथा।।
४) महाराज कक्कूड का घटियाला शिलालेख भी इसे लक्ष्मण का वंश प्रमाणित करता है....अर्थात रघुवंशी
रहुतिलओ पड़ीहारो आसी सिरि लक्खणोत्रि रामस्य।
तेण पडिहार वन्सो समुणई एत्थ सम्प्तो।।
५) बाउक प्रतिहार के जोधपुर लेख से भी इनका रघुवंशी होना प्रमाणित होता है।(९ वी शताब्दी)
स्वभ्राता राम भद्रस्य प्रतिहार्य कृतं सतः।
श्री प्रतिहारवड शोयमत श्रोन्नतिमाप्युयात।
इस शिलालेख के अनुसार इस वंश का शासनकाल गुजरात में प्रकाश में आया था।
६) चीनी यात्री हुएन्त त्सांग ने गुर्जर राज्य की राजधानी पीलोमोलो,भीनमाल या बाड़मेर कहा है।
७) भोज प्रतिहार की ग्वालियर प्रशस्ति
मन्विक्षा कुक्कुस्थ(त्स्थ) मूल पृथवः क्ष्मापल कल्पद्रुमाः।
तेषां वंशे सुजन्मा क्रमनिहतपदे धाम्नि वज्रैशु घोरं,
राम: पौलस्त्य हिन्श्रं क्षतविहित समित्कर्म्म चक्रें पलाशे:।
श्लाध्यास्त्स्यानुजो सौ मधवमदमुषो मेघनादस्य संख्ये,
सौमित्रिस्तिव्रदंड: प्रतिहरण विर्धर्य: प्रतिहार आसी।
तवुन्शे प्रतिहार केतन भृति त्रैलौक्य रक्षा स्पदे
देवो नागभट: पुरातन मुने मुर्तिर्ब्बमूवाभदुतम।
अर्थात-सुर्यवंश में मनु,इश्वाकू,कक्कुस्थ आदि राजा हुए,उनके वंश में पौलस्त्य(रावण) को मारने वाले राम हुए,जिनका प्रतिहार उनका छोटा भाई सौमित्र(सुमित्रा नंदन लक्ष्मण) था,उसके वंश में नागभट हुआ। इसी प्रशस्ति के सातवे श्लोक में वत्सराज के लिए लिखा है क़ि उस क्षत्रिय पुंगव(विद्वान्) ने बलपूर्वक भड़ीकुल का साम्राज्य छिनकर इश्वाकू कुल की उन्नति की।
८) देवो यस्य महेन्द्रपालनृपति: शिष्यों रघुग्रामणी:(बालभारत,१/११)
तेन(महिपालदेवेन)च रघुवंश 
मुक्तामणिना(बालभारत)
बालभारत में भी महिपालदेव को रघुवंशी कहा है।
९)ओसिया के महावीर मंदिर का लेख जो विक्रम संवत १०१३(ईस्वी ९५६) का है तथा संस्कृत और देवनागरी लिपि में है,उसमे उल्लेख किया गया है कि-
तस्या कार्षात्कल प्रेम्णालक्ष्मण: प्रतिहारताम ततो अभवत प्रतिहार वंशो राम समुव:।।६।।
तदुंदभशे सबशी वशीकृत रिपु: श्री वत्स राजोडsभवत।
अर्थात लक्ष्मण ने प्रेमपूर्वक उनके प्रतिहारी का कार्य किया,अनन्तर श्री राम से प्रतिहार वंश की उत्पत्ति हुई। उस प्रतिहार वंश में वत्सराज हुआ।
१०) गौडेंद्रवंगपतिनिर्ज्जयदुर्व्विदग्धसदगुर्ज्जरेश्वरदिगर्ग्गलतां च यस्य।
नीत्वा भुजं विहतमालवरक्षणार्त्थ स्वामी तथान्यमपि राज्यछ(फ) लानि भुंक्ते।।
-बडोदे का दानपत्र,Indian Antiquary,Vol 12,Page 160
उक्त ताम्रपत्र के 'गुजरेश्वर' एद का अर्थ 'गुर्जर देश(गुजरात) का राजा' स्पष्ट है,जिसे खिंच तानकर गुर्जर जाती या वंश का राजा मानना सर्वथा असंगत है। संस्कृत साहित्य में कई ऐसे उदाहरण मिलते है।
ये लेख गुजरेश्वर,गुर्जरात्र,गुज्जुर इन संज्ञाओ का सही मायने में अर्थ कर इसे जाती सूचक नहीं स्थान सूचक सिद्ध करता है जिससे भगवान्लाल इन्द्रजी,देवदत्त रामकृष्ण भंडारकर,जैक्सन तथा अन्य सभी विद्वानों के मतों को खारिज करता है जो इस सज्ञा के उपयोग से प्रतिहारो को गुर्जर मानते है।
११) कुशनवंशी राजा कनिष्क के समय में गुर्जरों का भारतवर्ष में आना प्रमाणशून्य बात है,जिसे स्वयं डॉ.भगवानलाल इन्द्रजी ने स्वीकार किया है,और गुप्तवंशियों के समय में गुजरो को राजपूताना,गुजरात और मालवे में जागीर मिलने के विषय में कोई प्रमाण नहीं दिया है। न तो गुप्त राजाओं के लेखो और भडौच से मिले दानपत्रों में इसका कही उल्लेख है।
१२)३६ राजवंशो की किसी भी सूची में इस वंश के साथ "गुर्जर" एद का प्रयोग नहीं किया गया है। यह तथ्य भी गुर्जर एद को स्थानसूचक सिद्धकर सम्बंधित एद का कोइ विशेष महत्व नही दर्शाता।
१३)ब्राह्मण उत्पत्ति के विषय में इस वंश के साथ द्विज,विप्र यह दो संज्ञाए प्रयुक्त की गई है,तो द्विज का अर्थ ब्राह्मण न होकर द्विजातिय(जनेउ) संस्कार से है न की ब्राह्मण से। ठीक इसी तरह विप्र का अर्थ भी विद्वान पंडित अर्थात "जिसने विद्वत्ता में पांडित्य हासिल किया हो" ही है।
१४) कुशनवंशी राजा कनिष्क के समय में गुर्जरों का भारतवर्ष में आना प्रमाणशून्य बात है,जिसे स्वयं डॉ.भगवानलाल इन्द्रजी ने स्वीकार किया है,और गुप्तवंशियों के समय में गुजरो को राजपूताना,गुजरात और मालवे में जागीर मिलने के विषय में कोई प्रमाण नहीं दिया है। न तो गुप्त राजाओं के लेखो और भडौच से मिले दानपत्रों में इसका कही उल्लेख है।
उपरोक्त सभी प्रमाणों के आधार पर हम इस निष्कर्ष पर पहुँचते है की,प्रतिहार वंश निस्संदेह भारतीय मूल का है तथा शुद्ध क्षत्रिय राजपूत वंश है।
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प्रतिहार वंश
संस्थापक- हरिषचन्द्र
वास्तविक - नागभट्ट प्रथम (वत्सराज)
पाल -धर्मपाल
राष्ट्रकूट-ध्रव
प्रतिहार-वत्सराज
राजस्थान के दक्षिण पष्चिम में गुर्जरात्रा प्रदेष में प्रतिहार वंष की स्थापना हुई। ये अपनी उत्पति लक्ष्मण से मानते है। लक्षमण राम के प्रतिहार (द्वारपाल) थे। अतः यह वंष प्रतिहार वंष कहलाया। नगभट्ट प्रथम पष्चिम से होने वाले अरब आक्रमणों को विफल किया। नागभट्ट प्रथम के बाद वत्सराज षासक बना। वह प्रतिहार वंष का प्रथम षासक था जिसने त्रिपक्षीप संघर्ष त्रिदलीय संघर्ष/त्रिराष्ट्रीय संघर्ष में भाग लिया।
त्रिपक्षीय संघर्ष:- 8 वीं से 10 वीं सदी के मध्य लगभग 200 वर्षो तक पष्चिम के प्रतिहार पूर्व के पाल और दक्षिणी भारत के राष्ट्रकूट वंष ने कन्नौज की प्राप्ति के लिए जो संघर्ष किया उसे ही त्रिपक्षीय संघर्ष कहा जाता है।
नागभट्ट द्वितीय:- वत्सराज के पष्चात् षक्तिषाली षासक हुआ उसने भी अरबों को पराजित किया किन्तु कालान्तर में उसने गंगा में डूब आत्महत्या कर ली।
मिहिर भोज प्रथम - इस वंष का सर्वाधिक षक्तिषाली षासक इसने त्रिपक्षीय संघर्ष में भाग लेकर कन्नौज पर अपना अधिकार किया और प्रतिहार वंष की राजधानी बनाया। मिहिर भोज की उपब्धियों की जानकारी उसके ग्वालियर लेख से प्राप्त होती है।
- आदिवराह व प्रीाास की उपाधी धारण की।
-आदिवराह नामक सिक्के जारी किये।
मिहिर भोज के पष्चात् महेन्द्रपाल षासक बना। इस वंष का अन्तिम षासक गुर्जर प्रतिहार वंष के पतन से निम्नलिखित राज्य उदित हुए।
मारवाड़ का राठौड़ वंष
मेवाड़ का सिसोदिया वंष
जैजामुक्ति का चन्देष वंष
ग्वालियर का कच्छपधात वंष
प्रतिहार
8वीं से 10वीं षताब्दी में उत्तर भारत में प्रसिद्ध राजपुत वंष गुर्जर प्रतिहार था। राजस्थान में प्रतिहारों का मुख्य केन्द्र मारवाड़ था। पृथ्वीराज रासौ के अनुसार प्रतिहारों की उत्पत्ति अग्निकुण्ड से हुई है।
प्रतिहार का अर्थ है द्वारपाल प्रतिहार स्वयं को लक्ष्मण वंषिय सूर्य वंषीय या रधुकुल वंषीय मानते है। प्रतिहारों की मंदिर व स्थापत्य कला निर्माण षैली गुर्जर प्रतिहार षैली या महामारू षैली कहलाती है। प्रतिहारों ने अरब आक्रमण कारीयों से भारत की रक्षा की अतः इन्हें "द्वारपाल"भी कहा जाता है। प्रतिहार गुर्जरात्रा प्रदेष (गुजरात) के पास निवास करते थे। अतः ये गुर्जर - प्रतिहार कहलाएं। गुर्जरात्रा प्रदेष की राजधानी भीनमाल (जालौर) थी।
मुहणौत नैणसी (राजपुताने का अबुल-फजल) के अनुसार गुर्जर प्रतिहारों की कुल 26 शाखाएं थी। जिमें से मण्डोर व भीनमाल शाखा सबसे प्राचीन थी।
मण्डौर शाखा का संस्थापक - हरिचंद्र था।
गुर्जर प्रतिहारों की प्रारम्भिक राजधानी -मण्डौर
भीनमाल शाखा
1. नागभट्ट प्रथम:- नागभट्ट प्रथम ने 730 ई. में भीनमाल में प्रतिहार वंष की स्थापना की तथा भीनमाल को प्रतिहारों की राजधानी बनाया।
2. वत्सराज द्वितीय:- वत्सराज भीनमाल प्रतिहार वंष का वास्तिवक संस्थापक था। वत्सराज को रणहस्तिन की उपाधि प्राप्त थी। वत्सराज ने औसियां के मंदिरों का निर्माण करवाया। औसियां सूर्य व जैन मंदिरों के लिए प्रसिद्ध है। इसके समय उद्योतन सूरी ने "कुवलयमाला" की रचना 778 में जालौर में की। औसियां के मंदिर महामारू षैली में बने है। लेकिन औसियां का हरिहर मंदिर पंचायतन षैली में बना है।
-औसियां राजस्थान में प्रतिहारों का प्रमुख केन्द्र था।
-औसिंया (जोधपुर)के मंदिर प्रतिहार कालीन है।
-औसियां को राजस्थान को भुवनेष्वर कहा जाता है।
-औसियां में औसिया माता या सच्चिया माता (ओसवाल जैनों की देवी) का मंदिर है जिसमें महिसासुर मर्दनी की प्रतिमा है।
-जिनसेन ने "हरिवंष पुराण " की रचना की।
वत्सराज ने त्रिपक्षिय संर्घष की षुरूआत की तथा वत्सराज राष्ट्रकूट राजा ध्रुव से पराजित हुआ।
त्रिपक्षिय/त्रिराष्ट्रीय संर्घष
कन्नौज को लेकर उत्तर भारत की गुर्जर प्रतिहार पूर्व में बंगाल का पाल वंष तथा दक्षिणी भारत का राष्ट्रवंष के बीच 100 वर्षो तक के चले संघर्ष को त्रिपक्षिय संघर्ष कहा जाता है।
3. नागभट्ट द्वितीय:- वत्सराज व सुन्दर देवी का पुत्र। नागभट्ट द्वितीय ने अरब आक्रमणकारियों पर पूर्णतयः रोक लगाई। नागभट्ट द्वितीय ने गंगा समाधि ली। नागभट्ट द्वितीय ने त्रिपक्षिय संघर्ष में कन्नौज को जीतकर सर्वप्रथम प्रतिहारों की राजधानी बनाया।
4. मिहिर भोज (835-885 ई.):- मिहिर भोज को आदिवराह व प्रभास की उपाधि प्राप्त थी। मिहिर भोज वेष्णों धर्म का अनुयायी था। मिहिरभोज प्रतिहारों का सबसे अधिक षक्तिषाली राजा था। इस काल चर्माेत्कर्ष का काल था। मिहिर भोज ने चांदी के द्रुम सिक्के चलवाये। मिहिर भोज को भोज प्रथम भी कहा जाता है। ग्वालियर प्रषक्ति मिहिर भोज के समय लिखी गई।
851 ई. में अरब यात्री सुलेमान न मिहिर भोज के समय भारत यात्रा की। अरबीयात्री सुलेमान व कल्वण ने अपनी राजतरंगिणी (कष्मीर का इतिहास) में मिहिर भोज के प्रषासन की प्रसंषा की। सुलेमान ने भोज को इस्लाम का षत्रु बताया।
5. महिन्द्रपाल प्रथम:- इसका गुरू व आश्रित कवि राजषेखर था। राजषेखर ने कर्पुर मंजरी, काव्य मिमांसा, प्रबंध कोष हरविलास व बाल रामायण की रचना की। राजषेखर ने महेन्द्रपाल प्रथम को निर्भय नरेष कहा है।
6. महिपाल प्रथम:- राजषेखर महिपाल प्रथम के दरबार में भी रहा। 915 ई. में अरब यात्री अली मसुदी ने गुर्जर व राजा को बोरा कहा है।
7. राज्यपाल:- 1018 ई. में मुहम्मद गजनवी ने प्रतिहार राजा राज्यपाल पर आक्रमण किया।
8. यषपाल:- 1036 ई. में प्रतिहारों का अन्तिम राजा यषपाल था।
भीनमाल:- हेनसांग/युवाचांग न राजस्थान में भीनमाल व बैराठ की यात्रा की तथा अपने ग्रन्थ सियू की मे भीनमाल को पोनोमोल कहा है। गुप्तकाल के समय का प्रसिद्व गणितज्ञ व खगोलज्ञ ब्रहमागुप्त भीनमाल का रहने वाला था जिससे ब्रहमाण्ड की उत्पत्ति का सिद्धान्त " ब्रहमास्फुट सिद्धान्त (बिग बैन थ्यौरी) का प्रतिपादन किया।
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---प्रतिहार राजपूतो की वर्तमान स्थिति---
भले ही यह विशाल प्रतिहार राजपूत साम्राज्य बाद में खण्डित हो गया हो लेकिन इस वंश के वंशज राजपूत आज भी इसी साम्राज्य की परिधि में मिलते हैँ।
उत्तरी गुजरात और दक्षिणी राजस्थान में भीनमाल के पास जहाँ प्रतिहार वंश की शुरुआत हुई, आज भी वहॉ प्रतिहार राजपूत पड़िहार आदि नामो से अच्छी संख्या में मिलते हैँ।
प्रतिहारों की द्वितीय राजधानी मारवाड़ में मंडोर रही। जहाँ आज भी प्रतिहार राजपूतो की इन्दा शाखा बड़ी संख्या में मिलती है। राठोड़ो के मारवाड़ आगमन से पहले इस क्षेत्र पर प्रतिहारों की इसी शाखा का शासन था जिनसे राठोड़ो ने जीत कर जोधपुर को अपनी राजधानी बनाया। 17वीं सदी में भी जब कुछ समय के लिये मुगलो से लड़ते हुए राठोड़ो को जोधपुर छोड़ना पड़ गया था तो स्थानीय इन्दा प्रतिहार राजपूतो ने अपनी पुरातन राजधानी मंडोर पर कब्जा कर लिया था।
इसके अलावा प्रतिहारों की अन्य राजधानी ग्वालियर और कन्नौज के बीच में प्रतिहार राजपूत परिहार के नाम से बड़ी संख्या में मिलते हैँ।
बुन्देल खंड में भी परिहारों की अच्छी संख्या है। यहाँ परिहारों का एक राज्य नागौद भी है जो मिहिरभोज के सीधे वंशज हैँ।
प्रतिहारों की एक शाखा राघवो का राज्य वर्तमान में उत्तर राजस्थान के अलवर, सीकर, दौसा में था जिन्हें कछवाहों ने हराया। आज भी इस क्षेत्र में राघवो की खडाड शाखा के राजपूत अच्छी संख्या में हैँ। इन्ही की एक शाखा पश्चिमी उत्तर प्रदेश के बुलंदशहर, अलीगढ़, रोहिलखण्ड और दक्षिणी हरयाणा के गुडगाँव आदि क्षेत्र में बहुसंख्या में है। एक और शाखा मढाढ के नाम से उत्तर हरयाणा में मिलती है। व
उत्तर प्रदेश में सरयूपारीण क्षेत्र में भी प्रतिहार राजपूतो की विशाल कलहंस शाखा मिलती है। इनके अलावा संपूर्ण मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश, बिहार और उत्तरी महाराष्ट्र आदि में(जहाँ जहाँ प्रतिहार साम्राज्य फैला था) अच्छी संख्या में प्रतिहार/परिहार राजपूत मिलते हैँ।

प्रतिहार गुज्जर कैसे ??
-प्रतिहारो के गल्लका के लेख में स्पष्ट लिखा है के प्रतिहार सम्राट नागभट्ट जिन्हें गुर्जरा प्रतिहार वंश का संस्थापक भी माना जाता है ने गुर्जरा राज्य पर हमला कर गुज्जरों को गुर्जरा देश से बाहर खदेड़ा व अपना राज्य स्थापित किया... अगर प्रतिहार गुज्जर थे तो खुद को ही अपने देश में हराकर बाहर क्यों खड़ेंगे ?? मिहिर भोज के पिता प्रतिहार क्षत्रिय और पुत्र गुज्जर कैसे ??

- हरश्चरित्र में गुजरादेश का जिक्र बाण भट्ट ने एक राज्य एक भू भाग के रूप में किया है यही बात पंचतंत्र और कई विदेशी सैलानियों के रिकार्ड्स में भी पुख्ता होती है। इस गुर्जरा देस में गुज्जरों को खदेड़ने के बाद जिस भी वंश ने राज्य किया गुर्जरा नरपति या गुर्जर नरेश कहलाया। यदि गुज्जर विदेशी जाती है तो दक्षिण से आये हुए सोलंकी/चालुक्य जैसे वंश भी गुर्जरा पर फ़तेह पाने के बाद गुर्जरा नरेश या गुर्जरेश्वर क्यों कहलाये ?

- गुज्जर एक विदेशी जाती है जो हूणों के साथ भारत आई जिसका मुख्य काम गोपालन और दूध मीट की सेना को सप्लाई था तो आज भी गुजरात में गुर्जरा ब्राह्मण गुर्जरा वैश्य गुर्जरा मिस्त्री गुर्जरा धोभी गुर्जरा नाई जैसी जातियाँ कैसे मिलती है ??

- प्रतिहार राजा हरिश्चंद्र को मंडोर के शीलालेखों में द्विज लिखा है , जिनकी ब्राह्मण और क्षत्रिय पत्नियां थी । यह मिहिर भोज के भी पूर्वज थे। रिग वेद और मनुस्मृति के अनुसार द्विज केवल आर्य क्षत्रिय और ब्राह्मण जातियाँ ही हो सकती थीं। अगर हरिशन्द्र आर्य क्षत्रिय थे तो उनके वंशज विदेशी शूद्र गुज्जर कैसे ??

- प्रतिहारों की राजोरगढ़ के शिलालेखों में प्रतिहारों को गुर्जर प्रतिहार लिखा है ये शिलालेख मण्डोर और गललका के शिलालेख से बाद के है यानी प्रतिहारों के गुर्जरा राज्य पर अधिपत्य के बाद स्थापित किये गए। सभी इतिहासकार इन्हें स्थान सूचक मानतें हैं। तो कुछ विदेशी इतिहासकार ये लिखते है के 12वि पंक्ति में गूजरों का पास के खेतों में खेती करने का जिक्र किया गया है तो इस वजह से कहा जा सकता है प्रतिहार गुज्जर थे। अब ये समझा दी भैया के राजा और क्षत्रिय की पदवी पा चुकी राजवंशी जाती क्यों खेती करेगी ?? जबकि ये तो शूद्रों का कार्य माना जाता था। यानि साफ़ है के गुर्जरा देस से राजोर आये प्रतिहार ही गुर्जरा प्रतिहार कहलाए जिनके राज्य में गुर्जर देश से आये हुए गर्जर यानी गुर्जरा के नागरिक खेती करते थे और ये प्रतिहारों से अलग थे ।।।

- अवंती के प्रतिहार राजा, वत्सराज के ताम्रपत्रों और शिलालेखों से यह पता चलता है के वत्सराज प्रतिहार ने नंदपुरी की पहली और आखिरी गुज्जर बस्ती को उखाड़ फेंका नेस्तेनाबूत कर दिया और भत्रवर्ध चौहान को जयभट्ट गुज्जर के स्थान पर जागीर दी। इस शिलालेखों से भी प्रतिहार और गुज्जरों के अलग होने के सबूत मिलते हैं तो प्रतिहार और गुज्जर एक कैसे ???

- देवनारायण जी की कथा के अनुसार भी उनके पिता चौहान क्षत्रिय और माता गुजरी थी जिससे गूजरों की बगड़ावत वंश निकला यही उधारण राणा हर राय देव से कलस्यां गोत्र के गुज्जरों को उतपत्ति ( करनाल और मुज़्ज़फरगर ब्रिटिश गजट पढ़ें या सदियों पुराने राजपूतों के भाट रिकॉर्ड पढ़ें।) , ग्वालियर के राजा मान सिंह तंवर की गुजरी रानी मृगनयनी से तोंगर या तंवर गुज्जरों की उत्पत्ति के प्रमाण मिलतें हैं तो प्रीतिहार राजपूत वंश गुज्जरों से कैसे उतपन्न हुआ ? क्षत्रिय से शुद्र तो बना जा सकता है पर शुद्र से क्षत्रिय कैसे बना जा सकता है 
- जहाँ जहाँ प्रतिहार वंश का राज रहा है वहाँ आज भी प्रतिहार राजपूतों की बस्ती है और यह बस्तियाँ हजारों साल पुरानी है पर यहाँ गुज्जर प्रतिहार नहीं पाये जाते।
मंडोर के इलाके में इन्दा व देवल प्रतिहार कन्नौज में कलहंस और मूल प्रतिहार , मध्य प्रदेश में प्
रतिहारों को नागोद रियासत व गुजरात में प्रतिहार राजपूतों के आज भी 3 रियासत व् 200 से अधिक गाँव। न कन्नौज में गुज्जर है ना नागोद में ना गुजरात में। और सारे रजवाड़े भी क्षत्रिय व राजपूत प्रतिहार माने जाते है जबकि गुज्जरों में तो प्रतिहार गोत्र व खाप ही नहीं है तो प्रतिहार गुज्जर कैसे ??

- मिहिर भोज नागभट्ट हरिश्चंद्र प्रतिहारों के शिलालेखों और ताम्रपत्रों में इन तीनों को सूर्य वंशी रघु वंशी और लक्षमण के वंश में लिखा है ; गुज्जर विदेशी है तो ये सब खुद को आर्य क्षत्रिय क्यों बता के गए ??!

- राजोरगढ़ के आलावा ग्वालियर कन्नोज मंडोर गल्लका अवंती उज्जैन के शिलालेखों और ताम्रपत्रों में प्रतिहारों के लिये किसी भी पंक्ति व लेख में गुर्जर गू जर गू गुर्जरा या कोई भी मिलता जुलता शब्द या उपाधि नहीं मिलती है साफ है सिर्फ राजोरगढ़ में गुर्जरा देस से आई हुई खाप को गुर्जरा नरेश को उपाधि मिली !! जब बाकि देश के प्रतिहार गुज्जर नहीं तो राजोरगढ़ के प्रतिहार गुज्जर कैसे ??
लेखक--कुंवर विश्वजीत सिंह शिशोदिया(खानदेश महाराष्ट्र)