
सरदार हरि सिंह नलवा का नाम श्रेष्ठतम सिक्खी योद्धाओं की गिनती में आता है। वह महाराजा रणजीत सिंह की सिख फौज के सबसे बड़े जनरल (कमांडर-इन-चीफ) थे। महाराजा रणजीत सिंह के साम्राज्य (1799-1849) को सरकार खालसाजी के नाम से भी निर्दिष्ट किया जाता था। सिख साम्राज्य, गुरू नानक द्वारा शुरू किये गए आध्यात्मिक मार्ग का वह एकगरत रूप था जो गोबिंद सिंह ने खालसा की परंपरा से निश्चित कर के संगठित किया था। गोबिंद सिंह ने मुगलों के खिलाफ प्रतिरोध के लिए एक सैन्य बल की स्थापना करने का निर्णय लिया था। खालसा, गुरु गोबिंद सिंह की उक्ति की सामूहिक सर्वसमिका है । 30 मार्च 1699 को गुरु गोबिंद सिंह ने खालसा मूलतः “संत सैनिकों” के एक सैन्य शक्ति के रूप में स्थापित किया। खालसा उनके द्वारा दिया गया उन सब चेलों का नाम था जिन्होंने अमृत संचार अनुष्ठान स्विकार करके पांच तत्व- केश,कंघा,कड़ा,कच्छा,किरपान का अंगीकार किया्। वह व्यक्ति जो खालसा में शामिल किया जाता,एक खालसा सिख या अम्रित्धारी कहलाता। यह परिवर्तन संभवतः मूलमंत्र के तौर से मानसिकता का जैसे हिस्सा बन जाता और आत्मविश्वास को उत्पन्न करके युद्ध भूमि में सामर्थ्य प्राप्त करने में सफलता प्रदान करता।
… पिछली आठ सदियों की लूटमार, बलात्कार, और इस्लाम के जबरन रूपांतरण के बाद सिखों ने भारतीय उपमहाद्वीप के उस भाग में अपने राज्य की स्थापना की जो सबसे ज़्यादा आक्र्मणकारियों द्वारा आघात था। अपने जीवनकाल में हरि सिंह नलवा, इन क्षेत्रों में निवास करने वाले क्रूर कबीलों के लिए एक आतंक बन गये थे। आज भी उत्तर पश्चिम सीमांत (नौर्थ वेस्टन प्रोविन्स) में एक प्रशासक और सैन्य कमांडर के रूप में हरि सिंह नलवा का प्रदर्शन बेमिसाल है। हरि सिंह नलवा की शानदार उपलब्धियाँ ऐसे हैं कि वह गुरु गोबिंद सिंह द्वारा स्थापित परंपरा का उदाहरण देती हैं और उन्हें इसलिये सर हेनरी ग्रिफिन ने “खालसाजी का चैंपियन” के नाम से सुसज्जित किया है। ब्रिटिश शासकों ने हरि सिंह नलवा की तुलना नेपोलियन के प्रसिद्ध कमांडरों से भी की है।
हरि सिंह नलवा ने महाराजा रणजीत सिंह के निर्देश के अनुसार सिख साम्राज्य की भौगोलिक सीमाओं को पंजाब से लेकर काबुल बादशाहत के बीचोंबीच तक विस्तार किया था। महाराजा रणजीत सिंह के तहत 1807 ई. से लेकर तीन दशकों की अवधि 1837 ई. तक, सिख शासन के दौरान हरि सिंह नलवा लगातार अफगानों के खिलाफ लड़े। अफगानों के खिलाफ जटिल लड़ाई जीतकर नलवा ने उनकी मिट्टी पर कसूर, मुल्तान, कश्मीर और पेशावर में सिख शासन की अर्थव्यवस्था की था। हरि सिंह नलवा के जीवन के परीक्षणों का वर्णन, उन्नीसवीं सदी की पहली छमाही में सिख-अफगान संबंधों का प्रतिनिधित्व है। काबुल बादशाहत के तीन पश्तून वंशवादी के प्रतिनिधि सरदार हरि सिंह नलवा के प्रतिद्वंदी थे। पहले अहमद शाह अबदाली का पोता, शाह शूजा था; दूसरा, फ़तह खान, दोस्त मोहम्मद खान और उनके बेटे, तीसरा, सुल्तान मोहम्मद खान, जो जहीर शाह अफगानिस्तान के राजा का पूर्वज (1933 -73) था।
सिंधु नदी के पार, उत्तरी पश्चिम क्षेत्र में, पेशावर के आसपास, अफगानी लोग कई कबीलों में विभाजित थे। आज भी अफगानिस्तान के विभिन्न कबीले कितने ही वर्षो से आपस में लड रहे हैं। किसी भी नियम के पालन के परे, आक्रामक प्रवृत्ति इन अफ़गानों की नियति है। पूरी तरह से इन क्षेत्रों का नियंत्रण करना हर शासन की समस्यात्मक चुनौती रही है। इस इलाके में सरदार हरि सिंह नलवा ने सिंधु नदी के पार, अपने अभियानों द्वारा अफगान साम्राज्य के एक बड़े हिस्से पर कब्ज़ा करके, सिख साम्राज्य की उत्तर पश्चिम सीमांत को विस्तार किया था। नलवे की सेनाओं ने अफ़गानों को दर्रा खैबर के उस ओर बुरी तरह खदेड कर इन उपद्रवी कबायली अफ़गानों/पठानों की ऐसी गति बनाई कि परिणामस्वरूप हरि सिंह नलवा ने इतिहास की धारा ही बदल दी।
ख़ैबर दर्रा पश्चिम से भारत में प्रवेश करने का एक महत्वपूर्ण मार्ग है। ख़ैबर दर्रे के ज़रिया 500 ईसा पूर्व में यूनानियों के साथ भारत पर आक्रमण करने, लूटने और गुलाम बनाने की प्रक्रिया शुरू हुई। आक्रमणकारियों ने लगातार इस देश की समृध्दि को तहस-नहस किया। यूनानियों, हूणों और शकों के बाद अरबों, तुर्कों, पठानों, मुगलों के कबीले लगभग एक हजार वर्षों तक इस देश में हमलावर बनकर आते रहे। तैमूर लंग, बाबर और नादिरशाह की सेनाओं के हाथों भारत बेहद पीड़ित हुआ था। हरि सिंह नलवा ने ख़ैबर दर्रे का मार्ग बंद करके इस ऐतिहासिक अपमानित प्रक्रिया का पूर्ण रूप से अन्त कर दिया था। प्रसिद्ध सिख जनरलों में सबसे महान योद्धा माने गये इस वीर ने अफगानों को पछाड़ कर यह निम्नलिखित विजयो में भाग लिया: सियालकोट (1802), कसूर (1807), मुल्तान (1818), कश्मीर (1819), पखली और दमतौर (1821-2), पेशावर (1834) और ख़ैबर हिल्स में जमरौद (1836) । हरि सिंह नलवा कश्मीर और पेशावर के गवर्नर बनाये गये। कश्मीर में उन्होने एक नया सिक्का ढाला जो ‘हरि सिन्गी’ के नाम से जाना गया। यह सिक्का आज भी संग्रहालयों में प्रदर्शन पर है. हजारा, सिंध सागर दोआब का विशिष्ट भाग, उनके शासन के तहत सभी क्षेत्रों में से सबसे महत्वपूर्ण इलाका था। हजारा के संकलक ने लिखत में दर्ज किया है कि उस समय केवल हरि सिंह नलवा ही अपने प्रभावी ढंग के कारण, एक मजबूत हाथ के द्वारा इस जिले पर नियंत्रण कर सकते थे।
नोशेरा के युद्ध में स. हरि सिंह नलवा ने महाराजा रणजीत सिंह की सेना का कुशल नेतृत्व किया था। रणनीति और रणकौशल की दृष्टि से हरि सिंह नलवा की तुलना दुनिया के श्रेष्ठ सेनानायकों से की जा सकती है।
महाराजा रणजीत सिंह की नौशेरा के युद्ध में विजय हुई।
पेशावर का प्रशासक यार मोहम्मद महाराजा रणजीत सिंह को नजराना देना कबूल कर चुका था। मोहम्मद अजीम, जो कि काबूल का शासक था, ने पेशावर के यार मोहम्मद पर फिकरा कसा कि वह एक काफिर के आगे झुक गया है। अजीम काबूल से बाहर आ गया। उसने जेहाद का नारा बुलन्द किया, जिसकी प्रतिध्वनि खैबर में सुनाई दी। लगभग पैंतालिस हजार खट्टक और यूसुफ जाई कबीले के लोग सैय्यद अकबर शाह के नेतृत्व में एकत्र किये गये। यार मोहम्मद ने पेशावर छोड़ दिया और कहीं छुप गये। महाराजा रणजीत सिंह ने सेना को उत्तर की ओर पेशावर कूच करने का आदेश दिया। राजकुमार शेर सिंह, दीवान चन्द और जनरल वेन्चूरा अपनी – अपनी टुकड़ियों का नेतृत्व कर रहे थे। सरदार हरि सिंह नलवा, अकाली बाबा फूला सिंह, फतेह सिंह आहलुवालिया, देसा सिंह मजीठिया और अत्तर सिंह सन्धावालिये ने सशस्त्र दलों और घुड़सवारों का नेतृत्व किया। तोपखाने की कमान मियां गोस खान और जनरल एलार्ड के पास थी।
भारत में प्रशिक्षित सैन्य दलों के इतिहास में महाराजा रणजीत सिंह द्वारा बनायी गयी गोरखा सैन्य टुकड़ी एक ऐतिहासिक घटना था। गोरखा पहाड़ी क्षेत्रों में रहने वाले थे और पेशावर और खैबर दर्रे के इलाकों में प्रभावशाली हो सकते थे। महाराजा रणजीत सिंह ने पूरबी (बिहारी) सैनिक टुकड़ी का निर्माण भी किया था। इस टुकड़ी में ज्यादातर सैनिक पटना साहिब और दानापुर क्षेत्र के थे, जो कि गुरू गोबिन्द सिंह जी की जन्म स्थली रहा है। सरदार हरि सिंह नलवा की सेना शेर-ए-दिल रजामान सबसे आगे थी। महाराजा की सेना ने पोनटून पुल पार किया। लेकिन बर्फबारी के कारण कुछ दिन रूकना पड़ा। महाराजा रणजीत सिंह के गुप्तचरों से ज्ञात हुआ था कि दुश्मनों की संख्या जहांगीरिया किले के पास बढ रही थी। उधर तोपखाना पहुंचने में देर हो रही थी और उसकी डेढ महीने बाद पहुंचने की संभावना थी। स्थितियां प्रतिकूल थी।
सरदार हरि सिंह नलवा और राजकुमार शेर सिंह ने पुल पार करके किले पर कब्जा कर लिया। लेकिन अब उन्हें अतिरिक्त बल की आवश्यकता थी। उधर दुश्मन ने पुल को नष्ट कर दिया था। ऐसे में प्रातः काल में महाराजा स्वयं घोड़े पर शून्य तापमान वाली नदी के पानी में उतरा। शेष सेना भी साथ थी। लेकिन बड़े सामान और तोपखाना इत्यादि का नुकसान हो गया था। बन्दूकों की कमी भी महसूस हो रही थी। बाबा फूला सिंह जी के मर-जीवड़ों ने फौज की कमान संभाली। उन्होने बहती नदी पार की। पीछे-पीछे अन्य भी आ गये। जहांगीरिया किले के पास पठानों के साथ युद्ध हुआ। पठान यह कहते हुए सुने गये – तौबा, तौबा, खुदा खुद खालसा शुद। अर्थात खुदा माफ करे, खुदा स्वयं खालसा हो गये हैं।
सोये हुए अफगानियों पर अचानक हमले ने दुश्मन को हैरान कर दिया था। लगभग १० हजार अफगानी मार गिराये गये थे। अफगानी भाग खड़े हुए। वे पीर सबक की ओर चले गये थे।
गोरखा सैनिक टुकड़ी के जनरल बलभद्र ने अफगानी सेना को बेहिचक मारा काटा और इस बात का सबूत दिया कि उन विशिष्ट परिस्थितियों में गोरखा लड़ाके कितने कारगर थे। उन्होने जेहादियों पर कई आक्रमण किये। लेकिन अन्त में घिर जाने के कारण बलभद्र शहीद हो गये। सरदार हरि सिंह नलवा, अकाली फूला सिंह और निहंगों की सशक्त जमात जमकर लड़ी। जनरल वेन्चूरा घायल हो गये। अकाली फूला सिंह के घोड़े को गोली लगी। वह एक हाथी पर चढने की रणनीतिक भूल कर बैठे। वे ओट से बाहर आ गये थे और जेहादियों ने उन्हें गोलियों से छननी कर दिया। वे शहीद हो गये।
अप्रैल 1836 में, जब पूरी अफगान सेना ने जमरौद पर हमला किया था, अचानक प्राणघातक घायल होने पर नलवा ने अपने नुमायंदे महान सिंह को आदेश दिया कि जब तक सहायता के लिये नयी सेना का आगमन ना हो जाये उनकी मृत्यु की घोषणा ना की जाये जिससे कि सैनिक हतोत्साहित ना हो और वीरता से डटे रहे। हरि सिंह नलवा की उपस्थिति के डर से अफगान सेना दस दिनों तक पीछे हटी रही। एक प्रतिष्ठित योद्धा के रूप में नलवा अपने पठान दुश्मनों के सम्मान के भी अधिकारी बने।