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Friday, May 22, 2015

Ottoman Empire- Part 1 उस्मानिया साम्राज्य – खिलाफत और खलीफा के संक्षिप्त इतिहास- Part 2


भारत उन दिनों आज से कहीं बड़ा था. पाकिस्तान और बांग्लादेश ही नहीं, श्री लंका और म्यांमार (बर्मा) भी ब्रिटिश भारत का हिस्सा हुआ करते थे तब भी, सेना में भर्ती के लिए अंग्रेजों की पसंद उत्तरी और उत्तर-पश्चिमी भारत के सिख, मुसलमान और हिंदू क्षत्रिय ही होते थे. उनके बीच से सैनिक व असैनिक किस्म के कुल मिलाकर लगभग 15 लाख लोग भर्ती किए गए थे अगस्त 1914 और दिसंबर 1919 के बीच उनमें से 6,21,224 लड़ने-भिड़ने के लिए और 4,74,789 दूसरे सहायक कामों के लिए अन्य देशों में भेजे गए इस दौरान एशिया, अफ्रीका और यूरोप के विभिन्न मोर्चों पर कुल मिलाकर करीब आठ लाख भारतीय सैनिक जी-जान से लड़े इनमें 74,187 मृत या लापता घोषित किए गए और 69, 214 घायल हुए ,,इस लड़ाई में भारत का योगदान सैनिकों व असैनिक कर्मियों तक ही सीमित नहीं था भारतीय जनता के पैसों से 1,70,000 पशु और 3,70,000 टन के बराबर रसद भी मोर्चों पर भेजी गई.
लड़ाई का खर्च चलाने के लिए गुलाम भारत की अंग्रेज सरकार ने लंदन की सरकार को 10 करोड़ पाउन्ड अलग से दिए भारत की गरीब जनता का यह पैसा कभी लौटाया नहीं गया मिलने के नाम पर पैदल सैनिकों को केवल 11 रुपये मासिक वेतन मिलता था..!!
13, 000 भारतीय सैनिकों को बहादुरी के पदक मिले और 12 को ‘विक्टोरिया क्रॉस.’ किसी भारतीय को कोई ऊंचा अफसर नहीं बनाया गया न कभी यह माना गया कि भारी संख्या में जानलेवा हथियारोंवाली ‘औद्योगिक युद्ध पद्धति’ से और यूरोप की बर्फीली ठंड से अपरिचित भारतीय सैनिकों के खून-पसीने के बिना इतिहास के उस पहले विश्वयुद्ध में ब्रिटेन की हालत बड़ी खस्ता हो जाती…यह है गाँधीवादी सेक्यूलर बुर्के में अंग्रेजियत के कुकर्म छुपाने में ही सहायक रही कांग्रेस पार्टी की आजतक की कुल व मुख्य उपलब्धि ।
1915 के आखिर तक फ्रांस और बेल्जियमवाले मोर्चों पर के लगभग सभी भारतीय पैदल सैनिक तुर्की के उस्मानी साम्राज्यवाले मध्यपूर्व में भेज दिये गए. केवल दो घुड़सवार डिविजन 1918 तक यूरोप में रहे. तुर्की भी नवंबर 1914 से मध्यवर्ती शक्तियों की ओर से युद्ध में कूद पड़ा था. भारतीय सैनिक यूरोप की कड़ाके की ठंड सह नहीं पाते थे. मध्यपूर्व के अरब देशों में यूरोप जैसी ठंड नहीं पड़ती. वे भारत से बहुत दूर भी नहीं हैं, इसलिए भारत से वहां रसद पहुंचाना भी आसान था. यूरोप के बाद उस्मानी साम्राज्य ही मुख्य रणभूमि बन गया था. इसलिए कुल मिलाकर 5,88,717 भारतीय सैनिक और 2,93,152 असैनिक कर्मी वहां के विभिन्न मोर्चों पर भेजे गए ब्रिटेन, फ्रांस और रूस का मित्रराष्ट्र-गुट तुर्क साम्राज्य की राजधानी कोंस्तांतिनोपल पर, जिसे अब इस्तांबूल कहा जाता है, कब्जा करने की सोच रहा था. इस उद्देश्य से ब्रिटिश और फ्रांसीसी युद्धपोतों ने, 19 फरवरी, 1915 को, तुर्की के गालीपोली प्रायद्वीप के तटवर्ती भाग पर- जिसे दर्रेदानियल (डार्डेनल्स) जलडमरूमध्य के नाम से भी जाना जाता है- गोले बरसाए. लेकिन न तो इस गोलाबारी से और न बाद की गोलीबारियों से इच्छित सफलता मिल पाई,, इसलिए तय हुआ कि गालीपोली में पैदल सैनिकों को उतारा जाए. 25 अप्रैल, 1915 को भारी गोलाबारी के बाद वहां ऑस्ट्रेलिया और न्यूजीलैंड के सैनिक उतारे गए. पर वे भी तेजी से आगे नहीं बढ़ पा रहे थे. उनकी सहायता के लिए भेजे गए करीब 3000 भारतीय सैनिकों में से आधे से अधिक मारे गए. गालीपोली अभियान अंततः विफल हो गया. जिस तुर्क कमांडर की सूझबूझ के आगे मित्रराष्ट्रों की एक न चली, उसका नाम था गाजी मुस्तफा कमाल पाशा. युद्ध में पराजय के कारण उस्मानी साम्राज्य के विघटन के बाद वही वर्तमान तुर्की का राष्ट्रपिता और पहला राष्ट्रपति कमाल अतातुर्क कहलाया. 1919-20 में 27 देशों के पेरिस सम्मेलन द्वारा रची गई वर्साई संधि ने उस्मानी व ऑस्ट्रियाई-हंगेरियाई साम्राज्य का अंत कर दिया और यूरोप सहित मध्यपूर्व के नक्शे को भी एकदम से बदल दिया,,मध्यपूर्व में भेजे गए भारतीय सैनिकों में से 60 प्रतिशत मेसोपोटैमिया (वर्तमान इराक) में और 10 प्रतिशत मिस्र तथा फिलिस्तीन में लड़े. इन देशों में वे लड़ाई से अधिक बीमारियों से मरे. उनके पत्रों के आधार पर इतिहासकार डेविड ओमिसी का कहना है,
 
‘सामान्य भारतीय सैनिक ब्रिटिश सम्राट के प्रति अपनी निष्ठा जताने और अपनी जाति की इज्जत बचाने की भावना से प्रेरित होकर लड़ता था. एकमात्र अपवाद वे मुस्लिम-बहुल इकाइयां थीं, जिन्होंने तुर्कीवाले उस्मानी साम्राज्य के अंत की आशंका से अवज्ञा अथवा बगावत का रास्ता अपनाया. उन्हें कठोर सजाएं भुगतनी पड़ीं.’ एक दूसरे इतिहासकार और अमेरिका में पेन्सिलवैनिया स्टेट यूनिवर्सिटी के प्रोफेसर फिलिप जेंकिन्स इस बगावत का एक दूसरा पहलू भी देखते हैं. उनका मानना है कि वास्तव में प्रथम विश्वयुद्ध में उस्मानी साम्राज्य के विरुद्ध लड़ने से मुस्लिम सैनिकों का इनकार और युद्ध में पराजय के साथ उस्मानी साम्राज्य का छिन्न-भिन्न हो जाना ही वह पहला निर्णायक आघात है जिसने आज के इस्लामी जगत में अतिवाद और आतंकवाद जैसे आंदोलन पैदा किए. अपने एक लेख में वे लिखते हैं, ‘वही उस पृथकतावाद की ओर भी ले गया, जिसने अंततः इस्लामी पाकिस्तान को जन्म दिया और वे नयी धाराएं पैदा कीं जिनसे ईरानी शियापंथ बदल गया.’. प्रो. जेंकिन्स का तर्क है कि ‘जब युद्ध छिड़ा था, तब उस्मानी साम्राज्य ही ऐसा एकमात्र शेष बचा मुस्लिम राष्ट्र था, जो अपने लिए महाशक्ति के दर्जे का दावा कर सकता था. उसके शासक जानते थे कि रूस व दूसरे यूरोपीय देश उसे जीतकर खंडित कर देंगे. जर्मनी के साथ गठजोड़ ही आशा की अंतिम किरण थी. 1918 में युद्ध हारने के साथ ही सारा साम्राज्य बिखरकर रह गया.’ प्रो. जेंकिन्स का मत है कि 1924 में नये तुर्की द्वरा ‘खलीफा’ के पद को त्याग देना 1,300 वर्षों से चली आ रही एक अखिल इस्लामी सत्ता का विसर्जन कर देने के समान था. इस कदम ने ‘एक ऐसा आघात पीछे छोड़ा है, जिससे सुन्नी इस्लामी दुनिया आज तक उबर नहीं सकी,,, प्रो. जेंकिन्स के शब्दों में, ‘खलीफत के अंत की आहटभर से’ ब्रिटिश भारत की तब तक शांत मुस्लिम जनता एकजुट होने लगी. उससे पहले भारत के मुसलमान महात्मा गांधी की हिंदू-बहुल कांग्रेस पार्टी के स्वतंत्रता की ओर बढ़ते झुकाव से संतुष्ट थे. लेकिन अब, खिलाफत आंदोलन चलाकर मुस्लिम अधिकारों और एक मुस्लिम राष्ट्र की मांग होने लगी. यही आंदोलन 1947 में भारत के रक्तरंजित विभाजन और पाकिस्तान के जन्म का स्रोत बना.’
स्मरणीय यह भी है कि महात्मा गांधी प्रथम विश्वयुद्ध के समय पूर्ण स्वतंत्रता के लिए कोई आन्दोलन छेड़कर ब्रिटिश सरकार की परेशानियां बढ़ाने के बदले उसे समर्थन देने के पक्षधर थे. ब्रिटिश अधिकारी भी यही संकेत दे रहे थे कि संकट के इस समय में भारतीय नेताओं का सहयोग भारत में स्वराज या स्वतंत्रता का इंतजार घटा सकता है. लेकिन, युद्ध का अंत होने के बाद सब कुछ पहले जैसा ही रहा. लंदन में ब्रिटिश मंत्रिमंडल की बैठकों में तो यहां तक कहा गया कि भारत को अपना शासन आप चलाने लायक बनने में अभी 500 साल लगेंगे…!!
भारतीय राजनीति में जिन्ना का उदय 1916 में कांग्रेस के एक नेता के रूप में हुआ था, जिन्होने हिन्दू-मुस्लिम एकता पर जोर देते हुए मुस्लिम लीग के साथ लखनऊ समझौता करवाया था। गौरतलब है कि 1910 ई. में वे बम्बई के मुस्लिम निर्वाचन क्षेत्र से केन्द्रीय लेजिस्लेटिव कौंसिल के सदस्य चुने गए, 1913 ई. में मुस्लिम लीग में शामिल हुए और 1916 ई. में उसके अध्यक्ष हो गए जिन्ना अखिल भारतीय मुस्लिम लीग के अध्यक्ष की हैसियत से संवैधानिक सुधारों की संयुक्त कांग्रेस लीग योजना पेश की। इस योजना के अंतर्गत कांग्रेस लीग समझौते से मुसलमानों के लिए अलग निर्वाचन क्षेत्रों तथा जिन प्रान्तों में वे अल्पसंख्यक थे, वहाँ पर उन्हें अनुपात से अधिक प्रतिनिधित्व देने की व्यवस्था की गई। इसी समझौते को ‘लखनऊ समझौता’ कहते हैं।
लखनऊ की बैठक में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के उदारवादी और अनुदारवादी गुटों का फिर से मेल हुआ। इस समझौते में “संभावित स्वराज वाली भारत सरकार” के ढांचे और हिंदू तथा मुसलमान समुदायों के बीच सम्बन्धों के बारे में प्रावधान था और बाल गंगाधर तिलक ही इस समझौते के प्रमुख निर्माता थे तिलक को देश लखनऊ समझौता और केसरी अखबार के भी लिए याद करता है।
पहले के हिसाब से ये प्रस्ताव गोपाल कृष्ण गोखले के राजनीतिक विधान को आगे बढ़ाने वाले थे इनमें प्रावधान था कि प्रांतीय और केंद्रीय विधायिकाओं का तीन-चौथाई हिस्सा व्यापक मताधिकार के जारिये चुना जाये और केंद्रीय कार्यकारी परिषद के सदस्यों सहित कार्यकारी परिषदों के आधे सदस्य परिषदों द्वारा ही चुने गए भारतीय हों,, केंद्रीय कार्यकारी के प्रावधान को छोडकर ये प्रस्ताव आमतौर पर 1919 के भारत सरकार अधिनियम में शामिल थे काँग्रेस प्रांतीय परिषद चुनाव में मुसलमानों के लिए अलग निर्वाचक मण्डल तथा पंजाब एवं बंगाल को छोडकर, जहां उन्होने हिंदू और सिख अल्पसंख्यकों को कुछ रियायतें दी, सभी प्रान्तों में उन्हें रियायत (जनसंख्या के अनुपात से ऊपर) देने पर भी सहमत हो गई यही समझौता कुछ इलाकों और विशेष समूहों को पसंद नहीं था, लेकिन इसने 1920 से गांधी के असहयोग आंदोलन के बुर्के में खिलाफत आंदोलन के लिए तथाकथित हिंदू मुस्लिम सहयोग का रास्ता साफ किया बस खोते जनाधार को पा कर और बढाने और स्वराज के नाम पर तथाकथित आजादी आंदोलन के पहले कांग्रेसी कदम का सच यही था “मुस्लिम तुष्टिकरण” ।
कांग्रेस ने मो.अली जौहर, खिलाफत कमेटी, मुस्लिम लीग, जमीयत उल उलेमा और नवाबों, जागीरदारों, जमींदारों के साथ मिल कर भारत में पहले आधिकारिक “जिहाद” और “इस्लाम खतरे में” के नारे के जन्म की नींव रखी जिसमें संपूर्ण आजादी की मांग तो गौण थी अपितु ब्रिटिश राज की प्रथम विश्वयुद्धीय लडाई के लिये सैनिक जुटाने के प्रयत्न ही मुख्य थे और भारत की अधिकांश जनता का इससे ध्यान हटाने या ध्यान बंटाने को मुसलमानों हेतु ‘खिलाफत आंदोलन’ और महामूर्ख हिंदुओं हेतु ‘असहयोग आंदोलन’ ब्रिटिश राज के ही अधीन रहने वाले “स्वराज उर्फ डोमेनियन स्टेट स्टेटस” के लिये, आंतरिक शासन सत्ता प्राप्ति हेतु कुलीन लोगों द्वारा शुरू कर आम भारतीय को मूर्ख बनाया गया जिसका उदाहरण लखनऊ पैक्ट है।
“अगर हिन्दू-मुस्लिम एकता वाले ऐतिहासिक लखनऊ समझौते को संविधान में मान लिया गया होता तो शायद न देश का बंटवारा होता और न ही जिन्ना की कोई गलत तस्वीर हमारे मन में होती।” यह सत्य तो हमारे वर्तमान राष्ट्रपति श्री प्रणब मुखर्जी द्वारा भी कहा गया है।
जिन्ना भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के समर्थक थे, परन्तु गांधी के असहयोग आंदोलन के बुर्के में खिलाफत आंदोलन के समर्थन चलाये जाने का उन्होंने तीव्र विरोध किया और इसी प्रश्न पर खिलाफत आंदोलन और असहयोग आंदोलन की असफलता के चलते काँग्रेस से अलग हो गए इसके बाद से मो.अली जौहर, डॉ. मुख्तार अहमद अंसारी, मौलाना अबुल कलाम, अब्दुल रहमान सिद्दीकी और चौधरी खलीक उज्जमां की संगत में उनके ऊपर हिंदू राज्य की स्थापना के भय का भूत सवार हो गया उन्हें यह मुस्लिम जेहादी ग़लत फ़हमी हो गई कि हिन्दू बहुल हिंदुस्तान में मुसलमानों को उचित प्रतिनिधित्व कभी नहीं मिल सकेगा सो वह एक नए राष्ट्र पाकिस्तान की स्थापना के घोर समर्थक और प्रचारक बन गए थे।
जिन्ना व मुस्लिम लीग गिरोह का कहना था कि अंग्रेज लोग जब भी सत्ता का हस्तांतरण करें, उन्हें उसे हिन्दुओं के हाथ में न सौंपें, हालाँकि वह बहुमत में हैं ऐसा करने से भारतीय मुसलमान को हिन्दुओं की अधीनता में रहना पड़ेगा, जिन्ना अब भारतीयों की स्वतंत्रता के अधिकार के बजाए मुसलमानों के अधिकारों पर अधिक ज़ोर देने लगे इस के लिये उन्हे कांग्रेस के अप्रत्यक्ष सहयोग के साथ साथ उन्हें अंग्रेज़ों का सामान्य कूटनीतिक समर्थन मिलता रहा जो अंग्रेजों ने सऊदो व वहाबियों समेत मुस्तफा कमाल माशा ‘अतातुर्क’ को सऊदी अरब निर्माण , आधुनिक ‘सेक्यूलर तुर्की’ निर्माण और तुर्की के सुन्नी खलीफत के खात्मे हेतु दिया था इसके फलस्वरूप वे अंत में भारतीय मुसलमानों के नेता के रूप में देश की राजनीति में उभड़े। मोहम्मद अली जिन्ना ने मुस्लिम लीग का पुनर्गठन किया और ‘क़ायदे आज़म’ (महान नेता) व पाकिस्तान के राष्ट्रपिता ‘अता पाकिस्तान’ के रूप में विख्यात हुए साथ ही अंग्रेज कूटनीति के कारण मुस्तफा कमाल पाशा भी ‘अता तुर्क’ बने और गांधी ‘जी’ को हम स्वयंभू “राष्ट्रपिता यानि अता हिंदुस्तान” के रूप में मानते ही हैं।
अब वापिस खिलाफत आंदोलन और उसके प्रमुख रहे अन्य लीडरों की और चलते हैं …!
बहुत से प्रबुद्ध पाठकों समेत आम जनता तक ने डॉ. मुख्तार अहमद अंसारी और चौधरी खलीक उज्जमां समेत अब्दुल रहमान सिद्दीकी आदि के बारे में नहीं सुना होगा …!
चलिये सिलेसिलवार हम अखिल भारतीय खिलाफत कमेटी / All India Khilafat Committee और मुस्लिम लीग के लीडरों से पाकिस्तान के जन्मदाता रहे “असल कांग्रेसी सहयोगियों ” से दो चार होते हैं-
1.) डॉ. मुख्तार अहमद अंसारी
आजकल के प्रचलित ‘सेक्यूलर’ किंतु वास्तविकता का गला घोंट चुके “लिखित इतिहास” में कहते हैं कि डॉ मुख्तार अहमद अंसारी –
एक भारतीय राष्ट्रवादी और राजनेता होने के साथ-साथ भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस और मुस्लिम लीग के पूर्व अध्यक्ष थे।
वे जामिया मिलिया इस्लामिया विश्वविद्यालय के संस्थापकों में से एक थे, 1928 से 1936 तक वे इसके कुलाधिपति भी रहे
किंतु वास्तविकता में डॉ. मुख्तार अहमद अंसारी खिलाफत कमेटी के प्रमुख सदस्य व जन्मदाताओं में से एक होने के अलावा कट्टर इस्लामी व्यक्ति थे जो कि तुर्की के खलीफा और उसके लोगों की मदद के लिये मालो असबाब समेत एक पूरा मेडिकल मिशन ले कर हिंदुस्तान से तुर्की गये थे जिसकी गवाह उपर लगी फोटो है और उसमें शानिल लोगों के बारे में आगे बताता चलूंगा …!
डॉ मुख्तार अहमद अंसारी का जन्म 25 दिसम्बर 1880 को नॉर्थ-वेस्टर्न प्रोविन्सेस (अब उत्तरप्रदेश ) के गाजीपुर जिले में यूसुफपुर-मोहम्मदाबाद शहर में हुआ था,,उन्होंने विक्टोरिया हाई स्कूल में शिक्षा ग्रहण की और बाद में वे और उनका परिवार हैदराबाद चले गए वहां जाने के बाद अंसारी ने मद्रास मेडिकल कॉलेज से चिकित्सा की डिग्री प्राप्त की और छात्रवृत्ति पर अध्ययन के लिए इंग्लैंड चले गए जहाँ उन्होंने एम.डी. और एम.एस. दोनों की उपाधियाँ हासिल की कहा जाता है कि वे एक उच्च श्रेणी के छात्र थे और उन्होंने लंदन में लॉक हॉस्पिटल और चैरिंग क्रॉस हॉस्पिटल में कार्य किया वे सर्जरी क्षेत्र में भारत के अग्रणी थे और आज भी लंदन के चैरिंग क्रॉस हॉस्पिटल में उनके कार्य के सम्मान में एक अंसारी वार्ड मौजूद है।
डॉ. अंसारी इंग्लैंड में अपने प्रवास के दौरान भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन में शामिल हुए. वे वापस दिल्ली आये तथा काँग्रेस व मुस्लिम लीग दोनों में शामिल हो गए,, 1916 की “लखनऊ संधि” की बातचीत में उन्होंने एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाई और 1918 से 1920 के बीच लीग के अध्यक्ष के रूप में कार्य किया।
डा.अंसारी खिलाफत आंदोलन के एक मुखर समर्थक थे और उन्होंने इस्लाम के खलीफा, तुर्की के सुल्तान को हटाने के मुस्तफा कमाल तथा ब्रिटिश राज के निर्णय के खिलाफ सरकारी खिलाफत निकाय, लीग और कांग्रेस पार्टी को एक साथ लाने और ब्रिटिश राज द्वारा तुर्की की आजादी की मान्यता का विरोध करने के लिए प्रमुख लीडर की तरह ही काम किया..!!
1927 के सत्र के दौरान वे भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के अध्यक्ष भी रहे. 1920 के दशक में लीग के भीतर अंदरूनी लड़ाई और राजनीतिक विभाजन और बाद में चौधरी खलीक उज्जमां, जिन्ना और मुस्लिम अलगाववाद के उभार के तथाकथित परिणाम स्वरूप डॉ॰ अंसारी महात्मा गांधी और कांग्रेस पार्टी के करीब आ गए लेकिन यह आधा सच है वास्तविकता यह है कि डॉ. अंसारी (जामिया मिलिया इस्लामिया की फाउंडेशन समिति) के संस्थापकों में से एक थे और 1927 में इसके प्राथमिक संस्थापक, डॉ.हाकिम अजमल खान की मौत के कुछ ही समय बाद उन्होंने दिल्ली में जामिया मिलिया इस्लामिया विश्वविद्यालय के कुलाधिपति के रूप में भी काम किया,, डा.अंसारी परिवार एक महलनुमा घर में रहता था जिसे उर्दू में दारुस सलाम या अंग्रेजी में एडोबे ऑफ पीस कहा जाता था, महात्मा गांधी जब भी दिल्ली आते थे, डा.अंसारी परिवार ही अक्सर उनका स्वागत करता था और यह घर कांग्रेस की राजनीतिक गतिविधियों का एक नियमित आधार था और डा. मुख्तार अहमद अंसारी महात्मा गांधी के बहुत करीबी थे जिस कारण गांधी व कांग्रेस ने धार्मिक आधार पर, Two Nation Theory / द्विराष्ट्रवाद सिद्धांत के तहत भारत विभाजन के बावजूद मुसलमानों को भारत में उनकी विलासी व आलीशान ‘विरासतों’ और धन संपत्ति से अलग नहीं होने दिया , कुल मिला कर खिलाफत आंदोलनों से लेकर पाकिस्तान निर्माण तक जिन मुसलमानों ने हिंदू खून की होली खेली वो तो यहाँ से गये ही नहीं जो गये भी वो अपने आधे से ज्यादा नाते रिश्तेदार यहीं छोड कर गये अपनी तथाकथित विरासत और “आजादी” की लडाई में अपने ‘योगदान’ गिनवाने को…!!
Choudhry Khaliquzzaman seconding the Lahore Resolution with Muhammad Ali Jinnah chairing the Lahore session
2.) चौधरी खलीक उज्जमां / Choudhry Khaliquzzaman (25 December 1889 – 1973)
ये साहब तो पाकिस्तानी बन गये थे और पाकिस्तान शब्द की मूल उपज का जरिया इनका दिमाग ही था,,,
चौधरी खलीक उज्जमां भी यूनाईटेड प्रोविंसेंसेज यानि आज के उत्तर प्रदेश के मिर्जापुर निवासी कट्टर सुन्नी मुस्लिम घराने के खानदानी जमींदार और 1916 में MAO College से BA,L.L.B. पढे हुऐ नामी वकील ही थे (तब और आज तक की सार्थक राजनैतिक परंपरा अनुसार)
ये भी अखिल भारतीय मु्स्लिम लीग तथा खिलाफत कमेटी के प्रमुख लीडरान में से एक थे,, ये डॉ. अंसारी के तुर्की गये मेडिकल मिशन के भी प्रमुख सदस्य थे, ये खिलाफत आंदोलन के दौरान तुर्की में जनसत्ता परिवर्तन के बाद बदला लेने की ख्वाहिशों के साथ मोहम्मद अली जौहर के साथ अफगानिस्तान में हिंदू व हिंदुस्तान के खिलाफ सेना बनाने के अभियान के मुख्य सूत्रधारों में से एक थे लेकिन जब अफगानियों ने 18000 से ज्यादा “भारतीय” मुसलमान ‘बिरादरान’ को लूटपाट कर कत्ल कर दिया तो इन्ही जनाब के नेतृत्व में बचेखुचे ‘भारतीय’ मुसलमानों ने भारत आकर मोपला दंगों सहित कई कत्लेआम तुर्की के खलीफा की खिलाफत के संबंध में किये थे और सेक्यूलर कांग्रेस व डरपोक सेक्यूलर भारत की जलील नींव रखी थी..!!
यानि कुल जमा बात यह है कि चौधरी खलीक उज्जमां खिलाफत आंदोलन के असफल हो जाने और हालिया मुस्लिम अत्याचारों के अपेक्षित होते जवाब को लेकर भारी दबाव में थे कि उनको तुरूप का इक्का मुहम्मद इकबाल नामक शायर के रूप में मिल गया और चौधरी खलीक फिर जी उठे ।
इकबाल के दादा सहज सप्रू हिंदू कश्मीरी पंडित थे जो बाद में सिआलकोट आ गए और मुसलमान बन गये,चौधरी खलीक उज्जमां के नेतृत्व काल में ही सर मुहम्मद इकबाल उर्फ अल्लामा इकबाल ने ही भारत विभाजन और पाकिस्तान की स्थापना का विचार सबसे पहले उठाया था।
1930 में इन्हीं के नेतृत्व में मुस्लिम लीग की पूरी कमेटी ने सबसे पहले भारत के विभाजन की माँग उठाई। इसके बाद चौधरी खलीक उज्जमां ने जिन्ना को भी मुस्लिम लीग में शामिल होने के लिए प्रेरित किया और उनके साथ पाकिस्तान की स्थापना के लिए काम किया इन्हें पाकिस्तान व पाकिस्तानी इतिहास निर्माण में बहुत सम्मानीय स्थान प्राप्त हैं, पाकिस्तान में चौधरी खलीक उज्जमां / Choudhry Khaliq-Uz-Zaman के नाम पर सडकें, स्कूल, चौक, पार्क व कॉलेज हैं, चौधरी खलीक उज्जमां की 11 अगस्त 1947 की स्पीच पाकिस्तान निर्माण की राह में मील का पत्थर मानी जाती है।
मोहनदास करमचन्द्र गाँधी (कुछ के लिए महात्मा ) उसे अनाधिकारिक रूप से तो भारत का राष्ट्रपिता (अता हिंदुस्तान) कहा जाता है परन्तु उस व्यक्ति ने भारत की कितनी और किस तरह से सेवा की थी इस सम्बन्ध में लोग चर्चा करने से भी डरते हैं या करना चाहते ही नहीं, गांधी के अनुयायी गांधी का असली चेहरा देखना व दिखाना ही नहीं चाहते हैं क्यूँ की वो इतना ज्यादा भयानक है उसे देखने के लिए गांधीवादियों व भारत को साहस जुटाना होगा , सभी गांधीवादी , महात्मा गांधी (??) को अहिंसा का पुजारी (??) मानते हैं जिसने कभी भी किसी तरह की हिंसा नहीं की परन्तु वास्तविकता तो यह है की बीसवी सदी के सबसे पहले हिन्दुओं के नरसंहार का तानाबाना बुनने और खिलाफत आंदोलन को भारत व्यापी हिंदू मुस्लिम एकता की आड़ में गांधी नेतृत्व की कांग्रेसी देन है, भारत में इस्लामी जिहाद और पहली बार ‘इस्लाम खतरे में’ सरीखे आत्मघाती नारे की इजाद का सहयोग और मुसलमानों में 1000 साल की तत्कालीन भारत पर रही हूकूमत का झूठा संहारी प्रचार भी इसी मोहनदास करमचन्द्र गांधी नेतृत्व की कांग्रेस ने ही किया था ..!!
हमारी इतिहास की किताबों (जो की कम्युनिस्टों / कांग्रेसियत ने ही लिखी हैं ) में खिलाफत आन्दोलन भी पढाया जाता है और यह बताया जाता है कि ये खिलाफत आन्दोलन राष्ट्रीय भावनाओं का उभार था जिसमे देश के हिन्दुओं और मुसलमानों ने कंधे से कन्धा मिलकर भाग लिया था परन्तु इस बारे कुछ नहीं बताया जाता है एक विदेशी शासन और वहां की सत्ता का संघर्ष का संघर्ष भारत के राष्ट्रीय भावनाओं का उभार कैसे हो सकता है ?
खिलाफत आन्दोलन एक विशुद्ध सांप्रदायिक इस्लामिक चरमपंथी आन्दोलन था जो की इस भावना से संचालित था की पूरी दुनिया इस्लामिक और गैर इस्लामिक दो तरह के राष्ट्रों में बंटी हुई है और पूरी दुनिया के मुस्लिमों ने, तुर्की के खलीफा के पद को समाप्त किये जाने को गैर इस्लामिक देश के इस्लामिक देश पर आक्रमण के रूप में देखा था जिसमें ब्रिटेन के साथ बडी संख्या में भारतीय गैर मुसलमान ही शामिल थे सो इस कारण ये खिलाफत आन्दोलन एक सुन्नी इस्लामिक आन्दोलन था जो की मुसलमानों के द्वारा गैर मुस्लिमों के विरुद्ध शुरू किया गया था और इसे भारत में अली बंधुओं , डा.अंसारी, चौधरी खलीक, जमीयत उल उलेमा समेत अखिल भारतीय खिलाफत कमेटी ने नेतृत्व प्रदान किया था ..और वकील मोहनदास करमचन्द गांधी जो की उस समय कांग्रेस का नेतृत्व कर रहे थे , उसने इस खिलाफत आन्दोलन को समर्थन देने की घोषणा की ध्यान रहे की खिलाफत आन्दोलन अपने प्रारंभ से ही एक हिंसक आन्दोलन था और इस अहिंसा के कथित पुजारी ने इस हिंसक आन्दोलन को अपना समर्थन दिया (ये वही अहिंसा का पुजारी है जिसने चौरी चौरा में कुछ पुलिसकर्मियों के मरे जाने पर अपना आंदोलन वापस ले लिया था, तथाकथित रूप से हिंसा का समर्थन ना करने की कह कर संपूर्ण आजादी की मांग कर रहे भगत सिंह, राजगुरू, सुखदेव को गोलमेज सम्मेलन के नाम पर फांसी चढाने में अप्रत्यक्ष सहयोग किया, दोनो विश्वयुद्धों में लाखों भारतीय अंग्रेज मदद हेतु स्वराज के झांसे दे कर मरवाये ) और इस गांधी के समर्थन का अर्थ कांग्रेस का समर्थन था इस खिलाफत आन्दोलन के प्रारंभ से इसका स्वरूप हिन्दुओं के विरुद्ध दंगों का था और गांधी ने उसे अपना नेतृत्व प्रदान करके और अधिक व्यापक और विस्तृत रूप दे दिया ..ताकि अंग्रेजों के खिलाफ एकत्रित होता असंतोष और सुनियोजित विद्रोह फलित ना होने पाये और अंग्रेज़ व अंग्रेजियत को सम्भलने का समय मिलता रहे उनका कोई नुकसान ना होने पाये।
जब अली भाइयों के नेतृत्व में संपूर्ण खिलाफत कमेटी ने कबाईलियों और अफगानिस्तान के अमीर को भारत पर आक्रमण के लिए आमंत्रित किया था तब इस कथित अहिंसक महात्मा ने कहा था कि –
“यदि कोई बाहरी शक्ति इस्लाम की प्रतिष्ठा की रक्षा के लिए और न्याय दिलाने के लिए आक्रमण करती है तो वो उसे वास्तविक सहायता न भी दें तो उसके साथ उनकी पूरी सहानुभूति रहेगी “(गांधी सम्पूर्ण वांग्मय – 17.527 – 528)
अब यह तो स्पष्ट ही है की वो आक्रमणकर्ता हिंसक ही होता और इस्लाम की परिपाटी के अनुसार हिन्दुओं का पूरी शक्ति के साथ कत्लेआम भी करता तो क्या ऐसे आक्रमण का समर्थन करने वाला व्यक्तिअ हिंसक कहला सकता है .. ??
बात इतने पर भी ख़त्म नहीं होती है , जब अंग्रेजों ने पूरी दुनिया में इस आन्दोलन को कुचल दिया और खिलाफत आन्दोलन असफल हो गया तो भारत के मुसलमानों ने क्रोध में आकर पूरी शक्ति से हिन्दुओं की हत्याऐं करनी शुरू कर दी और इसका सबसे ज्यादा प्रभाव मालाबार और दक्षिण संबंधी क्षेत्र में देखा गया था जब वहां पर मुसलमानों द्वारा हिन्दुओं की हत्याऐं की जा रही थीं तब इस मोहनदास करमचन्द गांधी ने कहा था कि –
“अगर कुछ हिन्दू मुसलमानों के द्वारा मार भी दिए जाते हैं तो क्या फर्क पड़ता है ??
अपने मुसलमान भाइयों के हाथों से मरने पर हिन्दुओं को स्वर्ग मिलेगा ….”
मुख्यतया भारत में अखिल भारतीय खिलाफत कमेटी ने जमियत-उल-उलेमा के सहयोग से खिलाफत आंदोलन का संगठन किया तथा मोहम्मद अली ने 1920 में खिलाफत घोषणापत्र प्रसारित किया राष्ट्रीय आंदोलन का नेतृत्व गांधी व कांग्रेस ने किया जो तथाकथित असहयोग आंदोलन था बाद में यह दोनों आंदोलन गांधी जी के प्रभाव में एक हो गए मई, 1920 तक खिलाफत कमेटी ने महात्मा गांधी की अहिंसात्मक असहयोग योजना का तथाकथित समर्थन किया दो कि वास्तविकता में किया ही नहीं, सितंबर 1920-21 में कांग्रेस के विशेष अधिवेशन ने असहयोग आंदोलन के दो ध्येय घोषित किए – “स्वराज्य तथा खिलाफत की माँगों की स्वीकृति”
जब नवंबर, 1922 में तुर्की में मुस्तफा कमाल पाशा ने सुल्तान खलीफा मोहम्मद चतुर्थ को ख़ारिज कर अब्दुल मजीद को पदासीन किया और उसके समस्त राजनीतिक अधिकार आपने पास ले लिए तब भारत से खिलाफत कमेटी ने 1924 में विरोधप्रदर्शन के लिए एक प्रतिनिधिमंडल तुर्की भेजा। राष्ट्रीयतावादी मुस्तफा कमाल ने उसकी हर बार उपेक्षा की और 3 मार्च, 1924 को उन्होंने खलीफा का पद समाप्त कर खिलाफत का अंत कर दिया इस प्रकार, भारत का खिलाफत आंदोलन भी अपने आप समाप्त हो गया था पर इसे ब्रिटेन ,यूरोपियन, सऊदों + वहाबियों की पुरजोर मदद हेतु भावी रणनीति व अर्थव्यवस्था की धुरी समेत धर्म आधारित राजनैतिक रूप देकर गाँधीवादी हिंदू अहिंसा व मुस्लिम जनित हक की हिंसा के जामे में परवान चढाया गया।
मोहम्मद अली और उनके भाई मौलाना शौकत अली ,शेख शौकत अली सिद्दीकी, डा. मुख्तार अहमद अंसारी, रईस उल मुहााजिरीन बैरिस्टर जनवरी मुहम्मद जुनेजो, हसरत मोहानी सैयद अता उल्लाह शाह बुखारी, मौलाना अबुल कलाम आजाद और जैसे अन्य मुस्लिम नेताओं के साथ शामिल हो गए डॉ. हाकिम अजमल खान ऑल इंडिया खिलाफत कमेटी और इस्लामी हकूक बुलंद करने को / बनाने के लिए,, मुसलमान कमेटी लखनऊ, भारत में हाथे शौकत अली, मकान मालिक शौकत अली सिद्दीकी के परिसर पर आधारित था वे सिर्फ मुसलमानों के बीच राजनीतिक एकता बनाने और खिलाफत की रक्षा के लिए अपने प्रभाव का इस्तेमाल करने के उद्देश्य से 1920 में खिलाफत घोषणापत्र के द्वारा, जो ब्रिटिश विरोधी आह्वान किया कि खिलाफत की रक्षा और भारतीय मुसलमानों के लिए एकजुट होना है और इस उद्देश्य के लिए ब्रिटिश, हिंदू जवाबदेह है प्रकशित हुआ ..!!
1920 में खिलाफत नेताओं और भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस राजनीतिक दल के बीच एक गठबंधन बनाया गया था कांग्रेस नेता मोहनदास गांधी हमेशा ही ब्रिटिश राज और खिलाफत नेताओं के लिए ही काम करते हैं और खिलाफत और स्वराज के कारणों के लिए एक साथ लड़ने का झांसेदार वादा गैर मुसलमानो से करते जाते हैं,, खिलाफत के समर्थन में गांधी और कांग्रेस के संघर्ष के दौरान हिंदू – मुस्लिम एकता को सुनिश्चित करने में मदद की जाने का ढोंग रचा जाता है पर मूल में ब्रिटिश सऊदी कूटनीति है यह सब कांग्रेसी नेता पचा जाते हैं।
इसका प्रत्यक्ष प्रमाण है कि जब भारत के लोग 1919 में महात्मा गांधी समर्थित और मौलाना महमूद हसन, मौलाना मुहम्मद अली जौहर, मौलाना हसरत मोहानी, मौलाना अबुल कलाम आजाद समेत कई मुसलिम नेताओं की अगुआई में हिजाज यानी मक्का और मदीना के पवित्र स्थल ब्रिटेन के हाथों में जाने के डर से खिलाफत आंदोलन चला रहे थे, अब्दुल अजीज इब्न सऊद ब्रिटेन के साथ मिल कर उस्मानिया खिलाफत और स्थानीय कबीलों को मार भगाने के लिए लड़ रहा था। अंग्रेजों के दिए हथियार और आर्थिक मदद से अब्दुल अजीज इब्न सऊद ने वर्तमान सऊदी अरब की स्थापना की और वर्षों से ‘वक्फ’ यानी ‘धर्मार्थ समर्पित सार्वजनिक स्थल’ वाले मक्का और मदीना के संयुक्त नाम ‘हिजाज’ को भी ‘सऊदी अरब’ कर दिया गया।
सोकल, कासोक और कालटैक्स के बाद अमेरिका की मर्जर कंपनी अरेबियन ब्रिटिश अमेरिकन आॅयल कंपनी यानी ‘आरामको’ ने व्यवस्थित रूप से 1943 में सऊदी अरब में तेल उत्पादन का कार्य शुरू किया। सैकड़ों तेल कुओं वाले सऊदी अरब को तरल सोने की खान के रूप में ‘घावर’ तेल कुआं मिला, जो दुनिया का सबसे बड़ा तेल उत्पादक कुआं है।
क्या यह सब देश दुनिया से जुडे विलासी बंगलों व कारागारों में रहते, ब्रिटेन व दुनिया घूमते ब्रिटिश व मुस्लिम लीग के परम मित्र ही रहे कांग्रेसियों और गांधी नेहरू को नहीं पता था…??
विश्वास करना मुश्किल है कि Discovery Of India लिखने वाला नेहरू तथा सत्य व ब्रह्मचर्य के प्रयोग वाला दूरंदेशी मोहनदास करमचंद गांधी इस सब कारणों व भविष्य से अंजान रहे होंगे…!!
असहयोग आन्दोलन का संचालन स्वराज की माँग को लेकर किया गया। इसका उद्देश्य सरकार के साथ प्रत्यक्ष सहयोग न करके कार्यवाही में अप्रत्यक्ष बाधा उपस्थित करना ही था, जो कि पूर्णतया आम जन विशेषकर हिंदुओं को मूरख बनाने व आजादी के सर्वोत्तम समय को भुलावे में डाल कर अंग्रेजियत की मदद करने का ही आंदोलन सरीखा था,जनता का मूल मुद्दों से ध्यान भटकाने वाला यह असहयोग आन्दोलन गांधी ने 1 अगस्त 1920 को ही आरम्भ किया था ।
कलकत्ता अधिवेशन में गांधी ने प्रस्ताव पेश करते हुए कहा कि, “अंग्रेज़ी सरकार शैतान है, जिसके साथ सहयोग सम्भव नहीं, अंग्रेजी सरकार को अपनी भूलों पर कोई दु:ख नहीं है, अत: हम कैसे स्वीकार कर सकते हैं कि नवीन व्यवस्थापिकाएँ हमारे स्वराज्य का मार्ग प्रशस्त करेंगी। स्वराज्य की प्राप्ति के लिए हमारे द्वारा प्रगतिशील अहिंसात्मक असहयोग की नीति अपनाई जानी चाहिए।”
गांधी जी के इस प्रस्ताव का विरोध करते हुए उस समय ही ऐनी बेसेंट ने कहा कि, “यह प्रस्ताव भारतीय स्वतंत्रता को सबसे बड़ा धक्का है।” गांधी जी के इस विरोध तथा समाज और सभ्य जीवन के विरुद्ध संघर्ष की घोषणा का सुरेंद्रनाथ बनर्जी , मदनमोहन मालवीय ,देशबंधु चितरंजन दास, विपिन चंद्र पाल, जिन्ना, शंकर नायर, सर नारायण चन्द्रावरकर ने प्रारम्भ में विरोध किया। फिर भी अली बन्धुओं एवं मोतीलाल नेहरू, जवाहरलाल नेहरू के समर्थन से यह प्रस्ताव “कांग्रेस” ने स्वीकार कर लिया यही वह क्षण था, जहाँ से भारत हेतु भयावह मुस्लिम व अंग्रेजियत के तुष्टिकारक ‘गांधी व नेहरू मिश्रित युग’ की शुरुआत हुई थी।
दिसम्बर1920 में नागपुर में आयोजित कांग्रेस अधिवेशन में असहयोग प्रस्ताव से सम्बन्धित लाला लाजपत राय एवं चितरंजन दास ने अपना विरोध वापस ले लिया तो गांधी ने नागपुर में कांग्रेस के पुराने लक्ष्य अंग्रेज़ी साम्राज्य के अंतर्गत ‘स्वशासनीय स्वराज’ के स्थान पर अंग्रेज़ों के अंतर्गत ‘स्वराज्य’ का नया लक्ष्य घोषित किया साथ ही गांधी जी ने यह भी कहा कि यदि आवश्यक हुआ तो स्वराज्य के लक्ष्य को अंग्रेज़ी साम्राज्य से बाहर भी प्राप्त किया जा सकता है तब जिन्ना और चौधरी खलीक उज्जमां के चेलों और मोहम्मद अली जौहर ने ‘स्वराज्य’ के उद्देश्य का विरोध इस आधार पर किया कि उसमें यह स्पष्ट नहीं किया गया था कि अंग्रेजी साम्राज्य से कोई सम्बन्ध बनाये रखा जायेगा या नहीं ,, ऐनी बेसेन्ट, मोहम्मद अली जौहर, जिन्ना एवं लाल, बाल, पाल सभी गांधी जी के प्रस्ताव से असंतुष्ट होकर कांग्रेस छोड़कर चले गए।
नागपुर अधिवेशन का ऐतिहासिक दृष्टिकोण से महत्त्व इसलिए है, क्योंकि यहाँ पर वैधानिक साधनों के अंतर्गत स्वराज्य प्राप्ति के लक्ष्य को त्यागकर सरकार के विरोध करने की बात रूपी झांसे को स्वीकार किया गया।
इसी बीच 5 फ़रवरी 1922 को देवरिया ज़िले के चौरी चौरा नामक स्थान पर पुलिस ने जबरन एक जुलूस को रोकना चाहा, इसके फलस्वरूप जनता ने क्रोध में आकर थाने में आग लगा दी, जिसमें एक थानेदार एवं 21 सिपाहियों की मृत्यु हो गई। इस घटना से गांधी जी स्तब्ध रह गए। 12 फ़रवरी 1922 को बारदोली में हुई कांग्रेस की बैठक में असहयोग आन्दोलन को समाप्त करने के निर्णय के बारे में गांधी जी ने यंग इंडिया (जी हाँ यंग इंडिया जो अब नई कंपनियों के मातहती में राहुल गांधी, प्रियंका गांधी व राबर्ट वाड्रे की व्यक्तिगत संपत्तियों में शुमार है और जिस की अचल संपत्तियों को लेकर उन पर एक मामूली व खबरों से जानबूझकर दूर रखा गया केस भी चल रहा है) में लिखा था कि-
“आन्दोलन को हिंसक होने से बचाने के लिए मैं हर एक अपमान, हर एक यातनापूर्ण बहिष्कार, यहाँ तक की मौत भी सहने को तैयार हूं। ”
(कितना बडा झूठ और कितना भयावह नाटक करके भारत व हिंदुओं को धोखा दिया गया, मोपला कांड पर हिंसक चुप्पी साधे हुऐ यह व्याभिचारी महात्मा 21 ब्रिटिशराज के सिपाहियों की मौत व थाने की आग पर हिल कर आंदोलन बंद कर दिया…??
नहीं,,, कारण तो वो थे जो मैनें आपको उपर बताये हैं, यह आंदोलन गले पड रहा था तो किसी ना किसी रूप से बंद करना ही था)
असहयोग आन्दोलन के स्थगन पर मोतीलाल नेहरू ने कहा था कि –
“यदि कन्याकुमारी के एक गाँव ने अहिंसा का पालन नहीं किया, तो इसकी सज़ा हिमालय के एक गाँव को क्यों मिलनी चाहिए।”
अपनी प्रतिक्रिया में नेताजी सुभाषचंद्र बोस ने कहा था कि –
“ठीक इस समय, जबकि जनता का उत्साह चरमोत्कर्ष पर था, वापस लौटने का आदेश देना राष्ट्रीय दुर्भाग्य से कम नहीं”
आन्दोलन के स्थगित करने का प्रभाव गांधी जी की लोकप्रियता पर पड़ा, 13 मार्च 1922 को गांधी जी को गिरफ़्तार किया गया तथा न्यायाधीश ब्रूम फ़ील्ड ने गांधी जी को असंतोष भड़काने के अपराध में 6 वर्ष की सुविधाओं सहित क़ैद की सज़ा सुनाई किंतु ‘स्वास्थ्य सम्बन्धी कारणों’ से उन्हें 5 फ़रवरी 1924 को रिहा कर दिया गया।