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Tuesday, February 21, 2017

विश्वव्यापी श्रीराम कथा

विश्वव्यापी श्रीराम कथा- By मनीषा सिंह
श्रीराम कथाकी व्यापकता को देखकर पाश्चात्य विद्वानोंने रामायण को ई पू ३०० से १०० ई पू की रचना कहकर काल्पनिक घोषित करने का षड्यंत्र रचा , रामायण को बुद्धकी प्रतिक्रिया में उत्पन्न भक्ति महाकाव्य ही माना इतिहास नहीं ।
तथाकथित भारतीय विद्वान् तो पाश्चात्योंसे भी आगे निकले
पाश्चात्योंके इन अनुयायियोंने तो रामायण को मात्र २००० वर्ष (ई की पहली शतीकी रचना ) प्राचीन माना है ।
इतिहासकारोंने श्रीरामसे जुड़े साक्ष्योंकी अनदेखी नहीं की अपितु साक्ष्योंको छिपाने का पूरा प्रयत्न किया है , जो कि एक अक्षम्य अपराध है । भारतमें जहाँ किष्किन्धामें ६४८५ (४४०१ ई पू का ) पुराना गदा प्राप्त हुआ था वहीं गान्धार में ६००० (४००० ई पू ) वर्ष पुरानी सूर्य छापकी स्वर्ण रजत मुद्राएँ । हरयाणा के भिवानी में भी स्वर्ण मुद्राएँ प्राप्त हुईं जिनपर एक तरफ सूर्य और दूसरी तरफ श्रीराम-सीता-लक्ष्मण बने हुए थे । अयोध्यामें ६००० वर्ष पुरानी (४००० ई पू की ) तीन चमकीली धातु के वर्तन प्राप्त हुए ,दो थाली एक कटोरी जिनपर सूर्यकी छाप थी । ७००० वर्ष पुराने (५००० ई पू से पहले के) ताम्बे के धनुष बाण प्राप्त हुए थे । श्रीलंका में अशोक वाटिका से १२ किलोमीटर दूर दमबुल्ला सिगिरिया पर्वत शिखर पर ३५० मीटर की ऊंचाई पर ५ गुफाएं हैं जिनपर प्राप्त हजारों वर्ष प्राचीन भित्तिचित्र रामायण की कथासे सम्बंधित हैं ।
उदयवर्ष (जापान ) से यूरोप ,अफ्रीका से अमेरिका सब जगह रामायण और श्रीरामके चिन्ह प्राप्त हुए हैं जिनका विस्तारसे यहाँ वर्णन भी नही किया जा सकता ।

उत्तरी अफ्रीकाका मिश्रदेश भगवान् श्रीरामके नामसे बसाया गया था । जैसे रघुवंशी होने से भगवान् रघुपति कहलाते हैं वैसे ही अजके पौत्र होने से प्राचीन समय में अजपति कहलाते थे ।इसी अजपति से Egypt शब्द बना है जो पहले Eagypt था ।
राजा दशरथ Egypt के प्राचीन राजा थे इसका उल्लेख Ezypt के इतिहास में मिलता है , वहीं सबसे लोकप्रिय राजा रैमशश भगवान् राम का अपभ्रंश है ।
यूरोप का रोम नगर से सभी परिचित है जो यूरोपकी राजधानी रहा था । २१ अप्रैल ७५३ ई पू (२७६९ वर्ष पहले ) रोम नगर की स्थापना हुई थी । विश्व इतिहास के किसी भी प्राचीन नगर की स्थापना की निश्चित तिथि किसी को आजतक ज्ञात नहीं केवल रोम को छोड़कर , जानते हैं इसका कारण ?
इसका कारण रोम को भगवान् श्रीरामके नामसे चैत्र शुक्ल नवमी (श्रीराम जन्म दिवस पर) २१ अप्रैल को स्थापित किया गया था इसीलिए इस महानगर की तिथि आजतक ज्ञात है सभी को । यही नहीं इस नगर के ठीक विपरीत दिशा में रावण का नगर Ravenna भी स्थापित किया गया था जो आज भी विद्यमान है ।
रावण सीताजी को डरा धमका रहा है साथ में विभीषण जी हैं
यूरोप के प्राचीन विद्वान् एड्वर्ड पोकाँक लिखते हैं -
"Behold the memory of......... Ravan still preserved in the city of Ravenna, and see on the western coast ,its great Rival Rama or Roma "
पोकाँक रचित भूगोल के पृष्ठ १७२ से
इटली से प्राप्त प्राचीन रामायण के चित्र अनेक भ्रांतियों को ध्वस्त कर देते हैं ये चित्र ७०० ई पू (२७०० वर्ष पहले ) के हैं जिनमें रामायण कथा के सभी चित्र तो हैं ही उत्तर काण्ड के लवकुश चरित्र के भी चित्र हैं यहीं नहीं लवकुश के द्वारा श्रीराम के अश्वमेध यज्ञ के घोड़े का पकड़ने की लीला के चित्र भी अंकित हैं वाल्मीकिकृत रामायण के न होकर पद्मपुराणकी लीला के हैं जो ये सिद्ध करते हैं न रामायण २००० पहले रची गयी न उत्तर काण्ड प्रक्षिप्त है और न ही पद्मपुराण ११ वी सदी की रचना ये साक्ष्य सिद्ध कर रहे हैं उत्तर काण्ड सहित रामायण और पद्मपुराण २७०० वर्ष पहले भी इसी रूप में विद्यमान इसकी रचना तो व्यासजी और वाल्मीकिके समय की है है ।
यही नहीं प्राचीन रोम के सन्त और राजा भारतीय परिधान ,कण्ठी और उर्ध्वपुण्ड्र तिलक भी लगाया करते थे जो उनके वैष्णव होने के प्रमाण हैं । बाइबल में भी जिन सन्त का चित्र अंकित था वो भी धोती ,कण्ठी धारण किये और उर्ध्वपुण्ड्र लगाये हुए थे । अब इन पाश्चात्यों और तदानुयायी भारतीय विद्वानोंने किस आधार पर रामायण को बुद्ध की प्रतिक्रया स्वरूप मात्र २००० वर्ष पुरानी रचना कहा है ??? जबकि सहस्रों वर्ष प्राचीन प्रमाण विद्यमान हैं ।
२७०० वर्ष प्राचीन इटली से प्राप्त रामायण के चित्र ।
बाली द्वारा सुग्रीब् की पत्नी का हरण

वन जाते हुए भगवान् श्रीसीता-राम-लक्ष्मणजी
भगवान् श्रीराम का जन्म वैवस्वत मन्वन्तर के २४वे त्रेतायुग के उत्तरार्द्ध में १८१६०१६० वर्ष पूर्व चैत्र शुक्ल नवमी ,कर्क लग्न पुनर्वसु नक्षत्र में हुआ था । श्रीराम ब्रह्मर्षि विश्वामित्र के साथ यज्ञ रक्षा के लिये १५ वे वर्ष में १८१६०१४६ वर्ष पूर्व में गए थे । श्रीराम जानकी विवाह १६वे वर्षमें मार्घशीर्ष शुक्ल पञ्चमी को १८१६०१४५ वर्ष पूर्व में हुआ था ! विवाह के १२ वर्ष बाद वैशाख शुक्ल पञ्चमी पुष्य नक्षत्र में श्रीरामका २७ वर्ष की आयु में १८१६०१३३ वर्ष पूर्व वनवास हुआ था । माघ शुक्ल अष्टमी को रावण माता सीता का १८१६०१२०वर्ष पूर्व हरण किया और माघ शुक्ल दशमी को अशोक वाटिका में ले गया । ६ मास बाद भगवान् श्रीरामकी सुग्रीवकी मित्रता श्रावण मास के शुक्ल पक्ष के प्रारंभ में १८१६०११९ वर्ष पूर्व हुई थी ! तभी बाली का वध और सुग्रीव का राज्याभिषेक हुआ था । ४ मास बाद मार्घशीर्ष शुक्ल प्रतिपदाको समस्त वानर हनुमान् जी अंगदादि के नेतृत्व में सीता अन्वेषण के लिये प्रस्थान किया । दशवे दिन मार्घशीर्ष शुक्ल दशमीको सम्पाती से संवाद और एकादशी के दिन हनुमान् जी महेंद्र पर्वत से कूदकर १०० योजन समुद्र पारकर लङ्का गये ! उसी रात सीताजीके दर्शन हुए । द्वादशीको शिंशपा में हनुमान् जी स्थित रहे । उसी रात्रि को सीता माता से वार्तालाप हुआ । त्रयोदशी को अक्षकुमार का वध किया । चतुर्दशी को इन्द्रजित के ब्रह्मास्त्र से बन्धन और लङ्का दहन हुआ । मार्घशीर्ष कृष्ण सप्तमीको हनुमान् जी वापस श्रीरामसे मिले । अष्टमी उत्तराफाल्गुनी में अभिजित मुहूर्त में लङ्काके लिये श्रीराम प्रस्थान किये । सातवे दिन मार्घशीर्ष की अमावस्या के दिन समुद्रके किनारे सेनानिवेश हुआ । पौषशुक्ल प्रतिपदा से ४ दिन तक समुद्र के प्रति प्रायोपवेशन , दशमी से त्रयोदशी तक सेतुबन्ध , चतुर्दशी को सुवेलारोहण ,पौष मास की पूर्णिमासे पौष कृष्ण द्वितीया तक सैन्यतारण ,तृतीया से दशमी तक मन्त्रणा , पौष शुक्ल द्वादशी को सारण ने सेना की संख्या की ,फिर सारण ने वानरों के सारासार का वर्णन किया । माघ शुक्ल प्रतिपदा को अंगद दूत बनकर रावण के दरवार में गए । माघ शुक्ल द्वितीया से युद्ध प्रारम्भ हुआ । माघ शुक्ल नवमी युद्धके आठवे दिन श्रीराम-लक्ष्मणका नागपाश बन्धन हुआ । दशमी को गरुड़जी द्वारा बन्धन मुक्ति ,दो दिन युद्ध बन्द रहा । द्वादशीको धूम्राक्ष वध ,त्रयोदशी को अकम्पन का हनुमान् द्वारा वध , माघ शुक्ल चतुर्दशी से ३ दिन में प्रहस्त वध हुआ। माघ कृष्ण द्वितीया से चतुर्थी तक श्रीराम से रावण का युद्ध हुआ । पञ्चमी से अष्टमी तक ४ दिनों में कुम्भकर्ण को जगाया गया । नवमी से चतुर्दशी तक ६ दिनों में कुम्भकर्ण वध हुआ । माघ अमावस्या को युद्ध बन्द रहा । फाल्गुन शुक्ल प्रतिपदा से चतुर्थी तक नारान्तक वध ,पञ्चमी से सप्तमी तक ३ दिन में अतिकाय वध , अष्टमी से द्वादशी तक निकुम्भादि वध , ४ दिनों में फाल्गुन कृष्ण प्रतिपदा को मकराक्ष वध ,फाल्गुन कृष्ण द्वितीया इन्द्रजित विजय ,तृतीया को औषधि अनयन ,तदन्तर ५ दिनों तक युद्ध बन्द रहा ।
फाल्गुन कृष्ण त्रयोदशी से ६ दिन में इंद्रजीत का वध , अमावस्या को रावण की युद्ध यात्रा । चैत्र शुक्ल शुक्ल तृतीया से पाँच दिनों में १८१६०११९ वर्ष पूर्व रावण के प्रधानों का वध किया । चैत्र शुक्ल नवमी को भगवान् श्रीरामके ४२ वे जन्म दिवस पर लक्ष्मण शक्ति हुई । दशमी को युद्ध बन्द रहा एकादशी को मातलि का स्वर्ग से आगमन ,तदन्तर १८ दिनों में रावण तक श्रीराम-रावण में घोर युद्ध । चैत्र कृष्ण चतुर्दशी को रावण वध । इस तरह माघ शुक्ल द्वितीया से चैत्र कृष्ण चतुर्दशी तक ८७ दिन युद्ध चला । बीच में १५ दिन युद्ध बन्द रहा । चैत्र अमावस्या को रावण का संस्कार किया । वैशाख शुक्ल द्वितीय को विभीषण का राज्याभिषेक , तृतीया को माता सीता की अग्नि परीक्षा हुई । चतुर्थी को पुष्पकारोहण । वैशाख शुक्ल पञ्चमी १४ वर्ष वनवास पूर्ण हुए ,भरद्वाज ऋषि के आश्रम पर आगमन । वैशाख शुक्ल सप्तमी को श्रीराम का राज्याभिषेक हुआ । ११००० वर्ष ११ मास और ११ दिन तक राज्य करके भगवान् श्रीराम चैत्र कृष्ण तृतीय को १८१४९११८ वर्ष पूर्व में साकेत धाम के चले गए ।
जय श्री राम

Monday, April 18, 2016

रामायण का वैज्ञानिक विश्लेषण ,Ramayan- scientific analysis




लेखक- कृष्णानुरागी वरुण
||•|| रामायण का वैज्ञानिक विश्लेषण ||•||
रामायण एकांगी दृष्टिकोण का वृतांत भर नहीं है।
इसमें कौटुम्बिक सांसारिकता है। राज-समाज
संचालन के कूट मंत्र हैं। भूगोल है। वनस्पति और जीव जगत
हैं। राष्ट्रीयता है। राष्ट्र के प्रति उत्सर्ग का चरम है।
अस्त्र-शस्त्र हैं। यौद्धिक कौशल के गुण हैं।
भौतिकवाद है। कणांद का परमाणुवाद है।
सांख्यदर्शन और योग के सूत्र हैं। वेदांत दर्शन है और अनेक
वैज्ञानिक उपलब्धियां हैं। गांधी का राम-राज्य
और पं. दीनदयाल उपाध्याय का आध्यात्मिक
भौतिकवाद के उत्स इसी रामायण में हैं।
वास्तव में
रामायण और उसके परवर्ती ग्रंथ कवि या लेखक की
कपोल-कल्पना न होकर तात्कालीन ज्ञान के विश्व
कोश हैं। जर्मन विद्वान मैक्समूलर ने तो ऋग्वेद को कहा
भी था कि यह अपने युग का ‘विश्व कोश' है। मसलन
‘एन-साइक्लोपीडिया आफ वर्ल्ड !
लंकाधीश रावण ने नाना प्रकार की विधाओं के
पल्लवन की दृष्टि से यथोचित धन व सुविधाएं उपलब्ध
कराई थीं। रावण के पास लडाकू वायुयानों और
समुद्री जलपोतों के बड़े भण्डार थे। प्रक्षेपास्त्र और
ब्रह्मास्त्रों का अकूत भण्डार व उनके निर्माण में
लगी अनेक वेधशालाएं थीं। दूरसंचार व दूरदर्शन की
तकनीकी-यंत्र लंका में स्थापित थे। राम-रावण युद्ध
केवल राम और रावण के बीच न होकर एक विश्वयुद्ध
था। जिसमें उस समय की समस्त विश्व-शक्तियों ने
अपने-अपने मित्र देश के लिए लड़ाई लड़ी थी।
परिणामस्वरूप ब्रह्मास्त्रों के विकट प्रयोग से लगभग
समस्त वैज्ञानिक अनुसंधान-शालाएं उनके
आविष्कारक, वैज्ञानिक व अध्येता काल-कवलित
हो गए। यही कारण है कि हम कालांतर में हुए
महाभारत युद्ध में भी वैज्ञानिक चमत्कारों को
रामायण की तुलना में उत्कृष्ट व सक्षम नहीं पाते हैं।
यह भी इतना विकराल विश्व-युद्ध था कि
रामायण काल से शेष बचा जो विज्ञान था, वह
महाभारत युद्ध के विंध्वस की लपेट में आकर नष्ट हो
गया। इसीलिए महाभारत के बाद के जितने भी युद्ध
हैं वे खतरनाक अस्त्र-शस्त्रों से लड़े जाकर थल सेना के
माध्यम से ही लड़े गए दिखाई देते हैं। बीसवीं सदी में
हुए द्वितीय विश्व युद्ध में जरूर हवाई हमले के माध्यम से
अमेरिका ने जापान के हिरोशिमा-नागाशाकी में
परमाणु हमले किए।
बाल्मीकी रामायण एवं नाना रामायणों तथा
अन्य ग्रंथों में ‘पुष्पक विमान' के उपयोग के विवरण हैं।
इससे स्पष्ट होता है, उस युग में राक्षस व देवता न केवल
विमान शास्त्र के ज्ञाता थे, बल्कि सुविधायुक्त
आकाशगामी साधनों के रूप में वाहन उपलब्ध भी थे।
रामायण के अनुसार पुष्पक विमान के निर्माता
ब्रह्मा थे। ब्रह्मा ने यह विमान कुबेर को भेंट किया
था। कुबेर से इसे रावण ने छीन लिया। रावण की मृत्यु
के बाद विभीषण इसका अधिपति बना और उसने फिर
से इसे कुबेर को दे दिया। कुबेर ने इसे राम को उपहार में
दे दिया। राम लंका विजय के बाद अयोध्या इसी
विमान से पहुंचे थे।
रामायण में दर्ज उल्लेख के अनुसार पुष्पक विमान मोर
जैसी आकृति का आकाशचारी विमान था, जो
अग्नि-वायु की समन्वयी ऊर्जा से चलता था।
इसकी गति तीव्र थी और चालक की इच्छानुसार इसे
किसी भी दिशा में गतिशील रखा जा सकता था।
इसे छोटा-बड़ा भी किया जा सकता था। यह
सभी ऋतुओं में आरामदायक यानी वतानुकूलित था।
इसमें स्वर्ण खंभ मणिनिर्मित दरवाजे, मणि-स्वर्णमय
सीढियां, वेदियां (आसन) गुप्त गृह, अट्टालिकाएं
(केबिन) तथा नीलम से निर्मित सिंहासन
(कुर्सियां) थे। अनेक प्रकार के चित्र एवं जालियों से
यह सुसज्जित था। यह दिन और रात दोनों समय
गतिमान रहने में समर्थ था। इस विवरण से जाहिर
होता है, यह उन्नत प्रौद्योगिकी और वास्तु कला
का अनूठा नमूना था।
‘ऋग्वेद' में भी चार तरह के विमानों का उल्लेख है।
जिन्हें आर्य-अनार्य उपयोग में लाते थे। इन चार
वायुयानों को शकुन, त्रिपुर, सुन्दर और रूक्म नामों से
जाना जाता था। ये अश्वहीन, चालक रहित ,
तीव्रगामी और धूल के बादल उड़ाते हुए आकाश में उड़ते
थे। इनकी गति पतंग (पक्षी) की भांति, क्षमता तीन
दिन-रात लगातार उड़ते रहने की और आकृति नौका
जैसी थी। त्रिपुर विमान तो तीन खण्डों (तल्लों)
वाला था तथा जल, थल एवं नभ तीनों में विचरण कर
सकता था। रामायण में ही वर्णित हनुमान की
आकाश-यात्राएं, महाभारत में देवराज इन्द्र का
दिव्य-रथ, कार्त्तवीर्य अर्जुन का स्वर्ण विमान एवं
सोम-विमान, पुराणों में वर्णित नारदादि की
आकाश यात्राएं एवं विभिन्न देवी-देवताओं के
आकाशगामी वाहन रामायण-महाभारत काल में
वायुयान और हैलीकॉप्टर जैसे यांत्रिक साधनों की
उपलब्धि के प्रमाण हैं।
किंवदंती तो यह भी है कि गौतम बुद्ध ने भी
वायुयान द्वारा तीन बार लंका की यात्रा की
थी। एरिक फॉन डॉनिकेन की किताब ‘चैरियट्स
ऑफ गॉड्स' में तो भारत समेत कई प्राचीन देशों से
प्रमाण एकत्रित करके वायुयानों की तत्कालीन
उपस्थिति की पुष्टि की गई है। इसी प्रकार डॉ.
ओंकारनाथ श्रीवास्तव ने अनेक पाश्चात्य
अनुसंधानों के मतों के आधार पर संभावना जताई है
कि ‘रामायण' में अंकित हनुमान की यात्राएं
वायुयान अथवा हैलीकॉप्टर की यात्राएं थीं या
हनुमान ‘राकेट बेल्ट‘ बांधकर आकाशगमन करते थे,
जैसाकि आज के अंतरिक्ष-यात्री करते हैं।
हनुमान-
मेघनाद में परस्पर हुआ वायु-युद्ध भी हावरक्रफ्ट से
मिलता-जुलता है। आज भी लंका की पहाड़ियों पर
चौरस मैदान पाए जाते हैं, जो शायद उस कालखण्ड के
वैमानिक अड्डे थे। प्राचीन देशों के ग्रंथों में वर्णित
उड़ान-यंत्रों के वर्णन लगभग एक जैसे हैं। कुछ गुफा-
चित्रों में आकाशचारी मानव एवं अंतरिक्ष वेशभूषा से
युक्त व्याक्तियों के चित्र भी निर्मित हैं। मिस्त्र में
तो दुनिया का ऐसा नक्शा मिला है, जिसका
निर्माण आकाश में उड़ान-सुविधा की पुष्टि करता
है।
इन सब साक्ष्यों से प्रमाणित होता है कि पुष्पक
व अन्य विमानों के रामायण में वर्णन कोई कवि-
कल्पना की कोरी उड़ान नहीं हैं।
ताजा वैज्ञानिक अनुसंधानों ने भी तय किया है
कि रामायण काल में वैमानिकी प्रौद्योगिकी
इतनी अधिक विकसित थी, जिसे आज समझ पाना
भी कठिन है। रावण का ससुर मयासुर अथवा मयदानव
ने भगवान विश्वकर्मा (ब्रह्मा) से वैमानिकी
विद्या सीखी और पुष्पक विमान बनाया। जिसे
कुबेर ने हासिल कर लिया।
पुष्पक विमान की
प्रौद्योगिक का विस्तृत व्यौरा महार्षि
भारद्वाज द्वारा लिखित पुस्तक ‘यंत्र-सर्वेश्वम्' में
भी किया गया था। वर्तमान में यह पुस्तक विलुप्त
हो चुकी है, लेकिन इसके 40 अध्यायों में से एक
अध्याय ‘वैमानिक शास्त्र' अभी उपलब्ध है। इसमें भी
शकुन, सुन्दर, त्रिपुर एवं रूक्म विमान सहित 25 तरह के
विमानों का विवरण है। इसी पुस्तक में वर्णित कुछ
शब्द जैसे ‘विश्व क्रिया दर्पण' आज के राड़ार जैसे यंत्र
की कार्यप्रणाली का रूपक है।
नए शोधों से पता चला है कि पुष्पक विमान एक ऐसा
चमत्कारिक यात्री विमान था, जिसमें चाहे जितने
भी यात्री सवार हो जाएं, एक कुर्सी हमेशा रिक्त
रहती थी। यही नहीं यह विमान यात्रियों की
संख्या और वायु के घनत्व के हिसाब से स्वमेव अपना
आकार छोटा या बड़ा कर सकता था। इस तथ्य के
पीछे वैज्ञानिकों का यह तर्क है कि वर्तमान समय में
हम पदार्थ को जड़ मानते हैं, लेकिन हम पदार्थ की
चेतना को जागृत करलें तो उसमें भी संवेदना सृजित हो
सकती है और वह वातावरण व परिस्थितियों के अनुरूप
अपने आपको ढालने में सक्षम हो सकता है। रामायण
काल में विज्ञान ने पदार्थ की इस चेतना को
संभवतः जागृत कर लिया था, इसी कारण पुष्पक
विमान स्व-संवेदना से क्रियाशील होकर आवश्यकता
के अनुसार आकार परिवर्तित कर लेने की विलक्षणता
रखता था। तकनीकी दृष्टि से पुष्पक में इतनी
खूबियां थीं, जो वर्तमान विमानों में नहीं हैं।
ताजा शोधों से पता चला है कि यदि उस युग का
पुष्पक या अन्य विमान आज आकाश गमन कर लें तो
उनके विद्युत चुंबकीय प्रभाव से मौजूदा विद्युत व
संचार जैसी व्यवस्थाएं ध्वस्त हो जाएंगी। पुष्पक
विमान के बारे में यह भी पता चला है कि वह उसी
व्यक्ति से संचालित होता था इसने विमान संचालन
से संबंधित मंत्र सिद्ध किया हो, मसलन जिसके हाथ
में विमान को संचालित करने वाला रिमोट हो।
शोधकर्ता भी इसे कंपन तकनीक (वाइब्रेशन
टेकनोलॉजी) से जोड़ कर देख रहे हैं। पुष्पक की एक
विलक्षणता यह भी थी कि वह केवल एक स्थान से
दूसरे स्थान तक ही उड़ान नहीं भरता था, बल्कि एक
ग्रह से दूसरे ग्रह तक आवागमन में भी सक्षम था। यानी
यह अंतरिक्षयान की क्षमताओं से भी युक्त था।
रामायण एवं अन्य राम-रावण लीला विषयक ग्रंथों
में विमानों की केवल उपस्थिति एवं उनके उपयोग का
विवरण है, इस कारण कथित इतिहासज्ञ इस पूरे युग
को कपोल-कल्पना कहकर नकारने का साहस कर
डालते हैं। लेकिन विमानों के निर्माण, इनके प्रकार
और इनके संचालन का संपूर्ण विवरण महार्षि
भारद्वाज लिखित ‘वैमानिक शास्त्र' में है। यह ग्रंथ
उनके प्रमुख ग्रंथ ‘यंत्र-सर्वेश्वम्' का एक भाग है। इसके
अतिरक्त भारद्वाज ने ‘अंशु-बोधिनी' नामक ग्रंथ भी
लिखा है, जिसमें ‘ब्रह्मांड
विज्ञान' (कॉस्मोलॉजी) का वर्णन है। इसी ज्ञान
से निर्मित व परिचालित होने के कारण विमान
विभिन्न ग्रहों की उड़ान भरते थे। वैमानिक-शास्त्र
में आठ अध्याय, एक सौ अधिकरण (सेक्शंस) पांच सौ
सूत्र (सिद्धांत) और तीन हजार श्लोक हैं। इस ग्रंथ
की भाषा वैदिक संस्कृत है।
वैमानिक-शास्त्र में चार प्रकार के विमानों का
वर्णन है। ये काल के आधार पर विभाजित हैं। इन्हें तीन
श्रेणियों में रखा गया है। इसमें ‘मंत्रिका' श्रेणी में वे
विमान आते हैं जो सतयुग और त्रेतायुग में मंत्र और
सिद्धियों से संचालित व नियंत्रित होते थे। दूसरी
श्रेणी ‘तांत्रिका' है, जिसमें तंत्र शक्ति से उड़ने वाले
विमानों का ब्यौरा है। इसमें तीसरी श्रेणी में
कलयुग में उड़ने वाले विमानों का ब्यौरा भी है, जो
इंजन (यंत्र) की ताकत से उड़ान भरते हैं। यानी
भारद्वाज ऋषि ने भविष्य की उड़ान प्रौद्योगिकी
क्या होगी, इसका अनुमान भी अपनी दूरदृष्टि से
लगा लिया था। इन्हें कृतक विमान कहा गया है। कुल
25 प्रकार के विमानों का इसमें वर्णन है।
तांत्रिक विमानों में ‘भैरव' और ‘नंदक' समेत 56 प्रकार
के विमानों का उल्लेख है। कृतक विमानों में ‘शकुन',
‘सुन्दर' और ‘रूक्म' सहित 25 प्रकार के विमान दर्ज हैं।
‘रूक्म' विमान में लोहे पर सोने का पानी चढ़ा होने
का प्रयोग भी दिखाया गया है। ‘त्रिपुर' विमान
ऐसा है, जो जल, थल और नभ में तैर, दौड़ व उड़ सकता है।
उड़ान भरते हुए विमानों का करतब दिखाये जाने व
युद्ध के समय बचाव के उपाय भी वैमानिकी-शास्त्र में
हैं। बतौर उदाहरण यदि शत्रु ने किसी विमान पर
प्रक्षेपास्त्र अथवा स्यंदन (रॉकेट) छोड़ दिया है तो
उसके प्रहार से बचने के लिए विमान को तियग्गति
(तिरछी गति) देने, कृत्रिम बादलों में छिपाने या
‘तामस यंत्र' से तमः (अंधेरा) अर्थात धुआं छोड़ दो।
यही नहीं विमान को नई जगह पर उतारते समय भूमि
गत सावधानियां बरतने के उपाय व खतरनाक स्थिति
को परखने के यंत्र भी दर्शाए गए हैं। जिससे यदि
भूमिगत सुरंगें हैं तो उनकी जानकारी हासिल की
जा सके। इसके लिए दूरबीन से समानता रखने वाले यंत्र
‘गुहागर्भादर्श' का उल्लेख है। यदि शत्रु विमानों से
चारों ओर से घेर लिया हो तो विमान में ही लगी
‘द्विचक्र कीली' को चला देने का उल्लेख है। ऐसा
करने से विमान 87 डिग्री की अग्नि-शक्ति
निकलेगी। इसी स्थिति में विमान को गोलाकार
घुमाने से शत्रु के सभी विमान नष्ट हो जाएंगे।
इस शास्त्र में दूर से आते हुए विमानों को भी नष्ट करने
के उपाय बताए गए हैं। विमान से 4087 प्रकार की
घातक तरंगें फेंककर शत्रु विमान की तकनीक नष्ट कर
दी जाती है। विमानों से ऐसी कर्कश ध्वनियां
गुंजाने का भी उल्लेख है, जिसके प्रगट होने से सैनिकों
के कान के पर्दे फट जाएंगे। उनका हृदयाघात भी हो
सकता है। इस तकनीक को ‘शब्द सघण यंत्र' कहा गया
है। युद्धक विमानों के संचालन के बारे में संकेत दिए हैं
कि आकाश में दौड़ते हुए विमान के नष्ट होने की
आशंका होने पर सातवीं कीली अर्थात घुंडी
चलाकर विमान के अंगों को छोटा-बड़ा भी किया
जा सकता है। उस समय की यह तकनीक इतनी
महत्वपूर्ण है कि आधुनिक वैमानिक विज्ञान भी
अभी उड़ते हुए विमान को इस तरह से संकुचित अथवा
विस्तारित करने में समर्थ नहीं हैं।
रामायण काल में वैमानिकी प्रौद्योगिकी
विकास के चरम पर थी, यह इन तथ्यों से प्रमाणित
होता है कि वैमानिक शास्त्र में विमान चालक को
किन गुणों में पारंगत होना चाहिए। यह भी उल्लेख
इस शास्त्र में है। इसमें प्रशिक्षित चालक (पायलट)
को 32 गुणों में निपुण होना जरूरी बताया गया है।
इन गुणों में कौशल चालक ही ‘रहस्यग्नोधिकारी'
अथवा ‘व्योमयाधिकारी' कहला सकता है।
चालक
को विमान-चालन के समय कैसी पोशाक पहननी
चाहिए, यह ‘वस्त्राधिकरण' और इस दौरान किस
प्रकार का आहार ग्रहण करना चाहिए, यह
‘आहाराधिकरण' अध्यायों में किए गए उल्लेख से स्पष्ट
है।
राम-रावण युद्ध केवल धनुष-बाण और गदा-भाला जैसे
अस्त्रों तक सीमित नहीं था। मदनमोहन शर्मा
‘‘शाही'' के तीन खण्डों में छपे बृहद उपन्यास ‘लंकेश्वर'
में दिए उल्लेखों से यह साफ हो जाता है कि
रामायण काल में वैज्ञानिक अविष्कार चरमोत्कर्ष
पर था। राम और रावण दोनों के सेनानायकों ने
भयंकर आयुधों का खुलकर प्रयोग भी किया था।
लंकेश्वर उपन्यास को ही प्रमुख आधार बनाकर
‘‘रावण'' धारावाहिक का प्रसारण जीटीवी पर
किया गया था, जिसमें राम और रावण के चरित्र
को सामान्य मनुष्य की तरह विकसित होते
दिखाया गया था।
लंका उस युग में सबसे संपन्न देश था। लंकाधीश रावण ने
नाना प्रकार की विधाओं के पल्लवन के लिए
यथोचित धन व सुविधाएं भी उपलब्ध कराईं थीं।
रावण के पास लड़ाकू वायुयानों और समुद्री
जलपोतों के बेड़े थे। प्रक्षेपास्त्र और ब्रह्मास्त्रों का
अटूट भण्डार व इनके निर्माण में लगी अनेक वेधशालाएं
थीं। दूर संचार यंत्र भी लंका में उपलब्ध थे।
इस अत्यंत रोचक और अद्भुत रहस्यों से भरे उपन्यास
‘लंकेश्वर' को पढ़ने से एकाएक विश्वास नहीं होता
कि राम-रावण युद्ध के दौरान विज्ञान चरमोत्कर्ष
पर था लेकिन लेखक ने पुराण कालीन ग्रंथों और
विभिन्न रामायणों व अनेक विद्धानों की खोजों
का जो फुटनोटों में ब्यौरा दिया है, उससे यह
विश्वास करना ही पड़ता है कि उस युग में विज्ञान
चरमोत्कर्ष पर था। राम-रावण युद्ध दो संस्कृतियों
के अस्तित्व की कायमी के लिए लड़ा गया भीषण
आणविक युद्ध था, जिसमें विश्व की समस्त शक्तियों
ने भागीदारी की थी।
यह सभी रामायणें निर्विवाद रूप से स्वीकारती हैं
कि रावण के पास पुष्पक विमान था और रावण
सीता को इसी विमान में बिठाकर अपहरण कर ले
गया था। ‘लंकेश्वर' में वायुयानों का उस युग में
उपलब्ध होने का विस्तृत ब्यौरा है- गंधमादन पर्वत,
गृध्रों की नगरी थी। यहां के ग्रध्रराज भूमि, समुद्री
व आकाशीय मार्ग पर भी अधिकार रखते थे। यह
नगरी सम्राट संपाती के पुत्र सुपार्श्व की थी।
संपाती राजा दशरथ के सखा थे। संपाती वैज्ञानिक
था। उसने छोटे-बड़े वायुयानों और अंतरिक्ष यात्री
की वेषभूषा का निर्माण किया था। सुपार्श्व ने
ही हनुमान को लघुयान में बिठाकर समुद्र लंघन कराकर
त्रिकुट पर्वत पर विमान उतारा था। त्रिकुट पर्वत
लंका की सीमा परिधि में था। सुपार्श्व के पास
आग्नेयास्त्र भी थे, जिनसे प्रहार कर हनुमान ने
नागमाता सुरसा को परास्त किया था। इस अस्त्र
के प्रयोग से समुद्र में आग लगी और नाग जाति जलकर
नष्ट हो गई। त्रिकुट पर्वत के पहले मैनाक पर्वत था,
जिसमें रत्नों की खानें थीं। रावण इन रत्नों का
विदेश व्यापार करता था। लंका की संपन्नता का
कारण भी यही खानें थीं। सुपार्श्व ने राम-रावण
युद्ध में राम का साथ दिया था।
‘लंकेश्वर' के अनुसार लंका में ऐसे वायुयान भी थे, जो
आकाश में खडे़ हो जाते थे और आलोप हो जाते थे। इनमें
चालक नहीं होता था। ये स्वचालित थे। उस समय
आठ प्रकार के विमान थे जो सौर्य ऊर्जा से
संचालित होते थे। रावण पुत्र मेघनाद की
निकुम्भिला वेधशाला थी। जिसमें प्रतिदिन एक
दिव्य रथ अर्थात एक लड़ाकू विमान का निरंतर
निर्माण होता रहता था। मेघनाद के पास ऐसे
विचित्र विमान भी थे जो आंख से ओझल हो जाते थे
और फिर धुआं छोड़ते थे। जिससे दिन में भी अंधकार
हो जाता था। यह धुआं विषाक्त गैस अथवा अश्रु गैस
होती थी। ये विमान नीचे आकर बम बारी भी करते
थे।
मेघनाद की वेधशाला में ‘शस्त्रयुक्त स्यंदन' (राकेट)
का भी निर्माण होता था। मेघनाद ने युद्ध में जब
इस स्यंदन को छोड़ा तो यह अंतरिक्ष की ओर बहुत
ही तेज गति से बढ़ा। इन्द्र और वरूण स्यंदन शक्ति से
परिचित थे। उन्होंने मतालि को संकेत कर दूसरा
शक्तिशाली स्यंदन छुड़ाया और मेघनाद के स्यंदन को
आकाश में ही नष्ट कर दिया और इसके अवशेष को समुद्र
में गिरा दिया।
लंका में यानों की व्यवस्था प्रहस्त के सुपुर्द थी।
यानों में ईंधन की व्यवस्था प्रहस्त ही देखता था।
लंका में सूरजमुखी पौधे के फूलों से तेल (पेट्रोल)
निकाला जाता था (अमेरिका में वर्तमान में
जेट्रोफा पौधे से पेट्रोल निकाला जाता है।) अब
भारत में भी रतनजोत के पौधे से तेल बनाए जाने की
प्रक्रिया में तेजी आई है। लंकावासी तेल शोधन में
निरंतर लगे रहते थे। लड़ाकू विमानों को नष्ट करने के
लिए रावण के पास भस्मलोचन जैसा वैज्ञानिक था
जिसने एक विशाल ‘दर्पण यंत्र' का निर्माण किया
था। इससे प्रकाशपुंज वायुयान पर छोड़ने से यान
आकाश में ही नष्ट हो जाते थे। लंका से निष्कासित
किये जाते वक्त विभीषण भी अपने साथ कुछ दर्पण
यंत्र ले आया था। इन्हीं ‘दर्पण यंत्रों' में सुधार कर
अग्निवेश ने इन यंत्रो को चौखटों पर कसा और इन
यंत्रों से लंका के यानों की ओर प्रकाश पुंज फेंका
जिससे लंका की यान शक्ति नष्ट होती चली गई।
बाद में रावण ने अग्निवेश की इस शक्ति से निपटने के
लिए सद्धासुर वैज्ञानिक को नियुक्त किया।
श्री शाही का कहना है कि कथित
बुद्धिजीवियो ंऔर पाखण्डी पूजा-पाठियों
द्वारा रामायणकाल की इन अद्भुत शक्तियों को
अलौकिल व ऐन्द्रिक कहकर इनका महत्व ही समाप्त
करने का षड्यंत्र किया जा रहा है। जबकि ये
शक्तियां ज्ञान का वैज्ञानिक बल थीं। जिसमें
मेघनाद ब्रह्म विद्या का विशारद था। उसका
पांडित्य रावण से भी कहीं बढ़कर था। विस्फोटक व
विंध्वसक अस्त्रो का तो इस युद्ध में खुलकर प्रयोग हुआ
जिसमें ब्रह्मास्त्र सबसे खतरनाक था। इन्द्र ने शंकर से
राम के लिए दिव्यास्त्र और पशुपतास्त्र मांगे थे। इन
अस्त्रों को देते हुए शंकर ने अगस्त्य को चेतावनी देते हुए
कहा, ‘अगस्त्य तुम ब्रह्मास्त्र के ज्ञाता हो और
रावण भी। कहीं अणुयुद्ध हुआ तो वर्षों तक प्रदूषण
रहेगा। जहां भी विस्फोट होगा, वह स्थान वर्षों
तक निवास के लायक नहीं रहेगा। इसलिए पहले युद्ध
को मानव कल्याण के लिए टालना ?' लेकिन अपने-
अपने अहं के कारण युद्ध टला नहीं।
ब्रह्माशास्त्र के
प्रस्तुत परिणामों से स्पष्ट हो जाता है कि
ब्रह्मास्त्र परमाणु बम ही था।
राम द्वारा सेना के साथ लंका प्रयाण के समय
द्रुमकुल्य देश के सम्राट समुद्र ने रावण से मैत्री होने के
कारण राम को अपने देश से मार्ग नहीं दिया तो
राम ने अगस्त्य के अमोध अस्त्र (ब्रह्मास्त्र) को छोड़
दिया। जिससे पूरा द्रुमकुल्य (मरूकान्तार) देश ही
नष्ट हो गया। यह अमोध अस्त्र हाइड्रोजन बम अथवा
एटम बम ही था। मेघनाद की वेधशाला में शीशे (लेड)
की भट्टियां थीं। जिनमें कोयला और विद्युत
धारा प्रवाहित की जाती थी। इन्हीं भट्टियों में
परमाणु अस्त्र बनते थे और नाभिकीय विखण्डन की
प्रक्रिया की जाती थी।
युद्ध के दौरान राम सेना पर सद्धासुर ने ऐसा विकट
अस्त्र छोड़ा जो संभवतः ब्रह्मास्त्र से भी ज्यादा
शक्तिशाली था, जो सुवेल पर्वत की चोटी को
सागर में गिराता हुआ सीधे दक्षिण भारत के गिरी
को समुद्र में गिरा दिया। सद्धासुर का अंत करने के
लिए अगस्त्य ने सद्धासुर के ऊपर ब्रह्मास्त्र छुड़वाया।
जिससे सद्धासुर और अनेक सैनिक तो मारे ही गए
लंका के शिव मंदिर भी विस्फोट के साथ ढहकर समुद्र
में गिर गए। दोनों ओर प्रयोग की गई ये भयंकर परमाणु
शक्तियां थीं। इस सिलसिले में डॉ. चांसरकर ने
ताजा जानकारी देते हुए अपने लेख में लिखा है,
पांडुनीडि का भाग या इससे भी अधिक दक्षिण
भारत का भाग इस परमाणु शक्ति के प्रयोग से सागर
में समा गया था और राम द्वारा ‘‘करूणागल'' के
स्वर्ण और रत्नों से भरे शिव मंदिर, स्वर्ण
अट्टालिकाएं भीषण विस्फोटों से सागर में गिर गईं।
इन विस्फोटों से लंका का ही नहीं अपितु भारत
का भी यथेष्ठ भाग सागर में समा गया था और लंका
से भारत, की दूरी, उस भू-भाग के नष्ट होने से बढ़ गई
थी। नल-सेतु (जल डमरूमध्य) का भाग भी रक्ष
रणनीतिज्ञों ने नष्ट कर दिया होगा। यही कारण
है कि त्रिकुट पर्वत की चोटियां भी तिरूकोणमल के
भाग के साथ लंका के सागर में समा गईं होंगी और
समुद्र भी गहरा हो गया होगा। इसका कारण यह
भी हो सकता है कि युद्ध के बाद अवशेष बम आदि
सामग्री को नष्ट करने के लिए अगस्त्य ने समुद्र में ही
विस्फोट कराकर लंका से विदा ली हो, जिससे
सागर गहरा हो गया। क्योंकि बाल्मीकि
रामायण में उथले उदधि और यहां नावें नहीं चल सकती
का उल्लेख हनुमान करते हैं। अब गहरे पानी पैठकर
पनडुब्बियों से तिरूकोणमलै के रामायणकलीन शिव
मंदिरों के कई अवशेष खोज निकाले हैं।
डिस्कवरी चैनल
द्वारा इन अवशेषों का बड़ा सुंदर प्रस्तुतिकरण
किया गया है। अब तो अमेरिकी अंतरिक्ष एजेंसी
‘नासा' ने त्रेतायुगीन इस ऐतिहासिक पुल को खोज
निकाल कर इसके चित्र भी दुनिया के सामने प्रस्तुत
कर दिए हैं। शेधों से पता चला है कि पत्थरों से बना
यह पुल मानव निर्मित है। इस पुल की लंबाई लगभग
तीस किलोमीटर बताई गई है। यह पुल लगभग 17 लाख
50 हजार साल पुराना आधुनिक वैज्ञानिक तकनीक
के आधार से आंका गया है। नवीनतम दूरसंवेदन तकनीक से
इस सेतु के चित्र लिए गए हैं। अब यह सेतु राम-रावण
युद्ध के प्रमाण का साक्षात उदाहरण बन गया है,
जिसे झुटलाया नहीं जा सकता।
जब रावण अपने अंत समय से पहले वेधशाला में दिव्य-रथ
के निर्माण में लीन था तब अग्निवेश ने अग्निगोले
छोड़कर वेधशाला और उसके पूरे क्षेत्र को नष्ट करने की
कोशिश की। श्री शाही के अनुसार ये अग्निगोले
थर्माइट बम थे, जिसके प्रहारे से इस्पात की मोटी
चादर तक क्षण मात्र में पिघल जाती थी। लंका के हेम
मंदिर, हेमभूषित इन्हीं अग्निगोलों से पिघली थी।
रावण के प्राणों का अंत जब अगस्त्य का ब्रह्मास्त्र
नहीं कर सका तो राम ने रावण पर ब्रह्मा द्वारा
आविष्कृत ब्रह्मास्त्र छोड़ा जो बहुत ही ज्यादा
शक्तिशाली था। इससे रावण के शरीर के अनेक टुकड़े
हो गए और वह मृत्यु का प्राप्त हो गया।
इस विश्व युद्ध में छोटे-मोटे अस्त्रों की तो कोई
गिनती ही नहीं थी। ये अस्त्र भी विकट मारक
क्षमता के थे। शंबूक ने ‘सूर्यहास खड्ग' का अपनी
वेधशाला में आविष्कार किया था। इस खड़्ग में सौर
ऊर्जा के संग्रहण क्षमता थी। जैसे ही इनका प्रयोग
शत्रु दल पर किया जाता तो वे सूर्यहास खड्ग से
चिपक जाते। यह खड्ग शत्रु का रक्त खींच लेता और
चुंबक नियंत्रण शक्ति से धारक के पास वापस आ
जाता। लक्ष्मण ने खड्ग को हासिल करने के लिए ही
शंबूक का वध किया था।

Monday, October 6, 2014

REAL RAMAYAN

Rishabh Bhardwaj's photo.Dr. P. V. Vartak from Pune has written a
researched version of Ramayana which is titled
Vastav Ramayan (Real Ramayana). According to
this version, South America was known
during the Ramayan era. Indians migrated to South
America which is called “Patal Lok” in sanskrit.
The book highlights many places in South America
which reflect Indian culture, such as a
Sun Temple, Elephants, Lord Ganesha, snakes
carved on ancient monuments and even Lord
Hanuman, etc.
In Ramayan, when King Sugriv directs his men in
all directions in search of Sita, the wife of Sri
Rama (who ruled India from the city of
Ayodhya), after she is abducted by Ravana, the
king of the mighty Lanka kingdom. He instructs
one group to go towards the east direction and
asked them to look for a Trident etched on a
mountain. King Surgive says that the Trident is
“A long Golden flag-stick with three limbs stuck on
top. It always glitters in when seen from sky”.
This trident is on the west coast of Peru – Lima
and it really can be seen glittering from the sky
even today! Trident is called The Parades
Candelabra of the Andes. The Ramayana refers to
the Andes as the ‘Udaya’ Mountains. ‘Udaya’ (उदय)
is Sanskrit for ‘Sunrise’.
The perfect description can only mean that either
Sugriv or somebody even earlier must have seen
this trident from the sky, probably from an airplane
( Vimana)! Around 100 miles
from this hill with the Trident, there are the now
well known Nazca lines , massive geometric
shapes drawn on land spread over miles. These
can be seen only from the sky. Was it an
ancient airport?



Dr. Vartak says that the trident, a sign of the east
was created by Lord Vishnu around 15000 – 17000
years ago. And the Nazca lines, according to him,
are the signs of the ancient airport of King Bali,
Sugriva’s brother, around
15000 years ago! It may be also be noted that
Maya, who started the Mayan civilization, is
also mentioned in Ramayan as Ravana’s friend
who eventually assisted him in the war with Ram.
Ravana, as is well-known was a friend of
Bali too. So were Bali and Maya close
associates too?
In Ramayana, Sage Valmiki describes about a
circular city which is towards west of bharata
khanda (India). This could be the city of Yerevan in
Armenia, which is one of the oldest
continually inhabited cities of the world.



Source: Vaastav Ramayana By Dr. Vartak