Friday, May 22, 2015

चित्पावन ब्राह्मणों का सामूहिक नरसंहार गांधी की हत्या के बाद.

गांधी के अहिंसक आतंकवादी द्वारा चित्पावन ब्राह्मणों का सामूहिक नरसंहार गांधी की हत्या के बाद.... जिसे आज भारत के 99% लोग संभवत: भुला चुके होंगे...!!
31 जनवरी - 3 फरवरी 1948 तक पुणे में हुए चित्पावन ब्राहमणों के सामूहिक नरसंहार को आज भारत के 99% लोग संभवत: भुला चुके होंगे, कोई आश्चर्य नही होगा मुझे यदि कोई पुणे का या कोई ब्राह्मण मित्र भी इस बारे में साक्ष्य या प्रमाण मांगने लगे l
सोचने का गंभीर विषय उससे भी बड़ा यह कि उस समय न तो मोबाइल फोन थे, न पेजर, न फैक्स, न इंटरनेट... अर्थात संचार माध्यम इतने दुरुस्त नहीं थे, परन्तु फिर भी नेहरु ने इतना भयंकर रूप से यह नरसंहार करवाया कि आने वाले कई वर्षों तक चित्पावन ब्राह्मणों को घायल करता रहा राजनीतिक रूप से भी देखें तो यह कहने में कोई झिझक नही होगी मुझे कि जिस महाराष्ट्र के चित्पावन ब्राह्मण सम्पूर्ण भारत में धर्म तथा राष्ट्र की रक्षा हेतु सजग रहते थे... उन्हें वर्षों तक सत्ता से दूर रखा गया, अब 67 वर्षों बाद कोई प्रथम चित्पावन ब्राह्मण देवेन्द्र फडनवीस के रूप में मनोनीत हुआ है ल हिंदूवादी संगठनों द्वारा मैंने पुणे में कांग्रेसी अहिंसावादी आतंकवादियों के द्वारा चितपावन ब्राह्मणों के नरसंहार का मुद्दा उठाते कभी नही सुना, मैं सदैव सोचती थी कि यह विषय 7 दशक पुराना हो गया है इसलिए नही उठाते होंगे, परन्तु जब जब गाँधी वध का विषय आता है समाचार चेनलों पर तब भी मैंने किसी भी हिंदुत्व का झंडा लेकर घूम रहे किसी भी नेता को इस विषय का संज्ञान लेते हुए नही पाया l
31 जनवरी 1948 की रात, पुणे शहर की एक गली, गली में कई लोग बाहर ही चारपाई डाल कर सो रहे थे ...एक चारपाई पर सो रहे आदमी को कुछ लोग जगाते हैं और ... उससे पूछते हैं कांग्रेसी अहिंसावादी आतंकवादी: नाम क्या है तेरा... सोते हुए जगाया हुआ व्यक्ति ... अमुक नाम बताता है ... (चित्पावन ब्राह्मण) अधखुली और नींद-भरी आँखों से वह व्यक्ति अभी न उन्हें पहचान पाया था, न ही कुछ समझ पाया था... कि उस पर कांग्रेस के अहिंसावादी आतंकवादी मिटटी का तेल छिडक कर चारपाई समेत आग लगा देते हैं ल चित्पावन ब्राहमणों को चुन चुन कर ... लक्ष्य बना कर मारा गया लाखो घर, मकान, दूकान, फेक्ट्री, गोदाम... सब जला दिए गये l
महाराष्ट्र के हजारों-लाखों ब्राह्मण के घर-मकान-दुकाने-स्टाल फूँक दिए गए। हजारों ब्राह्मणों का खून बहाया गया। ब्राह्मण स्त्रियों के साथ दुष्कर्म किये गए, मासूम नन्हें बच्चों को अनाथ करके सडकों पर फेंक दिया गया, साथ ही वृद्ध हो या किशोर, सबका नाम पूछ पूछ कर चित्पावन ब्राह्मणों को चुन चुन कर जीवित ही भस्म किया जा रहा था... ब्राह्मणों की आहूति से सम्पूर्ण पुणे शहर जल रहा था l
31 जनवरी से लेकर 3 फरवरी 1948 तक जो दंगे हुए थे पुणे शहर में उनमें सावरकर के भाई भी घायल हुए थे l
"ब्राह्मणों... यदि जान प्यारी हो, तो गाँव छोड़कर भाग जाओ.." -
31 जनवरी 1948 को ऐसी घोषणाएँ पश्चिम महाराष्ट्र के कई गाँवों में की गई थीं, जो ब्राह्मण परिवार भाग सकते थे, भाग निकले थे, अगले दिन 1 फरवरी 1948 को कांग्रेसियों द्वारा हिंसा-आगज़नी-लूटपाट का ऐसा नग्न नृत्य किया गया कि इंसानियत पानी-पानी हो गई. ऐसा इसलिए किया गया, क्योंकि "हुतात्मा पंडित नथुराम गोडसे" स्वयम एक चित्पावन ब्राह्मण थे l
पेशवा महाराज, वासुदेव बलवंत फडके, सावरकर, तिलक, चाफेकर, गोडसे, आप्टे आदि सब गौरे रंग तथा नीली आँखों वाले चित्पावन ब्राह्मणों की श्रंखला में आते हैं, जिन्होंने धर्म के स्थापना तथा संरक्ष्ण हेतु समय समय पर कोई न कोई आन्दोलन चलाये रखा, फिर चाहे वो मराठा भूमि से संचालित होकर अयोध्या तक अवध, वाराणसी, ग्वालियर, कानपूर आदि तक क्यों न पहुंचा हो ?
पेशवा महाराज के शौर्य तथा कुशल राजनितिक नेतृत्व से से तो सभी परिचित हैं, 1857 की क्रांति के बाद यदि कोई पहली सशस्त्र क्रांति हुई तो वो भी एक चित्पावन ब्राह्मण द्वारा ही की गई, जिसका नेतृत्व किया वासुदेव बलवंत फडके ने... जिन्होंने एक बार तो अंग्रेजों के कबके से छुडा कर सम्पूर्ण पुणे शहर को अपने कब्जे में ही ले लिया था l
उसके बाद लोकमान्य तिलक हैं, महान क्रांतिकारी चाफेकर बन्धुओं की कीर्ति है, फिर सावरकर हैं जिन्हें कि वसुदेव बलवंत फडके का अवतार भी माना जाता है, सावरकर ने भारत में सबसे पहले विदेशी कपड़ों की होली जलाई, लन्दन गये तो वहां विदेशी नौकरी स्वीकार नही की क्योंकि ब्रिटेन के राजा के अधीन शपथ लेना उन्हें स्वीकार नही था, कुछ दिन बाद महान क्रांतिकारी मदन लाल ढींगरा जी से मिले तो उन्हें न जाने 5 मिनट में कौन सा मन्त्र दिया कि ढींगरा जी ने तुरंत कर्जन वायली को गोली मारकर उसके कर्मों का फल दे दिया l
सावरकर के व्यक्तित्व को ब्रिटिश साम्राज्य भांप चुका था, अत: उन्हें गिरफ्तार करके भारत लाया जा रहा था पानी के जहाज़ द्वारा जिसमे से वो मर्सिलेस के समुद्र में कूद गये तथा ब्रिटिश चैनल पार करने वाले पहले भारतीय भी बने, बाद में सावरकर को दो आजीवन कारावास की सज़ा सुनाई गई l
यह सब इसलिए था क्यूंकि अंग्रेजों को भय था कि कहीं लोकमान्य तिलक के बाद वीर सावरकर कहीं तिलक के उत्तराधिकारी न बन जाएँ, भारत की स्वतन्त्रता हेतु l इसी लिए शीघ्र ही अंग्रेजों के पिठलग्गु विक्रम गोखले के चेले गांधी को भी गोखले का उत्तराधिकारी बना कर देश की जनता को धोखे में रखने का कार्य आरम्भ किया l दो आजीवन कारावास की सज़ा की पूर्णता के बाद सावरकर ने अखिल भारत हिन्दू महासभा की राष्ट्रीय अध्यक्षता स्वीकार की तथा हिंदुत्व तथा राष्ट्रवाद की विचारधारा को जन-जन तक पहुँचाया l
उसके बाद हुतात्मा पंडित नथुराम गोडसे जी का शौर्य आता है, हुतात्मा पंडित नथुराम गोडसे के छोटे भाई गोपाल जी गोडसे भी गांधी वध में जेल में रहे, बाहर निकल कर जब उनसे पूछा गया तो उन्होंने पुरुषार्थ और शालीनता के अनूठे संगम के साथ कहा: ""गाँधी जब जब पैदा होगा तब तब मारुगा"।
यह शब्द गोपाल गोडसे जी के थे जब जेल से छुट कर आये थे l
अभी 25 नवम्बर 2014 को गोडसे फिल्म का MUSIC LAUNCH का कार्यक्रम हुआ था उसमे हिमानी सावरकर जी भी आई थीं, जो लोग हिमानी सावरकर जी को नही जानते, मैं उन्हें बता दूं कि वह वीर सावरकर जी की पुत्रवधू हैं तथा गोपाल जी गोडसे जी की पुत्री हैं, अर्थात नथुराम गोडसे जी की भतीजी भी हैं l
हिमानी जी ने अपने उद्बोधन में बताया कि उनका जीवन किस प्रकार बीता, विशेषकर बचपन...वह मात्र 10 महीने की थीं जब गोडसे जी, करकरे जी, पाहवा जी आदि ने गांधी वध किया उसके बाद पुणे दंगों की त्रासदी ने पूरे परिवार पर चौतरफा प्रहार किया . स्कूल में बहुत ही मुश्किल से प्रवेश मिला,
प्रवेश मिला तो ... आमतौर पर भारत में 5 वर्ष का बच्चा प्रथम कक्षा में बैठता है !
एक 5 वर्ष की बच्ची की सहेलियों के माता-पिता अपनी बच्चियों को कहते थे कि हिमानी गोडसे (सावरकर) से दूर रहना... उसके पिता ने गांधी जी की हत्या की है l
संभवत: इन 2 पंक्तियों का मर्म हम न समझ पाएं... परन्तु बचपन बिना सहपाठियों के भी बीते तो कैसा बचपन रहा होगा... मैं उसका वर्णन किन्ही शब्दों में नही कर सकती , ऐसा असामाजिक, अशोभनीय, अमर्यादित दुर्व्यवहार उस समय के लाखों हिन्दू महासभाईयों के परिवारों तथा संतानों के साथ हुआ lआस पास के लोग... उन्हें कोई सम्मान नही देते थे, हत्यारे परिवार जैसी संज्ञाओं से सम्बोधित करते थे l
गांधी वध के बाद लगभग 20 वर्ष तक एक ऐसा दौर चला कि लोगों ने हिन्दू महासभा के कार्यकर्ता को ... या हिन्दू महासभा के चित्पावन ब्राह्मणों को नौकरी देना ही बंद कर दिया l उनकी दुकानों से लोगों ने सामान लेना बंद कर दिया l
चित्पावन भूरी आँखों वाले ब्राह्मणों का पुणे में सामूहिक बहिष्कार कर दिया गया था गोडसे जी के परिवार से जुड़े लोगो ने 50 वर्षों तक ये निर्वासन झेला. सारे कार्य ये स्वयं किया करते थे l एक अत्यंत ही तंग गली वाले मोहल्ले में 50 वर्ष गुजारने वाले चितपावन ब्राह्मणों को नमन l
अन्य राज्यों के हिन्दू महासभाईयों के ऊपर भी विपत्तियाँ उत्पन्न की गईं... जो बड़े व्यवसायी थे उनके पास न जाने एक ही वर्ष में और कितने वर्षों तक आयकर के छापे, विक्रय कर के छापे, आदि न जाने क्या क्या डालकर उन्हें प्रताड़ित किया गया l
चुनावों के समय भी जो व्यवसायी, व्यापारी, उद्योगपति आदि यदि हिन्दू महासभा के प्रत्याशियों को चंदा देता था तो अगले दिन वहां पर आयकर विभाग के छापे पड़ जाया करते थे l
गांधी वध पुस्तक छापने वाले दिल्ली के सूर्य भारती प्रकाशन के ऊपर भी न जाने कितनी ही बार... आयकर, विक्रय कर, आदि के छापे मार मार कर उन्हें प्रताड़ित किया गया, ये उनका जीवट है कि वे आज भी गांधी वध का प्रकाशन निर्विरोध कर रहे हैं ... वे प्रसन्न हो जाते हैं जब उनके कार्यालय में जाकर कोई उन्हें ... "जय हिन्दू राष्ट्र" से सम्बोधित करता है l
" हिन्दू महासभा ने आखिर किया क्या है ?"
कई बार बताने का मन होता है ... तो बता देते हैं कि क्या क्या किया है... साथ ही यह भी बता देते हैं कि आर.एस.एस को जन्म भी दिया है परन्तु कभी कभी ... परिस्थिति इतनी दुखदायी हो जाती है कि ... निशब्द रहना ही श्रेष्ठ लगता है l
विडम्बना है कि ... ये वही देश है... जिसमे हिन्दू संगठन ... सावरकर की राजनैतिक हत्या में नेहरु के सहभागी भी बनते हैं और हिन्दू राष्ट्रवाद की धार तथा विचारधारा को कमजोर करते हैं l
आप सबसे विनम्र अनुरोध है कि अपने इतिहास को जानें, आवश्यक है कि अपने पूर्वजों के इतिहास को भली भाँती पढें और समझने का प्रयास करें.... तथा उनके द्वारा स्थापित किये गए सिद्धांतों को जीवित रखें lजिस सनातन संस्कृति को जीवित रखने के लिए और अखंड भारत की सीमाओं की सीमाओं की रक्षा हेतु हमारे असंख्य पूर्वजों ने अपने शौर्य और पराक्रम से अनेकों बार अपने प्राणों तक की आहुति दी गयी हो, उसे हम किस प्रकार आसानी से भुलाते जा रहे हैं l
सीमाएं उसी राष्ट्र की विकसित और सुरक्षित रहेंगी ..... जो सदैव संघर्षरत रहेंगे l
जो लड़ना ही भूल जाएँ वो न स्वयं सुरक्षित रहेंगे न ही अपने राष्ट्र को सुरक्षित बना पाएंगे l

Ottoman Empire- Part 1 उस्मानिया साम्राज्य – खिलाफत और खलीफा के संक्षिप्त इतिहास-1,

खिलाफत आंदोलन अधिकांश मित्र नहीं जानते कि यह क्या था या खिलाफत का मतलब ही क्या है वो खिलाफत को खिलाफ का करीबी रिश्तेदार शब्द समझ लेते हैं जबकि खिलाफ होने को उर्दू ही में मुखालफत कहते हैं जबकि ” सुन्नी/वहाबी इस्लामी खलीफा साम्राज्य ” को खिलाफत कहा जाता है ..!!
उस्मानी साम्राज्य (1299 – 1923) या ऑटोमन साम्राज्य या तुर्क साम्राज्य, उर्दू में कहें तो सल्तनत-ए-उस्मानिया 1299 में पश्चिमोत्तर अंतालिया / Antalya से स्थापित एक एक तुर्क इस्लामी सुन्नी साम्राज्य था, महमूद द्वितीय द्वारा 1493 में कॉन्सटेंटिनोपोल / Constantinople जीतने के बाद यह एक वृहद इस्लामी साम्राज्य में बदल गया।
उस्मानी साम्राज्य सोलहवीं-सत्रहवीं शताब्दी में अपने चरम शक्ति पर था, अपनी शक्ति के चरमोत्कर्ष के समय यह एशिया, यूरोप तथा उत्तरी अफ्रीकी हिस्सों में फैला हुआ था , यह साम्राज्य पश्चिमी तथा पूर्वी सभ्यताओं के लिए विचारों के आदान प्रदान के लिए एक सेतु की तरह भी था ,, इस ऑटोमन या उस्मानिया साम्राज्य ने 1453 में कुस्तुनतुनिया / आज के इस्ताम्बूल को जीतकर बैजन्टाईन साम्राज्य का समूल अन्त कर दिया इस्ताम्बुल बाद में इनकी राजधानी बनी रही , एक ऐतिहासिक सत्य यह भी है कि इस्ताम्बूल पर इस खिलाफत की जीत ने यूरोप में पुनर्जागरण को प्रोत्साहित किया था।
चलें पुन: खिलाफत के इतिहास और खिलाफत आंदोलन की ओर चलें,, एशिया माईनर में सन 1300 तक सेल्जुकों का पतन हो गया था पश्चिम अंतालिया में अर्तग्रुल एक तुर्क सेनापति व सरदार था एक समय जब वो एशिया माइनर की तरफ़ कूच कर रहा था तो उसने अपनी चार सौ घुड़सवारों की सेना को भाग्य की कसौटी पर आजमाया उसने हारते हुए पक्ष का साथ दिया और युद्ध जीत लिया उन्होंने जिनका साथ दिया वे सेल्जुक थे तू सेल्जुक प्रधान ने अर्तग्रुल को उपहार स्वरूप एक छोटा-सा प्रदेश दिया,, “अर्तग्रुल के पुत्र उस्मान” ने 1281 में अपने पिता की मृत्यु के पश्चात प्रधान का पद हासिल किया उसने 1299 में अपने आपको सेल्जुकों से स्वतंत्र घोषित कर दिया बस यहीं से महान् तुर्क उस्मानी साम्राज्य व इस्लामी खिलाफत की स्थापना हुई,, इसके बाद जो साम्राज्य उसने स्थापित किया उसे उसी के नाम पर उस्मानी साम्राज्य कहा जाता है (अंग्रेज़ी में ऑटोमन, Ottoman Empire)
तुर्की के ऑटोमन / उस्मानी साम्राज्य का राजसी चिन्ह
यह चिन्ह हमें तुगलकों, ऐबकों समेत मुगल साम्राज्यवाद तक में दिखता रहा है यहां तक कि पुरानी ऐतिहासिक हिंदी ब्लैक एंड व्हाईट व रंगीन फिल्मों में बारंबार उस्मानिया सल्तनत का जिक्र किया जाता है।मुराद द्वितीय के बेटे महमद या महमूद द्वितीय ने राज्य और सेना का पुनर्गठन किया और 29 मई 1453 को कॉन्सटेंटिनोपोल जीत लिया,, महमद ने तत्कालीन रूढ़िवादी चर्च की स्वायत्तता भी बनाये रखी और बदले में ऑर्थोडॉक्स चर्च ने उस्मानी प्रभुत्ता स्वीकार कर ली, चूँकि बाद के बैजेन्टाइन साम्राज्य और पश्चिमी यूरोप के बीच रिश्ते अच्छे नहीं थे इसलिए ज्यादातर रूढ़िवादी/ऑर्थोडॉक्स ईसाईयों ने विनिशिया/बेजेन्टाईन के शासन के बजाय उस्मानी शासन को ज्यादा पसंद किया ,,पन्द्रहवीं और सोलहवीं शताब्दी में उस्मानी साम्राज्य का विस्तार हुआ, उस दौरान कई प्रतिबद्ध और प्रभावी सुल्तानों के शासन में साम्राज्य खूब फला फूला, यूरोप और एशिया के बीच के व्यापारिक रास्तो पर नियंत्रण की वजह से उसका आर्थिक विकास भी काफी हुआ।
सुल्तान सलीम प्रथम (1512-1520) ने पूर्वी और दक्षिणी मोर्चों पर चल्द्रान की लड़ाई में फारस के साफवी/शिया राजवंश के शाह इस्माइल को हराया!
“शाह इस्माइल ही फारस / ईरान को वो बादशाह था जिसके साथ तथाकथित मोगुल सरदार ज़हीरूद्दीन मुहम्मद बाबर ने संधि करके बाबर ने अपने को शिया परम्परा में ढाल कर दिया उसने शिया मुसलमानों के अनुरूप वस्त्र पहनना आरंभ किया ,, शाह इस्माईल के शासन काल में फ़ारस शिया मुसलमानों का गढ़ बन गया और वो अपने आप को सातवें शिया इमाम मूसा अल क़ाज़िम का वंशज मानता था, वहाँ सिक्के शाह के नाम में ढलते थे तथा मस्जिद में खुतबे शाह इस्माइल के नाम से पढ़े जाते थे हालाँकि क़ाबुल में सिक्के और खुतबे बाबर के नाम से ही थे और मोगुल सरदार बाबर समरकंद का शासन शाह इस्माईल के सहयोगी की हैसियत से चलाता था,, शाह की मदद से बाबर ने बुखारा पर चढ़ाई की वहाँ पर बाबर, एक तैमूरवंशी होने के कारण, लोगों की नज़र में उज़्बेकों के मुक्तिदाता के रूप में देखा गया और गाँव के गाँव उसको बधाई देने के लिए खाली हो गए इसके बाद बाबर ने सत्ता मदान्ध होकर फारस के शाह इस्माइल की मदद को अनावश्यक समझकर शाह की सहायता लेनी बंद कर दी और अक्टूबर 1511 में उसने अपनी जन्मभूमि समरकंद पर चढ़ाई की और एक बार फिर उसे अपने अधीन कर लिया वहाँ भी उसका स्वागत हुआ और एक बार फिर गाँव के गाँव उसको बधाई देने के लिए खाली हो गए वहाँ सुन्नी मुसलमानों के बीच वह शिया वस्त्रों में एकदम अलग लगता था हालाँकि उसका शिया हुलिया सिर्फ़ शाह इस्माईल के प्रति साम्यता और वफादारी को दर्शाने के लिए था, उसने अपना शिया स्वरूप बनाए रखा यद्यपि उसने फारस के शाह को खुश करने हेतु सुन्नियों का नरसंहार नहीं किया पर उसने शिया के प्रति आस्था भी नहीं छोड़ी जिसके कारण जनता में उसके प्रति भारी अनास्था की भावना फैल गई इसके फलस्वरूप, 8 महीनों के बाद, कट्टर सुन्नी उज्बेकों ने समरकंद पर फिर से अधिकार कर लिया।
तब फरगना घाटी के ओश शहर (वर्तमान के किर्गीजस्तान देश का दूसरा बडा शहर ओश/Osh) में पवित्र सुलेमान पहाड के निकटस्थ अपने घर में रहते बाबर को लगता था कि दिल्ली सल्तनत पर फिर से तैमूरवंशियों का शासन होना चाहिए एक तैमूरवंशी होने के कारण वो दिल्ली सल्तनत पर कब्ज़ा करना चाहता था उसने दिल्ली के सुल्तान इब्राहिम लोदी को अपनी इच्छा से अवगत कराया पर इब्राहिम लोदी के जबाब नहीं आने पर उसने छोटे-छोटे आक्रमण करने आरंभ कर दिए सबसे पहले उसने कंधार पर कब्ज़ा किया इधर फारस के शाह इस्माईल को तुर्कों के हाथों भारी हार का सामना करना पड़ा इस युद्ध के बाद शाह इस्माईल तथा बाबर, दोनों ने बारूदी हथियारों की सैन्य महत्ता समझते हुए इसका उपयोग अपनी सेना में आरंभ किया,, इसके बाद उसने इब्राहिम लोदी पर आक्रमण किया,, पानीपत में लड़ी गई इस लड़ाई को पानीपत का प्रथम युद्ध के नाम से जानते हैं इसमें बाबर की सेना इब्राहिम लोदी की सेना के सामने बहुत छोटी थी पर सेना में संगठन के अभाव में इब्राहिम लोदी यह युद्ध बाबर से हार गया और इसके बाद दिल्ली की सत्ता पर बाबर का अधिकार हो गया और उसने सन 1526 में मुगलवंश की नींव डाली।”
हाँ तो हम मूलतः बात कर रहे थे उस्मानिया साम्राज्य व खिलाफत की जिसमें सुल्तान सलीम प्रथम (1512-1520) ने पूर्वी और दक्षिणी मोर्चों पर चल्द्रान की लड़ाई में फारस के साफविया/साफवी राजवंश के शाह इस्माइल को हराया और इस तरह उसने नाटकीय रूप से साम्राज्य का विस्तार किया,, उसने मिस्र में उस्मानी साम्राज्य स्थापित किया और लाल सागर में नौसेना खड़ी की, उस्मानी साम्राज्य के इस विस्तार के बाद पुर्तगाली और उस्मानी साम्राज्य के बीच उस इलाके की प्रमुख शक्ति बनने की होड़ लग गई।
शानदार सुलेमान (1512-1566) ने 1521 में बेलग्रेड पर कब्ज़ा किया उसने उस्मानी-हंगरी युद्धों में हंगरी राज्य के मध्य और दक्षिणी हिस्सों पर विजय प्राप्त की,,1526 की मोहैच की लड़ाई में एतिहासिक विजय प्राप्त करने के बाद उसने तुर्की का शासन आज के हंगरी (पश्चिमी हिस्सों को छोड़ कर) और अन्य मध्य यूरोपीय प्रदेशो में स्थापित किया,,1529 में उसने वियना पर चढाई की पर शहर को जीत पाने में असफल रहा,,1532 में उसने वियना पर दुबारा हमला किया पर गून्स की घेराबंदी के दौरान उसे वापस धकेल दिया गया, समय के साथ ट्रांसिल्वेनिया, वेलाचिया (रोमानिया) और मोल्दाविया(आज का Maldova देश) उस्मानी साम्राज्य की आधीनस्त रियासतें बन गयी। पूर्व में 1535 में उस्मानी तुर्कों ने फारसियों से बग़दाद जीत लिया और इस तरह से उन्हें मेसोपोटामिया पर नियंत्रण और फारस की खाड़ी जाने के लिए नौसनिक रास्ता मिल गया।
फ्रांस और उस्मानी साम्राज्य हैंब्सबर्ग के शासन के विरोध में संगठित हुए और पक्के सहयोगी बन गए। फ्रांसिसियो ने 1543 में नीस पर और 1553 में कोर्सिका पर विजय प्राप्त की ये जीत फ्रांसिसियो और तुर्को के संयुक्त प्रयासों का परिणाम थी जिसमे फ्रांसिसी राजा फ्रांसिस प्रथम और सुलेमान की सेनायों ने हिस्सा लिया था और जिसकी अगुवाई उस्मानी नौसेनाध्यक्षों बर्बरोस्सा हयरेद्दीन पाशा और तुर्गुत रईस ने की थी।
1543 में नीस पर कब्जे से एक महीने पहले फ्रांसिसियो ने उस्मानियो को सेना की एक टुकड़ी दे कर एस्तेरेगोम पर विजय प्राप्त करने में सहायता की थी,,1543 के बाद भी जब तुर्कियों का विजयाभियान जारी रहा तो आखिरकार 1547 में हैंब्सबर्ग के शासक फेर्डिनांड / Ferdinand ने हंगरी का उस्मानी साम्राज्य में आधिकारिक रूप से विलय स्वीकार कर लिया।
इस तरह विश्वप्रसिद्ध उस्मानी साम्राज्य / उस्मानिया सल्तनत / इस्लामी खलीफा की खिलाफत का उदय हुआ था अब हम भारत चलते हैं और खिलाफत की हुक्मरानी / निर्देश मानने की बाध्यता के कुछ उदाहरण लेते हैं।
मिसाल के तौर पर सुल्तान शम्सुद्दीन अल्तमश (1211-1236) शहंशाह ऐ हिन्दुस्तान (विश्वप्रसिद्ध रजिया सुल्तान का बाप) के ज़माने के चान्दी के सिक्के है, जिनके एक तरफ खलीफा अलमुस्तंसिर तुर्की के सम्राट / खलीफा ऐ खिलाफत और दूसरी तरफ खुद अल्तमश का नाम खलीफा के नायब की हैसियत से लिखा है।
हिन्दुस्तान मे इस्लामी हुकूमत के दौर मे इस्लाम के विद्वान बडे औलमा पैदा हुऐ मसलन हज़रत शेख अहमद सरहिन्दी (रहमतुल्लाहे अलैय) जिन की वफात 1624 इसवी मे दिल्ली मे हुई यह फिक़हे इस्लामी के बहुत बडे आलिम/विद्वान थे जो मुजद्दिद अल्फसानी के नाम से जाने जाते है उन्होने उस्मानी खलीफा को 536 खत व खुस्बे लिखे जिन का मजमून /मतलब “मक्तूबात” के नाम से मशहूर है..!!
अब हम सब भारत में और दुनिया में खिलाफत या ऑटोमन साम्राज्य के तथाकथित पतन और बहुप्रचारित ‘इस्लाम खतरे में के जन्म की किवदंती’ की ओर चलते हैं ..!
19 वीं शताब्दी में जो दुनिया पश्चिमी साम्राज्यवादिता की घोषित ताकतों ने बनाई वह (1) मुक्त व्यापार, (2) गोल्ड स्टैण्डर्ड, (3) बैलेंस ऑफ़ पॉवर और (4) औपनिवेशिक लूट के उपर आधारित थी…!!
1814 से 1914 तक पश्चिम की साम्राज्यवादी शक्तियों के बीच में शांति बनी रही और उनकी आक्रामक शक्ति एशिया-अफ्रीका के देशों व क्षेत्रों के खिलाफ इस्तेमाल होती रही इसमे यूरोप की एक साम्राज्यवादी ताकत नें दूसरी साम्राज्यवादी ताकत के प्रभाव क्षेत्र में हस्तक्षेप नहीं किया,,वास्तविकता में 19 वीं सदी एक क्रूर सदी थी जिसमे हर साल एक नया युद्ध होता था, 1857 में हिन्दुस्तान की जंग ऐ आजादी को ब्रिटिश हूकूमत द्वारा बर्बरता से दबा दिया गया और अन्य यूरोपियन शक्तियों ने इसमें भी हस्तक्षेप नहीं किया..!!
उधर अरब में वहाबी विचारधारा के प्रवर्तक मुहम्मद इब्न अब्दुल वहाब का जन्म 1703 में उयायना, नज्द के बनू तमीम कबीले में हुआ था , इस्लामी शिक्षा की चार व्याख्याओं में से एक हम्बली व्याख्या का उसने बसरा, मक्का और मदीना में अध्ययन किया इब्न अब्दुल वहाब की राजनीतिक महत्त्वाकांक्षाएं काफी थीं सो 1730 में उयायना लौटने के साथ ही उसने स्थानीय नेता “मुहम्मद इब्न सऊद” (सऊदी अरब का संस्थापक शेख बादशाह) से एक समझौता किया, जिसमें दोनों परिवारों ने मिल कर सऊदी साम्राज्य खड़ा करने की सहमति बनाई ,तय हुआ कि सत्ता कायम होने पर सऊद परिवार को राजकाज मिलेगा; हज और धार्मिक मामलों पर इब्न अब्दुल वहाब के परिवार यानी अलशेख का कब्जा रहेगा (यही समझौता आज तक कायम है) सऊदी अरब का बादशाह अल सऊद-परिवार से होता है और हज और मक्का-मदीने की मस्जिदों की रहनुमाई वहाबी-सलफी विचारधारा वाले अल शेख परिवार के वहाबी इमामों के हाथ होती है, इब्न अब्दुल वहाब की विचारधारा को कई नामों से जाना जाता है, उसके नाम के मुताबिक उसकी कट्टर विचारधारा को वहाबियत यानी वहाबी विचारधारा कहा जाता है और खुद इब्न अब्दुल वहाब ने अपनी विचारधारा को सलफिया यानी ‘बुजुर्गों के आधार पर’ कहा था। आज दुनिया में वहाबी और सलफी नाम से अलग-अलग पहचानी जाने वाली विचारधारा दरअसल एक ही चीज है।
पूर्वी तट से लेकर दक्षिण के खतरनाक तापमान वाले रबी उल खाली के रेगिस्तान और उत्तर के नज्द (वर्तमान राजधानी रियाद का इलाका) और पश्चिमी तट के हिजाज (मक्का और मदीना सहित प्रांत) को वहाबी विचारधारा के एक झंडे के नीचे लाने में सऊद परिवार ने दो सौ साल संघर्ष किया और जहां-जहां वे इलाका जीतते, सलफी उर्फ वहाबी विचारधारा के मदरसे खोलते गए बद्दुओं यानी ग्रामीण कबीलों में बंटे अरबों को एक नकारात्मकतावादी विचारधारा के तहत लाकर 1922 और फिर 1925 के संघर्ष में अल सऊद ने वर्तमान सऊदी अरब के लगभग सारे इलाके जीत लिए, अब्दुल अजीज इब्न सऊद को इस संघर्ष में ब्रिटेन ने जोरदार सहयोग किया ब्रिटेन जानता था कि उस्मानिया खिलाफत को मार भगाने के लिए अब्दुल अजीज इब्न सऊद ही उसकी मदद कर सकता है क्योंकि आगामी राजनीति और आर्थिक नीति के सबसे बडे बम “कच्चे तेल / काले सोने” की खोज हो चुकी थी और दुनिया गाड़ी, टैंक, कार पर चलनी शुरू हो चुकी थी ।
जब भारत के लोग 1919 में महात्मा गांधी समर्थित और मौलाना महमूद हसन, मौलाना मुहम्मद अली जौहर, मौलाना हसरत मोहानी, मौलाना अबुल कलाम आजाद समेत कई मुसलिम नेताओं की अगुआई में हिजाज यानी मक्का और मदीना के पवित्र स्थल ब्रिटेन के हाथों में जाने के डर से खिलाफत आंदोलन चला रहे थे, अब्दुल अजीज इब्न सऊद ब्रिटेन के साथ मिल कर उस्मानिया खिलाफत और स्थानीय कबीलों को मार भगाने के लिए लड़ रहा था अंग्रेजों के दिए हथियार और आर्थिक मदद से अब्दुल अजीज इब्न सऊद ने वर्तमान सऊदी अरब की स्थापना की और वर्षों से ‘वक्फ’ यानी ‘धर्मार्थ समर्पित सार्वजनिक स्थल’ वाले मक्का और मदीना के संयुक्त नाम ‘हिजाज’ को भी ‘सऊदी अरब’ कर दिया गया साथ ही खिलाफत को खत्म करने के पीछे इन अंग्रेजियत व सुन्नी; वहाबी कारणों के अलावा भी एक और कारण था और वो था कि अगस्त 4, 1914 को ब्रिटेन ने जर्मनी पर युद्ध की घोषणा कर दी जापान फ्रांस और रूस उसके साथ शामिल हो गए अक्टूबर 1914 में तुर्की जर्मनी और ऑस्ट्रिया के साथ युद्ध में शामिल हो गया और प्रथम विश्वयुद्ध में दो पक्ष थे ,,,एक तरफ अलाइड ताकतें – ब्रिटेन , फ्रांस और रूस तथा दूसरी तरफ सेंट्रल ताकतें जिसमे जर्मनी तथा आस्ट्रियन हैंब्सबर्ग राज्य,, अलाइड ताकतों के साथ बाद में अमेरिका भी शामिल हो गया क्योंकि अरब का तेल और लाल सागर सबकी आंखों.में वहां की अनपढता और जहालत के कारण नजर में आ चुका था।
बस सेंट्रल ताकतों के साथ बाद में तुर्की शामिल हो गया जापान और इटली प्रथम विश्वयुद्ध में पक्षरहित/न्यूट्रल रहे,,यह युद्ध कितना भयानक ,,, कितना ही भयानक था इसकी चर्चा करना बहुत अनावश्यक है बस यह जान लेना काफी है कि सभी साम्राज्यवादी शक्तियों ने एक दूसरे के खिलाफ मोर्चाबंदी में लगभग 6 करोड़ सेनाओं को गोलबंद किया और लगभग साठ लाख लोग इस लड़ाई में मारे गए, तत्कालीन ब्रिटिशकाल के हिंदुस्तान की फ़ौज की संख्या लगभग 10 लाख थी और इसके 1 लाख से ज्यादा भारतीय लोग लड़ाई में मारे गए, लेकिन ब्रिटिश नेतृत्व की गुलाम हिंदुस्तान की फ़ौज ने मध्य एशिया मे उस्मानी सल्तनत को हराने में बहुत अहम् भूमिका अदा की जिसके दूरगाम परिणाम हुए…!!
अब तक हमने उस्मानिया सल्तनत / उस्मानी साम्राज्य / खलीफा ऐ खिलाफत का ही आधारभूत मानकर तथा इतिहास की कडी कडी जोडकर और फिर हिंदुस्तान के परिप्रेक्ष्य में प्रारंभिक मतलबों से ही जाना है अब आगे हम वास्तविक खिलाफत आंदोलन के बारे में और उसके ढंके छुपे वास्तविक सत्य का पूरा पोस्टमार्टम करके अकाट्य दस्तावेजी सबूतों व तथ्यों सहित पूरा इतिहास व सच खोदक
खिलाफत आन्दोलन (1919-1924) तत्कालीन ब्रिटिश हिंदुस्तान में मुख्यत: मुसलमानों द्वारा चलाया गया राजनैतिक-धार्मिक आन्दोलन था,, इस आन्दोलन का उद्देश्य तुर्की में खलीफा ऐ खिलाफत यानि सुन्नी इस्लामी साम्राज्य के बादशाह खलीफा के पद की पुन:स्थापना कराने के लिये अंग्रेजों पर दबाव बनाना था,, सन् 1908 ई. में तुर्की में युवा तुर्की दल (ब्रिटिश समर्थन से मुस्तफा कमाल पाशा “अतातुर्क” के दल) द्वारा शक्तिहीन हो चुके खलीफा के प्रभुत्व का उन्मूलन खलीफत (खलीफा के पद) की समाप्ति का प्रथम चरण था, इसका भारतीय मुसलमान जनता पर नगण्य प्रभाव पड़ा किंतु, 1912 में तुर्की-इतालवी तथा बाल्कन युद्धों में, तुर्की के विपक्ष में, ब्रिटेन के योगदान को इस्लामी संस्कृति तथा सर्व इस्लामवाद / इस्लामी उम्मा पर प्रहार समझकर (यही समझाया गया था) भारतीय ‘मुसलमान’ ब्रिटेन के प्रति उत्तेजित हो उठे, यह विरोध भारत में ब्रिटिश शासन के विरुद्ध रोषरूप में परिवर्तित हो गया यह भी कहा व लिखा गया है जबकि मूलतः इसका भारत में ब्रिटिश विरोध से कुछ लेना देना ही नहीं था।
भारतीय इतिहास में खिलाफत आन्दोलन का वर्णन तो है किन्तु कही विस्तार से नहीं बताया गया कि खिलाफत आन्दोलन वस्तुत:भारत की स्वाधीनता के लिए नहीं अपितु वह एक राष्ट्र विरोधी व हिन्दू विरोधी आन्दोलन था ,, खिलाफत आन्दोलन दूर स्थित देश तुर्की के खलीफा को गद्दी से हटाने के विरोध में भारतीय मुसलमानों द्वारा चलाया गया आन्दोलन था, चतुर राजनीतिज्ञ और वस्तुतः अंग्रेज मित्रों द्वारा असहयोग आन्दोलन भी खिलाफत आन्दोलन की सफलता के लिए चलाया गया आन्दोलन ही था आज भी अधिकांश भारतीयों को यही पता है कि असहयोग आन्दोलन स्वतंत्रता प्राप्ति हेतु चलाया गया कांग्रेस का प्रथम आन्दोलन था किन्तु सत्य तो यही है कि इस आन्दोलन का कोई भी राष्ट्रीय लक्ष्य नहीं था।
इस आंदोलन की सबसे मजेदार बात यह है कि तुर्की की “इस्लामिक” जनता ने बर्बर व रूढिवादी इस्लामी कानूनों से तंग आ कर एकजुटता से मुस्तफा कमाल पाशा ‘अतातुर्क’ ( तुर्क भाषा में अतातुर्क का मतलब तुर्की का पिता या तुर्कों का राष्ट्रपिता सरीखा होता है, तुर्की,चुगताई,उज्बेक,कजाख,किर्गीज,मंगोल व पूर्वी यूरोपियन देशों, कफकाजी देशों की स्थानीय भाषा में अता /Ata का मतलब पिता ही होता है) के सटीक नेतृत्व में तुर्की के खलीफा को देश निकला दे दिया था ,, भारत में अखिल भारतीय खिलाफत कमेटी ने जमियत-उल-उलेमा के सहयोग से ही खिलाफत आंदोलन का संगठन किया तथा मोहम्मद अली जौहर ने 1920 में खिलाफत घोषणापत्र प्रसारित किया, भारत में मोहम्मद अली जौहर व शौकत अली जौहर दो भाई खिलाफत आंदोलन का नेतृत्व कर रहे थे..!!
तो मित्रों खिलाफत आंदोलन के जन्मदाताओं में से प्रमुख मौलाना मोहम्मद अली जौहर 1878 में रामपुर में पैदा हुए .(जी हां आज के महा बकैत आजम खां के विधानसभा क्षेत्र रामपुर में, जहां उसने जमीनें हडप कर/अलॉट करवा कर मौ.मोहम्मद अली जौहर यूनिवर्सिटी बनाई है,,गत 18 सितम्बर, 2012 को रामपुर (उप्र) में मौलाना मोहम्मद अली जौहर के नाम पर एक विश्वविधालय का उदघाटन मुख्यमंत्री अखिलेश यादव ने किया। इस अवसर पर उनके पिता श्री मुलायम सिंह तथा प्रदेश की लगभग पूरी सरकार मय महाबकैत मंत्री आजम खां वहां उपस्थित रही थी)
तो मित्रों कांग्रेस के लंपट परिवार के अलावा बाकी इतिहास में जिन अली भाइयों (मोहम्मद अली तथा शौकत अली) का नाम आता है, ये उनमें से एक थे, रोहिल्ला पठानों के यूसुफजर्इ कबीले से सम्बद्ध जौहर का जन्म 10 दिसम्बर, 1878 को रामपुर में हुआ था,, देवबंद, अलीगढ़ और फिर आक्सफोर्ड से उच्च शिक्षा प्राप्त कर इनकी इच्छा थी कि वे प्रशासनिक सेवा में जाकर अंग्रेजों की चाकरी करें, इसके लिए इन्होंने कर्इ बार आर्इ.सी.एस की परीक्षा दी पर कभी सफल हो ही नहीं सके सो विवश होकर उन्हें रामपुर में उच्च शिक्षा अधिकारी के पद पर काम करना पड़ा, कुछ दिनों तक उन्होंने रियासत बड़ौदा में भी काम किया, लेकिन मौलाना को उपर वाले ने किसी और ‘काम’ के लिए पैदा किया था, शुरू से ही उनकी ख्वाहिश थी कि वह पत्रकारिता को अपना पेशा चुने तो 1910 से उन्होंने कलकत्ता से एक अंग्रेज़ी अख़बार कामरेड निकालना शुरू किया, 1912 में जब अंग्रेज़ों ने दिल्ली को अपना केंद्र बना लिया तो मौलाना जौहर भी दिल्ली आ गए और यहां से उन्होंने 1914 से उर्दू दैनिक हमदर्द निकालना शुरू किया ये दोनों अपने समय के मशहूर इस्लामी अख़बार थे, फिर ये हिन्दुओं को धर्मान्तरित कर इस्लाम की सेवा करने लगे इसके पुरस्कारस्वरूप इन्हें मौलाना की पदवी दी गयी, प्रथम विश्व युद्ध में तुर्की ने अंग्रेजों के विरुद्ध जर्मनी का साथ दिया। इससे नाराज होकर अंग्रेजों ने युद्ध जीतकर तुर्की को विभाजित कर दिया तुर्की के शासक को मुस्लिम जगत में ‘खलीफा कहा जाता था उसका सुन्नी इस्लामी साम्राज्य टूटने से मुसलमान नाराज हो गये तब ये दोनो अली भार्इ तुर्की के शासक को फिर खलीफा बनवाना चाहते थे,,तब अबुलकलाम आजाद,जफर अली खाँ तथा मोहम्मद अली जौहर ने मिलकर अखिल भारतीय खिलाफत कमेटी बनाई इस खिलाफत कमेटी ने जमियत-उल-उलेमा के सहयोग से खिलाफत आंदोलन का सुनियोजित संगठन किया तथा मोहम्मद अली ने 1920 में खिलाफत घोषणापत्र प्रसारित किया था,, उधर अस्तित्व को जूझ रही वकीलों और जमींदारों की पार्टी कांग्रेस और उसके रणनीतिक चाणक्य बने बैठे “महात्मा” गांधी चाहते थे कि मुसलमान भारत की ‘आजादी के आंदोलन’ से किसी भी तरह जुड़ जाएं। अत: उन्होंने 1921 में अखिल भारतीय खिलाफत कमेटी से जुड कर ‘खिलाफत आंदोलन’ की घोषणा कर दी,,यद्यपि इस आंदोलन की पहली मांग खलीफा पद की पुनर्स्थापना तथा दूसरी मांग भारत की डोमेनियन स्टेट की मांग यानि / स्वायतशाषी देश की मांग थी,,काँग्रेस की इस मांग की जड में भी ब्रिटिश अमेरिकन “कच्चा तेल रणनीति और भविष्य की अर्थव्यवस्था व यातायात की धुरी” बनने जा रहा अरब का तेल ही था, इस तेल हेतु उधर अरब में ब्रिटेन सऊदों और वहाबी गठजोड को इस्तेमाल कर रहा था तो इधर गांधी महात्मा व कांग्रेस के जरिये तथा अपने स्तर पर सिर्फ ‘हिंदुस्तानी फौज’ (सनद रहे ब्रिटिश फौज नहीं) बढा रहा था डोमेनियन स्टेट के वादे के झांसे में,, कुल मिला कर ब्रिटिश व यूरोपीय साम्राज्यवादिता को काले सोने की उपयोगिता व भविष्य की कुल अर्थव्यवस्था की जड समझ आ गई थी और कांग्रेस व गांधी को सत्ता ही समझ आ पाई थी…!!
मूढ मुसलमान सुन्नी इस्लामी उम्मत और खलीफा, खिलाफत के आगे सोचने लायक तो थे ही नहीं उन्हे बस 1000 साल से हिंदुस्तान पर की गई तथाकथित हूकूमत का टिमटिमाहट वाला बुझता दिया इस्लामी रोशनी के साये में उम्मीद जगाने हेतु मिल गया था।
तब भावी सत्ता व अन्य अप्रत्यक्ष कारणों के मद्देनजर लालची कांग्रेस ने मुस्लिम तुष्टीकरण का जो देशघाती मार्ग उस समय अपनाया था,उसी पर आज तक कांग्रेस समेत उसकी नाजायज ‘सेक्यूलर संताने’ बने हुऐ भारत के सभी राजनीतिक दल चल रहे हैं..!!
इस खिलाफत आंदोलन के दौरान ही मोहम्मद अली जौहर ने अफगानिस्तान के शाह अमानुल्ला को तार भेजकर भारत को दारुल इस्लाम बनाने के लिए अपनी सेनाएं भेजने का अनुरोध किया इसी बीच तुर्की के खलीफा सुल्तान अब्दुल माजिद अंग्रेजों की ही शरण में आकर सपरिवार माल्टा चले गये, आधुनिक विचारों के समर्थक मुस्तफा कमाल पाशा ‘अतातुर्क’ नये शासक बने और देशभक्त तुर्क जनता ने भी उनका साथ दिया इस प्रकार वास्तविकता में तो खिलाफत आंदोलन अपने घर तुर्की में पैदा होने से पहले ही मर गया पर भारत में इसके नाम पर अली भाइयों ,खिलाफत कमेटी, जमात उल उलेमा और कांग्रेस ने ने अपनी रोटियां अच्छी तरह सेंक लीं,
भारत आकर मोहम्मद अली जौहर ने भारत को दारुल हरब (संघर्ष की भूमि) कहकर मौलाना अब्दुल बारी से हिजरत का फतवा जारी करवाया। इस पर हजारों मुसलमान अपनी सम्पत्ति बेचकर अफगानिस्तान चल दिये इनमें उत्तर भारतीयों की संख्या सर्वाधिक थी पर वहां उनके ही तथाकथित मजहबी भाइयों / इस्लामी उम्मा ने ही उन्हें खूब मारा तथा उनकी सम्पत्ति भी लूट ली, वापस लौटते हुए उन्होंने देश भर में दंगे और लूटपाट की ,केरल में तो 20,000 हिन्दू धर्मांतरित किये गये,इसे ही ‘मोपला कांड भी कहा जाता है …
उन दिनों कांग्रेस के अधिवेशन वंदेमातरम के गायन से प्रारम्भ होते थे, 1923 का अधिवेशन आंध्र प्रदेश में काकीनाड़ा नामक स्थान पर था,, मोहम्मद अली जौहर उस समय कांग्रेस के अध्यक्ष थे जब प्रख्यात गायक विष्णु दिगम्बर पलुस्कर ने वन्देमातरम गीत प्रारम्भ किया, तो मोहम्मद अली जौहर ने इसे इस्लाम विरोधी बताकर रोकना चाहा इस पर श्री पलुस्कर ने कहा कि यह कांग्रेस का मंच है, कोर्इ मस्जिद नहीं और उन्होंने पूरे मनोयोग से वन्दे मातरम गाया। इस पर जौहर विरोधस्वरूप मंच से उतर गया था।
इसी अधिवेशन के अपने अध्यक्षीय भाषण में जौहर ने 1911 के बंगभंग की समापित को अंग्रेजों द्वारा मुसलमानों के साथ किया गया विश्वासघात बताया। उन्होंने पूरे देश को कर्इ क्षेत्रों में बांटकर इस्लाम के प्रसार के लिए विभिन्न गुटों को देने तथा भारत के सात करोड़ दलित हिन्दुओं को मुसलमान बनाने की वकालत की ,, उनकी इन देशघाती नीतियों के कारण कांग्रेस में ही उनका प्रबल विरोध होने लगा अत: वे कांग्रेस छोड़कर अपनी पुरानी संस्था मुस्लिम लीग में चले गये, मुस्लिम लीग से उन्हें प्रेम था ही चूंकि 1906 में ढाका में इसके स्थापना अधिवेशन में उन्होंने भाग लिया था 1918 में वे इसके अध्यक्ष भी रहे थे,,मोहम्मद अली जौहर 1920 में दिल्ली में प्रारम्भ किये गये जामिया मिलिया इस्लामिया के भी सहसंस्थापक थे 19 सितम्बर, 2008 को बटला हाउस मुठभेड़ में इस संस्थान की भूमिका बहुचर्चित रही है, जिसमें वरिष्ठ पुलिस अधिकारी मोहन चंद्र शर्मा ने प्राणाहुति दी थी।
मोहम्मद अली जौहर ने 1924 के मुस्लिम लीग के अधिवेशन में सिंध से पशिचम का सारा क्षेत्र अफगानिस्तान में मिलाने की मांग की थी और तो और गांधी के बारे में पहला सार्वजनिक कटु व अकाट्य सत्य उन्होने ही कहा था, 1930 के दांडी मार्च के समय गांधी जी की लोकप्रियता देखकर मोहम्मद अली जौहर ने कहा था कि “व्यभिचारी से व्यभिचारी मुसलमान भी गांधी से अच्छा है।”
1931 में वे मुस्लिम लीग की ओर से लंदन के गोलमेज सम्मेलन में भाग लेने गये वहीं 4 जनवरी, 1931 को उनकी मृत्यु हो गयी मरने से पहले उन्होंने दारुल हरब भारत की बजाय दारुल इस्लाम मक्का में दफन होने की इच्छा व्यक्त की थी पर मक्का के वहाबियों ने इस सुन्नी के शरीर को इसकी अनुमति नहीं दीअत: उन्हें येरुशलम में दफनाया गया,, यहां यह भी ध्यान देने की महत्वपूर्ण बात है कि मोहम्मद अली जिन्ना पहले भारत भक्त ही थे उन्होंने इस खिलाफत आंदोलन का प्रखर विरोध किया था पर जब उन्होंने गांधी जी के नेतृत्व में पूरी कांग्रेस को अली भाइयों तथा मुसलमानों की अवैध मांगों के आगे झुकते देखा, तो वे भी इसी मार्ग पर चल पड़े। जौहर की मृत्यु के बाद जिन्ना मुसलमानों के एकछत्र नेता और फिर पाकिस्तान के निर्माता बन गये।
दूर देश तुर्की में मुस्लिम राज्य/ इस्लामी उम्मा/ खिलाफत की पुन: स्थापना के लिए स्वराज्य की मांग को कांग्रेस द्वारा ठुकराना और भारत व हिंदू विरोधी इस आन्दोलन को चलाना किस प्रकार राष्ट्रवादी था या कितना राष्ट्रविरोधी भारतीय इतिहास में इस सत्य का लिखा जाना अत्यंत आवश्यक है अन्यथा भारतीय आजादी का दंभ भरने वाली कांग्रेस लगातार भारत को ऐसे ही झूठ भरे इतिहास के साथ गहन अन्धकार की और रहेगी।
महात्मा गांधी ने 1920-21 में खिलाफत आंदोलन क्यों चलाया, इसके दो दृष्टिकोण हैं –
★ एक वर्ग का कहना था कि गांधी की उपरोक्त रणनीति व्यवहारिक अवसरवादी गठबंधन का उदाहरण था, मोहनदास करमचंद गाँधी ने कहा था “यदि कोई बाहरी शक्ति ‘इस्लाम की प्रतिष्ठा’ की रक्षा के लिए और न्याय दिलाने के लिए आक्रमण करती है तो वो उसे वास्तविक सहायता न भी दें तो उसके साथ उनकी पूरी सहानुभूति रहेगी “(गांधी सम्पूर्ण वांग्मय – 17.527 – 528) ,वे समझ चुके थे कि अब भारत में शासन करना अंग्रेजों के लिए आर्थिक रूप से महंगा पड़ रहा है अब उन्हें हमारे कच्चे माल की उतनी आवश्यकता नहीं है अब सिन्थेटिक उत्पादन बनाने लगे हैं, अंग्रेजों को भारत से जो लेना था वे ले चुके हैं सो अब वे जायेंगे (जो कि मैं उपर, काँग्रेस + ब्रिटिश झांसे समेत सऊदी,ब्रिटेन अमेरिकी गठबंधन और सुन्नी खिलाफत खत्म कर वहाबी सऊदियों और मक्का मदीना पर उनके अधिकार सहित एकछत्र इस्लामी बादशाह बनने की सुनियोजित नीति और कच्चा तेल आधारित अर्थव्यवस्था और भविष्य पर बता चुका हूँ।) अत: अगर शांति पूर्वक असहयोग आंदोलन चलाया जाए, सत्याग्रह आंदोलन चलाया जाए तो वे जल्दी चले जाएंगे, इसके लिए (तथाकथित) हिन्दू-मुस्लिम एकता ( जो दौराने खिलाफत और आजतक नहीं हुई हम सभी अब साक्षी हैं) आवश्यक है दूसरी ओर अंग्रेजों ने इस राजनीतिक गठबंधन को तोड़ने की चाल चली (जो साबित कर चुका हूं पर दूसरे अनकहे नजरिये और विश्लेषण से).. एक दूसरा दृष्टिकोण भी है। वह मानता है कि गांधी ने इस्लाम के पारम्परिक स्वरूप को पहचाना था। धर्म के ऊपरी आवरण को दरकिनार करके उन्होंने हिन्दू-मुस्लिम एकता के स्वभाविक आधार को देख लिया था। 12वीं शताब्दी से साथ रहते रहते हिन्दु-मुसलमान सह-अस्तित्व सीख चुके थे। दबंग लोग दोनों समुदायों में थे। लेकिन फिर भी आम हिन्द-मुसलमान पारम्परिक जीवन दर्शन मानते थे, उनके बीच एक साझी विराजत भी थी। उनके बीच आपसी झगड़ा था लेकिन सभ्यतामूलक एकता भी थी। दूसरी ओर आधुनिक पश्चिम से सभ्यतामूलक संघर्ष है। गांधी यह भी जानते थे कि जो इस शैतानी सभ्यता में समझ-बूझकर भागीदारी नहीं करेगा वह आधुनिक दृष्टि से भले ही पिछड़ जाएगा लेकिन पारम्परिक दृष्टि से स्थितप्रज्ञ कहलायेग.. (जो कि कतई झूठा दृष्टिकोण है और बिलकुल वैसा ही सच है कि Discovery of India का वास्तविक लेखक और विचारकर्ता मूढ नेहरू ही था)
मोहनदास करमचंद गाँधी ने बिना विचार किये ही इस आन्दोलन को अपना समर्थन दे दिया जबकि इससे हमारे देश का कुछ भी लेना-देना नहीं था जब यह आन्दोलन असफल हो गया, जो कि होना ही था, तो केरल के मुस्लिमबहुल मोपला क्षेत्र में अल्पसंख्यक हिन्दुओं पर अमानुषिक अत्याचार किये गए, माता-बहनों का शील भंग किया गया और हत्याएं की गयीं मूर्खता की हद तो यह है कि गाँधी ने इन दंगों की कभी आलोचना नहीं की और दंगाइयों की गुंडागर्दी को यह कहकर उचित ठहराया कि वे तो अपने धर्म का पालन कर रहे थे सिर्फ मोपला ही नहीं अपितु पूरे तत्कालीन ब्रिटिश भारत में अमानवीय मुस्लिम दंगे, लूटपाट और हिंदू हत्याऐं हुई थी पर गांधी ने उन पर कभी किसी हिंदू हेतु संज्ञान नहीं लिया उल्टा हिंदुओं को ईश्वर अल्ला तेरो नाम का वर्णसंकर गाना सुनाता गवाता रहा,, तो देखा आपने कि गाँधी को गुंडे-बदमाशों के धर्म की कितनी गहरी समझ थी?
पर उनकी दृष्टि में उन माता-बहनों का कोई धर्म नहीं था, जिनको गुंडों ने भ्रष्ट किया मुसलमानों के प्रति गाँधी के पक्षपात का यह अकेला उदाहरण नहीं है, ऐसे उदाहरण हम पहले भी देख चुके हैं इतने पर भी उनका और देश का दुर्भाग्य कि हिन्दू-मुस्लिम एकता कभी नहीं हुई ना अब हो सकती है ..!!
इतिश्री प्रथम भाग, अब भाग दो जिसमें 1919 से लेकर 1940 तक के सबसे महत्वपूर्ण घटनाओं, राजनीतियों और हिंदू व भारत द्रोहिता का अतिविस्तृत वर्णन करूंगा इस लेख सीरीज के उदाहरण कई सटीक स्रोतों, वेबसाईटों समेत इतिहास से लिये गये हैं जिन सबके लिंक या उद्धरण करना यहां संभव नहीं है पर यथासंभव आगे भाग 2 में करने की कोशिश कर अधूरापन पूरा करूँगा, आप सब निश्चिंत रहें कि यहां कुछ भी कपोल कल्पित नहीं लिखा गया है।
Note : यहाँ इस प्रथम भाग में मैनें उस्मानिया साम्राज्य – खिलाफत और खलीफा के संक्षिप्त इतिहास समेत यूरोपीय व अमेरिकी + सऊदियों की राजनैतिक तथा धार्मिक सत्ता अधिग्रहण तेल राजनीति से संबंधता रखते हुऐ बताया है जो कि ऐतिहासिक सत्य है.. सुन्नी खिलाफत का खात्मा ब्रिटिश कूटनीतिज्ञों ने अतातुर्क, गांधी + कांग्रेस व सऊदियों सहित मिल कर किस तरह किया यह भी बताया, भारत पर पडे उसके प्रभाव और हिंदू नरसंहार पर भी संक्षिप्त में लिखा है किंतु दूसरा भाग सिर्फ और सिर्फ भारत के खिलाफत आंदोलन की अनजानी सचाईयों पर आधारित रहेगा

Ottoman Empire- Part 1 उस्मानिया साम्राज्य – खिलाफत और खलीफा के संक्षिप्त इतिहास- Part 2


भारत उन दिनों आज से कहीं बड़ा था. पाकिस्तान और बांग्लादेश ही नहीं, श्री लंका और म्यांमार (बर्मा) भी ब्रिटिश भारत का हिस्सा हुआ करते थे तब भी, सेना में भर्ती के लिए अंग्रेजों की पसंद उत्तरी और उत्तर-पश्चिमी भारत के सिख, मुसलमान और हिंदू क्षत्रिय ही होते थे. उनके बीच से सैनिक व असैनिक किस्म के कुल मिलाकर लगभग 15 लाख लोग भर्ती किए गए थे अगस्त 1914 और दिसंबर 1919 के बीच उनमें से 6,21,224 लड़ने-भिड़ने के लिए और 4,74,789 दूसरे सहायक कामों के लिए अन्य देशों में भेजे गए इस दौरान एशिया, अफ्रीका और यूरोप के विभिन्न मोर्चों पर कुल मिलाकर करीब आठ लाख भारतीय सैनिक जी-जान से लड़े इनमें 74,187 मृत या लापता घोषित किए गए और 69, 214 घायल हुए ,,इस लड़ाई में भारत का योगदान सैनिकों व असैनिक कर्मियों तक ही सीमित नहीं था भारतीय जनता के पैसों से 1,70,000 पशु और 3,70,000 टन के बराबर रसद भी मोर्चों पर भेजी गई.
लड़ाई का खर्च चलाने के लिए गुलाम भारत की अंग्रेज सरकार ने लंदन की सरकार को 10 करोड़ पाउन्ड अलग से दिए भारत की गरीब जनता का यह पैसा कभी लौटाया नहीं गया मिलने के नाम पर पैदल सैनिकों को केवल 11 रुपये मासिक वेतन मिलता था..!!
13, 000 भारतीय सैनिकों को बहादुरी के पदक मिले और 12 को ‘विक्टोरिया क्रॉस.’ किसी भारतीय को कोई ऊंचा अफसर नहीं बनाया गया न कभी यह माना गया कि भारी संख्या में जानलेवा हथियारोंवाली ‘औद्योगिक युद्ध पद्धति’ से और यूरोप की बर्फीली ठंड से अपरिचित भारतीय सैनिकों के खून-पसीने के बिना इतिहास के उस पहले विश्वयुद्ध में ब्रिटेन की हालत बड़ी खस्ता हो जाती…यह है गाँधीवादी सेक्यूलर बुर्के में अंग्रेजियत के कुकर्म छुपाने में ही सहायक रही कांग्रेस पार्टी की आजतक की कुल व मुख्य उपलब्धि ।
1915 के आखिर तक फ्रांस और बेल्जियमवाले मोर्चों पर के लगभग सभी भारतीय पैदल सैनिक तुर्की के उस्मानी साम्राज्यवाले मध्यपूर्व में भेज दिये गए. केवल दो घुड़सवार डिविजन 1918 तक यूरोप में रहे. तुर्की भी नवंबर 1914 से मध्यवर्ती शक्तियों की ओर से युद्ध में कूद पड़ा था. भारतीय सैनिक यूरोप की कड़ाके की ठंड सह नहीं पाते थे. मध्यपूर्व के अरब देशों में यूरोप जैसी ठंड नहीं पड़ती. वे भारत से बहुत दूर भी नहीं हैं, इसलिए भारत से वहां रसद पहुंचाना भी आसान था. यूरोप के बाद उस्मानी साम्राज्य ही मुख्य रणभूमि बन गया था. इसलिए कुल मिलाकर 5,88,717 भारतीय सैनिक और 2,93,152 असैनिक कर्मी वहां के विभिन्न मोर्चों पर भेजे गए ब्रिटेन, फ्रांस और रूस का मित्रराष्ट्र-गुट तुर्क साम्राज्य की राजधानी कोंस्तांतिनोपल पर, जिसे अब इस्तांबूल कहा जाता है, कब्जा करने की सोच रहा था. इस उद्देश्य से ब्रिटिश और फ्रांसीसी युद्धपोतों ने, 19 फरवरी, 1915 को, तुर्की के गालीपोली प्रायद्वीप के तटवर्ती भाग पर- जिसे दर्रेदानियल (डार्डेनल्स) जलडमरूमध्य के नाम से भी जाना जाता है- गोले बरसाए. लेकिन न तो इस गोलाबारी से और न बाद की गोलीबारियों से इच्छित सफलता मिल पाई,, इसलिए तय हुआ कि गालीपोली में पैदल सैनिकों को उतारा जाए. 25 अप्रैल, 1915 को भारी गोलाबारी के बाद वहां ऑस्ट्रेलिया और न्यूजीलैंड के सैनिक उतारे गए. पर वे भी तेजी से आगे नहीं बढ़ पा रहे थे. उनकी सहायता के लिए भेजे गए करीब 3000 भारतीय सैनिकों में से आधे से अधिक मारे गए. गालीपोली अभियान अंततः विफल हो गया. जिस तुर्क कमांडर की सूझबूझ के आगे मित्रराष्ट्रों की एक न चली, उसका नाम था गाजी मुस्तफा कमाल पाशा. युद्ध में पराजय के कारण उस्मानी साम्राज्य के विघटन के बाद वही वर्तमान तुर्की का राष्ट्रपिता और पहला राष्ट्रपति कमाल अतातुर्क कहलाया. 1919-20 में 27 देशों के पेरिस सम्मेलन द्वारा रची गई वर्साई संधि ने उस्मानी व ऑस्ट्रियाई-हंगेरियाई साम्राज्य का अंत कर दिया और यूरोप सहित मध्यपूर्व के नक्शे को भी एकदम से बदल दिया,,मध्यपूर्व में भेजे गए भारतीय सैनिकों में से 60 प्रतिशत मेसोपोटैमिया (वर्तमान इराक) में और 10 प्रतिशत मिस्र तथा फिलिस्तीन में लड़े. इन देशों में वे लड़ाई से अधिक बीमारियों से मरे. उनके पत्रों के आधार पर इतिहासकार डेविड ओमिसी का कहना है,
 
‘सामान्य भारतीय सैनिक ब्रिटिश सम्राट के प्रति अपनी निष्ठा जताने और अपनी जाति की इज्जत बचाने की भावना से प्रेरित होकर लड़ता था. एकमात्र अपवाद वे मुस्लिम-बहुल इकाइयां थीं, जिन्होंने तुर्कीवाले उस्मानी साम्राज्य के अंत की आशंका से अवज्ञा अथवा बगावत का रास्ता अपनाया. उन्हें कठोर सजाएं भुगतनी पड़ीं.’ एक दूसरे इतिहासकार और अमेरिका में पेन्सिलवैनिया स्टेट यूनिवर्सिटी के प्रोफेसर फिलिप जेंकिन्स इस बगावत का एक दूसरा पहलू भी देखते हैं. उनका मानना है कि वास्तव में प्रथम विश्वयुद्ध में उस्मानी साम्राज्य के विरुद्ध लड़ने से मुस्लिम सैनिकों का इनकार और युद्ध में पराजय के साथ उस्मानी साम्राज्य का छिन्न-भिन्न हो जाना ही वह पहला निर्णायक आघात है जिसने आज के इस्लामी जगत में अतिवाद और आतंकवाद जैसे आंदोलन पैदा किए. अपने एक लेख में वे लिखते हैं, ‘वही उस पृथकतावाद की ओर भी ले गया, जिसने अंततः इस्लामी पाकिस्तान को जन्म दिया और वे नयी धाराएं पैदा कीं जिनसे ईरानी शियापंथ बदल गया.’. प्रो. जेंकिन्स का तर्क है कि ‘जब युद्ध छिड़ा था, तब उस्मानी साम्राज्य ही ऐसा एकमात्र शेष बचा मुस्लिम राष्ट्र था, जो अपने लिए महाशक्ति के दर्जे का दावा कर सकता था. उसके शासक जानते थे कि रूस व दूसरे यूरोपीय देश उसे जीतकर खंडित कर देंगे. जर्मनी के साथ गठजोड़ ही आशा की अंतिम किरण थी. 1918 में युद्ध हारने के साथ ही सारा साम्राज्य बिखरकर रह गया.’ प्रो. जेंकिन्स का मत है कि 1924 में नये तुर्की द्वरा ‘खलीफा’ के पद को त्याग देना 1,300 वर्षों से चली आ रही एक अखिल इस्लामी सत्ता का विसर्जन कर देने के समान था. इस कदम ने ‘एक ऐसा आघात पीछे छोड़ा है, जिससे सुन्नी इस्लामी दुनिया आज तक उबर नहीं सकी,,, प्रो. जेंकिन्स के शब्दों में, ‘खलीफत के अंत की आहटभर से’ ब्रिटिश भारत की तब तक शांत मुस्लिम जनता एकजुट होने लगी. उससे पहले भारत के मुसलमान महात्मा गांधी की हिंदू-बहुल कांग्रेस पार्टी के स्वतंत्रता की ओर बढ़ते झुकाव से संतुष्ट थे. लेकिन अब, खिलाफत आंदोलन चलाकर मुस्लिम अधिकारों और एक मुस्लिम राष्ट्र की मांग होने लगी. यही आंदोलन 1947 में भारत के रक्तरंजित विभाजन और पाकिस्तान के जन्म का स्रोत बना.’
स्मरणीय यह भी है कि महात्मा गांधी प्रथम विश्वयुद्ध के समय पूर्ण स्वतंत्रता के लिए कोई आन्दोलन छेड़कर ब्रिटिश सरकार की परेशानियां बढ़ाने के बदले उसे समर्थन देने के पक्षधर थे. ब्रिटिश अधिकारी भी यही संकेत दे रहे थे कि संकट के इस समय में भारतीय नेताओं का सहयोग भारत में स्वराज या स्वतंत्रता का इंतजार घटा सकता है. लेकिन, युद्ध का अंत होने के बाद सब कुछ पहले जैसा ही रहा. लंदन में ब्रिटिश मंत्रिमंडल की बैठकों में तो यहां तक कहा गया कि भारत को अपना शासन आप चलाने लायक बनने में अभी 500 साल लगेंगे…!!
भारतीय राजनीति में जिन्ना का उदय 1916 में कांग्रेस के एक नेता के रूप में हुआ था, जिन्होने हिन्दू-मुस्लिम एकता पर जोर देते हुए मुस्लिम लीग के साथ लखनऊ समझौता करवाया था। गौरतलब है कि 1910 ई. में वे बम्बई के मुस्लिम निर्वाचन क्षेत्र से केन्द्रीय लेजिस्लेटिव कौंसिल के सदस्य चुने गए, 1913 ई. में मुस्लिम लीग में शामिल हुए और 1916 ई. में उसके अध्यक्ष हो गए जिन्ना अखिल भारतीय मुस्लिम लीग के अध्यक्ष की हैसियत से संवैधानिक सुधारों की संयुक्त कांग्रेस लीग योजना पेश की। इस योजना के अंतर्गत कांग्रेस लीग समझौते से मुसलमानों के लिए अलग निर्वाचन क्षेत्रों तथा जिन प्रान्तों में वे अल्पसंख्यक थे, वहाँ पर उन्हें अनुपात से अधिक प्रतिनिधित्व देने की व्यवस्था की गई। इसी समझौते को ‘लखनऊ समझौता’ कहते हैं।
लखनऊ की बैठक में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के उदारवादी और अनुदारवादी गुटों का फिर से मेल हुआ। इस समझौते में “संभावित स्वराज वाली भारत सरकार” के ढांचे और हिंदू तथा मुसलमान समुदायों के बीच सम्बन्धों के बारे में प्रावधान था और बाल गंगाधर तिलक ही इस समझौते के प्रमुख निर्माता थे तिलक को देश लखनऊ समझौता और केसरी अखबार के भी लिए याद करता है।
पहले के हिसाब से ये प्रस्ताव गोपाल कृष्ण गोखले के राजनीतिक विधान को आगे बढ़ाने वाले थे इनमें प्रावधान था कि प्रांतीय और केंद्रीय विधायिकाओं का तीन-चौथाई हिस्सा व्यापक मताधिकार के जारिये चुना जाये और केंद्रीय कार्यकारी परिषद के सदस्यों सहित कार्यकारी परिषदों के आधे सदस्य परिषदों द्वारा ही चुने गए भारतीय हों,, केंद्रीय कार्यकारी के प्रावधान को छोडकर ये प्रस्ताव आमतौर पर 1919 के भारत सरकार अधिनियम में शामिल थे काँग्रेस प्रांतीय परिषद चुनाव में मुसलमानों के लिए अलग निर्वाचक मण्डल तथा पंजाब एवं बंगाल को छोडकर, जहां उन्होने हिंदू और सिख अल्पसंख्यकों को कुछ रियायतें दी, सभी प्रान्तों में उन्हें रियायत (जनसंख्या के अनुपात से ऊपर) देने पर भी सहमत हो गई यही समझौता कुछ इलाकों और विशेष समूहों को पसंद नहीं था, लेकिन इसने 1920 से गांधी के असहयोग आंदोलन के बुर्के में खिलाफत आंदोलन के लिए तथाकथित हिंदू मुस्लिम सहयोग का रास्ता साफ किया बस खोते जनाधार को पा कर और बढाने और स्वराज के नाम पर तथाकथित आजादी आंदोलन के पहले कांग्रेसी कदम का सच यही था “मुस्लिम तुष्टिकरण” ।
कांग्रेस ने मो.अली जौहर, खिलाफत कमेटी, मुस्लिम लीग, जमीयत उल उलेमा और नवाबों, जागीरदारों, जमींदारों के साथ मिल कर भारत में पहले आधिकारिक “जिहाद” और “इस्लाम खतरे में” के नारे के जन्म की नींव रखी जिसमें संपूर्ण आजादी की मांग तो गौण थी अपितु ब्रिटिश राज की प्रथम विश्वयुद्धीय लडाई के लिये सैनिक जुटाने के प्रयत्न ही मुख्य थे और भारत की अधिकांश जनता का इससे ध्यान हटाने या ध्यान बंटाने को मुसलमानों हेतु ‘खिलाफत आंदोलन’ और महामूर्ख हिंदुओं हेतु ‘असहयोग आंदोलन’ ब्रिटिश राज के ही अधीन रहने वाले “स्वराज उर्फ डोमेनियन स्टेट स्टेटस” के लिये, आंतरिक शासन सत्ता प्राप्ति हेतु कुलीन लोगों द्वारा शुरू कर आम भारतीय को मूर्ख बनाया गया जिसका उदाहरण लखनऊ पैक्ट है।
“अगर हिन्दू-मुस्लिम एकता वाले ऐतिहासिक लखनऊ समझौते को संविधान में मान लिया गया होता तो शायद न देश का बंटवारा होता और न ही जिन्ना की कोई गलत तस्वीर हमारे मन में होती।” यह सत्य तो हमारे वर्तमान राष्ट्रपति श्री प्रणब मुखर्जी द्वारा भी कहा गया है।
जिन्ना भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के समर्थक थे, परन्तु गांधी के असहयोग आंदोलन के बुर्के में खिलाफत आंदोलन के समर्थन चलाये जाने का उन्होंने तीव्र विरोध किया और इसी प्रश्न पर खिलाफत आंदोलन और असहयोग आंदोलन की असफलता के चलते काँग्रेस से अलग हो गए इसके बाद से मो.अली जौहर, डॉ. मुख्तार अहमद अंसारी, मौलाना अबुल कलाम, अब्दुल रहमान सिद्दीकी और चौधरी खलीक उज्जमां की संगत में उनके ऊपर हिंदू राज्य की स्थापना के भय का भूत सवार हो गया उन्हें यह मुस्लिम जेहादी ग़लत फ़हमी हो गई कि हिन्दू बहुल हिंदुस्तान में मुसलमानों को उचित प्रतिनिधित्व कभी नहीं मिल सकेगा सो वह एक नए राष्ट्र पाकिस्तान की स्थापना के घोर समर्थक और प्रचारक बन गए थे।
जिन्ना व मुस्लिम लीग गिरोह का कहना था कि अंग्रेज लोग जब भी सत्ता का हस्तांतरण करें, उन्हें उसे हिन्दुओं के हाथ में न सौंपें, हालाँकि वह बहुमत में हैं ऐसा करने से भारतीय मुसलमान को हिन्दुओं की अधीनता में रहना पड़ेगा, जिन्ना अब भारतीयों की स्वतंत्रता के अधिकार के बजाए मुसलमानों के अधिकारों पर अधिक ज़ोर देने लगे इस के लिये उन्हे कांग्रेस के अप्रत्यक्ष सहयोग के साथ साथ उन्हें अंग्रेज़ों का सामान्य कूटनीतिक समर्थन मिलता रहा जो अंग्रेजों ने सऊदो व वहाबियों समेत मुस्तफा कमाल माशा ‘अतातुर्क’ को सऊदी अरब निर्माण , आधुनिक ‘सेक्यूलर तुर्की’ निर्माण और तुर्की के सुन्नी खलीफत के खात्मे हेतु दिया था इसके फलस्वरूप वे अंत में भारतीय मुसलमानों के नेता के रूप में देश की राजनीति में उभड़े। मोहम्मद अली जिन्ना ने मुस्लिम लीग का पुनर्गठन किया और ‘क़ायदे आज़म’ (महान नेता) व पाकिस्तान के राष्ट्रपिता ‘अता पाकिस्तान’ के रूप में विख्यात हुए साथ ही अंग्रेज कूटनीति के कारण मुस्तफा कमाल पाशा भी ‘अता तुर्क’ बने और गांधी ‘जी’ को हम स्वयंभू “राष्ट्रपिता यानि अता हिंदुस्तान” के रूप में मानते ही हैं।
अब वापिस खिलाफत आंदोलन और उसके प्रमुख रहे अन्य लीडरों की और चलते हैं …!
बहुत से प्रबुद्ध पाठकों समेत आम जनता तक ने डॉ. मुख्तार अहमद अंसारी और चौधरी खलीक उज्जमां समेत अब्दुल रहमान सिद्दीकी आदि के बारे में नहीं सुना होगा …!
चलिये सिलेसिलवार हम अखिल भारतीय खिलाफत कमेटी / All India Khilafat Committee और मुस्लिम लीग के लीडरों से पाकिस्तान के जन्मदाता रहे “असल कांग्रेसी सहयोगियों ” से दो चार होते हैं-
1.) डॉ. मुख्तार अहमद अंसारी
आजकल के प्रचलित ‘सेक्यूलर’ किंतु वास्तविकता का गला घोंट चुके “लिखित इतिहास” में कहते हैं कि डॉ मुख्तार अहमद अंसारी –
एक भारतीय राष्ट्रवादी और राजनेता होने के साथ-साथ भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस और मुस्लिम लीग के पूर्व अध्यक्ष थे।
वे जामिया मिलिया इस्लामिया विश्वविद्यालय के संस्थापकों में से एक थे, 1928 से 1936 तक वे इसके कुलाधिपति भी रहे
किंतु वास्तविकता में डॉ. मुख्तार अहमद अंसारी खिलाफत कमेटी के प्रमुख सदस्य व जन्मदाताओं में से एक होने के अलावा कट्टर इस्लामी व्यक्ति थे जो कि तुर्की के खलीफा और उसके लोगों की मदद के लिये मालो असबाब समेत एक पूरा मेडिकल मिशन ले कर हिंदुस्तान से तुर्की गये थे जिसकी गवाह उपर लगी फोटो है और उसमें शानिल लोगों के बारे में आगे बताता चलूंगा …!
डॉ मुख्तार अहमद अंसारी का जन्म 25 दिसम्बर 1880 को नॉर्थ-वेस्टर्न प्रोविन्सेस (अब उत्तरप्रदेश ) के गाजीपुर जिले में यूसुफपुर-मोहम्मदाबाद शहर में हुआ था,,उन्होंने विक्टोरिया हाई स्कूल में शिक्षा ग्रहण की और बाद में वे और उनका परिवार हैदराबाद चले गए वहां जाने के बाद अंसारी ने मद्रास मेडिकल कॉलेज से चिकित्सा की डिग्री प्राप्त की और छात्रवृत्ति पर अध्ययन के लिए इंग्लैंड चले गए जहाँ उन्होंने एम.डी. और एम.एस. दोनों की उपाधियाँ हासिल की कहा जाता है कि वे एक उच्च श्रेणी के छात्र थे और उन्होंने लंदन में लॉक हॉस्पिटल और चैरिंग क्रॉस हॉस्पिटल में कार्य किया वे सर्जरी क्षेत्र में भारत के अग्रणी थे और आज भी लंदन के चैरिंग क्रॉस हॉस्पिटल में उनके कार्य के सम्मान में एक अंसारी वार्ड मौजूद है।
डॉ. अंसारी इंग्लैंड में अपने प्रवास के दौरान भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन में शामिल हुए. वे वापस दिल्ली आये तथा काँग्रेस व मुस्लिम लीग दोनों में शामिल हो गए,, 1916 की “लखनऊ संधि” की बातचीत में उन्होंने एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाई और 1918 से 1920 के बीच लीग के अध्यक्ष के रूप में कार्य किया।
डा.अंसारी खिलाफत आंदोलन के एक मुखर समर्थक थे और उन्होंने इस्लाम के खलीफा, तुर्की के सुल्तान को हटाने के मुस्तफा कमाल तथा ब्रिटिश राज के निर्णय के खिलाफ सरकारी खिलाफत निकाय, लीग और कांग्रेस पार्टी को एक साथ लाने और ब्रिटिश राज द्वारा तुर्की की आजादी की मान्यता का विरोध करने के लिए प्रमुख लीडर की तरह ही काम किया..!!
1927 के सत्र के दौरान वे भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के अध्यक्ष भी रहे. 1920 के दशक में लीग के भीतर अंदरूनी लड़ाई और राजनीतिक विभाजन और बाद में चौधरी खलीक उज्जमां, जिन्ना और मुस्लिम अलगाववाद के उभार के तथाकथित परिणाम स्वरूप डॉ॰ अंसारी महात्मा गांधी और कांग्रेस पार्टी के करीब आ गए लेकिन यह आधा सच है वास्तविकता यह है कि डॉ. अंसारी (जामिया मिलिया इस्लामिया की फाउंडेशन समिति) के संस्थापकों में से एक थे और 1927 में इसके प्राथमिक संस्थापक, डॉ.हाकिम अजमल खान की मौत के कुछ ही समय बाद उन्होंने दिल्ली में जामिया मिलिया इस्लामिया विश्वविद्यालय के कुलाधिपति के रूप में भी काम किया,, डा.अंसारी परिवार एक महलनुमा घर में रहता था जिसे उर्दू में दारुस सलाम या अंग्रेजी में एडोबे ऑफ पीस कहा जाता था, महात्मा गांधी जब भी दिल्ली आते थे, डा.अंसारी परिवार ही अक्सर उनका स्वागत करता था और यह घर कांग्रेस की राजनीतिक गतिविधियों का एक नियमित आधार था और डा. मुख्तार अहमद अंसारी महात्मा गांधी के बहुत करीबी थे जिस कारण गांधी व कांग्रेस ने धार्मिक आधार पर, Two Nation Theory / द्विराष्ट्रवाद सिद्धांत के तहत भारत विभाजन के बावजूद मुसलमानों को भारत में उनकी विलासी व आलीशान ‘विरासतों’ और धन संपत्ति से अलग नहीं होने दिया , कुल मिला कर खिलाफत आंदोलनों से लेकर पाकिस्तान निर्माण तक जिन मुसलमानों ने हिंदू खून की होली खेली वो तो यहाँ से गये ही नहीं जो गये भी वो अपने आधे से ज्यादा नाते रिश्तेदार यहीं छोड कर गये अपनी तथाकथित विरासत और “आजादी” की लडाई में अपने ‘योगदान’ गिनवाने को…!!
Choudhry Khaliquzzaman seconding the Lahore Resolution with Muhammad Ali Jinnah chairing the Lahore session
2.) चौधरी खलीक उज्जमां / Choudhry Khaliquzzaman (25 December 1889 – 1973)
ये साहब तो पाकिस्तानी बन गये थे और पाकिस्तान शब्द की मूल उपज का जरिया इनका दिमाग ही था,,,
चौधरी खलीक उज्जमां भी यूनाईटेड प्रोविंसेंसेज यानि आज के उत्तर प्रदेश के मिर्जापुर निवासी कट्टर सुन्नी मुस्लिम घराने के खानदानी जमींदार और 1916 में MAO College से BA,L.L.B. पढे हुऐ नामी वकील ही थे (तब और आज तक की सार्थक राजनैतिक परंपरा अनुसार)
ये भी अखिल भारतीय मु्स्लिम लीग तथा खिलाफत कमेटी के प्रमुख लीडरान में से एक थे,, ये डॉ. अंसारी के तुर्की गये मेडिकल मिशन के भी प्रमुख सदस्य थे, ये खिलाफत आंदोलन के दौरान तुर्की में जनसत्ता परिवर्तन के बाद बदला लेने की ख्वाहिशों के साथ मोहम्मद अली जौहर के साथ अफगानिस्तान में हिंदू व हिंदुस्तान के खिलाफ सेना बनाने के अभियान के मुख्य सूत्रधारों में से एक थे लेकिन जब अफगानियों ने 18000 से ज्यादा “भारतीय” मुसलमान ‘बिरादरान’ को लूटपाट कर कत्ल कर दिया तो इन्ही जनाब के नेतृत्व में बचेखुचे ‘भारतीय’ मुसलमानों ने भारत आकर मोपला दंगों सहित कई कत्लेआम तुर्की के खलीफा की खिलाफत के संबंध में किये थे और सेक्यूलर कांग्रेस व डरपोक सेक्यूलर भारत की जलील नींव रखी थी..!!
यानि कुल जमा बात यह है कि चौधरी खलीक उज्जमां खिलाफत आंदोलन के असफल हो जाने और हालिया मुस्लिम अत्याचारों के अपेक्षित होते जवाब को लेकर भारी दबाव में थे कि उनको तुरूप का इक्का मुहम्मद इकबाल नामक शायर के रूप में मिल गया और चौधरी खलीक फिर जी उठे ।
इकबाल के दादा सहज सप्रू हिंदू कश्मीरी पंडित थे जो बाद में सिआलकोट आ गए और मुसलमान बन गये,चौधरी खलीक उज्जमां के नेतृत्व काल में ही सर मुहम्मद इकबाल उर्फ अल्लामा इकबाल ने ही भारत विभाजन और पाकिस्तान की स्थापना का विचार सबसे पहले उठाया था।
1930 में इन्हीं के नेतृत्व में मुस्लिम लीग की पूरी कमेटी ने सबसे पहले भारत के विभाजन की माँग उठाई। इसके बाद चौधरी खलीक उज्जमां ने जिन्ना को भी मुस्लिम लीग में शामिल होने के लिए प्रेरित किया और उनके साथ पाकिस्तान की स्थापना के लिए काम किया इन्हें पाकिस्तान व पाकिस्तानी इतिहास निर्माण में बहुत सम्मानीय स्थान प्राप्त हैं, पाकिस्तान में चौधरी खलीक उज्जमां / Choudhry Khaliq-Uz-Zaman के नाम पर सडकें, स्कूल, चौक, पार्क व कॉलेज हैं, चौधरी खलीक उज्जमां की 11 अगस्त 1947 की स्पीच पाकिस्तान निर्माण की राह में मील का पत्थर मानी जाती है।
मोहनदास करमचन्द्र गाँधी (कुछ के लिए महात्मा ) उसे अनाधिकारिक रूप से तो भारत का राष्ट्रपिता (अता हिंदुस्तान) कहा जाता है परन्तु उस व्यक्ति ने भारत की कितनी और किस तरह से सेवा की थी इस सम्बन्ध में लोग चर्चा करने से भी डरते हैं या करना चाहते ही नहीं, गांधी के अनुयायी गांधी का असली चेहरा देखना व दिखाना ही नहीं चाहते हैं क्यूँ की वो इतना ज्यादा भयानक है उसे देखने के लिए गांधीवादियों व भारत को साहस जुटाना होगा , सभी गांधीवादी , महात्मा गांधी (??) को अहिंसा का पुजारी (??) मानते हैं जिसने कभी भी किसी तरह की हिंसा नहीं की परन्तु वास्तविकता तो यह है की बीसवी सदी के सबसे पहले हिन्दुओं के नरसंहार का तानाबाना बुनने और खिलाफत आंदोलन को भारत व्यापी हिंदू मुस्लिम एकता की आड़ में गांधी नेतृत्व की कांग्रेसी देन है, भारत में इस्लामी जिहाद और पहली बार ‘इस्लाम खतरे में’ सरीखे आत्मघाती नारे की इजाद का सहयोग और मुसलमानों में 1000 साल की तत्कालीन भारत पर रही हूकूमत का झूठा संहारी प्रचार भी इसी मोहनदास करमचन्द्र गांधी नेतृत्व की कांग्रेस ने ही किया था ..!!
हमारी इतिहास की किताबों (जो की कम्युनिस्टों / कांग्रेसियत ने ही लिखी हैं ) में खिलाफत आन्दोलन भी पढाया जाता है और यह बताया जाता है कि ये खिलाफत आन्दोलन राष्ट्रीय भावनाओं का उभार था जिसमे देश के हिन्दुओं और मुसलमानों ने कंधे से कन्धा मिलकर भाग लिया था परन्तु इस बारे कुछ नहीं बताया जाता है एक विदेशी शासन और वहां की सत्ता का संघर्ष का संघर्ष भारत के राष्ट्रीय भावनाओं का उभार कैसे हो सकता है ?
खिलाफत आन्दोलन एक विशुद्ध सांप्रदायिक इस्लामिक चरमपंथी आन्दोलन था जो की इस भावना से संचालित था की पूरी दुनिया इस्लामिक और गैर इस्लामिक दो तरह के राष्ट्रों में बंटी हुई है और पूरी दुनिया के मुस्लिमों ने, तुर्की के खलीफा के पद को समाप्त किये जाने को गैर इस्लामिक देश के इस्लामिक देश पर आक्रमण के रूप में देखा था जिसमें ब्रिटेन के साथ बडी संख्या में भारतीय गैर मुसलमान ही शामिल थे सो इस कारण ये खिलाफत आन्दोलन एक सुन्नी इस्लामिक आन्दोलन था जो की मुसलमानों के द्वारा गैर मुस्लिमों के विरुद्ध शुरू किया गया था और इसे भारत में अली बंधुओं , डा.अंसारी, चौधरी खलीक, जमीयत उल उलेमा समेत अखिल भारतीय खिलाफत कमेटी ने नेतृत्व प्रदान किया था ..और वकील मोहनदास करमचन्द गांधी जो की उस समय कांग्रेस का नेतृत्व कर रहे थे , उसने इस खिलाफत आन्दोलन को समर्थन देने की घोषणा की ध्यान रहे की खिलाफत आन्दोलन अपने प्रारंभ से ही एक हिंसक आन्दोलन था और इस अहिंसा के कथित पुजारी ने इस हिंसक आन्दोलन को अपना समर्थन दिया (ये वही अहिंसा का पुजारी है जिसने चौरी चौरा में कुछ पुलिसकर्मियों के मरे जाने पर अपना आंदोलन वापस ले लिया था, तथाकथित रूप से हिंसा का समर्थन ना करने की कह कर संपूर्ण आजादी की मांग कर रहे भगत सिंह, राजगुरू, सुखदेव को गोलमेज सम्मेलन के नाम पर फांसी चढाने में अप्रत्यक्ष सहयोग किया, दोनो विश्वयुद्धों में लाखों भारतीय अंग्रेज मदद हेतु स्वराज के झांसे दे कर मरवाये ) और इस गांधी के समर्थन का अर्थ कांग्रेस का समर्थन था इस खिलाफत आन्दोलन के प्रारंभ से इसका स्वरूप हिन्दुओं के विरुद्ध दंगों का था और गांधी ने उसे अपना नेतृत्व प्रदान करके और अधिक व्यापक और विस्तृत रूप दे दिया ..ताकि अंग्रेजों के खिलाफ एकत्रित होता असंतोष और सुनियोजित विद्रोह फलित ना होने पाये और अंग्रेज़ व अंग्रेजियत को सम्भलने का समय मिलता रहे उनका कोई नुकसान ना होने पाये।
जब अली भाइयों के नेतृत्व में संपूर्ण खिलाफत कमेटी ने कबाईलियों और अफगानिस्तान के अमीर को भारत पर आक्रमण के लिए आमंत्रित किया था तब इस कथित अहिंसक महात्मा ने कहा था कि –
“यदि कोई बाहरी शक्ति इस्लाम की प्रतिष्ठा की रक्षा के लिए और न्याय दिलाने के लिए आक्रमण करती है तो वो उसे वास्तविक सहायता न भी दें तो उसके साथ उनकी पूरी सहानुभूति रहेगी “(गांधी सम्पूर्ण वांग्मय – 17.527 – 528)
अब यह तो स्पष्ट ही है की वो आक्रमणकर्ता हिंसक ही होता और इस्लाम की परिपाटी के अनुसार हिन्दुओं का पूरी शक्ति के साथ कत्लेआम भी करता तो क्या ऐसे आक्रमण का समर्थन करने वाला व्यक्तिअ हिंसक कहला सकता है .. ??
बात इतने पर भी ख़त्म नहीं होती है , जब अंग्रेजों ने पूरी दुनिया में इस आन्दोलन को कुचल दिया और खिलाफत आन्दोलन असफल हो गया तो भारत के मुसलमानों ने क्रोध में आकर पूरी शक्ति से हिन्दुओं की हत्याऐं करनी शुरू कर दी और इसका सबसे ज्यादा प्रभाव मालाबार और दक्षिण संबंधी क्षेत्र में देखा गया था जब वहां पर मुसलमानों द्वारा हिन्दुओं की हत्याऐं की जा रही थीं तब इस मोहनदास करमचन्द गांधी ने कहा था कि –
“अगर कुछ हिन्दू मुसलमानों के द्वारा मार भी दिए जाते हैं तो क्या फर्क पड़ता है ??
अपने मुसलमान भाइयों के हाथों से मरने पर हिन्दुओं को स्वर्ग मिलेगा ….”
मुख्यतया भारत में अखिल भारतीय खिलाफत कमेटी ने जमियत-उल-उलेमा के सहयोग से खिलाफत आंदोलन का संगठन किया तथा मोहम्मद अली ने 1920 में खिलाफत घोषणापत्र प्रसारित किया राष्ट्रीय आंदोलन का नेतृत्व गांधी व कांग्रेस ने किया जो तथाकथित असहयोग आंदोलन था बाद में यह दोनों आंदोलन गांधी जी के प्रभाव में एक हो गए मई, 1920 तक खिलाफत कमेटी ने महात्मा गांधी की अहिंसात्मक असहयोग योजना का तथाकथित समर्थन किया दो कि वास्तविकता में किया ही नहीं, सितंबर 1920-21 में कांग्रेस के विशेष अधिवेशन ने असहयोग आंदोलन के दो ध्येय घोषित किए – “स्वराज्य तथा खिलाफत की माँगों की स्वीकृति”
जब नवंबर, 1922 में तुर्की में मुस्तफा कमाल पाशा ने सुल्तान खलीफा मोहम्मद चतुर्थ को ख़ारिज कर अब्दुल मजीद को पदासीन किया और उसके समस्त राजनीतिक अधिकार आपने पास ले लिए तब भारत से खिलाफत कमेटी ने 1924 में विरोधप्रदर्शन के लिए एक प्रतिनिधिमंडल तुर्की भेजा। राष्ट्रीयतावादी मुस्तफा कमाल ने उसकी हर बार उपेक्षा की और 3 मार्च, 1924 को उन्होंने खलीफा का पद समाप्त कर खिलाफत का अंत कर दिया इस प्रकार, भारत का खिलाफत आंदोलन भी अपने आप समाप्त हो गया था पर इसे ब्रिटेन ,यूरोपियन, सऊदों + वहाबियों की पुरजोर मदद हेतु भावी रणनीति व अर्थव्यवस्था की धुरी समेत धर्म आधारित राजनैतिक रूप देकर गाँधीवादी हिंदू अहिंसा व मुस्लिम जनित हक की हिंसा के जामे में परवान चढाया गया।
मोहम्मद अली और उनके भाई मौलाना शौकत अली ,शेख शौकत अली सिद्दीकी, डा. मुख्तार अहमद अंसारी, रईस उल मुहााजिरीन बैरिस्टर जनवरी मुहम्मद जुनेजो, हसरत मोहानी सैयद अता उल्लाह शाह बुखारी, मौलाना अबुल कलाम आजाद और जैसे अन्य मुस्लिम नेताओं के साथ शामिल हो गए डॉ. हाकिम अजमल खान ऑल इंडिया खिलाफत कमेटी और इस्लामी हकूक बुलंद करने को / बनाने के लिए,, मुसलमान कमेटी लखनऊ, भारत में हाथे शौकत अली, मकान मालिक शौकत अली सिद्दीकी के परिसर पर आधारित था वे सिर्फ मुसलमानों के बीच राजनीतिक एकता बनाने और खिलाफत की रक्षा के लिए अपने प्रभाव का इस्तेमाल करने के उद्देश्य से 1920 में खिलाफत घोषणापत्र के द्वारा, जो ब्रिटिश विरोधी आह्वान किया कि खिलाफत की रक्षा और भारतीय मुसलमानों के लिए एकजुट होना है और इस उद्देश्य के लिए ब्रिटिश, हिंदू जवाबदेह है प्रकशित हुआ ..!!
1920 में खिलाफत नेताओं और भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस राजनीतिक दल के बीच एक गठबंधन बनाया गया था कांग्रेस नेता मोहनदास गांधी हमेशा ही ब्रिटिश राज और खिलाफत नेताओं के लिए ही काम करते हैं और खिलाफत और स्वराज के कारणों के लिए एक साथ लड़ने का झांसेदार वादा गैर मुसलमानो से करते जाते हैं,, खिलाफत के समर्थन में गांधी और कांग्रेस के संघर्ष के दौरान हिंदू – मुस्लिम एकता को सुनिश्चित करने में मदद की जाने का ढोंग रचा जाता है पर मूल में ब्रिटिश सऊदी कूटनीति है यह सब कांग्रेसी नेता पचा जाते हैं।
इसका प्रत्यक्ष प्रमाण है कि जब भारत के लोग 1919 में महात्मा गांधी समर्थित और मौलाना महमूद हसन, मौलाना मुहम्मद अली जौहर, मौलाना हसरत मोहानी, मौलाना अबुल कलाम आजाद समेत कई मुसलिम नेताओं की अगुआई में हिजाज यानी मक्का और मदीना के पवित्र स्थल ब्रिटेन के हाथों में जाने के डर से खिलाफत आंदोलन चला रहे थे, अब्दुल अजीज इब्न सऊद ब्रिटेन के साथ मिल कर उस्मानिया खिलाफत और स्थानीय कबीलों को मार भगाने के लिए लड़ रहा था। अंग्रेजों के दिए हथियार और आर्थिक मदद से अब्दुल अजीज इब्न सऊद ने वर्तमान सऊदी अरब की स्थापना की और वर्षों से ‘वक्फ’ यानी ‘धर्मार्थ समर्पित सार्वजनिक स्थल’ वाले मक्का और मदीना के संयुक्त नाम ‘हिजाज’ को भी ‘सऊदी अरब’ कर दिया गया।
सोकल, कासोक और कालटैक्स के बाद अमेरिका की मर्जर कंपनी अरेबियन ब्रिटिश अमेरिकन आॅयल कंपनी यानी ‘आरामको’ ने व्यवस्थित रूप से 1943 में सऊदी अरब में तेल उत्पादन का कार्य शुरू किया। सैकड़ों तेल कुओं वाले सऊदी अरब को तरल सोने की खान के रूप में ‘घावर’ तेल कुआं मिला, जो दुनिया का सबसे बड़ा तेल उत्पादक कुआं है।
क्या यह सब देश दुनिया से जुडे विलासी बंगलों व कारागारों में रहते, ब्रिटेन व दुनिया घूमते ब्रिटिश व मुस्लिम लीग के परम मित्र ही रहे कांग्रेसियों और गांधी नेहरू को नहीं पता था…??
विश्वास करना मुश्किल है कि Discovery Of India लिखने वाला नेहरू तथा सत्य व ब्रह्मचर्य के प्रयोग वाला दूरंदेशी मोहनदास करमचंद गांधी इस सब कारणों व भविष्य से अंजान रहे होंगे…!!
असहयोग आन्दोलन का संचालन स्वराज की माँग को लेकर किया गया। इसका उद्देश्य सरकार के साथ प्रत्यक्ष सहयोग न करके कार्यवाही में अप्रत्यक्ष बाधा उपस्थित करना ही था, जो कि पूर्णतया आम जन विशेषकर हिंदुओं को मूरख बनाने व आजादी के सर्वोत्तम समय को भुलावे में डाल कर अंग्रेजियत की मदद करने का ही आंदोलन सरीखा था,जनता का मूल मुद्दों से ध्यान भटकाने वाला यह असहयोग आन्दोलन गांधी ने 1 अगस्त 1920 को ही आरम्भ किया था ।
कलकत्ता अधिवेशन में गांधी ने प्रस्ताव पेश करते हुए कहा कि, “अंग्रेज़ी सरकार शैतान है, जिसके साथ सहयोग सम्भव नहीं, अंग्रेजी सरकार को अपनी भूलों पर कोई दु:ख नहीं है, अत: हम कैसे स्वीकार कर सकते हैं कि नवीन व्यवस्थापिकाएँ हमारे स्वराज्य का मार्ग प्रशस्त करेंगी। स्वराज्य की प्राप्ति के लिए हमारे द्वारा प्रगतिशील अहिंसात्मक असहयोग की नीति अपनाई जानी चाहिए।”
गांधी जी के इस प्रस्ताव का विरोध करते हुए उस समय ही ऐनी बेसेंट ने कहा कि, “यह प्रस्ताव भारतीय स्वतंत्रता को सबसे बड़ा धक्का है।” गांधी जी के इस विरोध तथा समाज और सभ्य जीवन के विरुद्ध संघर्ष की घोषणा का सुरेंद्रनाथ बनर्जी , मदनमोहन मालवीय ,देशबंधु चितरंजन दास, विपिन चंद्र पाल, जिन्ना, शंकर नायर, सर नारायण चन्द्रावरकर ने प्रारम्भ में विरोध किया। फिर भी अली बन्धुओं एवं मोतीलाल नेहरू, जवाहरलाल नेहरू के समर्थन से यह प्रस्ताव “कांग्रेस” ने स्वीकार कर लिया यही वह क्षण था, जहाँ से भारत हेतु भयावह मुस्लिम व अंग्रेजियत के तुष्टिकारक ‘गांधी व नेहरू मिश्रित युग’ की शुरुआत हुई थी।
दिसम्बर1920 में नागपुर में आयोजित कांग्रेस अधिवेशन में असहयोग प्रस्ताव से सम्बन्धित लाला लाजपत राय एवं चितरंजन दास ने अपना विरोध वापस ले लिया तो गांधी ने नागपुर में कांग्रेस के पुराने लक्ष्य अंग्रेज़ी साम्राज्य के अंतर्गत ‘स्वशासनीय स्वराज’ के स्थान पर अंग्रेज़ों के अंतर्गत ‘स्वराज्य’ का नया लक्ष्य घोषित किया साथ ही गांधी जी ने यह भी कहा कि यदि आवश्यक हुआ तो स्वराज्य के लक्ष्य को अंग्रेज़ी साम्राज्य से बाहर भी प्राप्त किया जा सकता है तब जिन्ना और चौधरी खलीक उज्जमां के चेलों और मोहम्मद अली जौहर ने ‘स्वराज्य’ के उद्देश्य का विरोध इस आधार पर किया कि उसमें यह स्पष्ट नहीं किया गया था कि अंग्रेजी साम्राज्य से कोई सम्बन्ध बनाये रखा जायेगा या नहीं ,, ऐनी बेसेन्ट, मोहम्मद अली जौहर, जिन्ना एवं लाल, बाल, पाल सभी गांधी जी के प्रस्ताव से असंतुष्ट होकर कांग्रेस छोड़कर चले गए।
नागपुर अधिवेशन का ऐतिहासिक दृष्टिकोण से महत्त्व इसलिए है, क्योंकि यहाँ पर वैधानिक साधनों के अंतर्गत स्वराज्य प्राप्ति के लक्ष्य को त्यागकर सरकार के विरोध करने की बात रूपी झांसे को स्वीकार किया गया।
इसी बीच 5 फ़रवरी 1922 को देवरिया ज़िले के चौरी चौरा नामक स्थान पर पुलिस ने जबरन एक जुलूस को रोकना चाहा, इसके फलस्वरूप जनता ने क्रोध में आकर थाने में आग लगा दी, जिसमें एक थानेदार एवं 21 सिपाहियों की मृत्यु हो गई। इस घटना से गांधी जी स्तब्ध रह गए। 12 फ़रवरी 1922 को बारदोली में हुई कांग्रेस की बैठक में असहयोग आन्दोलन को समाप्त करने के निर्णय के बारे में गांधी जी ने यंग इंडिया (जी हाँ यंग इंडिया जो अब नई कंपनियों के मातहती में राहुल गांधी, प्रियंका गांधी व राबर्ट वाड्रे की व्यक्तिगत संपत्तियों में शुमार है और जिस की अचल संपत्तियों को लेकर उन पर एक मामूली व खबरों से जानबूझकर दूर रखा गया केस भी चल रहा है) में लिखा था कि-
“आन्दोलन को हिंसक होने से बचाने के लिए मैं हर एक अपमान, हर एक यातनापूर्ण बहिष्कार, यहाँ तक की मौत भी सहने को तैयार हूं। ”
(कितना बडा झूठ और कितना भयावह नाटक करके भारत व हिंदुओं को धोखा दिया गया, मोपला कांड पर हिंसक चुप्पी साधे हुऐ यह व्याभिचारी महात्मा 21 ब्रिटिशराज के सिपाहियों की मौत व थाने की आग पर हिल कर आंदोलन बंद कर दिया…??
नहीं,,, कारण तो वो थे जो मैनें आपको उपर बताये हैं, यह आंदोलन गले पड रहा था तो किसी ना किसी रूप से बंद करना ही था)
असहयोग आन्दोलन के स्थगन पर मोतीलाल नेहरू ने कहा था कि –
“यदि कन्याकुमारी के एक गाँव ने अहिंसा का पालन नहीं किया, तो इसकी सज़ा हिमालय के एक गाँव को क्यों मिलनी चाहिए।”
अपनी प्रतिक्रिया में नेताजी सुभाषचंद्र बोस ने कहा था कि –
“ठीक इस समय, जबकि जनता का उत्साह चरमोत्कर्ष पर था, वापस लौटने का आदेश देना राष्ट्रीय दुर्भाग्य से कम नहीं”
आन्दोलन के स्थगित करने का प्रभाव गांधी जी की लोकप्रियता पर पड़ा, 13 मार्च 1922 को गांधी जी को गिरफ़्तार किया गया तथा न्यायाधीश ब्रूम फ़ील्ड ने गांधी जी को असंतोष भड़काने के अपराध में 6 वर्ष की सुविधाओं सहित क़ैद की सज़ा सुनाई किंतु ‘स्वास्थ्य सम्बन्धी कारणों’ से उन्हें 5 फ़रवरी 1924 को रिहा कर दिया गया।

Monday, May 18, 2015

Facts about Ancient Hindu Temples


When Arabians and Europeans came to India, the then Hindu kings thought that they were “Athiti” (Guests) hence considered as “Deva” (God). So kings provided them free land and money to build Churches and Mosques along with freedom to worship. Go check old documents – the land for Churches and Mosques was donated by Hindu Kings. (I have never heard otherwise happening anywhere in the world! Will Saudi Arabia or Vatican give a small piece of land to build a Hindu temple?)
Another aspect: Ancient temples (Devalaya) were not a place for prayers. Temples never had a prayer hall like that in Churches or Mosque (Prarthanalaya). Of course, there were mandapa = pillared outdoor hall for performing arts and public rituals in temples. When you go to an old temple, the sanctum sanctorum itself is very small and dark. Hardly two or three people can stand in front of it.
That means temples had some other purpose. Fact: – temples were powerhouses of energy. Every ritual, prayer, ceremonies were only secondary to be in a temple but the main thing is to be in the field of consecrated energy.I don’t know how did they do it, but I have read somewhere that even individual karmic energy can be stored and retrieved in temple. But we lost all those ancient wisdom on energy contact and we are left only with rituals or we have become overly ritualistic, without understanding the real significance of temples.


Another fact is that temples were store house of enormous treasures too. This explains gigantic fort around the temple. Recently Sri Padmanabhaswamy Temple of Thiruvananthapuram was in the news as it became one of the richest Hindu Temple in India. It is believed that the total assets of Sri Padmanabhaswamy Temple have now exceeded the assets of the Tirupati Balaji Temple in Andhra Pradesh. The wealth accumulated in the temples was used purely for dharma deeds.
The priest, mostly a poor Brahmin, in the temple would get one or two meals a day, that’s all. There were chaultries (inns) and rest houses associated with those temples that provided food and shelter for the poor and needy. All the karma was done based on the concept “Sarvam Sri Krishnarpanam Astu” (Everything I offer to Krishna or the divine). Everybody followed the dharmic way of life – the symbolic centre of this system was the temple.
That was our ancient economic system – our dharma was based on sharing and caring. Our ancestors built huge store house of energy, wisdom (libraries and universities) and physical wealth associated with the temple premises. They worked hard and stored everything as treasure for coming generations. And temples were highest seat of marvelous architecture, sculptures, arts and science. And that’s when the anceint world called :”Glory that was India.”
The Dark Age began with the arrival of the brutal, religious fanatic, barbaric invaders who attacked, looted and destroyed the temple-economy. According to independent historians, more than hundred thousand Hindu temples (the likes of Somanatha temple) were destroyed by those demonic invaders and killed nearly 75 million Hindus (preferred death to giving up their dharma) during the process. The entire temple-system was thus perished. They burned away our universities and libraries.
While our ancestors gave importance to education, arts, music, health, environment and nature, the barbaric invaders did not build even one school or hospital. All they did was to build palaces and gardens for their enjoyment, tombs to perpetuate their memory and forts for their security. Lot of beautiful temples were destroyed and converted to tombs – one example could be the Taj Mahal!
Naturally, those ordinary peace-loving Hindus around the temple-system became very scared and insecure; hence they tried protecting the remaining temples. They believed that non-Hindus may destroy it. But, alas, the cunning, pimp-ish Hindu politicians failed the remaining temple-system.
An ardent follower of sanatan dharma like me would not blame any other religions for this downfall. It is our own politicians, who arrogantly taken over the right to manage richest temples in India. For the most part, the temples and its wealth are transferred arbitrarily by the government for “secular”, non-Hindu purposes. The most damaging side-effect of this is lack of resources for maintenance and upkeep of temples, leading to irreparable damage to many medieval and ancient structures. I have personally seen and experienced this.
Hindus are now feeling insecure and scared, not because of Muslims or any other religions, but because of our own “Hindu Secular Politicians” (all political parties included) who are worst and crooked than the brutal and barbaric invaders.
Source: udaypai.in

Sunday, May 17, 2015

TIPU SULTAN- Murderer

टीपू सुल्तान ने १४ दिसम्बर १७८८ को कालीकट के अपने सेना नायक को पत्र लिखा-
''मैं तुम्हारे पास मीर हुसैन अली के साथ अपने दो अनुयायी भेज रहा हूँ। उनके साथ तुम सभी हिन्दुओं को बन्दी बना लेना और यदि वो इस्लाम कबूल ना करे तो उनका वध कर देना।'' मेरा आदेश है कि बीस वर्ष से कम उम्र वालों को काराग्रह में रख लेना और शेष में से पाँच हजार का पेड़ पर लटकाकार वध कर देना।''
(भाषा पोशनी-मलयालम जर्नल, अगस्त १९२३)
(२) बदरुज़ समाँ खान को पत्र लिखा (दिनांक १९ जनवरी १७९०)
''क्या तुम्हें मालूम नहीं है कि मैंने मलाबार में एक बड़ी विजय प्राप्त की है चार लाख से अधिक हिन्दुओं को मुसलमान बना लिया गया । मैंनें अब उस रमन नायर की ओर बढ़ने का निश्चय किया हैं ताकि उसकी प्रजा को इस्लाम में धर्मान्तरित किया जाए। मैंने रंगापटनम वापस जाने का विचार त्याग दिया है।''
(उसी पुस्तक में)
‌३)अब्दुल कादर को पत्र लिखा (दिनांक २२ मार्च१७८८)
"बारह हजार से अधिक, हिन्दुओं को इस्लाम में धर्मान्तरित किया गया। इनमें अनेकों नम्बूदिरी थे। इस उपलब्धि का हिन्दुओं के बीच व्यापक प्रचार किया जाए। ताकि स्थानीय हिन्दुओं में भय व्याप्त हो और उन्हें इस्लाम में धर्मान्तरित किया जाए। किसी भी नम्बूदिरी को छोड़ा न जाए।''
(उसी पुस्तक में)
टीपू ने हिन्दुओं पर अत्यार एवं उनके धर्मान्तरण के लिए कुर्ग एवं मलाबार के विभिन्न क्षेत्रों में अपने सेना नायकों को अनेकों पत्र लिखे थे। जिन्हें प्रख्यात विद्वान और इतिहासकार सरदार पाणिक्कर ने लन्दन के इन्डिया आॅफिस लाइब्रेरी तक पहुँच कर ढूँढ निकाला था।
इन सूचनाओं, सन्देशों एवं पत्रों को आप भी RTI के माध्यम से प्राप्त कर पढ़ सकते हैं..।
टीपू का अपने सेनानायक को एक और पत्र-
''जिले के प्रत्येक हिन्दू का इस्लाम में धर्मान्तरण किया जाना चाहिए; अन्यथा उनका वध करना सर्वोत्तम है; उन्हें उनके छिपने के स्थान में खोजा जाना चाहिए; उनका इस्लाम में सम्पूर्ण धर्मान्तरण के लिए सभी मार्ग व युक्तियाँ सत्य-असत्य, कपट और बल सभी का प्रयोग किया जाना चाहिए।''
(हिस्टौरीकल स्कैचैज ऑफ दी साउथ ऑफ इण्डिया इन
एन अटेम्पट टू ट्रेस दी हिस्ट्री ऑफ मैसूर- मार्क विल्क्स, खण्ड २
 पृष्ठ १२०)
मैसूर के तृतीय युद्ध (१७९२) के पहले से ही टीपू अफगानिस्तान के कट्टर इस्लामी शासक जमनशाह जो भारत में हिन्दुओं के खून की होली खेलने वाले अहमदशाह अब्दाली का परपोता था को पत्र लिखा करता था जिसे कबीर कौसर ने अपनी पुस्तक 'हिस्ट्री ऑफ टीपू सुल्तान' (पृ'१४१-१४७) में इसका अनुवाद किया है।
उस पत्र व्यवहार के कुछ अंश पढ़िये-
टीपू के ज़मन शाह के लिए पत्र
(i) ''महामहिम आपको सूचित किया गया होगा कि,
मेरी महान अभिलाषा का उद्देश्य जिहाद (धर्म युद्ध)
है। मेरी इस युक्ति का अल्लाह 'नोआ के आर्क' की भाँति रक्षा करता है और त्यागे हुए काफिरों की बढ़ी हुई भुजाओं को काटता रहता है।''

(ii) ''टीपू से जमनशाह को, पत्र दिनांक शहबान
का सातवाँ १२११ हिजरी (तदनुसार ५ फरवरी १७९७):
''... .इन परिस्थितियों में जो, पूर्व से लेकर पश्चिम तक,मैं विचार करता हूँ कि अल्लाह और उसके पैगम्बर के आदेशों से हमें अपने धर्म के शत्रुओं के विरुद्ध जिहाद करने के लिए, संगठित हो जाना चाहिए। इस क्षेत्र में इल्लाम के अनुयाई, शुक्रवार के दिन एक निश्चित किये हुए स्थान पर एकत्र होकर प्रार्थना करते हैं।
''हे अल्लाह! उन लोगों को, जिन्होंने इस्लाम का मार्ग रोक रखा है, कत्ल कर दो। उनके पापों को लिए, उनके निश्चित दण्ड द्वारा, उनके सिरों को दण्ड दो।''
मेरा पूरा विश्वास है कि सर्वशक्तिमान अल्लाह अपने प्रियजनों के हित के लिए उनकी प्रार्थनाएं स्वीकार कर लेगा और''तेरी (अल्लाह की) सेनायें ही विजयी होंगी'',
टीपू ने अपनी बहुचर्चित तलवार' पर फारसी भाषा में लिखवाया-
''मेरे मालिक मेरी मदद कर कि मैं संसार से सभी काफिरों(गैर-मुसलमानों) को समाप्त कर दूँ"!
(हिस्ट्री ऑफ मैसूर सी.एच. राव खण्ड ३, पृष्ठ
१०७३)
श्री रंगपटनम के किले में प्राप्त टीपू का खुद लिखवाया एक शिला लेख पढ़िये-
शिलालेख के शब्द इस प्रकार हैं- ''हे सर्वशक्तिमान
अल्लाह! काफिरों(गैर-मुसलमानों) के समस्त समुदाय को समाप्त कर दे। उनकी सारी जाति को बिखरा दो, उनके पैरों को लड़खड़ा दो अस्थिर कर दो! और उनकी बुद्धियों को फेर दो! मृत्यु को उनके निकट ला दो, उनके पोषण के
साधनों को समाप्त कर दो। उनकी जिन्दगी के दिनों को कम कर दो। उनके शरीर सदैव उनकी चिंता के विषय बने रहें, उनके नेत्रों की दृष्टि छीन लो, उनके चेहरे काले कर दो, उनकी जीभ को बोलने के अंग को, नष्ट कर दो! उन्हें शिदौद की भाँति कत्ल कर दो जैसे फ़रोहा को डुबोया था, उन्हें भी डुबो दो, और उन पर अपार क्रोध करो। हे संसार के मालिक मुझे अपनी मदद दो।''
(उसी पुस्तक में पृष्ठ १०७४)
टीपू का जीवन चरित्र
टीपू की फारसी में लिखी, 'सुल्तान-उत-तवारीख'
और 'तारीख-ई-खुदादादी' नाम वाली दो जीवनियाँ हैं।
ये दोनों ही जीवनियाँ लन्दन की इण्डिया ऑफिस लाइब्रेरी में एम.एस. एस. क्रमानुसार ५२१ और २९९ रखी हुई हैं। इन
दोनों जीवनियों में टीपू ने स्वयं को इस्लाम का सच्चा नायक दिखाने के लिए हिन्दुओं पर ढाये अमानवीय अत्याचारों और यातनाओं, का विस्तृत वर्णन खुद ही किया है।
यहाँ तक कि मोहिब्बुल हसन, जिसने अपनी पुस्तक, हिस्ट्री ऑफ टीपू सुल्तान में टीपू को एक समझदार, उदार, और धर्मनिरपेक्ष शासक बताया था उसको भी स्वीकार करना पड़ा था कि
''तारीख यानी कि टीपू की जीवनियों के पढ़ने के बाद टीपू का जो चित्र उभरता है वह एक ऐसे धर्मान्ध, काफिरों से नफरत के लिए मतवाले पागल का है जो गैर-मुस्लिम लोगों की हत्या और उनके इस्लाम में बलात परिवर्तन कराने में सदैव लिप्त रहा आया।''
(हिस्ट्री ऑफ टीपू सुल्तान, मोहिब्बुल हसन, पृष्ठ ३५७)
टीपू ने १७८६ में गद्दी पर बैठते ही मैसूर को मुस्लिम राज्य घोषित कर दिया था और एक आम दरबार में घोषणा की ---
"मैं सभी काफिरों को मुसलमान बनाकर रहूंगा। "तुंरत ही उसने सभी हिन्दुओं को फरमान भी जारी कर दिया और मैसूर के गाँव- गाँव के मुस्लिम अधिकारियों के पास लिखित सूचना भिजवादी कि,
"सभी हिन्दुओं को इस्लाम में दीक्षा दो। जो स्वेच्छा से मुसलमान न बने उसे बलपूर्वक मुसलमान बनाओ और जो पुरूष विरोध करे, उनका कत्ल करवा दो। उनकी स्त्रियों को पकड़कर उन्हें दासी बनाकर मुसलमानों में बाँट दो।"
यह तांडव टीपू ने इतनी तेजी से चलाया कि, पूरे हिंदू समाज में त्राहि त्राहि मच गई. इस्लामिक दानवों से बचने का कोई उपाय न देखकर धर्म रक्षा के विचार से
हजारों हिंदू स्त्री पुरुषों ने अपने बच्चों सहित तुंगभद्रा आदि नदियों में कूद कर जान दे दी। हजारों ने अग्नि में प्रवेश कर अपनी जान दे दी।
इतिहासकार पाणिक्कर के अनुमान से टीपू ने अपने राज्य में लगभग ५ लाख हिन्दुओं को जबरन मुसलमान बनाया था जबकि वास्तविक संख्या इससे कहीं अधिक है।
प्रत्यक्षदर्शियों के वर्णन-
दक्षिण भारत में इस्लाम के प्रसार के लिए टीपू द्वारा किये गये भीषण अत्याचारों और यातनाओं को एक पुर्तगाली यात्री और इतिहासकार, फ्रा बारटोलोमाको ने १७९० में अपनी आँखों से देखा था।
उसने जो कुछ मलाबार में देखा उसे अपनी पुस्तक, 'वौयेज टू ईस्ट इण्डीज' में लिख दिया था-
''कालीकट में हिन्दू आदमियों और औरतों को छोटी गलतियों के लिए फाँसी पर लटका दिया जाता था। ताकि वो जल्दी से जल्दी इस्लाम स्वीकार कर लें।
पहले माताओं को उनके बच्चों को उनकी गर्दनों से बाँधकर लटकाकर फाँसी दी जाती थी। उस बर्बर टीपू द्वारा नंगे हिन्दुओं और ईसाई लोगों को हाथियों की टांगों से बँधवा दिया जाता था और हाथियों को तब तक दौड़ाया जाता था जब तक कि उन असहाय निरीह विपत्तिग्रस्त प्राणियों के शरीरों के चिथड़े-चिथड़े नहीं हो
 जाते थे।
मन्दिरों और गिरिजों में आग लगाने, खण्डित करने, और ध्वंस करने के आदेश दिये जाते थे।
टीपू की सेना से बचकर भागने वालों और वाराप्पुझा पहुँच पाने वाले अभागे व्यक्तियों से सुनकर मैं विचलित हो उठा था... मैंने स्वंय अनेकों ऐसे विपत्ति ग्रस्त व्यक्तियों को वाराप्पुझा नदी को नाव द्वारा पार जाने के लिए सहयोग किया था।' '
(वौयेज टू ईस्ट इण्डीजः फ्रा बारटोलोमाको पृष्ठ १४१-१४२)
टीपू द्वारा मन्दिरों का विध्वंस
दी मैसूर गज़टियर बताता है कि ' 'टीपू ने दक्षिण भारत में आठ सौ से अधिक मन्दिर नष्ट किये थे।''
के.पी. पद्मानाभ मैनन द्वारा लिखित, 'हिस्ट्री ऑफ कोचीन और श्रीधरन मैनन द्वारा लिखित, हिस्ट्री ऑफ केरल' उन नष्ट किये गये मन्दिरों में से कुछ का वर्णन करते हैं-
''चिन्गम महीना ९५२ मलयालम कैलेंडर यानी अगस्त १७८६ में टीपू की फौज ने प्रसिद्ध पेरुमनम मन्दिर की मूर्तियों का ध्वंस किया और त्रिचूर ओर करवन्नूर नदी के मध्य के सभी मन्दिरों का ध्वंस कर दिया।
इरिनेजालाकुडा और थिरुवांचीकुलम के भव्य मन्दिरों को भी टीपू की सेना द्वारा नष्ट किया गया।
''अन्य प्रसिद्ध प्राचीन मन्दिरों में से कुछ, जिन्हें लूटा गया और नष्ट किया गया, था, वे थे-
त्रिप्रंगोट, थ्रिचैम्बरम्, थिरुमवाया, थिरवन्नूर, कालीकट थाली, हेमम्बिका मन्दिरपालघाट का जैन मन्दिर, माम्मियूर, परम्बाताली, पेम्मायान्दु, थिरवनजीकुलम, त्रिचूर का बडक्खुमन्नाथन मन्दिर, वेलूर शिवा मन्दिर आदि।''
टीपू ने अपनी डायरी में लिखा-
"चिराकुल राजा ने मेरी सेना द्वारा स्थानीय मन्दिरों को विनाश से बचाने के लिए मुझे चार लाख रुपये का सोना चाँदी देने का प्रस्ताव रखा था। किन्तु मैंने उत्तर दिया ''यदि सारी दुनिया भी मुझे दे दी जाए तो भी मैं हिन्दू मन्दिरों को ध्वंस करने से नहीं रुकूँगा''
(फ्रीडम स्ट्रगिल इन केरल : सरदार के.एम.पाणिक्कर)
 टीपू द्वारा केरल की विजय का प्रलयंकारी एवं सजीव वर्णन, 'गजैटियर ऑफ केरल के सम्पादक और विखयात इतिहासकार ए. श्रीधर मैनन द्वारा किया गया है। उसके अनुसार-
"हिन्दू लोग, विशेष कर नायर और सरदार जाति के लोग जिन्होंने टीपू के पहले से ही इस्लामी आक्रमणकारियों का प्रतिरोध किया था, टीपू के क्रोध का प्रमुख निशाना बन गये थे।
सैकड़ों नायर महिलाओं और बच्चों को पकड़ कर श्री रंगपटनम ले जाया गया और डचों के हाथ दास के रूप में बेच दिया गया था। हजारों ब्राह्मणों, क्षत्रियों और हिन्दुओं के अन्य सम्माननीय जाति के लोगों को इस्लाम या मृत्यु में से एक चुनने को बाध्य किया गया।''
हमारे मार्क्सिस्ट इतिहासकारों ने धर्मनिरपेक्षता का झूठा ढोंग कर टीपू सुल्तान को वीर और देशभक्त पुरुष के रूप में वर्णन किया है। किन्तु सच्चाई तो ये है कि टीपू का सम्बन्ध उस राष्ट्र,उस मिट्टी से कभी भी नहीं रहा जो उसका गृह स्थान था। वह केवल हिन्दू भूमि का एक मुस्लिम शासक था। जैसा उसने स्वंय कहा था उसके जीवन का उद्देश्य अपने राज्य को दारुल इस्लाम (इस्लामी देश) बनाना था। टीपू ब्रिटिशों से अपने ताज की सुरक्षा के लिए लड़ा था न कि देश को विदेशी गुलामी से मुक्त कराने के लिए।
उसने तो स्वयं भारत पर आक्रमण करने, और राज्य करने के लिए अफगानिस्तान के जहनशाह को आमंत्रित
किया था।(जहनशाह को लिखे पत्रों को पढ़िये)
भारत के सैक्यूलरिस्टों ने राष्ट्रीय एकता और धर्मनिरपेक्षता की आड़ लेकर हमेशा से ही इतिहास, साहित्य और पुस्तकों से लेकर आजादी की लड़ाई और आजादी के बाद के भारत-पाकिस्तान युद्धों तक में मुस्लिमों को जबरदस्ती हीरो बनाने की कोशिश की है। प्रयास अच्छा है परन्तु इस प्रयास में हमलावरों, लुटेरों, खूनियों और हत्यारों को भी नायकों की तरह प्रस्तुत करना समझ से परे है।
लेकिन अब वोटबैंक के लालची राजनीतिज्ञों के आदेश पर लिखने वाले इन पैसों के भूखे लेखकों की समझ में आ जाना चाहिए कि इन मुस्लिम अत्याचारियों और हमलावरों के, हिन्दुओं पर किये गये अत्याचारों, को दबाने, छिपाने से, कोई भी लाभ नहीं हो सकेगा
 क्योंकि अब राष्ट्रवादियों के हाथों में सदी के संचार का सबसे बड़ा हथियार सोशल मीडिया आ चुका है। जो इन नकली धर्मनिरपेक्ष लेखकों के हर झूठ की परतें उघाड़ कर रख देगा।
सामान्य हिन्दुओं को भी समझ लेना चाहिए कि, अपने देश के इतिहास का पूर्ण ज्ञान, और अपने पूर्वजों के भाग्य-दुर्भाग्य, से पाठ सीख लेना अनिवार्य है; क्योंकि इतिहास की पुनरावृत्ति जरूर होती है।

हमारे देश के अलग अलग जगहों के असली नाम जाने

जानिये हमारे देश के कइ गांव ओर शहरो के असली नाम
सब से पहले हमारे देश इंडिया का असली नाम
भारत , आर्यावर्त या हिन्दूस्तान था !

अब गांव ओर शहरो के नाम..>>
***********************!
कानपुर का असली नाम कान्हापुर !
दिल्ली का असली नाम इन्द्रप्रस्थ !
हैदराबाद का असली नाम भाग्यनगर !
इलाहाबाद का असली नाम प्रयाग !
औरंगाबाद का असली नाम संभाजी नगर/ देवगिरी  !
भोपाल का असली नाम भोजपाल !
लखनऊ का असली नाम लक्ष्मणपूरी !
अहमदाबाद का असली नाम कर्णावती !
अलीगढ़ का असली नाम हरीगढ़ !
मिराज का असली नाम शिवप्रदेश !
मुजफ्फरनगर का असली नाम लक्ष्मीनगर !
शामली का असली नाम श्यामली !
रोहतक का असली नाम रोहितास पुर !
पोरबंदर का असली नाम सुदामा पुरी !
पटना का असली नाम पाटली पुत्र !
नांदेड का असली नाम नंदीग्राम !
आजमगढ का असली नाम आर्य गढ !
अजमेर का असली नाम अजय मेरु !
उज्जैन का असली नाम अवंतिका !
जमशेदपुर का असली नाम काली माटी !
बिशाखापट्टनम का असली नाम विजात्रापश्म !
गुवाहटी का असली नाम गौहाटी !
सुल्तानगँज का असली नाम चम्पानगरी !
बुरहानपुर का असली नाम ब्रह्म पुर !
इंदौर का असली नाम इंदुर !
नशरुलागंज का असली नाम भीरुंदा !
 सोनीपत का असली नाम स्वणॅ प्रस्थ !
पानीपत का असली नाम पर्ण प्रस्थ !
बागपत का असली नाम बाग प्रस्थ !
ओसामानाबाद का असली नाम धारा शिव ( महाराष्ट्र मे ) !
देवरिया का असली नाम देवपुरी ( उत्तर प्रदेश मे )

इन शहरों को फिर से इनके पुराने नाम दिए जाएँ

ये सभी नाम मुगलो, अंग्रेजो ओर आज तक
की सभी सरकार ने बदले है !

ज्यादा कुछ नहीं तो हम सोशल मीडिया में
ही इनका असली नाम लिखा करे !
आपके ध्यान मे ओर कोइ ऐ

मोती लाल नेहरु की एक धर्म पत्नी और चार अन्य अवैध पत्नियाँ थीं

 
क्या आप जानते हैं मोती लाल नेहरु की एक धर्म पत्नी और चार अन्य अवैध पत्नियाँ थीं |

(1) श्रीमती स्वरुप कुमारी बक्शी :- (विवाहिता पत्नी) से दो संतानें थीं |

(2) थुस्सू रहमान बाई :- से श्री जवाहरलाल नेहरु और शैयद हुसैन (अपने मालिक मुबारक अली से पैदा हुए थे | मालिक को निपटा दिया उसके बाद उसकी धन संपत्ति और बीबी बच्चे हथिया लिए थे)

(3) श्रीमती मंजरी :- से श्री मेहरअली सोख्ता (आर्य समाजी नेता)

(4) ईरान की वेश्या :- से मुहम्मद अली जिन्ना |

(5) नौकरानी (रसोइया) :- से शेख अब्दुल्ला (कश्मीर के मुख्यमंत्री )

(क) श्रीमती स्वरुप कुमारी बक्शी (विवाहिता पत्नी) से दो संतानें थीं | A. श्रीमती कृष्णा w/o श्री जय सुख लाल हाथी (पूर्व राज्यपाल ) B. श्रीमती विजय लक्ष्मी पंडित w/o श्री आर.एस.पंडित (पूर्व. राजदूत रूस), पहले विजय लक्ष्मी पंडित ने अपने आधे भाई शैयद हुसैन से शारीरिक सम्बन्ध स्थापित किये थे जिससे संतान हुई चंद्रलेखा जिसको श्री आर.एस.पंडित ने अपनी बेटी के रूप में स्वीकार किया |

(ख.) थुस्सू रहमान बाई - से श्री जवाहरलाल नेहरु और शैयद हुसैन - शैयद हुसैन इनके मालिक मुबारिक अली की संतान थी जिनको इन्होने मुबारिक की मौत के बाद अपना लिया था | मुबारक अली की एक और संतान थी मंज़ूर अली जो कि इंदिरा की खुनी पिता थे |

जवाहर लाल नेहरु ने कमला कोल को कभी अपनी पत्नी नहीं माना था और सुहागरात भी नहीं मनाई थी |  कमला कश्मीरी पंडित थी यह जवाहर को एकदम पसंद नहीं थी, वैसे वो सिर्फ मुल्ले या अँग्रेज़ को ही ऊँची Race का घोडा मानते थे |

कमला की जिंदगी एक दासी के जैसी थी जिस अबला नारी को मंजूर अली ने ही हाथ थाम लिया था | इसी करण वश नेहरु को इंदिरा जरा भी नही सुहाती थी | अब जब क़ानूनी तौर पर इंदिरा ही उसकी बेटी थी इसलिए न चाहते हुए भी उसको इंदिरा को आगे बढ़ाना पड़ा हलाकि उसके जीते जी इंदिरा कोई खेल नहीं कर पाए थी | वो तो बेचारे शास्त्री जी इसकी बातों में आकर ताशकंत चले गए थे पाकिस्तान से समझौता करने वहाँ इंदिरा ने याह्या खान की मदद से शास्त्री जी को जहर दिलवा कर मरवा डाला था और बताया की मौत ह्रदय की गति रुकने से हो गए | कोई पोस्टमार्टम नहीं कोई रिपोर्ट नहीं. इंदिरा ने मौका पाते ही झट से कुर्सी हड़प ली थी |

प्रियदर्शिनी नेहरु उर्फ़ मैमूना बेगम उर्फ़ श्रीमती इंदिरा खान w/o श्री फिरोज जहाँगीर
खान (पर्शियन मुस्लमान) जो कि बाद में गाँधी बन गए थे | से दो पुत्र एक राजीव खान (पिता फ़िरोज़ जहाँगीर खान) और संजय खान (पिता मोहम्मद युनुस), तीसरा बच्चा जो म. ओ. मथाई (जवाहरलाल का पी ऐ) जिसको गिरा दिया गया क्योंकि वो आशंका थी की कही रंग दबा हुआ (काला) निकला तब कैसे मुह छुपाएगी |

(ग.) श्रीमती मंजरी - से एक पुत्र श्री मेहर अली सोख्ता (आर्य समाजी नेता )

(घ.) ईरान की वेश्या - से मुहम्मद अली जिन्ना

(ङ.) नौकरानी (रसोइया ) से शेख अब्दुल्ला (कश्मीर के मुख्यमंत्री ). शेख अब्दुल्लाह के दो पुत्र फारूक अब्दुल्ला , पुत्र उमर अब्दुल्ला

नेहरु ने देश के तीन टुकड़े किये थे | इंडिया (इंदिरा के लिए), पाकिस्तान (अपने आधे भाई जिन्ना के लिए) और कश्मीर (अपने आधे भाई शेख अब्दुल्लाह के लिए) | अरे वाह एक ही परिवार तीनो जगह सियासत भाई मानना पड़ेगा नेहरु के दिमाग को |
यह वही नेहरु है जिनके मुह बोले पिता मोतीलाल के पिता गयासुद्दीन गाजी जमुना नहर वाले दिल्ली से चम्पत हो गए थे 1857 की म्युटिनी में और जाकर छुप गए कश्मीर में | जहाँ अपना नाम परिवर्तित किया था गयासुद्दीन गाजी से पंडित गंगाधर नेहरु नया नाम और सर पर गाँधी टोपी लगाये पहुच लिए इलाहबाद | लड़के को वकील बनाया और लगा दिया मुबारक अली की लॉ कंपनी में |

टिप्पणी :- एक घर से तीन प्रधानमन्त्री और चौथा राहुल को कांग्रेस बनाने जा रही है |

साभार - जॉन मथाई की आत्मकथा से (जवाहरलाल नेहरु के व्यक्तिगत सचिव )