Thursday, May 28, 2015

महान नही शैतान था अकबर .AKBAR -THE GREAT DEMON


Virendra Kumar Dwivedi's photo.महान नही शैतान था अकबर
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अकबर के समय के इतिहास लेखक अहमद यादगार ने लिखा-
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"बैरम खाँ ने निहत्थे और बुरी तरह घायल हिन्दू राजा हेमू के हाथ पैर बाँध दिये और उसे नौजवान शहजादे के पास ले गया और बोला, आप अपने पवित्र हाथों से इस काफिर का कत्ल कर दें और"गाज़ी"की उपाधि कुबूल करें, और शहजादे ने उसका सिर उसके अपवित्र धड़ से अलग कर दिया।'' (नवम्बर, ५ AD १५५६)
(तारीख-ई-अफगान,अहमद यादगार,अनुवाद एलियट और डाउसन, खण्ड VI, पृष्ठ ६५-६६)
इस तरह अकबर ने १४ साल की आयु में ही गाज़ी (काफिरों का कातिल) होने का सम्मान पाया।
इसके बाद हेमू के कटे सिर को काबुल भिजवा दिया और धड़ को दिल्ली के दरवाजे पर टांग दिया।
अबुल फजल ने आगे लिखा - ''हेमू के पिता को जीवित ले आया गया और नासिर-उल-मलिक के सामने पेश किया गया जिसने उसे इस्लाम कबूल करने का आदेश दिया, किन्तु उस वृद्ध पुरुष ने उत्तर दिया, ''मैंने अस्सी वर्ष तक अपने ईश्वर की पूजा की है; मै अपने धर्म को कैसे त्याग सकता हूँ?
मौलाना परी मोहम्मद ने उसके उत्तर को अनसुना कर अपनी तलवार से उसका सर काट दिया।''
(अकबर नामा, अबुल फजल : एलियट और डाउसन, पृष्ठ २१)
इस विजय के तुरन्त बाद अकबर ने काफिरों के कटे हुए सिरों से एक ऊँची मीनार बनवायी।
२ सितम्बर १५७३ को भी अकबर ने अहमदाबाद में २००० दुश्मनों के सिर काटकर अब तक की सबसे ऊँची सिरों की मीनार बनवायी और अपने दादा बाबर का रिकार्ड तोड़ दिया। (मेरे पिछले लेखों में पढ़िए) यानी घर का रिकार्ड घर में ही रहा।
Virendra Kumar Dwivedi's photo. अकबरनामा के अनुसार ३ मार्च १५७५ को अकबर ने बंगाल विजय के दौरान इतने सैनिकों और नागरिकों की हत्या करवायी कि उससे कटे सिरों की आठ मीनारें बनायी गयीं। यह फिर से एक नया रिकार्ड था। जब वहाँ के हारे हुए शासक दाउद खान ने मरते समय पानी माँगा तो उसे जूतों में भरकर पानी पीने के लिए दिया गया।
अकबर की चित्तौड़ विजय के विषय में अबुल फजल ने
लिखा था- ''अकबर के आदेशानुसार प्रथम ८०००
राजपूत योद्धाओं को बंदी बना लिया गया, और बाद में उनका वध कर दिया गया। उनके साथ-साथ विजय के बाद प्रात:काल से दोपहर तक अन्य ४०००० किसानों का भी वध कर दिया गया जिनमें ३००० बच्चे और बूढ़े थे।''
(अकबरनामा, अबुल फजल, अनुवाद एच. बैबरिज)
चित्तौड़ की पराजय के बाद महारानी जयमाल मेतावाड़िया समेत १२००० क्षत्राणियों ने मुगलों के हरम में जाने की अपेक्षा जौहर की अग्नि में स्वयं को जलाकर भस्म कर लिया। जरा कल्पना कीजिए विशाल गड्ढों में धधकती आग और दिल दहला देने वाली चीखों-पुकार के बीच उसमें कूदती १२००० महिलाएँ ।
अपने हरम को सम्पन्न करने के लिए अकबर ने अनेकों हिन्दू राजकुमारियों के साथ जबरनठ शादियाँ की थी परन्तु कभी भी, किसी मुगल महिला को हिन्दू से शादी नहीं करने दी। केवल अकबर के शासनकाल में 38 राजपूत राजकुमारियाँ शाही खानदान में ब्याही जा चुकी थीं। १२ अकबर को, १७ शाहजादा सलीम को, छः दानियाल को, २ मुराद को और १ सलीम के पुत्र खुसरो को।
अकबर की गंदी नजर गौंडवाना की विधवा रानी दुर्गावती पर थी
''सन् १५६४ में अकबर ने अपनी हवस की शांति के लिए रानी दुर्गावती पर आक्रमण कर दिया किन्तु एक वीरतापूर्ण संघर्ष के बाद अपनी हार निश्चित देखकर रानी ने अपनी ही छाती में छुरा घोंपकर आत्म हत्या कर ली। किन्तु उसकी बहिन और पुत्रवधू को को बन्दी बना लिया गया। और अकबर ने उसे अपने हरम में ले लिया। उस समय अकबर की उम्र २२ वर्ष और रानी दुर्गावती की ४० वर्ष थी।''
(आर. सी. मजूमदार, दी मुगल ऐम्पायर, खण्ड VII)
सन् 1561 में आमेर के राजा भारमल और उनके ३ राजकुमारों को यातना दे कर उनकी पुत्री को साम्बर से अपहरण कर अपने हरम में आने को मज़बूर किया।
औरतों का झूठा सम्मान करने वाले अकबर ने सिर्फ अपनी हवस मिटाने के लिए न जाने कितनी मुस्लिम औरतों की भी अस्मत लूटी थी। इसमें मुस्लिम नारी चाँद बीबी का नाम भी है।
अकबर ने अपनी सगी बेटी आराम बेगम की पूरी जिंदगी शादी नहीं की और अंत में उस की मौत अविवाहित ही जहाँगीर के शासन काल में हुई।
सबसे मनगढ़ंत किस्सा कि अकबर ने दया करके सतीप्रथा पर रोक लगाई; जबकि इसके पीछे उसका मुख्य मकसद केवल यही था की राजवंशीय हिन्दू नारियों के पतियों को मरवाकर एवं उनको सती होने से रोककर अपने हरम में डालकर एेय्याशी करना।
राजकुमार जयमल की हत्या के पश्चात अपनी अस्मत बचाने को घोड़े पर सवार होकर सती होने जा रही उसकी पत्नी को अकबर ने रास्ते में ही पकड़ लिया।
शमशान घाट जा रहे उसके सारे सम्बन्धियों को वहीं से कारागार में सड़ने के लिए भेज दिया और राजकुमारी को अपने हरम में ठूंस दिया ।
Virendra Kumar Dwivedi's photo. इसी तरह पन्ना के राजकुमार को मारकर उसकी विधवा पत्नी का अपहरण कर अकबर ने अपने हरम में ले लिया।
अकबर औरतों के लिबास में मीना बाज़ार जाता था जो हर नये साल की पहली शाम को लगता था। अकबर अपने दरबारियों को अपनी स्त्रियों को वहाँ सज-धज कर भेजने का आदेश देता था। मीना बाज़ार में जो औरत अकबर को पसंद आ जाती, उसके महान फौजी उस औरत को उठा ले जाते और कामी अकबर की अय्याशी के लिए हरम में पटक देते। अकबर महान उन्हें एक रात से लेकर एक महीने तक अपनी हरम में खिदमत का मौका देते थे। जब शाही दस्ते शहर से बाहर जाते थे तो अकबर के हरम
की औरतें जानवरों की तरह महल में बंद कर दी जाती थीं।
अकबर ने अपनी अय्याशी के लिए इस्लाम का भी दुरुपयोग किया था। चूँकि सुन्नी फिरके के अनुसार एक मुस्लिम एक साथ चार से अधिक औरतें नहीं रख सकता और जब अकबर उस से अधिक औरतें रखने लगा तो काजी ने उसे रोकने की कोशिश की। इस से नाराज होकर अकबर ने उस सुन्नी काजी को हटा कर शिया काजी को रख लिया क्योंकि शिया फिरके में असीमित और अस्थायी शादियों की इजाजत है , ऐसी शादियों को अरबी में "मुतअ" कहा जाता है।
अबुल फज़ल ने अकबर के हरम को इस तरह वर्णित किया है-
“अकबर के हरम में पांच हजार औरतें थीं और ये पांच हजार औरतें उसकी ३६ पत्नियों से अलग थीं। शहंशाह के महल के पास ही एक शराबखाना बनाया गया था। वहाँ इतनी वेश्याएं इकट्ठी हो गयीं कि उनकी गिनती करनी भी मुश्किल हो गयी। अगर कोई दरबारी किसी नयी लड़की को घर ले जाना चाहे तो उसको अकबर से आज्ञा लेनी पड़ती थी। कई बार सुन्दर लड़कियों को ले जाने के लिए लोगों में झगड़ा भी हो जाता था। एक बार अकबर ने खुद कुछ वेश्याओं को बुलाया और उनसे पूछा कि उनसे सबसे पहले भोग किसने किया”।
बैरम खान जो अकबर के पिता जैसा और संरक्षक था,
उसकी हत्या करके इसने उसकी पत्नी अर्थात अपनी माता के समान स्त्री से शादी की ।
इस्लामिक शरीयत के अनुसार किसी भी मुस्लिम राज्य में रहने वाले गैर मुस्लिमों को अपनी संपत्ति और स्त्रियों को छिनने से बचाने के लिए इसकी कीमत देनी पड़ती थी जिसे जजिया कहते थे। कुछ अकबर प्रेमी कहते हैं कि अकबर ने जजिया खत्म कर दिया था। लेकिन इस बात का इतिहास में एक जगह भी उल्लेख नहीं! केवल इतना है कि यह जजिया रणथम्भौर के लिए माफ करने की शर्त रखी गयी थी।
रणथम्भौर की सन्धि में बूंदी के सरदार को शाही हरम में औरतें भेजने की "रीति" से मुक्ति देने की बात लिखी गई थी। जिससे बिल्कुल स्पष्ट हो जाता है कि अकबर ने युद्ध में हारे हुए हिन्दू सरदारों के परिवार की सर्वाधिक सुन्दर महिला को मांग लेने की एक परिपाटी बना रखी थीं और केवल बूंदी ही इस क्रूर रीति से बच पाया था।
यही कारण था की इन मुस्लिम सुल्तानों के काल में हिन्दू स्त्रियों के जौहर की आग में जलने की हजारों घटनाएँ हुईं
जवाहर लाल नेहरु ने अपनी पुस्तक ''डिस्कवरी ऑफ इण्डिया'' में अकबर को 'महान' कहकर उसकी प्रशंसा की है। हमारे कम्युनिस्ट इतिहासकारों ने भी अकबर को एक परोपकारी उदार, दयालु और धर्मनिरपेक्ष शासक बताया है।
अकबर के दादा बाबर का वंश तैमूरलंग से था और मातृपक्ष का संबंध चंगेज खां से था। इस प्रकार अकबर की नसों में एशिया की दो प्रसिद्ध आतंकी और खूनी जातियों, तुर्क और मंगोल के रक्त का सम्मिश्रण था। जिसके खानदान के सारे पूर्वज दुनिया के सबसे बड़े जल्लाद थे और अकबर के बाद भी जहाँगीर और औरंगजेब दुनिया के सबसे बड़े दरिन्दे थे तो ये बीच में महानता की पैदाईश कैसे हो गयी।
अकबर के जीवन पर शोध करने वाले इतिहासकार विंसेट स्मिथ ने साफ़ लिखा है की अकबर एक दुष्कर्मी, घृणित एवं नृशंश हत्याकांड करने वाला क्रूर शाशक था।
विन्सेंट स्मिथ ने किताब ही यहाँ से शुरू की है कि “अकबर भारत में एक विदेशी था. उसकी नसों में एक बूँद खून भी भारतीय नहीं था । अकबर मुग़ल से ज्यादा एक तुर्क था”।
चित्तौड़ की विजय के बाद अकबर ने कुछ फतहनामें प्रसारित करवाये थे। जिससे हिन्दुओं के प्रति उसकी गहन आन्तरिक घृणा प्रकाशित हो गई थी।
उनमें से एक फतहनामा पढ़िये-
''अल्लाह की खयाति बढ़े इसके लिए हमारे कर्तव्य परायण मुजाहिदीनों ने अपवित्र काफिरों को अपनी बिजली की तरह चमकीली कड़कड़ाती तलवारों द्वारा वध कर दिया। ''हमने अपना बहुमूल्य समय और अपनी शक्ति घिज़ा (जिहाद) में ही लगा दिया है और अल्लाह के सहयोग से काफिरों के अधीन बस्तियों, किलों, शहरों को विजय कर अपने अधीन कर लिया है, कृपालु अल्लाह उन्हें त्याग दे और उन सभी का विनाश कर दे। हमने पूजा स्थलों उसकी मूर्तियों को और काफिरों के अन्य स्थानों का विध्वंस कर दिया है।"
(फतहनामा-ई-चित्तौड़ मार्च १५८६,नई दिल्ली)
महाराणा प्रताप के विरुद्ध अकबर के अभियानों के लिए
सबसे बड़ा प्रेरक तत्व था इस्लामी जिहाद की भावना जो उसके अन्दर कूट-कूटकर भरी हुई थी।
अकबर के एक दरबारी इमाम अब्दुल कादिर बदाउनी ने अपने इतिहास अभिलेख, 'मुन्तखाव-उत-तवारीख' में लिखा था कि १५७६ में जब शाही फौजें राणाप्रताप के खिलाफ युद्ध के लिए अग्रसर हो रहीं थीं तो मैनें (बदाउनीने) ''युद्ध अभियान में शामिल होकर हिन्दुओं के रक्त से अपनी इस्लामी दाढ़ी को भिगोंकर शाहंशाह से भेंट की अनुमति के लिए प्रार्थना की।''मेरे व्यक्तित्व और जिहाद के प्रति मेरी निष्ठा भावना से अकबर इतना प्रसन्न हुआ कि उन्होनें प्रसन्न होकर मुझे मुठ्ठी भर सोने की मुहरें दे डालीं।" (मुन्तखाब-उत-तवारीख : अब्दुल कादिर बदाउनी, खण्ड II, पृष्ठ ३८३,अनुवाद वी. स्मिथ, अकबर दी ग्रेट मुगल, पृष्ठ १०८)
बदाउनी ने हल्दी घाटी के युद्ध में एक मनोरंजक घटना के बारे में लिखा था-
''हल्दी घाटी में जब युद्ध चल रहा था और अकबर की सेना से जुड़े राजपूत, और राणा प्रताप की सेना के राजपूत जब परस्पर युद्धरत थे और उनमें कौन किस ओर है, भेद कर पाना असम्भव हो रहा था, तब मैनें शाही फौज के अपने सेना नायक से पूछा कि वह किस पर गोली चलाये ताकि शत्रु ही मरे।
तब कमाण्डर आसफ खाँ ने उत्तर दिया कि यह जरूरी नहीं कि गोली किसको लगती है क्योंकि दोनों ओर से युद्ध करने वाले काफिर हैं, गोली जिसे भी लगेगी काफिर ही मरेगा, जिससे लाभ इस्लाम को ही होगा।''
(मुन्तखान-उत-तवारीख : अब्दुल कादिर बदाउनी,
खण्ड II,अनु अकबर दी ग्रेट मुगल : वी. स्मिथ पुनः मुद्रित १९६२; हिस्ट्री एण्ड कल्चर ऑफ दी इण्डियन पीपुल, दी मुगल ऐम्पायर :आर. सी. मजूमदार, खण्ड VII, पृष्ठ १३२ तृतीय संस्करण)
जहाँगीर ने, अपनी जीवनी, ''तारीख-ई-सलीमशाही'' में लिखा था कि ' 'अकबर और जहाँगीर के शासन काल में पाँच से छः लाख की संख्या में हिन्दुओं का वध हुआ था।''
(तारीख-ई-सलीम शाही, अनु. प्राइस, पृष्ठ २२५-२६)
जून 1561- एटा जिले के (सकित परंगना) के 8 गावों की हिंदू जनता के विरुद्ध अकबर ने खुद एक आक्रमण का संचालन किया और परोख नाम के गाँव में मकानों में बंद करके १००० से ज़्यादा हिंदुओं को जिंदा जलवा दिया था।
कुछ इतिहासकारों के अनुसार उनके इस्लाम कबूल ना करने के कारण ही अकबर ने क्रुद्ध होकर ऐसा किया।
थानेश्वर में दो संप्रदायों कुरु और पुरी के बीच पूजा की जगह को लेकर विवाद चल रहा था. अकबर ने आदेश
दिया कि दोनों आपस में लड़ें और जीतने वाला जगह पर कब्ज़ा कर ले। उन मूर्ख लोगों ने आपस में ही अस्त्र शस्त्रों से लड़ाई शुरू कर दी। जब पुरी पक्ष जीतने लगा तो अकबर ने अपने सैनिकों को कुरु पक्ष की तरफ से लड़ने का आदेश दिया. और अंत में इसने दोनों ही तरफ के लोगों को अपने सैनिकों से मरवा डाला और फिर अकबर महान जोर से हंसा।
एक बार अकबर शाम के समय जल्दी सोकर उठ गया तो उसने देखा कि एक नौकर उसके बिस्तर के पास सो रहा है। इससे उसको इतना गुस्सा आया कि नौकर को मीनार से नीचे फिंकवा दिया।
अगस्त १६०० में अकबर की सेना ने असीरगढ़ का किला घेर लिया पर मामला बराबरी का था।विन्सेंट स्मिथ ने लिखा है कि अकबर ने एक अद्भुत तरीका सोचा। उसने किले के राजा मीरां बहादुर को संदेश भेजकर अपने सिर की कसम खाई कि उसे सुरक्षित वापस जाने देगा। जब मीरां शान्ति के नाम पर बाहर आया तो उसे अकबर के सामने सम्मान दिखाने के लिए तीन बार झुकने का आदेश दिया गया क्योंकि अकबर महान को यही पसंद था।
उसको अब पकड़ लिया गया और आज्ञा दी गयी कि अपने सेनापति को कहकर आत्मसमर्पण करवा दे। मीराँ के सेनापति ने इसे मानने से मना कर दिया और अपने लड़के को अकबर के पास यह पूछने भेजा कि उसने अपनी प्रतिज्ञा क्यों तोड़ी? अकबर ने उसके बच्चे से पूछा कि क्या तेरा पिता आत्मसमर्पण के लिए तैयार है? तब बालक ने कहा कि चाहे राजा को मार ही क्यों न डाला जाए उसका पिता समर्पण नहीं करेगा। यह सुनकर अकबर महान ने उस बालक को मार डालने का आदेश दिया। यह घटना अकबर की मृत्यु से पांच साल पहले की ही है।
हिन्दुस्तानी मुसलमानों को यह कह कर बेवकूफ बनाया जाता है कि अकबर ने इस्लाम की अच्छाइयों को पेश किया. असलियत यह है कि कुरआन के खिलाफ जाकर ३६ शादियाँ करना, शराब पीना, नशा करना, दूसरों से अपने आगे सजदा करवाना आदि इस्लाम के लिए हराम है और इसीलिए इसके नाम की मस्जिद भी हराम है।
अकबर स्वयं पैगम्बर बनना चाहता था इसलिए उसने अपना नया धर्म "दीन-ए-इलाही - ﺩﯾﻦ ﺍﻟﻬﯽ " चलाया। जिसका एकमात्र उद्देश्य खुद की बड़ाई करवाना था। यहाँ तक कि मुसलमानों के कलमें में यह शब्द "अकबर खलीफतुल्लाह - ﺍﻛﺒﺮ ﺧﻠﻴﻔﺔ ﺍﻟﻠﻪ " भी जुड़वा दिया था।
उसने लोगों को आदेश दिए कि आपस में अस्सलाम वालैकुम नहीं बल्कि “अल्लाह ओ अकबर” कहकर एक दूसरे का अभिवादन किया जाए। यही नहीं अकबर ने हिन्दुओं को गुमराह करने के लिए एक फर्जी उपनिषद् "अल्लोपनिषद" बनवाया था जिसमें अरबी और संस्कृत मिश्रित भाषा में मुहम्मद को अल्लाह का रसूल और अकबर को खलीफा बताया गया था। इस फर्जी उपनिषद् का उल्लेख महर्षि दयानंद ने सत्यार्थ प्रकाश में किया है।
उसके चाटुकारों ने इस धूर्तता को भी उसकी उदारता की तरह पेश किया। जबकि वास्तविकता ये है कि उस धर्म को मानने वाले अकबरनामा में लिखित कुल १८ लोगों में से केवल एक हिन्दू बीरबल था।
अकबर ने अपने को रूहानी ताकतों से भरपूर साबित करने के लिए कितने ही झूठ बोले। जैसे कि उसके पैरों की धुलाई करने से निकले गंदे पानी में अद्भुत ताकत है जो रोगों का इलाज कर सकता है। अकबर के पैरों का पानी लेने के लिए लोगों की भीड़ लगवाई जाती थी। उसके दरबारियों को तो इसलिए अकबर के नापाक पैर का चरणामृत पीना पड़ता था ताकि वह नाराज न हो जाए।
अकबर ने एक आदमी को केवल इसी काम पर रखा था कि वह उनको जहर दे सके जो लोग उसे पसंद नहीं।
अकबर महान ने न केवल कम भरोसेमंद लोगों का कतल
कराया बल्कि उनका भी कराया जो उसके भरोसे के आदमी थे जैसे- बैरम खान (अकबर का गुरु जिसे मारकर अकबर ने उसकी बीवी से निकाह कर लिया), जमन, असफ खान (इसका वित्त मंत्री), शाह मंसूर, मानसिंह, कामरान का बेटा, शेख अब्दुरनबी, मुइजुल मुल्क, हाजी इब्राहिम और बाकी सब जो इसे नापसंद थे। पूरी सूची स्मिथ की किताब में दी हुई है।
अकबर के चाटुकारों ने राजा विक्रमादित्य के दरबार की कहानियों के आधार पर उसके दरबार और नौ रत्नों की कहानी गढ़ी। पर असलियत यह है कि अकबर अपने
सब दरबारियों को मूर्ख समझता था। उसने स्वयं कहा था कि वह अल्लाह का शुक्रगुजार है कि उसको योग्य दरबारी नहीं मिले वरना लोग सोचते कि अकबर का राज उसके दरबारी चलाते हैं वह खुद नहीं।
अकबरनामा के एक उल्लेख से स्पष्ट हो जाता है कि उसके हिन्दू दरबारियों का प्रायः अपमान हुआ करता था। ग्वालियर में जन्में संगीत सम्राट रामतनु पाण्डेय उर्फ तानसेन की तारीफ करते-करते मुस्लिम दरबारी उसके मुँह में चबाया हुआ पान ठूँस देते थे। भगवन्त दास और दसवंत ने सम्भवत: इसी लिए आत्महत्या कर ली थी।
प्रसिद्ध नवरत्न टोडरमल अकबर की लूट का हिसाब करता था। इसका काम था जजिया न देने वालों की औरतों को हरम का रास्ता दिखाना। वफादार होने के बावजूद अकबर ने एक दिन क्रुद्ध होकर उसकी पूजा की मूर्तियाँ तुड़वा दी।
जिन्दगी भर अकबर की गुलामी करने के बाद टोडरमल ने अपने जीवन के आखिरी समय में अपनी गलती मान कर दरबार से इस्तीफा दे दिया और अपने पापों का प्रायश्चित करने के लिए प्राण त्यागने की इच्छा से वाराणसी होते हुए हरिद्वार चला गया और वहीं मरा।
लेखक और नवरत्न अबुल फजल को स्मिथ ने अकबर का अव्वल दर्जे का निर्लज्ज चाटुकार बताया। बाद में जहाँगीर ने इसे मार डाला।
फैजी नामक रत्न असल में एक साधारण सा कवि था जिसकी कलम अपने शहंशाह को प्रसन्न करने के लिए ही चलती थी।
बीरबल शर्मनाक तरीके से एक लड़ाई में मारा गया। बीरबल अकबर के किस्से असल में मन बहलाव की बातें हैं जिनका वास्तविकता से कोई सम्बन्ध नहीं। ध्यान रहे
कि ऐसी कहानियाँ दक्षिण भारत में तेनालीराम के नाम से
भी प्रचलित हैं।
एक और रत्न शाह मंसूर दूसरे रत्न अबुल फजल के हाथों अकबर के आदेश पर मार डाला गया ।
मान सिंह जो देश में पैदा हुआ सबसे नीच गद्दार था, ने अपनी बेटी तो अकबर को दी ही जागीर के लालच में कई और राजपूत राजकुमारियों को तुर्क हरम में पहुँचाया। बाद में जहांगीर ने इसी मान सिंह की पोती को भी अपने हरम में खींच लिया।
मानसिंह ने पूरे राजपूताने के गौरव को कलंकित किया था। यहाँ तक कि उसे अपना आवास आगरा में बनाना पड़ा क्योंकि वो राजस्थान में मुँह दिखाने के लायक नहीं था। यही मानसिंह जब संत तुलसीदास से मिलने गया तो अकबर ने इस पर गद्दारी का संदेह कर दूध में जहर देकर मरवा डाला और इसके पिता भगवान दास ने लज्जित होकर आत्महत्या कर ली।
इन नवरत्नों को अपनी बीवियां, लडकियां, बहनें तो अकबर की खिदमत में भेजनी पड़ती ही थीं ताकि बादशाह सलामत उनको भी सलामत रखें, और साथ ही अकबर महान के पैरों पर डाला गया पानी भी इनको पीना पड़ता था जैसा कि ऊपर बताया गया है। अकबर शराब और अफीम का इतना शौक़ीन था, कि अधिकतर समय नशे में धुत रहता था।
अकबर के दो बच्चे नशाखोरी की आदत के चलते अल्लाह को प्यारे हो गये।
हमारे फिल्मकार अकबर को सुन्दर और रोबीला दिखाने के लिए रितिक रोशन जैसे अभिनेताओं को फिल्मों में पेश करते हैं परन्तु विन्सेंट स्मिथ अकबर के बारे में लिखते हैं-
“अकबर एक औसत दर्जे की लम्बाई का था। उसके बाएं पैर में लंगड़ापन था। उसका सिर अपने दायें कंधे की तरफ झुका रहता था। उसकी नाक छोटी थी जिसकी हड्डी बाहर को निकली हुई थी। उसके नाक के नथुने ऐसे दिखते थे जैसे वो गुस्से में हो। आधे मटर के दाने के बराबर एक मस्सा उसके होंठ और नथुनों को मिलाता था।
अकबर का दरबारी लिखता है कि अकबर ने इतनी ज्यादा पीनी शुरू कर दी थी कि वह मेहमानों से बात
करता करता भी नींद में गिर पड़ता था। वह जब ज्यादा पी लेता था तो आपे से बाहर हो जाता था और पागलों जैसी हरकतें करने लगता।
अकबर महान के खुद के पुत्र जहाँगीर ने लिखा है कि अकबर कुछ भी लिखना पढ़ना नहीं जानता था पर यह दिखाता था कि वह बड़ा भारी विद्वान है।
अकबर ने एक ईसाई पुजारी को एक रूसी गुलाम का पूरा परिवार भेंट में दिया। इससे पता चलता है कि अकबर गुलाम रखता था और उन्हें वस्तु की तरह भेंट में दिया और लिया करता था।
कंधार में एक बार अकबर ने बहुत से लोगों को गुलाम बनाया क्योंकि उन्होंने १५८१-८२ में इसकी किसी नीति का विरोध किया था। बाद में इन गुलामों को मंडी में बेच कर घोड़े खरीदे गए ।
अकबर बहुत नए तरीकों से गुलाम बनाता था। उसके आदमी किसी भी घोड़े के सिर पर एक फूल रख देते थे। फिर बादशाह की आज्ञा से उस घोड़े के मालिक के सामने दो विकल्प रखे जाते थे, या तो वह अपने घोड़े को भूल जाये, या अकबर की वित्तीय गुलामी क़ुबूल करे।
जब अकबर मरा था तो उसके पास दो करोड़ से ज्यादा अशर्फियाँ केवल आगरे के किले में थीं। इसी तरह के और
खजाने छह और जगह पर भी थे। इसके बावजूद भी उसने १५९५-१५९९ की भयानक भुखमरी के समय एक सिक्का भी देश की सहायता में खर्च नहीं किया।
अकबर के सभी धर्म के सम्मान करने का सबसे बड़ा सबूत-
अकबर ने गंगा,यमुना,सरस्वती के संगम का तीर्थनगर "प्रयागराज" जो एक काफिर नाम था को बदलकर इलाहाबाद रख दिया था। वहाँ गंगा के तटों पर रहने वाली सारी आबादी का क़त्ल करवा दिया और सब इमारतें गिरा दीं क्योंकि जब उसने इस शहर को जीता तो वहाँ की हिन्दू जनता ने उसका इस्तकबाल नहीं किया। यही कारण है कि प्रयागराज के तटों पर कोई पुरानी इमारत नहीं है। अकबर ने हिन्दू राजाओं द्वारा निर्मित संगम प्रयाग के किनारे के सारे घाट तुड़वा डाले थे। आज भी वो सारे साक्ष्य वहाँ मौजूद हैं।
२८ फरवरी १५८० को गोवा से एक पुर्तगाली मिशन अकबर के पास पंहुचा और उसे बाइबल भेंट की जिसे इसने बिना खोले ही वापस कर दिया।
4 अगस्त १५८२ को इस्लाम को अस्वीकार करने के कारण सूरत के २ ईसाई युवकों को अकबर ने अपने हाथों से क़त्ल किया था जबकि इसाईयों ने इन दोनों युवकों को छोड़ने के लिए १००० सोने के सिक्कों का सौदा किया था। लेकिन उसने क़त्ल ज्यादा सही समझा । सन् 1582 में बीस मासूम बच्चों पर भाषा परीक्षण किया और ऐसे घर में रखा जहाँ किसी भी प्रकार की आवाज़ न जाए और उन मासूम बच्चों की ज़िंदगी बर्बाद कर दी वो गूंगे होकर मर गये । यही परीक्षण दोबारा 1589 में बारह बच्चों पर किया ।
सन् 1567 में नगर कोट को जीत कर कांगड़ा देवी मंदिर की मूर्ति को खण्डित की और लूट लिया फिर गायों की हत्या कर के गौ रक्त को जूतों में भरकर मंदिर की प्राचीरों पर छाप लगाई ।
जैन संत हरिविजय के समय सन् 1583-85 को जजिया कर और गौ हत्या पर पाबंदी लगाने की झूठी घोषणा की जिस पर कभी अमल नहीं हुआ।
एक अंग्रेज रूडोल्फ ने अकबर की घोर निंदा की।
कर्नल टोड लिखते हैं कि अकबर ने एकलिंग की मूर्ति तोड़ डाली और उस स्थान पर नमाज पढ़ी।
1587 में जनता का धन लूटने और अपने खिलाफ हो रहे विरोधों को ख़त्म करने के लिए अकबर ने एक आदेश पारित किया कि जो भी उससे मिलना चाहेगा उसको अपनी उम्र के बराबर मुद्राएँ उसको भेंट में देनी पड़ेगी।
जीवन भर इससे युद्ध करने वाले महान महाराणा प्रताप जी से अंत में इसने खुद ही हार मान ली थी यही कारण है कि अकबर के बार बार निवेदन करने पर भी जीवन भर जहाँगीर केवल ये बहाना करके महाराणा प्रताप के पुत्र अमर सिंह से युद्ध करने नहीं गया की उसके पास हथियारों और सैनिकों की कमी है..जबकि असलियत ये थी की उसको अपने बाप का बुरा हश्र याद था।
विन्सेंट स्मिथ के अनुसार अकबर ने मुजफ्फर शाह को हाथी से कुचलवाया। हमजबान की जबान ही कटवा डाली। मसूद हुसैन मिर्ज़ा की आँखें सीकर बंद कर दी गयीं। उसके 300 साथी उसके सामने लाये गए और उनके चेहरों पर अजीबोगरीब तरीकों से गधों, भेड़ों और कुत्तों की खालें डाल कर काट डाला गया।
मुग़ल आक्रमणकारी थे यह सिद्ध हो चुका है। मुगल दरबार तुर्क एवं ईरानी शक्ल ले चुका था। कभी भारतीय न बन सका। भारतीय राजाओं ने लगातार संघर्ष कर मुगल साम्राज्य को कभी स्थिर नहीं होने दिया।

Friday, May 22, 2015

सोनिया गांधी का सच !

 
सोनिया गांधी का सच ! पेश है "आप सोनिया गाँधी को कितना जानते हैं"
  भारत की खुफ़िया एजेंसी "रॉ", जिसका गठन सन १९६८ में हुआ, ने विभिन्न देशों की गुप्तचर एजेंसियों जैसे अमेरिका की सीआईए, रूस की केजीबी, इसराईल की मोस्साद और फ़्रांस तथा जर्मनी में अपने पेशेगत संपर्क बढाये और एक नेटवर्क खडा़ किया । इन खुफ़िया एजेंसियों के अपने-अपने सूत्र थे और वे आतंकवाद, घुसपैठ और चीन के खतरे के बारे में सूचनायें आदान-प्रदान करने में सक्षम थीं । लेकिन "रॉ" ने इटली की खुफ़िया एजेंसियों से इस प्रकार का कोई सहयोग या गठजोड़ नहीं किया था, क्योंकि "रॉ" के वरिष्ठ जासूसों का मानना था कि इटालियन खुफ़िया एजेंसियाँ भरोसे के काबिल नहीं हैं और उनकी सूचनायें देने की क्षमता पर भी उन्हें संदेह था । सक्रिय राजनीति में राजीव गाँधी का प्रवेश हुआ १९८० में संजय की मौत के बाद । "रॉ" की नियमित "ब्रीफ़िंग" में राजीव गाँधी भी भाग लेने लगे थे ("ब्रीफ़िंग" कहते हैं उस संक्षिप्त बैठक को जिसमें रॉ या सीबीआई या पुलिस या कोई और सरकारी संस्था प्रधानमन्त्री या गृहमंत्री को अपनी रिपोर्ट देती है), जबकि राजीव गाँधी सरकार में किसी पद पर नहीं थे, तब वे सिर्फ़ काँग्रेस महासचिव थे । राजीव गाँधी चाहते थे कि अरुण नेहरू और अरुण सिंह भी रॉ की इन बैठकों में शामिल हों । रॉ के कुछ वरिष्ठ अधिकारियों ने दबी जुबान में इस बात का विरोध किया था चूँकि राजीव गाँधी किसी अधिकृत पद पर नहीं थे, लेकिन इंदिरा गाँधी ने रॉ से उन्हें इसकी अनुमति देने को कह दिया था, फ़िर भी रॉ ने इंदिरा जी को स्पष्ट कर दिया था कि इन लोगों के नाम इस ब्रीफ़िंग के रिकॉर्ड में नहीं आएंगे । उन बैठकों के दौरान राजीव गाँधी सतत रॉ पर दबाव डालते रहते कि वे इटालियन खुफ़िया एजेंसियों से भी गठजोड़ करें, राजीव गाँधी ऐसा क्यों चाहते थे ? या क्या वे इतने अनुभवी थे कि उन्हें इटालियन एजेंसियों के महत्व का पता भी चल गया था ? ऐसा कुछ नहीं था, इसके पीछे एकमात्र कारण थी सोनिया गाँधी । राजीव गाँधी ने सोनिया से सन १९६८ में विवाह किया था, और हालांकि रॉ मानती थी कि इटली की एजेंसी से गठजोड़ सिवाय पैसे और समय की बर्बादी के अलावा कुछ नहीं है, राजीव लगातार दबाव बनाये रहे । अन्ततः दस वर्षों से भी अधिक समय के पश्चात रॉ ने इटली की खुफ़िया संस्था से गठजोड़ कर लिया ।

क्या आप जानते हैं कि रॉ और इटली के जासूसों की पहली आधिकारिक मीटिंग की व्यवस्था किसने की ? जी हाँ, सोनिया गाँधी ने । सीधी सी बात यह है कि वह इटली के जासूसों के निरन्तर सम्पर्क में थीं । एक मासूम गृहिणी, जो राजनैतिक और प्रशासनिक मामलों से अलिप्त हो और उसके इटालियन खुफ़िया एजेन्सियों के गहरे सम्बन्ध हों यह सोचने वाली बात है, वह भी तब जबकि उन्होंने भारत की नागरिकता नहीं ली थी (वह उन्होंने बहुत बाद में ली) । प्रधानमंत्री के घर में रहते हुए, जबकि राजीव खुद सरकार में नहीं थे । हो सकता है कि रॉ इसी कारण से इटली की खुफ़िया एजेंसी से गठजोड़ करने मे कतरा रहा हो, क्योंकि ऐसे किसी भी सहयोग के बाद उन जासूसों की पहुँच सिर्फ़ रॉ तक न रहकर प्रधानमंत्री कार्यालय तक हो सकती थी । जब पंजाब में आतंकवाद चरम पर था तब सुरक्षा अधिकारियों ने इंदिरा गाँधी को बुलेटप्रूफ़ कार में चलने की सलाह दी, इंदिरा गाँधी ने अम्बेसेडर कारों को बुलेटप्रूफ़ बनवाने के लिये कहा, उस वक्त भारत में बुलेटप्रूफ़ कारें नहीं बनती थीं इसलिये एक जर्मन कम्पनी को कारों को बुलेटप्रूफ़ बनाने का ठेका दिया गया । जानना चाहते हैं उस ठेके का बिचौलिया कौन था, वाल्टर विंसी, सोनिया गाँधी की बहन अनुष्का का पति ! रॉ को हमेशा यह शक था कि उसे इसमें कमीशन मिला था, लेकिन कमीशन से भी गंभीर बात यह थी कि इतना महत्वपूर्ण सुरक्षा सम्बन्धी कार्य उसके मार्फ़त दिया गया । इटली का प्रभाव सोनिया दिल्ली तक लाने में कामयाब रही थीं, जबकि इंदिरा गाँधी जीवित थीं । दो साल बाद १९८६ में ये वही वाल्टर विंसी महाशय थे जिन्हें एसपीजी को इटालियन सुरक्षा एजेंसियों द्वारा प्रशिक्षण दिये जाने का ठेका मिला, और आश्चर्य की बात यह कि इस सौदे के लिये उन्होंने नगद भुगतान की मांग की और वह सरकारी तौर पर किया भी गया । यह नगद भुगतान पहले एक रॉ अधिकारी के हाथों जिनेवा (स्विटजरलैण्ड) पहुँचाया गया लेकिन वाल्टर विंसी ने जिनेवा में पैसा लेने से मना कर दिया और रॉ के अधिकारी से कहा कि वह ये पैसा मिलान (इटली) में चाहता है, विंसी ने उस अधिकारी को कहा कि वह स्विस और इटली के कस्टम से उन्हें आराम से निकलवा देगा और यह "कैश" चेक नहीं किया जायेगा ।

 रॉ के उस अधिकारी ने उसकी बात नहीं मानी और अंततः वह भुगतान इटली में भारतीय दूतावास के जरिये किया गया । इस नगद भुगतान के बारे में तत्कालीन कैबिनेट सचिव बी.जी.देशमुख ने अपनी हालिया किताब में उल्लेख किया है, हालांकि वह तथाकथित ट्रेनिंग घोर असफ़ल रही और सारा पैसा लगभग व्यर्थ चला गया । इटली के जो सुरक्षा अधिकारी भारतीय एसपीजी कमांडो को प्रशिक्षण देने आये थे उनका रवैया जवानों के प्रति बेहद रूखा था, एक जवान को तो उस दौरान थप्पड़ भी मारा गया । रॉ अधिकारियों ने यह बात राजीव गाँधी को बताई और कहा कि इस व्यवहार से सुरक्षा बलों के मनोबल पर विपरीत प्रभाव पड़ रहा है और उनकी खुद की सुरक्षा व्यवस्था भी ऐसे में खतरे में पड़ सकती है, घबराये हुए राजीव ने तत्काल वह ट्रेनिंग रुकवा दी,लेकिन वह ट्रेनिंग का ठेका लेने वाले विंसी को तब तक भुगतान किया जा चुका था । राजीव गाँधी की हत्या के बाद तो सोनिया गाँधी पूरी तरह से इटालियन और पश्चिमी सुरक्षा अधिकारियों पर भरोसा करने लगीं, खासकर उस वक्त जब राहुल और प्रियंका यूरोप घूमने जाते थे । सन १९८५ में जब राजीव सपरिवार फ़्रांस गये थे तब रॉ का एक अधिकारी जो फ़्रेंच बोलना जानता था, उनके साथ भेजा गया था, ताकि फ़्रेंच सुरक्षा अधिकारियों से तालमेल बनाया जा सके । लियोन (फ़्रांस) में उस वक्त एसपीजी अधिकारियों में हड़कम्प मच गया जब पता चला कि राहुल और प्रियंका गुम हो गये हैं । भारतीय सुरक्षा अधिकारियों को विंसी ने बताया कि चिंता की कोई बात नहीं है, दोनों बच्चे जोस वाल्डेमारो के साथ हैं जो कि सोनिया की एक और बहन नादिया के पति हैं । विंसी ने उन्हें यह भी कहा कि वे वाल्डेमारो के साथ स्पेन चले जायेंगे जहाँ स्पेनिश अधिकारी उनकी सुरक्षा संभाल लेंगे । भारतीय सुरक्षा अधिकारी यह जानकर अचंभित रह गये कि न केवल स्पेनिश बल्कि इटालियन सुरक्षा अधिकारी उनके स्पेन जाने के कार्यक्रम के बारे में जानते थे । जाहिर है कि एक तो सोनिया गाँधी तत्कालीन प्रधानमंत्री नरसिम्हा राव के अहसानों के तले दबना नहीं चाहती थीं, और वे भारतीय सुरक्षा एजेंसियों पर विश्वास नहीं करती थीं । इसका एक और सबूत इससे भी मिलता है कि एक बार सन १९८६ में जिनेवा स्थित रॉ के अधिकारी को वहाँ के पुलिस कमिश्नर जैक कुन्जी़ ने बताया कि जिनेवा से दो वीआईपी बच्चे इटली सुरक्षित पहुँच चुके हैं, खिसियाये हुए रॉ अधिकारी को तो इस बारे में कुछ मालूम ही नहीं था । जिनेवा का पुलिस कमिश्नर उस रॉ अधिकारी का मित्र था, लेकिन यह अलग से बताने की जरूरत नहीं थी कि वे वीआईपी बच्चे कौन थे । वे कार से वाल्टर विंसी के साथ जिनेवा आये थे और स्विस पुलिस तथा इटालियन अधिकारी निरन्तर सम्पर्क में थे जबकि रॉ अधिकारी को सिरे से कोई सूचना ही नहीं थी, है ना हास्यास्पद लेकिन चिंताजनक... उस स्विस पुलिस कमिश्नर ने ताना मारते हुए कहा कि "तुम्हारे प्रधानमंत्री की पत्नी तुम पर विश्वास नहीं करती और उनके बच्चों की सुरक्षा के लिये इटालियन एजेंसी से सहयोग करती है" । बुरी तरह से अपमानित रॉ के अधिकारी ने अपने वरिष्ठ अधिकारियों से इसकी शिकायत की, लेकिन कुछ नहीं हुआ । अंतरराष्ट्रीय खुफ़िया एजेंसियों के गुट में तेजी से यह बात फ़ैल गई थी कि सोनिया गाँधी भारतीय अधिकारियों, भारतीय सुरक्षा और भारतीय दूतावासों पर बिलकुल भरोसा नहीं करती हैं, और यह निश्चित ही भारत की छवि खराब करने वाली बात थी । राजीव की हत्या के बाद तो उनके विदेश प्रवास के बारे में विदेशी सुरक्षा एजेंसियाँ, एसपीजी से अधिक सूचनायें पा जाती थी और भारतीय पुलिस और रॉ उनका मुँह देखते रहते थे । (ओट्टावियो क्वात्रोची के बार-बार मक्खन की तरह हाथ से फ़िसल जाने का कारण समझ में आया ?) उनके निजी सचिव विंसेंट जॉर्ज सीधे पश्चिमी सुरक्षा अधिकारियों के सम्पर्क में रहते थे, रॉ अधिकारियों ने इसकी शिकायत नरसिम्हा राव से की थी, लेकिन जैसी की उनकी आदत (?) थी वे मौन साध कर बैठ गये ।संक्षेप में तात्पर्य यह कि, जब एक गृहिणी होते हुए भी वे गंभीर सुरक्षा मामलों में अपने परिवार वालों को ठेका दिलवा सकती हैं, राजीव गाँधी और इंदिरा गाँधी के जीवित रहते रॉ को इटालियन जासूसों से सहयोग करने को कह सकती हैं, सत्ता में ना रहते हुए भी भारतीय सुरक्षा अधिकारियों पर अविश्वास दिखा सकती हैं, तो अब जबकि सारी सत्ता और ताकत उनके हाथों मे है, वे क्या-क्या कर सकती हैं, बल्कि क्या नहीं कर सकती । हालांकि "मैं भारत की बहू हूँ" और "मेरे खून की अंतिम बूँद भी भारत के काम आयेगी" आदि वे यदा-कदा बोलती रहती हैं, लेकिन यह असली सोनिया नहीं है । समूचा पश्चिमी जगत, जो कि जरूरी नहीं कि भारत का मित्र ही हो, उनके बारे में सब कुछ जानता है, लेकिन हम भारतीय लोग सोनिया के बारे में कितना जानते हैं ? (भारत भूमि पर जन्म लेने वाला व्यक्ति चाहे कितने ही वर्ष विदेश में रह ले, स्थाई तौर पर बस जाये लेकिन उसका दिल हमेशा भारत के लिये धड़कता है, और इटली में जन्म लेने वाले व्यक्ति का
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सोनिया गाँधी भारत की प्रधानमंत्री बनने के योग्य हैं या नहीं, इस प्रश्न का "धर्मनिरपेक्षता", या "हिन्दू राष्ट्रवाद" या "भारत की बहुलवादी संस्कृति" से कोई लेना-देना नहीं है। इसका पूरी तरह से नाता इस बात से है कि उनका जन्म इटली में हुआ, लेकिन यही एक बात नहीं है, सबसे पहली बात तो यह कि देश के सबसे महत्वपूर्ण पद पर आसीन कराने के लिये क
ैसे उन पर भरोसा किया जाये। सन १९९८ में एक रैली में उन्होंने कहा था कि "अपनी आखिरी साँस तक मैं भारतीय हूँ", बहुत ही उच्च विचार है, लेकिन तथ्यों के आधार पर यह बेहद खोखला ठहरता है। अब चूँकि वे देश के एक खास परिवार से हैं और प्रधानमंत्री पद के लिये बेहद आतुर हैं (जी हाँ) तब वे एक सामाजिक व्यक्तित्व बन जाती हैं और उनके बारे में जानने का हक सभी को है (१४ मई २००४ तक वे प्रधानमंत्री बनने के लिये जी-तोड़ कोशिश करती रहीं, यहाँ तक कि एक बार तो पूर्ण समर्थन ना होने के बावजूद वे दावा पेश करने चल पडी़ थीं, लेकिन १४ मई २००४ को राष्ट्रपति कलाम साहब द्वारा कुछ "असुविधाजनक" प्रश्न पूछ लिये जाने के बाद यकायक १७ मई आते-आते उनमे वैराग्य भावना जागृत हो गई और वे खामख्वाह "त्याग" और "बलिदान" (?) की प्रतिमूर्ति बना दी गईं - कलाम साहब को दूसरा कार्यकाल न मिलने के पीछे यह एक बडी़ वजह है, ठीक वैसे ही जैसे सोनिया ने प्रणब मुखर्जी को राष्ट्रपति इसलिये नहीं बनवाया, क्योंकि इंदिरा गाँधी की मृत्यु के बाद राजीव के प्रधानमंत्री बनने का उन्होंने विरोध किया था... और अब एक तरफ़ कठपुतली प्रधानमंत्री और जी-हुजूर राष्ट्रपति दूसरी तरफ़ होने के बाद अगले चुनावों के पश्चात सोनिया को प्रधानमंत्री बनने से कौन रोक सकता है?)बहरहाल... सोनिया गाँधी उर्फ़ माइनो भले ही आखिरी साँस तक भारतीय होने का दावा करती रहें, भारत की भोली-भाली (?) जनता को इन्दिरा स्टाइल में,सिर पर पल्ला ओढ़ कर "नामास्खार" आदि दो चार हिन्दी शब्द बोल लें, लेकिन यह सच्चाई है कि सन १९८४ तक उन्होंने इटली की नागरिकता और पासपोर्ट नहीं छोडा़ था (शायद कभी जरूरत पड़ जाये) । राजीव और सोनिया का विवाह हुआ था सन १९६८ में,भारत के नागरिकता कानूनों के मुताबिक (जो कानून भाजपा या कम्युनिस्टों ने नहीं बल्कि कांग्रेसियों ने ही सन १९५० में बनाये) सोनिया को पाँच वर्ष के भीतर भारत की नागरिकता ग्रहण कर लेना चाहिये था अर्थात सन १९७४ तक, लेकिन यह काम उन्होंने किया दस साल बाद...यह कोई नजरअंदाज कर दिये जाने वाली बात नहीं है। इन पन्द्रह वर्षों में दो मौके ऐसे आये जब सोनिया अपने आप को भारतीय(!)साबित कर सकती थीं। पहला मौका आया था सन १९७१ में जब पाकिस्तान से युद्ध हुआ (बांग्लादेश को तभी मुक्त करवाया गया था), उस वक्त आपातकालीन आदेशों के तहत इंडियन एयरलाइंस के सभी पायलटों की छुट्टियाँ रद्द कर दी गईं थीं, ताकि आवश्यकता पड़ने पर सेना को किसी भी तरह की रसद आदि पहुँचाई जा सके । सिर्फ़ एक पायलट को इससे छूट दी गई थी, जी हाँ राजीव गाँधी, जो उस वक्त भी एक पूर्णकालिक पायलट थे । जब सारे भारतीय पायलट अपनी मातृभूमि की सेवा में लगे थे तब सोनिया अपने पति और दोनों बच्चों के साथ इटली की सुरम्य वादियों में थीं, वे वहाँ से तभी लौटीं, जब जनरल नियाजी ने समर्पण के कागजों पर दस्तखत कर दिये। दूसरा मौका आया सन १९७७ में जब यह खबर आई कि इंदिरा गाँधी चुनाव हार गईं हैं और शायद जनता पार्टी सरकार उनको गिरफ़्तार करे और उन्हें परेशान करे। "माईनो" मैडम ने तत्काल अपना सामान बाँधा और अपने दोनों बच्चों सहित दिल्ली के चाणक्यपुरी स्थित इटालियन दूतावास में जा छिपीं। इंदिरा गाँधी, संजय गाँधी और एक और बहू मेनका के संयुक्त प्रयासों और मान-मनौव्वल के बाद वे घर वापस लौटीं। १९८४ में भी भारतीय नागरिकता ग्रहण करना उनकी मजबूरी इसलिये थी कि राजीव गाँधी के लिये यह बडी़ शर्म और असुविधा की स्थिति होती कि एक भारतीय प्रधानमंत्री की पत्नी इटली की नागरिक है ? भारत की नागरिकता लेने की दिनांक भारतीय जनता से बडी़ ही सफ़ाई से छिपाई गई। भारत का कानून अमेरिका, जर्मनी, फ़िनलैंड, थाईलैंड या सिंगापुर आदि देशों जैसा नहीं है जिसमें वहाँ पैदा हुआ व्यक्ति ही उच्च पदों पर बैठ सकता है। भारत के संविधान में यह प्रावधान इसलिये नहीं है कि इसे बनाने वाले "धर्मनिरपेक्ष नेताओं" ने सपने में भी नहीं सोचा होगा कि आजादी के साठ वर्ष के भीतर ही कोई विदेशी मूल का व्यक्ति प्रधानमंत्री पद का दावेदार बन जायेगा। लेकिन कलाम साहब ने आसानी से धोखा नहीं खाया और उनसे सवाल कर लिये (प्रतिभा ताई कितने सवाल कर पाती हैं यह देखना बाकी है)। संविधान के मुताबिक सोनिया प्रधानमंत्री पद की दावेदार बन सकती हैं, जैसे कि मैं या कोई और। लेकिन भारत के नागरिकता कानून के मुताबिक व्यक्ति तीन तरीकों से भारत का नागरिक हो सकता है, पहला जन्म से, दूसरा रजिस्ट्रेशन से, और तीसरा प्राकृतिक कारणों (भारतीय से विवाह के बाद पाँच वर्ष तक लगातार भारत में रहने पर) । इस प्रकार मैं और सोनिया गाँधी,दोनों भारतीय नागरिक हैं, लेकिन मैं जन्म से भारत का नागरिक हूँ और मुझसे यह कोई नहीं छीन सकता, जबकि सोनिया के मामले में उनका रजिस्ट्रेशन रद्द किया जा सकता है। वे भले ही लाख दावा करें कि वे भारतीय बहू हैं, लेकिन उनका नागरिकता रजिस्ट्रेशन भारत के नागरिकता कानून की धारा १० के तहत तीन उपधाराओं के कारण रद्द किया जा सकता है (अ) उन्होंने नागरिकता का रजिस्ट्रेशन धोखाधडी़ या कोई तथ्य छुपाकर हासिल किया हो, (ब) वह नागरिक भारत के संविधान के प्रति बेईमान हो, या (स) रजिस्टर्ड नागरिक युद्धकाल के दौरान दुश्मन देश के साथ किसी भी प्रकार के सम्पर्क में रहा हो । (इन मुद्दों पर डॉ. सुब्रह्मण्यम स्वामी काफ़ी काम कर चुके हैं और अपनी पुस्तक में उन्होंने इसका उल्लेख भी किया है, जो आप पायेंगे इन अनुवादों के "तीसरे भाग" में)। राष्ट्रपति कलाम साहब के दिमाग में एक और बात निश्चित ही चल रही होगी, वह यह कि इटली के कानूनों के मुताबिक वहाँ का कोई भी नागरिक दोहरी नागरिकता रख सकता है, भारत के कानून में ऐसा नहीं है, और अब तक यह बात सार्वजनिक नहीं हुई है कि सोनिया ने अपना इटली वाला पासपोर्ट और नागरिकता कब छोडी़ ? ऐसे में वह भारत की प्रधानमंत्री बनने के साथ-साथ इटली की भी प्रधानमंत्री बनने की दावेदार हो सकती हैं। अन्त में एक और मुद्दा, अमेरिका के संविधान के अनुसार सर्वोच्च पद पर आसीन होने वाले व्यक्ति को अंग्रेजी आना चाहिये, अमेरिका के प्रति वफ़ादार हो तथा अमेरिकी संविधान और शासन व्यवस्था का जानकार हो। भारत का संविधान भी लगभग मिलता-जुलता ही है, लेकिन सोनिया किसी भी भारतीय भाषा में निपुण नहीं हैं (अंग्रेजी में भी), उनकी भारत के प्रति वफ़ादारी भी मात्र बाईस-तेईस साल पुरानी ही है, और उन्हें भारतीय संविधान और इतिहास की कितनी जानकारी है यह तो सभी जानते हैं। जब कोई नया प्रधानमंत्री बनता है तो भारत सरकार का पत्र सूचना ब्यूरो (पीआईबी) उनका बायो-डाटा और अन्य जानकारियाँ एक पैम्फ़लेट में जारी करता है। आज तक उस पैम्फ़लेट को किसी ने भी ध्यान से नहीं पढा़, क्योंकि जो भी प्रधानमंत्री बना उसके बारे में जनता, प्रेस और यहाँ तक कि छुटभैये नेता तक नख-शिख जानते हैं। यदि (भगवान न करे) सोनिया प्रधानमंत्री पद पर आसीन हुईं तो पीआईबी के उस विस्तृत पैम्फ़लेट को पढ़ना बेहद दिलचस्प होगा। आखिर भारतीयों को यह जानना ही होगा कि सोनिया का जन्म दरअसल कहाँ हुआ? उनके माता-पिता का नाम क्या है और उनका इतिहास क्या है? वे किस स्कूल में पढीं? किस भाषा में वे अपने को सहज पाती हैं? उनका मनपसन्द खाना कौन सा है? हिन्दी फ़िल्मों का कौन सा गायक उन्हें अच्छा लगता है? किस भारतीय कवि की कवितायें उन्हें लुभाती हैं? क्या भारत के प्रधानमंत्री के बारे में इतना भी नहीं जानना चाहिये!
राजीव से विवाह के बाद सोनिया और उनके इटालियन मित्रों को स्नैम प्रोगैती की ओट्टावियो क्वात्रोची से भारी-भरकम राशियाँ मिलीं, वह भारतीय कानूनों से बेखौफ़ होकर दलाली में रुपये कूटने लगा। कुछ ही वर्षों में माइनो परिवार जो गरीबी के भंवर में फ़ँसा था अचानक करोड़पति हो गया । लोकसभा के नयेनवेले सदस्य के रूप में मैंने 19 नवम्बर 1974 को संसद में ही तत्कालीन प्रधानमंत्री श
्रीमती इन्दिरा गाँधी से पूछा था कि “क्या आपकी बहू सोनिया गाँधी, जो कि अपने-आप को एक इंश्योरेंस एजेंट बताती हैं (वे खुद को ओरियंटल फ़ायर एंड इंश्योरेंस कम्पनी की एजेंट बताती थीं), प्रधानमंत्री आवास का पता उपयोग कर रही हैं?” जबकि यह अपराध है क्योंकि वे एक इटालियन नागरिक हैं (और यह विदेशी मुद्रा उल्लंघन) का मामला भी बनता है”, तब संसद में बहुत शोरगुल मचा, श्रीमती इन्दिरा गाँधी गुस्सा तो बहुत हुईं, लेकिन उनके सामने और कोई विकल्प नहीं था, इसलिये उन्होंने लिखित में यह बयान दिया कि “यह गलती से हो गया था और सोनिया ने इंश्योरेंस कम्पनी से इस्तीफ़ा दे दिया है” (मेरे प्रश्न पूछने के बाद), लेकिन सोनिया का भारतीय कानूनों को लतियाने और तोड़ने का यह सिलसिला यहीं खत्म नहीं हुआ। 1977 में जनता पार्टी सरकार द्वारा उच्चतम न्यायालय के जस्टिस ए.सी.गुप्ता के नेतृत्व में गठित आयोग ने जो रिपोर्ट सौंपी थी, उसके अनुसार “मारुति” कम्पनी (जो उस वक्त गाँधी परिवार की मिल्कियत था) ने “फ़ेरा कानूनों, कम्पनी कानूनों और विदेशी पंजीकरण कानून के कई गंभीर उल्लंघन किये”, लेकिन ना तो संजय गाँधी और ना ही सोनिया गाँधी के खिलाफ़ कभी भी कोई केस दर्ज हुआ, ना मुकदमा चला। हालांकि यह अभी भी किया जा सकता है, क्योंकि भारतीय कानूनों के मुताबिक “आर्थिक घपलों” पर कार्रवाई हेतु कोई समय-सीमा तय नहीं है।
जनवरी 1980 में श्रीमती इन्दिरा गाँधी पुनः सत्तासीन हुईं। सोनिया ने सबसे पहला काम यह किया कि उन्होंने अपना नाम “वोटर लिस्ट” में दर्ज करवाया, यह साफ़-साफ़ कानून का मखौल उड़ाने जैसा था और उनका वीसा रद्द किया जाना चाहिये था (क्योंकि उस वक्त भी वे इटली की नागरिक थीं)। प्रेस द्वारा हल्ला मचाने के बाद दिल्ली के चुनाव अधिकारी ने 1982 में उनका नाम मतदाता सूची से हटाया। लेकिन फ़िर जनवरी 1983 में उन्होंने अपना नाम मतदाता सूची में जुड़वा लिया, जबकि उस समय भी वे विदेशी ही थीं (आधिकारिक रूप से उन्होंने भारतीय नागरिकता के लिये अप्रैल 1983 में आवेद दिया था)। हाल ही में ख्यात कानूनविद, ए.जी.नूरानी ने अपनी पुस्तक “सिटीजन्स राईट्स, जजेस एंड अकाऊण्टेबिलिटी रेकॉर्ड्स” (पृष्ठ 318) पर यह दर्ज किया है कि “सोनिया गाँधी ने जवाहरलाल नेहरू के प्रधानमंत्रित्व काल के कुछ खास कागजात एक विदेशी को दिखाये, जो कागजात उनके पास नहीं होने चाहिये थे और उन्हें अपने पास रखने का सोनिया को कोई अधिकार नहीं था।“ इससे साफ़ जाहिर होता है उनके मन में भारतीय कानूनों के प्रति कितना सम्मान है और वे अभी भी राजतंत्र की मानसिकता से ग्रस्त हैं। सार यह कि सोनिया गाँधी के मन में भारतीय कानून के सम्बन्ध में कोई इज्जत नहीं है, वे एक महारानी की तरह व्यवहार करती हैं। यदि भविष्य में उनके खिलाफ़ कोई मुकदमा चलता है और जेल जाने की नौबत आ जाती है तो वे इटली भी भाग सकती हैं। पेरू के राष्ट्रपति फ़ूजीमोरी जीवन भर यह जपते रहे कि वे जन्म से ही पेरूवासी हैं, लेकिन जब भ्रष्टाचार के मुकदमे में उन्हें दोषी पाया गया तो वे अपने गृह देश जापान भाग गये और वहाँ की नागरिकता ले ली।
भारत से घृणा करने वाले मुहम्मद गोरी, नादिर शाह और अंग्रेज रॉबर्ट क्लाइव ने भारत की धन-सम्पदा को जमकर लूटा, लेकिन सोनिया तो “भारतीय” हैं, फ़िर जब राजीव और इन्दिरा प्रधानमंत्री थे, तब बक्से के बक्से भरकर रोज-ब-रोज प्रधानमंत्री निवास से सुरक्षा गार्ड चेन्नई के हवाई अड्डे पर इटली जाने वाले हवाई जहाजों में क्या ले जाते थे? एक तो हमेशा उन बक्सों को रोम के लिये बुक किया जाता था, एयर इंडिया और अलिटालिया एयरलाईन्स को ही जिम्मा सौंपा जाता था और दूसरी बात यह कि कस्टम्स पर उन बक्सों की कोई जाँच नहीं होती थी। अर्जुन सिंह जो कि मुख्यमंत्री भी रह चुके हैं और संस्कृति मंत्री भी, इस मामले में विशेष रुचि लेते थे। कुछ भारतीय कलाकृतियाँ, पुरातन वस्तुयें, पिछवाई पेंटिंग्स, शहतूश शॉलें, सिक्के आदि इटली की दो दुकानों, (जिनकी मालिक सोनिया की बहन अनुस्का हैं) में आम तौर पर देखी जाती हैं। ये दुकानें इटली के आलीशान इलाकों रिवोल्टा (दुकान का नाम – एटनिका) और ओर्बेस्सानो (दुकान का नाम – गनपति) में स्थित हैं जहाँ इनका धंधा नहीं के बराबर चलता है, लेकिन दरअसल यह एक “आड़” है, इन दुकानों के नाम पर फ़र्जी बिल तैयार करवाये जाते हैं फ़िर वे बेशकीमती वस्तुयें लन्दन ले जाकर “सौथरबी और क्रिस्टीज” द्वारा नीलामी में चढ़ा दी जाती हैं, इन सबका क्या मतलब निकलता है? यह पैसा आखिर जाता कहाँ है? एक बात तो तय है कि राहुल गाँधी की हार्वर्ड की एक वर्ष की फ़ीस और अन्य खर्चों के लिये भुगतान एक बार केमैन द्वीप की किसी बैंक के खाते से हुआ था। इस सबकी शिकायत जब मैंने वाजपेयी सरकार में की तो उन्होंने कोई ध्यान नहीं दिया, इस पर मैंने दिल्ली हाइकोर्ट में जनहित याचिका दाखिल की। हाईकोर्ट की बेंच ने सरकार को नोटिस जारी किया, लेकिन तब तक सरकार गिर गई, फ़िर कोर्ट नें सीबीआई को निर्देश दिये कि वह इंटरपोल की मदद से इन बहुमूल्य वस्तुओं के सम्बन्ध में इटली सरकार से सहायता ले। इटालियन सरकार ने प्रक्रिया के तहत भारत सरकार से अधिकार-पत्र माँगा जिसके आधार पर इटली पुलिस एफ़आईआर दर्ज करे। अन्ततः इंटरपोल ने दो बड़ी रिपोर्टें कोर्ट और सीबीआई को सौंपी और न्यायाधीश ने मुझे उसकी एक प्रति देने को कहा, लेकिन आज तक सीबीआई ने मुझे वह नहीं दी, और यह सवाल अगली सुनवाई के दौरान फ़िर से पूछा जायेगा। सीबीआई का झूठ एक बार और तब पकड़ा गया, जब उसने कहा कि “अलेस्सान्द्रा माइनो” किसी पुरुष का नाम है, और “विया बेल्लिनी, 14, ओरबेस्सानो”, किसी गाँव का नाम है, ना कि “माईनो” परिवार का पता। बाद में सीबीआई के वकील ने कोर्ट से माफ़ी माँगी और कहा कि यह गलती से हो गया, उस वकील का “प्रमोशन” बाद में “ऎडिशनल सॉलिसिटर जनरल” के रूप में हो गया, ऐसा क्यों हुआ, इसका खुलासा तो वाजपेयी-सोनिया की आपसी “समझबूझ” और “गठजोड़” ही बता सकता है।
इन दिनों सोनिया गाँधी अपने पति हत्यारों के समर्थकों MDMK, PMK और DMK से सत्ता के लिये मधुर सम्बन्ध बनाये हुए हैं, कोई भारतीय विधवा कभी ऐसा नहीं कर सकती। उनका पूर्व आचरण भी ऐसे मामलों में संदिग्ध रहा है, जैसे कि – जब संजय गाँधी का हवाई जहाज नाक के बल गिरा तो उसमें विस्फ़ोट नहीं हुआ, क्योंकि पाया गया कि उसमें ईंधन नहीं था, जबकि फ़्लाईट रजिस्टर के अनुसार निकलते वक्त टैंक फ़ुल किया गया था, जैसे माधवराव सिंधिया की विमान दुर्घटना के ऐन पहले मणिशंकर अय्यर और शीला दीक्षित को उनके साथ जाने से मना कर दिया गया। इन्दिरा गाँधी की मौत की वजह बना था उनका अत्यधिक रक्तस्राव, न कि सिर में गोली लगने से, फ़िर सोनिया गाँधी ने उस वक्त खून बहते हुए हालत में इन्दिरा गाँधी को लोहिया अस्पताल ले जाने की जिद की जो कि अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान (AAIMS) से बिलकुल विपरीत दिशा में है? और जबकि “ऐम्स” में तमाम सुविधायें भी उपलब्ध हैं, फ़िर लोहिया अस्पताल पहुँच कर वापस सभी लोग AAIMS पहुँचे, और इस बीच लगभग पच्चीस कीमती मिनट बरबाद हो गये? ऐसा क्यों हुआ, क्या आज तक किसी ने इसकी जाँच की? सोनिया गाँधी के विकल्प बन सकने वाले लगभग सभी युवा नेता जैसे राजेश पायलट, माधवराव सिन्धिया, जितेन्द्र प्रसाद विभिन्न हादसों में ही क्यों मारे गये? अब सोनिया की सत्ता निर्बाध रूप से चल रही है, लेकिन ऐसे कई अनसुलझे और रहस्यमयी प्रश्न चारों ओर मौजूद हैं, उनका कोई जवाब नहीं है, और कोई पूछने वाला भी नहीं है, यही इटली की स्टाइल है।

‎रंगीन चच्चा नेहरू के कुछ रंगीन और अनसुने किस्से‬

 
सरदार पटेल की पुत्री मणिबेन ने अपनी आत्मकथा "मणिबेन की डायरी" में घनश्याम दास बिरला से अपनी बातचीत का कुछ हिस्सा लिखा है ... घनश्याम दास बिरला ने मणिबेन से कहा था कि यदि नेहरुद्दीन जवाहिरी गंधासुर के सम्पर्क में नहीं आते तो वो इस्लाम स्वीकार कर लेते .. (उन्हें क्या पता था कि ये हरामी सुवर पहले से ही मुस्लिम है)! पूर्व प्रधानमंत्री मोरारजी देसाई ने अपनी किताब "मेरा जीवन वृतांत" में पेज नम्बर 456 पर लिखा है "पता नहीं क्यों नेहरुद्दीन जवाहिरी को हिन्दू धर्म के प्रति एक पूर्वाग्रह था" नेहरुद्दीन जवाहिरी ने हिन्दुओं को दोगला नागरिक बनाने के लिए हिन्दू कोड बिल लाने की बड़ी कोशिश की थी .. लेकिन सरदार पटेल ने नेहरुद्दीन जवाहिरी को चेतावनी देते हुए कहा था कि यदि मेरे जीते जी आपने हिन्दू कोड बिल के बारे में सोचा भी तो मैं खान्ग्रेस से इस्तीफ़ा दे दूंगा और इस बिल के खिलाफ सड़कों पर हिन्दुओं को लेकर उतर जाऊँगा ... फिर पटेल की धमकी से ग़द्दार नेहरुद्दीन जवाहिरी डर गया था ... और उसने सरकार पटेल जी के देहांत के बाद हिन्दू कोड बिल संसद में पास किया था ... इस बिल पर चर्चा के दौरान आचार्य जे. बी. कृपलानी ने नेहरुद्दीन जवाहिरी को कौमवादी और मुस्लिम परस्त कहा था .. उन्होंने कहा था की आप हिन्दुओं को धोखा देने के लिए ही जनेऊ पहनते हो .. वरना आपमें हिन्दुओं वाली कोई बात नहीं है यदि आप सच में धर्म निरपेक्ष होते तो हिन्दू कोड बिल के बजाय सभी धर्मों के लिए कॉमन कोड बिल लाते!
- जोश की 'सनक', जिससे नेहरुद्दीन भी नहीं बच पाए....नेहरुद्दीन जवाहिरी को जब जोश मलीहाबादी ने अपनी एक किताब दी तो उन्होंने कहा,"मैं आपका मशकूर हूँ." जोश ने उन्हें फ़ौरन टोका, "आपको कहना चाहिए था शाकिर हूँ."हर दिसंबर को यूनाइटेड कॉफ़ी हाउस के मालिक किशनलाल एक मुशायरे का आयोजन करते थे. उसमें जोश के अलावा फ़िराक़, साहिर लुधियानवी, महेंदर सिंह बेदी और कैफ़ी आज़मी जैसे शायर आते थे. नेहरुद्दीन जवाहिरी उस मुशायरे में ज़रूर आते थे. मुशायरे के बाद चुनिंदा स्कॉच, शामी क़बाब और लज़ीज़ खाना खिलाया जाता था. किशनलाल कालरा का 2009 में निधन हो गया.
लिंक -http://www.bbc.co.uk/…/12/141205_vivechana_josh_malihabadi_…
- बाबर महान, अकबर महान तथा औरंगजेब महान जैसी आधुनिक शेखुलर शिक्षा की आधारशिला रखने वाले भारत के प्रथम शिक्षा मंत्री मौलाना अबुल कलाम आज़ाद को नेहरुद्दीन अपना माँ-जाया भाई मानते थे....
- अभिनेत्री देविका रानी से भी चचा हरामी का टांका भिड़ा था अपने पति हिमांशु राय को चकमा देकर देविका आनंद भवन का हफ़्तों आतिथ्य ग्रहण किया करती थीं. लम्पट-कामुक नेहरुद्दीन की कृपा से देविका को सन् 1958 में पद्मश्री सम्मान प्रदान कर ही दिया गया था
-नेहरू के सुरक्षा अधिकारी रह चुके के एफ़ रुस्तम जी अपनी किताब 'आई वाज़ नेहरूज़ शैडो' में लिखते हैं कि 1953 में जब पाकिस्तान के प्रधानमंत्री मोहम्मद अली अपनी पत्नी के साथ दिल्ली हवाई अड्डे पर उतरे तो उन्हें नेहरू के मशहूर गुस्से का नज़ारा अपनी आँखों से देखने का मौका मिला. हुआ ये कि जैसे ही जहाज़ की सीढ़ियाँ लगाई गईं, वहाँ मौजूद करीब पचास कैमरामैन मक्खियों की तरह जहाज़ के चारों तरफ़ खड़े हो गए. जैसे ही पाकिस्तानी प्रधानमंत्री उतरे, पीछे खड़ी भीड़ भी आगे आ गई और धक्का मुक्की होने लगी. नेहरू का पारा चढ़ा तो चढ़ता ही चला गया. उन्होंने गुस्से में चिल्लाते हुए कैमरामैन के पीछे दौड़ना शुरू कर दिया. किसी एक शख़्स ने नेहरू के लिए कार का दरवाज़ा खोला. नेहरू ने गुस्से में वो दरवाज़ा बंद कर दिया और फूल के एक बड़े बूके से लोगों की पिटाई करने दौड़े. रुस्तम जी ने बहुत मुश्किल से उन्हें जीप पर सवार होने के लिए मनाया. नाराज़ नेहरू और पाकिस्तानी प्रधानमंत्री जीप पर राष्ट्रपति भवन गए और उनकी लंबी कार जीप के पीछे-पीछे बिना किसी सवारी के आई.
- एक बार पटेल से किसी ने पूछा कि इस समय भारत में सबसे बड़ा राष्ट्रवादी मुस्लिम कौन है. सब सोच रहे थे कि पटेल मौलाना आज़ाद या रफ़ी अहमद किदवई का नाम लेंगे, लेकिन पटेल का जवाब था, ‘मौलाना नेहरू.’
- 1937 में नेहरू ने पद्मजा को लिखा था, "तुम 19 साल की हो (जबकि वो उस समय 37 साल की थीं)... और मैं 100 या उससे भी से ज़्यादा. क्या मुझे कभी पता चल पाएगा कि तुम मुझे कितना प्यार करती हो." एक बार और मलाया से नेहरू ने पद्मजा को लिखा था, "मैं तुम्हारे बारे में जानने के लिए मरा जा रहा हूँ.. मैं तुम्हें देखने, तुम्हें अपनी बाहों में लेने और तुम्हारी आँखों में देखने के लिए तड़प रहा हूँ."(सेलेक्टेड वर्क्स ऑफ़ नेहरू, सर्वपल्ली गोपाल, पृष्ठ 694)
- नेताजी के भाई शरत बोस की बेटी चित्रा ने नेहरू से हुई एक मुलाकात का जिक्र करते हुए मीडिया को बताया है कि कलकत्ता दौरे पर आये पीएम नेहरू उनके आवास 1, वुडवर्न पार्क पर उनके पिता से मिले थे। उस मुलाकात में पं. नेहरू ने आंसू भरी आंखों के साथ एक आयताकार डायल वाली कलाई घड़ी देते हुए कहा था कि यह वही घड़ी है,जो सुभाष ने विमान दुर्घटना के दौरान पहनी हुई थ। इस पर उनके पिता ने साफ कहा, 'जवाहर, मुझे इस दुर्घटना वाली कहानी पर यकीन नहीं है, और सुभाष कभी ऐसी घड़ी नहीं पहनते थे। वे सिर्फ अपनी मां की दी हुई गोल डायल वाली घड़ी ही पहनते थे। अर्थात इस बयान के मायने यही हैं कि नेहरू वहां झूठ बोल रहे थे।
- जब कोई व्यक्ति किसी देश का प्रतिनिधित्व करने लग जाता है तो उस देश की आने वाली नस्लें स्वतः ही उसका अनुसरण करने लग जाती हैं. ऐसी स्थिति में यदि वह उत्तम चरित्र का स्वामी है तो देश आध्यात्मिक प्रगति के साथ-साथ भौतिक-उन्नति की तरफ अग्रसर होने लगता है और यदि वह चरित्रहीन है तो नैतिक ह्रास होने के साथ-साथ उस देश का भविष्य अंधकारमय होकर तीव्र गति से गर्त की और पतनोन्मुख होने लगता है. एक प्रधानमंत्री जब अपने कार्यालय में बैठा होता है न केवल तब वह प्रधानमंत्री होता है वरन जब वह अपने घर में नहा रहा, खाना खा रहा या कोई और कार्य भी कर रहा होता है तब भी वह प्रधानमंत्री ही होता है. अतः एक आम इंसान की निजी ज़िन्दगी से एक राष्ट्राध्यक्ष की निजी ज़िन्दगी को तुलना कदापि नहीं की जा सकती है. उसके ऊपर सम्पूर्ण विश्व की निगाहें लगीं होती हैं और वह राष्ट्र की गरिमा और अस्मिता का सीधे-सीधे प्रतिनिधित्व करता है.
(अन्तिम चित्र में:- अखिल भारतीय खान्ग्रेस अधिवेशन, नयी दिल्ली, सन १९५१ के दौरान भोजनावकाश के दौरान भारत के तत्कालीन प्रधानमंत्री व खान्ग्रेस अध्यक्ष जनाब नेहरुद्दीन जवाहिरी)
अभी के लिए इतने ही किस्से और फिर कभी धन्यवाद !!
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मोतीलाल नेहरू, नेहरू परिवार,इंदिरा गांधी-खानदानी लुटेरे

http://saralnigam.blogspot.in/2011/12/blog-post_16.html पर खानदानी लुटेरे शीर्षक से एक पोस्ट डाली गई, जिसमें भारत के प्रथम प्रधानमंत्री स्व. जवाहर लाल नेहरु के व्यक्तिगत सचिव रहे जॉन मथाई की आत्मकथा को उद्दृत करते हुए नेहरू परिवार की वन्शाबली दी गई उनके शब्दों को यथावत लिखने में तो मुझे थोड़ी हिचक है, फिर भी कुछ शब्द परिवर्तन कर लिखती हूँ मकान न. 77, मीरगंज इलाहावाद में रहने वाली जद्दन बाई का सारा खर्चा स्व. मोतीलाल नेहरू उठाते थे लेख के अनुसार जद्दन बाई की माँ दलीपा बाई से मोतीलाल जी के सम्बन्ध थे जद्दन बाई दुनिया की पहली महिला संगीतकार व गायिका थीं, जिन्होंने फिल्मों में संगीत दिया जद्दन बाई के तीन विवाह हुए पहला निकाह नरोत्तमदास खत्री से हुआ, जिन्होंने विवाह के बाद मुस्लिम धर्म स्वीकार कर लिया, उन्हें लोग बच्ची बाबू कह कर बुलाते थे दूसरा निकाह उस्ताद मीर खान से हुआ जिनसे फिल्म अभिनेता अनवर हुसैन पैदा हुए तीसरा निकाह डॉ. उत्तमचंद मोहनचंद से हुआ, जो मुस्लिम बनने के बाद अब्दुल रशीद हो गया और बाद में आर्यसमाज के स्वामी श्रद्धानंद जी की ह्त्या का गुनहगार बना इस शादी से तीन बच्चे हुए सबसे बड़ी बेटी का नाम फातिमा रखा गया जो बाद में फिल्म अभिनेत्री नर्गिस बनी और उनका विवाह फिल्म अभिनेता सुनील दत्त से हुआ
स्व. मोतीलाल नेहरू की बैध पत्नी श्रीमती स्वरुप कुमारी बख्शी से दो संतानें थीं पहली श्रीमती कृष्णा w/o जयसुखलाल हाथी (पूर्व राज्यपाल) दूसरी श्रीमती विजय लक्ष्मी पंडित w/o श्री आर एस पंडित (पूर्व राजदूत रूस) मोतीलाल नेहरू का दूसरा विवाह कश्मीरी महिला रहमान बाई उर्फ़ थुस्सू से हुआ, जिनसे जवाहरलाल पैदा हुए लेख की अन्य बातों का मैं उल्लेख नहीं करती जिनमें मोतीलाल जी की रंगीनियत झलकती है किन्तु लेख में स्व. इंदिरा गांधी को लेकर कहा गया है कि उनके मुहम्मद यूनुस से सम्बन्ध थे


मुहम्मद यूनुस के उल्लेख से मुझे याद आया कि ये वही हैं जिनके बेटे आदिल शहरयार को अमरीकी जेल से छुड़वाने के बदले कथित रूप से स्व.राजीव गांधी ने भोपाल गैस काण्ड के मुख्य अभियुक्त वारेन एंडरसन को भारत से जाने दिया इतना ही नहीं तो आज के ही नया इंडिया समाचार पत्र के अनुसार तो भारत सरकार ने इस भीषण काण्ड के बाद अमरीकी अदालत में युनियन कार्बाईड के खिलाफ 33 बिलियन डॉलर का मुक़दमा ठोका था किन्तु अमरीका में मुआवजे संबंधी कड़े कानूनों को देखते हुए वह मुक़दमा बाद में भारत में चला, जिसकी लीपा पोती आज तक चल रही है
आखिर एक परिवार के राजतंत्र का कितना खामियाजा यह देश भोगता ? शायद इसीलिए सत्ता परिवर्तन हुआ किन्तु अटल जी की सदस्य्ता का जो लाभ इंदिरा जी ने उठाया, बैसा ही इतिहास दुबारा न दोहराया जाए तो अच्छा होगा वारेन एंडरसन मुद्दे पर श्वेत पत्र आना चाहिए वह देश के बाहर कैसे गया ? मुक़दमा अमरीका की अदालत में क्यों नहीं चला ? भारत के रेल मंत्री और बाद में बित्त मंत्री रहे जॉन मथाई की पुस्तक प्रिमिनेंसेस ऑफ़ नेहरू एज पर से प्रतिबन्ध हटाया जाना चाहिए |
इंदिरा जी के विवाह की दास्तान -
आनन्द भवन का असली नाम था इशरत मंजिल और उसके मालिक थे मुबारक अली मोतीलाल नेहरू पहले इन्हीं मुबारक अली के यहाँ काम करते थे। सभी जानते हैं की राजीव गाँधी के नाना का नाम था जवाहरलाल नेहरू लेकिन प्रत्येक व्यक्ति के नाना के साथ ही दादा भी तो होते हैं। फिर राजीव गाँधी के दादाजी का नाम क्या था? किसी को मालूम नहीं, क्योंकि राजीव गाँधी के दादा थे नवाब खान। एक मुस्लिम व्यापारी जो आनन्द भवन में सामान सप्लाई करता था और जिसका मूल निवास था जूनागढ गुजरात में। नवाब खान ने एक पारसी महिला से शादी की और उसे मुस्लिम बनाया। फिरोज इसी महिला की सन्तान थे और उनकी माँ का उपनाम था घांदी (गाँधी नहीं) घांदी नाम पारसियों में अक्सर पाया जाता था। विवाह से पहले फिरोज गाँधी ना होकर फिरोज खान थे और कमला नेहरू के विरोध का असली कारण भी यही था।
हमें बताया जाता है कि फिरोज गाँधी पहले पारसी थे यह मात्र एक भ्रम पैदा किया गया है। इन्दिरा गाँधी अकेलेपन और अवसाद का शिकार थीं। शांति निकेतन में पढ़ते वक्त ही रविन्द्रनाथ टैगोर ने उन्हें अनुचित व्यवहार के लिये निकाल बाहर किया था। अब आप खुद ही सोचिये एक तन्हा जवान लडक़ी जिसके पिता राजनीति में पूरी तरह से व्यस्त और माँ लगभग मृत्यु शैया पर पड़ी हुई हों थोड़ी सी सहानुभूति मात्र से क्यों ना पिघलेगी?
इंदिरा गांधी या मैमूना बेगम: इसी बात का फायदा फिरोज खान ने उठाया और इन्दिरा को बहला-फुसलाकर उसका धर्म परिवर्तन करवाकर लन्दन की एक मस्जिद में उससे शादी रचा ली। नाम रखा मैमूना बेगम। नेहरू को पता चला तो वे बहुत लाल-पीले हुए लेकिन अब क्या किया जा सकता था। जब यह खबर मोहनदास करमचन्द गाँधी को मिली तो उन्होंने नेहरू को बुलाकर समझाया। राजनैतिक छवि की खातिर फिरोज को मनाया कि वह अपना नाम गाँधी रख ले, यह एक आसान काम था कि एक शपथ पत्र के जरिये बजाय धर्म बदलने के सिर्फ नाम बदला जाये तो फिरोज खान घांदी बन गये फिरोज गाँधी। विडम्बना यह है कि सत्य-सत्य का जाप करने वाले और सत्य के साथ मेरे प्रयोग नामक आत्मकथा लिखने वाले गाँधी ने इस बात का उल्लेख आज तक नहीं नहीं किया।
खैर, उन दोनों फिरोज और इन्दिरा को भारत बुलाकर जनता के सामने दिखावे के लिये एक बार पुन: वैदिक रीति से उनका विवाह करवाया गया ताकि उनके खानदान की ऊँची नाक का भ्रम बना रहे। इस बारे में नेहरू के सेकेरेटरी एम.ओ. मथाई अपनी पुस्तक प्रेमेनिसेन्सेस ऑफ नेहरू एज (पृष्ठ 94 पैरा 2 (अब भारत में प्रतिबंधित है किताब) में लिखते हैं कि पता नहीं क्यों नेहरू ने सन 1942 में एक अन्तर्जातीय और अन्तर्धार्मिक विवाह को वैदिक रीतिरिवाजों से किये जाने को अनुमति दी जबकि उस समय यह अवैधानिक था का कानूनी रूप से उसे सिविल मैरिज होना चाहिये था । यह तो एक स्थापित तथ्य है कि राजीव गाँधी के जन्म के कुछ समय बाद इन्दिरा और फि रोज अलग हो गये थे हालाँकि तलाक नहीं हुआ था। फिरोज गाँधी अक्सर नेहरू परिवार को पैसे माँगते हुए परेशान किया करते थे और नेहरू की राजनैतिक गतिविधियों में हस्तक्षेप तक करने लगे थे। तंग आकर नेहरू ने फिरोज के तीन मूर्ति भवन मे आने-जाने पर प्रतिबन्ध लगा दिया था। मथाई लिखते हैं फिरोज की मृत्यु से नेहरू और इन्दिरा को बड़ी राहत मिली थी। 1960 में फिरोज गाँधी की मृत्यु भी रहस्यमय हालात में हुई थी जबकी वह दूसरी शादी रचाने की योजना बना चुके थे। बुरे कामो पर इन्दिरा ने हमेशा परदा डाला और उसे अपनी मनमानी करने कि छूट दी।

सरदार के “बारह बज गए” मुहावरे के पीछे का सच

 
सरदार के “बारह बज गए” मुहावरे के पीछे का सच।
एक सरदार पर जोक बनाना औए सुनाना कितना आसान होता है न । सर में पंगडी और बगल में कृपाण रखने वाले सरदार भी अक्सर आपके जोक्स और मजाक को भी नजरअंदाज करते हुए खुश रहते हैं.फिर भी आप उनसे बगैर पूँछे “सरदार जी के बारह बज गए” कहते हुए मजे लेते रहते हैं ।
ज्यादातर लोगों को लगता है की सरदार के चिल्ड नेचर और भाव-भंगिमाओं के कारण ही इस फ्रेज का लोग इस्तेमाल करते हैं ।
आज हम आपको बताते हैं की इस जुमले की पीछे की हकीकत क्या है,और निश्चित ही इसे पढ़कर इसका प्रयोग करने वालों को शर्मिंदगी जरूर महसूस होगी । आप ये समझ पायेंगे कि एक सरदार क्या होता है?
1) सत्रहवीं शताब्दी में जब देश में मुगलों का अत्याचार चरम पर था,बहुसंख्यक हिन्दुओं को धर्म-परिवर्तन के लिए अमानवीय यातनाएं दी जाती थीं,औरंगजेब के काल में ये स्थिति और बदतर हो गयी ।
2) मुग़ल सैनिक,धर्मान्तरण के लिए हिन्दू महिलाओं की आबरू को निशाना बनाते थे । अंततः दुर्दांत क़त्ल-ए-आम और बलात्कार से परेशान हो कश्मीरी पंडितों ने आनंदपुर में सिखों के नवमे गुरु तेग बहादुर से मदद की गुहार लगाई.
3) गुरु तेग बहादुर ने बादशाह ‘औरंगजेब’ के दरबार में अपने आपको प्रस्तुत किया और चुनौती दी कि यदि मुग़ल सैनिक उन्हें स्वयं इस्लाम कबूल करवाने में कामयाब रहे तो अन्य हिन्दू सहर्ष ही इस्लाम अपना लेंगे ।
4) औरंगजेब बेहद क्रूर था,परन्तु अपनी कौल का पक्का व्यक्ति था,गुरु जी उसके स्वभाव से परिचित थे । गुरूजी के प्रस्ताव पर उसने सहर्ष स्वीकृति दे दी । गुरु तेग बहादुर और उनके कई शिष्य मरते दम तक अत्याचार सहते हुए शहीद हो गए,पर इस्लाम स्वीकार नहीं किया । इस तरह अपने प्राणों की बलि देकर उन्होंने बांकी हिन्दुओं के हिंदुत्व को बचा लिया ।
5) इसी कारण उन्हें “हिन्द की चादर” से भी जाना जाता है,उनके देहावसान के बाद,उनके सुयोग्य बेटे गुरु गोविन्द सिंह जी ने हिंदुत्व की रक्षा के लिए आर्मी का निर्माण किया,जो कालांतर में ‘सिख’ के नाम से जाने गए ।
6) 1739 में जब इरानी आक्रांता नादिर शाह ने दिल्ली पर हमला करते हुए,हिन्दुस्तान की बहुमूल्य संपदा को लूटना शुरू कर दिया । इन हवसी आक्रमणकारियों ने करीब 2200 भारतीय महिलाओं को बंधक बना लिया.
7) सरदार जस्सा सिंह जो की सिख आर्मी के कमांडर-इन-चीफ थे,ने इन लुटेरों पर हमला करने की योजना बनायी । परन्तु उनकी सेना दुश्मन की तुलना में बहुत छोटी थी इसलिए उन्होंने आधी रात को बारह बजे हमला करने का निर्णय लिया ।
8) महज कुछ सैकड़ों की संख्या में सरदारों ने,कई हजार लुटेरों के दांत खट्टे करते हुए महिलाओं को आजाद करा दिया । सरदारों के शौर्य और वीरता से लुटेरों की नींद और चैन हराम हो गया.
9) यह क्रम नादिर शाह के बाद उसके सेनापति अहमद शाह अब्दाली के काल में भी जारी रहा । अब्दालियों और ईरानियों ने अब्दाल मार्केट में,हिन्दू औरतों को बेंचना शुरू कर दिया.सिखों ने अपनी मिडनाईट(12 बजे) में ही हमला करने की स्ट्रैटिजी जारी रखी और एक बार फिर दुश्मनों की आँखों में धुल झोंकते हुए महिलाओं को बचा लिया ।
10) सफलता पूर्वक लड़कियों और औरतों के सम्मान की रक्षा करते हुए,सिखों ने दुश्मनों और लुटेरों से अपनी इज्जत की हिफाजत की । रात 12 बजे के समय में हमला करते समय लुटेरे कहते थे “सरदारों के बारह बज गए”सरदार और सिख राष्ट्र की अमूल्य धरोहर हैं। सरदार के केश और कृपाण उसे अतुलित धैर्य और साहस से परिपूरित करते हैं ।
सरदार और सिख राष्ट्र की अमूल्य धरोहर हैं, सरदार के केश और कृपाण उसे अतुलित धैर्य और साहस से परिपूरित करते हैं । सिख एक महान कौम है,जिसने मध्यकाल में गुलामी की काली रात में सनातन और हिन्दुस्तान को स्वयं के प्राणों की बलि देकर बचाए रखा । गुरु गोविन्द सिंह जी की प्रसिद्द उक्ति है
सवा लाख से एक लडाऊं,तब मै गुरु गोविंद सिंह कहलाऊं
ऐसी वीरता,साहस और ईमानदारी के पर्याय सरदारों को “12 बज गए” कह कर चिढाना/हँसना बेहद शर्मनाक है । उन विदेशी लुटेरों से रक्षित स्त्रियों के वंशजों द्वारा ‘लुटेरों की ही टिप्पणी’ को दोहराना अनजाने में ही सही पर,किसी देशद्रोह से कम नहीं है।
सरदारों के “12 बज गए” एक ऐसा मुहावरा है जो की उन लुटेरों के ‘गीदड़पाने’ और हमारी वीरता का पर्याय है,इसे लाफिंग मैटर के रूप में नहीं बल्कि गर्व के रूप में कहिये।

नेताजी पर रहस्य‬

नेता जी सुभाषचंद्र बॉस की पर हम लोगो ने काफी कुछ पढ़ा है| बचपन मे पढ़ी इतिहास की किताबों मे नेता जी की कहानी को हम से हमेशा से दूर रखा गया था और कही उन के विषय मे कुछ लिखा हुआ था भी तो उस मे झूठ ही लिखा गया था|
नेता जी पर कुछ टॉप सीक्रेट फ़ाइल सार्वजनिक होने के बाद कहानी कुछ इस तरह हो गयी है कि कॉंग्रेस के भजन कीर्तन से क्रांति नही आ सकती और न इस से देश आज़ाद होगा इसलिए इस को समझते हुए नेता जी कॉंग्रेस से अलग हो गए थे और देश के युवाओ को " तुम मुझे खून दो मैं तुम को आज़ादी दूंगा" का नारा दे कर नेता जी अंग्रेज़ो से युद्ध की तैयारी करने लगे थे, जिस के बाद नेता जी को अंग्रेज़ो ने उन के घर मे नज़रबंद कर दिये था| परंतु देश के लिए अपना सब कुछ समर्पित करने वाले नेता जी ने भेष बदल कर बंगाल से अफगानिस्तान के काबुल शहर मे रूस के दूतावास की मदद अफगानिस्तान छोड़ कर दिये थे| जिस के बाद नेता जी जर्मनी और जापान गए| जहां उन्होने हिटलर से मुलाक़ात की और उस से भारत के अंग्रेज़ो पर हमला करने की बात की और उस से हथियार और सेना मांगी| फिर बाद मे नेता जी ने रासबिहारी बोस जी की मदद से अंग्रेज़ो के लिए लड़ रहे भारतीय सैनिको मे देश के प्रति देशप्रेम जागा कर और आत्मसम्मान जागा कर "आजाद हिन्द फौज" बनाई|
जिस के बाद आजाद हिन्द फौज ने अँग्रेजी सेना पर हमला कर दिया था| जिस समय आजाद हिन्द फौज वर्मा के जगलों मे अँग्रेजी- भारतीय सेना से जंग कर रही थी उस समय कॉंग्रेस देश के लोगो का ध्यान नेता जी से हटा कर देश के युवको का जोश बर्बाद करने का काम कर रही थी|
आज़ाद हिन्द फौज उस समय कई मुसबितों का सामना कर रही थी -
1 - उस के पास राशन और हथियारो की कमी थी
2 - उस समय देश मे कभी भी बारिश नही होती थी परंतु जिस समय फौज ने अँग्रेजी सेना पर हमला की उस समय आजाद हिन्द फौज जंगल मे थी और उस समय बेमौसम बारिश होनी शुरू हो गयी जिस के कारण फौज बीमार होने लगी
3 - उस ही समय बंगाल मे अकाल पड़ रहा था
नेता जी एक रंगून मे एक सभा की जिस मे नेता जी की बात सुन कर लोगो ने नेता जी को अपने पैसे राशन लड़के आदि सब कुछ दे दिया | नेता जी के कुछ जासूस अंग्रेज़ो की छावनी मे जाते थे जहां से वह हथियार चुरा के भी लाते थे| उन के जासूसो पर अभी एक Documentary The EPIC Channel चैनल ने अपने सिरियल अद्रश्य मे दिखाया था| नेता जी के पास लोगो के दिये हुए पैसे थे, औरतों के जेवर-गहने यहाँ तक की मंगलसूत्र तक दान मे आए थे| आज़ाद हिन्द फौज के खजाने फौज के लिए काफी पैसे भी आए थे|
उस के बाद फौज ने एक लड़कियों की बटालियन भी बनाई जिस की कैप्टन डॉक्टर लक्ष्मी शहगल को बनाया गया था| फौज के काम की जानकारी आम जनता तक कॉंग्रेस नही आने दे रही थी और न ही अंग्रेस क्यूकि उन को डर था कि अगर आज़ाद हिन्द फौज के काम के विषय मे आम जनता को पता चल गया तो देश के लोग कॉंग्रेस के भजन कीर्तन को छोड़ कर फौज के साथ मिल कर अंग्रेज़ो को मर भागा देंगे| और कॉंग्रेस की ड्रामेबाजी लोग छोड़ देंगे क्यूकि वह सिर्फ देश के लोगो का समय बर्बाद कर रही थी|
आज़ाद हिन्द फौज ने भारत के कई हिस्से को अंग्रेज़ो से आज़ाद करवा दिया था| लेकिन तभी अमरीका ने हिरोशिमा और नागासाकी पर परमाणु बम डाल दिये थे जिस के बाद जापान सेना ने आजाद हिन्द फौज की मदद करने से मना कर दिया|
जिस के बाद नेता जी ने अपनी सभी फौज को डिस्मिस कर दिया था| फौज के जवान को अंग्रेज़ो ने पकड़ लिया था| इस की खबर मिलते ही अलग-अलग देशो मे अंग्रेज़ो के लिए लड़ने वाले भारतीय सैनिक देश मे वापस आ गए थे और वह इंतज़ार कर रहे थे कि अब फौज के साथ क्या होगा ? अंग्रेज़ो को डर था कि अगर हम ने फौज के जवानो को फांसी दे दी तो हमारी फौज के भारतीय सैनिक और विदेशो से आए सैनिक और देश की जनता बगावत कर सकती है इसलिए उस ने किसी भी जवान को फांसी नही दी|
तभी खबर आई कि नेता जी का हवाईजहाज दुर्घटनाग्रस्त हो गया है जिस पर नेता जी के भाई ने बोला था कि ऐसा हो ही नही सकता उन को रूस की आर्मी ने पकड़ा दिया है और बाद मे नेहरू के कहने पर उन को जहर दे कर मर दिया गया
अब इस बात की पुष्टि इसलिए भी होती है कि हाल ही मे आई रिपोर्ट के अनुसार नेता जी की जासूसी आज़ादी के बाद तक नेहरू ने कारवाई थी और अभी फिर एक रिपोर्ट आई है कि आज़ाद हिन्द फौज के खजाने को भी नेहरू ने लूटने दिया था
मैं सिर्फ इतना कहना चाहती हूँ कि हमारे बच्चे अपनी किताबों मे अब सच पढे, हमारी तरह झूठ नही जय हिन्द
वंदे मातरम
यह एक अत्यंत महत्वपूर्ण पोस्ट है इसे पढ़ने के बाद नेताजी पर कोई रहस्य आपके मन में नही रह जायेगा इसको शेयर अवश्य कर दे जिससे आपके सहयोग से इसे अधिक से अधिक लोग पढ़ सके निवेदन हैं आप से...
Source -
- http://swarajyamag.com/…/vilifying-netaji-to-shield-pandit…/
- http://www.business-standard.com/…/the-inheritors-115042400…
- http://epaper.panchjanya.com/epaper.aspx…
- http://www.dailyo.in/…/subhas-chandra-bos…/story/1/3443.html
- http://www.dailyo.in/…/subhas-chandra-bos…/story/1/3443.html
- http://timesofindia.indiatimes.com/…/articlesh…/46952078.cms
- http://timesofindia.indiatimes.com/…/articlesh…/46964624.cms
- http://timesofindia.indiatimes.com/…/articlesh…/46964624.cms
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http://www.telegraphindia.com/115…/…/nation/story_14871.jsp…
- http://www.gandhiashramsevagram.org/…/gandhi-letter-to-ever…
- http://blogs.timesofindia.indiatimes.com/…/mystery-lives-o…/

महाराणा प्रताप

महाराणा प्रताप जी, जिन के विषय मे हम लोग बचपन से सुनते और पढ़ते आ रहे है आज सुबह से कई देशी और विदेशी विश्वविधालयों की Digital पुस्तकालयों से महाराणा प्रताप जी के विषय पर कई किताबे पढ़ने के बाद हम को कुछ अच्छी किताब मिली है जिस मे आप को उन के विषय मे कुछ नयी जानकारी मिलेगी उन किताबों को यहाँ पोस्ट कर रही हूँ लेकिन आपको उससे पहले एक एक सच्ची ऐतहासिक घटना बताती हु जिससे आप स्वय समझ जायेगे की हमारा सही इतिहास को जानना कितना आवश्यक हैं –
इस देश के कांग्रेसी और वामपंथी इतिहासकारों से अच्‍छे तो विदेशी इतिहासकार कर्नल जेम्‍स टाड हैं, जिनके कारण हमें मेवाड़ का वास्‍तविक इतिहास का पता चलता है। अकबर ने 10 वर्ष लगाकर मेवाड़ के जिन क्षेत्रों को विजित किया था, महाराणा प्रताप ने अपने पुत्र अमर सिंह के साथ मिलकर केवल एक वर्ष में न केवल उन क्षेत्रों को जीत लिया, बल्कि उससे कहीं अधिक क्षेत्र अपने राज्‍य में मिला लिया, जो उन्‍हें राज्‍यारोहण के वक्‍त मिला था।
जेम्‍स टाड लिखते हैं, ''एक बेहद कम समय के अभियान में महाराणा ने सारा मेवाड़ पुन: प्राप्‍त कर लिया, सिवाय चित्‍तौड़, अजमेर और मांडलगढ़ को छोड़कर। अकबर के सेनापति मानसिंह ने राणा प्रताप को चेतावनी दी थी कि तुम्‍हें 'संकट के दिन काटने पड़ेंगे'। महाराणा ने संकट के दिन काटे और जब वह वापस लौटे तो प्रतिउत्‍तर में और भी उत्‍साह से मानसिंह के ही राज्‍य आंबेर पर हमला कर दिया और उसकी मुख्‍य व्‍यापारिक मंडी मालपुरा को लूट लिया।''
'मेवाड़ के महाराणा और शहंशाह अकबर' पुस्‍तक के लेखक राजेंद्र शंकर भटट ने लिखा है, ''हल्‍दीघाटी के बाद प्रताप ने चांवड को मेवाड़ की नयी राजधानी बनायी और यहां बैठकर अपने सैनिक व शासन व्‍यवस्‍था को सुदृढ किया। प्रताप का पहला कर्त्‍तव्‍य मुगलों से अपने राज्‍य को मुक्‍त कराना था, लेकिन यह इतनी जल्‍दी नहीं हो सकता था। उन्‍होंने साल-डेढ साल तक जन-धन, आवश्‍यक साधन व संगठन का प्रबंध किया और मुगल साम्राज्‍य पर चढ़ाई कर दिया। अपने पुत्र अमर सिंह के नेतृत्‍व में उसने दो सेनाएं संगठित कीं और दोनों दिशाओं से मुगलों के अधिकृत क्षेत्र पर आक्रमण कर दिया। शाही थाने और चौकियां एक एक कर मेवाड़ी सैनिकों के कब्‍जे में तेजी से आते गए। अमरसिंह तो इतनी तीव्रता से बढ रहा था कि एक दिन में पांच मुगल थाने उसने जीत लिए। एक वर्ष के भीतर लगभग 36 थाने खाली करा लिए गए, मेवाड़ की राजधानियां उदयपुर तथा गोगूंदा, हल्‍दीघाटी का संरक्षण करने वाला मोही और दिवेर के पास की सीमा पर पडने वाला भदारिया आदि सब फिर से प्रताप के कब्‍जे में आ गए। उत्‍तर पूर्व में जहाजपुरा परगना तक की जगह और चितौड से पूर्व का पहाडी क्षेत्र भी मुगलों से खाली करवा लिया गया। सिर्फ चितौड तथा मांडलगढ और उनको अजमेर से जोडने वाला मार्ग ही मुगलों के हाथ में बचा, अन्‍यथा सारा मेवाड फिर से स्‍वतंत्र हो गया।''
वह लिखते हैं, ''जो सफलता अकबर ने इतना समय और साधन लगाकर प्राप्‍त की थी, जिस पर उसने अपनी और अपने प्रमुख सेनानियों की प्रतिष्‍ठा दाव पर लगा दी थी, उसे सिर्फ एक वर्ष में समाप्‍त कर प्रताप ने मित्र-शत्रु सबको आश्‍चर्य में डाल दिया।''
यहां यह जानने योग्‍य भी है कि अकबर ने जब चित्‍तौड को जीता था तब प्रताप के पिता महाराणा उदयसिंह मेवाड़ के राणा थे, न कि प्रताप। इस तरह से प्रताप ने अपने राज्‍यारोहण में प्राप्‍त भूमि से अधिक भूमि जीतकर अकबर को परास्‍त किया। प्रताप की इसी वीरता के कारण राजप्रशस्ति में 'रावल के समान पराक्रमी' कहा गया है।
मुझे आश्‍चर्य होता है कि अपनी मातृभूमि को मुगलों से बचा ले जाने वाला, अफगानिस्‍तान तक राज्‍य करने वाले अकबर को बुरी तरह से परास्‍त करने वाला महाराणा प्रताप आजादी के बाद कांग्रेसियों और वामपंथियों की लिखी पुस्‍तक में 'महान' और 'द ग्रेट' क्‍यों नहीं कहे गए। महाराणा प्रताप जैसों के वास्‍तविक इतिहास को दबाकर कांग्रेसी व वामपंथी इतिहासकारों ने यह तो दर्शा ही दिया है कि उन्‍होंने भारत का नहीं, बल्कि केवल शासकों का इतिहास लिखा है।
अगर आप महाराणा प्रताप जी का सही इतिहास पढ़ना चाहते हैं तो आप को किताब खरीदने की जरूरत नही है बस यही से download कर लो किताबो के नाम और लिंक -
1 – किताब का नाम - प्रताप चरितारत संक्षित चरित और विचारो का निदर्शन (हिन्दी)
लेखक – पंडित नंदकुमार देव शर्मा
Download और पढ़ने के लिए लिंक - https://archive.org/…/MaharanaPratapa-OnkaraNathaVajapeyii1…
2- किताब का नाम – वीर शिरोमणि महाराणा प्रताप (हिन्दी)
लेखक – रायबहादुर गौरीशंकर
Download और पढ़ने के लिए लिंक - https://archive.org/…/ViraShiromaniMaharanaPratapaSinha-Gsh…
3 – किताब का नाम – महाराणा प्रताप ऐतिहासिक नाटक (हिन्दी)
लेखक – श्री राधा कृष्णदास
Download और पढ़ने के लिए लिंक - https://archive.org/…/MaharanaPratapSingh-RadhaKrisnaDas192…
4- किताब का नाम – Maharana Pratap (English)
लेखक –Shri Ram Sharma
Download और पढ़ने के लिए लिंक - https://archive.org/…/…/MaharanaPratap-Eng-SriRamSharma1930…
5- किताब का नाम – Hindu Superiority (English)
लेखक – Har Bilas Sadar
Download और पढ़ने के लिए लिंक - http://vedickranti.in/download.php…
6 – किताब का नाम – वीरप्रतापनाटकम (संस्कृत)
लेखक – मथुरा प्रसाद दीक्षित
Download और पढ़ने के लिए लिंक - https://archive.org/…/VeerpratapaNatakam-Sanskrit-MpDikshit…
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