Saturday, September 10, 2016

GANESHA MOUSE -A FLYING MACHINE?

GANESHA MOUSE -A FLYING MACHINE?

जामा मस्जिद का सच-महाराज अनंगपाल तोमर द्वितीय माँ भद्र काली मंदिर

जामा मस्जिद की जगह पहले काली मंदिर था।


 लालकिला शाहजहाँ के जन्म से सैकड़ों साल पहले “महाराज अनंगपाल तोमर द्वितीय” द्वारा दिल्ली को बसाने के क्रम में ही बनाया गया था जो कि महाभारत के अभिमन्यु के वंशज तथा महाराज पृथ्वीराज चौहान के नाना जी थे | इतिहास के अनुसार लाल किला का असली नाम “लाल कोट” है,
“लाल कोट” को जिसे महाराज अनंगपालद्वितीय द्वारा सन 1060 ईस्वी में दिल्ली शहर को बसाने के क्रम में ही बनवाया गया था जबकि शाहजहाँ का जन्म ही उसके सैकड़ों वर्ष बाद 1592 ईस्वी में हुआ है | इसके पूरे साक्ष्य “प्रथवीराज रासोसे” ग्रन्थ में मिलते हैं | किले के मुख्य द्वार पर बाहर हाथी की मूर्ति अंकित है जबकि इस्लाम मूर्ति के विरोधी होते हैं और राजपूत राजा लोग हाथियों के प्रेम के लिए विख्यात थे | इसके अलावा लाल किले के महल मे लगे सुअर (वराह) के मुह वाले चार नल अभी भी हैं यह भी इस्लाम विरोधी प्रतीक चिन्ह है |
महाराज अनंगपाल तोमर द्वितीय माँ भद्र काली के उपासक थे तथा भगवान श्री कृष्ण की पत्नी देवी यमनोत्री उनकी कुल देवी थी | इन्ही के लिये उन्होने अपने आवास “लाल कोट” (लाल किला ) के निकट ही सामने भगवा पत्थर (हिंदुओं का पवित्र रंग ) से भव्य मंदिर का निर्माण करवाया था तथा प्रत्येक राजउत्सव उसी परिसर में हुआ करते थे
यहाँ की इमारतों में उपस्थित अष्टदलीय पुष्प, जंजीर, घंटियां, आदि के लक्षण वहां हिंदू धर्म चिन्हों के रूप में आज भी मौजूद हैं | हिंदुओं के मंदिर हिंदू सन्यासियों के भगवा रंग के अनुरूप भगवा पत्थरों ( लाल पत्थर ) से बनाए जाते थे जबकि मुसलमानों के इमारतें सफेद चूने से बनी होती थी और उन पर हरा रंग का प्रयोग किया जाता था | दिल्ली के जामा मस्जिद में कोई भी मुस्लिम प्रतीक चिन्ह निर्माण काल से प्रयोग नहीं हुआ था बल्कि इस मस्जिद की बनावट इसके आकार वास्तु आदि हिंदुओं के भव्य मंदिर के अनुरुप है |
शाहजहां 1627 में अपने पिता की मृत्यु होने के बाद वह गद्दी पर बैठे तो उन्होने चाहता था कि खुदा का दरबार उसके दरबार से ऊंचा हो । खुदा के घर का फर्श उसके तख्त और ताज से ऊपर हो, इसीलिए उसने महाराज अनंगपाल तोमर द्वितीय स्थापित माँ भद्र काली तथा भगवान श्री कृष्ण की पत्नी देवी यमनोत्री जो कि महाराज अनंगपाल कुल देवी थी उसे तुड़वा कर मंदिर से जुड़ी हुई भोजला नामक छोटी सी पहाड़ी जहां महाराज अनंगपाल राजकीय उत्सव के समय उत्सव देखने आने वालों के घोड़े बांधते थे उसे भी मस्जिद परिसर में मिलाने के लिये चुना और 6 अक्टूबर 1650 को मस्जिद को बनाने का काम शुरू हो गया।
मस्जिद बनाने के लिए 5000 मजदूरों ने छह साल तक काम किया । आखिरकार दस लाख के खर्च करके और हजारों टन नया पत्थर की मदद से माँ भद्र काली मंदिर के स्थान पर ये आलीशान मस्जिद बनवाई गयी । 80 मीटर लंबी और 27 मीटर चौड़ी इस मस्जिद में तीन गुंबद बनाए गए। साथ ही दोनों तरफ 41 फीट उंची मीनारे तामीर की गईं। इस मस्जिद में एक साथ 25 हजार लोग नमाज अदा कर सकते हैं। इस बेजोड़ मस्जिद का नाम भगवान श्री कृष्ण की पत्नी देवी “यमनोत्री” के नाम के कारण मुसलमान “य” की जगह “ज” शब्द का उच्चारण करते हैं अत: मस्जिद ए जहांनुमा रखा गया । जिसे फिर लोगों ने जामा मस्जिद कहना शुरू कर दिया।
मस्जिद के तैयार होते ही उज्बेकिस्तान के एक छोटे से शहर बुखारा के सैय्यद अब्दुल गफूर शाह को दिल्ली लाकर उन्हें यहाँ का इमाम घोषित किया गया और 24 जुलाई 1656 को जामा मस्जिद में पहली बार नमाज अदा की गई। इस नमाज में शाहजहां समेत सभी दरबारियों और दिल्ली के अवाम ने हिस्सा लिया। नमाज के बाद मुगल बादशाह ने इमाम अब्दुल गफूर को इमाम-ए-सल्तनत की पदवी दी और ये ऐलान भी किया कि उनका खानदान ही इस मस्जिद की इमामत करेंगे |
उस दिन के बाद से आजतक दिल्ली की जामा मस्जिद में इमामत का सिलसिला बुखारी खानदान के नाम हो गया | सैय्यद अब्दुल गफूर के बाद सय्यद अब्दुल शकूर इमाम बने। इसके बाद सैय्यद अब्दुल रहीम, सैय्यद अब्दुल गफूर, सैय्यद अब्दुल रहमान, सैय्यद अब्दुल करीम, सैय्यद मीर जीवान शाह, सैय्यद मीर अहमद अली, सैय्यद मोहम्मद शाह, सैय्यद अहमद बुखारी और सैय्यद हमीद बुखारी इमाम बने।
एक वक्त ऐसा भी था जब 1857 के बाद अंग्रेजों ने जामा मस्जिद में नमाज पर पाबंदी लगा दी और मस्जिद में अंग्रेजी फौज के घोड़े बांधे जाने लगे। आखिरकार 1864 में मस्जिद को दोबारा नमाजियों के लिए खोल दिया गया। नमाजियों के साथ-साथ दुनिया के कई जाने माने लोगों ने जामा मस्जिद की जमीन पर सजदा अदा किया है। चाहे वो सऊदी अरब के बादशाह हों या फिर मिस्त्र के नासिर। कभी ईरान के शाह पहलवी तो कभी इंडोनेशिया के राष्ट्रपति सुकर्नो, सबने यहां सजदा किया।
लेकिन इनमें से कोई भी यह नहीं जानता था कि जामा मस्जिद वास्तव में महाराज अनंगपाल तोमर द्वितीय स्थापित माँ भद्र काली तथा भगवान श्री कृष्ण की पत्नी देवी यमनोत्री का मंदिर था जिसे शाहजहां ने तुड़वा कर जामा मस्जिद बनवाया था |
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शाहजहाँ और मुमताज़ की प्रेमकहानी से जुड़ी कुछ सच्चाई


आगरा के ताजमहल को शाहजहाँ और मुमताज की प्रेम कहानी का प्रतीक कहा जाता है.

लेकिन शाहजहाँ और मुमताज की प्रेम कहानी को इतिहासकार शुरू के नकारते आयें हैं. शाहजहाँ और मुमताज की कोई प्रेम कहानी नहीं थी, बल्कि इनके जीवन की सच्चाई प्रेम कहानी से बिलकुल अलग थी

आइये जानते है शाहजहाँ और मुमताज़ की प्रेमकहानी से जुड़ी कुछ सच्चाई

मुमताज का असली नाम अर्जुमंद-बानो-बेगम” था, जो शाहजहाँ की पहली पत्नी नहीं थी.

मुमताज के अलावा शाहजहाँ की 6 और पत्नियां भी थी और इसके साथ उसके हरम में 8000 रखैलें भी थी.

मुमताज शाहजहाँ की चौथे नम्बर की पत्नी थी. मुमताज से पहले शाहजहाँ 3 शादियाँ कर चुका था. मुमताज से शादी करने के बाद 3 और लड़कियों से विवाह किया था.

मुमताज का विवाह शाहजहाँ से होने से पहले मुमताज शाहजहाँ के सूबेदार शेर अफगान खान की पत्नी थी. शाहजहाँ ने मुमताज का हरम कर विवाह किया.

मुमताज से विवाह करने के लिए शाहजहाँ ने मुमताज के पहले पति की हत्या करवा दी थी.

शाहजहाँ से विवाह के पहले मुमताज का शेर अफगान खान से एक बेटा भी था.

मुमताज शाहजहाँ के बीवियों में सबसे खुबसूरत नहीं थी. बल्कि उसकी पहली पत्नी इशरत बानो सबसे खुबसूरत थी.

मुमताज की मौत उसके 14 वे बच्चे के जन्म के बाद हुई थी.

मुमताज के मौत के तुरंत बाद शाहजहाँ ने मुमताज की बहन फरजाना से विवाह कर लिया था.

शाहजहाँ इतना ज्यादा वासना लिप्त था कि उसने अपनी स्वयं की बेटी जहाँआरा के साथ शारीरिक संबंध बना लिया था.

जहाँआरा मुमताज और शाहजहाँ की बड़ी पुत्री थी.

जहाँआरा की शक्ल मुमताज की हुबहू थी. इसलिए शाहजहाँ ने अपनी ही बेटी को अपनी रखैल बना लिया. और कभी भी जहाँआरा का कहीं और निकाह नहीं होने दिया.

शाहजहाँ ने अपने इस नाजायज संबंध को जायज दिखाने के लिए ईमाम और मौलवियों की सभा बुलाकर इस रिश्ते को जायज़ करार दिलवाया था .

शाहजहाँ की इस घटिया हरकत का समर्थन करते हुए ईमाम और मौलवियों ने कहा : – “माली को अपने द्वारा लगाये पेड़ का फल खाने का हक़ है…”.

जहाँआरा जब प्रेम संबंध में थी तो उसके प्रेमी के पकडे जाने पर शाहजहाँ ने उस लड़के को तंदूर में बंद कर जिन्दा जला दिया था.

ये थी शाहजहाँ और मुमताज़ की प्रेमकहानी की सच्चाई.

अगर दोनों में प्रेम होता तो शहजाहं की इतनी रखैलें न होती और शाहजहाँ मुमताज के मौत के बाद उसकी बहन से और अपनी बेटी से शारीरिक संबंध नहीं बनाता.

सच कहा जाए तो शाहजहाँ ना ही औरत की इज्ज़त करता था और ना ही मुमताज़ से प्रेम.

शाहजहाँ ने अपनी हवस और अहंकार के लिए मुमताज से विवाह किया था. शाहजहाँ और मुमताज़ की प्रेमकहानी झूठ के अलावा कुछ नहीं.

संदर्भ पढ़ें

Monday, September 5, 2016

Dharm, Dharm nirpeksha,sarva dharm sambhav

संसार में कोई भी नीच से नीच मनुष्य भी धर्म-निरपेक्ष हो ही नहीं सकता, क्योंकि कोई भी मनुष्य मानवीय गुणों से हीं नहीं है l

धर्म यानी धारण करने योग्य मानवीय गुण जिसके मुख्य लक्ष्ण होते हैं …
1. धैर्य
2. क्षमा
3. मन पर काबू
4. चोरी न करना
5. मन व् शरीर की पवित्रता
6. इन्द्रियों पर नियन्त्रण रखना
7. बुद्धि को स्वाध्याय सत्संग से बढ़ाना
8. विद्वान होना व् ज्ञान को स्वाध्याय सत्संग से बढ़ाना
9. सत्य बोलना
10. क्रोध न करना
11. अहिंसा पर कायरता नहीं
12. परोपकार
13. मोक्ष प्राप्त करने हेतु सत कर्म करना
14. मानवता यानी चरित्रवान होना
15. दया

बहन, भाई, पिता, पुत्री, माँ, बेटा एक कमरे में सोये हैं, वे कुकर्म नही करते, इसके पीछे कौन है जो कुकर्म से रोक रहा है ?

पडोसी के घर में कोई नहीं है और आप उसके घर में चोरी नहीं करते, कौन है जो आपको रोक रहा है ? इस कुकर्म से …
उत्तर है ..धर्म

इन लक्षणों के बिना क्या किसी को इंसान या मानव मनुष्य कह सकते हैं ?
जिससे इन गुणों की अपेक्षा न की जा सके उसे धर्म निरपेक्ष कह सकते हैं … पशुओं में भी इनमे से कुछ गुण होते हैं l
धर्म निरपेक्ष तो पशु से गिरे हुए को कहते हैं l अगर कोई नेता आपको पागल बनाये की धर्म-निरपेक्ष का अर्थ सर्व धर्म सामान होता है तो फिर धर्म निरपेक्ष न कह कर सर्व धर्म समभाव ही कहना चाहिए l

धर्म निरपेक्ष तो सबसे बड़ी गाली है शायद सबसे भयंकर गाली है,
सारे नेता, जज, सरकारी अधिकारी, MP – MLA – Mayor आदि सब धर्म निरपेक्ष होने ही शोथ लेते हैं तथा चुनाव का नामांकन पात्र भरते हैं l
यह असहनीय है ,,, इसकी चर्चा करें .. प्रचार करें तथा यथासम्भव विरोध करें l
देश के प्रति कर्तव्य निभाएं … भारत भूमि पुन्य भूमि है, ऋषि भूमि है, देव भूमि है … वेद (ज्ञान) भूमि है … यह कदापि धर्म निरपेक्ष देश नहीं है l

भारत माता को धर्म निरपेक्ष घोषित करने का पाप अज्ञानी कांग्रेस ने किया था और आज सभी कर रहे हैं l

धर्म – निरपेक्ष का अर्थ होता है धर्म विरुद्ध, धर्म – विहीन यानी मानवताहीन अर्थात जिससे धर्म की अपेक्षा न की जा सके … जो धर्म के प्रति निरपेक्ष हो l

और अब बात करते हैं सर्व धर्म समान की …

सब धातुओं के गहने सामान नहीं होते. सोने की कीमत अलग होती है और अलुमिनियम, चांदी, पीतल लोहे आदि की कीमत अलग होती है l
सब सरकारी नौकर सामान नहीं होते … चपरासी, क्लर्क, कलेक्टर और मंत्रियों को अलग अलग श्रेणी के नौकर माने जाते हैं l सब राजनितिक पार्टियां सामान हैं … ऐसा कोई कहे तो .. राजनेता नाराज हो जायेंगे l अपनी पार्टी को श्रेष्ठ और अन्य पार्टियों को कनिष्ठ बताते हैं …. पर धर्म के विषय में सब धर्म सामान कहने में उनको लज्जा नही आती l
वास्तव में जैसे विज्ञान के जगत में किसी एक वैज्ञानिक की बात तब तक सच्ची नहीं मानी जाती जब तक की उसे सम्पूर्ण विश्व के वैज्ञानिक तर्क-संगत और प्रायोगिक स्टार पर सच्ची नहीं मानते l ऐसे ही धर्म के विषय पर भी किसी एक व्यक्ति के कहने से उसकी बात सच्ची नहीं मान सकते l क्योंकि उसमे अपने धर्म के प्रति राग और अन्य धर्मो के प्रति द्वेष होने की सम्भावना है l सनातन धर्म के सिवा अन्य धर्म अपने धर्म को ही सच्चा मानते हैं, दुसरे धर्मो की निंदा करते हैं l केवल सनातन धर्म ही अन्य धर्मों के प्रति उदारता और सहिष्णुता का भाव सिखाता है l इसका अर्थ यह कदापि नहीं हो सकता की सब धर्म समान हैं l

गंगा का जल और ये तालाबों, कुएं या नाली का पानी समान कैसे हो सकता है l
यदि समस्त विश्व के सभी धर्मो को मानने वाले सभी धर्मों का अध्ययन करके तटस्थ अभिप्राय बताने वाले विद्वानों ने किसी धर्म को तर्क संगत और श्रेष्ठ घोषित किया हो तो उसकी महानता को सबको स्वीकार करना पड़ेगा l सम्पूर्ण विश्व में यदि किसी धर्म को ऐसी व्यापक प्रशस्ति प्राप्त हुई है तो वह है … सनातन धर्म l
जितनी व्यापक प्रशस्ति सनातन धर्म को मिली है उतनी ही व्यापक आलोचना ईसाईयत और इस्लाम की अंतर्राष्ट्रीय विद्वानों और फिलास्फिस्तों ने की है ….

सनातन धर्म की महिमा और सच्चाई को भारत के संत और महापुरुष तो सदियों से सैद्धांतिक और प्रायोगिक प्रमाणों के द्वारा प्रकट करते आये हैं, फिर भी पाश्चात्य विद्वानों से प्रमाणित होने पर ही किसी की बात को स्वीकार करने वाले पाश्चात्य बोद्धिकों के गुलाम ऐसे भारतीय बुद्धिजीवी लोग इस लेख को पढ़कर भी सनातन धर्म की श्रेष्ठता को स्वीअक्र करेंगे तो हमे प्रसन्नता होगी और यदि वो सनातन धर्म के महान ग्रन्थों का अध्ययन करेंगे तो उनको इसकी श्रेष्ठता के अनेक सैद्धांतिक प्रमाण मिलेंगे और किसी अनुभवी पुरुष के मार्गदर्शन में साधना करेंगे तो उनको इसके सत्य के प्रायोगिक प्रमाण भी मिलेंगे l आशा है सनातन धर्मावलम्बी इस लेख को पढने के बाद स्वयम को सनातन धर्मी कहलाने पर गर्व का अनुभव करेंगे l निम्नलिखित विश्व-प्रसिद्ध विद्वानों के वचन सर्व-धर्म सामान कहने वालों के मूंह पर करारे तमाचे मारते हैं और सनातन धर्म की महत्ता प्रतिपादित करते हैं … जैसे चपरासी, सचिव, कलेक्टर आदि सब अधिकारी समान नहीं होते .. गंगा यमुना गोदावरी कावेरी आदि नदियों का जल .. और कुएं तथा नाली का जल सामान नहीं होता ऐसे ही सब धर्म समान नहीं होते …. सबके प्रति स्नेह सदभाव रखना भारत वर्ष की विशेषता है लेकिन सर्व-धर्म सामान का भाषण करने वाले भोले भले भारत वासियों के दिलो दिमाग में तुष्टिकरण की कूटनीतिक शिक्षा-निति के और विदेशी गुलामी के संस्कार भरते हैं l

सर्वधर्म सामान कह कर अपनी ही संस्कृति का गला घोंटने के अपराध से उन सज्जनों को ये लेख बचाएगा आप स्वयं पढ़ें और औरों तक यह पहुँचाने की पावन सेवा करें l
Manisha Singh 

Harsh vardhan built Prayagraj / Allahabad fort and Akbar snatched it


हिन्दू राजपूत सम्राट हर्षवर्धन बैस ने बनाया था इलाहाबाद का किला । पूरा सत्य जरूर पढ़ें । share करें ।
मित्रो सम्राट हर्षवर्धन बैस पिता का नाम ‘प्रभाकरवर्धन’ था। हर्षवर्धन बैस का शासनकाल ६०६ से ६४७ ई० तक था | ४१वर्षों के शासन काल में हर्षवर्धन बैस ने अपने साम्राज्य का विस्तार जालंधर, पंजाब, कश्मीर, नेपाल एवं बल्लभीपुर तक कर लिया था। जनरल कनिंघम और बाणभट्ट के अनुसार हर्षवर्धन बैस सूर्यवंशी राजपूत क्षत्रिय थे !
हर्षवर्धन बैस सम्राट की उपाधी ग्रहण किया था लगातार ७३-८५ बार अरबों , तुर्क एवं हूणों को धूल चटानेवाला सबसे पराक्रमी सम्राट साबित हुए थे । भारतवर्ष की सीमारेखा अश्शूर , चीन , तुर्क तक फैल गया था ।
हर्षवर्धन ने अपने शासन काल मे अनेकों किले, सरोवर तथा उद्यानो का निर्माण करवाया था जिसमे से संगम के तट पर स्थापित इलाहाबाद (प्रयाग) का किला एवं रेल्वे स्टेशन के निकट उद्यान (खुशरोबाग) हर्षवर्धन द्वारा ६२५ ई० मे निर्मित करवाया गया था | मुगलो के शासन काल मे जब छल और बल से अकबर ने प्रयाग (इलाहाबाद) तक अपना साम्राज्य विस्तार किया तो सर्वप्रथम उसने प्रयाग का नाम बदलकर अल्लाहबाद कर दिया जिसे अंग्रेज़ो ने अपने शासन काल मे इलाहाबाद कर दिया |
आज भी इलाहाबाद मे प्रयाग रेलवे स्टेशन मौजूद है | अकबरनामा के अनुसार वर्तमान रेलवे स्टेशन के निकट स्थित खुशरोबाग जो अकबर के अय्याश पोते (खुशरो जहांगीर का बेटा) के नाम पर स्थित है वह वास्तव मे राजा हर्षवर्धन का स्थायी समारोह स्थल था | माघ के एक मास के दौरान राजा हर्षवर्धन स्थायी रूप से अपने शासन सत्ता के पदाधिकारियों एवं परिवार के साथ स्थायी रूप से तीर्थराज प्रयाग में संगम तट पर स्थित किले में निवास करते थे |
दैनिक कला प्रदर्शन को देखने के लिए हर रोज रथ यात्रा द्वारा संगम तट स्थित किले से देव उद्यान (खुशरो बाग) तक जाकर वह विभिन्न कलाकारों की कलाओं का आनंद लेते थे और उन्हें पुरस्कृत करते थे | माघ के अंतिम सप्ताह मे विस्तृत यज्ञ कर ब्राह्मणो को अपना सर्वस्व दान करके वापस अपनी राजधानी कन्नौज लौट जाया करते थे | इस कार्यक्रम के दौरान संपूर्ण राज्य में ना तो कोई शादी विवाह होते थे और न ही किसी भी तरह का कोई भवन निर्माण आदि कार्य उत्सव कार्यक्रम के दौरान हुआ करते थे, जो परंपरा समाज में आज भी खरमास में विवाहादि, भवन निर्माण, उत्सव आदि न करने के रुप में प्रचलित है |
राजा हर्षवर्धन के इसी सर्वस्व दान से प्रेरित होकर उनकी प्रजा भी उस उत्सव में ब्राह्मणों को अपने सामर्थ्य के अनुसार दान किया करती थी यही परंपरा आज भी मकर संक्रांति के अवसर पर प्रयागराज तीर्थ के तट पर खिचड़ी दान या सामर्थ्य अनुसार दान करने की चली आ रही है |
इस तरह यह स्पष्ट है कि इलाहाबाद का किला एवम देव उद्यान (खुशरो बाग) का निर्माण अकबर ने नही बल्कि राजा हर्षवर्धन ने किया था|
इलाहाबाद के किले का वस्तु जिसमे अनेक हिन्दू वस्तु के प्रतीक चिह्न उपलब्ध है, अति प्राचीन स्थापित पुराणों मे वर्णित अक्षय वट, देव वृक्ष एवं किले मे स्थापित अनेक देव मंदिर यह सीध करते है की किले का निर्माण किसी हिन्दू राजपूत राजा के द्वारा करवाया गया था |
वन्देमातरम् ।।
Manisha Singh 

Saturday, September 3, 2016

भारत युद्ध-नौकाएँ

भारत सारे विश्व को नौकाएँ बनाकर देता था

उस विश्वव्यापी वैदिक संस्कृति की प्राचीन जड़ भारत में होने से वह आज केवल भारत में ही कुछ-कुछ शेष रह गयी है। जब वैदिक संस्कृति सारे विश्व में फैली थी तब सातों समुद्र पार सारे प्रदेशों से संपर्क रखने के लिए भारत में ही सब प्रकार के जहाज (नौका) बनाकर देश-प्रदेश को दिये जाते थे। भारत के संस्कृत के शब्द ‘नावि’ से ही यूरोपीयों ने Navy(नावि) शब्द रखा।
Murrays Handbook of India and Ceylon (सन १८९१ का प्रकाशन) में उल्लेख है कि सन 1735 में सूरत नगर में ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कम्पनी के लिए (भारत में) एक नौका बनवाई गई। हालत यहाँ तक भी थी कि अंग्रेज़ भारत के पुराने पड़े जहाजों को भी अपने बने नए जहाजों से अच्छा मानकर लेते थे। लौजी कैसल (Lowji Castle) नाम का 1000 टन भर का जो व्यापारी जहाज भारत में बनाया गया था वह लगभग 75 वर्ष तक सागर पर गमनागमन करता रहा।
एक अंग्रेज़ अपनी पुस्तक में कहता है कि “बंबई में बने जहाज बड़े पक्के, टिकाऊ और सुंदर होते थे। यूरोप में बने जहाज भारतीय जहाजों से बहुत निकृष्ट होते थे। भारतीय नौकाओं की लकड़ी इतनी अच्छी होती थी कि उनसे बनी नौकाएँ 50 से 60 वर्ष तक लीलया सागर संचार करती रहती है।” (Travels in Asia and Africa, by Abraham Parsons, 1808, Longmans, London) ।
उस वैदिक व्यवस्था के अन्तर्गत जो प्रमुख युद्ध-नौकाएँ बनी वे थी –
Minden-74 (सन 1820 में), कार्नवालिस-74 जो 1775 टन वजन की थी, मालबार-74, सेरिंगपटनम (श्रीरंगपट्टनम का विकृत रूप) आदि नाम की अनेकों नौकाएँ अंग्रेज़ भारत से खरीदते रहे। ब्रिटिश ओक वृक्ष की लकड़ी से भारतीय सांगवान लकड़ी चार-पाँच गुना अधिक टिकाऊ होती है।
अत: प्रत्येक भारतीय को गर्व होना चाहिए कि हमारी वस्तुएँ बड़ी अच्छी होती है और हमारी विद्या और कार्यकुशलता जगन्मान्य थी। प्रदीर्घ परतंत्रता में भारत लूट जाने से अपना आत्मविश्वास, आत्मगौरव और कार्यकुशलता खो बैठा है। आज तो हालत यह है कि भारतीय लोग पराये माल को ही सर्वोत्तम समझते लगे है। हम क्या थे और क्या बन गए। हमको प्राचीन वैदिक आदर्श और लक्ष्य प्रत्येक भारतीय के मन में बिठाने होंगे। इतिहास ऐसे ही मार्गदर्शन के लिए पढ़ा जाता है।
समुद्र यात्रा भारतवर्ष में सनातन से प्रचलित रही है। महान महर्षि अगस्त्य स्वयं समुद्री द्वीप-द्वीपान्तरों की यात्रा करने वाले महापुरुष थे। संस्कृति के प्रचार के निमित्त या नए स्थानों पर व्यापार के निमित्त दुनिया के देशों में भारतीयों का आना-जाना था।
कौण्डिन्य समुद्र पार कर दक्षिण पूर्व एशिया पहुंचे। एस. सोनी जी ने अपने शोध में बताया है की, मैक्सिको के यूकाटान प्रांत में जवातुको नामक स्थान पर प्राप्त सूर्य मंदिर के शिलालेख में नाविक वुसुलिन के शक संवत् ८८५ में पहुंचने का उल्लेख मिलता है। गुजरात के लोथल में हुई खुदाई में ध्यान में आता है कि ई. पूर्व २४५० के आस-पास बने बंदरगाह द्वारा इजिप्त के साथ सीधा सामुद्रिक व्यापार होता था। २४५० ई.पू. से २३५० ई.पू. तक छोटी नावें इस बंदरगाह पर आती थीं। बाद में बड़े जहाजों के लिए आवश्यक रचनाएं खड़ी की गएं तथा नगर रचना भी हुई। - http://en.wikipedia.org/wiki/Indian_Ocean_trade
प्राचीन काल से अर्वाचीन काल तक के नौ निर्माण कला का उल्लेख प्रख्यात बौद्ध संशोधक भिक्षु चमनलाल ने अपनी पुस्तक ‘हिन्दू अमेरिका‘ में किया है। इसी प्रकार सन् १९५० में कल्याण के हिन्दू संस्कृति अंक में गंगा शंकर मिश्र ने भी विस्तार से इस इतिहास को लिखा है। - http://thegr8wall.wordpress.com/…/ancient-indian-navigators/
भारतवर्ष के प्राचीन वाङ्गमय वेद, रामायण, महाभारत, पुराण आदि में जहाजों का उल्लेख आता है। जैसे बाल्मीकि रामायण के अयोध्या कांड में ऐसी बड़ी नावों का उल्लेख आता है जिसमें सैकड़ों योद्धा सवार रहते थे।
नावां शतानां पञ्चानां कैवर्तानां शतं शतम। सन्नद्धानां तथा यूनान्तिष्ठक्त्वत्यभ्यचोदयत्॥ - महाभारत
अर्थात - अर्थात्-सैकड़ों सन्नद्ध जवानों से भरी पांच सौ नावों को सैकड़ों धीवर प्रेरित करते हैं।
इसी प्रकार महाभारत में यंत्र-चालित नाव का वर्णन मिलता है।
सर्ववातसहां नावं यंत्रयुक्तां पताकिनीम्।
अर्थात् - यंत्र पताका युक्त नाव, जो सभी प्रकार की हवाओं को सहने वाली है।
कौटिलीय (चाणक्य के) अर्थशास्त्र में राज्य की ओर से नावों के पूरे प्रबंध के संदर्भ में जानकारी मिलती है। ५वीं सदी में हुए वारहमिहिर कृत ‘बृहत् संहिता‘ तथा ११वीं सदी के राजा भोज कृत ‘युक्ति कल्पतरु‘ में जहाज निर्माण पर प्रकाश डाला गया है। नौका विशेषज्ञ "राजा भोज" ने नौका एवं बड़े जहाजों के निर्माण का विस्तृत वर्णन किया है... बौद्ध संशोधक भिक्षु चमनलाल की ‘हिन्दू अमेरिका‘ पुस्तक के (पृष्ठ ३५७) अनुसार राजा भोज कृत ‘युक्ति कल्पतरु‘ ग्रंथ में नौका शास्त्र का विस्तार से वर्णन है। नौकाओं के प्रकार, उनका आकार, नाम आदि का विश्लेषण किया गया है।
(१) सामान्य- वे नौकाएं, जो साधारण नदियों में चल सकें।
(२) विशेष- जिनके द्वारा समुद्र यात्रा की जा सके।
उत्कृष्ट निर्माण-कल्याण (हिन्दू संस्कृति अंक - १९५०) में नौका की सजावट का सुंदर वर्णन आता है।
"चार श्रंग (मस्तूल) वाली नौका सफेद, तीन श्रृग वाली लाल, दो श्रृंग वाली पीली तथा एक श्रंग वाली को नीला रंगना चाहिए।" नौका मुख-नौका की आगे की आकृति यानी नौका का मुख सिंह, महिष, सर्प, हाथी, व्याघ्र, पक्षी, मेढ़क आदि विविध आकृतियों के आधार पर बनाने का वर्णन है।
भारत पर मुस्लिम आक्रमण ७वीं सदी में प्रारंभ हुआ। उस काल में भी भारत में बड़े-बड़े जहाज बनते थे। मार्कपोलो तेरहवीं सदी में भारत में आया। वह लिखता है ‘जहाजों में दोहरे तख्तों की जुड़ाई होती थी, लोहे की कीलों से उनको मजबूत बनाया जाता था और उनके सुराखों को एक प्रकार की गोंद में भरा जाता था। इतने बड़े जहाज होते थे कि उनमें तीन-तीन सौ मल्लाह लगते थे। एक-एक जहाज पर ३ से ४ हजार तक बोरे माल लादा जा सकता था। इनमें रहने के लिए ऊपर कई कोठरियां बनी रहती थीं, जिनमें सब तरह के आराम का प्रबंध रहता था। जब पेंदा खराब होने लगता तब उस पर लकड़ी की एक नयी तह को जड़ लिया जाता था। इस तरह कभी-कभी एक के ऊपर एक ६ तह तक लगायी जाती थी।‘
१५वीं सदी में निकोली कांटी नामक यात्री भारत आया। उसने लिखा कि ‘भारतीय जहाज हमारे जहाजों से बहुत बड़े होते हैं। इनका पेंदा तिहरे तख्तों का इस प्रकार बना होता है कि वह भयानक तूफानों का सामना कर सकता है। कुछ जहाज ऐसे बने होते हैं कि उनका एक भाग बेकार हो जाने पर बाकी से काम चल जाता है।‘
बर्थमा नामक यात्री लिखता है ‘लकड़ी के तख्तों की जुड़ाई ऐसी होती है कि उनमें जरा सा भी पानी नहीं आता। जहाजों में कभी दो पाल सूती कपड़े के लगाए जाते हैं, जिनमें हवा खूब भर सके। लंगर कभी-कभी पत्थर के होते थे। ईरान से कन्याकुमारी तक आने में आठ दिन का समय लग जाता था।‘ समुद्र के तटवर्ती राजाओं के पास जहाजों के बड़े-बड़े बेड़े रहते थे।
डा. राधा कुमुद मुकर्जी ने अपनी ‘इंडियन शिपिंग‘ नामक पुस्तक में भारतीय जहाजों का बड़ा रोचक एवं सप्रमाण इतिहास दिया है। - http://books.arshavidya.org/cgi-b…/process/…/display/middle…
अब एक हटकर उदाहरण देना चाहता हूँ आपको - अंग्रेजों ने एक भ्रम और व्याप्त किया कि वास्कोडिगामा ने समुद्र मार्ग से भारत आने का मार्ग खोजा। यह सत्य है कि वास्कोडिगामा भारत आया था, पर वह कैसे आया इसके यथार्थ को हम जानेंगे तो स्पष्ट होगा कि वास्तविकता क्या है? प्रसिद्ध पुरातत्ववेता पद्मश्री डा. विष्णु श्रीधर वाकणकर ने बताया कि मैं अभ्यास के लिए इंग्लैण्ड गया था। वहां एक संग्रहालय में मुझे वास्कोडिगामा की डायरी के संदर्भ में बताया गया। इस डायरी में वास्कोडिगामा ने वह भारत कैसे आया, इसका वर्णन किया है। वह लिखता है, जब उसका जहाज अफ्र्ीका में जंजीबार के निकट आया तो मेरे से तीन गुना बड़ा जहाज मैंने देखा। तब एक अफ्र्ीकन दुभाषिया लेकर वह उस जहाज के मालिक से मिलने गया। जहाज का मालिक चंदन नाम का एक गुजराती व्यापारी था, जो भारतवर्ष से चीड़ व सागवान की लकड़ी तथा मसाले लेकर वहां गया था और उसके बदले में हीरे लेकर वह कोचीन के बंदरगाह आकार व्यापार करता था। वास्कोडिगामा जब उससे मिलने पहुंचा तब वह चंदन नाम का व्यापारी सामान्य वेष में एक खटिया पर बैठा था। उस व्यापारी ने वास्कोडिगामा से पूछा, कहां जा रहे हो? वास्कोडिगामा ने कहा- हिन्दुस्थान घूमने जा रहा हूं। तो व्यापारी ने कहा मैं कल जा रहा हूं, मेरे पीछे-पीछे आ जाओ।‘ इस प्रकार उस व्यापारी के जहाज का अनुगमन करते हुए वास्कोडिगामा भारत पहुंचा। स्वतंत्र देश में यह यथार्थ नयी पीढ़ी को बताया जाना चाहिए था परन्तु दुर्भाग्य से यह नहीं हुआ।
अब मैकाले की संतानों के मन में उपर्युक्त वर्णन पढ़कर विचार आ सकता है, कि नौका निर्माण में भारत इतना प्रगत देश था तो फिर आगे चलकर यह विद्या लुप्त क्यों हुई?
इस दृष्टि से अंग्रेजों के भारत में आने और उनके राज्य काल में योजनापूर्वक भारतीय नौका उद्योग को नष्ट करने के इतिहास के बारे में जानना जरूरी है। उस इतिहास का वर्णन करते हुए श्री गंगा शंकर मिश्र कल्याण के हिन्दू संस्कृति अंक (१९५०) में लिखते हैं-
‘पाश्चात्यों का जब भारत से सम्पर्क हुआ तब वे यहां के जहाजों को देखकर चकित रह गए। सत्रहवीं शताब्दी तक यूरोपीय जहाज अधिक से अधिक ६ सौ टन के थे, परन्तु भारत में उन्होंने ‘गोघा‘ नामक ऐसे बड़े-बड़े जहाज देखे जो १५ सौ टन से भी अधिक के होते थे। यूरोपीय कम्पनियां इन जहाजों को काम में लाने लगीं और हिन्दुस्थानी कारीगरों द्वारा जहाज बनवाने के लिए उन्होंने कई कारखाने खोल लिए। सन्‌ १८११ में लेफ्टिनेंट वाकर लिखता है कि ‘व्रिटिश जहाजी बेड़े के जहाजों की हर बारहवें वर्ष मरम्मत करानी पड़ती थी। परन्तु सागौन के बने हुए भारतीय जहाज पचास वर्षों से अधिक समय तक बिना किसी मरम्मत के काम देते थे।‘ ‘ईस्ट इण्डिया कम्पनी‘ के पास एक ऐसा बड़ा जहाज था, जो ८७ वर्षों तक बिना किसी मरम्मत के काम देता रहा। जहाजों को बनाने में शीशम, साल और सागौन-तीनों लकड़ियां काम में लायी जाती थीं।
सन्‌ १८११ में एक फ्रेंच यात्री वाल्टजर सालविन्स अपनी पुस्तक में लिखता है कि ‘प्राचीन समय में नौ-निर्माण कला में हिन्दू सबसे आगे थे और आज भी वे इसमें यूरोप को पाठ पढ़ा सकते हैं। अंग्रेजों ने, जो कलाओं के सीखने में बड़े चतुर होते हैं, हिन्दुओं से जहाज बनाने की कई बातें सीखीं। भारतीय जहाजों में सुन्दरता तथा उपयोगिता का बड़ा अच्छा योग है और वे हिन्दुस्थानियों की कारीगरी और उनके धैर्य के नमूने हैं।‘ बम्बई के कारखाने में १७३६ से १८६३ तक ३०० जहाज तैयार हुए, जिनमें बहुत से इंग्लैण्ड के ‘शाही बेड़े‘ में शामिल कर लिए गए। इनमें ‘एशिया‘ नामक जहाज २२८९ टन का था और उसमें ८४ तोपें लगी थीं। बंगाल में हुगली, सिल्हट, चटगांव और ढाका आदि स्थानों पर जहाज बनाने के कारखाने थे। सन्‌ १७८१ से १८२१ तक १,२२,६९३ टन के २७२ जहाज केवल हुगली में तैयार हुए थे।
अंग्रेजों की कुटिलता-व्रिटेन के जहाजी व्यापारी भारतीय नौ-निर्माण कला का यह उत्कर्ष सहन न कर सके और वे ‘ईस्ट इण्डिया कम्पनी‘ पर भारतीय जहाजों का उपयोग न करने के लिए दबाने बनाने लगे। सन्‌ १८११ में कर्नल वाकर ने आंकड़े देकर यह सिद्ध किया कि ‘भारतीय जहाजों‘ में बहुत कम खर्च पड़ता है और वे बड़े मजबूत होते हैं। यदि व्रिटिश बेड़े में केवल भारतीय जहाज ही रखे जाएं तो बहुत बचत हो सकती है।‘ जहाज बनाने वाले अंग्रेज कारीगरों तथा व्यापारियों को यह बात बहुत खटकी। डाक्टर टेलर लिखता है कि ‘जब हिन्दुस्थानी माल से लदा हुआ हिन्दुस्थानी जहाज लंदन के बंदरगाह पर पहुंचा, तब जहाजों के अंग्रेज व्यापारियों में ऐसी घबराहट मची जैसा कि आक्रमण करने के लिए टेम्स नदी में शत्रुपक्ष के जहाजी बेड़े को देखकर भी न मचती।‘
लंदन बंदरगाह के कारीगरों ने सबसे पहले हो-हल्ला मचाया और कहा कि ‘हमारा सब काम चौपट हो जाएगा और हमारे कुटुम्ब भूखों मर जाएंगे।‘ ‘ईस्ट इण्डिया कम्पनी‘ के ‘बोर्ड ऑफ डायरेक्टर्स‘ (निदेशक-मण्डल) ने लिखा कि हिन्दुस्थानी खलासियों ने यहां आने पर जो हमारा सामाजिक जीवन देखा, उससे भारत में यूरोपीय आचरण के प्रति जो आदर और भय था, नष्ट हो गया। अपने देश लौटने पर हमारे सम्बंध में वे जो बुरी बातें फैलाएंगे, उसमें एशिया निवासियों में हमारे आचरण के प्रति जो आदर है तथा जिसके बल पर ही हम अपना प्रभुत्व जमाए बैठे हैं, नष्ट हो जाएगा और उसका प्रभाव बड़ा हानिकर होगा।‘ इस पर व्रिटिश संसद ने सर राबर्ट पील की अध्यक्षता में एक समिति नियुक्त की।
काला कानून- समिति के सदस्यों में परस्पर मतभेद होने पर भी इस रपट के आधार पर सन्‌ १८१४ में एक कानून पास किया, जिसके अनुसार भारतीय खलासियों को व्रिटिश नाविक बनने का अधिकार नहीं रहा। व्रिटिश जहाजों पर भी कम-से कम तीन चौथाई अंग्रेज खलासी रखना अनिवार्य कर दिया गया। लंदन के बंदरगाह में किसी ऐसे जहाज को घुसने का अधिकार नहीं रहा, जिसका स्वामी कोई व्रिटिश न हो और यह नियम बना दिया गया कि इंग्लैण्ड में अंग्रेजों द्वारा बनाए हुए जहाजों में ही बाहर से माल इंग्लैण्ड आ सकेगा।‘ कई कारणों से इस कानून को कार्यान्वित करने में ढिलाई हुई, पर सन्‌ १८६३ से इसकी पूरी पाबंदी होने लगी। भारत में भी ऐसे कायदे-कानून बनाए गए जिससे यहां की प्राचीन नौ-निर्माण कला का अन्त हो जाए। भारतीय जहाजों पर लदे हुए माल की चुंगी बढ़ा दी गई और इस तरह उनको व्यापार से अलग करने का प्रयत्न किया गया। सर विलियम डिग्वी ने लिखा है कि ‘पाश्चात्य संसार की रानी ने इस तरह प्राच्य सागर की रानी का वध कर डाला।‘ संक्षेप में भारतीय नौ-निर्माण कला को नष्ट करने की यही कहानी है।
इसी तरह से कई और भारतीय विधाओं पर अतिक्रमण कर विधर्मियों ने उन्हें नष्ट करने या अपना बताने का कुत्सित प्रयास किया है... सनातनियों का परम कर्त्तव्य है की अपनी खोई हुई प्रतिष्ठा को वापस पाने हेतु तन मन धन से प्रयत्न करना प्रारंभ कर देवें...
मनीषा सिंह

Thursday, September 1, 2016

भारत के कुरु वंशी महाराज प्रद्योत मिश्र अरब देशो पर भगवा लहराया था



भारत के कुरु वंशी महाराज प्रद्योत जिनका राज्यकाल (1367-1317) अखंड भारतवर्ष के सम्राट थे राजधानी महिष्मति थे

१३६७ -१३१७ (ई पू) था इन्होंने असुरों पर आक्रमण किया था और मिश्र अरब देशो पर विजय प्राप्त किया था । दिग्विजयी सम्राट महाराज प्रद्योत इतिहास विलुप्त योद्धा जिन्होंने असुरों का दमन कर विश्व विजय किया था अपने समय के भारतवर्ष के सर्वश्रेष्ठ सम्राट थे प्रचण्ड भुजदण्ड से जीते हुए अनेक राजा उनके चरणों में सिर झुकाते थे। महाराज प्रद्योत का शौर्य अवर्णनीय हैं महाराजा प्रद्योत ने अपने शौर्य- और अद्भुत तेज के साथ भारतभूमि की पावनधारा पर जन्मे इस शूरवीर ने सनातन धर्म ध्वजा को मिश्र अरब देशो पर लहराकर स्वर्णिम इतिहास रच डाले थे ।
अनगिनत युद्ध में से कुछ ख़ास युद्ध का वर्णन मिलता हैं ।
प्रथम युद्ध-: मिश्र के साम्राज्य के राजा थे फ़राओ अमेनोफ़िस चतुर्थ सन १३५५ (ई.पू) इन्होने कोसला पर आक्रमण किया था महाराज प्रद्योत ने आक्रमण का सफल्तापुर्बक प्रतिरोध कर के अमेनोफ़िस पर विजय पा कर भगवा ध्वज मिश्र पर लहराया था ।

द्वितीय युद्ध-: बेबीलोन (Babylon) के असुर साम्राज्य के शासक बुरना द्वितीय १३६० (ई.पू) सिंध पर आक्रमण किया था महाराज प्रद्योत ने असुर साम्राज्य का भयंकर नाश किया था बेबीलोन पर विजय प्राप्त कर असुर साम्राज्य के असुरों को बंदी बनाया था ।

तृतीय युद्ध-: सन १३६३ (ई.पू) महाराज प्रद्योत ने ऐतिहासिक युद्ध लड़ें में एथेंस ग्रीस पर कब्ज़ा कर सेक्रोप्स द्वितीय को हराकर बन्दी बनाकर भारत लाये थे महाराजा प्रद्योत ने अफ्रीका काईरो को सेक्रोप्स से मुक्त करवाया था सेक्रोप्स ने अफ्रीका काईरो के लोगों को बंदी बनाकर पुरुषों से मजदूरी करवाते थे और उनकी औरतों को भोग की वस्तु के तरह भूखे सैनिको के बिच नग्न कर डाल देते थे इनसब से मुक्त कर एक नयी जीवन दिया था महाराज प्रद्योत ने काईरो वासियों को ।। यही होता हैं भारतीय संस्कृति की पहचान दयाभाव , मानवता के रक्षक और मानवता के दुश्मनों का संघार करनेवाला।


चतुर्थ युद्ध-: अश्शूर साम्राज्य अर्थात असीरिया के दानव अशुर पुज़ूर-अशुर तृतीय सन १३६१ (ई.पू) ने त्रिकोणमलाई (वर्तमान में कवरत्ती के नाम से जाने जाते हैं) अरब महासागर पर स्थित होने की वजह से विदेशी आक्रमणकारी इसी जगह पर आक्रमण करते थे ज़्यादातर महाराज प्रद्योत ने आक्रमण का प्रतिरोध करते हुए कई पड़ोसी देशो को असुरों के अधीनता से मुक्त करवाया था पुज़ूर-अशुर के साम्राज्य के विनाश से सनातन धर्म ध्वजा असीरिया की भूमि पर लहराया एवं जैसे की हम जानते हैं सनातन धर्म मतलब स्वाधीन मानसिकता स्वाधीन सरीर सनातन धर्म केरक्षक केवल उसीको घुलाम बनाते हैं जो सनातन धर्म का विनाश चाहता हैं महाराज प्रद्योत ने कई देश जीते पर किसी देश के महिला बच्चो पर कोई अत्याचार नहीं किया उनके सम्मान एवं इज्जत की रक्षा किया आक्रमणकारियों को खदेड़ा बंदी बनाया आक्रमणकारियों को पर उनके औरत एवं बच्चो पर किसी प्रकार का अत्याचार नहीं किये ।। सनातन धर्म ध्वजा के निचे रहकर महाराज प्रद्योत द्वारा जीते गए देश के लोग भी राम-राज्य में रहने का सौभाग्य प्राप्त किये थे ।

पंचम युद्ध-: अशुर-उबाल्लित प्रथम सन १३५१ (ई.पू) विदर्भ राज्य पर ३ लाख की सेना के साथ आक्रमण कर अपने साम्राज्य पर काल को निमंत्रण दिया था महाराज सम्राट महाबली प्रद्योत ने १२००० की सेना के साथ ३ लाख आक्रमणकारियों को हराया था ।

छठा युद्ध-: थूत्मोसे द्वितीय को पराजित कर लेबानन , अरब पर भगवा परचम लहराया था ।

सप्तम युद्ध-: अशुर दुगुल को धुला छठा कर इन देशो पर (अक्कड़ इसीन लार्सा निप्पुर अदाब अक्षक) अपना साम्राज्य स्थापित किया था ।

दिग्विजयी उपाधि प्राप्त किये थे १३० देश एवं अखंड जम्बूद्वीप के नरेश थे उनके भूजाबल के सामने उनके दुश्मन भी अपनी शीश झुकाते थे विदेशी आक्रमणकारी जान बचाना सर्वप्रथम उचित समझते थे ।

संदर्भ-:
१) The text is in a private collection and was published in: Arno Poebel (1955). “Second Dynasty of Isin According to a New King-List Tablet”. Assyriological Studies. University of Chicago Press (15).
२) Babylonia, c. 1000 – 748 B.C.”. In John Boardman; I. E. S. Edwards; N. G. L. Hammond; E. Sollberger. The Cambridge Ancient History (Volume 3, Part 1).
३) Grayson, Albert Kirk (1975). Assyrian and Babylonian Chronicles. Locust Valley, N.Y.
४) Leick, Gwendolyn (2003). Mesopotamia.
५) Kerényi, Karl, The Heroes of the Greeks (1959)

लेखिका-:मनीषा सिंह