आइये सच्चाई जाने।
हिन्दू धर्म :-1280 धर्म ग्रन्थ, 10000 से ज्यादा जातियां, एक लाख से ज्यादा उपजातियां, हज़ारों ऋषि मुनि, सेकड़ों भाषाएँ। फिर भी सब सभी मंदिरों में जाते हैं शांति, सहन शीलता से रहते है।
उपरोक्त तथ्य को हिन्दू धर्म की भव्यता के रूप में प्रचारित किया जाता है ।
आइये इसका विश्लेषण करे।
भिन्न भिन्न मतों भगवानो और पूजा पद्धतियों में बंटा हिन्दू समाज सिर्फ सभी मंदिरो में ही नहीं जाता बल्कि विदेशी धर्मो के स्थलो पर माथा टिका आता है , मोमबत्तियां जला आता है।
यह समाज तो अपने ही पूर्वजो के हत्यारो की कब्रो पर मजारो पर चादर चढ़ा आता है। जिस दिन मुसलमान हज़ारो गाय काट कर ईद मनाते है । यह भोला सा हिन्दू उन्हें इसकी भी बधाई दे आता है।
और एक दूसरे की धार्मिक मान्यताओं का सम्मान करने की विचारधारा को भव्यता का नाम दिया जाता है ।
ये भव्यता है या मूर्खता विचार करते है
हिन्दू एक दूसरे की धार्मिक भावना का सम्मान सिर्फ दो कारण से करता है ।
पहला: ना अपने धर्म का सत्य ज्ञान और ना दूसरे धर्म का सत्य ज्ञान । इसलिए लालच व मूर्खता वश हर एक के आगे झोली फैला कर खड़ा हो जाता है। कभी कभी तो ऐसे ऐसे मंदिरो के देवी देवताओं की भी पूजा करता है जहाँ पशुबलि होती है। सिर्फ इस सोच में की कही ये देवता नाराज़ ना हो जाए। इस अज्ञानता में यह मिटटी को ,कांच को ,प्लास्टिक को ,गोबर को , पत्थर को भगवान् मान कर पूजता है । इसकी अज्ञानता व लालच यही खत्म नहीं होता यह अपने मनोकामना की सिद्धि के लिए विवेक व पुरषार्थ का त्याग कर नशेड़ी भांग ,सुल्फा वाले बाबा को भी पूजने लगता है की कोई भी छूट ना जाए।
दूसरा कारण है भय । हिन्दू समाज ने 1000 साल की गुलामी भोगी है और अनेको कष्ट सहे है । यह भयभीत है कष्टो से दुखो से गुलामी से और इस भय के कारण सभी से नम्र बनकर रहता है । अत्याचारियो ओर आक्रांताओं को भी इस भय ने अतिथि बना दिया। संसार की सबसे वीर कहे जाने वाली हिन्दू जाति ने भी मुल्लो को अपना जमाई स्वीकार कर लिया ।
कब तक अपनी मूर्खता अज्ञानता कायरता और डर को अपनी भव्यता का नाम दोगे।
याद रखना ये भिन्न भिन्न जातीयाँ पूजा पद्धतियाँ अनेको भगवान् हमारी कमजोरी का सूचक है । हमारे विघटन का सूचक है।
आयो एक बने संघठित बने।
श्री राम व श्री कृष्ण की तरह आर्य बने । एक ईश्वर एक धर्म और एक ही पूजा पद्धति अपनाये जो श्री राम की थी जो बजरंग बली हनुमान की थी ।
आयो वेदों की शरण में आयो । जो श्रष्टी के आरंभ में ईश्वर प्रदत्त आज्ञाएं है । जाती व भिन्नता मुक्त आर्यो का समाज बनाये।
हिन्दू धर्म :-1280 धर्म ग्रन्थ, 10000 से ज्यादा जातियां, एक लाख से ज्यादा उपजातियां, हज़ारों ऋषि मुनि, सेकड़ों भाषाएँ। फिर भी सब सभी मंदिरों में जाते हैं शांति, सहन शीलता से रहते है।
उपरोक्त तथ्य को हिन्दू धर्म की भव्यता के रूप में प्रचारित किया जाता है ।
आइये इसका विश्लेषण करे।
भिन्न भिन्न मतों भगवानो और पूजा पद्धतियों में बंटा हिन्दू समाज सिर्फ सभी मंदिरो में ही नहीं जाता बल्कि विदेशी धर्मो के स्थलो पर माथा टिका आता है , मोमबत्तियां जला आता है।
यह समाज तो अपने ही पूर्वजो के हत्यारो की कब्रो पर मजारो पर चादर चढ़ा आता है। जिस दिन मुसलमान हज़ारो गाय काट कर ईद मनाते है । यह भोला सा हिन्दू उन्हें इसकी भी बधाई दे आता है।
और एक दूसरे की धार्मिक मान्यताओं का सम्मान करने की विचारधारा को भव्यता का नाम दिया जाता है ।
ये भव्यता है या मूर्खता विचार करते है
हिन्दू एक दूसरे की धार्मिक भावना का सम्मान सिर्फ दो कारण से करता है ।
पहला: ना अपने धर्म का सत्य ज्ञान और ना दूसरे धर्म का सत्य ज्ञान । इसलिए लालच व मूर्खता वश हर एक के आगे झोली फैला कर खड़ा हो जाता है। कभी कभी तो ऐसे ऐसे मंदिरो के देवी देवताओं की भी पूजा करता है जहाँ पशुबलि होती है। सिर्फ इस सोच में की कही ये देवता नाराज़ ना हो जाए। इस अज्ञानता में यह मिटटी को ,कांच को ,प्लास्टिक को ,गोबर को , पत्थर को भगवान् मान कर पूजता है । इसकी अज्ञानता व लालच यही खत्म नहीं होता यह अपने मनोकामना की सिद्धि के लिए विवेक व पुरषार्थ का त्याग कर नशेड़ी भांग ,सुल्फा वाले बाबा को भी पूजने लगता है की कोई भी छूट ना जाए।
दूसरा कारण है भय । हिन्दू समाज ने 1000 साल की गुलामी भोगी है और अनेको कष्ट सहे है । यह भयभीत है कष्टो से दुखो से गुलामी से और इस भय के कारण सभी से नम्र बनकर रहता है । अत्याचारियो ओर आक्रांताओं को भी इस भय ने अतिथि बना दिया। संसार की सबसे वीर कहे जाने वाली हिन्दू जाति ने भी मुल्लो को अपना जमाई स्वीकार कर लिया ।
कब तक अपनी मूर्खता अज्ञानता कायरता और डर को अपनी भव्यता का नाम दोगे।
याद रखना ये भिन्न भिन्न जातीयाँ पूजा पद्धतियाँ अनेको भगवान् हमारी कमजोरी का सूचक है । हमारे विघटन का सूचक है।
आयो एक बने संघठित बने।
श्री राम व श्री कृष्ण की तरह आर्य बने । एक ईश्वर एक धर्म और एक ही पूजा पद्धति अपनाये जो श्री राम की थी जो बजरंग बली हनुमान की थी ।
आयो वेदों की शरण में आयो । जो श्रष्टी के आरंभ में ईश्वर प्रदत्त आज्ञाएं है । जाती व भिन्नता मुक्त आर्यो का समाज बनाये।
भारत की एक प्रमुख विशेषता उसकी अटूट चिन्तन-परम्परा है। भारत के मनीषियों ने बहिर्मुखी जीवन के प्रलोभनो एवं आकर्षणों से मन को हटाकर, अन्तर्मुखी प्रवृत्ति को प्रश्रय देकर तथा तत्व-जिज्ञासा से प्रेरित होकर,जीवन के चरम लक्ष्य पर गहन चिन्त्न किया। जीवन,जगत् और आत्मा के रहस्यों की खोज में उन्होने अनेक दर्शन-पद्धतियों का सृजन किया। 'दर्शन' का अर्थ 'देखना' है , न कि मात्र अनुमान पर आधारित विचार करना। इसी कारण भारत में दर्शन धर्म एवं जनजीवन का अंग बन गया, जब कि अन्य देशों में वह वाग्विलास के रुप में कुछ चिन्तकों तक ही सीमित रहा। वास्तव में , सत्य का अन्वेषण करना धर्म का प्रमुख लक्षण है। भारत की समस्त वैदिक एवं अवैदिक दर्शन-पद्धतियों के मूलसूत्र परस्पर जुडे हुए हैं और सबका लक्ष्य परम तत्व की खोज तथा जीवन में दु:ख का निराकरण एवं स्थायी सुख-शान्ति की स्थापना करना रहा है। बाह्य रुप में विभिन्न होते हुए भी उनमें लच्स क एकता स्पष्ट है। सभी अन्त:करण की पवित्रता को त्तवान्वेषण के लिए महत्वूपर्ण मानते हैं। संसार के प्राचीनतम ज्ञान-ग्रंथ वेद हैं तथा उपनिषद् उनके वैचारिक शिखर हैं।१ वैदिक ऋषियों ने धर्म(सत्य) का साक्षात्कार (अनुभव) किया, 'साक्षात्कृत- धर्माणो ऋषयो बभूवु:' ऋषियों ने मंत्रो के अन्तर्निहित सत्य् का दर्शन् (स्पष्ट अनुभव) किया। ऋषयो मत्रद्रष्टार:। वास्तव में उपनिषद् ऋषियों के अनुभव-जन्य् उदगारों के भण्डार हैं , जिन्हें मंत्रों के रुप में प्रतिष्ठित किया गया है और वे मात्र विचार अथवा मत नहीं हैं। उपनिषद वेदो के ज्ञानभाग हैं तथा उनमें कर्मकाण्ड की उपेक्षा की गयी है। यद्यपि वेदों मे अन्तिम सत्य को एक ही घोषित किया गया, उसको अनेक नाम दे दिये गये। उपनिषदों ने उसे 'ब्रह्म' (बड़ा) नाम दे दिया। वेदों ने जिन प्रश्नों के उत्तर नहीं दिए, उपनिषदों ने उनके भी उत्तर १. उपनिषदों के महत्व एवं विषयवस्तु की पर्याप्त् चर्चा हम 'ईशावास्य-दिव्यामृत' के 'प्रवेश' में कर चुके हैं तथा यहां उसकी पुनरावृत्थ्त् करना अनावश्यक है। सुधी पाठकों से हमारा अनुरोध है कि वे पृष्ठभूमि के रुप में उसे ध्यानपूर्वक् अवश्य पढ लें।(हमारी योजना के अन्तर्गत प्रमुख उपनिषदों की सरल टीकाओं के अतिरिक्त'अष्टावक्रगीतारसामृत'का प्रणयन तथा 'सूक्ष्म जगत् में प्रवेश : मन के उस ओर' इत्यादि की रचना करना भी है।) स्वामी विवेकानन्छ एवं श्री अरविन्द की रचनाएं उपनिषदों को समझने के लिए अत्यन्त उपयोगी हैं। डॉ० राधाकृष्णन की रचनाएं भी भारतीय दर्शन को समझने में अत्यन्त सहायक हैं। दे दिए। उपनिषद परमात्मा, जीवात्मा सृष्टि आदि विषयों का निरुपण करते हैं , किन्तु एक अद्वितीय ब्रह्म को अन्तिम सत्ता के रुप में प्रतिपादित करते हैं। यह एक आश्चर्य है कि सभी उपनिषद् भिन्न-भिन्न प्रकार से एक ही ब्रह्म का निर्वचन करते हैं तथा उपनिषदों में एक स्पष्ट तारतम्य है। ब्रह्म का साक्षात्कार ही जीवन का परम लक्ष्य है। प्रज्ञान ब्रह्म है,१ मैं ब्रह्म हूँ,२ वही तू है,३ यह आत्मा ब्रह्म है,४ ये चार महावाक्य हैं। सब कुछ ब्रह्म ही है।५ ब्रह्म सत्य है, ज्ञान है, अनन्त है।६ उपनिषदों के रचना-काल तथा उनकी संख्या का निर्णय करना कठिन है। प्रमुख उपनिषद् ग्यारह कहे गए हैं - ईश, केन, कठ, प्रश्न, मुण्डक्, माण्डूक्य्,ऐतरेय, तैत्तिरीय, श्वेताश्वतर, बृहदारण्यक तथा छान्दोग्य।शक्कराचार्य ने इन सब पर भाष्य लिखें है , यद्यपि कुछ विद्वानों ने श्वेताश्वतर उपनिषद के भाष्य को शक्कराचार्य-प्रणीत नहीं माना है। कौषीतकी तथा नृसिंहतापिनी उपनिषदों को सम्मिलित करने पर प्रमुख उपनिषदो की संख्या तेरह हो जाती है। अगणित वेद-शाखाएं,ब्राह्मण-ग्रन्थ,आरण्यक और उपनिषद विलुप्त हो चुके हैं। हमें ऋग्वेद के दस,कृष्ण यजुर्वेद के बत्तीस, सामवेद के सोलह, अथर्ववेद के इकतीस उपनिषद उपलब्ध हैं। वेदों पर आधारित ब्राह्मण-ग्रन्थों में यज्ञों की चर्चा है तथा उनसे सम्बद्ध आरण्यक हैं , जो अरण्यों (वनों) में उपदिष्ट हुए। प्राय: ब्राह्मण-ग्रन्थों एवं आरण्यकों के सूक्ष्म चिन्त्नपूर्ण अंश उपनिषद हैं। ब्राह्मण-ग्रन्थों और आरण्यकों को प्रधानत: कर्मकाण्ड क्हा जाता है तथा उपनिषद ज्ञानकाण्ड हैं। उपनिषद वैदिक-वाड्मय का नवनीत हैं। उपनिषदों मे प्रतिपादित ब्रह्म एक और अद्वितीय है। वह द्वैतरहित है। वह नित्य् और शाश्वत है, अचल है। ब्रह्म ही विश्व की एक मात्र सत्ता है। उपनिषदों में 'आत्मा' परमात्मा अथवा ब्रह्म का पर्यायवाची है। ब्रह्म निर्विशेष अथवा निर्गुण है। उसे निषेध द्वारा निर्गुण रुप में वर्णित किया जाता है- नेति नेति (यह भी नहीं, यह भी नहीं)। ब्रह्म बर्णन सेपरे है। 'स एष नेति नेति आत्मा' (बृहद० उप०, ४.४.२२) १. प्रज्ञानं ब्रह्म (ऐतरेय उप०, ३.१.३) अहं ब्रह्मस्मि ( बृहद० उप०, १.४.१० )३. तत्वमसि (छान्दोग्य उप०, ६ ४. अयमात्मा ब्रह्म (माण्डूक्य उप०, २) ५. सर्वं खल्विदं ब्रह्म (छान्दोग्य उप०, ३.१४.१ ) सत्यं ज्ञानं अनन्तं ब्रह्म (तैत्तिरीय उप०, २.१ ) वेद पर आधारित छह दर्शनशास्त्र सोपानात्म्क् हैं। मीमांसा में ईश्वर की प्रतिष्ठा नहीं हैं, यद्यपि वह वेद पर ही आधारित है। सांख्य,योग, न्याय और वैशेषिक स्वतंत्र हैं।वेदान्त छह शास्त्रों के सापान मे सर्वोपरि है। उपनिषद ही वेदान्त् अर्थात वेद का प्रतिपाद्य अन्तिम ज्ञान-भाग हैं। उपनिषदों में वेदान्त्-दर्शन सन्निहित है , अतएव दोनों पर्याय्वाची हो गए हैं। वेदान्त् का अर्थ है-वेदों का अन्त ,ध्येय, अर्थात प्रतिपाद्य अथवा सारतत्त्व। मनुष्य में अपने भीतर गहरे प्रवेश एवं सूक्ष्म अनुभवों द्वारा विश्व के समस्त रहस्यों का उद्घाटन करने की सामर्थ्य है।१ परब्रह्म परमात्मा की प्रच्छन्न शक्ति माया है। वेदान्त के अनुसार मायारहित ब्रह्म निर्गुण अथवा विशुद्ध ब्रह्म है तथा मायासहित (अथवा मायोपाधिविशिष्ट) ब्रह्म ही सगुण ब्रह्म, अपरब्रह्म अथवा ईश्वर है, जो सृष्टि की रचना करता है , कर्मफल देता है और भक्तों का उपास्य है। वह अन्तर्यामी है। वास्तव में दोनों परब्रह्म और अपरब्रह्म तत्तवत: एक ही है। प्राणियों के देह मे रहनेवाला जीवात्मा भी वास्तव में माया से मुक्त होने पर आत्मा ही है। ब्रह्म सत्य है अर्थात नित्य, शाश्वत तत्त्व है और जगत् मिथ्या अर्थात स्वप्नवत् असत् एवं नश्वर है तथा जीवात्मा अपने शुद्ध रुप में आत्मा ही है। ब्रह्म सत्यं जगन्मिथ्या जीवों ब्रह्मैव नापर:। संसार की व्यावहारिक सत्ता है, किन्तु तत्त्व-विचार से एक ब्रह्म की ही वास्तविक सत्ता अर्थात पारमार्थिक सत्ता है। ब्रह्म ही एक मात्र सत्य अर्थात शाश्वत तत्व है।
Meenu Ahuja