Sunday, November 4, 2018

The Peshva kingdom of India


17वी से 18वी सती तक चित्पावन ब्राह्मणों की शौर्यपूर्ण पराक्रम एवं कूटनीतिज्ञता के बल पर संपूर्ण अटक , कटक से लेकर अफ़ग़ान , सिंध , रावी , बंगाल की खाड़ी तक पेशवाओं ने एकछत्र हिन्दू स्वराज्य की स्थापना किया पेशवा अर्थात प्रधानमंत्री क्षत्रिय राजा महाराजों ने प्रधानमंत्री के स्थान पर सदैव चित्पावन ब्राह्मण को नियुक्त किया क्योंकि प्रधानमंत्री (पेशवा) सबसे महत्वपूर्ण पद होता था जिसमे केवल चित्पावन ब्राह्मण को नियुक्त किया जाता था क्योंकि इस पद की विशेषता थी शास्त्र एवं शस्त्र दोनों से शत्रु एवं मित्र को उत्तर देना पहले के समय में भी इस पद पर ब्राह्मण को ही नियुक्त किया जाता था (अयाचक एवं याचक दोनों को) । क्षत्रिय और चित्पावन ब्राह्मण की एकत्रीकरण से तुर्क ,मुग़ल , निज़ाम, नवाब सबके पसीने छूट गए थे तभी तो क्षत्रिय राजा छत्रपति महाराजा शिवाजी के साम्राज्य का पेशवा श्रीमंत मोरोपंत त्र्यम्बंक पिंगले जी ने संपूर्ण दक्कन से लेकर सूरत तक केसरिया पताका फैराया था । शिवाजी महाराज के बाद उनके वंशज छत्रपति शाहूजी महाराज के शासन काल तक पेशवाओं ने संपूर्ण धरा को भगवामयी कर दिए थे एवं हिन्दवी स्वराज्य की स्थापना कर चुके थे । क्षत्रिय राजा सर्वोच्च पद सलाहकार के पद पर याचक ब्राह्मण को एवं प्रधानमंत्री के पद पर चित्पावन ब्राह्मण को नियुक्त करते थे ।
मोरोपन्त त्रयम्बक पिंगले (1620 – 1683), मराठा साम्राज्य के प्रथम पेशवा थे। उन्हें 'मोरोपन्त पेशवा' भी कहते हैं। वे छत्रपति शिवाजी के अष्टप्रधानों में से एक थे।
प्रारंभिक जीवन
मोरोपन्त त्रयम्बक पिंगले जी का जन्म 1620 निमगांव में देशस्थ ब्राह्मण परिवार में हुआ था।
पेशवा मोरोपंत जी ने छत्रपति शिवाजी महाराज के शासनकाल में राजस्व प्रणाली की शुरुआत की, और छत्रपति शिवाजी महाराज पेशवा मोरोपंत की कुशल रणनीतिज्ञता से प्रशन्न होकर उन्हें रणनीति विशेषज्ञ एवं रक्षा सलाहकार के पद पर भी पेशवा मोरोपंत जी को नियुक्त कर दिया । पेशवा मोरोपंत उनके अष्ट प्रधान में से सर्वाधिक महत्वपूर्ण एवं महाराज के निकटवर्ती थे पेशवा मोरोपंत जी महाराज छत्रपति शिवाजी ने उनके संरक्षण में किला , मंदिर एवं मठों का निर्माण, मरम्मत एवं देखरेख का दायित्व सौंप दिए थे इनसबके उपरांत संसाधन योजना बनाने का दायित्व भी पेशवा मोरोपंत जी के उपर था ।
मोरोपंत जी एक योद्धा एवं अभियंता के रूप में- पेशवा ने किला निर्माण कार्य एवं रणभूमि में योद्धाओं की भांति युद्ध करने जैसी अतिमहत्वपूर्ण भूमिका निभाई,
यह कहना कतई गलत नहीं होगा कि पेशवा मोरोपंत जी एक कुशल वास्तुशिल्प अभियन्ता थे और इस बात का पता हमें इन संदर्भों से प्राप्त होता है कि छत्रपति शिवाजी महाराज ने प्रतापगढ़ के निर्माण और प्रशासनिक कार्य की ज़िम्मेदारी पेशवा मोरोपंत को दिया था एवं छत्रपति शिवाजी की असमय देहत्याग करने पर मोरोपंत पिंगले नाल जिले में साल्हेर-मुल्हर किलों के विकास कार्य एवं निर्माण कार्य एवं किले का शिल्पकार करने का दायित्व पेशवा मोरोपंत को दिया गया था ,पेशवा मोरोपंत जी किले निर्माणकार्य में एक पर्यवेक्षक के रूप में काम कर रहे थे । अब उनका दूसरा एवं सबसे महत्वपूर्ण स्वरूप जिनकी वजह से वो महाराज छत्रपति के सर्वाधिक प्रिय थे वो है एक योद्धा का स्वरूप वो युद्धकला में दक्षता प्राप्त किये थे पेशवा (अयाचक ब्राह्मण) केवल शास्त्र के नहीं शस्त्र के भी धनी थे ।
मोरोपंत जी द्वारा लड़ा गया प्रमुख युद्ध - पेशवा मोरोपंत जी के नेतृत्व में दो निर्णायक युद्ध लड़ा गया जिसके लिए उनको महाराजा छत्रपति शिवाजी ने उनको सर्वाधिक महत्वपूर्ण स्थान पर नियुक्त किया ।त्रयम्बकेश्वर किला विजय अभियान एवं वानी-डिंडोरी का युद्ध सन 1670 ईसवी में लड़े जानेवाली ऐतिहासिक युद्ध था जिसमें मुग़ल सल्तनत की और से दाऊद ख़ाँ , इखलास ख़ाँ , मीर अब्दुल माबूद लड़ रहे थे। मुग़ल सल्तनत के प्रमुख सेनापति की तीन टुकड़ी बनी जिसमें त्रयम्बकेश्वर किले को मुग़ल के अधीनस्थ करने का दायित्व दाऊद ख़ाँ को मिला उसके नेतृत्व में 52,000 सैन्यबल था और दाऊद ख़ाँ के समक्ष थे श्री मोरोपंत पिंगले पेशवा , छत्रपति शिवाजी ने त्रयम्बकेश्वर किले पर हिन्दवी स्वराज्य का ध्वज फहराने का दायित्व पेशवा को दिया था। पेशवा के नेतृत्व में 1200 के संख्या में सैन्यबल था जिन्हें घात लगाकर युद्ध करने की पद्धति एवं मनोवैज्ञानिक युद्ध पद्धत्ति में महारथ हासिल थी ।
पेशवा मोरोपंत पिंगले जी मनोवैज्ञानिक युद्ध कला के जनक - पेशवा मोरोपंत जी का मुख्य हथियार था मनोवैज्ञानिक युद्ध पद्धत्ति इसी युद्ध पद्धत्ति के बल पर उन्होंने दाऊद ख़ाँ को परास्त करके शिवाजी महाराज के हिन्दवी स्वराज्य के साम्राज्य में त्र्यम्बकेश्वर किले को सम्मिलित करने का कर्तव्य निभाया।
पेशवा मोरोपंत पिंगले जी को मनोवैज्ञानिक युद्धकला का जनकपिता माना जाता हैं ।
निष्कर्ष:- सिर्फ इतना ही नहीं बंगाल में प्रतिहार राजपूत राजाओं के साथ संयुक्त मोर्चा बनाकर पेशवा मोरोपंत जी ने बंगाल को अबीसीनिया के अरबी लूटेरों आक्रांताओं से मुक्त करवाया , महाराज सवाई जय सिंह के साथ संयुक्त मोर्चा कर पेशवा बाजी राव ने मुग़ल सल्तनत की साम्राज्य पर आखरी कील ठोका था। यह तो केवल एक झलक है पेशवाओं के वीरगाथा की ऐसे सैकड़ो सफल युद्ध अभियान कर पेशवाओं ने हिन्दू स्वराज्य की स्थापना में एवं धर्म रक्षा में अपना योगदान दिया था।
लेकिन आज के समय के हालात ये हैं कि वर्तमान सरकार के आँखों मे चुभ रहा है ब्राह्मण वर्ण यही नहीं कुछ लोगों ने चित्पावन ब्राह्मण को विदेशी भी बताना शुरू कर दिया है परंतु यह कथन "पेशवा की पेशवाई ना होता तो अटक- कटक से लेकर रावी-सिंध भगवामयी ना होता" उतना ही सत्य है जितना अंधेरे के बाद उजाले का होना । पेशवाओं को विदेशी बताने वाले लोगों और उन्हें लुटेरे की संज्ञा देने वाले कुछ इतिहासविदुरों से एक सवाल है कि पेशवाओं के साथ किसी आक्रमणकारी की व्यक्तिगतरूप से तो शत्रुता नहीं थी फ़िर क्यों पेशवाओं ने निरंतर युद्ध कर भारतवर्ष से आक्रमणकारियों को खदेड़ कर भारतवर्ष पर हिन्दू साम्राज्य का स्थापना किया आखिर किसके लिए खुद के लिए या सम्पूर्ण आर्यवर्त के लिए ???
आज की परिस्थिति ऐसी है कि महाराष्ट्र जो कि पेशवाओं की प्रमुख कर्मभूमि एवं जन्मभूमि रही है वहां कोरेगांव जयंती जैसी शर्मनाक कार्यक्रम का आयोजन करके पेशवाओं के साथ गद्दारी करके हरा के उनकी हार का जश्न मनाया जाता है तब किसी पार्टी का मुंह नहीं खुलता है लेकिन जब सर्वोच्च न्यायालय के एक सही निर्णय के खिलाफ यही तथाकथित शोषित वर्ग जब पब्लिक प्रॉपर्टी को नष्ट करते हुए हल्ला बोलते हैं तब तुरंत वर्तमान सरकार द्वारा सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय के खिलाफ दो दो बार पुनर्विचार याचिका दायर कर दिया जाता है, अंत में बस भारत सरकार से यही एक अनुरोध है कि 125 करोड़ भारतीय आपके सन्तानतुल्य है और पिता का कर्तव्य होता है कि सन्तान जब मार्ग से भटके तो उसे सही मार्ग बताये ना कि मार्ग भटकाये और भ्रम पैदा करे क्योंकि वर्तमान भारत सरकार ने न्यायालय के फैसले के खिलाफ जो पुनर्विचार याचिका दायर की है वो आग में घी डालने का कार्य कर रही है और इससे यह भी सिद्ध होता है कि भारत सरकार भी इतिहास शायद बॉलीवुड के उन फिल्मों से सीखते हैं जिसमें मनगढंत कहानी बनाकर ब्राह्मणों और क्षत्रियों को हमेशा विलेन बताया जाता है ।
© COPYRIGHT मनीषा सिंह सूर्यवंशी (इतिहासकार) की कलम से ✍️✍️

मरियम उद ज़मानी”, जोधा बाई बता कर एक झूठी अफवाह


जब भी कोई हिन्दू राजपूत किसी मुग़ल की गद्दारी की बात करता है तो कुछ मुग़ल प्रेमियों द्वारा उसे जोधाबाई का नाम लेकर चुप करने की कोशिश की जाती है!
बताया जाता है की कैसे जोधा ने अकबर की आधीनता स्वीकार की या उससे विवाह किया!
परन्तु अकबर कालीन किसी भी इतिहासकार ने जोधा और अकबर की प्रेम कहानी का कोई वर्णन नही किया!
सभी इतिहासकारों ने अकबर की सिर्फ 5 बेगम बताई है!
1.सलीमा सुल्तान
2.मरियम उद ज़मानी
3.रज़िया बेगम
4.कासिम बानू बेगम
5.बीबी दौलत शाद
अकबर ने खुद अपनी आत्मकथा अकबरनामा में भी किसी हिन्दू रानी से विवाह का कोई जिक्र नहीं किया!
परन्तु हिन्दू राजपूतों को नीचा दिखने के लिए कुछ इतिहासकारों ने अकबर की मृत्यु के करीब 300 साल बाद 18 वीं सदी में “मरियम उद ज़मानी”, को जोधा बाई बता कर एक झूठी अफवाह फैलाई!
और इसी अफवाह के आधार पर अकबर और जोधा की प्रेम कहानी के झूठे किस्से शुरू किये गए!
जबकि खुद अकबरनामा और जहांगीर नामा के अनुसार ऐसा कुछ नही था!
18वीं सदी में मरियम को हरखा बाई का नाम देकर हिन्दू बता कर उसके मान सिंह की बेटी होने का झूठ पहचान शुरू किया गया!
फिर 18वीं सदी के अंत में एक ब्रिटिश लेखक जेम्स टॉड ने अपनी किताब "एनालिसिस एंड एंटटीक्स ऑफ़ राजस्थान" में मरीयम से हरखा बाई बनी इसी रानी को जोधा बाई बताना शुरू कर दिया!
और इस तरह ये झूठ आगे जाकर इतना प्रबल हो गया की आज यही झूठ भारत के स्कूलों के पाठ्यक्रम का हिस्सा बन गया है और जन जन की जुबान पर ये झूठ सत्य की तरह आ चूका है!
और इसी झूठ का सहारा लेकर राजपूतों को निचा दिखाने की कोशिश जारी है!
जब भी मैं जोधाबाई और अकबर के विवाह प्रसंग को सुनता या देखता हूं तो मन में कुछ अनुत्तरित सवाल कौंधने लगते हैं!
आन,बान और शान के लिए मर मिटने वाले शूरवीरता के लिए पूरे विश्व मे प्रसिद्ध भारतीय क्षत्रिय अपनी अस्मिता से क्या कभी इस तरह का समझौता कर सकते हैं??
हजारों की संख्या में एक साथ अग्नि कुंड में जौहर करने वाली क्षत्राणियों में से कोई स्वेच्छा से किसी मुगल से विवाह कर सकती हैं??
जोधा और अकबर की प्रेम कहानी पर केंद्रित अनेक फिल्में और टीवी धारावाहिक मेरे मन की टीस को और ज्यादा बढ़ा देते हैं!
अब जब यह पीड़ा असहनीय हो गई तो एक दिन इस प्रसंग में इतिहास जानने की जिज्ञासा हुई तो पास के पुस्तकालय से अकबर के दरबारी 'अबुल फजल' द्वारा लिखित 'अकबरनामा' निकाल कर पढ़ने के लिए ले आया!
उत्सुकतावश उसे एक ही बैठक में पूरा पढ़ डाला पूरी किताब पढ़ने के बाद घोर आश्चर्य तब हुआ जब पूरी पुस्तक में जोधाबाई का कहीं कोई उल्लेख ही नही मिला!
मेरी आश्चर्य मिश्रित जिज्ञासा को भांपते हुए मेरे मित्र ने एक अन्य ऐतिहासिक ग्रंथ 'तुजुक-ए-जहांगिरी' जो जहांगीर की आत्मकथा है उसे दिया!
इसमें भी आश्चर्यजनक रूप से जहांगीर ने अपनी मां जोधाबाई का एक भी बार जिक्र नही किया!
हां कुछ स्थानों पर हीर कुँवर और हरका बाई का जिक्र जरूर था!
अब जोधाबाई के बारे में सभी एतिहासिक दावे झूठे समझ आ रहे थे कुछ और पुस्तकों और इंटरनेट पर उपलब्ध जानकारी के पश्चात हकीकत सामने आयी कि “जोधा बाई” का पूरे इतिहास में कहीं कोई जिक्र या नाम नहीं है!
इस खोजबीन में एक नई बात सामने आई जो बहुत चौकानें वाली है!
ईतिहास में दर्ज कुछ तथ्यों के आधार पर पता चला कि आमेर के राजा भारमल को दहेज में 'रुकमा' नाम की एक पर्सियन दासी भेंट की गई थी जिसकी एक छोटी पुत्री भी थी!
रुकमा की बेटी होने के कारण उस लड़की को 'रुकमा-बिट्टी' नाम से बुलाते थे आमेर की महारानी ने रुकमा बिट्टी को 'हीर कुँवर' नाम दिया चूँकि हीर कुँवर का लालन पालन राजपूताना में हुआ इसलिए वह राजपूतों के रीति-रिवाजों से भली भांति परिचित थी!
राजा भारमल उसे कभी हीर कुँवरनी तो कभी हरका कह कर बुलाते थे!
राजा भारमल ने अकबर को बेवकूफ बनाकर अपनी परसियन दासी रुकमा की पुत्री हीर कुँवर का विवाह अकबर से करा दिया जिसे बाद में अकबर ने मरियम-उज-जमानी नाम दिया!
चूँकि राजा भारमल ने उसका कन्यादान किया था इसलिये ऐतिहासिक ग्रंथो में हीर कुँवरनी को राजा भारमल की पुत्री बता दिया!
जबकि वास्तव में वह कच्छवाह राजकुमारी नही बल्कि दासी-पुत्री थी!
राजा भारमल ने यह विवाह एक समझौते की तरह या राजपूती भाषा में कहें तो हल्दी-चन्दन किया था!
इस विवाह के विषय मे अरब में बहुत सी किताबों में लिखा है!
(“ونحن في شك حول أكبر أو جعل الزواج راجبوت الأميرة في هندوستان آرياس كذبة لمجلس”) हम यकीन नहीं करते इस निकाह पर हमें संदेह
इसी तरह ईरान के मल्लिक नेशनल संग्रहालय एन्ड लाइब्रेरी में रखी किताबों में एक भारतीय मुगल शासक का विवाह एक परसियन दासी की पुत्री से करवाए जाने की बात लिखी है!
'अकबर-ए-महुरियत' में यह साफ-साफ लिखा है कि (ہم راجپوت شہزادی یا اکبر کے بارے میں شک میں ہیں) हमें इस हिन्दू निकाह पर संदेह है क्योंकि निकाह के वक्त राजभवन में किसी की आखों में आँसू नही थे और ना ही हिन्दू गोद भरई की रस्म हुई थी!
सिक्ख धर्म गुरू अर्जुन और गुरू गोविन्द सिंह ने इस विवाह के विषय मे कहा था कि क्षत्रियों ने अब तलवारों और बुद्धि दोनो का इस्तेमाल करना सीख लिया है, मतलब राजपुताना अब तलवारों के साथ-साथ बुद्धि का भी काम लेने लगा है!
17वी सदी में जब 'परसी' भारत भ्रमण के लिये आये तब उन्होंने अपनी रचना ”परसी तित्ता” में लिखा “यह भारतीय राजा एक परसियन वैश्या को सही हरम में भेज रहा है अत: हमारे देव(अहुरा मझदा) इस राजा को स्वर्ग दें"!
भारतीय राजाओं के दरबारों में राव और भाटों का विशेष स्थान होता था वे राजा के इतिहास को लिखते थे और विरदावली गाते थे उन्होंने साफ साफ लिखा है-
”गढ़ आमेर आयी तुरकान फौज ले ग्याली पसवान कुमारी ,राण राज्या राजपूता ले ली इतिहासा पहली बार ले बिन लड़िया जीत!
(1563 AD)
मतलब आमेर किले में मुगल फौज आती है और एक दासी की पुत्री को ब्याह कर ले जाती है!
हे रण के लिये पैदा हुए राजपूतों तुमने इतिहास में ले ली बिना लड़े पहली जीत 1563 AD!
ये ऐसे कुछ तथ्य हैं जिनसे एक बात समझ आती है कि किसी ने जानबूझकर गौरवशाली क्षत्रिय समाज को नीचा दिखाने के उद्देश्य से ऐतिहासिक तथ्यों से छेड़छाड़ की और यह कुप्रयास अभी भी जारी है!
लेकिन अब यह षडयंत्र अधिक दिन नही चलेगा ।
🚩🚩जय माँ भवानी. 🚩🚩

Thursday, March 8, 2018

आदिनाथ” मंदिर से बनी “अदीना” मस्जिद आइए जानते है कब से शुरु हुआ ये षडयंत्र

“बिजया” मंदिर बना “बीजामंडल” मस्जिद
मूल नाम: बीजा मंडल या बिजया मंदिर (हिन्दू देवी को समर्पित)
स्थान: विदिशा, मध्य प्रदेश
इस्लामिक अत्याचार के बाद परिवर्तित नाम: बीजा मंडल मस्जिद
मध्य प्रदेश की राजधानी भोपाल से लगभग ६० किलोमीटर की दूरी पर स्थित है – विदिशा शहर। विदिशा अपनी बीजामंडल मस्जिद और उसके दिलचस्प इतिहास के लिए प्रसिध्द है।
इस्लामिक राज में भारतवर्ष के बहुत से अद्भुत वैभवशाली मंदिर विनष्ट कर मस्जिद में बदल दिए गए थे। हिन्दू मंदिरों को लूट-खसोट कर, उनकी संपत्ति हड़प कर, उसे तबाह करने के बाद उसी ढहाए हुए मंदिर के बचे हुए अवशेषों से वहां मस्जिद बना दी जाती थी। और इस तरह एक हिन्दू मंदिर मस्जिद में तब्दील कर दिया जाता था, बीजामंडल मस्जिद भी इसी का एक उदाहरण है।
आज अपना सारा वैभव खोकर खड़ा बीजामंडल मुग़ल और इस्लामिक लुटेरों के भीषण क्रूर अत्याचार की दर्दनाक कहानी कह रहा है।
बिजया मंदिर परमार राजाओं द्वारा बनवाया गया प्रतिष्ठा की देवी चर्चिका का मंदिर था। इस मंदिर को ध्वस्त कर उसी की तोड़ी गई सामग्री से वहां बीजामंडल मस्जिद बना दी गई।
वहां मौजूद एक स्तंभ पर मिले संस्कृत अभिलेख के अनुसार मूलतः यह मंदिर विजय दिलाने वाली देवी ‘विजया’ को अर्पित था, जिसे मालवा के राजा नरवर्मन ने बनवाया था। भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण (ASI) भी इसका स्पष्ट उल्लेख करता है।
बीजा या बिजया शब्द – देवी विजया रानी के नाम का ही बिगड़ा हुआ रूप है। इस तरह बीजा मंडल या बिजया मंदिर एक हिन्दू देवी को समर्पित मंदिर था।
सन् १६५८-१७०७ में औरंगजेब की क्रूर निगाह इस पर पड़ी, जिसने अपना शिकार बनाते हुए इसे लूट-खसोट कर तहस-नहस कर दिया। उसने कीमती मूर्तियों को मंदिर के उत्तरी भाग में दबवा दिया और इसे एक मस्जिद में परिवर्तित कर दिया।
भले ही यह परिसर अब भारतीय पुरातत्व विभाग द्वारा स्मारक के रूप में संरक्षित है लेकिन पिछले ३०० वर्षों से इसका इस्तेमाल खासतौर से ईद के मौके पर ईदगाह के रूप में और बड़ी महफिलों के लिए होता आ रहा है।
सन् १९९१ की एक तूफानी रात में इस मस्जिद के उत्तरी किनारे की दीवार भारी बारिश के कारण भहराकर गिर पड़ी। टूट कर उलट-पुलट हो चुकी इस दीवार ने बिजया मंदिर की ३०० वर्ष पुरानी दबी हुई समृद्धि को उजागर कर दिया। भारतीय पुरातत्व विभाग भी यह स्वीकार करता है कि उनके द्वारा वहां खुदाई करवा कर कई तराशी हुई मूर्तियां, बहुमूल्य ख़जाना और प्रतिमाएं प्राप्त की गईं।
बीजामंडल मस्जिद की दिवारों और स्तंभों पर रामायण और महाभारत के अभिलेख खुदे हुए हैं। यह सभी प्रमाण लोगों के देखने के लिए वहां उपलब्ध हैं।
मुसलमानों को इस बात को समझना होगा कि कैसे उनके हिन्दू पूर्वजों (काफिरों) को और उनकी सांस्कृतिक धरोहरों को जबरन इस्लाम में परिवर्तित किया गया है। सांस्कृतिक धरोहर को वापस पाने की इस मुहीम में उन्हें हिन्दुओं के साथ आकर इसे और गति प्रदान करनी चाहिए।




मनीषा सिंह बाईसा जगह मेवाड़ / मेड़ता , राजपुताना राजस्थान की कलम से : 

Sunday, March 4, 2018


कुतुबुद्दीन ऐबक और क़ुतुबमीनार---

किसी भी देश पर शासन करना है तो उस देश के लोगों का ऐसा ब्रेनवाश कर दो कि वो अपने देश, अपनी संस्कृति और अपने पूर्वजों पर गर्व करना छोड़ दें. इस्लामी हमलावरों और उनके बाद अंग्रेजों ने भी भारत में यही किया. हम अपने पूर्वजों पर गर्व करना भूलकर उन अत्याचारियों को महान समझने लगे जिन्होंने भारत पर बेहिसाब जुल्म किये थे।

अगर आप दिल्ली घुमने गए है तो आपने कभी विष्णू स्तम्भ (क़ुतुबमीनार) को भी अवश्य देखा होगा. जिसके बारे में बताया जाता है कि उसे कुतुबुद्दीन ऐबक ने बनबाया था. हम कभी जानने की कोशिश भी नहीं करते हैं कि कुतुबुद्दीन कौन था, उसने कितने बर्ष दिल्ली पर शासन किया, उसने कब विष्णू स्तम्भ (क़ुतुबमीनार) को बनवाया या विष्णू स्तम्भ (कुतूबमीनार) से पहले वो और क्या क्या बनवा चुका था ?

कुतुबुद्दीन ऐबक, मोहम्मद गौरी का खरीदा हुआ गुलाम था. मोहम्मद गौरी भारत पर कई हमले कर चुका था मगर हर बार उसे हारकर वापस जाना पडा था. ख्वाजा मोइनुद्दीन चिश्ती की जासूसी और कुतुबुद्दीन की रणनीति के कारण मोहम्मद गौरी, तराइन की लड़ाई में पृथ्वीराज चौहान को हराने में कामयाबी रहा और अजमेर / दिल्ली पर उसका कब्जा हो गया।

अजमेर पर कब्जा होने के बाद मोहम्मद गौरी ने चिश्ती से इनाम मांगने को कहा. तब चिश्ती ने अपनी जासूसी का इनाम मांगते हुए, एक भव्य मंदिर की तरफ इशारा करके गौरी से कहा कि तीन दिन में इस मंदिर को तोड़कर मस्जिद बना कर दो. तब कुतुबुद्दीन ने कहा आप तीन दिन कह रहे हैं मैं यह काम ढाई दिन में कर के आपको दूंगा।

कुतुबुद्दीन ने ढाई दिन में उस मंदिर को तोड़कर मस्जिद में बदल दिया. आज भी यह जगह "अढाई दिन का झोपड़ा" के नाम से जानी जाती है. जीत के बाद मोहम्मद गौरी, पश्चिमी भारत की जिम्मेदारी "कुतुबुद्दीन" को और पूर्वी भारत की जिम्मेदारी अपने दुसरे सेनापति "बख्तियार खिलजी" (जिसने नालंदा को जलाया था) को सौंप कर वापस चला गय था।

कुतुबुद्दीन कुल चार साल (१२०६ से १२१० तक) दिल्ली का शासक रहा. इन चार साल में वो अपने राज्य का विस्तार, इस्लाम के प्रचार और बुतपरस्ती का खात्मा करने में लगा रहा. हांसी, कन्नौज, बदायूं, मेरठ, अलीगढ़, कालिंजर, महोबा, आदि को उसने जीता. अजमेर के विद्रोह को दबाने के साथ राजस्थान के भी कई इलाकों में उसने काफी आतंक मचाया।

जिसे क़ुतुबमीनार कहते हैं वो महाराजा वीर विक्रमादित्य की वेदशाला थी. जहा बैठकर खगोलशास्त्री वराहमिहर ने ग्रहों, नक्षत्रों, तारों का अध्ययन कर, भारतीय कैलेण्डर "विक्रम संवत" का आविष्कार किया था. यहाँ पर २७ छोटे छोटे भवन (मंदिर) थे जो २७ नक्षत्रों के प्रतीक थे और मध्य में विष्णू स्तम्भ था, जिसको ध्रुव स्तम्भ भी कहा जाता था।

दिल्ली पर कब्जा करने के बाद उसने उन २७ मंदिरों को तोड दिया।विशाल विष्णु स्तम्भ को तोड़ने का तरीका समझ न आने पर उसने उसको तोड़ने के बजाय अपना नाम दे दिया। तब से उसे क़ुतुबमीनार कहा जाने लगा. कालान्तर में यह यह झूठ प्रचारित किया गया कि क़ुतुब मीनार को कुतुबुद्दीन ने बनबाया था. जबकि वो एक विध्वंशक था न कि कोई निर्माता।

अब बात करते हैं कुतुबुद्दीन की मौत की।इतिहास की किताबो में लिखा है कि उसकी मौत पोलो खेलते समय घोड़े से गिरने पर से हुई. ये अफगान / तुर्क लोग "पोलो" नहीं खेलते थे, पोलो खेल अंग्रेजों ने शुरू किया. अफगान / तुर्क लोग बुजकशी खेलते हैं जिसमे एक बकरे को मारकर उसे लेकर घोड़े पर भागते है, जो उसे लेकर मंजिल तक पहुंचता है, वो जीतता है।

कुतबुद्दीन ने अजमेर के विद्रोह को कुचलने के बाद राजस्थान के अनेकों इलाकों में कहर बरपाया था. उसका सबसे कडा विरोध उदयपुर के राजा ने किया, परन्तु कुतुबद्दीन उसको हराने में कामयाब रहा. उसने धोखे से राजकुंवर कर्णसिंह को बंदी बनाकर और उनको जान से मारने की धमकी देकर, राजकुंवर और उनके घोड़े शुभ्रक को पकड कर लाहौर ले आया।

एक दिन राजकुंवर ने कैद से भागने की कोशिश की, लेकिन पकड़ा गया. इस पर क्रोधित होकर कुतुबुद्दीन ने उसका सर काटने का हुकुम दिया. दरिंदगी दिखाने के लिए उसने कहा कि बुजकशी खेला जाएगा लेकिन इसमें बकरे की जगह राजकुंवर का कटा हुआ सर इस्तेमाल होगा. कुतुबुद्दीन ने इस काम के लिए, अपने लिए घोड़ा भी राजकुंवर का "शुभ्रक" चुना।

कुतुबुद्दीन "शुभ्रक" घोडे पर सवार होकर अपनी टोली के साथ जन्नत बाग में पहुंचा. राजकुंवर को भी जंजीरों में बांधकर वहां लाया गया. राजकुंवर का सर काटने के लिए जैसे ही उनकी जंजीरों को खोला गया, शुभ्रक घोडे ने उछलकर कुतुबुद्दीन को अपनी पीठ से नीचे गिरा दिया और अपने पैरों से उसकी छाती पर क् बार किये, जिससे कुतुबुद्दीन वहीं पर मर गया।

इससे पहले कि सिपाही कुछ समझ पाते राजकुवर शुभ्रक घोडे पर सवार होकर वहां से निकल गए. कुतुबुदीन के सैनिको ने उनका पीछा किया मगर वो उनको पकड न सके. शुभ्रक कई दिन और कई रात दौड़ता रहा और अपने स्वामी को लेकर उदयपुर के महल के सामने आ कर रुका. वहां पहुंचकर जब राजकुंवर ने उतर कर पुचकारा तो वो मूर्ति की तरह शांत खडा रहा।

वो मर चुका था, सर पर हाथ फेरते ही उसका निष्प्राण शरीर लुढ़क गया. कुतुबुद्दीन की मौत और शुभ्रक की स्वामिभक्ति की इस घटना के बारे में हमारे स्कूलों में नहीं पढ़ाया जाता है लेकिन इस घटना के बारे में फारसी के प्राचीन लेखकों ने काफी लिखा है. *धन्य है भारत की भूमि जहाँ इंसान तो क्या जानवर भी अपनी स्वामी भक्ति के लिए प्राण दांव पर लगा देते हैं।

।।साभार।।

Thursday, January 11, 2018

एक ऐसा योद्धा जिसे शायद भूल गया भारत


क्या आपने कभी सोचा है कि पूरे उत्तर भारत पर अत्याचार करने वाले मुस्लिम शासक और मुग़ल कभी बंगाल के आगे पूर्वोत्तर भारत पर कब्ज़ा क्यों नहीं कर सके ?
कारण था वो हिन्दू योद्धा जो की इतिहास के पन्नो से गायब है - असम के परमवीर योद्धा "लचित बोरफूकन।" अहोम राज्य (आज का आसाम या असम) के राजा थे चक्रध्वज सिंघा और दिल्ली में मुग़ल शासक था औरंगज़ेब।
औरंगज़ेब का पूरे भारत पे राज करने का सपना अधूरा ही था बिना पूर्वी भारत पर कब्ज़ा जमाये।
इसी महत्वकांक्षा के चलते औरंगज़ेब ने अहोम राज से लड़ने के लिए एक विशाल सेना भेजी। इस सेना का नेतृत्व कर रहा था राजपूत राजा राजाराम सिंह। राजाराम सिंह औरंगज़ेब के साम्राज्य को विस्तार देने के लिए अपने साथ 4000 महाकौशल लड़ाके, 30000 पैदल सेना, 21 राजपूत सेनापतियों का दल, 18000 घुड़सवार सैनिक, 2000 धनुषधारी सैनिक और 40 पानी के जहाजों की विशाल सेनालेकर चल पड़ा अहोम (आसाम) पर आक्रमण करने।
अहोम राज के सेनापति का नाम था "लचित बोरफूकन।" कुछ समय पहले ही लचित बोरफूकन ने गौहाटी को दिल्ली के मुग़ल शासन से आज़ाद करा लिया था।
इससे बौखलाया औरंगज़ेब जल्द से जल्द पूरे पूर्वी भारत पर कब्ज़ा कर लेना चाहता था।
राजाराम सिंह ने जब गौहाटी पर आक्रमण किया तो विशाल मुग़ल सेना का सामना किया अहोम के वीर सेनापति "लचित बोरफूकन" ने।
मुग़ल सेना का ब्रम्हपुत्र नदी के किनारे रास्ता रोक दिया गया। इस लड़ाई में अहोम राज्य के 10000 सैनिक मारे गए और "लचित बोरफूकन" बुरी तरह जख्मी होने के कारण बीमार पड़ गये। अहोम सेना का बुरी तरह नुकसान हुआ।
राजाराम सिंह ने अहोम के राजा को आत्मसमर्पण ने लिए कहा। जिसको राजा चक्रध्वज ने "आखरी जीवित अहोमी भी मुग़ल सेना से लडेगा" कहकर प्रस्ताव अस्वीकार कर दिया।
लचित बोरफुकन जैसे जांबाज सेनापति के घायल और बीमार होने से अहोम सेना मायूस हो गयी थी। अगले दिन ही लचित बोरफुकन ने राजा को कहा कि जब मेरा देश, मेरा राज्य आक्रांताओं द्वारा कब्ज़ा किये जाने के खतरे से जूझ रहा है, जब हमारी संस्कृति, मान और सम्मान खतरे में हैं तो मैं बीमार होकर भी आराम कैसे कर सकता हूँ ? मैं युद्ध भूमि से बीमार और लाचार होकर घर कैसे जा सकता हूँ ? हे राजा युद्ध की आज्ञा दें....
इसके बाद ब्रम्हपुत्र नदी के किनारे सरायघाट पर वो ऐतिहासिक युद्ध लड़ा गया, जिसमे "लचित बोरफुकन" ने सीमित संसाधनों के होते हुए भी मुग़ल सेना को रौंद डाला। अनेकों मुग़ल कमांडर मारे गए और मुग़ल सेना भाग खड़ी हुई। जिसका पीछा करके "लचित बोफुकन" की सेना ने मुग़ल सेना को अहोम राज के सीमाओं से काफी दूर खदेड़ दिया। इस युद्ध के बाद कभी मुग़ल सेना की पूर्वोत्तर पर आक्रमण करने की हिम्मत नहीं हुई। ये क्षेत्र कभी गुलाम नहीं बना।
लोगों को मालूम नहीं कि आज के समय जो NDA कैडेट बेस्ट होता है अर्थात् जो सबसे अच्छा सैनिक NDA पास कर सेना में जाता है उसको "लचित बोरफुकन" मैडल मिलता है।
आज के आसाम में जोरहट शहर में "लचित बोरफुकन" की प्रतिमा है। कभी जोरहट जाएँ तो इस योद्धा को नमन जरूर करें.....

Wednesday, November 22, 2017

Real story of Queen Padmavati


रावल समरसिंह के बाद उनका पुत्र रत्नसिंह चितौड़ की राजगद्दी पर बैठा | रत्नसिंह की रानी पद्मिनी अपूर्व सुन्दर थी | उसकी सुन्दरता की ख्याति दूर दूर तक फैली थी | उसकी सुन्दरता के बारे में सुनकर दिल्ली का तत्कालीन बादशाह अल्लाउद्दीन खिलजी पद्मिनी को पाने के लिए लालायित हो उठा और उसने रानी को पाने हेतु चितौड़ दुर्ग पर एक विशाल सेना के साथ चढ़ाई कर दी | उसने चितौड़ के किले को कई महीनों घेरे रखा पर चितौड़ की रक्षार्थ तैनात राजपूत सैनिको के अदम्य साहस व वीरता के चलते कई महीनों की घेरा बंदी व युद्ध के बावजूद वह चितौड़ के किले में घुस नहीं पाया |
तब उसने कूटनीति से काम लेने की योजना बनाई और अपने दूत को चितौड़ रत्नसिंह के पास भेज सन्देश भेजा कि “हम तो आपसे मित्रता करना चाहते है रानी की सुन्दरता के बारे बहुत सुना है सो हमें तो सिर्फ एक बार रानी का मुंह दिखा दीजिये हम घेरा उठाकर दिल्ली लौट जायेंगे | सन्देश सुनकर रत्नसिंह आगबबुला हो उठे पर रानी पद्मिनी ने इस अवसर पर दूरदर्शिता का परिचय देते हुए अपने पति रत्नसिंह को समझाया कि ” मेरे कारण व्यर्थ ही चितौड़ के सैनिको का रक्त बहाना बुद्धिमानी नहीं है | ” रानी को अपनी नहीं पुरे मेवाड़ की चिंता थी वह नहीं चाहती थी कि उसके चलते पूरा मेवाड़ राज्य तबाह हो जाये और प्रजा को भारी दुःख उठाना पड़े क्योंकि मेवाड़ की सेना अल्लाउद्दीन की विशाल सेना के आगे बहुत छोटी थी | सो उसने बीच का रास्ता निकालते हुए कहा कि अल्लाउद्दीन चाहे तो रानी का मुख आईने में देख सकता है |

अल्लाउद्दीन भी समझ रहा था कि राजपूत वीरों को हराना बहुत कठिन काम है और बिना जीत के घेरा उठाने से उसके सैनिको का मनोबल टूट सकता है साथ ही उसकी बदनामी होगी वो अलग सो उसने यह प्रस्ताव स्वीकार कर लिया |

चितौड़ के किले में अल्लाउद्दीन का स्वागत रत्नसिंह ने अथिती की तरह किया | रानी पद्मिनी का महल सरोवर के बीचों बीच था सो दीवार पर एक बड़ा आइना लगाया गया रानी को आईने के सामने बिठाया गया | आईने से खिड़की के जरिये रानी के मुख की परछाई सरोवर के पानी में साफ़ पड़ती थी वहीँ से अल्लाउद्दीन को रानी का मुखारविंद दिखाया गया | सरोवर के पानी में रानी के मुख की परछाई में उसका सौन्दर्य देख देखकर अल्लाउद्दीन चकित रह गया और उसने मन ही मन रानी को पाने के लिए कुटिल चाल चलने की सोच ली जब रत्नसिंह अल्लाउद्दीन को वापस जाने के लिए किले के द्वार तक छोड़ने आये तो अल्लाउद्दीन ने अपने सैनिको को संकेत कर रत्नसिंह को धोखे से गिरफ्तार कर लिया |

रत्नसिंह को कैद करने के बाद अल्लाउद्दीन ने प्रस्ताव रखा कि रानी को उसे सौंपने के बाद ही वह रत्नसिंह को कैद मुक्त करेगा | रानी ने भी कूटनीति का जबाब कूटनीति से देने का निश्चय किया और उसने अल्लाउद्दीन को सन्देश भेजा कि -“मैं मेवाड़ की महारानी अपनी सात सौ दासियों के साथ आपके सम्मुख उपस्थित होने से पूर्व अपने पति के दर्शन करना चाहूंगी यदि आपको मेरी यह शर्त स्वीकार है तो मुझे सूचित करे | रानी का ऐसा सन्देश पाकर कामुक अल्लाउद्दीन के ख़ुशी का ठिकाना न रहा ,और उस अदभुत सुन्दर रानी को पाने के लिए बेताब उसने तुरंत रानी की शर्त स्वीकार कर सन्देश भिजवा दिया |
उधर रानी ने अपने काका गोरा व भाई बादल के साथ रणनीति तैयार कर सात सौ डोलियाँ तैयार करवाई और इन डोलियों में हथियार बंद राजपूत वीर सैनिक बिठा दिए डोलियों को उठाने के लिए भी कहारों के स्थान पर छांटे हुए वीर सैनिको को कहारों के वेश में लगाया गया |इस तरह पूरी तैयारी कर रानी अल्लाउद्दीन के शिविर में अपने पति को छुड़ाने हेतु चली उसकी डोली के साथ गोरा व बादल जैसे युद्ध कला में निपुण वीर चल रहे थे | अल्लाउद्दीन व उसके सैनिक रानी के काफिले को दूर से देख रहे थे | सारी पालकियां अल्लाउदीन के शिविर के पास आकर रुकीं और उनमे से राजपूत वीर अपनी तलवारे सहित निकल कर यवन सेना पर अचानक टूट पड़े इस तरह अचानक हमले से अल्लाउद्दीन की सेना हक्की बक्की रह गयी और गोरा बादल ने तत्परता से रत्नसिंह को अल्लाउद्दीन की कैद से मुक्त कर सकुशल चितौड़ के दुर्ग में पहुंचा दिया |
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