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Sunday, July 24, 2016

भारत पर इस्लामिक आक्रमण

–भारत पर इस्लामिक आक्रमण——
सन 632 ईस्वी में मौहम्मद की मृत्यु के उपरांत छ: वर्षों के अंदर ही अरबों ने सीरिया,मिस्र,ईरान,इराक,उत्तरी अफ्रीका,स्पेन को जीत लिया था और उनका इस्लामिक साम्राज्य फ़्रांस के लायर नामक स्थान से लेकर भारत के काबुल नदी तक पहुँच गया था,एक दशक के भीतर ही उन्होंने लगभग समूचे मध्य पूर्व का इस्लामीकरण कर दिया था और इस्लाम की जोशीली धारा स्पेन,फ़्रांस में घुसकर यूरोप तक में दस्तक दे रही थी,अब एशिया में चीन और भारतवर्ष ही इससे अछूते थे.
सन 712 ईस्वी में खलीफा के आदेश पर मुहम्मद बिन कासिम के नेत्रत्व में भारत के सिंध राज्य पर हमला किया गया जिसमे सिंध के राजा दाहिर की हार हुई और सिंध पर अरबों का अधिकार हो गया
अरबों ने इसके बाद भारत के भीतरी इलाको में राजस्थान,गुजरात तक हमले किये,पर प्रतिहार राजपूत नागभट और बाप्पा रावल गुहिलौत ने संयुक्त मौर्चा बनाकर अरबों को करारी मात दी,अरबों ने चित्तौड के मौर्य,वल्लभी के मैत्रक,भीनमाल के चावड़ा,साम्भर के चौहान राजपूत, राज्यों पर भी हमले किये मगर उन्हें सफलता नहीं मिली,

दक्षिण के राष्ट्रकूट और चालुक्य शासको ने भी अरबो के विरुद्ध संघर्ष में सहायता की,कुछ समय पश्चात् सिंध पुन: सुमरा और सम्मा राजपूतो के नेत्रत्व में स्वाधीन हो गया और अरबों का राज बहुत थोड़े से क्षेत्र पर रह गया.
किसी मुस्लिम इतिहासकार ने लिखा भी है कि “इस्लाम की जोशीली धारा जो हिन्द को डुबाने आई थी वो सिंध के छोटे से इलाके में एक नाले के रूप में बहने लगी,अरबों की सिंध विजय के कई सौ वर्ष बाद भी न तो यहाँ किसी भारतीय ने इस्लाम धर्म अपनाया है न ही यहाँ कोई अरबी भाषा जानता है”
अरब तो भारत में सफल नहीं हुए पर मध्य एशिया से तुर्क नामक एक नई शक्ति आई जिसने कुछ समय पूर्व ही बौद्ध धर्म छोडकर इस्लाम धर्म ग्रहण किया था,
अल्पतगीन नाम के तुर्क सरदार ने गजनी में राज्य स्थापित किया,फिर उसके दामाद सुबुक्तगीन ने काबुल और जाबुल के हिन्दू शाही जंजुआ राजपूत राजा जयपाल पर हमला किया,
जंजुआ राजपूत वंश भी तोमर वंश की शाखा है और अब अधिकतर पाकिस्तान के पंजाब में मिलते हैं और अब मुस्लिम हैं कुछ थोड़े से हिन्दू जंजुआ राजपूत भारतीय पंजाब में भी मिलते हैं ।
उस समय अधिकांश अफगानिस्तान(उपगणस्तान),और समूचे पंजाब पर जंजुआ शाही राजपूतो का शासन था,
सुबुक्तगीन के बाद उसके पुत्र महमूद गजनवी ने इस्लाम के प्रचार और धन लूटने के उद्देश्य से भारत पर सन 1000 ईस्वी से लेकर 1026 ईस्वी तक कुल 17 हमले किये,जिनमे पंजाब का शाही जंजुआ राजपूत राज्य पूरी तरह समाप्त हो गया और उसने सोमनाथ मन्दिर गुजरात, कन्नौज, मथुरा,कालिंजर,नगरकोट(कटोच),थानेश्वर तक हमले किये और लाखो हिन्दुओं की हत्याएं,बलात धर्मपरिवर्तन,लूटपाट हुई,
ऐसे में दिल्ली के तंवर/तोमर राजपूत वंश ने अन्य राजपूतो के साथ मिलकर इसका सामना करने का निश्चय किया,
दिल्लीपति राजा जयपालदेव तोमर(1005-1021)—–
गज़नवी वंश के आरंभिक आक्रमणों के समय दिल्ली-थानेश्वर का तोमर वंश पर्याप्त समुन्नत अवस्था में था।महमूद गजनवी ने जब सुना कि थानेश्वर में बहुत से हिन्दू मंदिर हैं और उनमे खूब सारा सोना है तो उन्हें लूटने की लालसा लिए उसने थानेश्वर की और कूच किया,थानेश्वर के मंदिरों की रक्षा के लिए दिल्ली के राजा जयपालदेव तोमर ने उससे कड़ा संघर्ष किया,किन्तु दुश्मन की अधिक संख्या होने के कारण उसकी हार हुई,तोमरराज ने थानेश्वर को महमूद से बचाने का प्रयत्न भी किया, यद्यपि उसे सफलता न मिली।और महमूद ने थानेश्वर में जमकर रक्तपात और लूटपाट की.
दिल्लीपति राजा कुमार देव तोमर(1021-1051)—-
सन् 1038 ईo (संo १०९५) महमूद के भानजे मसूद ने हांसी पर अधिकार कर लिया। और थानेश्वर को हस्तगत किया। दिल्ली पर आक्रमण की तैयारी होने लगी। ऐसा प्रतीत होता था कि मुसलमान दिल्ली राज्य की समाप्ति किए बिना चैन न लेंगे।किंतु तोमरों ने साहस से काम लिया।
गजनी के सुल्तान को मार भगाने वाले कुमारपाल तोमर ने दुसरे राजपूत राजाओं के साथ मिलकर हांसी और आसपास से मुसलमानों को मार भगाया.
अब भारत के वीरो ने आगे बढकर पहाड़ो में स्थित कांगड़ा का किला जा घेरा जो तुर्कों के कब्जे में चला गया था,चार माह के घेरे के बाद नगरकोट(कांगड़ा)का किला जिसे भीमनगर भी कहा जाता है को राजपूत वीरो ने तुर्कों से मुक्त करा लिया और वहां पुन:मंदिरों की स्थापना की.
लाहौर का घेरा——
इ सके बाद कुमारपाल देव तोमर की सेना ने लाहौर का घेरा डाल दिया,वो भारत से तुर्कों को पूरी तरह बाहर निकालने के लिए कटिबद्ध था.इतिहासकार गांगुली का अनुमान है कि इस अभियान में राजा भोज परमार,कर्ण कलचुरी,राजा अनहिल चौहान ने भी कुमारपाल तोमर की सहायता की थी.किन्तु गजनी से अतिरिक्त सेना आ जाने के कारण यह घेरा सफल नहीं रहा.
नगरकोट कांगड़ा का द्वितीय घेरा(1051 ईस्वी)—–
गजनी के सुल्तान अब्दुलरशीद ने पंजाब के सूबेदार हाजिब को कांगड़ा का किला दोबारा जीतने का निर्देश दिया,मुसलमानों ने दुर्ग का घेरा डाला और छठे दिन दुर्ग की दीवार टूटी,विकट युद्ध हुआ और इतिहासकार हरिहर दिवेदी के अनुसार कुमारपाल देव तोमर बहादुरी से लड़ता हुआ वीरगति को प्राप्त हुआ.अब रावी नदी गजनी और भारत के मध्य की सीमा बन गई.
मुस्लिम इतिहासकार बैहाकी के अनुसार “राजपूतो ने इस युद्ध में प्राणप्रण से युद्ध किया,यह युद्ध उनकी वीरता के अनुरूप था,अंत में पांच सुरंग लगाकर किले की दीवारों को गिराया गया,जिसके बाद हुए युद्ध में तुर्कों की जीत हुई और उनका किले पर अधिकार हो गया.”
इस प्रकार हम देखते हैं कि दिल्लीपति कुमारपाल देव तोमर एक महान नायक था उसकी सेना ने न केवल हांसी और थानेश्वर के दुर्ग ही हस्तगत न किए; उसकी वीर वाहिनी ने काँगड़े पर भी अपनी विजयध्वजा कुछ समय के लिये फहरा दी। लाहौर भी तँवरों के हाथों से भाग्यवशात् ही बच गया।
दिल्लीपती राजाअनंगपाल-II ( 1051-1081 )—–
उनके समय तुर्क इबराहीम ने हमला किया जिसमें अनगपाल द्वितीय खुद युद्ध लड़ने गये,,,, युद्ध में एक समय आया कि तुर्क इबराहीम ओर अनगपाल कि आमना सामना हो गया। अनंगपाल ने अपनी तलवार से इबराहीम की गर्दन ऊडा दि थी। एक राजा द्वारा किसी तुर्क बादशाह की युद्ध में गर्दन उडाना भी एक महान उपलब्धि है तभी तो अनंगपाल की तलवार पर कई कहावत प्रचलित हैं।
जहिं असिवर तोडिय रिउ कवालु, णरणाहु पसिद्धउ अणंगवालु ||
वलभर कम्पाविउ णायरायु, माणिणियण मणसंजनीय ||
The ruler Anangapal is famous; he can slay his enemies with his sword. The weight (of the Iron pillar) caused the Nagaraj to shake.
तुर्क हमलावर मौहम्मद गौरी के विरुद्ध तराइन के युद्ध में तोमर राजपूतो की वीरता—
दिल्लीपति राजा चाहाडपाल/गोविंदराज तोमर (1189-1192)—–
गोविन्दराज तोमर पृथ्वीराज चौहान के साथ मिलकर तराइन के दोनों युद्धों में लड़ें,
पृथ्वीराज रासो के अनुसार तराईन के पहले युद्ध में मौहम्मद गौरी और गोविन्दराज तोमर का आमना सामना हुआ था,जिसमे दोनों घायल हुए थे और गौरी हारकर भाग रहा था। भागते हुए गौरी को धीरसिंह पुंडीर ने पकडकर बंदी बना लिया था। जिसे उदारता दिखाते हुए पृथ्वीराज चौहान ने छोड़ दिया। हालाँकि गौरी के मुस्लिम इतिहासकार इस घटना को छिपाते हैं।
पृथ्वीराज चौहान के साथ मिलकर गोरी के साथ युद्ध किया,तराईन दुसरे युद्ध मे मारे गए.
तेजपाल द्वितीय (1192-1193 ई)——-
दिल्ली का अन्तिम तोमर राजा,जिन्होंने स्वतन्त्र 15 दिन तक शासन किया,इन्ही के पास पृथ्वीराज चौहान की रानी(पुंडीर राजा चन्द्र पुंडीर की पुत्री) से उत्पन्न पुत्र रैणसी उर्फ़ रणजीत सिंह था,तेजपाल ने बची हुई सेना की मदद से गौरी का सामना करने की गोपनीय रणनीति बनाई,युद्ध से बची हुई कुछ सेना भी उसके पास आ गई थी.
मगर तुर्कों को इसका पता चल गया और कुतुबुद्दीन ने दिल्ली पर आक्रमण कर हमेशा के लिए दिल्ली पर कब्जा कर लिया।इस हमले में रैणसी मारे गए.
इसके बाद भी हांसी में और हरियाणा में अचल ब्रह्म के नेत्रत्व में तुर्कों से युद्ध किया गया,इस युद्ध में मुस्लिम इतिहासकार हसन निजामी किसी जाटवान नाम के व्यक्ति का उल्लेख करता है जिसे आजकल हरियाणा के जाट बताते हैं जबकि वो राजपूत थे और संभवत इस क्षेत्र में आज भी पाए जाने वाले तंवर/तोमर राजपूतो की जाटू शाखा से थे,
इस प्रकार हम देखते हैं कि दिल्ली के तोमर राजवंश ने तुर्कों के विरुद्ध बार बार युद्ध करके महान बलिदान दिए किन्तु खेद का विषय है कि संभवत: कोई तोमर राजपूत भी दिल्लीपति कुमारपाल देव तोमर जैसे वीर नायक के बारे में नहीं जानता होगा जिसने राष्ट्र और धर्म की रक्षा के लिए अपने राज्य से आगे बढकर कांगड़ा,लाहौर तक जाकर तुर्कों को मार लगाई और अपना जीवन धर्मरक्षा के लिए न्योछावर कर दिया.
दिल्ली के तोमर राजवंश की वीरता को समग्र राष्ट्र की और से शत शत नमन.
सन्दर्भ—
1-राजेन्द्र सिंह राठौर कृत राजपूतो की गौरवगाथा पृष्ठ संख्या 113,116,117
2-डा० अशोक कुमार सिंह कृत सल्तनत काल में हिन्दू प्रतिरोध पृष्ठ संख्या 48,68,69,70
3-देवी सिंह मंडावा कृत सम्राट पृथ्वीराज चौहान पृष्ठ संख्या 94-98
4-दशरथ शर्मा कृत EARLY CHAUHAN DYNASTIES
5- महेंद्र सिंह तंवर खेतासर कृत तंवर/तोमर राजवंश का सांस्कृतिक एवम् राजनितिक इतिहास।
6-दशरथ शर्मा-लेक्चर्स ऑन राजपूत हिस्टरी एंड कल्चर (आर पी नोपानी भाषणमाला १९६९) प्रकाशक: मोतीलाल बनारसीदास, जवाहर नगर, दिल्ली
-BY Manisha Singh

सरदार हरि सिंह नलवा (1791-1837)

सरदार हरि सिंह नलवा (1791-1837) का भारतीय इतिहास में एक सराहनीय एवम् महत्वपूर्ण योगदान रहा है। भारत के उन्नीसवीं सदी के समय में उनकी उपलब्धियों की मिसाल पाना महज असंभव है। इनका निष्ठावान जीवनकाल हमारे इस समय के इतिहास को सर्वाधिक सशक्त करता है। परंतु इनका योगदान स्मरणार्थक एवम् अनुपम होने के बावज़ूद भी पंजाब की सीमाओं के बाहर अज्ञात बन कर रहे गया है। इतिहास की पुस्तकों के पन्नो भी इनका नाम लुप्त है। आज के दिन इनकी अफगानिस्तान से संबंधित उल्लेखनीय परिपूर्णताओं को स्मरण करना उचित होगा। जहाँ ब्रिटिश, रूसी और अमेरिकी सैन्य बलों को विफलता मिली, इस क्षेत्र में सरदार हरि सिंह नलवा ने अपनी सामरिक प्रतिभा और बहादुरी की धाक जमाने के साथ सिख-संत सिपाही होने का उदाहरण स्थापित किया था। आज जब अफगान राष्ट्रपति अहमदज़ई की सरकार भ्रष्टाचार से जूझ रही है, अपने ही राष्ट्र की सुरक्षा जिम्मेदारियों के लिये अंतरराष्ट्रीय बलों पर निर्भर है और अमेरिकी राष्ट्रपति ओबामा के लगभग 300,000 अमेरिकी सैनिक अफगानिस्तान में तैनात, तालिबानी उग्रवादियों की आंतकी घटनाओं से बुरी तरह संशयात्मक है, यह जानना अनिवार्य है कि हरि सिंह नलवा ने स्थानीय प्रशासन और विश्वसनीय संस्थानों की स्थापना कर यहाँ पर प्रशासनिक सफलता प्राप्त की थी। यह इतिहास में पहली बार हुआ था कि पेशावरी पश्तून, पंजाबियों द्वारा शासित थे। जिस एक व्यक्ति का भय पठानों और अफगानियों के मन में, पेशावर से लेकर काबुल तक, सबसे अधिक था; उस शख्सीयत का नाम जनरल हरि सिंह नलुवा है। सिख फौज के सबसे बड़े जनरल हरि सिंह नलवा ने कश्मीर पर विजय प्राप्त कर अपना लौहा मनवाया। यही नहीं, काबुल पर भी सेना चढ़ाकर जीत दर्ज की। खैबर दर्रे से होने वाले इस्लामिक आक्रमणों से देश को मुक्त किया। इसलिये रणनीति और रणकौशल की दृष्टि से हरि सिंह नलवा की तुलना दुनिया के श्रेष्ठ जरनैलों से की जाती है।
सरदार हरि सिंह नलवा का नाम श्रेष्ठतम सिक्खी योद्धाओं की गिनती में आता है। वह महाराजा रणजीत सिंह की सिख फौज के सबसे बड़े जनरल (कमांडर-इन-चीफ) थे। महाराजा रणजीत सिंह के साम्राज्य (1799-1849) को सरकार खालसाजी के नाम से भी निर्दिष्ट किया जाता था। सिख साम्राज्य, गुरू नानक द्वारा शुरू किये गए आध्यात्मिक मार्ग का वह एकगरत रूप था जो गोबिंद सिंह ने खालसा की परंपरा से निश्चित कर के संगठित किया था। गोबिंद सिंह ने मुगलों के खिलाफ प्रतिरोध के लिए एक सैन्य बल की स्थापना करने का निर्णय लिया था। खालसा, गुरु गोबिंद सिंह की उक्ति की सामूहिक सर्वसमिका है । 30 मार्च 1699 को गुरु गोबिंद सिंह ने खालसा मूलतः “संत सैनिकों” के एक सैन्य शक्ति के रूप में स्थापित किया। खालसा उनके द्वारा दिया गया उन सब चेलों का नाम था जिन्होंने अमृत संचार अनुष्ठान स्विकार करके पांच तत्व- केश,कंघा,कड़ा,कच्छा,किरपान का अंगीकार किया्। वह व्यक्ति जो खालसा में शामिल किया जाता,एक खालसा सिख या अम्रित्धारी कहलाता। यह परिवर्तन संभवतः मूलमंत्र के तौर से मानसिकता का जैसे हिस्सा बन जाता और आत्मविश्वास को उत्पन्न करके युद्ध भूमि में सामर्थ्य प्राप्त करने में सफलता प्रदान करता।
… पिछली आठ सदियों की लूटमार, बलात्कार, और इस्लाम के जबरन रूपांतरण के बाद सिखों ने भारतीय उपमहाद्वीप के उस भाग में अपने राज्य की स्थापना की जो सबसे ज़्यादा आक्र्मणकारियों द्वारा आघात था। अपने जीवनकाल में हरि सिंह नलवा, इन क्षेत्रों में निवास करने वाले क्रूर कबीलों के लिए एक आतंक बन गये थे। आज भी उत्तर पश्चिम सीमांत (नौर्थ वेस्टन प्रोविन्स) में एक प्रशासक और सैन्य कमांडर के रूप में हरि सिंह नलवा का प्रदर्शन बेमिसाल है। हरि सिंह नलवा की शानदार उपलब्धियाँ ऐसे हैं कि वह गुरु गोबिंद सिंह द्वारा स्थापित परंपरा का उदाहरण देती हैं और उन्हें इसलिये सर हेनरी ग्रिफिन ने “खालसाजी का चैंपियन” के नाम से सुसज्जित किया है। ब्रिटिश शासकों ने हरि सिंह नलवा की तुलना नेपोलियन के प्रसिद्ध कमांडरों से भी की है।

हरि सिंह नलवा ने महाराजा रणजीत सिंह के निर्देश के अनुसार सिख साम्राज्य की भौगोलिक सीमाओं को पंजाब से लेकर काबुल बादशाहत के बीचोंबीच तक विस्तार किया था। महाराजा रणजीत सिंह के तहत 1807 ई. से लेकर तीन दशकों की अवधि 1837 ई. तक, सिख शासन के दौरान हरि सिंह नलवा लगातार अफगानों के खिलाफ लड़े। अफगानों के खिलाफ जटिल लड़ाई जीतकर नलवा ने उनकी मिट्टी पर कसूर, मुल्तान, कश्मीर और पेशावर में सिख शासन की अर्थव्यवस्था की था। हरि सिंह नलवा के जीवन के परीक्षणों का वर्णन, उन्नीसवीं सदी की पहली छमाही में सिख-अफगान संबंधों का प्रतिनिधित्व है। काबुल बादशाहत के तीन पश्तून वंशवादी के प्रतिनिधि सरदार हरि सिंह नलवा के प्रतिद्वंदी थे। पहले अहमद शाह अबदाली का पोता, शाह शूजा था; दूसरा, फ़तह खान, दोस्त मोहम्मद खान और उनके बेटे, तीसरा, सुल्तान मोहम्मद खान, जो जहीर शाह अफगानिस्तान के राजा का पूर्वज (1933 -73) था।
सिंधु नदी के पार, उत्तरी पश्चिम क्षेत्र में, पेशावर के आसपास, अफगानी लोग कई कबीलों में विभाजित थे। आज भी अफगानिस्तान के विभिन्न कबीले कितने ही वर्षो से आपस में लड रहे हैं। किसी भी नियम के पालन के परे, आक्रामक प्रवृत्ति इन अफ़गानों की नियति है। पूरी तरह से इन क्षेत्रों का नियंत्रण करना हर शासन की समस्यात्मक चुनौती रही है। इस इलाके में सरदार हरि सिंह नलवा ने सिंधु नदी के पार, अपने अभियानों द्वारा अफगान साम्राज्य के एक बड़े हिस्से पर कब्ज़ा करके, सिख साम्राज्य की उत्तर पश्चिम सीमांत को विस्तार किया था। नलवे की सेनाओं ने अफ़गानों को दर्रा खैबर के उस ओर बुरी तरह खदेड कर इन उपद्रवी कबायली अफ़गानों/पठानों की ऐसी गति बनाई कि परिणामस्वरूप हरि सिंह नलवा ने इतिहास की धारा ही बदल दी।
ख़ैबर दर्रा पश्चिम से भारत में प्रवेश करने का एक महत्वपूर्ण मार्ग है। ख़ैबर दर्रे के ज़रिया 500 ईसा पूर्व में यूनानियों के साथ भारत पर आक्रमण करने, लूटने और गुलाम बनाने की प्रक्रिया शुरू हुई। आक्रमणकारियों ने लगातार इस देश की समृध्दि को तहस-नहस किया। यूनानियों, हूणों और शकों के बाद अरबों, तुर्कों, पठानों, मुगलों के कबीले लगभग एक हजार वर्षों तक इस देश में हमलावर बनकर आते रहे। तैमूर लंग, बाबर और नादिरशाह की सेनाओं के हाथों भारत बेहद पीड़ित हुआ था। हरि सिंह नलवा ने ख़ैबर दर्रे का मार्ग बंद करके इस ऐतिहासिक अपमानित प्रक्रिया का पूर्ण रूप से अन्त कर दिया था। प्रसिद्ध सिख जनरलों में सबसे महान योद्धा माने गये इस वीर ने अफगानों को पछाड़ कर यह निम्नलिखित विजयो में भाग लिया: सियालकोट (1802), कसूर (1807), मुल्तान (1818), कश्मीर (1819), पखली और दमतौर (1821-2), पेशावर (1834) और ख़ैबर हिल्स में जमरौद (1836) । हरि सिंह नलवा कश्मीर और पेशावर के गवर्नर बनाये गये। कश्मीर में उन्होने एक नया सिक्का ढाला जो ‘हरि सिन्गी’ के नाम से जाना गया। यह सिक्का आज भी संग्रहालयों में प्रदर्शन पर है. हजारा, सिंध सागर दोआब का विशिष्ट भाग, उनके शासन के तहत सभी क्षेत्रों में से सबसे महत्वपूर्ण इलाका था। हजारा के संकलक ने लिखत में दर्ज किया है कि उस समय केवल हरि सिंह नलवा ही अपने प्रभावी ढंग के कारण, एक मजबूत हाथ के द्वारा इस जिले पर नियंत्रण कर सकते थे।
नोशेरा के युद्ध में स. हरि सिंह नलवा ने महाराजा रणजीत सिंह की सेना का कुशल नेतृत्व किया था। रणनीति और रणकौशल की दृष्टि से हरि सिंह नलवा की तुलना दुनिया के श्रेष्ठ सेनानायकों से की जा सकती है।
महाराजा रणजीत सिंह की नौशेरा के युद्ध में विजय हुई।
पेशावर का प्रशासक यार मोहम्मद महाराजा रणजीत सिंह को नजराना देना कबूल कर चुका था। मोहम्मद अजीम, जो कि काबूल का शासक था, ने पेशावर के यार मोहम्मद पर फिकरा कसा कि वह एक काफिर के आगे झुक गया है। अजीम काबूल से बाहर आ गया। उसने जेहाद का नारा बुलन्द किया, जिसकी प्रतिध्वनि खैबर में सुनाई दी। लगभग पैंतालिस हजार खट्टक और यूसुफ जाई कबीले के लोग सैय्‌यद अकबर शाह के नेतृत्व में एकत्र किये गये। यार मोहम्मद ने पेशावर छोड़ दिया और कहीं छुप गये। महाराजा रणजीत सिंह ने सेना को उत्तर की ओर पेशावर कूच करने का आदेश दिया। राजकुमार शेर सिंह, दीवान चन्द और जनरल वेन्चूरा अपनी – अपनी टुकड़ियों का नेतृत्व कर रहे थे। सरदार हरि सिंह नलवा, अकाली बाबा फूला सिंह, फतेह सिंह आहलुवालिया, देसा सिंह मजीठिया और अत्तर सिंह सन्धावालिये ने सशस्त्र दलों और घुड़सवारों का नेतृत्व किया। तोपखाने की कमान मियां गोस खान और जनरल एलार्ड के पास थी।
भारत में प्रशिक्षित सैन्य दलों के इतिहास में महाराजा रणजीत सिंह द्वारा बनायी गयी गोरखा सैन्य टुकड़ी एक ऐतिहासिक घटना था। गोरखा पहाड़ी क्षेत्रों में रहने वाले थे और पेशावर और खैबर दर्रे के इलाकों में प्रभावशाली हो सकते थे। महाराजा रणजीत सिंह ने पूरबी (बिहारी) सैनिक टुकड़ी का निर्माण भी किया था। इस टुकड़ी में ज्यादातर सैनिक पटना साहिब और दानापुर क्षेत्र के थे, जो कि गुरू गोबिन्द सिंह जी की जन्म स्थली रहा है। सरदार हरि सिंह नलवा की सेना शेर-ए-दिल रजामान सबसे आगे थी। महाराजा की सेना ने पोनटून पुल पार किया। लेकिन बर्फबारी के कारण कुछ दिन रूकना पड़ा। महाराजा रणजीत सिंह के गुप्तचरों से ज्ञात हुआ था कि दुश्मनों की संख्या जहांगीरिया किले के पास बढ रही थी। उधर तोपखाना पहुंचने में देर हो रही थी और उसकी डेढ महीने बाद पहुंचने की संभावना थी। स्थितियां प्रतिकूल थी।
सरदार हरि सिंह नलवा और राजकुमार शेर सिंह ने पुल पार करके किले पर कब्जा कर लिया। लेकिन अब उन्हें अतिरिक्त बल की आवश्यकता थी। उधर दुश्मन ने पुल को नष्ट कर दिया था। ऐसे में प्रातः काल में महाराजा स्वयं घोड़े पर शून्य तापमान वाली नदी के पानी में उतरा। शेष सेना भी साथ थी। लेकिन बड़े सामान और तोपखाना इत्यादि का नुकसान हो गया था। बन्दूकों की कमी भी महसूस हो रही थी। बाबा फूला सिंह जी के मर-जीवड़ों ने फौज की कमान संभाली। उन्होने बहती नदी पार की। पीछे-पीछे अन्य भी आ गये। जहांगीरिया किले के पास पठानों के साथ युद्ध हुआ। पठान यह कहते हुए सुने गये – तौबा, तौबा, खुदा खुद खालसा शुद। अर्थात खुदा माफ करे, खुदा स्वयं खालसा हो गये हैं।
सोये हुए अफगानियों पर अचानक हमले ने दुश्मन को हैरान कर दिया था। लगभग १० हजार अफगानी मार गिराये गये थे। अफगानी भाग खड़े हुए। वे पीर सबक की ओर चले गये थे।
गोरखा सैनिक टुकड़ी के जनरल बलभद्र ने अफगानी सेना को बेहिचक मारा काटा और इस बात का सबूत दिया कि उन विशिष्ट परिस्थितियों में गोरखा लड़ाके कितने कारगर थे। उन्होने जेहादियों पर कई आक्रमण किये। लेकिन अन्त में घिर जाने के कारण बलभद्र शहीद हो गये। सरदार हरि सिंह नलवा, अकाली फूला सिंह और निहंगों की सशक्त जमात जमकर लड़ी। जनरल वेन्चूरा घायल हो गये। अकाली फूला सिंह के घोड़े को गोली लगी। वह एक हाथी पर चढने की रणनीतिक भूल कर बैठे। वे ओट से बाहर आ गये थे और जेहादियों ने उन्हें गोलियों से छननी कर दिया। वे शहीद हो गये।
अप्रैल 1836 में, जब पूरी अफगान सेना ने जमरौद पर हमला किया था, अचानक प्राणघातक घायल होने पर नलवा ने अपने नुमायंदे महान सिंह को आदेश दिया कि जब तक सहायता के लिये नयी सेना का आगमन ना हो जाये उनकी मृत्यु की घोषणा ना की जाये जिससे कि सैनिक हतोत्साहित ना हो और वीरता से डटे रहे। हरि सिंह नलवा की उपस्थिति के डर से अफगान सेना दस दिनों तक पीछे हटी रही। एक प्रतिष्ठित योद्धा के रूप में नलवा अपने पठान दुश्मनों के सम्मान के भी अधिकारी बने।

महाराजा बघेलसिंह – दिल्ली जीती, “मुग़लों” को हराया और कर वसूला

॥ महाराजा बघेलसिंह – दिल्ली जीती, “मुग़लों” को हराया और कर वसूला ॥
महान योद्धा महाराजा बघेलसिंह धालीवाल जिन्होंने दिल्ली और सीमावर्ती क्षेत्रों को जीता , “मुग़ल सत्ता” को परास्त किया और सशक्त “हिन्दू साम्राज्य” की स्थापना की । इन्होने उत्तर भारत के लगभग सभी “नवाबों” को विवश कर दिया था और “भारतीय संस्कृति” की रक्षा की थी । आज इन्हें कितने लोग जानते हैं ?
इनका जन्म १७३० इसवी में हुआ था । इन्होने स्वयं को करोर सिंघिया मिसल से जोड़ लिया था । १७६५ में करोर सिंघिया मिसल के अधिपति सरदार करोरा सिंघजी के असाम्योक निधन के बाद ये मिसल के अधिपति बने । बघेलसिंहजी एक उत्तम योद्धा होने के साथ साथ राजनीति एवं कूटनीति के भी निष्णात पंडित थे ।

उस समय भारतवर्ष पर “अहमद शाह अब्दाली” के नेतृत्व में अफगानों के आक्रमण हुआ करते थे। बघेलसिंहजी के करोर सिंघिया मिसल का सीधा सामना “अब्दाली” से हुआ जिसमे की “अब्दाली” ने एक ही दिन में धोखे से ३०,००० से ४०,००० हिन्दू-सिख बूढ़े-बच्चे और महिलाओं की ह्त्या कर दी । इस घटनाक्रम के उपरांत सिखों ने संगठित होना प्रारंभ किया ।
बघेलसिंहजी ने अम्बाला , करनाल , हिसार , थानेसर , जालंधर दोआब और होशियारपुर पर नियंत्रण कर लिया । बघेलसिंहजी ने पंजाब को “मुग़लों” से स्वतंत्र करा लिया । इसके उपरांत बघेलसिंहजी ने हिन्दू-साम्राज्य का विस्तार प्रारंभ किया । बघेलसिंहजी ने दिल्ली से जुड़े हुए क्षेत्रों जैसे मेरठ , सहारनपुर , शाहदरा और अवध के नवाबों को पराजित किया और उनसे भारी मात्र में कर वसूला ।
३०००० सिपाहियों के साथ बघेलसिंहजी ने यमुना को पार किया और सहारनपुर पर नियंत्रण कर लिया और वहाँ के नवाब “नजीब-उद्-दौला” से ११,००,००० का कर वसूला । इसी क्रम में उन्होंने “ज़बिता खान” को भी परास्त किया और कर प्राप्त किया । मार्च १९७६ , में इन्होने “मुग़ल-शहंशाह शाह आलम द्वितीय” की “शाही मुग़ल सेना” को मुजफ्फरनगर के निकट परास्त किया ।
इससे बौखला कर १७७८ में “शाह आलम द्वितीय” ने ३,००,००० से अधिक “शाही मुग़ल सेना” को “शाही वजीर” “नवाब मजाद-उद्-दौला” के सेनापतित्व में हिन्दू-सिख सेना को कुचलने को भेजा । किन्तु बघेलसिंहजी एक उत्तम रणनीतिकार और राजनीतिज्ञ थे । उन्होंने मुगलों की प्रत्येक चाल को मात दी और मुग़ल सेना को घनौर के निकट बुरी तरह परास्त किया । विराट मुग़ल सेना ने इनके सामने आत्म-समर्पण किया ।
अप्रैल १७८१ में मुगलों के “शाही वजीर” के निकट सम्बन्धी “मिर्ज़ा शफी” ने धोखे से हिन्दू-सिख सैनिक छावनी हथिया ली , "बघेलसिंहजी" ने इसका प्रतिकार शाहाबाद के “खलील बेग खान” को हराकर किया जिसने बड़े भारी सैन्य बल के साथ "बघेलसिंहजी" के समक्ष आत्मसमर्पण किया ।
अब तो सिखों ने दिल्ली पर विजय प्राप्ति की ठान ली और ११, मार्च १७८३ को विजय प्राप्त करके लाल किले में प्रवेश किया । “दीवान –ए-आम” जहां अकबर , शाहजहाँ , जहाँगीर और औरंगजेब दरबार लगाया करते थे वहां “बघेलसिंहजी” का दरबार सजा । "मुग़ल शहंशाह शाह आलम द्वितीय" हाथ बांधे सामने खड़ा था ।
मुग़ल शहंशाह और महल के स्त्री-पुरुषों के प्रार्थना करने पर "बघेल सिंह जी" ने दिल्ली की कुल आय का ३७.५% कर निश्चित करके फिर दिल्ली को छोड़ा । बस , तभी से मुग़ल शहंशाह नाममात्र के शासक रह गए । जब तक हिन्दू साम्राज्य रहा तब तक निर्बाध रूप से कर हिन्दू साम्राज्य को पंहुचता रहा ।
इतिहास में पढाया यह जाता हैं की औरंगजेब के बाद मुग़ल शासन कमज़ोर पड़ गया । अरे , अपनेआप कमज़ोर पडा क्या ? हमारे योद्धाओं ने उन्हें बुरी तरह हराकर कमज़ोर किया । हमारे बच्चों को बताया ही नहीं जा रहा हैं की हमारा गौरव कैसा हुआ करता था (वस्तुतः हम कभी गुलाम रहे ही नहीं)।
किन्तु , सत्य अब अधिक देर तक छिप नहीं सकता ।
-Manisha Singh

तक्षक- कन्नौज नरेश नागभट्ट -मोहम्मद बिन कासिम , islamic terrorism and Raput's resistance


प्राचीन भारत का पश्चिमोत्तर सीमांत!मोहम्मद बिन कासिम के आक्रमण से एक चौथाई सदी बीत चुकी थी। तोड़े गए मन्दिरों, मठों और चैत्यों के ध्वंसावशेष अब टीले का रूप ले चुके थे, और उनमे उपजे वन में विषैले जीवोँ का आवास था। यहां के वायुमण्डल में अब भी कासिम की सेना का अत्याचार पसरा था और जैसे बलत्कृता कुमारियों और सरकटे युवाओं का चीत्कार गूंजता था।कासिम ने अपने अभियान में युवा आयु वाले एक भी व्यक्ति को जीवित नही छोड़ा था, अस्तु अब इस क्षेत्र में हिन्दू प्रजा अत्यल्प ही थी। संहार के भय से इस्लाम स्वीकार कर चुके कुछ निरीह परिवार यत्र तत्र दिखाई दे जाते थे, पर कहीं उल्लास का कोई चिन्ह नही था। कुल मिला कर यह एक शमशान था।
इस कथा का इस शमशान से मात्र इतना सम्बंध है, कि इसी शमशान में जन्मा एक बालक जो कासिम के अभियान के समय मात्र आठ वर्ष का था, वह इस कथा का मुख्य पात्र है। उसका नाम था तक्षक। मुल्तान विजय के बाद कासिम के सम्प्रदायोन्मत्त आतंकवादियों ने गांवो शहरों में भीषण रक्तपात मचाया था। हजारों स्त्रियों की छातियाँ नोची गयीं, और हजारों अपनी शील की रक्षा के लिए कुंए तालाब में डूब मरीं।लगभग सभी युवाओं को या तो मार डाला गया या गुलाम बना लिया गया। अरब ने पहली बार भारत को अपना धर्म दिखया था, और भारत ने पहली बार मानवता की हत्या देखी थी।
तक्षक के पिता सिंधु नरेश दाहिर के सैनिक थे जो इसी कासिम की सेना के साथ हुए युद्ध में वीरगति पा चुके थे। लूटती अरब सेना जब तक्षक के गांव में पहुची तो हाहाकार मच गया। स्त्रियों को घरों से खींच खींच कर उनकी देह लूटी जाने लगी।भय से आक्रांत तक्षक के घर में भी सब चिल्ला उठे। तक्षक और उसकी दो बहनें भय से कांप उठी थीं। तक्षक की माँ पूरी परिस्थिति समझ चुकी थी, उसने कुछ देर तक अपने बच्चों को देखा और जैसे एक निर्णय पर पहुच गयी। माँ ने अपने तीनों बच्चों को खींच कर छाती में चिपका लिया और रो पड़ी। फिर देखते देखते उस क्षत्राणी ने म्यान से तलवार खीचा और अपनी दोनों बेटियों का सर काट डाला। उसके बाद काटी जा रही गाय की तरह बेटे की ओर अंतिम दृष्टि डाली, और तलवार को अपनी छाती में उतार लिया। आठ वर्ष का बालक एकाएक समय को पढ़ना सीख गया था, उसने भूमि पर पड़ी मृत माँ के आँचल से अंतिम बार अपनी आँखे पोंछी, और घर के पिछले द्वार से निकल कर खेतों से होकर जंगल में भागा..............
पचीस वर्ष बीत गए। तब का अष्टवर्षीय तक्षक अब बत्तीस वर्ष का पुरुष हो कर कन्नौज के प्रतापी शासक नागभट्ट द्वितीय का मुख्य अंगरक्षक था। वर्षों से किसी ने उसके चेहरे पर भावना का कोई चिन्ह नही देखा था। वह न कभी खुश होता था न कभी दुखी, उसकी आँखे सदैव अंगारे की तरह लाल रहती थीं। उसके पराक्रम के किस्से पूरी सेना में सुने सुनाये जाते थे। अपनी तलवार के एक वार से हाथी को मार डालने वाला तक्षक सैनिकों के लिए आदर्श था।
कन्नौज नरेश नागभट्ट अपने अतुल्य पराक्रम, विशाल सैन्यशक्ति और अरबों के सफल प्रतिरोध के लिए ख्यात थे। सिंध पर शासन कर रहे अरब कई बार कन्नौज पर आक्रमण कर चुके थे, पर हर बार योद्धा राजपूत उन्हें खदेड़ देते। युद्ध के सनातन नियमों का पालन करते नागभट्ट कभी उनका पीछा नहीं करते, जिसके कारण बार बार वे मजबूत हो कर पुनः आक्रमण करते थे। ऐसा पंद्रह वर्षों से हो रहा था।
आज महाराज की सभा लगी थी। कुछ ही समय पुर्व गुप्तचर ने सुचना दी थी, कि अरब के खलीफा से सहयोग ले कर सिंध की विशाल सेना कन्नौज पर आक्रमण के लिए प्रस्थान कर चुकी है, और संभवत: दो से तीन दिन के अंदर यह सेना कन्नौज की सीमा पर होगी। इसी सम्बंध में रणनीति बनाने के लिए महाराज नागभट्ट ने यह सभा बैठाई थी।नागभट्ट का सबसे बड़ा गुण यह था, कि वे अपने सभी सेनानायकों का विचार लेकर ही कोई निर्णय करते थे। आज भी इस सभा में सभी सेनानायक अपना विचार रख रहे थे। अंत में तक्षक उठ खड़ा हुआ और बोला- महाराज, हमे इस बार वैरी को उसी की शैली में उत्तर देना होगा।
महाराज ने ध्यान से देखा अपने इस अंगरक्षक की ओर, बोले- अपनी बात खुल कर कहो तक्षक, हम कुछ समझ नही पा रहे।
- महाराज, अरब सैनिक महा बर्बर हैं, उनके साथ सनातन नियमों के अनुरूप युद्ध कर के हम अपनी प्रजा के साथ घात ही करेंगे। उनको उन्ही की शैली में हराना होगा।
महाराज के माथे पर लकीरें उभर आयीं, बोले- किन्तु हम धर्म और मर्यादा नही छोड़ सकते सैनिक।
तक्षक ने कहा- मर्यादा का निर्वाह उसके साथ किया जाता है जो मर्यादा का अर्थ समझते हों। ये बर्बर धर्मोन्मत्त राक्षस हैं महाराज। इनके लिए हत्या और बलात्कार ही धर्म है।
- पर यह हमारा धर्म नही हैं बीर,
- राजा का केवल एक ही धर्म होता है महाराज, और वह है प्रजा की रक्षा। देवल और मुल्तान का युद्ध याद करें महाराज, जब कासिम की सेना ने दाहिर को पराजित करने के पश्चात प्रजा पर कितना अत्याचार किया था। ईश्वर न करे, यदि हम पराजित हुए तो बर्बर अत्याचारी अरब हमारी स्त्रियों, बच्चों और निरीह प्रजा के साथ कैसा व्यवहार करेंगे, यह महाराज जानते हैं।
महाराज ने एक बार पूरी सभा की ओर निहारा, सबका मौन तक्षक के तर्कों से सहमत दिख रहा था। महाराज अपने मुख्य सेनापतियों मंत्रियों और तक्षक के साथ गुप्त सभाकक्ष की ओर बढ़ गए।
अगले दिवस की संध्या तक कन्नौज की पश्चिम सीमा पर दोनों सेनाओं का पड़ाव हो चूका था, और आशा थी कि अगला प्रभात एक भीषण युद्ध का साक्षी होगा।
आधी रात्रि बीत चुकी थी। अरब सेना अपने शिविर में निश्चिन्त सो रही थी। अचानक तक्षक के संचालन में कन्नौज की एक चौथाई सेना अरब शिविर पर टूट पड़ी। अरबों को किसी हिन्दू शासक से रात्रि युद्ध की आशा न थी। वे उठते,सावधान होते और हथियार सँभालते इसके पुर्व ही आधे अरब गाजर मूली की तरह काट डाले गए। इस भयावह निशा में तक्षक का सौर्य अपनी पराकाष्ठा पर था। वह घोडा दौड़ाते जिधर निकल पड़ता उधर की भूमि शवों से पट जाती थी। उषा की प्रथम किरण से पुर्व अरबों की दो तिहाई सेना मारी जा चुकी थी। सुबह होते ही बची सेना पीछे भागी, किन्तु आश्चर्य! महाराज नागभट्ट अपनी शेष सेना के साथ उधर तैयार खड़े थे। दोपहर होते होते समूची अरब सेना काट डाली गयी। अपनी बर्बरता के बल पर विश्वविजय का स्वप्न देखने वाले आतंकियों को पहली बार किसी ने ऐसा उत्तर दिया था।
विजय के बाद महाराज ने अपने सभी सेनानायकों की ओर देखा, उनमे तक्षक का कहीं पता नही था।सैनिकों ने युद्धभूमि में तक्षक की खोज प्रारंभ की तो देखा- लगभग हजार अरब सैनिकों के शव के बीच तक्षक की मृत देह दमक रही थी। उसे शीघ्र उठा कर महाराज के पास लाया गया। कुछ क्षण तक इस अद्भुत योद्धा की ओर चुपचाप देखने के पश्चात महाराज नागभट्ट आगे बढ़े और तक्षक के चरणों में अपनी तलवार रख कर उसकी मृत देह को प्रणाम किया। युद्ध के पश्चात युद्धभूमि में पसरी नीरवता में भारत का वह महान सम्राट गरज उठा- आप आर्यावर्त की वीरता के शिखर थे तक्षक.... भारत ने अबतक मातृभूमि की रक्षा में प्राण न्योछावर करना सीखा था, आप ने मातृभूमि के लिए प्राण लेना सिखा दिया। भारत युगों युगों तक आपका आभारी रहेगा।
इतिहास साक्षी है, इस युद्ध के बाद अगले तीन शताब्दियों तक अरबों में भारत की तरफ आँख उठा कर देखने की हिम्मत नही हुई।
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साभार- Make_In_India

Saturday, October 31, 2015

Rajput saved India to become Middle east Muslim country


सन 712 ई० में अरबों ने सिंध पर आधिकार जमा कर भारत पर विजय पाने की ठान ली। इस काल में न तो कोई केन्द्रीय सत्ता थी और न कोई बुद्धिमान और कूटनीतिक शासक था जो अरबों की इस चुनौती का सामना करता। फ़लतः अरबों ने आक्रमणो की बाढ ला दी और सन 725 ई० में जैसलमेर, मारवाड, मांडलगढ और भडौच आदि इलाकों पर अपना आधिकार जमा लिया। ऐसे लगने लगा कि शीघ्र ही मध्य पूर्व की भांति भारत में भी इस्लाम का कहर बरसने लगेगा । ऐसे समय में दो शक्तियों का वरदान साबित हुई भारत को बचाने के लिए । एक ओर जहां नागभाट ने जैसलमेर. मारवाड, मांडलगढ से अरबों को खदेड कर जालौर में प्रतिहार राज्य की नींव डाली, वहां दूसरी ओर बप्पा रायडे ने चित्तौड के प्रसिद्ध दुर्ग पर अधिकार कर सन 734 ई० में मेवाड में गुहिल वंश को स्थापित किया और इस प्रकार अरबों के भारत विजय के मनसूबों पर पानी फ़ेर दिया।
मेवाड का गुहिल वंश संसार के प्राचीनतम राज वंशों में माना जाता है। मेवाड राज्य की केन्द्रीय सत्ता का पवित्र स्थल सौराष्ट्र रहा है। जिसकी राजधानी बल्लभीपुर थी और जिसके शासक सूर्य वंशी क्षत्रिय कहलात्र थे। यही सत्ता विस्थापन के बाद जब ईडर में स्थापित हुई तो गहलौत मान से प्रचलित हुई। ईडर से मेवाड स्थापित होने पर रावल गहलौत हो गई। कालान्तर में इसकी एक शाखा सिसोदे की जागीर की स्थापना करके सिसोदिया हो गई। चुंकि यह केन्द्रीय रावल गहलौत शाखा कनिष्ठ थी। इसलिय्र इसे राणा की उपाधि मिली। उन दिनों राजपुताना में यह परम्परा थी कि लहुरी शाखा को राणा उपाधि से सम्बोधित किया जाता था। कुछ पीढियों बाद एक युद्ध में रावल शाखा का अन्त हो गया और मेवाड की केन्द्रीय सत्ता पर सिसोदिया राणा का आधिपत्य हो गया। केन्द्र और उपकेन्द्र पहचान के लिए केन्द्रीय सत्ता के राणा महाराणा हो गये। अस्तु गहलौत वंश का इतिहास ही सिसोदिया वंश का इतिहास है।
मान्यता है कि सिसोदिया क्षत्रिय भगवान राम के कनिष्ठ पुत्र लव के वंशज हैं। सूर्यवंश के आदि पुरुष की 65 वीं पीढी में भगवान राम हुए 195 वीं पीढी में वृहदंतक हुये। 125 वीं पीढी में सुमित्र हुये। 155 वी. पीढी अर्थात सुमित्र की 30 वीं पीढी में गुहिल हु जो गहलोत वंश की संस्थापक पुरुष कहलाये। गुहिल से कुछ पीढी पहले कनकसेन हुए जिन्होंने सौराष्ट्र में सूर्यवंश के राज्य की स्थापना की। गुहिल का समय 540 ई० था। बटवारे में लव को श्री राम द्वारा उत्तरी पश्चिमी क्षेत्र मिला जिसकी राजधानी लवकोट थी। जो वर्तमान में लाहौर है। ऐसा कहा जाता है कि कनकसेन लवकोट से ही द्वारका आये। हालांकि वोश्वस्त प्रमाण नहीं है। टाड मानते है कि 145 ई० में कनकसेन द्वारका आये तथा वहां अपने राज्य की परमार शासक को पराजित कर स्थापना की जिसे आज सौराष्ट्र क्षेत्र कहा जाता है। कनकसेन की चौथी पीढी में पराक्रमी शासक सौराष्ट्र के विजय सेन हुए जिन्होने विजय नगर बसाया। विजय सेन ने विदर्भ की स्थापना की थी। जिसे आज सिहोर कहते हैं। तथा राजधानी बदलकर बल्लभीपुर ( वर्तमान भावनगर ) बनाया। इस वंश के शासकों की सूची कर्नल टाड देते हुए कनकसेन, महामदन सेन, सदन्त सेन, विजय सेन, पद्मादित्य, सेवादित्य, हरादित्य, सूर्यादित्य, सोमादित्य और शिला दित्य बताया। – 524 ई० में बल्लभी का अन्तिम शासक शिलादित्य थे। हालांकि कुछ इतिहासकार 766 ई० के बाद शिलादित्य के शासन का पतन मानते हैं। यह पतन पार्थियनों के आक्रमण से हुआ। शिलादित्य की राजधानी पुस्पावती के कोख से जन्मा पुत्र गुहादित्य की सेविका ब्रहामणी कमलावती ने लालन पालन किया। क्योंकि रानी उनके जन्म के साथ ही सती हो गई। गुहादित्य बचपन से ही होनहार था और ईडर के भील मंडालिका की हत्या करके उसके सिहांसन पर बैठ गया तथा उसके नाम से गुहिल, गिहील या गहलौत वंश चल पडा। कर्नल टाड के अनुसार गुहादित्य की आठ पीढियों ने ईडर पर शासन किया ये निम्न हैं – गुहादित्य, नागादित्य, भागादित्य, दैवादित्य, आसादित्य, कालभोज, गुहादित्य, नागादित्य।
जेम्स टाड के अनुसार शिकार के बहाने भीलों द्वारा नागादित्य की हत्या कर दी। इस समय इसके पुत्र बप्पा की आयु मात्र तीन वर्ष की थी। बप्पा की भी एक ब्राहमणी ने संरक्षण देकर अरावली के बीहड में शरण लिया। गौरीशंकर ओझा गुहादित्य और बप्पा के बीच की वंशावली प्रस्तुत की, वह सर्वाधिक प्रमाणिक मानी गई है जो निम्न है – गुहिल, भोज, महेन्द्र, नागादित्य, शिलादित्य, अपराजित, महेन्द्र द्वितीय और कालभोज बप्पा आदि। यह एक संयोग ही है कि गुहादित्य और मेवाड राज्य में गहलोत वंश स्थापित करने वाले बप्पा का बचपन अरावली के जंगल में उन्मुक्त, स्वच्छन्द वातावरण में व्यतीत हुआ। बप्पा के एक लिंग पूजा के कारण देवी भवानी का दर्शन उन्हे मिला और बाबा गोरखनाथ का आशिर्वाद भी। बडे होने पर चित्तौड के राजा से मिल कर बप्पा ने अपना वंश स्थापित किया और परमार राजा ने उन्हे पूरा स्नेह दिया। इसी समय विदेशी आक्रमणकारियों के आक्रमण को बप्पा ने विफ़ल कर चित्तोड से उन्हे गजनी तक खदेड कर अपने प्रथम सैन्य अभिमान में ही सफ़लता प्राप्त की। बप्पा द्वारा धारित रावल उपाधि रावल रणसिंह ( कर्ण सिंह ) 1158 ई० तक निर्वाध रुप से चलती रही। रावण रण सिंह के बाद रावल गहलोत की एक शाखा और हो गई। जो सिसोदिया के जागीर पर आसीन हुई जिसके संस्थापक माहव एवं राहप दो भाई थे। सिसोदा में बसने के कारण ये लोग सिसोदिया गहलौत कहलाये।
सत्ता परिवर्तन, स्थान परिवर्तन, व्यक्तिगत महत्वकांक्षा एवं राजपरिवार में संख्या वृद्धि से ही राजपूत वंशों में अनेक शाखाओं एवं उपशाखाओं ने जन्म लिया है। यह बाद गहलौत वंश के साथ भी देखने को मिली है। बप्पा के शासन काल मेवाड राज्य के विस्तार के साथ ही उसकी प्रतिष्ठा में भी अत्यधिक वृद्धि हुई है। बप्पा के बाद गहलौत वंश की शाखाओं का निम्न विकास हुआ।
1. अहाडिया गहलौत – अहाड नामक स्थान पर बसने के कारण यह नाम हुआ।
2. असिला गहलौत – सौराष्ट्र में बप्पा के पुत्र ने असिलगढ का निर्माण अपने नाम असिल पर किया जिससे इसका नाम असिला पडा।
3. पीपरा गहलौत – बप्पा के एक पुत्र मारवाड के पीपरा पर आधिपत्य पर पीपरा गहलौत वंश चलाया।
4. मागलिक गहलौत – लोदल के शासक मंगल के नाम पर यह वंश चला।
5. नेपाल के गहलोत – रतन सिंह के भाई कुंभकरन ने नेपाल में आधिपत्य किया अतः नेपाल का राजपरिवार भी मेवाढ की शाखा है।
6. सखनियां गहलौत – रतन सिंह के भाई श्रवण कुमार ने सौराष्ट्र में इस वंश की स्थापना की।
7. सिसौद गहलौत – कर्णसिंह के पुत्र को सिसौद की जागीर मिली और सिसौद के नाम पर सिसौदिया गहलौत कहलाया।

Tuesday, August 18, 2015

Fall of last king of Afganistan-King Dahir by his own Buddhist Minister -Soft Policy of pseudosecularism wiped out Hinduism

Raja Dahir of Sindh
This is a story of Islamist, Muslim and Islam barbaric atrocity and another example of how a softhearted Hindu and Buddhist destroyed each other. This is a story of betrayal by Buddhist Monk who wanted to get throne of King Dahir by betraying him but Islamist as they did and do now is to help one Hindu to destroy other and then finish Hindu friends. Same happened to all over India where one Rajput King stood against other by help of either Islamist or British power and lost their kingdom one by one and made India ruled by outsiders until Ajad Hind Military by Subhas Chandra Bose and Independence Martyrs like Bhagat Sing,Azad ,Khudiram Bose, etc got freedom for India 69 years ago with help of WW2, which collapsed British and limited them to one small country.
For thousands of years no one even dared to look at Bharat with a view to conquer it. But in 711 AD there was an aggressive and deadly attack on Sindh province. At this time, Sindh was ruled by Dahir Raja. The king was killed because of his pseudo secular policy and betrayal from so called peaceful Buddhist Monk whi did not fight as they wanted throne and infact helped Islamist barbaric Mohammed Bin Kasim, and lost not only empire but opened gates for HELL fro INDIA-FOR muslim invasion as they now knew weakness of India and its rulers.
Surya Devi & Piramal Devi" - The Brave princess of Sindh


Dahir was last Hindu King of Afghanistan, who was defeated by help of a few Hindus king who helped Md Bin Qasim against Dahir and another BUDHIST MONK guided all nook and croony of the fort. The Monk wanted after defeat of Dahir BUDHISM should Be the main religion of Sindh. King  Dahir was a lenient king ,Pseudo secular, everyone was free to follow ones religion even Muslim Merchants were allowed to live on seaside and make their mosques.
Buddhist betrayed King Dahir. Buddhist dreamed that they would be able to convert Muhammad bin qasim to Buddhism. Qasim slaughtered Buddhist in masses giving them appropriate lesson.



Hindu Girls being sold in Slave Markets of Bagdad
After King Dahir was killed,the Queen performed ‘Johar’ and ended her life. The palace was destroyed. Armed warriors entered the small towns and villages and killed innocent women, children and old people who were in their houses that was against rules of war. They destroyed temples and the idols residing in the temples. They destroyed schools. They raped young women. The way they treated those who were their victims, was utterly cruel.
In addition, since there was excessive adherence to the concept of non violence, even the army too was reluctant to fight as they were unofficially Buddhist and Buddhist Monk was with Mir Kasim to get throne. Sindh was defeated. Blood sucking, man-eating demons were dancing on the blood filled land and creating a ruckus.


In this way unfavourable anti-Hindu youth entered the western boundary of Bharat. In these adverse circumstances, our good qualities worked against us as they turned out to be our failings.’ – Prof. S. G. Shevde (Bharatiya Sanskruti, Page Nos. 35 & 36)
Story has heroism and turn here as daughters of King Dahir did exceptional Bravery-

Salutation to daughters of King Dahir who avenged the insulting defeat of Sindh by killing Mohammad Bin Qasim !:

King  Dahir had two daughters, Suryadevi and Parimaladevi who were sent to Baghdad as a gift for the Khalif. Our culture is one which treats a woman as a mother and here was another culture, which sent girls to their Dharma Guru for appeasement and enjoyment, which was a disgrace to mankind ! But both daughters of Dahir were very brave. They gained the confidence of the Khalif and he began to trust them. As they were given as gifts to Khalif, they were unable to prevent physical violation of their bodies but just see what they did do! They sent a letter to Mohammad Bin Qasim’s generals bearing the stamp and signature of the Khalif. The letter contained an order – ‘Put Mohammad in a leather bag, seal the bag and send it here’. The order was from the Khalif. The generals followed the order word to word; they put Mohammad alive in a letter bag, sealed the bag and sent it to Baghdad on a ship. When the ship reached Baghdad after 10-12 days, Mohammad Bin Qasim’s corpse had decayed to such an extent that worms had begun to devour the corpse. The decaying smell was unbearable.

The Khalif investigated as to ‘Why was he sent to him like this?’ The two girls then told the Khalif, “We sent a letter bearing your signature and stamp. We have taken revenge on the demon who inflicted untold misery in our kingdom. We have done this. We feel proud of what we have done. We have fulfilled our national duty. We are ready to face any consequences for this action.”

An enraged Khalifa tied the hair of the two girls to the tails of horses and made the horses run throughout Baghdad. The girls were being kicked by the horses and their bodies were being stripped of its skin in the process. Their hair was being pulled and their heads were dashing against the knees of horses. Except for the bloodied heads, both bodies were stripped and cut into pieces and were being dropped on the road. But the two girls, who were proud of having avenged the insult to their kingdom, did not have a single tear in their eyes as they embraced martyrdom.

(When Bharat gained independence, statues of these two girls should have been erected on the Sindh border.)’ 

– Prof. S. G. Shevde

Thursday, December 4, 2014

HOW RAJPUT DESTROYED THEMSELVES DUE TO "AHAM"

Photo: हम्मीरदेव चौहान रणथंभोर
एक राजपूत जिसने चार मुस्लिम शरणार्थी परिवारो की खातिर अपना सब कुछ लूटा  दिया अपना राज्य अपना परिवार अपना सब कुछ .....
 
अलाउद्दीन खिलजी की सेना गुजरात विजय से लौट रही थी रास्ते में गुजरात से लूटे धन के बंटवारे को लेकर उसके सेनानायिकों में विवाद हो गया | विवाद के चलते अलाउद्दीन का एक सेनानायिक पीर मुहम्मद शाह अपने भाइयों सहित बागी होकर रणथंभोर के इतिहास प्रसिद्ध शासक हम्मीरदेव के पास शरण हेतु चला गया | शरणागत की रक्षा करना क्षत्रिय का कर्तव्य होता है इसी कर्तव्य को निभाने हेतु हम्मीरदेव ने उन मुसलमान भाइयों को शरण दे दी | अपने बागी सेनानायिकों को हम्मीरदेव द्वारा शरण देना अलाउद्दीन खिलजी को नागवार गुजरा सो उसने एक विशाल सेना उलुगखां व निसुरतखां के नेतृत्व में हम्मीर के खिलाफ रणथंभोर भेज दी | उलुगखां ने हम्मीर को सन्देश भिजवाया कि- " वह उसके चार बागी मुसलमान सैनिको को उसे सौंप दे वह सेना लेकर वापस चला जायेगा पर हठी हम्मीर ने तो कह दिया कि -
"शरण में आये किसी भी व्यक्ति की रक्षा करना उसका कर्तव्य है इसलिए बेशक तुमसे युद्ध करना पड़े पर शरणागत को वापस नहीं करूँगा |"

इसके बाद दोनों और से एक दुसरे पर हमले हुए,हम्मीर के चौहान सैनिक अलाउद्दीन की सेना पर भारी पड़ रहे थे उन्हें जीतना आसान न था सो अलाउद्दीन खुद युद्ध के मैदान में आ डटा |
युद्ध में हम्मीर को परास्त करना बहुत मुश्किल था सो अलाउद्दीन ने कूटनीति चली उसने हम्मीर से संधि करने उसके आदमी भेजने को कहा और हम्मीर ने अपने जिस सेनापति को संधि के लिए भेजा अलाउद्दीन ने उसे रणथंभोर का राज्य देने का लालच दे अपनी और मिला लिया | किले के चारों और कई महीनों से घेरा पड़ा होने के चलते किले में राशन की भी कमी हो गयी थी उधर हम्मीर को अपने कई व्यक्तियों के शत्रु से मिलने की खबर से बड़ी खिन्नता हुई | चारों तरफ से धोखेबाजी की आशंका के चलते हम्मीर ने शाका करने का निर्णय लिया व मुहम्मदशाह को बुलाकर कहा -
" आप विदेशी है,आपत्ति के समय आपका यहाँ रहना उचित नहीं अत: आप जहाँ जाना चाहें स्वतंत्र है जा सकते है मैं आपको सुरक्षित जगह पहुंचा दूंगा |"
मुहम्मदशाह हम्मीरदेव के इन वचनों से बहुत मर्मविद्ध हुआ उसे लगा कि -कई लोगों से धोखा खाने के चलते कहीं हम्मीरदेव मुझ पर भी शंका तो नहीं करने लग गए | वह उसी वक्त अपने घर गया और अपने पुरे कुटुंब का क़त्ल कर दिया फिर आकर उसने हम्मीर से कहा -
"मेरे परिवार ने जाने की तैयारी करली है पर आपकी भाभी चाहती है कि जिसकी कृपा से इतने दिन आनंद से रहे उसके एक बार दर्शन तो करलें | सो महाराज एक बार मेरे घर चल कर मेरी पत्नी को दर्शन तो दे दीजिये |"

महाराज हम्मीरदेव मुहम्मदशाह के घर पहुंचे तो वहां का दृश्य देख हक्के बक्के रह गए,घर में चारों और खून बह रहा था मुहम्मदशाह की स्त्री व बच्चों के कटे अंग पड़े थे | हम्मीरदेव समझ गए कि ये सब किस वजह से हुआ है उन्हें मुहम्मदशाह को जाने वाली बात कहने का अब बहुत पश्चताप हुआ पर अब हो ही क्या सकता था |
आखिर वो दिन आ ही गया जिस दिन हम्मीरदेव ने केसरिया वस्त्र धारण कर किले के द्वार खोल शाका किया | उस युद्ध में मुहम्मदशाह और उसके भाइयों ने बड़ी वीरता के साथ युद्ध किया | मुहम्मदशाह को कई गोलियां लगी वह घायल होकर मूर्छित हो गया | स्वजातीय को न मारने की नीति के तहत उसे पकड़ कर अलाउद्दीन के पास ले जाया गया | अलाउद्दीन ने उस घायल मुहम्मदशाह से कहा -
" मैं तुम्हारे घावों की मरहम पट्टी करवाकर तुम्हे स्वस्थ करवा दूंगा पर ये बताओ कि स्वस्थ होने के बाद तुम मेरे साथ क्या सलूक करोगे ?"
" वही जो तुमने हम्मीरदेव के साथ किया | मैं तुम्हे मारकर तुम्हारी जगह हम्मीरदेव के पुत्र का राज्याभिषेक करवा दूंगा |" घायल मुहम्मदशाह ने फुफकारते हुए कहा | ऐसे शब्द कहने वाले मुहम्मदशाह की समानता तो कोई विरला वीर ही कर सकता है |

अलाउद्दीन खिलजी मुहम्मदशाह द्वारा इस तरह के वचन सुनकर बहुत क्रोधित हुआ और उसने मुहम्मदशाह को हाथी के पैरों से कुचलवाकर मारने का हुक्म दे दिया | उसके सैनिको ने मुहम्मदशाह को हाथियों के पैरों तले रोंदवा कर मार डाला |
बाद में जब अलाउदीन खिलजी को अहसास हुआ कि " मुहम्मदशाह अपने शरणदाता के प्रति कितना सच्चा वफादार व नमक हलाल निकला तो उसके मन में उस वीर के प्रति श्रद्धा के भाव उमड़ पड़े और उसने मुहम्मद शाह के शव को ससम्मान विधिवत दफ़नाने की आज्ञा दी |

एक और हम्मीरदेव चौहान ने अपने शरणागत की रक्षा के लिए अपना सर्वस्व लुटाकर भी क्षात्र धर्म के शरणागत की रक्षा करने 
के नियम का पालन किया वहीँ मुहम्मदशाह ने अपने शरणदाता के लिए अपना कुछ दांव पर लगाकर वीरगति प्राप्त की |हम्मीरदेव चौहान रणथंभोर
एक राजपूत जिसने चार मुस्लिम शरणार्थी परिवारो की खातिर अपना सब कुछ लूटा दिया अपना राज्य अपना परिवार अपना सब कुछ .....

अलाउद्दीन खिलजी की सेना गुजरात विजय से लौट रही थी रास्ते में गुजरात से लूटे धन के बंटवारे को लेकर उसके सेनानायिकों में विवाद हो गया | विवाद के चलते अलाउद्दीन का एक सेनानायिक पीर मुहम्मद शाह अपने भाइयों सहित बागी होकर रणथंभोर के इतिहास प्रसिद्ध शासक हम्मीरदेव के पास शरण हेतु चला गया | शरणागत की रक्षा करना क्षत्रिय का कर्तव्य होता है इसी कर्तव्य को निभाने हेतु हम्मीरदेव ने उन मुसलमान भाइयों को शरण दे दी | अपने बागी सेनानायिकों को हम्मीरदेव द्वारा शरण देना अलाउद्दीन खिलजी को नागवार गुजरा सो उसने एक विशाल सेना उलुगखां व निसुरतखां के नेतृत्व में हम्मीर के खिलाफ रणथंभोर भेज दी | उलुगखां ने हम्मीर को सन्देश भिजवाया कि- " वह उसके चार बागी मुसलमान सैनिको को उसे सौंप दे वह सेना लेकर वापस चला जायेगा पर हठी हम्मीर ने तो कह दिया कि -
"शरण में आये किसी भी व्यक्ति की रक्षा करना उसका कर्तव्य है इसलिए बेशक तुमसे युद्ध करना पड़े पर शरणागत को वापस नहीं करूँगा |"

इसके बाद दोनों और से एक दुसरे पर हमले हुए,हम्मीर के चौहान सैनिक अलाउद्दीन की सेना पर भारी पड़ रहे थे उन्हें जीतना आसान न था सो अलाउद्दीन खुद युद्ध के मैदान में आ डटा |
युद्ध में हम्मीर को परास्त करना बहुत मुश्किल था सो अलाउद्दीन ने कूटनीति चली उसने हम्मीर से संधि करने उसके आदमी भेजने को कहा और हम्मीर ने अपने जिस सेनापति को संधि के लिए भेजा अलाउद्दीन ने उसे रणथंभोर का राज्य देने का लालच दे अपनी और मिला लिया | किले के चारों और कई महीनों से घेरा पड़ा होने के चलते किले में राशन की भी कमी हो गयी थी उधर हम्मीर को अपने कई व्यक्तियों के शत्रु से मिलने की खबर से बड़ी खिन्नता हुई | चारों तरफ से धोखेबाजी की आशंका के चलते हम्मीर ने शाका करने का निर्णय लिया व मुहम्मदशाह को बुलाकर कहा -
" आप विदेशी है,आपत्ति के समय आपका यहाँ रहना उचित नहीं अत: आप जहाँ जाना चाहें स्वतंत्र है जा सकते है मैं आपको सुरक्षित जगह पहुंचा दूंगा |"
मुहम्मदशाह हम्मीरदेव के इन वचनों से बहुत मर्मविद्ध हुआ उसे लगा कि -कई लोगों से धोखा खाने के चलते कहीं हम्मीरदेव मुझ पर भी शंका तो नहीं करने लग गए | वह उसी वक्त अपने घर गया और अपने पुरे कुटुंब का क़त्ल कर दिया फिर आकर उसने हम्मीर से कहा -
"मेरे परिवार ने जाने की तैयारी करली है पर आपकी भाभी चाहती है कि जिसकी कृपा से इतने दिन आनंद से रहे उसके एक बार दर्शन तो करलें | सो महाराज एक बार मेरे घर चल कर मेरी पत्नी को दर्शन तो दे दीजिये |"

महाराज हम्मीरदेव मुहम्मदशाह के घर पहुंचे तो वहां का दृश्य देख हक्के बक्के रह गए,घर में चारों और खून बह रहा था मुहम्मदशाह की स्त्री व बच्चों के कटे अंग पड़े थे | हम्मीरदेव समझ गए कि ये सब किस वजह से हुआ है उन्हें मुहम्मदशाह को जाने वाली बात कहने का अब बहुत पश्चताप हुआ पर अब हो ही क्या सकता था |
आखिर वो दिन आ ही गया जिस दिन हम्मीरदेव ने केसरिया वस्त्र धारण कर किले के द्वार खोल शाका किया | उस युद्ध में मुहम्मदशाह और उसके भाइयों ने बड़ी वीरता के साथ युद्ध किया | मुहम्मदशाह को कई गोलियां लगी वह घायल होकर मूर्छित हो गया | स्वजातीय को न मारने की नीति के तहत उसे पकड़ कर अलाउद्दीन के पास ले जाया गया | अलाउद्दीन ने उस घायल मुहम्मदशाह से कहा -
" मैं तुम्हारे घावों की मरहम पट्टी करवाकर तुम्हे स्वस्थ करवा दूंगा पर ये बताओ कि स्वस्थ होने के बाद तुम मेरे साथ क्या सलूक करोगे ?"
" वही जो तुमने हम्मीरदेव के साथ किया | मैं तुम्हे मारकर तुम्हारी जगह हम्मीरदेव के पुत्र का राज्याभिषेक करवा दूंगा |" घायल मुहम्मदशाह ने फुफकारते हुए कहा | ऐसे शब्द कहने वाले मुहम्मदशाह की समानता तो कोई विरला वीर ही कर सकता है |

अलाउद्दीन खिलजी मुहम्मदशाह द्वारा इस तरह के वचन सुनकर बहुत क्रोधित हुआ और उसने मुहम्मदशाह को हाथी के पैरों से कुचलवाकर मारने का हुक्म दे दिया | उसके सैनिको ने मुहम्मदशाह को हाथियों के पैरों तले रोंदवा कर मार डाला |
बाद में जब अलाउदीन खिलजी को अहसास हुआ कि " मुहम्मदशाह अपने शरणदाता के प्रति कितना सच्चा वफादार व नमक हलाल निकला तो उसके मन में उस वीर 
के प्रति श्रद्धा के भाव उमड़ पड़े और उसने मुहम्मद शाह के शव को ससम्मान विधिवत दफ़नाने की आज्ञा दी |


एक और हम्मीरदेव चौहान ने अपने शरणागत की रक्षा के लिए अपना सर्वस्व लुटाकर भी क्षात्र धर्म के शरणागत की रक्षा करने
के नियम का पालन किया वहीँ मुहम्मदशाह ने अपने शरणदाता के लिए अपना कुछ दांव पर लगाकर वीरगति प्राप्त की |

ARAB ATTACKS AND RAJPUTANA

सन 712 ई० में अरबों ने सिंध पर आधिकार जमा कर भारत पर विजय पाने की ठान ली। इस काल में न तो कोई केन्द्रीय सत्ता थी और न कोई बुद्धिमान और कूटनीतिक शासक था जो अरबों की इस चुनौती का सामना करता। फ़लतः अरबों ने आक्रमणो की बाढ ला दी और सन 725 ई० में जैसलमेर, मारवाड, मांडलगढ और भडौच आदि इलाकों पर अपना आधिकार जमा लिया। ऐसे लगने लगा कि शीघ्र ही मध्य पूर्व की भांति भारत में भी इस्लाम का कहर बरसने लगेगा । ऐसे समय में दो शक्तियों का वरदान साबित हुई भारत को बचाने के लिए । एक ओर जहां नागभाट ने जैसलमेर. मारवाड, मांडलगढ से अरबों को खदेड कर जालौर में प्रतिहार राज्य की नींव डाली, वहां दूसरी ओर बप्पा रायडे ने चित्तौड के प्रसिद्ध दुर्ग पर अधिकार कर सन 734 ई० में मेवाड में गुहिल वंश को स्थापित किया और इस प्रकार अरबों के भारत विजय के मनसूबों पर पानी फ़ेर दिया।

मेवाड का गुहिल वंश संसार के प्राचीनतम राज वंशों में माना जाता है। मेवाड राज्य की केन्द्रीय सत्ता का पवित्र स्थल सौराष्ट्र रहा है। जिसकी राजधानी बल्लभीपुर थी और जिसके शासक सूर्य वंशी क्षत्रिय कहलात्र थे। यही सत्ता विस्थापन के बाद जब ईडर में स्थापित हुई तो गहलौत मान से प्रचलित हुई। ईडर से मेवाड स्थापित होने पर रावल गहलौत हो गई। कालान्तर में इसकी एक शाखा सिसोदे की जागीर की स्थापना करके सिसोदिया हो गई। चुंकि यह केन्द्रीय रावल गहलौत शाखा कनिष्ठ थी। इसलिय्र इसे राणा की उपाधि मिली। उन दिनों राजपुताना में यह परम्परा थी कि लहुरी शाखा को राणा उपाधि से सम्बोधित किया जाता था। कुछ पीढियों बाद एक युद्ध में रावल शाखा का अन्त हो गया और मेवाड की केन्द्रीय सत्ता पर सिसोदिया राणा का आधिपत्य हो गया। केन्द्र और उपकेन्द्र पहचान के लिए केन्द्रीय सत्ता के राणा महाराणा हो गये। अस्तु गहलौत वंश का इतिहास ही सिसोदिया वंश का इतिहास है।
मान्यता है कि सिसोदिया क्षत्रिय भगवान राम के कनिष्ठ पुत्र लव के वंशज हैं। सूर्यवंश के आदि पुरुष की 65 वीं पीढी में भगवान राम हुए 195 वीं पीढी में वृहदंतक हुये। 125 वीं पीढी में सुमित्र हुये। 155 वी. पीढी अर्थात सुमित्र की 30 वीं पीढी में गुहिल हु जो गहलोत वंश की संस्थापक पुरुष कहलाये। गुहिल से कुछ पीढी पहले कनकसेन हुए जिन्होंने सौराष्ट्र में सूर्यवंश के राज्य की स्थापना की। गुहिल का समय 540 ई० था। बटवारे में लव को श्री राम द्वारा उत्तरी पश्चिमी क्षेत्र मिला जिसकी राजधानी लवकोट थी। जो वर्तमान में लाहौर है। ऐसा कहा जाता है कि कनकसेन लवकोट से ही द्वारका आये। हालांकि वोश्वस्त प्रमाण नहीं है। टाड मानते है कि 145 ई० में कनकसेन द्वारका आये तथा वहां अपने राज्य की परमार शासक को पराजित कर स्थापना की जिसे आज सौराष्ट्र क्षेत्र कहा जाता है। कनकसेन की चौथी पीढी में पराक्रमी शासक सौराष्ट्र के विजय सेन हुए जिन्होने विजय नगर बसाया। विजय सेन ने विदर्भ की स्थापना की थी। जिसे आज सिहोर कहते हैं। तथा राजधानी बदलकर बल्लभीपुर ( वर्तमान भावनगर ) बनाया। इस वंश के शासकों की सूची कर्नल टाड देते हुए कनकसेन, महामदन सेन, सदन्त सेन, विजय सेन, पद्मादित्य, सेवादित्य, हरादित्य, सूर्यादित्य, सोमादित्य और शिला दित्य बताया। - 524 ई० में बल्लभी का अन्तिम शासक शिलादित्य थे। हालांकि कुछ इतिहासकार 766 ई० के बाद शिलादित्य के शासन का पतन मानते हैं। यह पतन पार्थियनों के आक्रमण से हुआ। शिलादित्य की राजधानी पुस्पावती के कोख से जन्मा पुत्र गुहादित्य की सेविका ब्रहामणी कमलावती ने लालन पालन किया। क्योंकि रानी उनके जन्म के साथ ही सती हो गई। गुहादित्य बचपन से ही होनहार था और ईडर के भील मंडालिका की हत्या करके उसके सिहांसन पर बैठ गया तथा उसके नाम से गुहिल, गिहील या गहलौत वंश चल पडा। कर्नल टाड के अनुसार गुहादित्य की आठ पीढियों ने ईडर पर शासन किया ये निम्न हैं - गुहादित्य, नागादित्य, भागादित्य, दैवादित्य, आसादित्य, कालभोज, गुहादित्य, नागादित्य।
जेम्स टाड के अनुसार शिकार के बहाने भीलों द्वारा नागादित्य की हत्या कर दी। इस समय इसके पुत्र बप्पा की आयु मात्र तीन वर्ष की थी। बप्पा की भी एक ब्राहमणी ने संरक्षण देकर अरावली के बीहड में शरण लिया। गौरीशंकर ओझा गुहादित्य और बप्पा के बीच की वंशावली प्रस्तुत की, वह सर्वाधिक प्रमाणिक मानी गई है जो निम्न है - गुहिल, भोज, महेन्द्र, नागादित्य, शिलादित्य, अपराजित, महेन्द्र द्वितीय और कालभोज बप्पा आदि। यह एक संयोग ही है कि गुहादित्य और मेवाड राज्य में गहलोत वंश स्थापित करने वाले बप्पा का बचपन अरावली के जंगल में उन्मुक्त, स्वच्छन्द वातावरण में व्यतीत हुआ। बप्पा के एक लिंग पूजा के कारण देवी भवानी का दर्शन उन्हे मिला और बाबा गोरखनाथ का आशिर्वाद भी। बडे होने पर चित्तौड के राजा से मिल कर बप्पा ने अपना वंश स्थापित किया और परमार राजा ने उन्हे पूरा स्नेह दिया। इसी समय विदेशी आक्रमणकारियों के आक्रमण को बप्पा ने विफ़ल कर चित्तोड से उन्हे गजनी तक खदेड कर अपने प्रथम सैन्य अभिमान में ही सफ़लता प्राप्त की। बप्पा द्वारा धारित रावल उपाधि रावल रणसिंह ( कर्ण सिंह ) 1158 ई० तक निर्वाध रुप से चलती रही। रावण रण सिंह के बाद रावल गहलोत की एक शाखा और हो गई। जो सिसोदिया के जागीर पर आसीन हुई जिसके संस्थापक माहव एवं राहप दो भाई थे। सिसोदा में बसने के कारण ये लोग सिसोदिया गहलौत कहलाये।
सत्ता परिवर्तन, स्थान परिवर्तन, व्यक्तिगत महत्वकांक्षा एवं राजपरिवार में संख्या वृद्धि से ही राजपूत वंशों में अनेक शाखाओं एवं उपशाखाओं ने जन्म लिया है। यह बाद गहलौत वंश के साथ भी देखने को मिली है। बप्पा के शासन काल मेवाड राज्य के विस्तार के साथ ही उसकी प्रतिष्ठा में भी अत्यधिक वृद्धि हुई है। बप्पा के बाद गहलौत वंश की शाखाओं का निम्न विकास हुआ।
1. अहाडिया गहलौत - अहाड नामक स्थान पर बसने के कारण यह नाम हुआ।
2. असिला गहलौत - सौराष्ट्र में बप्पा के पुत्र ने असिलगढ का निर्माण अपने नाम असिल पर किया जिससे इसका नाम असिला पडा।
3. पीपरा गहलौत - बप्पा के एक पुत्र मारवाड के पीपरा पर आधिपत्य पर पीपरा गहलौत वंश चलाया।
4. मागलिक गहलौत - लोदल के शासक मंगल के नाम पर यह वंश चला।
5. नेपाल के गहलोत - रतन सिंह के भाई कुंभकरन ने नेपाल में आधिपत्य किया अतः नेपाल का राजपरिवार भी मेवाढ की शाखा है।
6. सखनियां गहलौत - रतन सिंह के भाई श्रवण कुमार ने सौराष्ट्र में इस वंश की स्थापना की।
7. सिसौद गहलौत - कर्णसिंह के पुत्र को सिसौद की जागीर मिली और सिसौद के नाम पर सिसौदिया गहलौत कहलाया