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Monday, April 18, 2016

Ajit Singh -Sikh warrior

साहिबजादा अजीत सिंघ जी
• नामः साहिबजादा अजीत सिंघ जी
• जन्मः 26 जनवरी 1687
• जन्म स्थानः श्री पाउँटा साहिब जी
• पिता का नामः श्री गुरू गोबिन्द सिंघ जी...
• दादा का नामः श्री गुरू तेग बहादर साहिब जी
• पड़दादा का नामः श्री गुरू हरगोबिन्द साहिब जी
• किस वंश से संबंधः सोढी वंश
• कब शहीद हुएः 22 दिसम्बर 1705
• कहाँ शहीद हुएः चमकौर की गढ़ी
• किसके खिलाफ लड़ेः लगभग 10 लाख मुगलों के खिलाफ
• अन्तिम सँस्कार का स्थानः चमकौर की गढ़ी
• अन्तिम सँस्कार कब हुआः 25 दिसम्बर 1705


साहिबजादा अजीत सिंघ जी दसवें गुरू श्री गुरू गोबिन्द सिंघ जी के पुत्र, नौवें गुरू श्री गुरू तेग बहादर साहिब जी के पोते और छठवें गुरू श्री गुरू हरगोबिन्द साहिब जी के पड़पोते थे। आपका जन्म 26 जनवरी 1687 के दिन श्री पाउँटा साहिब जी में हुआ था। साहिबजादा अजीत सिंघ जी चुस्त और समझदार और बहुत ही बहादुर नौजवान थे। छोटेपन से ही वो गुरबाणी के प्रति आस्था रखते थे। जैसे ही उन्होंने जवानी में कदम रखा उन्होंने घुड़सवारी,कुश्ती, तलवारबारी और बन्दूक, तीर आदि चलाने में महारत हासिल की। छोटी उम्र में ही आप शस्त्र चलाने में माहिर हो गए थे।
• 12 साल की उम्र में वो 23 मई 1699 के दिन 100 सिंघों का जत्था लेकर श्री आनंदपुर साहिब के नजदीक नूर गाँव गए। उन्होंने वहाँ के रँघड़ों को, जिन्होंने पौठार की सँगत को श्री आनँदपुर साहिब जी आते समय लूट लिया था, सजा दी।
• 29 अगस्त 1700 के दिन जब मुगलों ने किला तारागढ़ पर हमला किया तो साहिबजादा अजीत सिंघ जी ने उनका मुकाबला बड़ी बहादुरी के साथ किया।
• अक्टूबर के पहले हफ्ते, 1700 में जब मुगल फौजों ने किला निरमोहगढ़ पर हमला किया तो साहिबजादा अजीत सिंघ जी सबसे आगे होकर लड़े और उन्होंने कई मुगल हमलावरों के सिर उतार दिए।
• इसी प्रकार जब 15 मार्च 1700 के दिन वह सिक्खों का जत्था लेकर बजरूढ़ गाँव गए। बजरूढ़ गाँव के वासियों ने कई बार सिक्ख सँगतों को जो कि श्री आनँदपुर साहिब जी में गुरू साहिब जी के दर्शन करने के लिए आते थे उन्हें लूट लेते थे। साहिबजादा अजीत सिंघ जी ने उन लूटेरों को सख्त सजा दी।
• इसी प्रकार 7 मार्च 1703 में साहिबजादा अजीत सिंघ जी बस्सी कलाँ गए। बसिआँ का मालिक हाकिम जाबर खान इस इलाके के हिन्दूओं पर हर प्रकार का जूल्म और जबरन लडकियों, औरतों की बेइज्जती करता था। एक प्रसँग में होशियारपुर जिले के जोजे शहर के गरीब ब्राहम्ण की धर्म-पत्नि की डोली हाकम जाबर खान हथिया कर अपने महल ले आया। दुखी ब्राहम्ण धार्मिक आगूओं, राजाओं के पास जाकर रोया,लेकिन उसकी कोई सुनवाई नहीं हुई। फिर देवी दास श्री गुरू गोबिन्द सिंघ जी के पास श्री आनँदपुर सहिब जी जा पहुँचा और घटना कही। गुरू जी ने अजीत सिंघ के साथ200 बहादुर सिक्खों का जत्था हाकम जाबर खान को सबक सिखाने के लिए भेजा। अजीत सिंघ जी ने अपने जत्थे समेत जाबर खान पर हमला किया, धमासान की जँग में घायल जाबर खान को बाँध लिया गया, साथ ही देवी दास की पत्नि को देवी दास के साथ उसके घर भेज दिया। साहिबजादा अजीत सिंघ जी इसके बाद जहाँ पहुँचे वहाँ गुरदुआरा शहीदाँ लदेवाल महिलपुर स्थित है। जखमी सिंघों मे से कुछ रात को शहीद हो गए। उन सिंघों का सँस्कार साहिबजादा अजीत सिंघ जी ने सुबह अपने हाथों से किया।
साहिबजादा अजीत सिंघ जी ने अपनी उम्र का बहुत सारा हिस्सा श्री आनँदपुर साहिब जी में ही गुजारा। वह हमेशा अपने पिता श्री गुरू गोबिन्द सिंघ साहिब जी के साथ ही रहते थे। जब मई 1705 में मुगल फौजों ने श्री आनँदपुर साहिब जी को घेरे में लिया तो आप भी वहीं थे।
20 दिसम्बर 1705 की रात को जब गुरू साहिब जी ने श्री आनँदपुर साहिब जी छोड़ा तो साहिबजादा अजीत सिंघ जी भी इसमें शामिल थे। पाँच सौ सिक्खों का यह काफिला श्री आनँदपुर साहिब जी से कीरतपुर तक चुपचाप निकल गया। गुरू साहिब जी ने साहिबजादा अजीत सिंघ जी एक विशेष जत्था देकर श्री आनँदपुर साहिब जी से भेजा था। यह जत्था सबसे पीछे आ रहा था। इस जत्थे को सरसा नदी पार करके रोपड़ की तरफ जाना था। रोपड़ जाते समय गाँव मलकपुर के पास उनको भाई बचितर सिंघ, जो बहुत जख्मी हालत में थे,वहाँ मिले। उन्होंने उसको साथियों की मदद से उठाया और वहाँ से 6 किलोमीटर दूर कोटला निहँग ले गए।
कीरतपुर से लगभग चार कोस की दूरी पर सरसा नदी है। जिस समय सिक्खों का काफिला इस बरसाती नदी के किनारे पहुँचा तो इसमें भयँकर बाढ़ आई हुई थी और पानी जोरों पर था। इस समय सिक्ख भारी कठिनाई में घिर गए। उनके पिछली तरफ शत्रु दल मारो-मार करता आ रहा था और सामने सरसा नदी फुँकारा मार रही थी, निर्णय तुरन्त लेना था। अतः श्री गुरू गोबिन्द सिंह जी ने कहा कि कुछ सैनिक यहीं शत्रु को युद्ध में उलझा कर रखों और जो सरसा पार करने की क्षमता रखते हैं वे अपने घोड़े सरसा के बहाव के साथ नदी पार करने का प्रयत्न करें।
ऐसा ही किया गया। भाई उदय सिंह तथा जीवन सिंह अपने अपने जत्थे लेकर शत्रु के साथ भिड़ गये। इतने में गुरूदेव जी सरसा नदी पार करने में सफल हो गए। किन्तु सैकड़ों सिंघ सरसा नदी पार करते हुए मौत का शिकार हो गए क्योंकि पानी का वेग बहुत तीखा था। कई तो पानी के बहाव में बहते हुए कई कोस दूर बह गए। जाड़े ऋतु की वर्षा, नदी का बर्फीला ठँडा पानी, इन बातों ने गुरूदेव जी के सैनिकों के शरीरों को सुन्न कर दिया। इसी कारण शत्रु सेना ने सरसा नदी पार करने का साहस नहीं किया।
सरसा नदी पार करने के पश्चात 40 सिक्ख दो बड़े साहिबजादे अजीत सिंह तथा जुझार सिंह के अतिरिक्त गुरूदेव जी स्वयँ कुल मिलाकर 43 व्यक्तियों की गिनती हुईं। नदी के इस पार भाई उदय सिंह मुगलों के अनेकों हमलों को पछाड़ते रहे ओर वे तब तक वीरता से लड़ते रहे जब तक उनके पास एक भी जीवित सैनिक था और अन्ततः वे युद्ध भूमि में गुरू आज्ञा निभाते और कर्त्तव्य पालन करते हुए वीरगति पा गये।
इस भयँकर उथल-पुथल में गुरूदेव जी का परिवार उनसे बिछुड़ गया। भाई मनी सिंह जी के जत्थे में माता साहिब कौर जी व माता सुन्दरी कौर जी और दो टहल सेवा करने वाली दासियाँ थी। दो सिक्ख भाई जवाहर सिंह तथा धन्ना सिंह जो दिल्ली के निवासी थे, यह लोग सरसा नदी पार कर पाए, यह सब हरिद्वार से होकर दिल्ली पहुँचे। जहाँ भाई जवाहर सिंह इनको अपने घर ले गया। दूसरे जत्थे में माता गुजरी जी छोटे साहबज़ादे जोरावर सिंघ और फतेह सिंघ तथा गँगा राम ब्राह्मण ही थे, जो गुरू घर का रसोईया था। इसका गाँव खेहेड़ी यहाँ से लगभग 15 कोस की दूरी पर मौरिंडा कस्बे के निकट था। गँगा राम माता गुजरी जी व साहिबज़ादों को अपने गाँव ले गया।
गुरूदेव जी अपने चालीस सिक्खों के साथ आगे बढ़ते हुए दोपहर तक चमकौर नामक क्षेत्र के बाहर एक बगीचे में पहुँचे। यहाँ के स्थानीय लोगों ने गुरूदेव जी का हार्दिक स्वागत किया और प्रत्येक प्रकार की सहायता की। यहीं एक किलानुमा कच्ची हवेली थी जो सामरिक दृष्टि से बहुत महत्त्वपूर्ण थी क्योंकि इसको एक ऊँचे टीले पर बनाया गया था। जिसके चारों ओर खुला समतल मैदान था। हवेली के स्वामी बुधीचन्द ने गुरूदेव जी से आग्रह किया कि आप इस हवेली में विश्राम करें।
गुरूदेव जी ने आगे जाना उचित नहीं समझा। अतः चालीस सिक्खों को छोटी छोटी टुकड़ियों में बाँट कर उनमें बचा खुचा असला बाँट दिया और सभी सिक्खों को मुकाबले के लिए मोर्चो पर तैनात कर दिया। अब सभी को मालूम था कि मृत्यु निश्चित है परन्तु खालसा सैन्य का सिद्धान्त था कि शत्रु के समक्ष हथियार नहीं डालने केवल वीरगति प्राप्त करनी है।
अतः अपने प्राणों की आहुति देने के लिए सभी सिक्ख तत्पर हो गये। गरूदेव अपने चालीस शिष्यों की ताकत से असँख्य मुगल सेना से लड़ने की योजना बनाने लगे। गुरूदेव जी ने स्वयँ कच्ची गढ़ी (हवेली) के ऊपर अट्टालिका में मोर्चा सम्भाला। अन्य सिक्खों ने भी अपने अपने मोर्चे बनाए और मुगल सेना की राह देखने लगे।
उधर जैसे ही बरसाती नाला सरसा के पानी का बहाव कम हुआ। मुग़ल सेना टिड्डी दल की तरह उसे पार करके गुरूदेव जी का पीछा करती हुई चमकौर के मैदान में पहुँची। देखते ही देखते उसने गुरूदेव जी की कच्ची गढ़ी को घेर लिया। मुग़ल सेनापतियों को गाँव वालों से पता चल गया था कि गुरूदेव जी के पास केवल चालीस ही सैनिक हैं। अतः वे यहाँ गुरूदेव जी को बन्दी बनाने के स्वप्न देखने लगे। सरहिन्द के नवाब वजीर ख़ान ने भोर होते ही मुनादी करवा दी कि यदि गुरूदेव जी अपने आपको साथियों सहित मुग़ल प्रशासन के हवाले करें तो उनकी जान बख्शी जा सकती है। इस मुनादी के उत्तर में गुरूदेव जी ने मुग़ल सेनाओं पर तीरों की बौछार कर दी।
इस समय मुकाबला चालीस सिक्खों का हज़ारों असँख्य (लगभग 10 लाख) की गिनती में मुग़ल सैन्यबल के साथ था। इस पर गुरूदेव जी ने भी तो एक-एक सिक्ख को सवा-सवा लाख के साथ लड़ाने की सौगन्ध खाई हुई थी। अब इस सौगन्ध को भी विश्व के समक्ष क्रियान्वित करके प्रदर्शन करने का शुभ अवसर आ गया था।
• 22 दिसम्बर सन 1704 को सँसार का अनोखा युद्ध प्रारम्भ हो गया। आकाश में घनघोर बादल थे और धीमी धीमी बूँदाबाँदी हो रही थी। वर्ष का सबसे छोटा दिन होने के कारण सूर्य भी बहुत देर से उदय हुआ था, कड़ाके की शीत लहर चल रही थी किन्तु गर्मजोशी थी तो कच्ची हवेली में आश्रय लिए बैठे गुरूदेव जी के योद्धाओं के हृदय में।
• कच्ची गढ़ी पर आक्रमण हुआ। भीतर से तीरों और गोलियों की बौछार हुई। अनेक मुग़ल सैनिक हताहत हुए। दोबारा सशक्त धावे का भी यही हाल हुआ। मुग़ल सेनापतियों को अविश्वास होने लगा था कि कोई चालीस सैनिकों की सहायता से इतना सबल भी बन सकता है। सिक्ख सैनिक लाखों की सेना में घिरे निर्भय भाव से लड़ने-मरने का खेल, खेल रहे थे। उनके पास जब गोला बारूद और बाण समाप्त हो गए किन्तु मुग़ल सैनिकों की गढ़ी के समीप भी जाने की हिम्मत नहीं हुई तो उन्होंने तलवार और भाले का युद्ध लड़ने के लिए मैदान में निकलना आवश्यक समझा।
• सर्वप्रथम भाई हिम्मत सिंघ जी को गुरूदेव जी ने आदेश दिया कि वह अपने साथियों सहित पाँच का जत्था लेकर रणक्षेत्र में जाकर शत्रु से जूझे। तभी मुग़ल जरनैल नाहर ख़ान ने सीढ़ी लगाकर गढ़ी पर चढ़ने का प्रयास किया किन्तु गुरूदेव जी ने उसको वहीं बाण से भेद कर चित्त कर दिया। एक और जरनैल ख्वाजा महमूद अली ने जब साथियों को मरते हुए देखा तो वह दीवार की ओट में भाग गया। गुरूदेव जी ने उसकी इस बुजदिली के कारण उसे अपनी रचना में मरदूद करके लिखा है।
• सरहिन्द के नवाब ने सेनाओं को एक बार इक्ट्ठे होकर कच्ची गढ़ी पर पूर्ण वेग से आक्रमण करने का आदेश दिया। किन्तु गुरूदेव जी ऊँचे टीले की हवेली में होने के कारण सामरिक दृष्टि से अच्छी स्थिति में थे। अतः उन्होंने यह आक्रमण भी विफल कर दिया और सिँघों के बाणों की वर्षा से सैकड़ों मुग़ल सिपाहियों को सदा की नींद सुला दिया।
• सिक्खों के जत्थे ने गढ़ी से बाहर आकर बढ़ रही मुग़ल सेना को करारे हाथ दिखलाये। गढ़ी की ऊपर की अट्टालिका (अटारी) से गुरूदेव जी स्वयँ अपने योद्धाओं की सहायता शत्रुओं पर बाण चलाकर कर रहे थे। घड़ी भर खूब लोहे पर लोहा बजा। सैकड़ों सैनिक मैदान में ढेर हो गए। अन्ततः पाँचों सिक्ख भी शहीद हो गये।
• फिर गुरूदेव जी ने पाँच सिक्खों का दूसरा जत्था गढ़ी से बाहर रणक्षेत्र में भेजा। इस जत्थे ने भी आगे बढ़ते हुए शत्रुओं के छक्के छुड़ाए और उनको पीछे धकेल दिया और शत्रुओं का भारी जानी नुक्सान करते हुए स्वयँ भी शहीद हो गए। इस प्रकार गुरूदेव जी ने रणनीति बनाई और पाँच पाँच के जत्थे बारी बारी रणक्षेत्र में भेजने लगे। जब पाँचवा जत्था शहीद हो गया तो दोपहर का समय हो गया था।
• सरहिन्द के नवाब वज़ीर ख़ान की हिदायतों का पालन करते हुए जरनैल हदायत ख़ान,इसमाईल खान, फुलाद खान, सुलतान खान, असमाल खान, जहान खान, खलील ख़ान और भूरे ख़ान एक बारगी सेनाओं को लेकर गढ़ी की ओर बढ़े। सब को पता था कि इतना बड़ा हमला रोक पाना बहुत मुश्किल है। इसलिए अन्दर बाकी बचे सिक्खों ने गुरूदेव जी के सम्मुख प्रार्थना की कि वह साहिबजादों सहित युद्ध क्षेत्र से कहीं ओर निकल जाएँ।
• यह सुनकर गुरूदेव जी ने सिक्खों से कहा– ‘तुम कौन से साहिबजादों (बेटों) की बात करते हो, तुम सभी मेरे ही साहबजादे हो’ गुरूदेव जी का यह उत्तर सुनकर सभी सिक्ख आश्चर्य में पड़ गये। गुरूदेव जी के बड़े सुपुत्र अजीत सिंघ पिता जी के पास जाकर अपनी युद्धकला के प्रदर्शन की अनुमति माँगने लगे। गुरूदेव जी ने सहर्ष उन्हें आशीष दी और अपना कर्त्तव्य पूर्ण करने को प्रेरित किया।
• साहिबजादा अजीत सिंघ के मन में कुछ कर गुजरने के वलवले थे, युद्धकला में निपुणता थी। बस फिर क्या था वह अपने चार अन्य सिक्खों को लेकर गढ़ी से बाहर आए और मुगलों की सेना पर ऐसे टूट पड़े जैसे शार्दूल मृग-शावकों पर टूटता है। अजीत सिंघ जिधर बढ़ जाते, उधर सामने पड़ने वाले सैनिक गिरते, कटते या भाग जाते थे। पाँच सिंघों के जत्थे ने सैंकड़ों मुगलों को काल का ग्रास बना दिया।
• अजीत सिंघ ने अविस्मरणीय वीरता का प्रदर्शन किया, किन्तु एक एक ने यदि हजार हजार भी मारे हों तो सैनिकों के सागर में से चिड़िया की चोंच भर नीर ले जाने से क्या कमी आ सकती थी। साहिबजादा अजीत सिंह को, छोटे भाई साहिबज़ादा जुझार सिंघ ने जब शहीद होते देखा तो उसने भी गुरूदेव जी से रणक्षेत्र में जाने की आज्ञा माँगी

Thursday, December 4, 2014

HOW VIVEKANAND WAS SENT TO USA BY RAJPUT AJIT SINGH JI

Photo: बहुत कम लोगो को पता है की खेतड़ी ,झुन्जुनु के महाराज अजित सिंहजी ने “स्वामी विवेकानद जी “ को अपने खुद के खर्चे पर अमेरिका में हुयी धरम संसद के लिए शिकागो भेजा था ……जहा स्वामी विवेकानंदा ने भारत का मानं बढ़ाया और विश्व का सर्वोत्तम भाषण दिया 

1891 में स्वामी विवेकानंद का राजस्थान आना हुआ। उस दौरान राजपुताना ही ऐसा प्रदेश था, जहां उन्होंने व्यापक स्तर पर बौद्धिक चर्चाएं शुरू कीं। उस समय तत्कालीन राजा मंगल सिंह मूर्तिपूजा के विरोधी थे। स्वामी जी ने ही राजा को अध्यात्म की सही परिभाषा बताई। अलवर से स्वामी जयपुर गए और वहां से माउंट आबू। वहां उनकी मुलाकात मुंशी फैज अली से हुई। मुंशी स्वामी जी से मिलकर बेहद प्रभावित हुए। वे समझ गए थे कि स्वामी जी का व्यक्तित्व अद्भुत है। उस दौरान आबू पर्वत पर राजपूत राजाओं की कोठियां हुआ करती थीं।मुंशी उन्हें खेतड़ी के राजा अजित सिंह के पास ले गए। अजीत सिंह खुद धार्मिक इंसान थे। वे स्वामी जी से मिलकर खुश हुए। अजीत सिंह उन्हें अपने साथ खेतड़ी ले गए। इस बीच काफी वक्त स्वामी जी ने खेतड़ी में ही गुजारा। 1893 में अमेरिका के शिकागो में धर्म संसद होने वाली थी। स्वामी जी के अनुयायी चाहते थे कि वे इसमें जाएं और हिंदू धर्म व वेदांत के बारे में अपना पक्ष रखें। अजित सिंह ने स्वामी जी से अनुरोध किया कि आप अमेरिका खेतड़ी दरबार के गुरु के रूप में जाएंगे। स्वामी जी का नाम उस समय तक विविदिशानंद था। यह नाम उ’चारण में मुश्किल होने के कारण अजित सिंह ने ही उन्हें विवेकानंद नाम रखने का निवेदन किया, वहीं अजित सिंह ने स्वामी जी की अमेरिका यात्रा का बंदोबस्त भी करवाया। उस दौरान खेतड़ी दरबार की ओर से स्वामी जी की मां व भाई के लिए 100 रुपए की धनराशि भी कोलकाता भिजवाई जाती थी,जो स्वामी जी के देहावसान के बाद भी जारी रही।

Shekhawat Ajit Singh ji of khetri is known for providing financial support to Vivekananda, and encouraging him to speak at the Parliament of the World’s Religions at Chicago in 1893.
From 1891 Ajit Singh started sending monthly stipend of INR 100 to Vivekanada’s family in Kolkata. On 1 December 1898 Vivekananda wrote a letter to Ajit Singh from Belur in which he requested him to make the donation permanent so that even after Vivekananda’s death his mother (Bhuvaneswari Devi 1841—1911) gets the financial assistance on regular basis. The letter archive of Khetri reveals he had frequent communication with the family members of Vivekananda

for pic - http://www.rkmissionkhetri.org/news/?cat=6
बहुत कम लोगो को पता है की खेतड़ी ,झुन्जुनु के महाराज अजित सिंहजी ने “स्वामी विवेकानद जी “ को अपने खुद के खर्चे पर अमेरिका में हुयी धरम संसद के लिए शिकागो भेजा था ……जहा स्वामी विवेकानंदा ने भारत का मानं बढ़ाया और विश्व का सर्वोत्तम भाषण दिया 

1891 में स्वामी विवेकानंद का राजस्थान आना हुआ। उस दौरान राजपुताना ही ऐसा प्रदेश था, जहां उन्होंने व्यापक स्तर पर बौद्धिक चर्चाएं शुरू कीं। उस समय तत्कालीन राजा मंगल सिंह मूर्तिपूजा के विरोधी थे। स्वामी जी ने ही राजा को अध्यात्म की सही परिभाषा बताई। अलवर से स्वामी जयपुर गए और वहां से माउंट आबू। वहां उनकी मुलाकात मुंशी फैज अली से हुई। मुंशी स्वामी जी से मिलकर बेहद प्रभावित हुए। वे समझ गए थे कि स्वामी जी का व्यक्तित्व अद्भुत है। उस दौरान आबू पर्वत पर राजपूत राजाओं की कोठियां हुआ करती थीं।मुंशी उन्हें खेतड़ी के राजा अजित सिंह के पास ले गए। अजीत सिंह खुद धार्मिक इंसान थे। वे स्वामी जी से मिलकर खुश हुए। अजीत सिंह उन्हें अपने साथ खेतड़ी ले गए। इस बीच काफी वक्त स्वामी जी ने खेतड़ी में ही गुजारा। 1893 में अमेरिका के शिकागो में धर्म संसद होने वाली थी। स्वामी जी के अनुयायी चाहते थे कि वे इसमें जाएं और हिंदू धर्म व वेदांत के बारे में अपना पक्ष रखें। अजित सिंह ने स्वामी जी से अनुरोध किया कि आप अमेरिका खेतड़ी दरबार के गुरु के रूप में जाएंगे। स्वामी जी का नाम उस समय तक विविदिशानंद था। यह नाम उ’चारण में मुश्किल होने के कारण अजित सिंह ने ही उन्हें विवेकानंद नाम रखने का निवेदन किया, वहीं अजित सिंह ने स्वामी जी की अमेरिका यात्रा का बंदोबस्त भी करवाया। उस दौरान खेतड़ी दरबार की ओर से स्वामी जी की मां व भाई के लिए 100 रुपए की धनराशि भी कोलकाता भिजवाई जाती थी,जो स्वामी जी के देहावसान के बाद भी जारी रही।



Shekhawat Ajit Singh ji of khetri is known for providing financial support to Vivekananda, and encouraging him to speak at the Parliament of the World’s Religions at Chicago in 1893.
From 1891 Ajit Singh started sending monthly stipend of INR 100 to Vivekanada’s family in Kolkata. On 1 December 1898 Vivekananda wrote a letter to Ajit Singh from Belur in which he requested him to make the donation permanent so that even after Vivekananda’s death his mother (Bhuvaneswari Devi 1841—1911) gets the financial assistance on regular basis. The letter archive of Khetri reveals he had frequent communication with the family members of Vivekananda

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