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Sunday, December 2, 2018

राजा महेन्द्र प्रताप सिंह-अखंड भारत के प्रथम राष्ट्रपति

आजाद हिंद सरकार के संस्थापक महान स्वतन्त्रता सेनानी राजा महेंद्र प्रताप सिंह(1 दिसम्बर 1886-29 अप्रैल1979) जयंती
राजा महेंद्र प्रताप का जन्म मुरसान के राजा बहादुर घनश्याम सिंह के यहाँ खड्ग सिंह के रूप में हुआ।
बाद में उन्हें #हाथरस के राजा हरिनारायण सिंह ने गोद ले लिया व उनका नाम महेंद्र प्रताप रखा।
उन्होने #निर्बल समाचार पत्र की स्थापना की व भारतीयों में स्वतन्त्रता के प्रति जागरूकता लाने का काम किया।
वे विदेश गए कई देशों से भारत की स्वतंत्रता के लिए सहयोग मांगा और इसके बाद #काबुलअफगानिस्तान में देश की प्रथम #आजाद_हिंद_सरकार की स्थापना की।
वहां आजाद हिंद फौज बनाई और अखंड भारत के प्रथम राष्ट्रपति के मानक पद पर आसीन हुए। लेकिन सु वे वहां कामयाब नहीं हो सके।
अंग्रेजों ने इनके #सिर पर इनमे रख दिया था व इसके बाद उनका राज्य हड़प लिया था।
इसके बाद वे दुनिया भर के देशों में समर्थन के लिए घूमे जापान में उन्होंने एग्जेक्युटिव बोर्ड ऑफ इंडिया की स्थापना की और रास बिहारी बोस उनके उपाध्यक्ष थे।
इस दौरान उन्हें
जापान से मार्को पोलो, जर्मनी ने ऑर्डर ऑफ रेड ईगल की उपाधि दी थी। वे चीन की संसद में भाषण देने वाले पहले भारतीय थे।
वे दलाई लामा से भी मिले थे।
बहुत से देशों में पहुँचे व भारतीयों पर हो रहे अत्याचार के बारे में विश्व को जागृत किया।दुनियाभर में फैले भारतीयों व उनके संगठनों को एक किया व फौज के निर्माण के।लिए प्रोत्साहित किया
उन्होंने ग़दर पार्टी के साथ मिलकर भी आजादी के लिए कार्य किया व फौज तैयार करने के लिए सारी योजनाएं बना ली।
फिर जापान से सब तैयार कर लिया लेकिन ऐन मौके पर जापानी मनमानी करते दिखे और अपमानजनक शर्ते रखने लगे तो राजा साहब ने उन्हें फटकार दिया और कहा कि वे अपने अनुसार कार्य करेंगे वे देश को आजाद कराने के लिए लड़ रहे हैं न कि फिर से गुलाम करने के लिए। इस पर जापानी बिफर पड़े उन्हके नजरबंद कर दिया। उसके बाद राजा साहब की सहमति से रास बिहारी बोस जी अध्यक्ष बने। इसी बोर्ड का नाम योजना के हिसाब से आजाद हिंद फौज रखा गया और दूसरी आजाद हिंद फौज तैयार हुई। इस तरह यह फौज एक दिन में नहीं बनी थी बल्कि राजा साहब के पूरे जीवनकाल का तप थी। उसके कुछ समय बाद आजाद हिंद फौज की बागडोर संभालने के लिए नेताजी को बुलाया गया था।
वे विश्वयुद्ध में अंग्रेजो का साथ देने के विरुद्ध थे और उन्होंने इस पर गांधी जी का विरोध किया।
उन्होंने विश्व मैत्री संघ की स्थापना की,उसी तर्ज पर आज uno बनने की शुरुआत हुई थी।
वे 32 सालों तक देश के लिए अपना परिवार छोड़कर दुनिया भर की खाक छानते रहे।
जब वे वापिस भारत पहुंचे तो #सरदार_पटेल जी की बेटी #मणिकाबेन उन्हें हवाई अड्डे पर लेने पहुंची थी।
1952 में उन्हें #नोबल पुरस्कार के लिए भी नामित किया गया था।
1909 में वृन्दावन में #प्रेम महाविद्यालय की स्थापना की जो तकनीकी शिक्षा के लिए भारत में प्रथम केन्द्र था। मदनमोहन मालवीय इसके उद्धाटन समारोह में उपस्थित रहे। ट्रस्ट का निर्माण हुआ-अपने पांच गाँव, वृन्दावन का राजमहल और चल संपत्ति का दान दिया। राजा साहब #श्रीकृष्ण भक्त थे उन्ही के नाम पर उन्होंने देश का यह प्रथम तकनीकी प्रेम महाविद्दालय खोला था।उन्होंने अपनी आधी सम्पति इस विद्यालय को दान कर दी थी।
बनारस #हिंदू विश्वद्यालय, अलीगढ़ विद्द्यालय, #कायस्थ पाठशाला के लिए जमीन दान में दी। हिन्दू विश्वविद्यालय के बोर्ड के #सदस्य भी रहे।
उनकी दृष्टि विशाल थी। वे जाति, वर्ग, रंग, देश आदि के द्वारा मानवता को विभक्त करना घोर अन्याय, पाप और अत्याचार मानते थे। ब्राह्मण-भंगी को भेद बुद्धि से देखने के पक्ष में नहीं थे।
वृन्दावन में ही एक विशाल फलवाले उद्यान को जो 80 एकड़ में था, 1911 में #आर्य_प्रतिनिधि_सभा उत्तर प्रदेश को दान में दे दिया। जिसमें आर्य समाज गुरुकुल है और राष्ट्रीय विश्वविद्यालय भी है।
मथुरा में किसानों के लिए #बैंक खोला, अपने राज्य के गांवों में प्रारंभिक #पाठशालाएंखुलवाई।
उनकी राष्ट्रवादी सोच के कारण कांग्रेस के नेता उन पर RSS का #एजेंट होने का आरोप लगाते रहते थे।
उन्होंने चुनावों में बड़े बड़े दिग्गजों को धूल चटा दी थी।
उन्होंने निर्दलीय उम्मीदवार होते हुए भी भारत के पूर्व प्रधानमंत्री #अटल बिहारी वाजपेयी जी की जमानत जब्त करवा दी थी।
उन्होंने छुआछूत को कम करने के लिए दलितों के साथ एक राजा होते हुए भी खाना खाया जो उस समय एक असामान्य बात थी।उन्होके #चर्मकार समाज को जाटव की उपाधि दी थी।
उन्होंने अपनी सारी #संपत्ति देश और शिक्षा के लिए दान कर दी थी।
अपनी अफगानिस्तान यात्रा के दौरान प्रधानमंत्री मोदी जी ने भी अपने भाषण में इनको नमन किया था।
ऐसे महान दानवीर स्वतन्त्रता सेनानी राष्ट्रवादी समाज सुधारक राजा महेंद्र प्रताप को उनकी जयंती पर उन्हें कोटि कोटि नमन।

Sunday, July 24, 2016

भारत पर इस्लामिक आक्रमण

–भारत पर इस्लामिक आक्रमण——
सन 632 ईस्वी में मौहम्मद की मृत्यु के उपरांत छ: वर्षों के अंदर ही अरबों ने सीरिया,मिस्र,ईरान,इराक,उत्तरी अफ्रीका,स्पेन को जीत लिया था और उनका इस्लामिक साम्राज्य फ़्रांस के लायर नामक स्थान से लेकर भारत के काबुल नदी तक पहुँच गया था,एक दशक के भीतर ही उन्होंने लगभग समूचे मध्य पूर्व का इस्लामीकरण कर दिया था और इस्लाम की जोशीली धारा स्पेन,फ़्रांस में घुसकर यूरोप तक में दस्तक दे रही थी,अब एशिया में चीन और भारतवर्ष ही इससे अछूते थे.
सन 712 ईस्वी में खलीफा के आदेश पर मुहम्मद बिन कासिम के नेत्रत्व में भारत के सिंध राज्य पर हमला किया गया जिसमे सिंध के राजा दाहिर की हार हुई और सिंध पर अरबों का अधिकार हो गया
अरबों ने इसके बाद भारत के भीतरी इलाको में राजस्थान,गुजरात तक हमले किये,पर प्रतिहार राजपूत नागभट और बाप्पा रावल गुहिलौत ने संयुक्त मौर्चा बनाकर अरबों को करारी मात दी,अरबों ने चित्तौड के मौर्य,वल्लभी के मैत्रक,भीनमाल के चावड़ा,साम्भर के चौहान राजपूत, राज्यों पर भी हमले किये मगर उन्हें सफलता नहीं मिली,

दक्षिण के राष्ट्रकूट और चालुक्य शासको ने भी अरबो के विरुद्ध संघर्ष में सहायता की,कुछ समय पश्चात् सिंध पुन: सुमरा और सम्मा राजपूतो के नेत्रत्व में स्वाधीन हो गया और अरबों का राज बहुत थोड़े से क्षेत्र पर रह गया.
किसी मुस्लिम इतिहासकार ने लिखा भी है कि “इस्लाम की जोशीली धारा जो हिन्द को डुबाने आई थी वो सिंध के छोटे से इलाके में एक नाले के रूप में बहने लगी,अरबों की सिंध विजय के कई सौ वर्ष बाद भी न तो यहाँ किसी भारतीय ने इस्लाम धर्म अपनाया है न ही यहाँ कोई अरबी भाषा जानता है”
अरब तो भारत में सफल नहीं हुए पर मध्य एशिया से तुर्क नामक एक नई शक्ति आई जिसने कुछ समय पूर्व ही बौद्ध धर्म छोडकर इस्लाम धर्म ग्रहण किया था,
अल्पतगीन नाम के तुर्क सरदार ने गजनी में राज्य स्थापित किया,फिर उसके दामाद सुबुक्तगीन ने काबुल और जाबुल के हिन्दू शाही जंजुआ राजपूत राजा जयपाल पर हमला किया,
जंजुआ राजपूत वंश भी तोमर वंश की शाखा है और अब अधिकतर पाकिस्तान के पंजाब में मिलते हैं और अब मुस्लिम हैं कुछ थोड़े से हिन्दू जंजुआ राजपूत भारतीय पंजाब में भी मिलते हैं ।
उस समय अधिकांश अफगानिस्तान(उपगणस्तान),और समूचे पंजाब पर जंजुआ शाही राजपूतो का शासन था,
सुबुक्तगीन के बाद उसके पुत्र महमूद गजनवी ने इस्लाम के प्रचार और धन लूटने के उद्देश्य से भारत पर सन 1000 ईस्वी से लेकर 1026 ईस्वी तक कुल 17 हमले किये,जिनमे पंजाब का शाही जंजुआ राजपूत राज्य पूरी तरह समाप्त हो गया और उसने सोमनाथ मन्दिर गुजरात, कन्नौज, मथुरा,कालिंजर,नगरकोट(कटोच),थानेश्वर तक हमले किये और लाखो हिन्दुओं की हत्याएं,बलात धर्मपरिवर्तन,लूटपाट हुई,
ऐसे में दिल्ली के तंवर/तोमर राजपूत वंश ने अन्य राजपूतो के साथ मिलकर इसका सामना करने का निश्चय किया,
दिल्लीपति राजा जयपालदेव तोमर(1005-1021)—–
गज़नवी वंश के आरंभिक आक्रमणों के समय दिल्ली-थानेश्वर का तोमर वंश पर्याप्त समुन्नत अवस्था में था।महमूद गजनवी ने जब सुना कि थानेश्वर में बहुत से हिन्दू मंदिर हैं और उनमे खूब सारा सोना है तो उन्हें लूटने की लालसा लिए उसने थानेश्वर की और कूच किया,थानेश्वर के मंदिरों की रक्षा के लिए दिल्ली के राजा जयपालदेव तोमर ने उससे कड़ा संघर्ष किया,किन्तु दुश्मन की अधिक संख्या होने के कारण उसकी हार हुई,तोमरराज ने थानेश्वर को महमूद से बचाने का प्रयत्न भी किया, यद्यपि उसे सफलता न मिली।और महमूद ने थानेश्वर में जमकर रक्तपात और लूटपाट की.
दिल्लीपति राजा कुमार देव तोमर(1021-1051)—-
सन् 1038 ईo (संo १०९५) महमूद के भानजे मसूद ने हांसी पर अधिकार कर लिया। और थानेश्वर को हस्तगत किया। दिल्ली पर आक्रमण की तैयारी होने लगी। ऐसा प्रतीत होता था कि मुसलमान दिल्ली राज्य की समाप्ति किए बिना चैन न लेंगे।किंतु तोमरों ने साहस से काम लिया।
गजनी के सुल्तान को मार भगाने वाले कुमारपाल तोमर ने दुसरे राजपूत राजाओं के साथ मिलकर हांसी और आसपास से मुसलमानों को मार भगाया.
अब भारत के वीरो ने आगे बढकर पहाड़ो में स्थित कांगड़ा का किला जा घेरा जो तुर्कों के कब्जे में चला गया था,चार माह के घेरे के बाद नगरकोट(कांगड़ा)का किला जिसे भीमनगर भी कहा जाता है को राजपूत वीरो ने तुर्कों से मुक्त करा लिया और वहां पुन:मंदिरों की स्थापना की.
लाहौर का घेरा——
इ सके बाद कुमारपाल देव तोमर की सेना ने लाहौर का घेरा डाल दिया,वो भारत से तुर्कों को पूरी तरह बाहर निकालने के लिए कटिबद्ध था.इतिहासकार गांगुली का अनुमान है कि इस अभियान में राजा भोज परमार,कर्ण कलचुरी,राजा अनहिल चौहान ने भी कुमारपाल तोमर की सहायता की थी.किन्तु गजनी से अतिरिक्त सेना आ जाने के कारण यह घेरा सफल नहीं रहा.
नगरकोट कांगड़ा का द्वितीय घेरा(1051 ईस्वी)—–
गजनी के सुल्तान अब्दुलरशीद ने पंजाब के सूबेदार हाजिब को कांगड़ा का किला दोबारा जीतने का निर्देश दिया,मुसलमानों ने दुर्ग का घेरा डाला और छठे दिन दुर्ग की दीवार टूटी,विकट युद्ध हुआ और इतिहासकार हरिहर दिवेदी के अनुसार कुमारपाल देव तोमर बहादुरी से लड़ता हुआ वीरगति को प्राप्त हुआ.अब रावी नदी गजनी और भारत के मध्य की सीमा बन गई.
मुस्लिम इतिहासकार बैहाकी के अनुसार “राजपूतो ने इस युद्ध में प्राणप्रण से युद्ध किया,यह युद्ध उनकी वीरता के अनुरूप था,अंत में पांच सुरंग लगाकर किले की दीवारों को गिराया गया,जिसके बाद हुए युद्ध में तुर्कों की जीत हुई और उनका किले पर अधिकार हो गया.”
इस प्रकार हम देखते हैं कि दिल्लीपति कुमारपाल देव तोमर एक महान नायक था उसकी सेना ने न केवल हांसी और थानेश्वर के दुर्ग ही हस्तगत न किए; उसकी वीर वाहिनी ने काँगड़े पर भी अपनी विजयध्वजा कुछ समय के लिये फहरा दी। लाहौर भी तँवरों के हाथों से भाग्यवशात् ही बच गया।
दिल्लीपती राजाअनंगपाल-II ( 1051-1081 )—–
उनके समय तुर्क इबराहीम ने हमला किया जिसमें अनगपाल द्वितीय खुद युद्ध लड़ने गये,,,, युद्ध में एक समय आया कि तुर्क इबराहीम ओर अनगपाल कि आमना सामना हो गया। अनंगपाल ने अपनी तलवार से इबराहीम की गर्दन ऊडा दि थी। एक राजा द्वारा किसी तुर्क बादशाह की युद्ध में गर्दन उडाना भी एक महान उपलब्धि है तभी तो अनंगपाल की तलवार पर कई कहावत प्रचलित हैं।
जहिं असिवर तोडिय रिउ कवालु, णरणाहु पसिद्धउ अणंगवालु ||
वलभर कम्पाविउ णायरायु, माणिणियण मणसंजनीय ||
The ruler Anangapal is famous; he can slay his enemies with his sword. The weight (of the Iron pillar) caused the Nagaraj to shake.
तुर्क हमलावर मौहम्मद गौरी के विरुद्ध तराइन के युद्ध में तोमर राजपूतो की वीरता—
दिल्लीपति राजा चाहाडपाल/गोविंदराज तोमर (1189-1192)—–
गोविन्दराज तोमर पृथ्वीराज चौहान के साथ मिलकर तराइन के दोनों युद्धों में लड़ें,
पृथ्वीराज रासो के अनुसार तराईन के पहले युद्ध में मौहम्मद गौरी और गोविन्दराज तोमर का आमना सामना हुआ था,जिसमे दोनों घायल हुए थे और गौरी हारकर भाग रहा था। भागते हुए गौरी को धीरसिंह पुंडीर ने पकडकर बंदी बना लिया था। जिसे उदारता दिखाते हुए पृथ्वीराज चौहान ने छोड़ दिया। हालाँकि गौरी के मुस्लिम इतिहासकार इस घटना को छिपाते हैं।
पृथ्वीराज चौहान के साथ मिलकर गोरी के साथ युद्ध किया,तराईन दुसरे युद्ध मे मारे गए.
तेजपाल द्वितीय (1192-1193 ई)——-
दिल्ली का अन्तिम तोमर राजा,जिन्होंने स्वतन्त्र 15 दिन तक शासन किया,इन्ही के पास पृथ्वीराज चौहान की रानी(पुंडीर राजा चन्द्र पुंडीर की पुत्री) से उत्पन्न पुत्र रैणसी उर्फ़ रणजीत सिंह था,तेजपाल ने बची हुई सेना की मदद से गौरी का सामना करने की गोपनीय रणनीति बनाई,युद्ध से बची हुई कुछ सेना भी उसके पास आ गई थी.
मगर तुर्कों को इसका पता चल गया और कुतुबुद्दीन ने दिल्ली पर आक्रमण कर हमेशा के लिए दिल्ली पर कब्जा कर लिया।इस हमले में रैणसी मारे गए.
इसके बाद भी हांसी में और हरियाणा में अचल ब्रह्म के नेत्रत्व में तुर्कों से युद्ध किया गया,इस युद्ध में मुस्लिम इतिहासकार हसन निजामी किसी जाटवान नाम के व्यक्ति का उल्लेख करता है जिसे आजकल हरियाणा के जाट बताते हैं जबकि वो राजपूत थे और संभवत इस क्षेत्र में आज भी पाए जाने वाले तंवर/तोमर राजपूतो की जाटू शाखा से थे,
इस प्रकार हम देखते हैं कि दिल्ली के तोमर राजवंश ने तुर्कों के विरुद्ध बार बार युद्ध करके महान बलिदान दिए किन्तु खेद का विषय है कि संभवत: कोई तोमर राजपूत भी दिल्लीपति कुमारपाल देव तोमर जैसे वीर नायक के बारे में नहीं जानता होगा जिसने राष्ट्र और धर्म की रक्षा के लिए अपने राज्य से आगे बढकर कांगड़ा,लाहौर तक जाकर तुर्कों को मार लगाई और अपना जीवन धर्मरक्षा के लिए न्योछावर कर दिया.
दिल्ली के तोमर राजवंश की वीरता को समग्र राष्ट्र की और से शत शत नमन.
सन्दर्भ—
1-राजेन्द्र सिंह राठौर कृत राजपूतो की गौरवगाथा पृष्ठ संख्या 113,116,117
2-डा० अशोक कुमार सिंह कृत सल्तनत काल में हिन्दू प्रतिरोध पृष्ठ संख्या 48,68,69,70
3-देवी सिंह मंडावा कृत सम्राट पृथ्वीराज चौहान पृष्ठ संख्या 94-98
4-दशरथ शर्मा कृत EARLY CHAUHAN DYNASTIES
5- महेंद्र सिंह तंवर खेतासर कृत तंवर/तोमर राजवंश का सांस्कृतिक एवम् राजनितिक इतिहास।
6-दशरथ शर्मा-लेक्चर्स ऑन राजपूत हिस्टरी एंड कल्चर (आर पी नोपानी भाषणमाला १९६९) प्रकाशक: मोतीलाल बनारसीदास, जवाहर नगर, दिल्ली
-BY Manisha Singh

Monday, April 18, 2016

वीरवर कल्ला जी राठौड़, Kalla ji rathod and Akbar

वीरवर कल्ला जी राठौड़ !!

आगरा के किले में अकबर का खास दरबार लगा हुआ था आज म्लेच्छ बादशाह अकबर बहुत खुश था, सयंत रूप से
आपस में हंसी- मजाक चल रहा था | तभी म्लेच्छ अकबर ने अनुकूल अवसर देख बूंदी के राजा भोज से कहा - "
राजा साहब हम चाहते है आपकी छोटी राजकुमारी की सगाई शाहजादा सलीम के साथ हो जाये |"
राजा भोज ने तो अपनी पुत्री किसी मलेच्छ को दे दे ऐसी कभी कल्पना भी नहीं की थी |
उसकी कन्या एक मलेच्छ के साथ ब्याही जाये उसे वह अपने हाड़ावंश
की प्रतिष्ठा के खिलाफ समझते थे | इसलिए राजा भोज ने मन ही मन निश्चय किया कि- वे अपनी पुत्री की सगाई शाहजादा सलीम के साथ
हरगिज नहीं करेंगे |
यदि एसा प्रस्ताव कोई और रखता तो राजा भोज उसकी जबान काट लेते पर ये प्रस्ताव रखने वाला भारत का क्रूर म्लेच्छ अकबर था जिसने छल कर के हिन्दू राजा महाराजा को बंदी बनाया है | राजा भोज से प्रति उत्तर सुनने के लिए म्लेच्छ अकबर ने अपनी निगाहें राजा भोज के चेहरे पर गड़ा दी | राजा भोज को कुछ ही क्षण में उत्तर देना था वे समझ नहीं पा रहे थे कि -बादशाह को क्या उत्तर दिया जाये | इसी उहापोह में उन्होंने सहायता के लिए दरबार में बैठे क्षत्रिय राजाओं व योद्धाओं पर दृष्टि डाली और उनकी नजरे "कल्ला जी राठौड़ "" पर जाकर ठहर गयी |
कल्ला जी राठौड़ राजा भोज की तरफ देखता हुआ अपनी भोंहों तक लगी मूंछों पर
निर्भीकतापूर्वक बल दे रहा था | | राजा भोज को अब उत्तर मिल चुका था उन्होंने म्लेच्छ अकबर से कहा - " जहाँपनाह
मेरी छोटी राजकुमारी की तो सगाई हो चुकी है |"
"किसके साथ ?" म्लेच्छ अकबर ने कड़क कर पूछा |
" जहाँपनाह मेरे साथ,बूंदी की छोटी राजकुमारी मेरी मांग है |"
अपनी मूंछों पर बल देते हुए कल्ला जी राठौड़ ने दृढ़ता के साथ कहा | यह सुनते ही सभी दरबारियों की नजरें कल्ला जी को देखने लगी इस तरह भरे दरबार में म्लेच्छ अकबर बादशाह के आगे मूंछों पर ताव देना अशिष्टता ही नहीं बादशाह का अपमान भी था। साले सूअर के पिल्ले(शहंशाह) की ।
म्लेच्छ अकबर भी समझ गया था कि ये कहानी अभी अभी घड़ी गयी है
पर चतुर म्लेच्छ अकबर बादशाह ने नीतिवश जबाब दिया _ "
फिर कोई बात नहीं |
हमें पहले मालूम होता तो हम ये प्रस्ताव ही नहीं रखते |" और दुसरे ही क्षण म्लेच्छ अकबर बादशाह ने वार्तालाप का विषय बदल दिया | यह घटना सभी दरबारियों के बीच चर्चा का विषय
बन गयी कई दरबारियों ने इस घटना के बाद के बाद म्लेच्छ अकबर बादशाह को कल्ला के खिलाफ उकसाया तो कईयों ने कल्ला जी राठौड़ को सलाह दी आगे से बादशाह के आगे मूंछें नीची करके जाना बादशाह तुमसे बहुत नाराज है |
पर कल्ला को उनकी किसी बात की परवाह नहीं थी |
लोगों की बातों के कारण दुसरे दिन जब कल्ला दरबार में हाजिर हुआ तो केसरिया वस्त्र (युद्ध कर मृत्यु के लिए तैयारी के प्रतीक )धारण किये हुए था | उसकी मूंछे आज और
भी ज्यादा तानी हुई थी | म्लेच्छ अकबर बादशाह उसके रंग ढंग देख समझ गया था और मन ही मन सोच रहा था -"
एसा बांका जवान बिगड़ बैठे तो क्या करदे |" दुसरे ही दिन कल्ला बिना छुट्टी लिए सीधा बूंदी की राजकुमारी हाड़ी को ब्याहने चला गया और उसके साथ फेरे लेकर आगरा के लिए रवाना हो गया | हाड़ी ने भी कल्ला के हाव-भाव देख और
आगरा किले में हुई घटना के बारे में सुनकर अनुमान लगा लिया था कि -उसका सुहाग ज्यादा दिन तक रहने वाला नहीं | सो उसने आगरा जाते
कल्ला को संदेश भिजवाया - " हे प्राणनाथ ! आज तो बिना मिले ही छोड़ कर आगरा पधार रहे है पर
स्वर्ग में साथ चलने का सौभाग्य
जरुर देना |" "अवश्य एसा ही होगा |" जबाब दे
कल्ला आगरा आ गया | उसके हाव-भाव देखकर म्लेच्छ अकबर बादशाह अकबर ने उसे काबुल के उपद्रव दबाने के लिए लाहौर भेज दिया ,लाहौर में उसे
केसरिया वस्त्र पहने देख एक मुग़ल सेनापति ने व्यंग्य से कहा - " कल्ला जी अब ये केसरिया वस्त्र धारण कर क्यों स्वांग बनाये हुए हो ?"
"राजपूत एक बार केसरिया धारण कर लेता है तो उसे बिना निर्णय के उतारता नहीं| यदि तुम में हिम्मत है तो उतरवा दो |" कल्ला ने कड़क कर
कहा | इसी बात पर विवाद हो गया ।और विवाद होने पर कल्ला ने उस मुग़ल सेनापति का एक झटके में सिर धड़ से अलग कर दिया और वहां से बागी हो सीधा बीकानेर आ पहुंचा | उस समय बादशाह के दरबार में रहने वाले प्रसिद्ध कवि बीकानेर के राजकुमार पृथ्वीराज राठौड़ जो इतिहास में पीथल के नाम से
प्रसिद्ध है बीकानेर आये हुए थे,कल्ला ने उनसे कहा -
"काकाजी मारवाड़ जा रहा हूँ वहां चंद्रसेन जी राठौड़ की अकबर के विरुद्ध सहायतार्थ युद्ध करूँगा |
आप मेरे मरसिया (मृत्यु गीत) बनाकर सुना दीजिये |" पृथ्वीराज जी ने कहा -"मरसिया तो मरने के उपरांत बनाये जाते है तुम तो अभी जिन्दा हो तुम्हारे मरसिया कैसे
बनाये जा सकते है।
"काकाजी आप मेरे मरसिया में जैसे युद्ध का वर्णन करेंगे मैं आपको वचन देता हूँ कि मैं उसी अनुरूप युद्ध में
पराक्रम दिखा कर वीरगति को प्राप्त
होवुंगा |" कल्ला ने दृढ निश्चय से कहा |
हालाँकि पृथ्वीराजजी के आगे ये एक विचित्र स्थिति थी । लेकिन कल्ला जी के जिद के सामने उन्हें मरसिया गीत बना कर गाना पडा और
कल्ला जी वही गीत गुनगुनाते हुए निकल पड़े जब वो मारवाड़ के सिवाने के तरफ जा रहे थे तभी उन्हें
सुचना मिली की अकबर की एक
सेना की टुकड़ी उनके मामा के सिरोही के सुल्तान देवड़ा पर आक्रमण करने जा रही है।
कल्ला जी उस सेना से बिच में ही भीड़ गुए और देखते ही देखते अकबर की उस टुकड़ी को बिच में ही ख़त्म कर दिया या यूँ कहलो चुन चुन
के ख़त्म कर दिया। जब ए बात अकबर को मालूम पड़ी तू उसने कल्ला जी दंडित करने के लिए
मोटा रजा उदयसिंह से कहा जो की जोधपुर के थे। और मोटाराजा उदयसिंह ने अपने दलबल के साथ
जाकर सिवाना पर आक्रमण किया जहाँ कल्ला अद्वितीय वीरता के साथ
लड़ते हुए वीरगति को प्राप्त हुआ | कहते है कि "कल्ला का लड़ते लड़ते सिर कट गया था फिर भी वह मारकाट मचाता रहा आखिर घोड़े पर
सवार उसका धड़ उसकी पत्नी हाड़ी के पास गया,उसकी पत्नी ने जैसे गंगाजल के छींटे उसके धड़ पर डाले उसी वक्त उसका धड़ घोड़े से गिर
गया जिसे लेकर हाड़ी चिता में प्रवेश कर उसके साथ स्वर्ग सिधार गयी |
आज भी राजस्थान में मूंछो की मरोड़
का उदहारण दिया जाता है तो कहा जाता है -
" मूंछों की मरोड़ हो तो कल्ला जी राठौड़ जैसी

Tuesday, February 23, 2016

Brave Kshatriyas Rajput who liberated Goa

The BRAVE KSHATRIYA NAIR WARRIOR from KERALA 
Lieutenant General Kunhiraman Palat CANDETH Who Liberated Goa 
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Kunhiraman Palat Candeth (23 October 1916 – 19 May 2003) was a Lieutenant General in the Indian army. In 1961, the then Major General Candeth led Operation Vijay to annex Goa from the Portuguese colonial rule and served briefly as the Lieutenant Governor of the state. Subsequently, he rose to Deputy Chief of Army Staff at the time of the 1965 war and commanded the Western Army during the Indo-Pakistani War of 1971.

He was born in Ottapalam, Madras Presidency (now Kerala) in British India (now India) to MA Candeth, being the grandson of the renowned barrister and writer Vengayil Kunhiraman Nayanar. His maternal grandfather was Sir C. Sankaran Nair, who was the President of the Indian National Congress.[
 He told a reporter during the Indo-Pakistani War of 1971 that "I am a Nair from Kerala. I am a Kshatriya".
 He had done his training at the Prince of Wales Royal Indian Military College, Dehradun, where he was highly rated in the classroom and on the playing field. Candeth was commissioned in the British Indian Army on 30 August 1936 in 28 Field Brigade of the Royal Indian Artillery.

Commissioned into the Royal Artillery in 1936, Candeth saw action in West Asia during the Second World War. And, shortly before India's independence from colonial rule, he was deployed in the North West Frontier Province, bordering Afghanistan, to quell local tribes. The mountainous terrain gave Candeth the experience for his later operations against Nagaland separatists in the North East. He attended the Military Services Staff College at Quetta, capital of Baluchistan in 1945.

Kashmir 1947
After Independence, Candeth was commanding an artillery regiment that was deployed to Jammu and Kashmir after Pakistan-backed tribesmen attacked and captured a third of the province before being forced back by the Indian Army. Thereafter, Candeth held a series of senior appointments, including that of Director General of Artillery at Army Headquarters in Delhi.

Goa
Following Indian independence from British rule, certain parts of India were still under foreign rule. While the French left India in 1954, the Portuguese, however, refused to leave. After complex diplomatic pressure and negotiations had failed, finally on December 18, 1961 the Indian prime minister Jawaharlal Nehru's patience ran out and he sanctioned military action. Kunhiraman Candeth earned his name in Operation Vijay—the Liberation of Goa, Daman and Diu from Portuguese rule. 
As 17 Infantry Division commander, Candeth took the colony within a day and was immediately appointed Goa's first Indian administrator (acting as the Military Governor), a post he held till 1963.

North East
After relinquishing charge as Goa's Military Governor in 1963, Candeth took command of the newly raised 8 Mountain Division in the North-East, where he battled, although with little success, the highly organised Naga insurgents. The insurgency in the North East has not been quelled completely to this day.

Indo-Pakistani War of 1971
During the Indo-Pakistani War of 1971 that led to East Pakistan breaking away to become Bangladesh, Candeth (at that stage a lieutenant-general), was the Western Army commander responsible for planning and overseeing operations in the strategically crucial regions of Kashmir, Punjab and Rajasthan where the fiercest fighting took place.

Awards
Lt. Gen. Kunhiraman Palat Candeth was awarded the Param Vishisht Seva Medal and also the Padma Bhushan by the Government of India.
He remained a bachelor till the end.
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* Lft.Gen. K.P. Candeth >