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Monday, October 25, 2021

ब्राह्मण_सरदार शंकर चक्रवर्ती - मुघलों का काल||

 

【●|| ब्राह्मण_सरदार_शंकर_चक्रवर्ती - #मुघलों_का_काल||● 】


इतिहास में ब्राह्मणों की वीरता की कहानी से हम लगभग भुला दिए गए हैं, लेकिन इतिहास के पन्नों में दर्ज वे सभी ऐतिहासिक घटनाएं आज भी हमें विस्मय से विस्मित करती हैं। आत्म-बलिदान के इन वीर कृत्यों ने भारतवर्ष को विदेशी हमलावरों के आक्रमण से रक्षा के साथ-साथ राष्ट्रीय गौरव भी बचाया है। इतिहास में ऐसी ही असाधारण वीर ब्राह्मण सेनापति है सरदार शंकर चक्रवर्ती, जिसने अपनी वीरता और बुद्धिमत्ता से विधर्मी मुघल शक्ति को बार-बार पराजित किया। ईनका जन्म सोलहवीं शताब्दी के अंतिम भाग में बंगाल के हरिपाल अंतर्गत द्वारहट्टा के पास प्रसादपुर गांव में हुआ था। एक साधारण मध्यमवर्गीय कुलीन ब्राह्मण परिवार में जन्मे, वह अपनी बुद्धि और क्षमता के कारण बंगाल के स्वतंत्र सम्राट महाराज प्रतापादित्य के यशोर सेना के राजसेनाध्यक्ष और मुख्य सलाहकार के पद तक पहुंचे।


सोलहवीं शताब्दी में दिल्ली में मुघल बादशाह अकबर का शासन चल रहा था । इस समय वीर महाराज प्रतापादित्य के शासन में बंगाल एक स्वतंत्र हिंदू राज्य बनके खड़ा हुआ था । शंकर के वीरता,व्यक्तित्व और चरित्र से प्रभावित होकर महाराज प्रतापादित्य उनको बंगाल के यशोर सेनापति के पद में निर्वाचन किया । महाराजा प्रतापादित्य के मुख्य सलाहकार शंकर चक्रवर्ती थे । सरदार शंकर एक परमधार्मिक शैव और महादेव के भक्त थे । युद्ध के मैदान में, विशेष रूप से मुघल सत्ता के खिलाफ लड़ाई में, शंकर ने हमेशा प्रतापादित्य को युद्ध की रणनीति करने की सलाह दी। इस सलाह ने प्रतापादित्य को कई लड़ाइयों में मुघलों को हराने में मदद की।


1) हिजली का युद्ध / ओडिशा विजय : 


इस समय ओडिशा सल्तनत में लोहानी पठान सुल्तानों का राज था जो हिंदुओं पर चरम अत्याचार करते थे । ओडिशा सल्तनत के अंतर्गत हिजली में सुल्तान ताज खान मसन्दरी का राज था जो जगन्नाथ रथयात्रा के दिन गौ-ब्राह्मण निधन शुरू किए । पठानों की इस अत्याचार से क्रोधित होकर इसी समय महाराज प्रतापादित्य ने हिजली पर आक्रमण कर दिया, इस आक्रमण के नेतृत्व में थे सेनापति शंकर चक्रवर्ती । हिजली में ताज खान और ईशा खान के साथ शंकर का भयंकर युद्ध हुआ । इस युद्ध मे शंकर ने ताज खान को बुरी तरह हराया और ईशा खान युद्ध के मैदान में ही मार दिया गया। इस युद्ध मे विजय से ओडिशा सल्तनत बंगाल के सम्राट प्रतापादित्य के शासन में एक सामंतराज्य बन गया और सनातन धर्म का विजययात्रा शुरू हुआ । 


2) पटना का युद्ध :


शंकर चक्रवर्ती की वीरता से भयभीत होकर अकबर ने पटना के नवाब अब्राहाम खान को एक बड़ी सेना के साथ बंगाल आक्रमण करने भेजा। अब्राहाम खान पटना के सभी सैनिकों के साथ बंगाल में प्रवेश किया और जेसोर की ओर बढ़ गया। आसन्न युद्ध की खबर सुनते ही, सरदार शंकर सैन्यसंयोग शुरू किया। जेसोर में मौटाला गढ़ के पास, शंकर एक विस्तृत दो-तरफा संरचना बनाई। जब मुघल सेना मौटाला आया तो सेनापति शंकर के निर्देश से बंगाल के सेना ने दो दिशाओं से आक्रमण करना शुरू कर दिया। ऐसे दोतरफा हमले में अधिकांश मुघल सेना की मौत हो गई और बाकी मुगल सेना डर ​​के मारे जेसोर सेना में शामिल हो गई। अब्राहाम खान को बंदी बना लिया गया।


3) राजमहल का युद्ध : 


वीर सेनापति शंकर चक्रवर्ती अब साम्राज्य विस्तार करना शुरू किया। लगभग पच्चीस हजार सैनिकों के साथ उसने राजमहल पर हमला किया। शंकर चक्रवर्ती की नेतृत्व में बंगाल की सेना गंगा के तट पर राजमहल में शेर खान की मुघल सेना के साथ भीषण लड़ाई लड़ी। आखिरकार नवाब की सेना हार गई और शेर खान दिल्ली भाग गया । इसके बाद सम्पूर्ण बिहार से मुघलो को खदेड़ कर इसे बंगाल के स्वतंत्र हिंदू शासन में लाया गया ।


(4) कालिन्द्री की युद्ध (1603): 


1603 में मुगल बादशाह जहांगीर बंगाल आक्रमण के लिए लड़ने के लिए मान सिंह के साथ 22 मुघल उमराह फौजदार भेजे। जेसोर पर हमले के दौरान कालिंदी नदी के पूर्वी तट पर बसंतपुर क्षेत्र में एक शिविर का निर्माण करते हुए, उन्होंने देखा कि सरदार शंकर उनके चारों ओर सैनिकों की व्यवस्था करके युद्ध का सारा इंतज़ाम करके रखे है । बसंतपुर-शीतलपुर क्षेत्र में बंगाल के सेना और मुघल सेना के बीच एक भीषण लड़ाई लड़ी गई थी। सरदार शंकर के नेतृत्व में युद्धग्रस्त बंगाल सेना की छापामार नौकाओं के हमले में मुघल सेना व्यावहारिक रूप से विध्वस्त हो गया। 22 मुघल उमराह में 12 युद्ध मे मारे गए थे और अन्य 10 अपनी जान बचाने के लिए युद्ध के मैदान से भाग गए थे। सरदार शंकर का महाकालस्वरूप उग्रमूर्ति देख मान सिंह मैदान छोड़ के भाग गया । 


सरदार शंकर चक्रवर्ती धर्म और राष्ट्र के रक्षा के लिए अनेक लड़ाईया लड़े । अपने जीवन के अंतिम समय मे उन्होंने ब्रह्मचर्य को अपनाया और तपस्या करके जीवन बिताया । बारासात इलाके में उनके खोदित पुष्करिणी "शंकरपुकुर" के नाम से आज भी उनके स्मृति का याद दिलाता है । मुघलों के खिलाफ उनके संघर्ष की कहानी ब्राह्मणों के वीरता को एक अलग आयाम दिया है। जाती की मन मे सरदार शंकर की स्मृति जगाने के लिए कलकत्ता निगम की पहल पर दक्षिण कोलकाता के कालीघाट की एक गली का नाम 'सरदार शंकर रोड' रखा गया है। स्मरण के उद्देश्य से एक पत्थर की पटिया पर खुदा हुआ -

Sunday, November 4, 2018

The Peshva kingdom of India


17वी से 18वी सती तक चित्पावन ब्राह्मणों की शौर्यपूर्ण पराक्रम एवं कूटनीतिज्ञता के बल पर संपूर्ण अटक , कटक से लेकर अफ़ग़ान , सिंध , रावी , बंगाल की खाड़ी तक पेशवाओं ने एकछत्र हिन्दू स्वराज्य की स्थापना किया पेशवा अर्थात प्रधानमंत्री क्षत्रिय राजा महाराजों ने प्रधानमंत्री के स्थान पर सदैव चित्पावन ब्राह्मण को नियुक्त किया क्योंकि प्रधानमंत्री (पेशवा) सबसे महत्वपूर्ण पद होता था जिसमे केवल चित्पावन ब्राह्मण को नियुक्त किया जाता था क्योंकि इस पद की विशेषता थी शास्त्र एवं शस्त्र दोनों से शत्रु एवं मित्र को उत्तर देना पहले के समय में भी इस पद पर ब्राह्मण को ही नियुक्त किया जाता था (अयाचक एवं याचक दोनों को) । क्षत्रिय और चित्पावन ब्राह्मण की एकत्रीकरण से तुर्क ,मुग़ल , निज़ाम, नवाब सबके पसीने छूट गए थे तभी तो क्षत्रिय राजा छत्रपति महाराजा शिवाजी के साम्राज्य का पेशवा श्रीमंत मोरोपंत त्र्यम्बंक पिंगले जी ने संपूर्ण दक्कन से लेकर सूरत तक केसरिया पताका फैराया था । शिवाजी महाराज के बाद उनके वंशज छत्रपति शाहूजी महाराज के शासन काल तक पेशवाओं ने संपूर्ण धरा को भगवामयी कर दिए थे एवं हिन्दवी स्वराज्य की स्थापना कर चुके थे । क्षत्रिय राजा सर्वोच्च पद सलाहकार के पद पर याचक ब्राह्मण को एवं प्रधानमंत्री के पद पर चित्पावन ब्राह्मण को नियुक्त करते थे ।
मोरोपन्त त्रयम्बक पिंगले (1620 – 1683), मराठा साम्राज्य के प्रथम पेशवा थे। उन्हें 'मोरोपन्त पेशवा' भी कहते हैं। वे छत्रपति शिवाजी के अष्टप्रधानों में से एक थे।
प्रारंभिक जीवन
मोरोपन्त त्रयम्बक पिंगले जी का जन्म 1620 निमगांव में देशस्थ ब्राह्मण परिवार में हुआ था।
पेशवा मोरोपंत जी ने छत्रपति शिवाजी महाराज के शासनकाल में राजस्व प्रणाली की शुरुआत की, और छत्रपति शिवाजी महाराज पेशवा मोरोपंत की कुशल रणनीतिज्ञता से प्रशन्न होकर उन्हें रणनीति विशेषज्ञ एवं रक्षा सलाहकार के पद पर भी पेशवा मोरोपंत जी को नियुक्त कर दिया । पेशवा मोरोपंत उनके अष्ट प्रधान में से सर्वाधिक महत्वपूर्ण एवं महाराज के निकटवर्ती थे पेशवा मोरोपंत जी महाराज छत्रपति शिवाजी ने उनके संरक्षण में किला , मंदिर एवं मठों का निर्माण, मरम्मत एवं देखरेख का दायित्व सौंप दिए थे इनसबके उपरांत संसाधन योजना बनाने का दायित्व भी पेशवा मोरोपंत जी के उपर था ।
मोरोपंत जी एक योद्धा एवं अभियंता के रूप में- पेशवा ने किला निर्माण कार्य एवं रणभूमि में योद्धाओं की भांति युद्ध करने जैसी अतिमहत्वपूर्ण भूमिका निभाई,
यह कहना कतई गलत नहीं होगा कि पेशवा मोरोपंत जी एक कुशल वास्तुशिल्प अभियन्ता थे और इस बात का पता हमें इन संदर्भों से प्राप्त होता है कि छत्रपति शिवाजी महाराज ने प्रतापगढ़ के निर्माण और प्रशासनिक कार्य की ज़िम्मेदारी पेशवा मोरोपंत को दिया था एवं छत्रपति शिवाजी की असमय देहत्याग करने पर मोरोपंत पिंगले नाल जिले में साल्हेर-मुल्हर किलों के विकास कार्य एवं निर्माण कार्य एवं किले का शिल्पकार करने का दायित्व पेशवा मोरोपंत को दिया गया था ,पेशवा मोरोपंत जी किले निर्माणकार्य में एक पर्यवेक्षक के रूप में काम कर रहे थे । अब उनका दूसरा एवं सबसे महत्वपूर्ण स्वरूप जिनकी वजह से वो महाराज छत्रपति के सर्वाधिक प्रिय थे वो है एक योद्धा का स्वरूप वो युद्धकला में दक्षता प्राप्त किये थे पेशवा (अयाचक ब्राह्मण) केवल शास्त्र के नहीं शस्त्र के भी धनी थे ।
मोरोपंत जी द्वारा लड़ा गया प्रमुख युद्ध - पेशवा मोरोपंत जी के नेतृत्व में दो निर्णायक युद्ध लड़ा गया जिसके लिए उनको महाराजा छत्रपति शिवाजी ने उनको सर्वाधिक महत्वपूर्ण स्थान पर नियुक्त किया ।त्रयम्बकेश्वर किला विजय अभियान एवं वानी-डिंडोरी का युद्ध सन 1670 ईसवी में लड़े जानेवाली ऐतिहासिक युद्ध था जिसमें मुग़ल सल्तनत की और से दाऊद ख़ाँ , इखलास ख़ाँ , मीर अब्दुल माबूद लड़ रहे थे। मुग़ल सल्तनत के प्रमुख सेनापति की तीन टुकड़ी बनी जिसमें त्रयम्बकेश्वर किले को मुग़ल के अधीनस्थ करने का दायित्व दाऊद ख़ाँ को मिला उसके नेतृत्व में 52,000 सैन्यबल था और दाऊद ख़ाँ के समक्ष थे श्री मोरोपंत पिंगले पेशवा , छत्रपति शिवाजी ने त्रयम्बकेश्वर किले पर हिन्दवी स्वराज्य का ध्वज फहराने का दायित्व पेशवा को दिया था। पेशवा के नेतृत्व में 1200 के संख्या में सैन्यबल था जिन्हें घात लगाकर युद्ध करने की पद्धति एवं मनोवैज्ञानिक युद्ध पद्धत्ति में महारथ हासिल थी ।
पेशवा मोरोपंत पिंगले जी मनोवैज्ञानिक युद्ध कला के जनक - पेशवा मोरोपंत जी का मुख्य हथियार था मनोवैज्ञानिक युद्ध पद्धत्ति इसी युद्ध पद्धत्ति के बल पर उन्होंने दाऊद ख़ाँ को परास्त करके शिवाजी महाराज के हिन्दवी स्वराज्य के साम्राज्य में त्र्यम्बकेश्वर किले को सम्मिलित करने का कर्तव्य निभाया।
पेशवा मोरोपंत पिंगले जी को मनोवैज्ञानिक युद्धकला का जनकपिता माना जाता हैं ।
निष्कर्ष:- सिर्फ इतना ही नहीं बंगाल में प्रतिहार राजपूत राजाओं के साथ संयुक्त मोर्चा बनाकर पेशवा मोरोपंत जी ने बंगाल को अबीसीनिया के अरबी लूटेरों आक्रांताओं से मुक्त करवाया , महाराज सवाई जय सिंह के साथ संयुक्त मोर्चा कर पेशवा बाजी राव ने मुग़ल सल्तनत की साम्राज्य पर आखरी कील ठोका था। यह तो केवल एक झलक है पेशवाओं के वीरगाथा की ऐसे सैकड़ो सफल युद्ध अभियान कर पेशवाओं ने हिन्दू स्वराज्य की स्थापना में एवं धर्म रक्षा में अपना योगदान दिया था।
लेकिन आज के समय के हालात ये हैं कि वर्तमान सरकार के आँखों मे चुभ रहा है ब्राह्मण वर्ण यही नहीं कुछ लोगों ने चित्पावन ब्राह्मण को विदेशी भी बताना शुरू कर दिया है परंतु यह कथन "पेशवा की पेशवाई ना होता तो अटक- कटक से लेकर रावी-सिंध भगवामयी ना होता" उतना ही सत्य है जितना अंधेरे के बाद उजाले का होना । पेशवाओं को विदेशी बताने वाले लोगों और उन्हें लुटेरे की संज्ञा देने वाले कुछ इतिहासविदुरों से एक सवाल है कि पेशवाओं के साथ किसी आक्रमणकारी की व्यक्तिगतरूप से तो शत्रुता नहीं थी फ़िर क्यों पेशवाओं ने निरंतर युद्ध कर भारतवर्ष से आक्रमणकारियों को खदेड़ कर भारतवर्ष पर हिन्दू साम्राज्य का स्थापना किया आखिर किसके लिए खुद के लिए या सम्पूर्ण आर्यवर्त के लिए ???
आज की परिस्थिति ऐसी है कि महाराष्ट्र जो कि पेशवाओं की प्रमुख कर्मभूमि एवं जन्मभूमि रही है वहां कोरेगांव जयंती जैसी शर्मनाक कार्यक्रम का आयोजन करके पेशवाओं के साथ गद्दारी करके हरा के उनकी हार का जश्न मनाया जाता है तब किसी पार्टी का मुंह नहीं खुलता है लेकिन जब सर्वोच्च न्यायालय के एक सही निर्णय के खिलाफ यही तथाकथित शोषित वर्ग जब पब्लिक प्रॉपर्टी को नष्ट करते हुए हल्ला बोलते हैं तब तुरंत वर्तमान सरकार द्वारा सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय के खिलाफ दो दो बार पुनर्विचार याचिका दायर कर दिया जाता है, अंत में बस भारत सरकार से यही एक अनुरोध है कि 125 करोड़ भारतीय आपके सन्तानतुल्य है और पिता का कर्तव्य होता है कि सन्तान जब मार्ग से भटके तो उसे सही मार्ग बताये ना कि मार्ग भटकाये और भ्रम पैदा करे क्योंकि वर्तमान भारत सरकार ने न्यायालय के फैसले के खिलाफ जो पुनर्विचार याचिका दायर की है वो आग में घी डालने का कार्य कर रही है और इससे यह भी सिद्ध होता है कि भारत सरकार भी इतिहास शायद बॉलीवुड के उन फिल्मों से सीखते हैं जिसमें मनगढंत कहानी बनाकर ब्राह्मणों और क्षत्रियों को हमेशा विलेन बताया जाता है ।
© COPYRIGHT मनीषा सिंह सूर्यवंशी (इतिहासकार) की कलम से ✍️✍️

मरियम उद ज़मानी”, जोधा बाई बता कर एक झूठी अफवाह


जब भी कोई हिन्दू राजपूत किसी मुग़ल की गद्दारी की बात करता है तो कुछ मुग़ल प्रेमियों द्वारा उसे जोधाबाई का नाम लेकर चुप करने की कोशिश की जाती है!
बताया जाता है की कैसे जोधा ने अकबर की आधीनता स्वीकार की या उससे विवाह किया!
परन्तु अकबर कालीन किसी भी इतिहासकार ने जोधा और अकबर की प्रेम कहानी का कोई वर्णन नही किया!
सभी इतिहासकारों ने अकबर की सिर्फ 5 बेगम बताई है!
1.सलीमा सुल्तान
2.मरियम उद ज़मानी
3.रज़िया बेगम
4.कासिम बानू बेगम
5.बीबी दौलत शाद
अकबर ने खुद अपनी आत्मकथा अकबरनामा में भी किसी हिन्दू रानी से विवाह का कोई जिक्र नहीं किया!
परन्तु हिन्दू राजपूतों को नीचा दिखने के लिए कुछ इतिहासकारों ने अकबर की मृत्यु के करीब 300 साल बाद 18 वीं सदी में “मरियम उद ज़मानी”, को जोधा बाई बता कर एक झूठी अफवाह फैलाई!
और इसी अफवाह के आधार पर अकबर और जोधा की प्रेम कहानी के झूठे किस्से शुरू किये गए!
जबकि खुद अकबरनामा और जहांगीर नामा के अनुसार ऐसा कुछ नही था!
18वीं सदी में मरियम को हरखा बाई का नाम देकर हिन्दू बता कर उसके मान सिंह की बेटी होने का झूठ पहचान शुरू किया गया!
फिर 18वीं सदी के अंत में एक ब्रिटिश लेखक जेम्स टॉड ने अपनी किताब "एनालिसिस एंड एंटटीक्स ऑफ़ राजस्थान" में मरीयम से हरखा बाई बनी इसी रानी को जोधा बाई बताना शुरू कर दिया!
और इस तरह ये झूठ आगे जाकर इतना प्रबल हो गया की आज यही झूठ भारत के स्कूलों के पाठ्यक्रम का हिस्सा बन गया है और जन जन की जुबान पर ये झूठ सत्य की तरह आ चूका है!
और इसी झूठ का सहारा लेकर राजपूतों को निचा दिखाने की कोशिश जारी है!
जब भी मैं जोधाबाई और अकबर के विवाह प्रसंग को सुनता या देखता हूं तो मन में कुछ अनुत्तरित सवाल कौंधने लगते हैं!
आन,बान और शान के लिए मर मिटने वाले शूरवीरता के लिए पूरे विश्व मे प्रसिद्ध भारतीय क्षत्रिय अपनी अस्मिता से क्या कभी इस तरह का समझौता कर सकते हैं??
हजारों की संख्या में एक साथ अग्नि कुंड में जौहर करने वाली क्षत्राणियों में से कोई स्वेच्छा से किसी मुगल से विवाह कर सकती हैं??
जोधा और अकबर की प्रेम कहानी पर केंद्रित अनेक फिल्में और टीवी धारावाहिक मेरे मन की टीस को और ज्यादा बढ़ा देते हैं!
अब जब यह पीड़ा असहनीय हो गई तो एक दिन इस प्रसंग में इतिहास जानने की जिज्ञासा हुई तो पास के पुस्तकालय से अकबर के दरबारी 'अबुल फजल' द्वारा लिखित 'अकबरनामा' निकाल कर पढ़ने के लिए ले आया!
उत्सुकतावश उसे एक ही बैठक में पूरा पढ़ डाला पूरी किताब पढ़ने के बाद घोर आश्चर्य तब हुआ जब पूरी पुस्तक में जोधाबाई का कहीं कोई उल्लेख ही नही मिला!
मेरी आश्चर्य मिश्रित जिज्ञासा को भांपते हुए मेरे मित्र ने एक अन्य ऐतिहासिक ग्रंथ 'तुजुक-ए-जहांगिरी' जो जहांगीर की आत्मकथा है उसे दिया!
इसमें भी आश्चर्यजनक रूप से जहांगीर ने अपनी मां जोधाबाई का एक भी बार जिक्र नही किया!
हां कुछ स्थानों पर हीर कुँवर और हरका बाई का जिक्र जरूर था!
अब जोधाबाई के बारे में सभी एतिहासिक दावे झूठे समझ आ रहे थे कुछ और पुस्तकों और इंटरनेट पर उपलब्ध जानकारी के पश्चात हकीकत सामने आयी कि “जोधा बाई” का पूरे इतिहास में कहीं कोई जिक्र या नाम नहीं है!
इस खोजबीन में एक नई बात सामने आई जो बहुत चौकानें वाली है!
ईतिहास में दर्ज कुछ तथ्यों के आधार पर पता चला कि आमेर के राजा भारमल को दहेज में 'रुकमा' नाम की एक पर्सियन दासी भेंट की गई थी जिसकी एक छोटी पुत्री भी थी!
रुकमा की बेटी होने के कारण उस लड़की को 'रुकमा-बिट्टी' नाम से बुलाते थे आमेर की महारानी ने रुकमा बिट्टी को 'हीर कुँवर' नाम दिया चूँकि हीर कुँवर का लालन पालन राजपूताना में हुआ इसलिए वह राजपूतों के रीति-रिवाजों से भली भांति परिचित थी!
राजा भारमल उसे कभी हीर कुँवरनी तो कभी हरका कह कर बुलाते थे!
राजा भारमल ने अकबर को बेवकूफ बनाकर अपनी परसियन दासी रुकमा की पुत्री हीर कुँवर का विवाह अकबर से करा दिया जिसे बाद में अकबर ने मरियम-उज-जमानी नाम दिया!
चूँकि राजा भारमल ने उसका कन्यादान किया था इसलिये ऐतिहासिक ग्रंथो में हीर कुँवरनी को राजा भारमल की पुत्री बता दिया!
जबकि वास्तव में वह कच्छवाह राजकुमारी नही बल्कि दासी-पुत्री थी!
राजा भारमल ने यह विवाह एक समझौते की तरह या राजपूती भाषा में कहें तो हल्दी-चन्दन किया था!
इस विवाह के विषय मे अरब में बहुत सी किताबों में लिखा है!
(“ونحن في شك حول أكبر أو جعل الزواج راجبوت الأميرة في هندوستان آرياس كذبة لمجلس”) हम यकीन नहीं करते इस निकाह पर हमें संदेह
इसी तरह ईरान के मल्लिक नेशनल संग्रहालय एन्ड लाइब्रेरी में रखी किताबों में एक भारतीय मुगल शासक का विवाह एक परसियन दासी की पुत्री से करवाए जाने की बात लिखी है!
'अकबर-ए-महुरियत' में यह साफ-साफ लिखा है कि (ہم راجپوت شہزادی یا اکبر کے بارے میں شک میں ہیں) हमें इस हिन्दू निकाह पर संदेह है क्योंकि निकाह के वक्त राजभवन में किसी की आखों में आँसू नही थे और ना ही हिन्दू गोद भरई की रस्म हुई थी!
सिक्ख धर्म गुरू अर्जुन और गुरू गोविन्द सिंह ने इस विवाह के विषय मे कहा था कि क्षत्रियों ने अब तलवारों और बुद्धि दोनो का इस्तेमाल करना सीख लिया है, मतलब राजपुताना अब तलवारों के साथ-साथ बुद्धि का भी काम लेने लगा है!
17वी सदी में जब 'परसी' भारत भ्रमण के लिये आये तब उन्होंने अपनी रचना ”परसी तित्ता” में लिखा “यह भारतीय राजा एक परसियन वैश्या को सही हरम में भेज रहा है अत: हमारे देव(अहुरा मझदा) इस राजा को स्वर्ग दें"!
भारतीय राजाओं के दरबारों में राव और भाटों का विशेष स्थान होता था वे राजा के इतिहास को लिखते थे और विरदावली गाते थे उन्होंने साफ साफ लिखा है-
”गढ़ आमेर आयी तुरकान फौज ले ग्याली पसवान कुमारी ,राण राज्या राजपूता ले ली इतिहासा पहली बार ले बिन लड़िया जीत!
(1563 AD)
मतलब आमेर किले में मुगल फौज आती है और एक दासी की पुत्री को ब्याह कर ले जाती है!
हे रण के लिये पैदा हुए राजपूतों तुमने इतिहास में ले ली बिना लड़े पहली जीत 1563 AD!
ये ऐसे कुछ तथ्य हैं जिनसे एक बात समझ आती है कि किसी ने जानबूझकर गौरवशाली क्षत्रिय समाज को नीचा दिखाने के उद्देश्य से ऐतिहासिक तथ्यों से छेड़छाड़ की और यह कुप्रयास अभी भी जारी है!
लेकिन अब यह षडयंत्र अधिक दिन नही चलेगा ।
🚩🚩जय माँ भवानी. 🚩🚩

Monday, June 6, 2016

जानिए कौन थे राजा वीर विक्रमादित्य, उनसे जुड़े कुछ तथ्य

जानिए कौन थे राजा वीर विक्रमादित्य, उनसे जुड़े कुछ तथ्यविक्रम संवत के प्रवर्तक : देश में अनेक विद्वान ऐसे हुए हैं, जो विक्रम संवत को उज्जैन के राजा विक्रमादित्य द्वारा ही प्रवर्तित मानते हैं। इस संवत के प्रवर्तन की पुष्टि ज्योतिर्विदाभरण ग्रंथ से होती है, जो कि 3068 कलि अर्थात 34 ईसा पूर्व में लिखा गया था। इसके अनुसार विक्रमादित्य ने 3044 कलि अर्थात 57 ईसा पूर्व विक्रम संवत चलाया।

ऐतिहासिक व्यक्ति : कल्हण की ‘राजतरंगिणी’ के अनुसार 14 ई. के आसपास कश्मीर में अंध्र युधिष्ठिर वंश के राजा हिरण्य के नि:संतान मर जाने पर अराजकता फैल गई थी। जिसको देखकर वहां के मंत्रियों की सलाह से उज्जैन के राजा विक्रमादित्य ने मातृगुप्त (कालिदास) को कश्मीर का राज्य संभालने के लिए भेजा था। कालिदास को ‘कालिदास’ इसलिए कहते थे, क्योंकि वे मां काली के भक्त और प्रसिद्ध कवि थे।

नेपाली राजवंशावली अनुसार नेपाल के राजा अंशुवर्मन के समय (ईसापूर्व पहली शताब्दी) में उज्जैन के राजा विक्रमादित्य के नेपाल आने का उल्लेख मिलता है। विक्रमादित्य के समय ज्योतिषाचार्य मिहिर, महान कवि कालिदास थे। राजा विक्रम का भारत की संस्कृत, प्राकृत, अर्द्धमागधी, हिन्दी, गुजराती, मराठी, बंगला आदि भाषाओं के ग्रंथों में विवरण मिलता है। उनकी वीरता, उदारता, दया, क्षमा आदि गुणों की अनेक गाथाएं भारतीय साहित्य में भरी पड़ी हैं।

नेपाली राजवंशावली अनुसार नेपाल के राजा अंशुवर्मन के समय (ईसापूर्व पहली शताब्दी) में उज्जैन के राजा विक्रमादित्य के नेपाल आने का उल्लेख मिलता है। विक्रमादित्य के समय ज्योतिषाचार्य मिहिर, महान कवि कालिदास थे। राजा विक्रम का भारत की संस्कृत, प्राकृत, अर्द्धमागधी, हिन्दी, गुजराती, मराठी, बंगला आदि भाषाओं के ग्रंथों में विवरण मिलता है। उनकी वीरता, उदारता, दया, क्षमा आदि गुणों की अनेक गाथाएं भारतीय साहित्य में भरी पड़ी हैं।

जानिए कौन थे राजा वीर विक्रमादित्य, उनसे जुड़े कुछ तथ्ययथा श्रीहर्ष, शूद्रक, हल, चंद्रगुप्त द्वितीय, शिलादित्य, यशोवर्धन आदि।

दरअसल, आदित्य शब्द देवताओं से प्रयुक्त है। बाद में विक्रमादित्य की प्रसिद्धि के बाद राजाओं को ‘विक्रमादित्य उपाधि’ दी जाने लगी।

विक्रमादित्य के पहले और बाद में और भी विक्रमादित्य हुए हैं जिसके चलते भ्रम की स्थिति उत्पन्न होती है। उज्जैन के सम्राट विक्रमादित्य के बाद 300 ईस्वी में समुद्रगुप्त के पुत्र चन्द्रगुप्त द्वितीय अथवा चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य हुए।

एक विक्रमादित्य द्वितीय 7वीं सदी में हुए, जो विजयादित्य (विक्रमादित्य प्रथम) के पुत्र थे। विक्रमादित्य द्वितीय ने भी अपने समय में चालुक्य साम्राज्य की शक्ति को अक्षुण्ण बनाए रखा। विक्रमादित्य द्वितीय के काल में ही लाट देश (दक्षिणी गुजरात) पर अरबों ने आक्रमण किया। विक्रमादित्य द्वितीय के शौर्य के कारण अरबों को अपने प्रयत्न में सफलता नहीं मिली और यह प्रतापी चालुक्य राजा अरब आक्रमण से अपने साम्राज्य की रक्षा करने में समर्थ रहा।

पल्लव राजा ने पुलकेसन को परास्त कर मार डाला। उसका पुत्र विक्रमादित्य, जो कि अपने पिता के समान महान शासक था, गद्दी पर बैठा। उसने दक्षिण के अपने शत्रुओं के विरुद्ध पुन: संघर्ष प्रारंभ किया। उसने चालुक्यों के पुराने वैभव को काफी हद तक पुन: प्राप्त किया। यहां तक कि उसका परपोता विक्रमादित्य द्वितीय भी महान योद्धा था। 753 ईस्वी में विक्रमादित्य व उसके पुत्र का दंती दुर्गा नाम के एक सरदार ने तख्ता पलट दिया। उसने महाराष्ट्र व कर्नाटक में एक और महान साम्राज्य की स्थापना की, जो राष्ट्र कूट कहलाया।

विक्रमादित्य द्वितीय के बाद 15वीं सदी में सम्राट हेमचंद्र विक्रमादित्य ‘हेमू’ हुए। सम्राट हेमचंद्र विक्रमादित्य के बाद ‘विक्रमादित्य पंचम’ सत्याश्रय के बाद कल्याणी के राजसिंहासन पर आरूढ़ हुए। उन्होंने लगभग 1008 ई. में चालुक्य राज्य की गद्दी को संभाला। भोपाल के राजा भोज के काल में यही विक्रमादित्य थे।

20-12विक्रमादित्य पंचम ने अपने पूर्वजों की नीतियों का अनुसरण करते हुए कई युद्ध लड़े। उसके समय में मालवा के परमारों के साथ चालुक्यों का पुनः संघर्ष हुआ और वाकपतिराज मुञ्ज की पराजय व हत्या का प्रतिशोध करने के लिए परमार राजा भोज ने चालुक्य राज्य पर आक्रमण कर उसे परास्त किया, लेकिन एक युद्ध में विक्रमादित्य पंचम ने राजा भोज को भी हरा दिया था।

उज्जैन के विक्रमादित्य के समय ही विक्रम संवत चलाया गया था। इतिहासकारों के अनुसार उज्जैन के सम्राट विक्रमादित्य का राज्य भारतीय उपमहाद्वीप के अलावा ईरान, इराक और अरब में भी था। विक्रमादित्य की अरब विजय का वर्णन अरबी कवि जरहाम किनतोई ने अपनी पुस्तक ‘सायर-उल-ओकुल’ में किया है। पुराणों और अन्य इतिहास ग्रंथों के अनुसार यह पता चलता है कि अरब और मिस्र भी विक्रमादित्य के अधीन थे।

20-12विक्रमादित्य पंचम ने अपने पूर्वजों की नीतियों का अनुसरण करते हुए कई युद्ध लड़े। उसके समय में मालवा के परमारों के साथ चालुक्यों का पुनः संघर्ष हुआ और वाकपतिराज मुञ्ज की पराजय व हत्या का प्रतिशोध करने के लिए परमार राजा भोज ने चालुक्य राज्य पर आक्रमण कर उसे परास्त किया, लेकिन एक युद्ध में विक्रमादित्य पंचम ने राजा भोज को भी हरा दिया था।

उज्जैन के विक्रमादित्य के समय ही विक्रम संवत चलाया गया था। इतिहासकारों के अनुसार उज्जैन के

20-12विक्रमादित्य पंचम ने अपने पूर्वजों की नीतियों का अनुसरण करते हुए कई युद्ध लड़े। उसके समय में मालवा के परमारों के साथ चालुक्यों का पुनः संघर्ष हुआ और वाकपतिराज मुञ्ज की पराजय व हत्या का प्रतिशोध करने के लिए परमार राजा भोज ने चालुक्य राज्य पर आक्रमण कर उसे परास्त किया, लेकिन एक युद्ध में विक्रमादित्य पंचम ने राजा भोज को भी हरा दिया था।

उज्जैन के विक्रमादित्य के समय ही विक्रम संवत चलाया गया था। इतिहासकारों के अनुसार उज्जैन के सम्राट विक्रमादित्य का राज्य भारतीय उपमहाद्वीप के अलावा ईरान, इराक और अरब में भी था। विक्रमादित्य की अरब विजय का वर्णन अरबी कवि जरहाम किनतोई ने अपनी पुस्तक ‘सायर-उल-ओकुल’ में किया है। पुराणों और अन्य इतिहास ग्रंथों के अनुसार यह पता चलता है कि अरब और मिस्र भी विक्रमादित्य के अधीन थे

तुर्की के इस्ताम्बुल शहर की प्रसिद्ध लायब्रेरी मकतब-ए-सुल्तानिया में एक ऐतिहासिक ग्रंथ है ‘सायर-उल-ओकुल’। उसमें राजा विक्रमादित्य से संबंधित एक शिलालेख का उल्लेख है जिसमें कहा गया है कि ‘…वे लोग भाग्यशाली हैं, जो उस समय जन्मे और राजा विक्रम के राज्य में जीवन व्यतीत किया। वह बहुत ही दयालु, उदार और कर्तव्यनिष्ठ शासक था, जो हरेक व्यक्ति के कल्याण के बारे में सोचता था। …उसने अपने पवित्र धर्म को हमारे बीच फैलाया, अपने देश के सूर्य से भी तेज विद्वानों को इस देश में भेजा ताकि शिक्षा का उजाला फैल सके।

इन विद्वानों और ज्ञाताओं ने हमें भगवान की उपस्थिति और सत्य के सही मार्ग के बारे में बताकर एक परोपकार किया है। ये तमाम विद्वान राजा विक्रमादित्य के निर्देश पर अपने धर्म की शिक्षा देने यहां आए…।’तुर्की के इस्ताम्बुल शहर की प्रसिद्ध लायब्रेरी मकतब-ए-सुल्तानिया में एक ऐतिहासिक ग्रंथ है ‘सायर-उल-ओकुल’। उसमें राजा विक्रमादित्य से संबंधित एक शिलालेख का उल्लेख है जिसमें कहा गया है कि ‘…वे लोग भाग्यशाली हैं, जो उस समय जन्मे और राजा विक्रम के राज्य में जीवन व्यतीत किया। वह बहुत ही दयालु, उदार और कर्तव्यनिष्ठ शासक था, जो हरेक व्यक्ति के कल्याण के बारे में सोचता था। …उसने अपने पवित्र धर्म को हमारे बीच फैलाया, अपने देश के सूर्य से भी तेज विद्वानों को इस देश में भेजा ताकि शिक्षा का उजाला फैल सके।

इन विद्वानों और ज्ञाताओं ने हमें भगवान की उपस्थिति और सत्य के सही मार्ग के बारे में बताकर एक परोपकार किया है। ये तमाम विद्वान राजा विक्रमादित्य के निर्देश पर अपने धर्म की शिक्षा देने यहां आए…।’

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