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Tuesday, February 21, 2017

विश्वव्यापी श्रीराम कथा

विश्वव्यापी श्रीराम कथा- By मनीषा सिंह
श्रीराम कथाकी व्यापकता को देखकर पाश्चात्य विद्वानोंने रामायण को ई पू ३०० से १०० ई पू की रचना कहकर काल्पनिक घोषित करने का षड्यंत्र रचा , रामायण को बुद्धकी प्रतिक्रिया में उत्पन्न भक्ति महाकाव्य ही माना इतिहास नहीं ।
तथाकथित भारतीय विद्वान् तो पाश्चात्योंसे भी आगे निकले
पाश्चात्योंके इन अनुयायियोंने तो रामायण को मात्र २००० वर्ष (ई की पहली शतीकी रचना ) प्राचीन माना है ।
इतिहासकारोंने श्रीरामसे जुड़े साक्ष्योंकी अनदेखी नहीं की अपितु साक्ष्योंको छिपाने का पूरा प्रयत्न किया है , जो कि एक अक्षम्य अपराध है । भारतमें जहाँ किष्किन्धामें ६४८५ (४४०१ ई पू का ) पुराना गदा प्राप्त हुआ था वहीं गान्धार में ६००० (४००० ई पू ) वर्ष पुरानी सूर्य छापकी स्वर्ण रजत मुद्राएँ । हरयाणा के भिवानी में भी स्वर्ण मुद्राएँ प्राप्त हुईं जिनपर एक तरफ सूर्य और दूसरी तरफ श्रीराम-सीता-लक्ष्मण बने हुए थे । अयोध्यामें ६००० वर्ष पुरानी (४००० ई पू की ) तीन चमकीली धातु के वर्तन प्राप्त हुए ,दो थाली एक कटोरी जिनपर सूर्यकी छाप थी । ७००० वर्ष पुराने (५००० ई पू से पहले के) ताम्बे के धनुष बाण प्राप्त हुए थे । श्रीलंका में अशोक वाटिका से १२ किलोमीटर दूर दमबुल्ला सिगिरिया पर्वत शिखर पर ३५० मीटर की ऊंचाई पर ५ गुफाएं हैं जिनपर प्राप्त हजारों वर्ष प्राचीन भित्तिचित्र रामायण की कथासे सम्बंधित हैं ।
उदयवर्ष (जापान ) से यूरोप ,अफ्रीका से अमेरिका सब जगह रामायण और श्रीरामके चिन्ह प्राप्त हुए हैं जिनका विस्तारसे यहाँ वर्णन भी नही किया जा सकता ।

उत्तरी अफ्रीकाका मिश्रदेश भगवान् श्रीरामके नामसे बसाया गया था । जैसे रघुवंशी होने से भगवान् रघुपति कहलाते हैं वैसे ही अजके पौत्र होने से प्राचीन समय में अजपति कहलाते थे ।इसी अजपति से Egypt शब्द बना है जो पहले Eagypt था ।
राजा दशरथ Egypt के प्राचीन राजा थे इसका उल्लेख Ezypt के इतिहास में मिलता है , वहीं सबसे लोकप्रिय राजा रैमशश भगवान् राम का अपभ्रंश है ।
यूरोप का रोम नगर से सभी परिचित है जो यूरोपकी राजधानी रहा था । २१ अप्रैल ७५३ ई पू (२७६९ वर्ष पहले ) रोम नगर की स्थापना हुई थी । विश्व इतिहास के किसी भी प्राचीन नगर की स्थापना की निश्चित तिथि किसी को आजतक ज्ञात नहीं केवल रोम को छोड़कर , जानते हैं इसका कारण ?
इसका कारण रोम को भगवान् श्रीरामके नामसे चैत्र शुक्ल नवमी (श्रीराम जन्म दिवस पर) २१ अप्रैल को स्थापित किया गया था इसीलिए इस महानगर की तिथि आजतक ज्ञात है सभी को । यही नहीं इस नगर के ठीक विपरीत दिशा में रावण का नगर Ravenna भी स्थापित किया गया था जो आज भी विद्यमान है ।
रावण सीताजी को डरा धमका रहा है साथ में विभीषण जी हैं
यूरोप के प्राचीन विद्वान् एड्वर्ड पोकाँक लिखते हैं -
"Behold the memory of......... Ravan still preserved in the city of Ravenna, and see on the western coast ,its great Rival Rama or Roma "
पोकाँक रचित भूगोल के पृष्ठ १७२ से
इटली से प्राप्त प्राचीन रामायण के चित्र अनेक भ्रांतियों को ध्वस्त कर देते हैं ये चित्र ७०० ई पू (२७०० वर्ष पहले ) के हैं जिनमें रामायण कथा के सभी चित्र तो हैं ही उत्तर काण्ड के लवकुश चरित्र के भी चित्र हैं यहीं नहीं लवकुश के द्वारा श्रीराम के अश्वमेध यज्ञ के घोड़े का पकड़ने की लीला के चित्र भी अंकित हैं वाल्मीकिकृत रामायण के न होकर पद्मपुराणकी लीला के हैं जो ये सिद्ध करते हैं न रामायण २००० पहले रची गयी न उत्तर काण्ड प्रक्षिप्त है और न ही पद्मपुराण ११ वी सदी की रचना ये साक्ष्य सिद्ध कर रहे हैं उत्तर काण्ड सहित रामायण और पद्मपुराण २७०० वर्ष पहले भी इसी रूप में विद्यमान इसकी रचना तो व्यासजी और वाल्मीकिके समय की है है ।
यही नहीं प्राचीन रोम के सन्त और राजा भारतीय परिधान ,कण्ठी और उर्ध्वपुण्ड्र तिलक भी लगाया करते थे जो उनके वैष्णव होने के प्रमाण हैं । बाइबल में भी जिन सन्त का चित्र अंकित था वो भी धोती ,कण्ठी धारण किये और उर्ध्वपुण्ड्र लगाये हुए थे । अब इन पाश्चात्यों और तदानुयायी भारतीय विद्वानोंने किस आधार पर रामायण को बुद्ध की प्रतिक्रया स्वरूप मात्र २००० वर्ष पुरानी रचना कहा है ??? जबकि सहस्रों वर्ष प्राचीन प्रमाण विद्यमान हैं ।
२७०० वर्ष प्राचीन इटली से प्राप्त रामायण के चित्र ।
बाली द्वारा सुग्रीब् की पत्नी का हरण

वन जाते हुए भगवान् श्रीसीता-राम-लक्ष्मणजी
भगवान् श्रीराम का जन्म वैवस्वत मन्वन्तर के २४वे त्रेतायुग के उत्तरार्द्ध में १८१६०१६० वर्ष पूर्व चैत्र शुक्ल नवमी ,कर्क लग्न पुनर्वसु नक्षत्र में हुआ था । श्रीराम ब्रह्मर्षि विश्वामित्र के साथ यज्ञ रक्षा के लिये १५ वे वर्ष में १८१६०१४६ वर्ष पूर्व में गए थे । श्रीराम जानकी विवाह १६वे वर्षमें मार्घशीर्ष शुक्ल पञ्चमी को १८१६०१४५ वर्ष पूर्व में हुआ था ! विवाह के १२ वर्ष बाद वैशाख शुक्ल पञ्चमी पुष्य नक्षत्र में श्रीरामका २७ वर्ष की आयु में १८१६०१३३ वर्ष पूर्व वनवास हुआ था । माघ शुक्ल अष्टमी को रावण माता सीता का १८१६०१२०वर्ष पूर्व हरण किया और माघ शुक्ल दशमी को अशोक वाटिका में ले गया । ६ मास बाद भगवान् श्रीरामकी सुग्रीवकी मित्रता श्रावण मास के शुक्ल पक्ष के प्रारंभ में १८१६०११९ वर्ष पूर्व हुई थी ! तभी बाली का वध और सुग्रीव का राज्याभिषेक हुआ था । ४ मास बाद मार्घशीर्ष शुक्ल प्रतिपदाको समस्त वानर हनुमान् जी अंगदादि के नेतृत्व में सीता अन्वेषण के लिये प्रस्थान किया । दशवे दिन मार्घशीर्ष शुक्ल दशमीको सम्पाती से संवाद और एकादशी के दिन हनुमान् जी महेंद्र पर्वत से कूदकर १०० योजन समुद्र पारकर लङ्का गये ! उसी रात सीताजीके दर्शन हुए । द्वादशीको शिंशपा में हनुमान् जी स्थित रहे । उसी रात्रि को सीता माता से वार्तालाप हुआ । त्रयोदशी को अक्षकुमार का वध किया । चतुर्दशी को इन्द्रजित के ब्रह्मास्त्र से बन्धन और लङ्का दहन हुआ । मार्घशीर्ष कृष्ण सप्तमीको हनुमान् जी वापस श्रीरामसे मिले । अष्टमी उत्तराफाल्गुनी में अभिजित मुहूर्त में लङ्काके लिये श्रीराम प्रस्थान किये । सातवे दिन मार्घशीर्ष की अमावस्या के दिन समुद्रके किनारे सेनानिवेश हुआ । पौषशुक्ल प्रतिपदा से ४ दिन तक समुद्र के प्रति प्रायोपवेशन , दशमी से त्रयोदशी तक सेतुबन्ध , चतुर्दशी को सुवेलारोहण ,पौष मास की पूर्णिमासे पौष कृष्ण द्वितीया तक सैन्यतारण ,तृतीया से दशमी तक मन्त्रणा , पौष शुक्ल द्वादशी को सारण ने सेना की संख्या की ,फिर सारण ने वानरों के सारासार का वर्णन किया । माघ शुक्ल प्रतिपदा को अंगद दूत बनकर रावण के दरवार में गए । माघ शुक्ल द्वितीया से युद्ध प्रारम्भ हुआ । माघ शुक्ल नवमी युद्धके आठवे दिन श्रीराम-लक्ष्मणका नागपाश बन्धन हुआ । दशमी को गरुड़जी द्वारा बन्धन मुक्ति ,दो दिन युद्ध बन्द रहा । द्वादशीको धूम्राक्ष वध ,त्रयोदशी को अकम्पन का हनुमान् द्वारा वध , माघ शुक्ल चतुर्दशी से ३ दिन में प्रहस्त वध हुआ। माघ कृष्ण द्वितीया से चतुर्थी तक श्रीराम से रावण का युद्ध हुआ । पञ्चमी से अष्टमी तक ४ दिनों में कुम्भकर्ण को जगाया गया । नवमी से चतुर्दशी तक ६ दिनों में कुम्भकर्ण वध हुआ । माघ अमावस्या को युद्ध बन्द रहा । फाल्गुन शुक्ल प्रतिपदा से चतुर्थी तक नारान्तक वध ,पञ्चमी से सप्तमी तक ३ दिन में अतिकाय वध , अष्टमी से द्वादशी तक निकुम्भादि वध , ४ दिनों में फाल्गुन कृष्ण प्रतिपदा को मकराक्ष वध ,फाल्गुन कृष्ण द्वितीया इन्द्रजित विजय ,तृतीया को औषधि अनयन ,तदन्तर ५ दिनों तक युद्ध बन्द रहा ।
फाल्गुन कृष्ण त्रयोदशी से ६ दिन में इंद्रजीत का वध , अमावस्या को रावण की युद्ध यात्रा । चैत्र शुक्ल शुक्ल तृतीया से पाँच दिनों में १८१६०११९ वर्ष पूर्व रावण के प्रधानों का वध किया । चैत्र शुक्ल नवमी को भगवान् श्रीरामके ४२ वे जन्म दिवस पर लक्ष्मण शक्ति हुई । दशमी को युद्ध बन्द रहा एकादशी को मातलि का स्वर्ग से आगमन ,तदन्तर १८ दिनों में रावण तक श्रीराम-रावण में घोर युद्ध । चैत्र कृष्ण चतुर्दशी को रावण वध । इस तरह माघ शुक्ल द्वितीया से चैत्र कृष्ण चतुर्दशी तक ८७ दिन युद्ध चला । बीच में १५ दिन युद्ध बन्द रहा । चैत्र अमावस्या को रावण का संस्कार किया । वैशाख शुक्ल द्वितीय को विभीषण का राज्याभिषेक , तृतीया को माता सीता की अग्नि परीक्षा हुई । चतुर्थी को पुष्पकारोहण । वैशाख शुक्ल पञ्चमी १४ वर्ष वनवास पूर्ण हुए ,भरद्वाज ऋषि के आश्रम पर आगमन । वैशाख शुक्ल सप्तमी को श्रीराम का राज्याभिषेक हुआ । ११००० वर्ष ११ मास और ११ दिन तक राज्य करके भगवान् श्रीराम चैत्र कृष्ण तृतीय को १८१४९११८ वर्ष पूर्व में साकेत धाम के चले गए ।
जय श्री राम

Monday, April 18, 2016

रामायण का वैज्ञानिक विश्लेषण ,Ramayan- scientific analysis




लेखक- कृष्णानुरागी वरुण
||•|| रामायण का वैज्ञानिक विश्लेषण ||•||
रामायण एकांगी दृष्टिकोण का वृतांत भर नहीं है।
इसमें कौटुम्बिक सांसारिकता है। राज-समाज
संचालन के कूट मंत्र हैं। भूगोल है। वनस्पति और जीव जगत
हैं। राष्ट्रीयता है। राष्ट्र के प्रति उत्सर्ग का चरम है।
अस्त्र-शस्त्र हैं। यौद्धिक कौशल के गुण हैं।
भौतिकवाद है। कणांद का परमाणुवाद है।
सांख्यदर्शन और योग के सूत्र हैं। वेदांत दर्शन है और अनेक
वैज्ञानिक उपलब्धियां हैं। गांधी का राम-राज्य
और पं. दीनदयाल उपाध्याय का आध्यात्मिक
भौतिकवाद के उत्स इसी रामायण में हैं।
वास्तव में
रामायण और उसके परवर्ती ग्रंथ कवि या लेखक की
कपोल-कल्पना न होकर तात्कालीन ज्ञान के विश्व
कोश हैं। जर्मन विद्वान मैक्समूलर ने तो ऋग्वेद को कहा
भी था कि यह अपने युग का ‘विश्व कोश' है। मसलन
‘एन-साइक्लोपीडिया आफ वर्ल्ड !
लंकाधीश रावण ने नाना प्रकार की विधाओं के
पल्लवन की दृष्टि से यथोचित धन व सुविधाएं उपलब्ध
कराई थीं। रावण के पास लडाकू वायुयानों और
समुद्री जलपोतों के बड़े भण्डार थे। प्रक्षेपास्त्र और
ब्रह्मास्त्रों का अकूत भण्डार व उनके निर्माण में
लगी अनेक वेधशालाएं थीं। दूरसंचार व दूरदर्शन की
तकनीकी-यंत्र लंका में स्थापित थे। राम-रावण युद्ध
केवल राम और रावण के बीच न होकर एक विश्वयुद्ध
था। जिसमें उस समय की समस्त विश्व-शक्तियों ने
अपने-अपने मित्र देश के लिए लड़ाई लड़ी थी।
परिणामस्वरूप ब्रह्मास्त्रों के विकट प्रयोग से लगभग
समस्त वैज्ञानिक अनुसंधान-शालाएं उनके
आविष्कारक, वैज्ञानिक व अध्येता काल-कवलित
हो गए। यही कारण है कि हम कालांतर में हुए
महाभारत युद्ध में भी वैज्ञानिक चमत्कारों को
रामायण की तुलना में उत्कृष्ट व सक्षम नहीं पाते हैं।
यह भी इतना विकराल विश्व-युद्ध था कि
रामायण काल से शेष बचा जो विज्ञान था, वह
महाभारत युद्ध के विंध्वस की लपेट में आकर नष्ट हो
गया। इसीलिए महाभारत के बाद के जितने भी युद्ध
हैं वे खतरनाक अस्त्र-शस्त्रों से लड़े जाकर थल सेना के
माध्यम से ही लड़े गए दिखाई देते हैं। बीसवीं सदी में
हुए द्वितीय विश्व युद्ध में जरूर हवाई हमले के माध्यम से
अमेरिका ने जापान के हिरोशिमा-नागाशाकी में
परमाणु हमले किए।
बाल्मीकी रामायण एवं नाना रामायणों तथा
अन्य ग्रंथों में ‘पुष्पक विमान' के उपयोग के विवरण हैं।
इससे स्पष्ट होता है, उस युग में राक्षस व देवता न केवल
विमान शास्त्र के ज्ञाता थे, बल्कि सुविधायुक्त
आकाशगामी साधनों के रूप में वाहन उपलब्ध भी थे।
रामायण के अनुसार पुष्पक विमान के निर्माता
ब्रह्मा थे। ब्रह्मा ने यह विमान कुबेर को भेंट किया
था। कुबेर से इसे रावण ने छीन लिया। रावण की मृत्यु
के बाद विभीषण इसका अधिपति बना और उसने फिर
से इसे कुबेर को दे दिया। कुबेर ने इसे राम को उपहार में
दे दिया। राम लंका विजय के बाद अयोध्या इसी
विमान से पहुंचे थे।
रामायण में दर्ज उल्लेख के अनुसार पुष्पक विमान मोर
जैसी आकृति का आकाशचारी विमान था, जो
अग्नि-वायु की समन्वयी ऊर्जा से चलता था।
इसकी गति तीव्र थी और चालक की इच्छानुसार इसे
किसी भी दिशा में गतिशील रखा जा सकता था।
इसे छोटा-बड़ा भी किया जा सकता था। यह
सभी ऋतुओं में आरामदायक यानी वतानुकूलित था।
इसमें स्वर्ण खंभ मणिनिर्मित दरवाजे, मणि-स्वर्णमय
सीढियां, वेदियां (आसन) गुप्त गृह, अट्टालिकाएं
(केबिन) तथा नीलम से निर्मित सिंहासन
(कुर्सियां) थे। अनेक प्रकार के चित्र एवं जालियों से
यह सुसज्जित था। यह दिन और रात दोनों समय
गतिमान रहने में समर्थ था। इस विवरण से जाहिर
होता है, यह उन्नत प्रौद्योगिकी और वास्तु कला
का अनूठा नमूना था।
‘ऋग्वेद' में भी चार तरह के विमानों का उल्लेख है।
जिन्हें आर्य-अनार्य उपयोग में लाते थे। इन चार
वायुयानों को शकुन, त्रिपुर, सुन्दर और रूक्म नामों से
जाना जाता था। ये अश्वहीन, चालक रहित ,
तीव्रगामी और धूल के बादल उड़ाते हुए आकाश में उड़ते
थे। इनकी गति पतंग (पक्षी) की भांति, क्षमता तीन
दिन-रात लगातार उड़ते रहने की और आकृति नौका
जैसी थी। त्रिपुर विमान तो तीन खण्डों (तल्लों)
वाला था तथा जल, थल एवं नभ तीनों में विचरण कर
सकता था। रामायण में ही वर्णित हनुमान की
आकाश-यात्राएं, महाभारत में देवराज इन्द्र का
दिव्य-रथ, कार्त्तवीर्य अर्जुन का स्वर्ण विमान एवं
सोम-विमान, पुराणों में वर्णित नारदादि की
आकाश यात्राएं एवं विभिन्न देवी-देवताओं के
आकाशगामी वाहन रामायण-महाभारत काल में
वायुयान और हैलीकॉप्टर जैसे यांत्रिक साधनों की
उपलब्धि के प्रमाण हैं।
किंवदंती तो यह भी है कि गौतम बुद्ध ने भी
वायुयान द्वारा तीन बार लंका की यात्रा की
थी। एरिक फॉन डॉनिकेन की किताब ‘चैरियट्स
ऑफ गॉड्स' में तो भारत समेत कई प्राचीन देशों से
प्रमाण एकत्रित करके वायुयानों की तत्कालीन
उपस्थिति की पुष्टि की गई है। इसी प्रकार डॉ.
ओंकारनाथ श्रीवास्तव ने अनेक पाश्चात्य
अनुसंधानों के मतों के आधार पर संभावना जताई है
कि ‘रामायण' में अंकित हनुमान की यात्राएं
वायुयान अथवा हैलीकॉप्टर की यात्राएं थीं या
हनुमान ‘राकेट बेल्ट‘ बांधकर आकाशगमन करते थे,
जैसाकि आज के अंतरिक्ष-यात्री करते हैं।
हनुमान-
मेघनाद में परस्पर हुआ वायु-युद्ध भी हावरक्रफ्ट से
मिलता-जुलता है। आज भी लंका की पहाड़ियों पर
चौरस मैदान पाए जाते हैं, जो शायद उस कालखण्ड के
वैमानिक अड्डे थे। प्राचीन देशों के ग्रंथों में वर्णित
उड़ान-यंत्रों के वर्णन लगभग एक जैसे हैं। कुछ गुफा-
चित्रों में आकाशचारी मानव एवं अंतरिक्ष वेशभूषा से
युक्त व्याक्तियों के चित्र भी निर्मित हैं। मिस्त्र में
तो दुनिया का ऐसा नक्शा मिला है, जिसका
निर्माण आकाश में उड़ान-सुविधा की पुष्टि करता
है।
इन सब साक्ष्यों से प्रमाणित होता है कि पुष्पक
व अन्य विमानों के रामायण में वर्णन कोई कवि-
कल्पना की कोरी उड़ान नहीं हैं।
ताजा वैज्ञानिक अनुसंधानों ने भी तय किया है
कि रामायण काल में वैमानिकी प्रौद्योगिकी
इतनी अधिक विकसित थी, जिसे आज समझ पाना
भी कठिन है। रावण का ससुर मयासुर अथवा मयदानव
ने भगवान विश्वकर्मा (ब्रह्मा) से वैमानिकी
विद्या सीखी और पुष्पक विमान बनाया। जिसे
कुबेर ने हासिल कर लिया।
पुष्पक विमान की
प्रौद्योगिक का विस्तृत व्यौरा महार्षि
भारद्वाज द्वारा लिखित पुस्तक ‘यंत्र-सर्वेश्वम्' में
भी किया गया था। वर्तमान में यह पुस्तक विलुप्त
हो चुकी है, लेकिन इसके 40 अध्यायों में से एक
अध्याय ‘वैमानिक शास्त्र' अभी उपलब्ध है। इसमें भी
शकुन, सुन्दर, त्रिपुर एवं रूक्म विमान सहित 25 तरह के
विमानों का विवरण है। इसी पुस्तक में वर्णित कुछ
शब्द जैसे ‘विश्व क्रिया दर्पण' आज के राड़ार जैसे यंत्र
की कार्यप्रणाली का रूपक है।
नए शोधों से पता चला है कि पुष्पक विमान एक ऐसा
चमत्कारिक यात्री विमान था, जिसमें चाहे जितने
भी यात्री सवार हो जाएं, एक कुर्सी हमेशा रिक्त
रहती थी। यही नहीं यह विमान यात्रियों की
संख्या और वायु के घनत्व के हिसाब से स्वमेव अपना
आकार छोटा या बड़ा कर सकता था। इस तथ्य के
पीछे वैज्ञानिकों का यह तर्क है कि वर्तमान समय में
हम पदार्थ को जड़ मानते हैं, लेकिन हम पदार्थ की
चेतना को जागृत करलें तो उसमें भी संवेदना सृजित हो
सकती है और वह वातावरण व परिस्थितियों के अनुरूप
अपने आपको ढालने में सक्षम हो सकता है। रामायण
काल में विज्ञान ने पदार्थ की इस चेतना को
संभवतः जागृत कर लिया था, इसी कारण पुष्पक
विमान स्व-संवेदना से क्रियाशील होकर आवश्यकता
के अनुसार आकार परिवर्तित कर लेने की विलक्षणता
रखता था। तकनीकी दृष्टि से पुष्पक में इतनी
खूबियां थीं, जो वर्तमान विमानों में नहीं हैं।
ताजा शोधों से पता चला है कि यदि उस युग का
पुष्पक या अन्य विमान आज आकाश गमन कर लें तो
उनके विद्युत चुंबकीय प्रभाव से मौजूदा विद्युत व
संचार जैसी व्यवस्थाएं ध्वस्त हो जाएंगी। पुष्पक
विमान के बारे में यह भी पता चला है कि वह उसी
व्यक्ति से संचालित होता था इसने विमान संचालन
से संबंधित मंत्र सिद्ध किया हो, मसलन जिसके हाथ
में विमान को संचालित करने वाला रिमोट हो।
शोधकर्ता भी इसे कंपन तकनीक (वाइब्रेशन
टेकनोलॉजी) से जोड़ कर देख रहे हैं। पुष्पक की एक
विलक्षणता यह भी थी कि वह केवल एक स्थान से
दूसरे स्थान तक ही उड़ान नहीं भरता था, बल्कि एक
ग्रह से दूसरे ग्रह तक आवागमन में भी सक्षम था। यानी
यह अंतरिक्षयान की क्षमताओं से भी युक्त था।
रामायण एवं अन्य राम-रावण लीला विषयक ग्रंथों
में विमानों की केवल उपस्थिति एवं उनके उपयोग का
विवरण है, इस कारण कथित इतिहासज्ञ इस पूरे युग
को कपोल-कल्पना कहकर नकारने का साहस कर
डालते हैं। लेकिन विमानों के निर्माण, इनके प्रकार
और इनके संचालन का संपूर्ण विवरण महार्षि
भारद्वाज लिखित ‘वैमानिक शास्त्र' में है। यह ग्रंथ
उनके प्रमुख ग्रंथ ‘यंत्र-सर्वेश्वम्' का एक भाग है। इसके
अतिरक्त भारद्वाज ने ‘अंशु-बोधिनी' नामक ग्रंथ भी
लिखा है, जिसमें ‘ब्रह्मांड
विज्ञान' (कॉस्मोलॉजी) का वर्णन है। इसी ज्ञान
से निर्मित व परिचालित होने के कारण विमान
विभिन्न ग्रहों की उड़ान भरते थे। वैमानिक-शास्त्र
में आठ अध्याय, एक सौ अधिकरण (सेक्शंस) पांच सौ
सूत्र (सिद्धांत) और तीन हजार श्लोक हैं। इस ग्रंथ
की भाषा वैदिक संस्कृत है।
वैमानिक-शास्त्र में चार प्रकार के विमानों का
वर्णन है। ये काल के आधार पर विभाजित हैं। इन्हें तीन
श्रेणियों में रखा गया है। इसमें ‘मंत्रिका' श्रेणी में वे
विमान आते हैं जो सतयुग और त्रेतायुग में मंत्र और
सिद्धियों से संचालित व नियंत्रित होते थे। दूसरी
श्रेणी ‘तांत्रिका' है, जिसमें तंत्र शक्ति से उड़ने वाले
विमानों का ब्यौरा है। इसमें तीसरी श्रेणी में
कलयुग में उड़ने वाले विमानों का ब्यौरा भी है, जो
इंजन (यंत्र) की ताकत से उड़ान भरते हैं। यानी
भारद्वाज ऋषि ने भविष्य की उड़ान प्रौद्योगिकी
क्या होगी, इसका अनुमान भी अपनी दूरदृष्टि से
लगा लिया था। इन्हें कृतक विमान कहा गया है। कुल
25 प्रकार के विमानों का इसमें वर्णन है।
तांत्रिक विमानों में ‘भैरव' और ‘नंदक' समेत 56 प्रकार
के विमानों का उल्लेख है। कृतक विमानों में ‘शकुन',
‘सुन्दर' और ‘रूक्म' सहित 25 प्रकार के विमान दर्ज हैं।
‘रूक्म' विमान में लोहे पर सोने का पानी चढ़ा होने
का प्रयोग भी दिखाया गया है। ‘त्रिपुर' विमान
ऐसा है, जो जल, थल और नभ में तैर, दौड़ व उड़ सकता है।
उड़ान भरते हुए विमानों का करतब दिखाये जाने व
युद्ध के समय बचाव के उपाय भी वैमानिकी-शास्त्र में
हैं। बतौर उदाहरण यदि शत्रु ने किसी विमान पर
प्रक्षेपास्त्र अथवा स्यंदन (रॉकेट) छोड़ दिया है तो
उसके प्रहार से बचने के लिए विमान को तियग्गति
(तिरछी गति) देने, कृत्रिम बादलों में छिपाने या
‘तामस यंत्र' से तमः (अंधेरा) अर्थात धुआं छोड़ दो।
यही नहीं विमान को नई जगह पर उतारते समय भूमि
गत सावधानियां बरतने के उपाय व खतरनाक स्थिति
को परखने के यंत्र भी दर्शाए गए हैं। जिससे यदि
भूमिगत सुरंगें हैं तो उनकी जानकारी हासिल की
जा सके। इसके लिए दूरबीन से समानता रखने वाले यंत्र
‘गुहागर्भादर्श' का उल्लेख है। यदि शत्रु विमानों से
चारों ओर से घेर लिया हो तो विमान में ही लगी
‘द्विचक्र कीली' को चला देने का उल्लेख है। ऐसा
करने से विमान 87 डिग्री की अग्नि-शक्ति
निकलेगी। इसी स्थिति में विमान को गोलाकार
घुमाने से शत्रु के सभी विमान नष्ट हो जाएंगे।
इस शास्त्र में दूर से आते हुए विमानों को भी नष्ट करने
के उपाय बताए गए हैं। विमान से 4087 प्रकार की
घातक तरंगें फेंककर शत्रु विमान की तकनीक नष्ट कर
दी जाती है। विमानों से ऐसी कर्कश ध्वनियां
गुंजाने का भी उल्लेख है, जिसके प्रगट होने से सैनिकों
के कान के पर्दे फट जाएंगे। उनका हृदयाघात भी हो
सकता है। इस तकनीक को ‘शब्द सघण यंत्र' कहा गया
है। युद्धक विमानों के संचालन के बारे में संकेत दिए हैं
कि आकाश में दौड़ते हुए विमान के नष्ट होने की
आशंका होने पर सातवीं कीली अर्थात घुंडी
चलाकर विमान के अंगों को छोटा-बड़ा भी किया
जा सकता है। उस समय की यह तकनीक इतनी
महत्वपूर्ण है कि आधुनिक वैमानिक विज्ञान भी
अभी उड़ते हुए विमान को इस तरह से संकुचित अथवा
विस्तारित करने में समर्थ नहीं हैं।
रामायण काल में वैमानिकी प्रौद्योगिकी
विकास के चरम पर थी, यह इन तथ्यों से प्रमाणित
होता है कि वैमानिक शास्त्र में विमान चालक को
किन गुणों में पारंगत होना चाहिए। यह भी उल्लेख
इस शास्त्र में है। इसमें प्रशिक्षित चालक (पायलट)
को 32 गुणों में निपुण होना जरूरी बताया गया है।
इन गुणों में कौशल चालक ही ‘रहस्यग्नोधिकारी'
अथवा ‘व्योमयाधिकारी' कहला सकता है।
चालक
को विमान-चालन के समय कैसी पोशाक पहननी
चाहिए, यह ‘वस्त्राधिकरण' और इस दौरान किस
प्रकार का आहार ग्रहण करना चाहिए, यह
‘आहाराधिकरण' अध्यायों में किए गए उल्लेख से स्पष्ट
है।
राम-रावण युद्ध केवल धनुष-बाण और गदा-भाला जैसे
अस्त्रों तक सीमित नहीं था। मदनमोहन शर्मा
‘‘शाही'' के तीन खण्डों में छपे बृहद उपन्यास ‘लंकेश्वर'
में दिए उल्लेखों से यह साफ हो जाता है कि
रामायण काल में वैज्ञानिक अविष्कार चरमोत्कर्ष
पर था। राम और रावण दोनों के सेनानायकों ने
भयंकर आयुधों का खुलकर प्रयोग भी किया था।
लंकेश्वर उपन्यास को ही प्रमुख आधार बनाकर
‘‘रावण'' धारावाहिक का प्रसारण जीटीवी पर
किया गया था, जिसमें राम और रावण के चरित्र
को सामान्य मनुष्य की तरह विकसित होते
दिखाया गया था।
लंका उस युग में सबसे संपन्न देश था। लंकाधीश रावण ने
नाना प्रकार की विधाओं के पल्लवन के लिए
यथोचित धन व सुविधाएं भी उपलब्ध कराईं थीं।
रावण के पास लड़ाकू वायुयानों और समुद्री
जलपोतों के बेड़े थे। प्रक्षेपास्त्र और ब्रह्मास्त्रों का
अटूट भण्डार व इनके निर्माण में लगी अनेक वेधशालाएं
थीं। दूर संचार यंत्र भी लंका में उपलब्ध थे।
इस अत्यंत रोचक और अद्भुत रहस्यों से भरे उपन्यास
‘लंकेश्वर' को पढ़ने से एकाएक विश्वास नहीं होता
कि राम-रावण युद्ध के दौरान विज्ञान चरमोत्कर्ष
पर था लेकिन लेखक ने पुराण कालीन ग्रंथों और
विभिन्न रामायणों व अनेक विद्धानों की खोजों
का जो फुटनोटों में ब्यौरा दिया है, उससे यह
विश्वास करना ही पड़ता है कि उस युग में विज्ञान
चरमोत्कर्ष पर था। राम-रावण युद्ध दो संस्कृतियों
के अस्तित्व की कायमी के लिए लड़ा गया भीषण
आणविक युद्ध था, जिसमें विश्व की समस्त शक्तियों
ने भागीदारी की थी।
यह सभी रामायणें निर्विवाद रूप से स्वीकारती हैं
कि रावण के पास पुष्पक विमान था और रावण
सीता को इसी विमान में बिठाकर अपहरण कर ले
गया था। ‘लंकेश्वर' में वायुयानों का उस युग में
उपलब्ध होने का विस्तृत ब्यौरा है- गंधमादन पर्वत,
गृध्रों की नगरी थी। यहां के ग्रध्रराज भूमि, समुद्री
व आकाशीय मार्ग पर भी अधिकार रखते थे। यह
नगरी सम्राट संपाती के पुत्र सुपार्श्व की थी।
संपाती राजा दशरथ के सखा थे। संपाती वैज्ञानिक
था। उसने छोटे-बड़े वायुयानों और अंतरिक्ष यात्री
की वेषभूषा का निर्माण किया था। सुपार्श्व ने
ही हनुमान को लघुयान में बिठाकर समुद्र लंघन कराकर
त्रिकुट पर्वत पर विमान उतारा था। त्रिकुट पर्वत
लंका की सीमा परिधि में था। सुपार्श्व के पास
आग्नेयास्त्र भी थे, जिनसे प्रहार कर हनुमान ने
नागमाता सुरसा को परास्त किया था। इस अस्त्र
के प्रयोग से समुद्र में आग लगी और नाग जाति जलकर
नष्ट हो गई। त्रिकुट पर्वत के पहले मैनाक पर्वत था,
जिसमें रत्नों की खानें थीं। रावण इन रत्नों का
विदेश व्यापार करता था। लंका की संपन्नता का
कारण भी यही खानें थीं। सुपार्श्व ने राम-रावण
युद्ध में राम का साथ दिया था।
‘लंकेश्वर' के अनुसार लंका में ऐसे वायुयान भी थे, जो
आकाश में खडे़ हो जाते थे और आलोप हो जाते थे। इनमें
चालक नहीं होता था। ये स्वचालित थे। उस समय
आठ प्रकार के विमान थे जो सौर्य ऊर्जा से
संचालित होते थे। रावण पुत्र मेघनाद की
निकुम्भिला वेधशाला थी। जिसमें प्रतिदिन एक
दिव्य रथ अर्थात एक लड़ाकू विमान का निरंतर
निर्माण होता रहता था। मेघनाद के पास ऐसे
विचित्र विमान भी थे जो आंख से ओझल हो जाते थे
और फिर धुआं छोड़ते थे। जिससे दिन में भी अंधकार
हो जाता था। यह धुआं विषाक्त गैस अथवा अश्रु गैस
होती थी। ये विमान नीचे आकर बम बारी भी करते
थे।
मेघनाद की वेधशाला में ‘शस्त्रयुक्त स्यंदन' (राकेट)
का भी निर्माण होता था। मेघनाद ने युद्ध में जब
इस स्यंदन को छोड़ा तो यह अंतरिक्ष की ओर बहुत
ही तेज गति से बढ़ा। इन्द्र और वरूण स्यंदन शक्ति से
परिचित थे। उन्होंने मतालि को संकेत कर दूसरा
शक्तिशाली स्यंदन छुड़ाया और मेघनाद के स्यंदन को
आकाश में ही नष्ट कर दिया और इसके अवशेष को समुद्र
में गिरा दिया।
लंका में यानों की व्यवस्था प्रहस्त के सुपुर्द थी।
यानों में ईंधन की व्यवस्था प्रहस्त ही देखता था।
लंका में सूरजमुखी पौधे के फूलों से तेल (पेट्रोल)
निकाला जाता था (अमेरिका में वर्तमान में
जेट्रोफा पौधे से पेट्रोल निकाला जाता है।) अब
भारत में भी रतनजोत के पौधे से तेल बनाए जाने की
प्रक्रिया में तेजी आई है। लंकावासी तेल शोधन में
निरंतर लगे रहते थे। लड़ाकू विमानों को नष्ट करने के
लिए रावण के पास भस्मलोचन जैसा वैज्ञानिक था
जिसने एक विशाल ‘दर्पण यंत्र' का निर्माण किया
था। इससे प्रकाशपुंज वायुयान पर छोड़ने से यान
आकाश में ही नष्ट हो जाते थे। लंका से निष्कासित
किये जाते वक्त विभीषण भी अपने साथ कुछ दर्पण
यंत्र ले आया था। इन्हीं ‘दर्पण यंत्रों' में सुधार कर
अग्निवेश ने इन यंत्रो को चौखटों पर कसा और इन
यंत्रों से लंका के यानों की ओर प्रकाश पुंज फेंका
जिससे लंका की यान शक्ति नष्ट होती चली गई।
बाद में रावण ने अग्निवेश की इस शक्ति से निपटने के
लिए सद्धासुर वैज्ञानिक को नियुक्त किया।
श्री शाही का कहना है कि कथित
बुद्धिजीवियो ंऔर पाखण्डी पूजा-पाठियों
द्वारा रामायणकाल की इन अद्भुत शक्तियों को
अलौकिल व ऐन्द्रिक कहकर इनका महत्व ही समाप्त
करने का षड्यंत्र किया जा रहा है। जबकि ये
शक्तियां ज्ञान का वैज्ञानिक बल थीं। जिसमें
मेघनाद ब्रह्म विद्या का विशारद था। उसका
पांडित्य रावण से भी कहीं बढ़कर था। विस्फोटक व
विंध्वसक अस्त्रो का तो इस युद्ध में खुलकर प्रयोग हुआ
जिसमें ब्रह्मास्त्र सबसे खतरनाक था। इन्द्र ने शंकर से
राम के लिए दिव्यास्त्र और पशुपतास्त्र मांगे थे। इन
अस्त्रों को देते हुए शंकर ने अगस्त्य को चेतावनी देते हुए
कहा, ‘अगस्त्य तुम ब्रह्मास्त्र के ज्ञाता हो और
रावण भी। कहीं अणुयुद्ध हुआ तो वर्षों तक प्रदूषण
रहेगा। जहां भी विस्फोट होगा, वह स्थान वर्षों
तक निवास के लायक नहीं रहेगा। इसलिए पहले युद्ध
को मानव कल्याण के लिए टालना ?' लेकिन अपने-
अपने अहं के कारण युद्ध टला नहीं।
ब्रह्माशास्त्र के
प्रस्तुत परिणामों से स्पष्ट हो जाता है कि
ब्रह्मास्त्र परमाणु बम ही था।
राम द्वारा सेना के साथ लंका प्रयाण के समय
द्रुमकुल्य देश के सम्राट समुद्र ने रावण से मैत्री होने के
कारण राम को अपने देश से मार्ग नहीं दिया तो
राम ने अगस्त्य के अमोध अस्त्र (ब्रह्मास्त्र) को छोड़
दिया। जिससे पूरा द्रुमकुल्य (मरूकान्तार) देश ही
नष्ट हो गया। यह अमोध अस्त्र हाइड्रोजन बम अथवा
एटम बम ही था। मेघनाद की वेधशाला में शीशे (लेड)
की भट्टियां थीं। जिनमें कोयला और विद्युत
धारा प्रवाहित की जाती थी। इन्हीं भट्टियों में
परमाणु अस्त्र बनते थे और नाभिकीय विखण्डन की
प्रक्रिया की जाती थी।
युद्ध के दौरान राम सेना पर सद्धासुर ने ऐसा विकट
अस्त्र छोड़ा जो संभवतः ब्रह्मास्त्र से भी ज्यादा
शक्तिशाली था, जो सुवेल पर्वत की चोटी को
सागर में गिराता हुआ सीधे दक्षिण भारत के गिरी
को समुद्र में गिरा दिया। सद्धासुर का अंत करने के
लिए अगस्त्य ने सद्धासुर के ऊपर ब्रह्मास्त्र छुड़वाया।
जिससे सद्धासुर और अनेक सैनिक तो मारे ही गए
लंका के शिव मंदिर भी विस्फोट के साथ ढहकर समुद्र
में गिर गए। दोनों ओर प्रयोग की गई ये भयंकर परमाणु
शक्तियां थीं। इस सिलसिले में डॉ. चांसरकर ने
ताजा जानकारी देते हुए अपने लेख में लिखा है,
पांडुनीडि का भाग या इससे भी अधिक दक्षिण
भारत का भाग इस परमाणु शक्ति के प्रयोग से सागर
में समा गया था और राम द्वारा ‘‘करूणागल'' के
स्वर्ण और रत्नों से भरे शिव मंदिर, स्वर्ण
अट्टालिकाएं भीषण विस्फोटों से सागर में गिर गईं।
इन विस्फोटों से लंका का ही नहीं अपितु भारत
का भी यथेष्ठ भाग सागर में समा गया था और लंका
से भारत, की दूरी, उस भू-भाग के नष्ट होने से बढ़ गई
थी। नल-सेतु (जल डमरूमध्य) का भाग भी रक्ष
रणनीतिज्ञों ने नष्ट कर दिया होगा। यही कारण
है कि त्रिकुट पर्वत की चोटियां भी तिरूकोणमल के
भाग के साथ लंका के सागर में समा गईं होंगी और
समुद्र भी गहरा हो गया होगा। इसका कारण यह
भी हो सकता है कि युद्ध के बाद अवशेष बम आदि
सामग्री को नष्ट करने के लिए अगस्त्य ने समुद्र में ही
विस्फोट कराकर लंका से विदा ली हो, जिससे
सागर गहरा हो गया। क्योंकि बाल्मीकि
रामायण में उथले उदधि और यहां नावें नहीं चल सकती
का उल्लेख हनुमान करते हैं। अब गहरे पानी पैठकर
पनडुब्बियों से तिरूकोणमलै के रामायणकलीन शिव
मंदिरों के कई अवशेष खोज निकाले हैं।
डिस्कवरी चैनल
द्वारा इन अवशेषों का बड़ा सुंदर प्रस्तुतिकरण
किया गया है। अब तो अमेरिकी अंतरिक्ष एजेंसी
‘नासा' ने त्रेतायुगीन इस ऐतिहासिक पुल को खोज
निकाल कर इसके चित्र भी दुनिया के सामने प्रस्तुत
कर दिए हैं। शेधों से पता चला है कि पत्थरों से बना
यह पुल मानव निर्मित है। इस पुल की लंबाई लगभग
तीस किलोमीटर बताई गई है। यह पुल लगभग 17 लाख
50 हजार साल पुराना आधुनिक वैज्ञानिक तकनीक
के आधार से आंका गया है। नवीनतम दूरसंवेदन तकनीक से
इस सेतु के चित्र लिए गए हैं। अब यह सेतु राम-रावण
युद्ध के प्रमाण का साक्षात उदाहरण बन गया है,
जिसे झुटलाया नहीं जा सकता।
जब रावण अपने अंत समय से पहले वेधशाला में दिव्य-रथ
के निर्माण में लीन था तब अग्निवेश ने अग्निगोले
छोड़कर वेधशाला और उसके पूरे क्षेत्र को नष्ट करने की
कोशिश की। श्री शाही के अनुसार ये अग्निगोले
थर्माइट बम थे, जिसके प्रहारे से इस्पात की मोटी
चादर तक क्षण मात्र में पिघल जाती थी। लंका के हेम
मंदिर, हेमभूषित इन्हीं अग्निगोलों से पिघली थी।
रावण के प्राणों का अंत जब अगस्त्य का ब्रह्मास्त्र
नहीं कर सका तो राम ने रावण पर ब्रह्मा द्वारा
आविष्कृत ब्रह्मास्त्र छोड़ा जो बहुत ही ज्यादा
शक्तिशाली था। इससे रावण के शरीर के अनेक टुकड़े
हो गए और वह मृत्यु का प्राप्त हो गया।
इस विश्व युद्ध में छोटे-मोटे अस्त्रों की तो कोई
गिनती ही नहीं थी। ये अस्त्र भी विकट मारक
क्षमता के थे। शंबूक ने ‘सूर्यहास खड्ग' का अपनी
वेधशाला में आविष्कार किया था। इस खड़्ग में सौर
ऊर्जा के संग्रहण क्षमता थी। जैसे ही इनका प्रयोग
शत्रु दल पर किया जाता तो वे सूर्यहास खड्ग से
चिपक जाते। यह खड्ग शत्रु का रक्त खींच लेता और
चुंबक नियंत्रण शक्ति से धारक के पास वापस आ
जाता। लक्ष्मण ने खड्ग को हासिल करने के लिए ही
शंबूक का वध किया था।

अयोध्या,रामायण,श्री राम




अयोध्या अपने शाब्दिक अर्थ के अनुसार यह अपराजित है.. यह नगर अपने २२०० वर्षों के इतिहास मे अनेकों युद्धों व संघर्षो का प्रत्यक्ष दर्शी रहा है, अयोध्या को राजा मनु द्वारा निर्मित किया गया और यह श्री राम जी का जन्मस्थल है। इसका उल्लेख प्राचीन संस्कृत ग्रंथों जिसमे रामायण व महाभारत सम्मिलित हैं, में आता है। वाल्मिकि रामायण के एक श्लोक मे इसका वर्णन निम्न प्रकार है।
कोसलो नाम मुदितः स्फीतो जनपदो महान्। निविष्ट सरयूतीरे प्रभूत-धन-धान्यवान् ॥१-५-५॥
अयोध्या नाम नगरी तत्रऽऽसीत् लोकविश्रुता। मनुना मानवेन्द्रेण या पुरी निर्मिता स्वयम् ॥१-५-६॥
— श्रीमद्वाल्मीकीरामायणे बालकाण्डे पञ्चमोऽध्यायः
श्री ग्रिफैत्स जो 19 शताब्दी के आख़िर मे बनारस कॉलेज के मुख्य अध्यापक रहे... उन्होने रामायण मे अयोध्या के वर्णन को बड़ी सुंदरता से इस प्रकार अनुवादित किया, उनके शब्दों के अनुसार - " उस नगरी के विशाल एवं सुनियोजित रास्ते और उसके दोनो ओर से निकली पानी की नहरें जिस से राजपथ पर लगे पेड़ तरो ताज़ा रहें और अपने फूलो की महक को फैलाते रहें। एक कतार से लगे हुए और सतल भूमि पर बने बड़े बड़े राजमहल हैं, अनेक मंदिर एवं बड़ी बड़ी कमानें, हवा मे लहराता विशाल राज ध्वज, लहलहाते आम के बगीचे, फलों और फूलों से लदे पेड़, मुंडेर पर कतार से लगे फहराते ध्वजों के इर्द गिर्द और हर द्वार पर धनुष लिए तैनात रक्षक हैं। "
कौशल राज्य के नरेश राजा दशरथ राजा मनु के ५६ वंशज माने जाते हैं, उनकी ३ पत्नियां थी, कौशल्या, सुमीत्रा व कैकेयी, ऐसा माना जाता है श्री राम का जन्म कौशल्या मंदिर मे हुआ था, अतः उसे ही राम जन्म स्थल कहा जाता है. ब्रह्मांड पुराण में अयोध्या को हिंदुओं ६ पवित्र नगरियों से भी अधिक पवित्र माना गया है। जिसका उल्लेख इस पुराण मे इस प्रकार किया गया है -
अयोध्य मथुरा माया, काशी कांचि अवंतिका, एताः पुण्यतमाः प्रोक्ताः पुरीणाम उत्तमोत्तमाः
महर्षि व्यास ने श्री राम कथा का वर्णन उनके द्वारा रचित महाभारत के वनोपाख्यान खंड मे किया है, अयोध्या सदियों से अयोध्या वासियों द्वारा बारंबार निर्मित की गयी है, यह अयोध्या वासियोम की जिजीविषा ही है कि वह इस नगर को अनेकानेक बार पुनर्रचित कर चुके हैं। अलक्षेंद्र (सिकंदर) के लगभग २०० वर्ष बाद, मौर्य शासन काल के दौरान जब बौद्ध धर्म अपनी चरम सीमा पर था, एक ग्रीक राजा मेनंदार अयोध्या पर आक्रमण करनी की नीयत से आया, उसने बुद्ध धर्म द्वारा प्रभावित होने का ढोंग कर बौद्ध भिक्षु होने का कपट किया और अयोध्या पर धोखे से आक्रमण किया एवं इस आक्रमण मे जन्मस्थल मंदिर ध्वस्त हुआ, किंतु सिर्फ़ 3 महीने मे शुंग वंशिय राजा द्युमतमतसेन द्वारा मेनंदार पराजित किया गया और अयोध्या को स्वतंत्र कराया गया।
जन्म स्थान मंदिर की पुनर्रचना राजा विक्रमादित्य ने की, इतिहास मे 6 विक्रमादित्यो का उल्लेख आता है, इस बात पर इतिहासविद एक मत नही है कि किस विक्रमादित्य ने मंदिर का निर्माण किया। कुछ के अनुसार वो विक्रमादित्य जिसने शको को सन ५६ ई.पू. मे पराजित किया और जिसके नाम से शक संवत चलता है, तो कुछ कहते हैं स्कंदगुप्त जो स्वयं को विक्रमादित्य कहलाता था, उसने 5 वी शताब्दी के अंत मे मंदिर निर्माण किया। पी. करनेगी की किताब " ए हिस्टॉरिकल स्कैच ऑफ फ़ैज़ाबाद " मे कही बात साधारणतया सर्वमान्य है। उसमे वो कहते हैं, विक्रमादित्य के पुरातन शहर ढूँढने का मुख्य सूत्र यह है कि जहाँ सरयू बहती है और भगवान शंकर का रूप नागेश्वर नाथ मंदिर जहाँ है। ये भी माना जाता है की विक्रमादित्या ने करीब ३६० मंदिर अयोध्या मे बनवाए और इसके बाद हिंदुओं द्वारा श्री राम की पूजा निरंतर चलती रही.. इसकी पुष्टि नासिक स्थित सातवाहन राजा द्वारा बनाई पुरातन गुफा के शिला लेख मे मिलती है, बहुचर्चित संस्कृत नाटककार भास ने भगवान राम को अर्चना अवतार मे जोड़ा है।
नमो भगवते त्रैलोक्यकारणाय नारायणाय
ब्रह्मा ते ह्रदयं जगतत्र्यपते रुद्रश्च कोपस्तव
नेत्र चंद्रविकाकरौ सुरपते जिव्हा च ते भारती
सब्रह्मेन्द्रमरुद्रणं त्रिभुवनं सृष्टं त्वयैव प्रभो
सीतेयं जलसम्भवालयरता विश्णुर्भवान ग्रह्यताम
श्री राम को विष्णु अवतार मे पूजा जाने की परंपरा है, जिसका प्रमाण पुरानी दस्तकारी एवं शिला लेखों मे मिलते हैं। चौथी शताब्दी के रामटेक मंदिर की दस्तकारी, सन ४२३ ए.डी. का कंधार का शिलालेख, सन ५३३ ए.डी. का बादामी का चालुक्य शिलालेख, आठवीं शताब्दी (ए.डी) का मामल्लापुरम का शिलालेख, ११वीं शताब्दी में जोधपुर के नज़दीक बना अंबा माता मंदिर, ११४५ ए.डी. का रेवा जिले के मुकुंदपुर में बना राम मंदिर, ११६८ ए.डी. का हँसी शिलालेख, रायपुर जिले के राजीम मे बना राजीव लोचन मंदिर इनमे से कुछ हैं।
१२ शताब्दी में अयोध्या मे पांच मंदिर थे, गौप्रहार घाट का गुप्तारी, स्वर्गद्वार घाट का चंद्राहरी, चक्रतीर्थ घाट का विष्णुहरी, स्वर्गद्वार घाट का धर्महरी, और जन्मभूमि स्थान पर विष्णु मंदिर, इसके बाद जब महमूद ग़ज़नवी ने भारत पर आक्रमण किया तो उसने सोमनाथ को लूटा और वापस चला गया. किंतु उसका भतीजा सालार मसूद अयोध्या की ओर बढ़ा, १४ जून १०३३ को मसूद अयोध्या से ४० किलोमीटर दूर बहराइच पहुँचा, यहाँ सुहैल देव के नेतृत्व मे सेना एकत्र हुई और मसूद पर आक्रमण किया दिया, जिसमे मसूद की सेना परास्त हुई, और मसूद मारा गया. मसूद के चरित्रकार अब्दुल रहमान चिश्ती मिरात ए मसूदी मे कहते हैं,
" मौत का सामना है, फिराक़ सूरी नज़दीक है, हिंदुओं ने जमाव किया है, इनका लश्कर बे-इंतेहाँ है. नेपाल से पहाड़ों के नीचे घाघरा तक फौज मुखालिफ़ का पड़ाव है। मसूद की मौत के बाद अजमेर से मुज़फ्फर ख़ान तुरंत आया, पर वो भी मारा गया... अरब ईरान के हर घर का चिराग बुझा है।

Wednesday, September 23, 2015

राम लक्ष्मण व सीता - चित्रकूट


श्री राम लक्ष्मण व सीता सहित चित्रकूट पर्वत की ओर जा रहे थे !
राह बहुत पथरीली और कंटीली थी !
सहसा श्री राम के चरणों में एक कांटा चुभ गया !
.
फलस्वरूप वह रूष्ट या क्रोधित नहीं हुए, ...
बल्कि हाथ जोड़कर धरती से एक अनुरोध करने लगे !
बोले - " माँ , मेरी एक विनम्र प्रार्थना है तुमसे !
क्या स्वीकार करोगी ?"
.
धरती बोली - " प्रभु प्रार्थना नही ,
दासी को आज्ञा दीजिए !"
.
'माँ, मेरी बस यही विनती है कि जब भरत मेरी खोज में
इस पथ से गुज़रे, तो तुम नरम हो जाना !
कुछ पल के लिए अपने आँचल के ये पत्थर और कांटे छुपा लेना !
मुझे कांटा चुभा सो चुभा ! पर मेरे भरत के पाँव में अघात मत करना',
श्री राम विनत भाव से बोले !

श्री राम को यूँ व्यग्र देखकर धरा दंग रह गई !
पूछा - " भगवन, धृष्टता क्षमा हो ! पर क्या भरत आपसे अधिक सुकुमार है ?
जब आप इतनी सहजता से सब सहन कर गए,
तो क्या कुमार भरत नहीं कर पाँएगें ?
फिर उनको लेकर आपके चित में ऐसी व्याकुलता क्यों ?
श्री राम बोले - ' नहीं .....नहीं माता ! आप मेरे कहने का अभिप्राय नहीं समझीं ! भरत को यदि कांटा चुभा, तो वह उसके पाँव को नहीं, उसके हृदय को विदीर्ण कर देगा ! '
'हृदय विदीर्ण !! ऐसा क्यों प्रभु ?',
धरती माँ जिज्ञासा घुले स्वर में बोलीं !
'अपनी पीडा़ से नहीं माँ, बल्कि यह सोचकर कि इसी कंटीली राह से मेरे प्रभु राम गुज़रे होंगे और ये शूल उनके पगों में भी चुभे होंगे !
मैया , मेरा भरत कल्पना में भी मेरी पीडा़ सहन नहीं कर सकता !
इसलिए उसकी उपस्थिति में आप कमल पंखुड़ियों सी कोमल बन जाना ...!!"
अर्थात रिश्ते अंदरूनी एहसास, आत्मीय अनुभूति के दम पर ही टिकते हैं। जहाँ गहरी स्वानुभूति नहीँ, वो रिश्ता नहीँ बल्कि उसे एक
व्यावसायिक संबंध का नामकरण दिया जा सकता है।
इसीलिए कहा गया है कि रिश्ते खून से नहीं, परिवार से नहीँ, समाज से नहीँ, मित्रता से नहीं, व्यवहार से नहीं बनते, बल्कि सिर्फ और सिर्फ "एहसास " से ही बनते और निर्वहन किए जाते हेँ।।
जहाँ एहसास ही नहीं, आत्मीयता ही नहीं ..वहाँ अपनापन कहाँ से आएगा।
धर्म से जुडी खबरों के लिए देखे :-http://10taknews.com/haridarshan

Wednesday, January 21, 2015

AYODHYA AND SRI RAM TEMPLE AND FUTURE AWAITS

AYODHYA :
Through the centuries of brutal Islamic rule over India, tens of thousands of Hindu temples were destroyed and mosques built at their sites. In northern India, which was under Islamic rule for a longer period of time, hardly any temple has survived the Islamic period. Among the temples destroyed were the 3 greatest temples of Sanatana Dharma - those dedicated to Shri Ram, Shri Krishna, and Shankar (lord Shiva), at Ayodhya, Mathura, and Benaras (Varanasi), respectively.
Muslims kept fairly accurate accounts of their temple demolitions, since they considered them acts of great poius activity -which should give them the right to go to heaven (what absurd idea for killing innocent people). By destroying the temples of the "kafirs" (unbelievers of islam), they were doing Allah's bidding, and imitating Muhammad, who himself had destroyed all the idols in the Kaaba and made it into a mosque. Muslim rulers throughout history have repeated this act. The West knows of the conversion of the St. Sophia in Constantinople into a mosque. But indian history has thousands of such tragic instances.
Given below are some of the accounts left by muslim historians of the destruction of the Ram Janmabhumi temple in Ayodhya - one of the greatest temples of Sanatana Dharma. We will never know its splendour, but judging by the temples of South India that did survive Islamic rule, it must have been a stupendous feat of architecture.
The muslim writers unanimously describe the following:
1. The temple complex comprised of the Janmasthan of Shri Ram at Kot Ram Chander, the private apartments (mahal sarai) of King Dasaratha and Sri Rama, and a temple and a kitchen popularly known as Sita Ki Rasoi, where tradition held that Sita (wife of Shri Ram) lived.
2. All three were demolished and a mosque constructed thereupon in 1528 A.D. under orders of Babur's commander Mir Baqi, and the religious guidance of a Muslim cleric named Sayed Musa Ashikan.
The earliest of such authors is none other than the granddaughter of the Mughal (Mogul) emperor Aurangzeb. Many of these Muslim writers were residents of Ayodhya (Awadh) and some were eye-witness to or participants in the Hindu-Muslim clashes that resulted from the numerous (77 recorded) attempts by Hindus to regain control of their holy site. Muslim records state that over 100,000 Hindus, over the centuries, perished in attempts to regain the temple.
Let us now see what the Muslim writers have said:
1) Abul Fazl (late sixteeth century)
Abul Fazl, the author of Akbar Nama and Ain-i-Akbari is an eminent writer of the Moghul age who describes Ayodhya as the residential place (banga) of Sri Ram Chandra who during the Treta age was the embodiment of both the spiritual sovereign supremacy as well as the mundane kingly office. Abul Fazl also testifies that Awadh (Ayodhya) was esteemed as one of the holiest places of antiquity. He reports that Ram-Navami festival, marking the birthday of Rama continues to be celebrated in a big way.
2) Safiha-i Chahal Nasaih Bahadur Shahi, written by the daughter of Bahadur Shah Alamgir during the early 18th century.
Out of the above Chahal Nasaih ("Forty Advices"), twenty-five instructions were copied and incorporated in the manuscript entitled Nasihat-i Bist-o-Panjam Az Chahal Nisaih Bahadur Shahi in 1816 AD, which is the oldest known account of the destruction of Ram Janmabhoomi for construction of the Babri Mosque, and its author is none other than Aurangzeb's grand daughter.
Mirza Jan, the author of Hadiqa-i-Shahda, 1856, Lucknow, has reproduced the above text in Persian on pp.4-7 of his book. The text runs as follows:
"... the mosques built on the basis of the king's orders (ba farman-i Badshahi) have not been exempted from the offering of the namaz and the reading of the Khutba [therein]. The places of worship of the Hindus situated at Mathura, Banaras and Awadh, etc., in which the Hindus (kufar) have great faith - the place of the birthplace of Kanhaiya, the place of Rasoi Sita, the place of Hanuman, who, according to the Hindus, was seated by Ram Chandra over there after the conquest of Lanka - were all demolished for the strength of Islam, and at all these places mosques have been constructed. These mosques have not been exempted from juma and jamiat (Friday prayers). Rather it is obligatory that no idol worship should be performed over there and the sound of the conch shell should not reach the ear of the Muslims ..."
3) Hadiqa-i-Shahada by Mirza Jan (1856), pages 4-7.
The author was an eye-witness and an active participant in the jihad led by Amir Ali Amethawi during Wazid Ali Shah's rule in 1855 for recapture of Hanumangarhi from the Hindus. His book was ready just after the failure of the jihad due to stout Hindu resistance, and was published the following year (1856) in Lucknow. In Chapter IX of his book, entitled Wazid Ali Shah Aur Unka Ahd ("Wazid Ali Ahah and His Regime"), we find his account of construction of the Babri mosque.
Mirza Jan who claims to have gone through various old sources says in his own account as follows:
"The past Sultans encouraged the propagation and glorification of Islam and crushed the forces of the unbelievers (kufar), the Hindus. Similarly, Faizabad and Awadh(Ayodhya) were also purged of this mean practice [of kufr]. This [Awadh] was a great worshipping centre and the capital of [the kingdom of] Rama's father. Where there was a large temple, a big mosque was constructed and where there was a small mandaf, there a small kanati masjid was constructed. The temple of Janmasthan was the original birthplace (masqat) of Ram, adjacent to which is Sita Ki Rasoi, Sita being the name of his wife. Hence at that site, a lofty (sarbaland) mosque has been built by Babar Badshah under the guidance of Musa Ashikan... That mosque is till date popularly known as Sita Ki Rasoi..."
4) Fasana-i Ibrat by the Urdu novelist Mirza Rajab Ali Beg Surur.
Dr. Zaki Kakorawi has appended an excerpt from this book by Surur (1787-1867) in his work. The excerpt reads as follows :
"During the reign of Babar Badshah, a magnificent mosque was constructed in Awadh at a place which is associated with Sita ki Rasoi. This was the Babari mosque. As during this period the Hindus could not dare to offer any resistance, the mosque was constructed under the benign guidance of Saiyed Mir Ashikan. Its date of construction could be reckoned from [the words] Khair-Baqi. And in the Ram Darbar, a mosque was constructed by Fidai Khan, the subedar."
5) Zia-i Akhtar by Haji Muhammed Hasan (Lucknow 1878), p.38-39.
The author states :
"The mosque which had been built by Saiyid Musa Ashikan in 923 AH in compliance with the order of Zahiruddin Badshah, Delhi, after demolishing the private apartments (mahal sarai) of Raja Ram Chander and the kitchen of Sita, as well as the second mosque built by Muiuddin Aurangzeb, Alamgir Badshah, [in fact] both these mosques have developed cracks at various places because of the ageing character. Both these mosques have been gradually mitigated by the Bairagis and this very fact accounts for the riot. The Hindus have great hatred for the Muslims..."
6) Gumgashte Halat-i Ajudhya Awadh ("Forgotten Events of Ayodhya"), i.e. Tarikh-i Parnia Madina Alwaliya (in Persian) (Lucknow 1885), by Maulvi Abdul Karim.
The author, who was then the imam of the Babri Masjid, while giving a description of the dargah of Hazrat Shah Jamal Gojjri states :
"To the east of this dargah is mahalla Akbarpur, whose second name is also Kot Raja Ram Chander Ji. In this Kot, there were few burjs [towery big halls]. Towards the side of the western burj, there was the house of birthplace (makan-i paidaish) and the kitchen (bawarchi khana) of the above-mentioned Raja. And now, this premises is known as Janmasthan and Rasoi Sita Ji. After the demolition and mitigation of these houses [viz. Janmasthan and Rasoi Sita Ji], Babar Badshah got a magnificent mosque constructed thereon."
7) Tarikh-i Awadh("History of Ayodhya") by Alama Muhammad Najamulghani Khan Rampuri (1909).
Dr. Zaki Kakorawi has brought out an abridged edition of this book. An excerpt from vol.II (pp.570-575) of this edition runs as follows :
"Babar built a magnificent mosque at the spot where the temple of Janmasthan of Ramchandra was situated in Ayodhya, under the patronage of Saiyid Ashikan, and Sita ki Rasoi is situated adjacent to it. The date of construction of the mosque is Khair Baqi (923 AH). Till date, it is known as Sita ki Rasoi. By its side stands that temple. It is said that at the time of the conquest of Islam there were still three temples, viz. Janmasthan, which was the birthplace of Ram Chanderji, Swargadwar alias Ram Darbar, and the Treta ka Thakur. Babar built the mosque after having demolished Janmasthan."
8) Hindustan Islami Ahad Mein ("India is under Islamic rule") by Maulana Hakim Sayid Abdul Hai.
The book contained a chapter on "The Mosques of Hindusthan" (Hindustan ki Masjidein), giving at least six instances of the construction of the mosques on the very sites of the Hindu temples demolished by the Indian Muslim rulers during the 12th-17th centuries. As regards Babri Masjid, he writes :
"This mosque was constructed by Babar at Ajodhya which the Hindus call the birthplace of Ram Chanderji. There is a famous story about his wife Sita. It is said that Sita had a temple here in which she lived and cooked for her husband. On that very site Babar constructed this mosque..."
It is this Babri mosque, built as a symbol of the subjugation and humiliation of Hindus at a spot they venerated so highly, that was damaged by a crowd of Hindus in 1992 at the height of the nationalist movement to rebuild a temple for Shri Ram at the site which had been venerated as his birthplace by Hindus for millenia.
Islam deliberately destroyed and desecrated what was most sacred to Hindus, and replaced it with a symbol of Islamic victory. The same reason Sultan Mehmet converted the Hagia Sophia into a mosque. The Hindus and the West have been fighting the same foe for centuries.
I end with the lament of Will Durant, from his Story of Civilization
SOURCE- Rayvi kumar

Friday, December 5, 2014

MOTHER SITA'S BIRTHPLACE V/S SR RAM'S BIRTHPLACE

How Nepal treats Maa Sita's birthplace
& how India has treated Sri Ram's birthplace....
#ShauryaDiwas #06December
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How Nepal treats Maa Sita's birthplace
& how India has treated Sri Ram's birthplace.

Sharing this so we remember where secularism and appeasement have taken the majority community of India.
Let's resolve to restore our pride, or dignity and honour - with the government or without it.

People often say there are so many temples in India what's the need of this temple. 
To them it suffices to say that this is a symbol of our honour. It's a place of utmost faith, reverence and purity. Please do not play your politics with this place or you will be very sorry, the day the patience of people runs out.
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In Pic: 
[1] Janaki Mandir, Janakpurdham, Nepal
[2] Ram Mandir, Ayodhya, India Sharing this so we remember where secularism and appeasement have taken the majority community of India.
Let's resolve to restore our pride, or dignity and honour - with the government or without it.
People often say there are so many temples in India what's the need of this temple.
To them it suffices to say that this is a symbol of our honour. It's a place of utmost faith, reverence and purity. Please do not play your politics with this place or you will be very sorry, the day the patience of people runs out.
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In Pic:
[1] Janaki Mandir, Janakpurdham, Nepal
[2] Ram Mandir, Ayodhya, India
 

Thursday, December 4, 2014

GAHLOT,SISODIYA,GOHIL -ANCESTOR IS SURYAVANSH- LAV OF SRI RAM JI

Photo: गेहलोत / गोहिल / सिसोदिया क्षत्रिय भगवान राम के कनिष्ठ पुत्र लव के वंशज हैं। सूर्यवंश के आदि पुरुष की 65 वीं पीढ़ी में भगवान राम हुए 195 वीं पीढ़ी में वृहदंतक हुये। 125 वीं पीढ़ी में सुमित्र हुये। 155 वीं पीढ़ी अर्थात सुमित्र की 30 वीं पीढ़ी में गुहिल हुए जो गहलोत वंश की संस्थापक पुरुष कहलाये। गुहिल से कुछ पीढ़ी पहले कनकसेन हुए जिन्होंने सौराष्ट्र में सूर्यवंश के राज्य की स्थापना की। गुहिल का समय 540 ई. था।

गुह्यदत्त के वंश में बाप्पा रावल हुए बप्पा रावल ने सन 734 ई० में मान मोरी(मौर्य)  से चित्तौड
की सत्ता छीन  कर मेवाड में गहलौत वंश के शासक का सूत्रधार बनने का गौरव प्राप्त किया। इनका काल सन 734  ई० से 753 ई० तक था।  

1. रावल बप्पा ( काल भोज ) - 734 ई० मेवाड राज्य के गहलौत शासन के सूत्रधार।
2. रावल खुमान - 753 ई०
3. मत्तट - 773 - 793 ई०
4. भर्तभट्त - 793 - 813 ई०
5. रावल सिंह - 813 - 828 ई०
6. खुमाण सिंह - 828 - 853 ई०
7. महायक - 853 - 878 ई०
8. खुमाण तृतीय - 878 - 903 ई०
9. भर्तभट्ट द्वितीय - 903 - 951 ई०
10. अल्लट - 951 - 971 ई०
11. नरवाहन - 971 - 973 ई०

12. शालिवाहन - 973 - 977 ई० (शालिवाहन जी के पुत्रो का खैरगढ़ पर राज था और उनकी  23 वी पीढ़ी में सेजकजी हुए जो  खैरगढ़ से गुजरात गए वहा उनके वन्सज गोहिल कहलाये और भावनगर ,पालिताना आदि राज्य कायम किये)

13. शक्ति कुमार - 977 - 993 ई०
14. अम्बा प्रसाद - 993 - 1007 ई०
15. शुची वरमा - 1007- 1021 ई०
16. नर वर्मा - 1021 - 1035 ई०
17. कीर्ति वर्मा - 1035 - 1051 ई०
18. योगराज - 1051 - 1068 ई०
19. वैरठ - 1068 - 1088 ई०
20. हंस पाल - 1088 - 1103 ई०
21. वैरी सिंह - 1103 - 1107 ई०
22. विजय सिंह - 1107 - 1127 ई०
23. अरि सिंह - 1127 - 1138 ई०
24. चौड सिंह - 1138 - 1148 ई०
25. विक्रम सिंह - 1148 - 1158 ई०

26. रण सिंह ( कर्ण सिंह ) - 1158 - 1168 ई० (वागड़ क्षेत्र में डूंगरपुर बांसवाड़ा राज्य कायम किया गहलोत वंश कहलाये) 

27. क्षेम सिंह - 1168 - 1172 ई०
28. सामंत सिंह - 1172 - 1179 ई०
29. कुमार सिंह - 1179 - 1191 ई०
30. मंथन सिंह - 1191 - 1211 ई०
31. पद्म सिंह - 1211 - 1213 ई०
32. जैत्र सिंह - 1213 - 1261 ई०
33. तेज सिंह -1261 - 1273 ई०

34. समर सिंह - 1273 - 1301 ई० (एक पुत्र कुम्भकरण नेपाल चले गए नेपाल के राणा राज वंश के शासक कुम्भकरण के ही वंशज हैं) 

35.रतन सिंह ( 1301-1303 ई० ) - इनके कार्यकाल में अलाउद्दीन खिलजी ने चित्तौडगढ पर अधिकार कर लिया। प्रथम जौहर पदमिनी रानी ने सैकडों महिलाओं के साथ किया। गोरा - बादल का प्रतिरोध और युद्ध भी प्रसिद्ध रहा।

36. महाराणा हमीर सिंह ( 1326 - 1364 ई० ) - हमीर ने अपनी शौर्य, पराक्रम एवं कूटनीति से मेवाड राज्य को तुगलक से छीन कर उसकी खोई प्रतिष्ठा पुनः स्थापित की और अपना नाम अमर किया महाराणा की उपाधि धारं किया। इसी समय से ही मेवाड नरेश महाराणा उपाधि धारण करते आ रहे हैं। इनके वंसज सिसोदिया कहलाये (इनके छोटे पुत्र सज्जन सिंह सत्तार दक्षिण (महाराष्ट्र) में चले गए जो  भोंसले वंश से प्रशिद हुए ) और (बड़े पुत्र के वंसज सिसोदिया नाम से 

तो इसी तरह बाप्पा रावल (कालभोज) के वंशजो के गुजरात महाराष्ट्र नेपाल मेवाड़ गुजरात में अपने राज्य कायम किये 

1) बाप्पा रावल के 12 वे पुत्र  शालिवाहन जी के पुत्रो का खैरगढ़ पर राज था और उनकी  23 वी पीढ़ी में सेजकजी हुए जो  खैरगढ़ से गुजरात गए वहा उनके वन्सज गोहिल कहलाये और भावनगर ,पालिताना आदि राज्य कायम किये ) 

2) बाप्पा रावल के 26 वे पुत्र कर्ण  सिंह से वागड़ क्षेत्र में डूंगरपुर बांसवाड़ा राज्य बने जो  गहलोत वंश कहलाये
 
 3)  बाप्पा रावल के 34 वे पुत्र समर सिंह के एक पुत्र कुम्भकरण नेपाल चले वह नेपाल में अपना राज्य कायम किया वहां वे  राणा वंश से विख्यात हुए 

4) बाप्पा रावल के 36 वे पुत्र हमीर सिंह के बड़े पुत्र के नाम से सिसोदिया शाखा चली जिनका राज्य विश्व प्रशिद्ध मेवाड़ रहा 

5) बाप्पा रावल के 36 वे पुत्र हमीर सिंह के छोटे  पुत्र सज्जन सिंह जो दखन (महाराष्ट्र) चले गए उनके नाम से वह भोसले वंश चला सज्जन सिंह जी के चौथे पुत्र भोसजी के नाम से भोसले वंश चला जिनके कोल्हापुर ,मुधोल,सावंतवाड़ी,सातारा आदि राज्य थे (इसको लेकर अन्य जातिया विवादित रहती है पर महाराष्ट्र के भोंसले ,घोरपडे राजवंश खुद अपने को सिसोदिया मानते है और पूर्वज सज्जन सिंह को छत्रपति शिवजी के राजतिलक के समय राजतिलक करने वाले वाराणसी के पंडित गंगा भट्ट ये बात प्रमाणित कर चुके है)
गेहलोत / गोहिल / सिसोदिया क्षत्रिय भगवान राम के कनिष्ठ पुत्र लव के वंशज हैं। सूर्यवंश के आदि पुरुष की 65 वीं पीढ़ी में भगवान राम हुए 195 वीं पीढ़ी में वृहदंतक हुये। 125 वीं पीढ़ी में सुमित्र हुये। 155 वीं पीढ़ी अर्थात सुमित्र की 30 वीं पीढ़ी में गुहिल हुए जो गहलोत वंश की संस्थापक पुरुष कहलाये। गुहिल से कुछ पीढ़ी पहले कनकसेन हुए जिन्होंने सौराष्ट्र में सूर्यवंश के राज्य की स्थापना की। गुहिल का समय 540 ई. था।

गुह्यदत्त के वंश में बाप्पा रावल हुए बप्पा रावल ने सन 734 ई० में मान मोरी(मौर्य) से चित्तौड
की सत्ता छीन कर मेवाड में गहलौत वंश के शासक का सूत्रधार बनने का गौरव प्राप्त किया। इनका काल सन 734 ई० से 753 ई० तक था।

1. रावल बप्पा ( काल भोज ) - 734 ई
० मेवाड राज्य के गहलौत शासन के सूत्रधार।
2. रावल खुमान - 753 ई०
3. मत्तट - 773 - 793 ई०
4. भर्तभट्त - 793 - 813 ई०
5. रावल सिंह - 813 - 828 ई०
6. खुमाण सिंह - 828 - 853 ई०
7. महायक - 853 - 878 ई०
8. खुमाण तृतीय - 878 - 903 ई०
9. भर्तभट्ट द्वितीय - 903 - 951 ई०
10. अल्लट - 951 - 971 ई०
11. नरवाहन - 971 - 973 ई०

12. शालिवाहन - 973 - 977 ई० (शालिवाहन जी के पुत्रो का खैरगढ़ पर राज था और उनकी 23 वी पीढ़ी में सेजकजी हुए जो खैरगढ़ से गुजरात गए वहा उनके वन्सज गोहिल कहलाये और भावनगर ,पालिताना आदि राज्य कायम किये)

13. शक्ति कुमार - 977 - 993 ई०
14. अम्बा प्रसाद - 993 - 1007 ई०
15. शुची वरमा - 1007- 1021 ई०
16. नर वर्मा - 1021 - 1035 ई०
17. कीर्ति वर्मा - 1035 - 1051 ई०
18. योगराज - 1051 - 1068 ई०
19. वैरठ - 1068 - 1088 ई०
20. हंस पाल - 1088 - 1103 ई०
21. वैरी सिंह - 1103 - 1107 ई०
22. विजय सिंह - 1107 - 1127 ई०
23. अरि सिंह - 1127 - 1138 ई०
24. चौड सिंह - 1138 - 1148 ई०
25. विक्रम सिंह - 1148 - 1158 ई०

26. रण सिंह ( कर्ण सिंह ) - 1158 - 1168 ई० (वागड़ क्षेत्र में डूंगरपुर बांसवाड़ा राज्य कायम किया गहलोत वंश कहलाये)

27. क्षेम सिंह - 1168 - 1172 ई०
28. सामंत सिंह - 1172 - 1179 ई०
29. कुमार सिंह - 1179 - 1191 ई०
30. मंथन सिंह - 1191 - 1211 ई०
31. पद्म सिंह - 1211 - 1213 ई०
32. जैत्र सिंह - 1213 - 1261 ई०
33. तेज सिंह -1261 - 1273 ई०

34. समर सिंह - 1273 - 1301 ई० (एक पुत्र कुम्भकरण नेपाल चले गए नेपाल के राणा राज वंश के शासक कुम्भकरण के ही वंशज हैं)

35.रतन सिंह ( 1301-1303 ई० ) - इनके कार्यकाल में अलाउद्दीन खिलजी ने चित्तौडगढ पर अधिकार कर लिया। प्रथम जौहर पदमिनी रानी ने सैकडों महिलाओं के साथ किया। गोरा - बादल का प्रतिरोध और युद्ध भी प्रसिद्ध रहा।

36. महाराणा हमीर सिंह ( 1326 - 1364 ई० ) - हमीर ने अपनी शौर्य, पराक्रम एवं कूटनीति से मेवाड राज्य को तुगलक से छीन कर उसकी खोई प्रतिष्ठा पुनः स्थापित की और अपना नाम अमर किया महाराणा की उपाधि धारं किया। इसी समय से ही मेवाड नरेश महाराणा उपाधि धारण करते आ रहे हैं। इनके वंसज सिसोदिया कहलाये (इनके छोटे पुत्र सज्जन सिंह सत्तार दक्षिण (महाराष्ट्र) में चले गए जो भोंसले वंश से प्रशिद हुए ) और (बड़े पुत्र के वंसज सिसोदिया नाम से

तो इसी तरह बाप्पा रावल (कालभोज) के वंशजो के गुजरात महाराष्ट्र नेपाल मेवाड़ गुजरात में अपने राज्य कायम किये

1) बाप्पा रावल के 12 वे पुत्र शालिवाहन जी के पुत्रो का खैरगढ़ पर राज था और उनकी 23 वी पीढ़ी में सेजकजी हुए जो खैरगढ़ से गुजरात गए वहा उनके वन्सज गोहिल कहलाये और भावनगर ,पालिताना आदि राज्य कायम किये )

2) बाप्पा रावल के 26 वे पुत्र कर्ण सिंह से वागड़ क्षेत्र में डूंगरपुर बांसवाड़ा राज्य बने जो गहलोत वंश कहलाये

3) बाप्पा रावल के 34 वे पुत्र समर सिंह के एक पुत्र कुम्भकरण नेपाल चले वह नेपाल में अपना राज्य कायम किया वहां वे राणा वंश से विख्यात हुए

4) बाप्पा रावल के 36 वे पुत्र हमीर सिंह के बड़े पुत्र के नाम से सिसोदिया शाखा चली जिनका राज्य विश्व प्रशिद्ध मेवाड़ रहा

5) बाप्पा रावल के 36 वे पुत्र हमीर सिंह के छोटे पुत्र सज्जन सिंह जो दखन (महाराष्ट्र) चले गए उनके नाम से वह भोसले वंश चला सज्जन सिंह जी के चौथे पुत्र भोसजी के नाम से भोसले वंश चला जिनके कोल्हापुर ,मुधोल,सावंतवाड़ी,सातारा आदि राज्य थे (इसको लेकर अन्य जातिया विवादित रहती है पर महाराष्ट्र के भोंसले ,घोरपडे राजवंश खुद अपने को सिसोदिया मानते है और पूर्वज सज्जन सिंह को छत्रपति शिवजी के राजतिलक के समय राजतिलक करने वाले वाराणसी के पंडित गंगा भट्ट ये बात प्रमाणित कर चुके है)

Monday, August 11, 2014

Comparison od Nepal's birthplace of Sita and India birthplace of Ram

How Nepal treats Maa Sita's birthplace
& how India has treated Sri Ram's birthplace
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Sharing this so we remember where secularism and appeasement have taken the majority community of India.
Let's resolve to restore our pride, or dignity and honour - with the government or without it.

People often say there are so many temples in India what's the need of this temple. 
To them it suffices to say that this is a symbol of our honour. It's a place of utmost faith, reverence and purity. Please do not play your politics with this place or you will be very sorry,  the day the patience of people runs out.
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In Pic: 
[1] Janaki Mandir, Janakpurdham, Nepal
[2] Ram Mandir, Ayodhya, India.How Nepal treats Maa Sita's birthplace
& how India has treated Sri Ram's birthplace
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Sharing this so we remember where secularism and appeasement have taken the majority community of India.
Let's resolve to restore our pride, or dignity and honour - with the government or without it.
...
People often say there are so many temples in India what's the need of this temple.
To them it suffices to say that this is a symbol of our honour. It's a place of utmost faith, reverence and purity. Please do not play your politics with this place or you will be very sorry, the day the patience of people runs out.
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In Pic:
[1] Janaki Mandir, Janakpurdham, Nepal
[2] Ram Mandir, Ayodhya, India.