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Monday, December 15, 2014

SWAMI DAYANAD SARASWATI AND PURIFICATION OF CONVERTED HINDUS BACK TO HINDUISM

आधुनिक भारत में "शुद्धि" के सर्वप्रथम प्रचारक स्वामी दयानंद थे तो उसे आंदोलन के रूप में स्थापित कर सम्पूर्ण हिन्दू समाज को संगठित करने वाले स्वामी श्रद्धानन्द थे। सबसे पहली शुद्धि स्वामी दयानंद ने अपने देहरादून प्रवास के समय एक मुस्लमान युवक की करी थी जिसका नाम अलखधारी रखा गया था। स्वामी जी के निधन के पश्चात पंजाब में विशेष रूप से मेघ, ओड और रहतिये जैसे निम्न और पिछड़ी समझी जाने वाली जातियों का शुद्धिकरण किया गया। इसका मुख्य उद्देश्य उनकी पतित, तुच्छ और निकृष्ट अवस्था में सामाजिक एवं धार्मिक सुधार करना था।

आर्यसमाज द्वारा चलाये गए शुद्धि आंदोलन का व्यापक स्तर पर विरोध हुआ क्यूंकि हिन्दू जाति सदियों से कूपमण्डूक मानसिकता के चलते सोते रहना अधिक पसंद करती थी। आगरा और मथुरा के समीप मलकाने राजपूतों का निवास था जिनके पूर्वजो ने एक आध शताब्दी पहले ही इस्लाम की दीक्षा ली थी। मलकानों के रीती रिवाज़ अधिकतर हिन्दू थे और चौहान, राठोड़ आदि गोत्र के नाम से जाने जाते थे। 1922 में क्षत्रिय सभा मलकानों को राजपूत बनाने का आवाहन कर सो गई मगर मुसलमानों में इससे पर्याप्त चेतना हुई एवं उनके प्रचारक गावं गावं घूमने लगे। यह निष्क्रियता स्वामी श्रद्धानन्द की आँखों से छिपी नहीं रही। 11 फरवरी 1923 को भारतीय शुद्धि सभा की स्थापना करते समय स्वामी श्रद्धानन्द द्वारा शुद्धि आंदोलन आरम्भ किया गया। स्वामी जी द्वारा इस अवसर पर कहा गया की जिस धार्मिक अधिकार से मुसलमानों को तब्लीग़ और तंज़ीम का हक हैं उसी अधिकार से उन्हें अपने बिछुड़े भाइयों को वापिस अपने घरों में लौटाने का हक हैं। आर्यसमाज ने 1923 के अंत तक 30 हजार मलकानों को शुद्ध कर दिया।
मुसलमानों में इस आंदोलन के विरुद्ध प्रचंड प्रतिकिया हुई। जमायत-उल-उलेमा ने बम्बई में 18 मार्च, 1923 को मीटिंग कर स्वामी श्रद्धानन्द एवं शुद्धि आंदोलन की आलोचना कर निंदा प्रस्ताव पारित किया। स्वामी जी की जान को खतरा बताया गया मगर उन्होंने "परमपिता ही मेरा रक्षक हैं, मुझे किसी अन्य रखवाले की जरुरत नहीं हैं" कहकर निर्भीक सन्यासी होने का प्रमाण दिया। कांग्रेस के श्री राजगोपालाचारी, मोतीलाल नेहरू एवं पंडित जवाहरलाल नेहरू ने धर्मपरिवर्तन को व्यक्ति का मौलिक अधिकार मानते हुए तथा शुद्धि के औचित्य करते हुए भी तत्कालीन राष्ट्रीय आंदोलन के सन्दर्भ में उसे असामयिक बताया। शुद्धि सभा गठित करने एवं हिन्दुओं को संगठित करने का स्वामी जी का ध्यान 1912 में उनके कलकत्ता प्रवास के समय आकर्षित हुआ था जब कर्नल यू. मुखर्जी ने 1911 की जनगणना के आधार पर यह सिद्ध किया की अगले 420 वर्षों में हिन्दुओं की अगर इसी प्रकार से जनसँख्या कम होती गई तो उनका अस्तित्व मिट जायेगा। इस समस्या से निपटने के लिए हिन्दुओं का संगठित होना आवश्यक था और संगठित होने के लिए स्वामी जी का मानना था कि हिन्दू समाज को अपनी दुर्बलताओं को दूर करना चाहिए। सामाजिक विषमता, जातिवाद, दलितों से घृणा, नारी उत्पीड़न आदि से जब तक हिन्दू समाज मुक्ति नहीं पा लेगा तब तक हिन्दू समाज संगठित नहीं हो सकता।

इसी बीच हिन्दू और मुसलमानों के मध्य खाई बराबर बढ़ती गई। 1920 के दशक में भारत में भयंकर हिन्दू-मुस्लिम दंगे हुए। केरल के मोपला, पंजाब के मुल्तान, कोहाट, अमृतसर, सहारनपुर आदि दंगों ने अंतर और बढ़ा दिया। इस समस्या पर विचार करने के लिए 1923 में दिल्ली में कांग्रेस ने एक बैठक का आयोजन किया जिसकी अध्यक्षता स्वामी जी को करनी पड़ी। मुसलमान नेताओं ने इस वैमनस्य का कारण स्वामी जी द्वारा चलाये गए शुद्धि और हिन्दू संगठन को बताया। स्वामी जी ने सांप्रदायिक समस्या का गंभीर और तथ्यात्मक विश्लेषण करते हुए दंगों का कारण मुसलमानों की संकीर्ण सांप्रदायिक सोच बताया। इसके पश्चात भी स्वामी जी ने कहा की मैं आगरा से शुद्धि प्रचारकों को हटाने को तैयार हूँ अगर मुस्लिम उलेमा अपने तब्लीग के मौलवियों को हटा दे। परन्तु मुस्लिम उलेमा न माने।
इसी बीच स्वामी जी को ख्वाजा हसन निज़ामी द्वारा लिखी पुस्तक 'दाइए-इस्लाम' पढ़कर हैरानी हुई। इस पुस्तक को चोरी छिपे केवल मुसलमानों में उपलब्ध करवाया गया था। स्वामी जी के एक शिष्य ने अफ्रीका से इसकी प्रति स्वामी जी को भेजी थी। इस पुस्तक में मुसलमानों को हर अच्छे-बुरे तरीके से हिन्दुओं को मुस्लमान बनाने की अपील निकाली गई थी। हिन्दुओं के घर-मुहल्लों में जाकर औरतों को चूड़ी बेचने से, वैश्याओं को ग्राहकों में, नाई द्वारा बाल काटते हुए इस्लाम का प्रचार करने एवं मुस्लमान बनाने के लिए कहा गया था। विशेष रूप से 6 करोड़ दलितों को मुसलमान बनाने के लिए कहा गया था जिससे मुसलमान जनसँख्या में हिन्दुओं की बराबर हो जाये और उससे राजनैतिक अधिकारों की अधिक माँग करी जा सके। स्वामी जी ने निज़ामी की पुस्तक का पहले "हिन्दुओं सावधान, तुम्हारे धर्म दुर्ग पर रात्रि में छिपकर धावा बोला गया हैं" के नाम से अनुवाद प्रकाशित किया एवं इसका उत्तर "अलार्म बेल अर्थात खतरे का घंटा" के नाम से प्रकाशित किया। इस पुस्तक में स्वामी जी ने हिन्दुओं को छुआ छूत का दमन करने और समान अधिकार देने को कहा जिससे मुस्लमान लोग दलितों को लालच भरी निगाहों से न देखे। इस बीच कांग्रेस के काकीनाडा के अध्यक्षीय भाषण में मुहम्मद अली ने 6 करोड़ अछूतों को आधा आधा हिन्दू और मुसलमान के बीच बाँटने की बात कहकर आग में घी डालने का कार्य किया।
महात्मा गांधी भी स्वामी जी के गंभीर एवं तार्किक चिंतन को समझने में असमर्थ रहे एवं उन्होंने यंग इंडिया के 29 मई, 1925 के अंक में 'हिन्दू मुस्लिम-तनाव: कारण और निवारण' शीर्षक से एक लेख में स्वामी जी पर अनुचित टिप्पणी कर डाली। उन्होंने लिखा
"स्वामी श्रद्धानन्द जी भी अब अविश्वास के पात्र बन गये हैं। मैं जानता हूँ की उनके भाषण प्राय: भड़काने वाले होते हैं। दुर्भाग्यवश वे यह मानते हैं कि प्रत्येक मुसलमान को आर्य धर्म में दीक्षित किया जा सकता हैं, ठीक उसी प्रकार जिस प्रकार अधिकांश मुसलमान सोचते हैं कि किसी-न-किसी दिन हर गैरमुस्लिम इस्लाम को स्वीकार कर लेगा। श्रद्धानन्द जी निडर और बहादुर हैं। उन्होंने अकेले ही पवित्र गंगातट पर एक शानदार ब्रहचर्य आश्रम (गुरुकुल) खड़ा कर दिया हैं। किन्तु वे जल्दबाज हैं और शीघ्र ही उत्तेजित हो जाते हैं। उन्हें आर्यसमाज से ही यह विरासत में मिली हैं।" स्वामी दयानंद पर आरोप लगाते हुए गांधी जी लिखते हैं "उन्होंने संसार के एक सर्वाधिक उदार और सहिष्णु धर्म को संकीर्ण बना दिया। "
गांधी जी के लेख पर स्वामी जी ने प्रतिक्रिया लिखी की "यदि आर्यसमाजी अपने प्रति सच्चे हैं तो महात्मा गांधी या किसी अन्य व्यक्ति के आरोप और आक्रमण भी आर्यसमाज की प्रवृतियों में बाधक नहीं बन सकते। "
स्वामी जी सधे क़दमों से अपने लक्ष्य की ओर बढ़ते रहे। एक ओर मौलाना अब्दुल बारी द्वारा दिए गए बयान जिसमें इस्लाम को न मानने वालो को मारने की वकालात की गई थी के विरुद्ध महात्मा गांधी जी कि प्रतिक्रिया पक्षपातपूर्ण थी। गांधी जी अब्दुल बारी को 'ईश्वर का सीदा-सादा बच्चा' और 'एक दोस्त' के रूप में सम्बोधित करते हैं जबकि स्वामी जी द्वारा कि गई इस्लामी कट्टरता की आलोचना उन्हें अखरती हैं। गांधी जी ने कभी भी मुसलमानों कि कट्टरता की आलोचना करी और न ही उनके दोषों को उजागर किया। इसके चलते कट्टरवादी सोच वाले मुसलमानों का मनोबल बढ़ता गया एवं सत्य एवं असत्य के मध्य वे भेद करने में असफल हो गए। मुसलमानों में स्वामी जी के विरुद्ध तीव्र प्रचार का यह फल निकला की एक मतान्ध व्यक्ति अब्दुल रशीद ने बीमार स्वामी श्रद्धानन्द को गोली मार दी उनका तत्काल देहांत हो गया।
स्वामी जी का उद्देश्य विशुद्ध धार्मिक था नाकि राजनैतिक था। हिन्दू समाज में समानता उनका लक्ष्य था। अछूतोद्धार, शिक्षा एवं नारी जाति में जागरण कर वह एक महान समाज की स्थापना करना चाहते थे। आज आर्यसमाज का यह कर्त्तव्य हैं कि उनके द्वारा छोड़े गए शुद्धि चक्र को पुन: चलाये। यह तभी संभव होगा जब हम मन से दृढ़ निश्चय करे की आज हमें जातिवाद को मिटाना हैं और हिन्दू जाति को संगठित करना हैं।

डॉ विवेक आर्य
स्वामी दयानंद फॉउन्डेशन, दिल्ली   

Sunday, October 26, 2014

LOVE JIHAD USED BY TERRORIST IN INDIA


भारतीय लड़कियों को प्यार में फना करने आये आतंकीKolkata, Oct 25: Another modus operandi of the Jamaat-ul-Mujahideen Bangladesh that has come to light is that they were planning on settling down in India with a view of making West Bengal it's permanent headquarters. The conversation between mufazzal and the rest of the members who are being questioned by the NIA suggests that they were planning on getting married to local men and women in a bid to settle down in West Bengal.




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