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Saturday, October 31, 2015

Beef, cow -Why not to slaughter, Benefits of cow


हमारा देश लम्बे समय तक अंग्रेंजो का गुलाम रहा ,सेकड़ो वर्षो तक इस
देश को अंग्रेंजो ने गुलाम बनाने
की काफी तैयारी की थी
सन 1813 में अंग्रेंजो की संसद हाउस ऑफ़ कॉमन्स में एक
बहस चली 24 जुन 1813 को वो बहस पूरी हुई
और वहाँ से एक प्रस्ताव पारित किया
भारत में गरीबी पैदा करनी है
भुखमरी लानी है भारत
की समृदि को तोडन है इनको यदि शारीरिक और
मानसिक रूप से कमज़ोर करना है
तो भारत की अर्थव्यवस्था को कमज़ोर करना पड़ेगा इसे बरबाद
करना पड़ेगा
इसके लिय भारत का केन्द्र बिन्दु भारत
की कृषि पद्धति को भी बरबाद करना पड़ेगा । भारत
की अर्थव्यवस्था काफी हद तक कृषि पर
टिकी हुई है
इनकी कृषि गाय पर टिकी हुई है गाय के
बिना भारतीय कृषि हो नहीं सकती
दूसरा इनको ये पता चला के भारत के कोने कोने में गाय
की पूजा होती है इनके 33 करोड़
देवी देवता इसमें वास करते है
तब उन्होंने एक बढ़ा फैसला लिया यदि भारतीय कृषि को बरबाद
करना है भारतीय संस्कृति का नाश करना है तो गाय का नाश
करना चाहिय
भारत मे पहला गौ का कत्लखाना 1707 ईस्वी में रॉबर्ट क्लाएव
ने खोला था जिसमें गाय को काट कर उसके मॉस को अंग्रेंजी फोज़
को खिलाया जाने लगा
गो वंश का नाश शुरू हो गया।
बीच दौर में अंग्रेंजो को एक और महत्वपूर्ण बात
पता चली के यदि गो वंश का नाश करना है तो उसके लिय जहाँ से
इसकी उत्पति होती है उस
नन्दी को मरवाना होगा
तो अग्रेंजो ने गाय से ज्यादा नन्दी का कत्ल करवाना शुरू किया।
1857 में मंगल पाण्डे को जब फांसी सजा हुई
थी इसका मूल प्रश्न गाय
का ही था इसी मूल प्रश्न से हिन्दुस्तान में
क्रांति की शुरुआत हुई थी
उस जमाने में अंग्रेंजो ने पुरे भारत में लगभग 350 कत्लखाने खुलवाये|
1939 में लाहोर शहर में अंग्रेंजो ने एक
मशीनी कत्लखाना खोला बढे पैमाने में वहाँ गो और
नंदी का कत्ल हो सकत था
इस कत्ल खाने को बंद करने के लिय सबसे जबरदस्त आंदोलन किया पंडित
नेहरू ने और आंदोलन सफल भी हुआ
कत्लखाना बंद हो गया पंडित नेहरू ने कहा यदि वो अज़ाद हिंदुस्तान के
किसी महत्वपूर्ण पद पर पहुंचे तो वो ऐसा कानून बना देंगे जिसे
हिंदुस्तान में गाय का कत्ल बंद हो जायेगा
1939 में लाहोर शहर में अंग्रेंजो ने एक
मशीनी कत्लखाना खोला बढे पैमाने में वहाँ गो और
नंदी का कत्ल हो सकत था
इस कत्ल खाने को बंद करने के लिय सबसे जबरदस्त आंदोलन किया पंडित
नेहरू ने और आंदोलन सफल भी हुआ
कत्लखाना बंद हो गया पंडित नेहरू ने कहा यदि वो अज़ाद हिंदुस्तान के
किसी महत्वपूर्ण पद पर पहुंचे तो वो ऐसा कानून बना देंगे जिसे
हिंदुस्तान में गाय का कत्ल बंद हो जायेगा
चांस की बात नेहरू भारत के सबसे उँचे शिखर पर बैठे और
डॉ राजेन्द्र प्रसाद भारत के राष्ट्रपति बने
दुःख की बात ये है दोनों अपने शासन काल में गो के लिय ऐसा कोई
कानून ही नहीं बना पाये| बाकी बहुत
सारे कानून उन्होंने बनाये
आज अज़ादी के 67 साल में पुरे भारत में लगभग 36000
कत्लखाने है जिसमें कुछ कत्लखाने ऐसे है जिसमें 10 हज़ार पशु रोज़
काटे जाते है
भारत वर्तमान में विश्व का 3 नम्बर गो मॉस निर्यात करने वाला देश बन
गया है
भविष्य में इन कत्ल खानो को हाई टेक किया जाना है
अंग्रेंजो ने 1910 से 1940 तक लगभग 10 करोड़ से ज्यादा गो वंश
को खत्म किया गया ।
अज़ादी के 50 साल बाद 1947 से 1997 तक लगभग 48
करोड़ गो वंश का नाश किया जा चूका है
अगर भारत में इन 48 करोड़ गो वंश को यदि बचा लिया गया होता तो भारत में
सम्पति और सम्पदा कितनी होती पैसा कितना होता
एक गाय 1 साल में 25 हज़ार रुपय का फ़र्टिलाइज़र (खाद )
पैदा करती है जो हम फ़र्टिलाइज़र करोडो रुपय का आयात करते
है वो करोडो रूपया बचता
यदि 48 करोड़ गाय बचती तो हमने कितनी खाद
का नुकसान किया है
1 गाय यदि 1 साल में 10 से 15 हज़ार रुपय का दूध
देती हो तो कितने रुपय का नुकसान हुआ है गाय के दूध,मूत्र
से 108 तरह की दवाये बनती है
कैंसर,मधुमेह तक का इलाज़ है गाय के मूत्र में
भारत को पेट्रोल और डीज़ल बहार से आयात करना पढ़ता है
बायो गैस से भारत की पेट्रोल, डीज़ल,गैस सिलेंडर
और बेरोज़गारी की समस्या को भी ख़त्म
किया जा सकता है ये पशुधन

Tuesday, October 20, 2015

Story of Dadri and cow worship

पश्चिमी उत्तर प्रदेश के दादरी के पास बिसाहदा गाँव क्षत्रियों के मशहूर साठा चौरासी क्षेत्र का हिस्सा है।
1857 के संग्राम में भी यहां के क्षत्रियो ने अंग्रेजो के विरुद्ध बढ़ चढ़ कर भाग लिया था। इन क्षत्रियो में गौ रक्षा को लेकर कितना आग्रह है ये आप हमारी इस पुरानी पोस्ट से जान सकते हैँ, जब 1857 संग्राम में गौवंश की रक्षा के लिये साठा चौरासी के क्षत्रियो ने अंग्रेजो के विरुद्ध युद्ध का शंखनाद कर दिया था और लाल किला तक पर केसरिया लहरा आए थे--------
पश्चिमी उत्तर प्रदेश में दिल्ली के नजदीक गाज़ियाबाद, हापुड़, दादरी के बीच में राजपूत बहुल प्रसिद्ध साठा चौरासी क्षेत्र है जिसमे गहलोत(शिशोदिया) राजपूतो के 60 और तोमर राजपूतो के 84 गाँवों में राजपूतो की बहुत बड़ी आबादी रहती है। इसी कारण इसे आम बोलचाल में पश्चिम उत्तर प्रदेश का राजपूताना और छोटी चित्तोड़ भी कहा जाता है।
इस क्षेत्र में तोमर राजपूतो ने दिल्ली में उनकी सत्ता छिन जाने के बाद राज स्थापित किया जबकि गहलोत मेवाड़ के महान शाशक रावल खुमान के वंशज है। राणा खुमान के वंशज राणा वक्षराज ने मेवाड़ से आकर इस क्षेत्र में अपना राज स्थापित किया और विक्रम संवत 1106 में अपनी राजधानी देहरा गाँव में स्थापित की। इसी देहरा से क्षेत्र में गहलोत(सिसोदिया) राजपूतो के 60 गाँव निकले हैँ। राणा वक्षराज के भाई राणा हस्तराज ने हाथरस नगर बसाया और उनके वंशज आगरा, हाथरस में गहलोत और मथुरा के 42, बदायूँ के 18, फर्रुखाबाद के 12 और बुलंदशहर के स्याना-ऊंचागांव क्षेत्र के 12 गाँवों में बाछल के नाम से मिलते हैँ।
इस साठा चौरासी क्षेत्र के राजपूतो का इतिहास बहुत गौरवशाली रहा है और लड़ाकू प्रवृत्ति के होने के साथ ही सरकारी दमन का हमेशा बहादुरी के साथ विरोध करते आए है। तुर्क, मुगलो के समय घोर दमनकारी शासन के बावजूद उनमे से कोई भी इन दिल्ली के बगल में बसे राजपूतो की शक्ति को खत्म नही कर पाया, जबकि वो खुद खत्म हो गए। इसी बहादुरी की एक झलक 1857 के संग्राम में भी देखने को मिली जब साठा चौरासी के राजपूतो ने अंग्रेजी सत्ता के विरुद्ध खुली बगावत कर दी थी। मुकीमपुर गढ़ी के ठाकुर गुलाब सिंह तोमर ने क्षेत्र में बगावत का झंडा बुलंद किया ही, इसके साथ ही पिलखुवा, धौलाना और सपनावत जैसे कस्बे इस क्रांति के केंद्र थे। साठा चौरासी की इस क्रांति गाथा का पहला भाग धौलाना के शहीदों के बारे में यहाँ प्रस्तुत है जिनके बारे में कहा जाता है कि उन्होंने लाल किले पर क्षत्रिय शक्ति का प्रतिक केसरिया ध्वज फहरा दिया था-
***धौलाना के शहीद***
मेरठ में सैनिक बगावत की सूचना मिलते ही साठा चौरासी क्षेत्र में अंग्रेजो के विरुद्ध क्रांति का वातावरण बनने लगा। बहुत से सैनिक मेरठ से दिल्ली जाने के क्रम में इस क्षेत्र में धौलाना, डासना आदि गाँवों में रुके। अगले दिन प्रातःकाल को सब धौलाना के चौधरी के यहाँ इकट्ठे हो गये और धौलाना की गलियों में ब्रिटिश सरकार के विरूद्ध 'हर-हर महादेव' के नारे लगाने शुरू कर दिये, थोड़ी ही देर में धौलाना ग्राम तथा आस-पास के हजारों राजपूत युवक इकट्ठा हो गये। इसी दौरान साठा के सबसे बड़े गाँव धौलाना में ईद के मौके पर एक गाय काट दी गयी थी। जिसे यहाँ के ग्रामीणों ने ब्रितानियों का षड्यंत्र माना तथा अपने धर्म पर आघात होना माना। इस घटना से यहाँ धार्मिक उन्माद का वातावरण बन गया। इस उत्तेजित वातावरण में ग्रामीणों ने 'मारो फिरंगी को' के नारे लगाये और वे गाँव में स्थित पुलिस थाने की दिशा में चल पड़े, जहाँ उन्होंने उसमें आग लगा दी। थानेदार मुबारक अली मुश्किल से जान बचाकर भागने में सफल हुआ और वह निकटवर्ती गाँव ककराना में दिन भर गोबर के बिटोरो में छिपे रहा। रात में वह वहाँ से निकलकर मेरठ पहुँचा तथा अंग्रेज़ उच्च अधिकारियों को धौलाना की स्थिति से अवगत कराया। इस दौरान पूरा क्षेत्र बागियों के नियंत्रण में आ गया और अंग्रेजी सत्ता समाप्त हो गई। कई सप्ताह तक राजपूतो ने स्वतंत्र राज किया।
कुछ समय पश्चात् अधिकारी डनलप के नेतृत्व में ब्रिटिश सेना की एक बड़ी टुकड़ी धौलाना पहुँच गयी और विद्रोह का निर्ममता से दमन करना शुरू किया। विद्रोह को दबाकर शांति स्थापित करने के बाद प्रतिशोध की कार्यवाई करने के लिये थानेदार की रिपोर्ट के आधार पर 13 राजपूतों तथा एक अग्रवाल बनिया लाला झनकूमल को गिरफ्तार करके डनलप के सामने लाया गया। क्रांतिकारियों में बनिये झनकूमल को देखकर उन्होंने आश्चर्य व्यक्त करते हुए कहा कि- "राजपूतों ने ब्रिटिश शासन के विरूद्ध विद्रोह किया यह बात समझ में आती है किन्तु तुमने महाजन होकर, इन विद्रोहियों का साथ दिया, यह बात समझ में नहीं आती। तुम्हारा नाम इनके साथ कैसा आ गया?" लाल झनकू ने जवाब दिया कि "इस क्षेत्र में जब से आपके व्यक्तियों ने मुसलमानों के साथ मिलकर गौ-हत्या करायी तब से मेरे हृदय में गुस्सा पनप रहा था। मैं सब कुछ सहन कर सकता हूँ साब, किन्तु अपने धर्म का अपमान, गौ-माता की हत्या सहन नहीं कर सकता।"
डनलप ने इन 14 क्रांतिकारियो को फाँसी लगाने का आदेश दिया। परिणामतः गाँव में ही चौपाल पर खड़े दो पीपल के वृक्षों पर उन्हें फाँसी दे दी गयी।
इस क्षेत्र के व्यक्तियों को आतंकित करने तथा आने वाले समय में फिर इस प्रकार की घटना की पुनरावृत्ति न हो यह दिखाने के लिए चौदह कुत्तों को मारकर इन ग्रामीणों के शवों के साथ दफना दिया गया। धौलाना गाँव को बागी घोषित कर दिया तथा ग्रामीणों की सम्पत्ति जब्त करके अपने वफादारों को दे दी गई। पुलिस थाने को पिलखुवा स्थानान्तरित कर दिया गया। गाँव में एक ब्रिटिश सैन्य टुकड़ी नियुक्त की गयी जो काफी दिनों तक धौलाना में मार्च करती रही।
हालांकि इस घटना के बारे में एक दूसरा मत भी है।
इस घटना के सम्बन्ध में क्षेत्र निवासी ठाकुर मेघनाथ सिंह सिसौदिया जी(पूर्व विधायक) ने '1857 में ब्रितानियों के खिलाफ जनता व काली पल्टन द्वारा साठे में लड़ा गया प्रथम स्वतंत्रता संग्राम (गदर) का आरम्भिक सच्चा वर्णन' शीर्षक से एक गुलाबी रंग का पैम्पलेट जारी किया था। उनके अनुसार------
"11 मई, 1857 को इस साठा क्षेत्र के राजपूतों का खून क्रांति के लिए खौल उठा। दोपहर से पहले ही धौलाना व पास-पड़ोस के हजारों राजपूत युवक ब्रिटिश सरकार के खिलाफ वीरतापूर्वक नारे लगाते हुए तथा ढोल, शंख, घड़ियाल बजाते हुए धौलाना की गलियों में घूमने लगे और हर-हर महादेव के नारे लगाने लगे। इससे भयभीत होकर धौलाना थाने के दरोगा व सिपाही थाने को छोड़कर भाग गये, इन क्रांतिकारियों ने मेरठ की काली पल्टन के सैनिकों के साथ मिलकर थाने में आग लगा दी तथा सभी सरकारी कागजात फूँक डाले। तत्पश्चात् ठाकुर झनकू सिंह के नेतृत्व में यह जत्था दिल्ली कूच कर गया। रास्ते में क्रांतिकारियों ने रसूलपुर, प्यावली के किसानों को अपने साथ चलने के लिए प्रेरित किया। रोटी मांगते हुए और रोटी बाँटते हुए वे दिल्ली की ओर चले दिये और 12 मई को प्रातः काल दिल्ली पहुँच गये। वहाँ 12 मई को धौलाना के राणा झनूक सिंह गहलोत ने दिल्ली के हजारों लोगों के सामने ब्रितानियों की गुलामी का चिन्ह यूनियन जैक को जो लाल किले पर टंगा हुआ था, ऊपर चढ़कर फाड़कर उसके स्थान पर अपनी केशरिया पगड़ी टांग दी और इस प्रकार दिल्ली के लाल किले पर केशरिया झण्डा फहरा दिया।
ब्रितानियों ने दिल्ली पर पुनः अधिकार करने के पश्चात् ठाकुर झनकू सिंह की खोजबीन की परन्तु उनका कहीं भी पत्ता नहीं चला। पूरब में उनकी रिश्तेदारी से सूचना प्राप्त हुई कि वह कमोना के बागी नवाब दूंदे खाँ के पासे है। दूंदे खाँ के पकड़े जाने पर ठाकुर झनकू सिंह, पेशवा नाना साहब के साथ नेपाल चले गये। साठा के क्षेत्र में धौलाना की जमींदारी मालगुजारी जमा न करने के अपराध में छीन ली...परिणाम यह निकला कि धौलाना के 14 क्रांतिकारियों ठाकुर झनकू सिंह को छोड़कर 13 राजपूत क्रांतिकारियों को पकड़ लिया गया। पकड़े जाने पर इनके परिवार के स्त्री-पुरूष तथा ग्रामवासियों को इकट्ठा करके सबके सामने धौलाना में पैंठ के चबूतरे पर खड़े दो पीपल के पेड़ों पर 29 नवम्बर, 1857 को फाँसी दे दी गयी।
बागियों के घरो में आग लगा दी गई और इनके परिवारो पर भयंकर अत्याचार किये गए। अत्याचार की इंतेहा ये थी ठाकुर झनकू सिंह के पकड़े ना जाने पर खीज मिटाने के लिये उनके ही समान नाम के धौलाना के एक बनिये झनकूमल को फांसी पर लटका दिया गया। इन सबके बाद एक गहरे गड्ढे में इन सबकी लाशो को फिकवा कर उन सबके साथ एक एक जीवित कुत्ता बंधवा दिया गया और फिर गढ्ढे को पटवा दिया गया।"
धौलाना में फांसी पर चढ़ाए गए 14 शहीदों के नाम इस प्रकार है- 1. लाला झनकूमल 2. वजीर सिंह चौहान 3. साहब सिंह गहलौत 4. सुमेर सिंह गहलौत 5. किड्ढा गहलौत, 6. चन्दन सिंह गहलौत 7. मक्खन सिंह गहलौत 8. जिया सिंह गहलौत 9. दौलत सिंह गहलौत 10. जीराज सिंह गहलौत 11. दुर्गा सिंह गहलौत 12. मुसाहब सिंह गहलौत 13. दलेल सिंह गहलौत 14. महाराज सिंह गहलौत।
इनमें साहब सिंह तथा जिया सिंह सगे भाई थे। सन् 1957 में ठाकुर मेघनाथ सिंह सिसौदिया जी ने ठाकुर मानसिंह को साथ लेकर इस स्थान पर शहीद स्मारक बनवाया जो आज भी इन क्रांतिकारी ग्रामीणों की शहादत की याद दिला रहा है।