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Friday, May 22, 2015

Ottoman Empire- Part 1 उस्मानिया साम्राज्य – खिलाफत और खलीफा के संक्षिप्त इतिहास-1,

खिलाफत आंदोलन अधिकांश मित्र नहीं जानते कि यह क्या था या खिलाफत का मतलब ही क्या है वो खिलाफत को खिलाफ का करीबी रिश्तेदार शब्द समझ लेते हैं जबकि खिलाफ होने को उर्दू ही में मुखालफत कहते हैं जबकि ” सुन्नी/वहाबी इस्लामी खलीफा साम्राज्य ” को खिलाफत कहा जाता है ..!!
उस्मानी साम्राज्य (1299 – 1923) या ऑटोमन साम्राज्य या तुर्क साम्राज्य, उर्दू में कहें तो सल्तनत-ए-उस्मानिया 1299 में पश्चिमोत्तर अंतालिया / Antalya से स्थापित एक एक तुर्क इस्लामी सुन्नी साम्राज्य था, महमूद द्वितीय द्वारा 1493 में कॉन्सटेंटिनोपोल / Constantinople जीतने के बाद यह एक वृहद इस्लामी साम्राज्य में बदल गया।
उस्मानी साम्राज्य सोलहवीं-सत्रहवीं शताब्दी में अपने चरम शक्ति पर था, अपनी शक्ति के चरमोत्कर्ष के समय यह एशिया, यूरोप तथा उत्तरी अफ्रीकी हिस्सों में फैला हुआ था , यह साम्राज्य पश्चिमी तथा पूर्वी सभ्यताओं के लिए विचारों के आदान प्रदान के लिए एक सेतु की तरह भी था ,, इस ऑटोमन या उस्मानिया साम्राज्य ने 1453 में कुस्तुनतुनिया / आज के इस्ताम्बूल को जीतकर बैजन्टाईन साम्राज्य का समूल अन्त कर दिया इस्ताम्बुल बाद में इनकी राजधानी बनी रही , एक ऐतिहासिक सत्य यह भी है कि इस्ताम्बूल पर इस खिलाफत की जीत ने यूरोप में पुनर्जागरण को प्रोत्साहित किया था।
चलें पुन: खिलाफत के इतिहास और खिलाफत आंदोलन की ओर चलें,, एशिया माईनर में सन 1300 तक सेल्जुकों का पतन हो गया था पश्चिम अंतालिया में अर्तग्रुल एक तुर्क सेनापति व सरदार था एक समय जब वो एशिया माइनर की तरफ़ कूच कर रहा था तो उसने अपनी चार सौ घुड़सवारों की सेना को भाग्य की कसौटी पर आजमाया उसने हारते हुए पक्ष का साथ दिया और युद्ध जीत लिया उन्होंने जिनका साथ दिया वे सेल्जुक थे तू सेल्जुक प्रधान ने अर्तग्रुल को उपहार स्वरूप एक छोटा-सा प्रदेश दिया,, “अर्तग्रुल के पुत्र उस्मान” ने 1281 में अपने पिता की मृत्यु के पश्चात प्रधान का पद हासिल किया उसने 1299 में अपने आपको सेल्जुकों से स्वतंत्र घोषित कर दिया बस यहीं से महान् तुर्क उस्मानी साम्राज्य व इस्लामी खिलाफत की स्थापना हुई,, इसके बाद जो साम्राज्य उसने स्थापित किया उसे उसी के नाम पर उस्मानी साम्राज्य कहा जाता है (अंग्रेज़ी में ऑटोमन, Ottoman Empire)
तुर्की के ऑटोमन / उस्मानी साम्राज्य का राजसी चिन्ह
यह चिन्ह हमें तुगलकों, ऐबकों समेत मुगल साम्राज्यवाद तक में दिखता रहा है यहां तक कि पुरानी ऐतिहासिक हिंदी ब्लैक एंड व्हाईट व रंगीन फिल्मों में बारंबार उस्मानिया सल्तनत का जिक्र किया जाता है।मुराद द्वितीय के बेटे महमद या महमूद द्वितीय ने राज्य और सेना का पुनर्गठन किया और 29 मई 1453 को कॉन्सटेंटिनोपोल जीत लिया,, महमद ने तत्कालीन रूढ़िवादी चर्च की स्वायत्तता भी बनाये रखी और बदले में ऑर्थोडॉक्स चर्च ने उस्मानी प्रभुत्ता स्वीकार कर ली, चूँकि बाद के बैजेन्टाइन साम्राज्य और पश्चिमी यूरोप के बीच रिश्ते अच्छे नहीं थे इसलिए ज्यादातर रूढ़िवादी/ऑर्थोडॉक्स ईसाईयों ने विनिशिया/बेजेन्टाईन के शासन के बजाय उस्मानी शासन को ज्यादा पसंद किया ,,पन्द्रहवीं और सोलहवीं शताब्दी में उस्मानी साम्राज्य का विस्तार हुआ, उस दौरान कई प्रतिबद्ध और प्रभावी सुल्तानों के शासन में साम्राज्य खूब फला फूला, यूरोप और एशिया के बीच के व्यापारिक रास्तो पर नियंत्रण की वजह से उसका आर्थिक विकास भी काफी हुआ।
सुल्तान सलीम प्रथम (1512-1520) ने पूर्वी और दक्षिणी मोर्चों पर चल्द्रान की लड़ाई में फारस के साफवी/शिया राजवंश के शाह इस्माइल को हराया!
“शाह इस्माइल ही फारस / ईरान को वो बादशाह था जिसके साथ तथाकथित मोगुल सरदार ज़हीरूद्दीन मुहम्मद बाबर ने संधि करके बाबर ने अपने को शिया परम्परा में ढाल कर दिया उसने शिया मुसलमानों के अनुरूप वस्त्र पहनना आरंभ किया ,, शाह इस्माईल के शासन काल में फ़ारस शिया मुसलमानों का गढ़ बन गया और वो अपने आप को सातवें शिया इमाम मूसा अल क़ाज़िम का वंशज मानता था, वहाँ सिक्के शाह के नाम में ढलते थे तथा मस्जिद में खुतबे शाह इस्माइल के नाम से पढ़े जाते थे हालाँकि क़ाबुल में सिक्के और खुतबे बाबर के नाम से ही थे और मोगुल सरदार बाबर समरकंद का शासन शाह इस्माईल के सहयोगी की हैसियत से चलाता था,, शाह की मदद से बाबर ने बुखारा पर चढ़ाई की वहाँ पर बाबर, एक तैमूरवंशी होने के कारण, लोगों की नज़र में उज़्बेकों के मुक्तिदाता के रूप में देखा गया और गाँव के गाँव उसको बधाई देने के लिए खाली हो गए इसके बाद बाबर ने सत्ता मदान्ध होकर फारस के शाह इस्माइल की मदद को अनावश्यक समझकर शाह की सहायता लेनी बंद कर दी और अक्टूबर 1511 में उसने अपनी जन्मभूमि समरकंद पर चढ़ाई की और एक बार फिर उसे अपने अधीन कर लिया वहाँ भी उसका स्वागत हुआ और एक बार फिर गाँव के गाँव उसको बधाई देने के लिए खाली हो गए वहाँ सुन्नी मुसलमानों के बीच वह शिया वस्त्रों में एकदम अलग लगता था हालाँकि उसका शिया हुलिया सिर्फ़ शाह इस्माईल के प्रति साम्यता और वफादारी को दर्शाने के लिए था, उसने अपना शिया स्वरूप बनाए रखा यद्यपि उसने फारस के शाह को खुश करने हेतु सुन्नियों का नरसंहार नहीं किया पर उसने शिया के प्रति आस्था भी नहीं छोड़ी जिसके कारण जनता में उसके प्रति भारी अनास्था की भावना फैल गई इसके फलस्वरूप, 8 महीनों के बाद, कट्टर सुन्नी उज्बेकों ने समरकंद पर फिर से अधिकार कर लिया।
तब फरगना घाटी के ओश शहर (वर्तमान के किर्गीजस्तान देश का दूसरा बडा शहर ओश/Osh) में पवित्र सुलेमान पहाड के निकटस्थ अपने घर में रहते बाबर को लगता था कि दिल्ली सल्तनत पर फिर से तैमूरवंशियों का शासन होना चाहिए एक तैमूरवंशी होने के कारण वो दिल्ली सल्तनत पर कब्ज़ा करना चाहता था उसने दिल्ली के सुल्तान इब्राहिम लोदी को अपनी इच्छा से अवगत कराया पर इब्राहिम लोदी के जबाब नहीं आने पर उसने छोटे-छोटे आक्रमण करने आरंभ कर दिए सबसे पहले उसने कंधार पर कब्ज़ा किया इधर फारस के शाह इस्माईल को तुर्कों के हाथों भारी हार का सामना करना पड़ा इस युद्ध के बाद शाह इस्माईल तथा बाबर, दोनों ने बारूदी हथियारों की सैन्य महत्ता समझते हुए इसका उपयोग अपनी सेना में आरंभ किया,, इसके बाद उसने इब्राहिम लोदी पर आक्रमण किया,, पानीपत में लड़ी गई इस लड़ाई को पानीपत का प्रथम युद्ध के नाम से जानते हैं इसमें बाबर की सेना इब्राहिम लोदी की सेना के सामने बहुत छोटी थी पर सेना में संगठन के अभाव में इब्राहिम लोदी यह युद्ध बाबर से हार गया और इसके बाद दिल्ली की सत्ता पर बाबर का अधिकार हो गया और उसने सन 1526 में मुगलवंश की नींव डाली।”
हाँ तो हम मूलतः बात कर रहे थे उस्मानिया साम्राज्य व खिलाफत की जिसमें सुल्तान सलीम प्रथम (1512-1520) ने पूर्वी और दक्षिणी मोर्चों पर चल्द्रान की लड़ाई में फारस के साफविया/साफवी राजवंश के शाह इस्माइल को हराया और इस तरह उसने नाटकीय रूप से साम्राज्य का विस्तार किया,, उसने मिस्र में उस्मानी साम्राज्य स्थापित किया और लाल सागर में नौसेना खड़ी की, उस्मानी साम्राज्य के इस विस्तार के बाद पुर्तगाली और उस्मानी साम्राज्य के बीच उस इलाके की प्रमुख शक्ति बनने की होड़ लग गई।
शानदार सुलेमान (1512-1566) ने 1521 में बेलग्रेड पर कब्ज़ा किया उसने उस्मानी-हंगरी युद्धों में हंगरी राज्य के मध्य और दक्षिणी हिस्सों पर विजय प्राप्त की,,1526 की मोहैच की लड़ाई में एतिहासिक विजय प्राप्त करने के बाद उसने तुर्की का शासन आज के हंगरी (पश्चिमी हिस्सों को छोड़ कर) और अन्य मध्य यूरोपीय प्रदेशो में स्थापित किया,,1529 में उसने वियना पर चढाई की पर शहर को जीत पाने में असफल रहा,,1532 में उसने वियना पर दुबारा हमला किया पर गून्स की घेराबंदी के दौरान उसे वापस धकेल दिया गया, समय के साथ ट्रांसिल्वेनिया, वेलाचिया (रोमानिया) और मोल्दाविया(आज का Maldova देश) उस्मानी साम्राज्य की आधीनस्त रियासतें बन गयी। पूर्व में 1535 में उस्मानी तुर्कों ने फारसियों से बग़दाद जीत लिया और इस तरह से उन्हें मेसोपोटामिया पर नियंत्रण और फारस की खाड़ी जाने के लिए नौसनिक रास्ता मिल गया।
फ्रांस और उस्मानी साम्राज्य हैंब्सबर्ग के शासन के विरोध में संगठित हुए और पक्के सहयोगी बन गए। फ्रांसिसियो ने 1543 में नीस पर और 1553 में कोर्सिका पर विजय प्राप्त की ये जीत फ्रांसिसियो और तुर्को के संयुक्त प्रयासों का परिणाम थी जिसमे फ्रांसिसी राजा फ्रांसिस प्रथम और सुलेमान की सेनायों ने हिस्सा लिया था और जिसकी अगुवाई उस्मानी नौसेनाध्यक्षों बर्बरोस्सा हयरेद्दीन पाशा और तुर्गुत रईस ने की थी।
1543 में नीस पर कब्जे से एक महीने पहले फ्रांसिसियो ने उस्मानियो को सेना की एक टुकड़ी दे कर एस्तेरेगोम पर विजय प्राप्त करने में सहायता की थी,,1543 के बाद भी जब तुर्कियों का विजयाभियान जारी रहा तो आखिरकार 1547 में हैंब्सबर्ग के शासक फेर्डिनांड / Ferdinand ने हंगरी का उस्मानी साम्राज्य में आधिकारिक रूप से विलय स्वीकार कर लिया।
इस तरह विश्वप्रसिद्ध उस्मानी साम्राज्य / उस्मानिया सल्तनत / इस्लामी खलीफा की खिलाफत का उदय हुआ था अब हम भारत चलते हैं और खिलाफत की हुक्मरानी / निर्देश मानने की बाध्यता के कुछ उदाहरण लेते हैं।
मिसाल के तौर पर सुल्तान शम्सुद्दीन अल्तमश (1211-1236) शहंशाह ऐ हिन्दुस्तान (विश्वप्रसिद्ध रजिया सुल्तान का बाप) के ज़माने के चान्दी के सिक्के है, जिनके एक तरफ खलीफा अलमुस्तंसिर तुर्की के सम्राट / खलीफा ऐ खिलाफत और दूसरी तरफ खुद अल्तमश का नाम खलीफा के नायब की हैसियत से लिखा है।
हिन्दुस्तान मे इस्लामी हुकूमत के दौर मे इस्लाम के विद्वान बडे औलमा पैदा हुऐ मसलन हज़रत शेख अहमद सरहिन्दी (रहमतुल्लाहे अलैय) जिन की वफात 1624 इसवी मे दिल्ली मे हुई यह फिक़हे इस्लामी के बहुत बडे आलिम/विद्वान थे जो मुजद्दिद अल्फसानी के नाम से जाने जाते है उन्होने उस्मानी खलीफा को 536 खत व खुस्बे लिखे जिन का मजमून /मतलब “मक्तूबात” के नाम से मशहूर है..!!
अब हम सब भारत में और दुनिया में खिलाफत या ऑटोमन साम्राज्य के तथाकथित पतन और बहुप्रचारित ‘इस्लाम खतरे में के जन्म की किवदंती’ की ओर चलते हैं ..!
19 वीं शताब्दी में जो दुनिया पश्चिमी साम्राज्यवादिता की घोषित ताकतों ने बनाई वह (1) मुक्त व्यापार, (2) गोल्ड स्टैण्डर्ड, (3) बैलेंस ऑफ़ पॉवर और (4) औपनिवेशिक लूट के उपर आधारित थी…!!
1814 से 1914 तक पश्चिम की साम्राज्यवादी शक्तियों के बीच में शांति बनी रही और उनकी आक्रामक शक्ति एशिया-अफ्रीका के देशों व क्षेत्रों के खिलाफ इस्तेमाल होती रही इसमे यूरोप की एक साम्राज्यवादी ताकत नें दूसरी साम्राज्यवादी ताकत के प्रभाव क्षेत्र में हस्तक्षेप नहीं किया,,वास्तविकता में 19 वीं सदी एक क्रूर सदी थी जिसमे हर साल एक नया युद्ध होता था, 1857 में हिन्दुस्तान की जंग ऐ आजादी को ब्रिटिश हूकूमत द्वारा बर्बरता से दबा दिया गया और अन्य यूरोपियन शक्तियों ने इसमें भी हस्तक्षेप नहीं किया..!!
उधर अरब में वहाबी विचारधारा के प्रवर्तक मुहम्मद इब्न अब्दुल वहाब का जन्म 1703 में उयायना, नज्द के बनू तमीम कबीले में हुआ था , इस्लामी शिक्षा की चार व्याख्याओं में से एक हम्बली व्याख्या का उसने बसरा, मक्का और मदीना में अध्ययन किया इब्न अब्दुल वहाब की राजनीतिक महत्त्वाकांक्षाएं काफी थीं सो 1730 में उयायना लौटने के साथ ही उसने स्थानीय नेता “मुहम्मद इब्न सऊद” (सऊदी अरब का संस्थापक शेख बादशाह) से एक समझौता किया, जिसमें दोनों परिवारों ने मिल कर सऊदी साम्राज्य खड़ा करने की सहमति बनाई ,तय हुआ कि सत्ता कायम होने पर सऊद परिवार को राजकाज मिलेगा; हज और धार्मिक मामलों पर इब्न अब्दुल वहाब के परिवार यानी अलशेख का कब्जा रहेगा (यही समझौता आज तक कायम है) सऊदी अरब का बादशाह अल सऊद-परिवार से होता है और हज और मक्का-मदीने की मस्जिदों की रहनुमाई वहाबी-सलफी विचारधारा वाले अल शेख परिवार के वहाबी इमामों के हाथ होती है, इब्न अब्दुल वहाब की विचारधारा को कई नामों से जाना जाता है, उसके नाम के मुताबिक उसकी कट्टर विचारधारा को वहाबियत यानी वहाबी विचारधारा कहा जाता है और खुद इब्न अब्दुल वहाब ने अपनी विचारधारा को सलफिया यानी ‘बुजुर्गों के आधार पर’ कहा था। आज दुनिया में वहाबी और सलफी नाम से अलग-अलग पहचानी जाने वाली विचारधारा दरअसल एक ही चीज है।
पूर्वी तट से लेकर दक्षिण के खतरनाक तापमान वाले रबी उल खाली के रेगिस्तान और उत्तर के नज्द (वर्तमान राजधानी रियाद का इलाका) और पश्चिमी तट के हिजाज (मक्का और मदीना सहित प्रांत) को वहाबी विचारधारा के एक झंडे के नीचे लाने में सऊद परिवार ने दो सौ साल संघर्ष किया और जहां-जहां वे इलाका जीतते, सलफी उर्फ वहाबी विचारधारा के मदरसे खोलते गए बद्दुओं यानी ग्रामीण कबीलों में बंटे अरबों को एक नकारात्मकतावादी विचारधारा के तहत लाकर 1922 और फिर 1925 के संघर्ष में अल सऊद ने वर्तमान सऊदी अरब के लगभग सारे इलाके जीत लिए, अब्दुल अजीज इब्न सऊद को इस संघर्ष में ब्रिटेन ने जोरदार सहयोग किया ब्रिटेन जानता था कि उस्मानिया खिलाफत को मार भगाने के लिए अब्दुल अजीज इब्न सऊद ही उसकी मदद कर सकता है क्योंकि आगामी राजनीति और आर्थिक नीति के सबसे बडे बम “कच्चे तेल / काले सोने” की खोज हो चुकी थी और दुनिया गाड़ी, टैंक, कार पर चलनी शुरू हो चुकी थी ।
जब भारत के लोग 1919 में महात्मा गांधी समर्थित और मौलाना महमूद हसन, मौलाना मुहम्मद अली जौहर, मौलाना हसरत मोहानी, मौलाना अबुल कलाम आजाद समेत कई मुसलिम नेताओं की अगुआई में हिजाज यानी मक्का और मदीना के पवित्र स्थल ब्रिटेन के हाथों में जाने के डर से खिलाफत आंदोलन चला रहे थे, अब्दुल अजीज इब्न सऊद ब्रिटेन के साथ मिल कर उस्मानिया खिलाफत और स्थानीय कबीलों को मार भगाने के लिए लड़ रहा था अंग्रेजों के दिए हथियार और आर्थिक मदद से अब्दुल अजीज इब्न सऊद ने वर्तमान सऊदी अरब की स्थापना की और वर्षों से ‘वक्फ’ यानी ‘धर्मार्थ समर्पित सार्वजनिक स्थल’ वाले मक्का और मदीना के संयुक्त नाम ‘हिजाज’ को भी ‘सऊदी अरब’ कर दिया गया साथ ही खिलाफत को खत्म करने के पीछे इन अंग्रेजियत व सुन्नी; वहाबी कारणों के अलावा भी एक और कारण था और वो था कि अगस्त 4, 1914 को ब्रिटेन ने जर्मनी पर युद्ध की घोषणा कर दी जापान फ्रांस और रूस उसके साथ शामिल हो गए अक्टूबर 1914 में तुर्की जर्मनी और ऑस्ट्रिया के साथ युद्ध में शामिल हो गया और प्रथम विश्वयुद्ध में दो पक्ष थे ,,,एक तरफ अलाइड ताकतें – ब्रिटेन , फ्रांस और रूस तथा दूसरी तरफ सेंट्रल ताकतें जिसमे जर्मनी तथा आस्ट्रियन हैंब्सबर्ग राज्य,, अलाइड ताकतों के साथ बाद में अमेरिका भी शामिल हो गया क्योंकि अरब का तेल और लाल सागर सबकी आंखों.में वहां की अनपढता और जहालत के कारण नजर में आ चुका था।
बस सेंट्रल ताकतों के साथ बाद में तुर्की शामिल हो गया जापान और इटली प्रथम विश्वयुद्ध में पक्षरहित/न्यूट्रल रहे,,यह युद्ध कितना भयानक ,,, कितना ही भयानक था इसकी चर्चा करना बहुत अनावश्यक है बस यह जान लेना काफी है कि सभी साम्राज्यवादी शक्तियों ने एक दूसरे के खिलाफ मोर्चाबंदी में लगभग 6 करोड़ सेनाओं को गोलबंद किया और लगभग साठ लाख लोग इस लड़ाई में मारे गए, तत्कालीन ब्रिटिशकाल के हिंदुस्तान की फ़ौज की संख्या लगभग 10 लाख थी और इसके 1 लाख से ज्यादा भारतीय लोग लड़ाई में मारे गए, लेकिन ब्रिटिश नेतृत्व की गुलाम हिंदुस्तान की फ़ौज ने मध्य एशिया मे उस्मानी सल्तनत को हराने में बहुत अहम् भूमिका अदा की जिसके दूरगाम परिणाम हुए…!!
अब तक हमने उस्मानिया सल्तनत / उस्मानी साम्राज्य / खलीफा ऐ खिलाफत का ही आधारभूत मानकर तथा इतिहास की कडी कडी जोडकर और फिर हिंदुस्तान के परिप्रेक्ष्य में प्रारंभिक मतलबों से ही जाना है अब आगे हम वास्तविक खिलाफत आंदोलन के बारे में और उसके ढंके छुपे वास्तविक सत्य का पूरा पोस्टमार्टम करके अकाट्य दस्तावेजी सबूतों व तथ्यों सहित पूरा इतिहास व सच खोदक
खिलाफत आन्दोलन (1919-1924) तत्कालीन ब्रिटिश हिंदुस्तान में मुख्यत: मुसलमानों द्वारा चलाया गया राजनैतिक-धार्मिक आन्दोलन था,, इस आन्दोलन का उद्देश्य तुर्की में खलीफा ऐ खिलाफत यानि सुन्नी इस्लामी साम्राज्य के बादशाह खलीफा के पद की पुन:स्थापना कराने के लिये अंग्रेजों पर दबाव बनाना था,, सन् 1908 ई. में तुर्की में युवा तुर्की दल (ब्रिटिश समर्थन से मुस्तफा कमाल पाशा “अतातुर्क” के दल) द्वारा शक्तिहीन हो चुके खलीफा के प्रभुत्व का उन्मूलन खलीफत (खलीफा के पद) की समाप्ति का प्रथम चरण था, इसका भारतीय मुसलमान जनता पर नगण्य प्रभाव पड़ा किंतु, 1912 में तुर्की-इतालवी तथा बाल्कन युद्धों में, तुर्की के विपक्ष में, ब्रिटेन के योगदान को इस्लामी संस्कृति तथा सर्व इस्लामवाद / इस्लामी उम्मा पर प्रहार समझकर (यही समझाया गया था) भारतीय ‘मुसलमान’ ब्रिटेन के प्रति उत्तेजित हो उठे, यह विरोध भारत में ब्रिटिश शासन के विरुद्ध रोषरूप में परिवर्तित हो गया यह भी कहा व लिखा गया है जबकि मूलतः इसका भारत में ब्रिटिश विरोध से कुछ लेना देना ही नहीं था।
भारतीय इतिहास में खिलाफत आन्दोलन का वर्णन तो है किन्तु कही विस्तार से नहीं बताया गया कि खिलाफत आन्दोलन वस्तुत:भारत की स्वाधीनता के लिए नहीं अपितु वह एक राष्ट्र विरोधी व हिन्दू विरोधी आन्दोलन था ,, खिलाफत आन्दोलन दूर स्थित देश तुर्की के खलीफा को गद्दी से हटाने के विरोध में भारतीय मुसलमानों द्वारा चलाया गया आन्दोलन था, चतुर राजनीतिज्ञ और वस्तुतः अंग्रेज मित्रों द्वारा असहयोग आन्दोलन भी खिलाफत आन्दोलन की सफलता के लिए चलाया गया आन्दोलन ही था आज भी अधिकांश भारतीयों को यही पता है कि असहयोग आन्दोलन स्वतंत्रता प्राप्ति हेतु चलाया गया कांग्रेस का प्रथम आन्दोलन था किन्तु सत्य तो यही है कि इस आन्दोलन का कोई भी राष्ट्रीय लक्ष्य नहीं था।
इस आंदोलन की सबसे मजेदार बात यह है कि तुर्की की “इस्लामिक” जनता ने बर्बर व रूढिवादी इस्लामी कानूनों से तंग आ कर एकजुटता से मुस्तफा कमाल पाशा ‘अतातुर्क’ ( तुर्क भाषा में अतातुर्क का मतलब तुर्की का पिता या तुर्कों का राष्ट्रपिता सरीखा होता है, तुर्की,चुगताई,उज्बेक,कजाख,किर्गीज,मंगोल व पूर्वी यूरोपियन देशों, कफकाजी देशों की स्थानीय भाषा में अता /Ata का मतलब पिता ही होता है) के सटीक नेतृत्व में तुर्की के खलीफा को देश निकला दे दिया था ,, भारत में अखिल भारतीय खिलाफत कमेटी ने जमियत-उल-उलेमा के सहयोग से ही खिलाफत आंदोलन का संगठन किया तथा मोहम्मद अली जौहर ने 1920 में खिलाफत घोषणापत्र प्रसारित किया, भारत में मोहम्मद अली जौहर व शौकत अली जौहर दो भाई खिलाफत आंदोलन का नेतृत्व कर रहे थे..!!
तो मित्रों खिलाफत आंदोलन के जन्मदाताओं में से प्रमुख मौलाना मोहम्मद अली जौहर 1878 में रामपुर में पैदा हुए .(जी हां आज के महा बकैत आजम खां के विधानसभा क्षेत्र रामपुर में, जहां उसने जमीनें हडप कर/अलॉट करवा कर मौ.मोहम्मद अली जौहर यूनिवर्सिटी बनाई है,,गत 18 सितम्बर, 2012 को रामपुर (उप्र) में मौलाना मोहम्मद अली जौहर के नाम पर एक विश्वविधालय का उदघाटन मुख्यमंत्री अखिलेश यादव ने किया। इस अवसर पर उनके पिता श्री मुलायम सिंह तथा प्रदेश की लगभग पूरी सरकार मय महाबकैत मंत्री आजम खां वहां उपस्थित रही थी)
तो मित्रों कांग्रेस के लंपट परिवार के अलावा बाकी इतिहास में जिन अली भाइयों (मोहम्मद अली तथा शौकत अली) का नाम आता है, ये उनमें से एक थे, रोहिल्ला पठानों के यूसुफजर्इ कबीले से सम्बद्ध जौहर का जन्म 10 दिसम्बर, 1878 को रामपुर में हुआ था,, देवबंद, अलीगढ़ और फिर आक्सफोर्ड से उच्च शिक्षा प्राप्त कर इनकी इच्छा थी कि वे प्रशासनिक सेवा में जाकर अंग्रेजों की चाकरी करें, इसके लिए इन्होंने कर्इ बार आर्इ.सी.एस की परीक्षा दी पर कभी सफल हो ही नहीं सके सो विवश होकर उन्हें रामपुर में उच्च शिक्षा अधिकारी के पद पर काम करना पड़ा, कुछ दिनों तक उन्होंने रियासत बड़ौदा में भी काम किया, लेकिन मौलाना को उपर वाले ने किसी और ‘काम’ के लिए पैदा किया था, शुरू से ही उनकी ख्वाहिश थी कि वह पत्रकारिता को अपना पेशा चुने तो 1910 से उन्होंने कलकत्ता से एक अंग्रेज़ी अख़बार कामरेड निकालना शुरू किया, 1912 में जब अंग्रेज़ों ने दिल्ली को अपना केंद्र बना लिया तो मौलाना जौहर भी दिल्ली आ गए और यहां से उन्होंने 1914 से उर्दू दैनिक हमदर्द निकालना शुरू किया ये दोनों अपने समय के मशहूर इस्लामी अख़बार थे, फिर ये हिन्दुओं को धर्मान्तरित कर इस्लाम की सेवा करने लगे इसके पुरस्कारस्वरूप इन्हें मौलाना की पदवी दी गयी, प्रथम विश्व युद्ध में तुर्की ने अंग्रेजों के विरुद्ध जर्मनी का साथ दिया। इससे नाराज होकर अंग्रेजों ने युद्ध जीतकर तुर्की को विभाजित कर दिया तुर्की के शासक को मुस्लिम जगत में ‘खलीफा कहा जाता था उसका सुन्नी इस्लामी साम्राज्य टूटने से मुसलमान नाराज हो गये तब ये दोनो अली भार्इ तुर्की के शासक को फिर खलीफा बनवाना चाहते थे,,तब अबुलकलाम आजाद,जफर अली खाँ तथा मोहम्मद अली जौहर ने मिलकर अखिल भारतीय खिलाफत कमेटी बनाई इस खिलाफत कमेटी ने जमियत-उल-उलेमा के सहयोग से खिलाफत आंदोलन का सुनियोजित संगठन किया तथा मोहम्मद अली ने 1920 में खिलाफत घोषणापत्र प्रसारित किया था,, उधर अस्तित्व को जूझ रही वकीलों और जमींदारों की पार्टी कांग्रेस और उसके रणनीतिक चाणक्य बने बैठे “महात्मा” गांधी चाहते थे कि मुसलमान भारत की ‘आजादी के आंदोलन’ से किसी भी तरह जुड़ जाएं। अत: उन्होंने 1921 में अखिल भारतीय खिलाफत कमेटी से जुड कर ‘खिलाफत आंदोलन’ की घोषणा कर दी,,यद्यपि इस आंदोलन की पहली मांग खलीफा पद की पुनर्स्थापना तथा दूसरी मांग भारत की डोमेनियन स्टेट की मांग यानि / स्वायतशाषी देश की मांग थी,,काँग्रेस की इस मांग की जड में भी ब्रिटिश अमेरिकन “कच्चा तेल रणनीति और भविष्य की अर्थव्यवस्था व यातायात की धुरी” बनने जा रहा अरब का तेल ही था, इस तेल हेतु उधर अरब में ब्रिटेन सऊदों और वहाबी गठजोड को इस्तेमाल कर रहा था तो इधर गांधी महात्मा व कांग्रेस के जरिये तथा अपने स्तर पर सिर्फ ‘हिंदुस्तानी फौज’ (सनद रहे ब्रिटिश फौज नहीं) बढा रहा था डोमेनियन स्टेट के वादे के झांसे में,, कुल मिला कर ब्रिटिश व यूरोपीय साम्राज्यवादिता को काले सोने की उपयोगिता व भविष्य की कुल अर्थव्यवस्था की जड समझ आ गई थी और कांग्रेस व गांधी को सत्ता ही समझ आ पाई थी…!!
मूढ मुसलमान सुन्नी इस्लामी उम्मत और खलीफा, खिलाफत के आगे सोचने लायक तो थे ही नहीं उन्हे बस 1000 साल से हिंदुस्तान पर की गई तथाकथित हूकूमत का टिमटिमाहट वाला बुझता दिया इस्लामी रोशनी के साये में उम्मीद जगाने हेतु मिल गया था।
तब भावी सत्ता व अन्य अप्रत्यक्ष कारणों के मद्देनजर लालची कांग्रेस ने मुस्लिम तुष्टीकरण का जो देशघाती मार्ग उस समय अपनाया था,उसी पर आज तक कांग्रेस समेत उसकी नाजायज ‘सेक्यूलर संताने’ बने हुऐ भारत के सभी राजनीतिक दल चल रहे हैं..!!
इस खिलाफत आंदोलन के दौरान ही मोहम्मद अली जौहर ने अफगानिस्तान के शाह अमानुल्ला को तार भेजकर भारत को दारुल इस्लाम बनाने के लिए अपनी सेनाएं भेजने का अनुरोध किया इसी बीच तुर्की के खलीफा सुल्तान अब्दुल माजिद अंग्रेजों की ही शरण में आकर सपरिवार माल्टा चले गये, आधुनिक विचारों के समर्थक मुस्तफा कमाल पाशा ‘अतातुर्क’ नये शासक बने और देशभक्त तुर्क जनता ने भी उनका साथ दिया इस प्रकार वास्तविकता में तो खिलाफत आंदोलन अपने घर तुर्की में पैदा होने से पहले ही मर गया पर भारत में इसके नाम पर अली भाइयों ,खिलाफत कमेटी, जमात उल उलेमा और कांग्रेस ने ने अपनी रोटियां अच्छी तरह सेंक लीं,
भारत आकर मोहम्मद अली जौहर ने भारत को दारुल हरब (संघर्ष की भूमि) कहकर मौलाना अब्दुल बारी से हिजरत का फतवा जारी करवाया। इस पर हजारों मुसलमान अपनी सम्पत्ति बेचकर अफगानिस्तान चल दिये इनमें उत्तर भारतीयों की संख्या सर्वाधिक थी पर वहां उनके ही तथाकथित मजहबी भाइयों / इस्लामी उम्मा ने ही उन्हें खूब मारा तथा उनकी सम्पत्ति भी लूट ली, वापस लौटते हुए उन्होंने देश भर में दंगे और लूटपाट की ,केरल में तो 20,000 हिन्दू धर्मांतरित किये गये,इसे ही ‘मोपला कांड भी कहा जाता है …
उन दिनों कांग्रेस के अधिवेशन वंदेमातरम के गायन से प्रारम्भ होते थे, 1923 का अधिवेशन आंध्र प्रदेश में काकीनाड़ा नामक स्थान पर था,, मोहम्मद अली जौहर उस समय कांग्रेस के अध्यक्ष थे जब प्रख्यात गायक विष्णु दिगम्बर पलुस्कर ने वन्देमातरम गीत प्रारम्भ किया, तो मोहम्मद अली जौहर ने इसे इस्लाम विरोधी बताकर रोकना चाहा इस पर श्री पलुस्कर ने कहा कि यह कांग्रेस का मंच है, कोर्इ मस्जिद नहीं और उन्होंने पूरे मनोयोग से वन्दे मातरम गाया। इस पर जौहर विरोधस्वरूप मंच से उतर गया था।
इसी अधिवेशन के अपने अध्यक्षीय भाषण में जौहर ने 1911 के बंगभंग की समापित को अंग्रेजों द्वारा मुसलमानों के साथ किया गया विश्वासघात बताया। उन्होंने पूरे देश को कर्इ क्षेत्रों में बांटकर इस्लाम के प्रसार के लिए विभिन्न गुटों को देने तथा भारत के सात करोड़ दलित हिन्दुओं को मुसलमान बनाने की वकालत की ,, उनकी इन देशघाती नीतियों के कारण कांग्रेस में ही उनका प्रबल विरोध होने लगा अत: वे कांग्रेस छोड़कर अपनी पुरानी संस्था मुस्लिम लीग में चले गये, मुस्लिम लीग से उन्हें प्रेम था ही चूंकि 1906 में ढाका में इसके स्थापना अधिवेशन में उन्होंने भाग लिया था 1918 में वे इसके अध्यक्ष भी रहे थे,,मोहम्मद अली जौहर 1920 में दिल्ली में प्रारम्भ किये गये जामिया मिलिया इस्लामिया के भी सहसंस्थापक थे 19 सितम्बर, 2008 को बटला हाउस मुठभेड़ में इस संस्थान की भूमिका बहुचर्चित रही है, जिसमें वरिष्ठ पुलिस अधिकारी मोहन चंद्र शर्मा ने प्राणाहुति दी थी।
मोहम्मद अली जौहर ने 1924 के मुस्लिम लीग के अधिवेशन में सिंध से पशिचम का सारा क्षेत्र अफगानिस्तान में मिलाने की मांग की थी और तो और गांधी के बारे में पहला सार्वजनिक कटु व अकाट्य सत्य उन्होने ही कहा था, 1930 के दांडी मार्च के समय गांधी जी की लोकप्रियता देखकर मोहम्मद अली जौहर ने कहा था कि “व्यभिचारी से व्यभिचारी मुसलमान भी गांधी से अच्छा है।”
1931 में वे मुस्लिम लीग की ओर से लंदन के गोलमेज सम्मेलन में भाग लेने गये वहीं 4 जनवरी, 1931 को उनकी मृत्यु हो गयी मरने से पहले उन्होंने दारुल हरब भारत की बजाय दारुल इस्लाम मक्का में दफन होने की इच्छा व्यक्त की थी पर मक्का के वहाबियों ने इस सुन्नी के शरीर को इसकी अनुमति नहीं दीअत: उन्हें येरुशलम में दफनाया गया,, यहां यह भी ध्यान देने की महत्वपूर्ण बात है कि मोहम्मद अली जिन्ना पहले भारत भक्त ही थे उन्होंने इस खिलाफत आंदोलन का प्रखर विरोध किया था पर जब उन्होंने गांधी जी के नेतृत्व में पूरी कांग्रेस को अली भाइयों तथा मुसलमानों की अवैध मांगों के आगे झुकते देखा, तो वे भी इसी मार्ग पर चल पड़े। जौहर की मृत्यु के बाद जिन्ना मुसलमानों के एकछत्र नेता और फिर पाकिस्तान के निर्माता बन गये।
दूर देश तुर्की में मुस्लिम राज्य/ इस्लामी उम्मा/ खिलाफत की पुन: स्थापना के लिए स्वराज्य की मांग को कांग्रेस द्वारा ठुकराना और भारत व हिंदू विरोधी इस आन्दोलन को चलाना किस प्रकार राष्ट्रवादी था या कितना राष्ट्रविरोधी भारतीय इतिहास में इस सत्य का लिखा जाना अत्यंत आवश्यक है अन्यथा भारतीय आजादी का दंभ भरने वाली कांग्रेस लगातार भारत को ऐसे ही झूठ भरे इतिहास के साथ गहन अन्धकार की और रहेगी।
महात्मा गांधी ने 1920-21 में खिलाफत आंदोलन क्यों चलाया, इसके दो दृष्टिकोण हैं –
★ एक वर्ग का कहना था कि गांधी की उपरोक्त रणनीति व्यवहारिक अवसरवादी गठबंधन का उदाहरण था, मोहनदास करमचंद गाँधी ने कहा था “यदि कोई बाहरी शक्ति ‘इस्लाम की प्रतिष्ठा’ की रक्षा के लिए और न्याय दिलाने के लिए आक्रमण करती है तो वो उसे वास्तविक सहायता न भी दें तो उसके साथ उनकी पूरी सहानुभूति रहेगी “(गांधी सम्पूर्ण वांग्मय – 17.527 – 528) ,वे समझ चुके थे कि अब भारत में शासन करना अंग्रेजों के लिए आर्थिक रूप से महंगा पड़ रहा है अब उन्हें हमारे कच्चे माल की उतनी आवश्यकता नहीं है अब सिन्थेटिक उत्पादन बनाने लगे हैं, अंग्रेजों को भारत से जो लेना था वे ले चुके हैं सो अब वे जायेंगे (जो कि मैं उपर, काँग्रेस + ब्रिटिश झांसे समेत सऊदी,ब्रिटेन अमेरिकी गठबंधन और सुन्नी खिलाफत खत्म कर वहाबी सऊदियों और मक्का मदीना पर उनके अधिकार सहित एकछत्र इस्लामी बादशाह बनने की सुनियोजित नीति और कच्चा तेल आधारित अर्थव्यवस्था और भविष्य पर बता चुका हूँ।) अत: अगर शांति पूर्वक असहयोग आंदोलन चलाया जाए, सत्याग्रह आंदोलन चलाया जाए तो वे जल्दी चले जाएंगे, इसके लिए (तथाकथित) हिन्दू-मुस्लिम एकता ( जो दौराने खिलाफत और आजतक नहीं हुई हम सभी अब साक्षी हैं) आवश्यक है दूसरी ओर अंग्रेजों ने इस राजनीतिक गठबंधन को तोड़ने की चाल चली (जो साबित कर चुका हूं पर दूसरे अनकहे नजरिये और विश्लेषण से).. एक दूसरा दृष्टिकोण भी है। वह मानता है कि गांधी ने इस्लाम के पारम्परिक स्वरूप को पहचाना था। धर्म के ऊपरी आवरण को दरकिनार करके उन्होंने हिन्दू-मुस्लिम एकता के स्वभाविक आधार को देख लिया था। 12वीं शताब्दी से साथ रहते रहते हिन्दु-मुसलमान सह-अस्तित्व सीख चुके थे। दबंग लोग दोनों समुदायों में थे। लेकिन फिर भी आम हिन्द-मुसलमान पारम्परिक जीवन दर्शन मानते थे, उनके बीच एक साझी विराजत भी थी। उनके बीच आपसी झगड़ा था लेकिन सभ्यतामूलक एकता भी थी। दूसरी ओर आधुनिक पश्चिम से सभ्यतामूलक संघर्ष है। गांधी यह भी जानते थे कि जो इस शैतानी सभ्यता में समझ-बूझकर भागीदारी नहीं करेगा वह आधुनिक दृष्टि से भले ही पिछड़ जाएगा लेकिन पारम्परिक दृष्टि से स्थितप्रज्ञ कहलायेग.. (जो कि कतई झूठा दृष्टिकोण है और बिलकुल वैसा ही सच है कि Discovery of India का वास्तविक लेखक और विचारकर्ता मूढ नेहरू ही था)
मोहनदास करमचंद गाँधी ने बिना विचार किये ही इस आन्दोलन को अपना समर्थन दे दिया जबकि इससे हमारे देश का कुछ भी लेना-देना नहीं था जब यह आन्दोलन असफल हो गया, जो कि होना ही था, तो केरल के मुस्लिमबहुल मोपला क्षेत्र में अल्पसंख्यक हिन्दुओं पर अमानुषिक अत्याचार किये गए, माता-बहनों का शील भंग किया गया और हत्याएं की गयीं मूर्खता की हद तो यह है कि गाँधी ने इन दंगों की कभी आलोचना नहीं की और दंगाइयों की गुंडागर्दी को यह कहकर उचित ठहराया कि वे तो अपने धर्म का पालन कर रहे थे सिर्फ मोपला ही नहीं अपितु पूरे तत्कालीन ब्रिटिश भारत में अमानवीय मुस्लिम दंगे, लूटपाट और हिंदू हत्याऐं हुई थी पर गांधी ने उन पर कभी किसी हिंदू हेतु संज्ञान नहीं लिया उल्टा हिंदुओं को ईश्वर अल्ला तेरो नाम का वर्णसंकर गाना सुनाता गवाता रहा,, तो देखा आपने कि गाँधी को गुंडे-बदमाशों के धर्म की कितनी गहरी समझ थी?
पर उनकी दृष्टि में उन माता-बहनों का कोई धर्म नहीं था, जिनको गुंडों ने भ्रष्ट किया मुसलमानों के प्रति गाँधी के पक्षपात का यह अकेला उदाहरण नहीं है, ऐसे उदाहरण हम पहले भी देख चुके हैं इतने पर भी उनका और देश का दुर्भाग्य कि हिन्दू-मुस्लिम एकता कभी नहीं हुई ना अब हो सकती है ..!!
इतिश्री प्रथम भाग, अब भाग दो जिसमें 1919 से लेकर 1940 तक के सबसे महत्वपूर्ण घटनाओं, राजनीतियों और हिंदू व भारत द्रोहिता का अतिविस्तृत वर्णन करूंगा इस लेख सीरीज के उदाहरण कई सटीक स्रोतों, वेबसाईटों समेत इतिहास से लिये गये हैं जिन सबके लिंक या उद्धरण करना यहां संभव नहीं है पर यथासंभव आगे भाग 2 में करने की कोशिश कर अधूरापन पूरा करूँगा, आप सब निश्चिंत रहें कि यहां कुछ भी कपोल कल्पित नहीं लिखा गया है।
Note : यहाँ इस प्रथम भाग में मैनें उस्मानिया साम्राज्य – खिलाफत और खलीफा के संक्षिप्त इतिहास समेत यूरोपीय व अमेरिकी + सऊदियों की राजनैतिक तथा धार्मिक सत्ता अधिग्रहण तेल राजनीति से संबंधता रखते हुऐ बताया है जो कि ऐतिहासिक सत्य है.. सुन्नी खिलाफत का खात्मा ब्रिटिश कूटनीतिज्ञों ने अतातुर्क, गांधी + कांग्रेस व सऊदियों सहित मिल कर किस तरह किया यह भी बताया, भारत पर पडे उसके प्रभाव और हिंदू नरसंहार पर भी संक्षिप्त में लिखा है किंतु दूसरा भाग सिर्फ और सिर्फ भारत के खिलाफत आंदोलन की अनजानी सचाईयों पर आधारित रहेगा

Ottoman Empire- Part 1 उस्मानिया साम्राज्य – खिलाफत और खलीफा के संक्षिप्त इतिहास- Part 2


भारत उन दिनों आज से कहीं बड़ा था. पाकिस्तान और बांग्लादेश ही नहीं, श्री लंका और म्यांमार (बर्मा) भी ब्रिटिश भारत का हिस्सा हुआ करते थे तब भी, सेना में भर्ती के लिए अंग्रेजों की पसंद उत्तरी और उत्तर-पश्चिमी भारत के सिख, मुसलमान और हिंदू क्षत्रिय ही होते थे. उनके बीच से सैनिक व असैनिक किस्म के कुल मिलाकर लगभग 15 लाख लोग भर्ती किए गए थे अगस्त 1914 और दिसंबर 1919 के बीच उनमें से 6,21,224 लड़ने-भिड़ने के लिए और 4,74,789 दूसरे सहायक कामों के लिए अन्य देशों में भेजे गए इस दौरान एशिया, अफ्रीका और यूरोप के विभिन्न मोर्चों पर कुल मिलाकर करीब आठ लाख भारतीय सैनिक जी-जान से लड़े इनमें 74,187 मृत या लापता घोषित किए गए और 69, 214 घायल हुए ,,इस लड़ाई में भारत का योगदान सैनिकों व असैनिक कर्मियों तक ही सीमित नहीं था भारतीय जनता के पैसों से 1,70,000 पशु और 3,70,000 टन के बराबर रसद भी मोर्चों पर भेजी गई.
लड़ाई का खर्च चलाने के लिए गुलाम भारत की अंग्रेज सरकार ने लंदन की सरकार को 10 करोड़ पाउन्ड अलग से दिए भारत की गरीब जनता का यह पैसा कभी लौटाया नहीं गया मिलने के नाम पर पैदल सैनिकों को केवल 11 रुपये मासिक वेतन मिलता था..!!
13, 000 भारतीय सैनिकों को बहादुरी के पदक मिले और 12 को ‘विक्टोरिया क्रॉस.’ किसी भारतीय को कोई ऊंचा अफसर नहीं बनाया गया न कभी यह माना गया कि भारी संख्या में जानलेवा हथियारोंवाली ‘औद्योगिक युद्ध पद्धति’ से और यूरोप की बर्फीली ठंड से अपरिचित भारतीय सैनिकों के खून-पसीने के बिना इतिहास के उस पहले विश्वयुद्ध में ब्रिटेन की हालत बड़ी खस्ता हो जाती…यह है गाँधीवादी सेक्यूलर बुर्के में अंग्रेजियत के कुकर्म छुपाने में ही सहायक रही कांग्रेस पार्टी की आजतक की कुल व मुख्य उपलब्धि ।
1915 के आखिर तक फ्रांस और बेल्जियमवाले मोर्चों पर के लगभग सभी भारतीय पैदल सैनिक तुर्की के उस्मानी साम्राज्यवाले मध्यपूर्व में भेज दिये गए. केवल दो घुड़सवार डिविजन 1918 तक यूरोप में रहे. तुर्की भी नवंबर 1914 से मध्यवर्ती शक्तियों की ओर से युद्ध में कूद पड़ा था. भारतीय सैनिक यूरोप की कड़ाके की ठंड सह नहीं पाते थे. मध्यपूर्व के अरब देशों में यूरोप जैसी ठंड नहीं पड़ती. वे भारत से बहुत दूर भी नहीं हैं, इसलिए भारत से वहां रसद पहुंचाना भी आसान था. यूरोप के बाद उस्मानी साम्राज्य ही मुख्य रणभूमि बन गया था. इसलिए कुल मिलाकर 5,88,717 भारतीय सैनिक और 2,93,152 असैनिक कर्मी वहां के विभिन्न मोर्चों पर भेजे गए ब्रिटेन, फ्रांस और रूस का मित्रराष्ट्र-गुट तुर्क साम्राज्य की राजधानी कोंस्तांतिनोपल पर, जिसे अब इस्तांबूल कहा जाता है, कब्जा करने की सोच रहा था. इस उद्देश्य से ब्रिटिश और फ्रांसीसी युद्धपोतों ने, 19 फरवरी, 1915 को, तुर्की के गालीपोली प्रायद्वीप के तटवर्ती भाग पर- जिसे दर्रेदानियल (डार्डेनल्स) जलडमरूमध्य के नाम से भी जाना जाता है- गोले बरसाए. लेकिन न तो इस गोलाबारी से और न बाद की गोलीबारियों से इच्छित सफलता मिल पाई,, इसलिए तय हुआ कि गालीपोली में पैदल सैनिकों को उतारा जाए. 25 अप्रैल, 1915 को भारी गोलाबारी के बाद वहां ऑस्ट्रेलिया और न्यूजीलैंड के सैनिक उतारे गए. पर वे भी तेजी से आगे नहीं बढ़ पा रहे थे. उनकी सहायता के लिए भेजे गए करीब 3000 भारतीय सैनिकों में से आधे से अधिक मारे गए. गालीपोली अभियान अंततः विफल हो गया. जिस तुर्क कमांडर की सूझबूझ के आगे मित्रराष्ट्रों की एक न चली, उसका नाम था गाजी मुस्तफा कमाल पाशा. युद्ध में पराजय के कारण उस्मानी साम्राज्य के विघटन के बाद वही वर्तमान तुर्की का राष्ट्रपिता और पहला राष्ट्रपति कमाल अतातुर्क कहलाया. 1919-20 में 27 देशों के पेरिस सम्मेलन द्वारा रची गई वर्साई संधि ने उस्मानी व ऑस्ट्रियाई-हंगेरियाई साम्राज्य का अंत कर दिया और यूरोप सहित मध्यपूर्व के नक्शे को भी एकदम से बदल दिया,,मध्यपूर्व में भेजे गए भारतीय सैनिकों में से 60 प्रतिशत मेसोपोटैमिया (वर्तमान इराक) में और 10 प्रतिशत मिस्र तथा फिलिस्तीन में लड़े. इन देशों में वे लड़ाई से अधिक बीमारियों से मरे. उनके पत्रों के आधार पर इतिहासकार डेविड ओमिसी का कहना है,
 
‘सामान्य भारतीय सैनिक ब्रिटिश सम्राट के प्रति अपनी निष्ठा जताने और अपनी जाति की इज्जत बचाने की भावना से प्रेरित होकर लड़ता था. एकमात्र अपवाद वे मुस्लिम-बहुल इकाइयां थीं, जिन्होंने तुर्कीवाले उस्मानी साम्राज्य के अंत की आशंका से अवज्ञा अथवा बगावत का रास्ता अपनाया. उन्हें कठोर सजाएं भुगतनी पड़ीं.’ एक दूसरे इतिहासकार और अमेरिका में पेन्सिलवैनिया स्टेट यूनिवर्सिटी के प्रोफेसर फिलिप जेंकिन्स इस बगावत का एक दूसरा पहलू भी देखते हैं. उनका मानना है कि वास्तव में प्रथम विश्वयुद्ध में उस्मानी साम्राज्य के विरुद्ध लड़ने से मुस्लिम सैनिकों का इनकार और युद्ध में पराजय के साथ उस्मानी साम्राज्य का छिन्न-भिन्न हो जाना ही वह पहला निर्णायक आघात है जिसने आज के इस्लामी जगत में अतिवाद और आतंकवाद जैसे आंदोलन पैदा किए. अपने एक लेख में वे लिखते हैं, ‘वही उस पृथकतावाद की ओर भी ले गया, जिसने अंततः इस्लामी पाकिस्तान को जन्म दिया और वे नयी धाराएं पैदा कीं जिनसे ईरानी शियापंथ बदल गया.’. प्रो. जेंकिन्स का तर्क है कि ‘जब युद्ध छिड़ा था, तब उस्मानी साम्राज्य ही ऐसा एकमात्र शेष बचा मुस्लिम राष्ट्र था, जो अपने लिए महाशक्ति के दर्जे का दावा कर सकता था. उसके शासक जानते थे कि रूस व दूसरे यूरोपीय देश उसे जीतकर खंडित कर देंगे. जर्मनी के साथ गठजोड़ ही आशा की अंतिम किरण थी. 1918 में युद्ध हारने के साथ ही सारा साम्राज्य बिखरकर रह गया.’ प्रो. जेंकिन्स का मत है कि 1924 में नये तुर्की द्वरा ‘खलीफा’ के पद को त्याग देना 1,300 वर्षों से चली आ रही एक अखिल इस्लामी सत्ता का विसर्जन कर देने के समान था. इस कदम ने ‘एक ऐसा आघात पीछे छोड़ा है, जिससे सुन्नी इस्लामी दुनिया आज तक उबर नहीं सकी,,, प्रो. जेंकिन्स के शब्दों में, ‘खलीफत के अंत की आहटभर से’ ब्रिटिश भारत की तब तक शांत मुस्लिम जनता एकजुट होने लगी. उससे पहले भारत के मुसलमान महात्मा गांधी की हिंदू-बहुल कांग्रेस पार्टी के स्वतंत्रता की ओर बढ़ते झुकाव से संतुष्ट थे. लेकिन अब, खिलाफत आंदोलन चलाकर मुस्लिम अधिकारों और एक मुस्लिम राष्ट्र की मांग होने लगी. यही आंदोलन 1947 में भारत के रक्तरंजित विभाजन और पाकिस्तान के जन्म का स्रोत बना.’
स्मरणीय यह भी है कि महात्मा गांधी प्रथम विश्वयुद्ध के समय पूर्ण स्वतंत्रता के लिए कोई आन्दोलन छेड़कर ब्रिटिश सरकार की परेशानियां बढ़ाने के बदले उसे समर्थन देने के पक्षधर थे. ब्रिटिश अधिकारी भी यही संकेत दे रहे थे कि संकट के इस समय में भारतीय नेताओं का सहयोग भारत में स्वराज या स्वतंत्रता का इंतजार घटा सकता है. लेकिन, युद्ध का अंत होने के बाद सब कुछ पहले जैसा ही रहा. लंदन में ब्रिटिश मंत्रिमंडल की बैठकों में तो यहां तक कहा गया कि भारत को अपना शासन आप चलाने लायक बनने में अभी 500 साल लगेंगे…!!
भारतीय राजनीति में जिन्ना का उदय 1916 में कांग्रेस के एक नेता के रूप में हुआ था, जिन्होने हिन्दू-मुस्लिम एकता पर जोर देते हुए मुस्लिम लीग के साथ लखनऊ समझौता करवाया था। गौरतलब है कि 1910 ई. में वे बम्बई के मुस्लिम निर्वाचन क्षेत्र से केन्द्रीय लेजिस्लेटिव कौंसिल के सदस्य चुने गए, 1913 ई. में मुस्लिम लीग में शामिल हुए और 1916 ई. में उसके अध्यक्ष हो गए जिन्ना अखिल भारतीय मुस्लिम लीग के अध्यक्ष की हैसियत से संवैधानिक सुधारों की संयुक्त कांग्रेस लीग योजना पेश की। इस योजना के अंतर्गत कांग्रेस लीग समझौते से मुसलमानों के लिए अलग निर्वाचन क्षेत्रों तथा जिन प्रान्तों में वे अल्पसंख्यक थे, वहाँ पर उन्हें अनुपात से अधिक प्रतिनिधित्व देने की व्यवस्था की गई। इसी समझौते को ‘लखनऊ समझौता’ कहते हैं।
लखनऊ की बैठक में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के उदारवादी और अनुदारवादी गुटों का फिर से मेल हुआ। इस समझौते में “संभावित स्वराज वाली भारत सरकार” के ढांचे और हिंदू तथा मुसलमान समुदायों के बीच सम्बन्धों के बारे में प्रावधान था और बाल गंगाधर तिलक ही इस समझौते के प्रमुख निर्माता थे तिलक को देश लखनऊ समझौता और केसरी अखबार के भी लिए याद करता है।
पहले के हिसाब से ये प्रस्ताव गोपाल कृष्ण गोखले के राजनीतिक विधान को आगे बढ़ाने वाले थे इनमें प्रावधान था कि प्रांतीय और केंद्रीय विधायिकाओं का तीन-चौथाई हिस्सा व्यापक मताधिकार के जारिये चुना जाये और केंद्रीय कार्यकारी परिषद के सदस्यों सहित कार्यकारी परिषदों के आधे सदस्य परिषदों द्वारा ही चुने गए भारतीय हों,, केंद्रीय कार्यकारी के प्रावधान को छोडकर ये प्रस्ताव आमतौर पर 1919 के भारत सरकार अधिनियम में शामिल थे काँग्रेस प्रांतीय परिषद चुनाव में मुसलमानों के लिए अलग निर्वाचक मण्डल तथा पंजाब एवं बंगाल को छोडकर, जहां उन्होने हिंदू और सिख अल्पसंख्यकों को कुछ रियायतें दी, सभी प्रान्तों में उन्हें रियायत (जनसंख्या के अनुपात से ऊपर) देने पर भी सहमत हो गई यही समझौता कुछ इलाकों और विशेष समूहों को पसंद नहीं था, लेकिन इसने 1920 से गांधी के असहयोग आंदोलन के बुर्के में खिलाफत आंदोलन के लिए तथाकथित हिंदू मुस्लिम सहयोग का रास्ता साफ किया बस खोते जनाधार को पा कर और बढाने और स्वराज के नाम पर तथाकथित आजादी आंदोलन के पहले कांग्रेसी कदम का सच यही था “मुस्लिम तुष्टिकरण” ।
कांग्रेस ने मो.अली जौहर, खिलाफत कमेटी, मुस्लिम लीग, जमीयत उल उलेमा और नवाबों, जागीरदारों, जमींदारों के साथ मिल कर भारत में पहले आधिकारिक “जिहाद” और “इस्लाम खतरे में” के नारे के जन्म की नींव रखी जिसमें संपूर्ण आजादी की मांग तो गौण थी अपितु ब्रिटिश राज की प्रथम विश्वयुद्धीय लडाई के लिये सैनिक जुटाने के प्रयत्न ही मुख्य थे और भारत की अधिकांश जनता का इससे ध्यान हटाने या ध्यान बंटाने को मुसलमानों हेतु ‘खिलाफत आंदोलन’ और महामूर्ख हिंदुओं हेतु ‘असहयोग आंदोलन’ ब्रिटिश राज के ही अधीन रहने वाले “स्वराज उर्फ डोमेनियन स्टेट स्टेटस” के लिये, आंतरिक शासन सत्ता प्राप्ति हेतु कुलीन लोगों द्वारा शुरू कर आम भारतीय को मूर्ख बनाया गया जिसका उदाहरण लखनऊ पैक्ट है।
“अगर हिन्दू-मुस्लिम एकता वाले ऐतिहासिक लखनऊ समझौते को संविधान में मान लिया गया होता तो शायद न देश का बंटवारा होता और न ही जिन्ना की कोई गलत तस्वीर हमारे मन में होती।” यह सत्य तो हमारे वर्तमान राष्ट्रपति श्री प्रणब मुखर्जी द्वारा भी कहा गया है।
जिन्ना भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के समर्थक थे, परन्तु गांधी के असहयोग आंदोलन के बुर्के में खिलाफत आंदोलन के समर्थन चलाये जाने का उन्होंने तीव्र विरोध किया और इसी प्रश्न पर खिलाफत आंदोलन और असहयोग आंदोलन की असफलता के चलते काँग्रेस से अलग हो गए इसके बाद से मो.अली जौहर, डॉ. मुख्तार अहमद अंसारी, मौलाना अबुल कलाम, अब्दुल रहमान सिद्दीकी और चौधरी खलीक उज्जमां की संगत में उनके ऊपर हिंदू राज्य की स्थापना के भय का भूत सवार हो गया उन्हें यह मुस्लिम जेहादी ग़लत फ़हमी हो गई कि हिन्दू बहुल हिंदुस्तान में मुसलमानों को उचित प्रतिनिधित्व कभी नहीं मिल सकेगा सो वह एक नए राष्ट्र पाकिस्तान की स्थापना के घोर समर्थक और प्रचारक बन गए थे।
जिन्ना व मुस्लिम लीग गिरोह का कहना था कि अंग्रेज लोग जब भी सत्ता का हस्तांतरण करें, उन्हें उसे हिन्दुओं के हाथ में न सौंपें, हालाँकि वह बहुमत में हैं ऐसा करने से भारतीय मुसलमान को हिन्दुओं की अधीनता में रहना पड़ेगा, जिन्ना अब भारतीयों की स्वतंत्रता के अधिकार के बजाए मुसलमानों के अधिकारों पर अधिक ज़ोर देने लगे इस के लिये उन्हे कांग्रेस के अप्रत्यक्ष सहयोग के साथ साथ उन्हें अंग्रेज़ों का सामान्य कूटनीतिक समर्थन मिलता रहा जो अंग्रेजों ने सऊदो व वहाबियों समेत मुस्तफा कमाल माशा ‘अतातुर्क’ को सऊदी अरब निर्माण , आधुनिक ‘सेक्यूलर तुर्की’ निर्माण और तुर्की के सुन्नी खलीफत के खात्मे हेतु दिया था इसके फलस्वरूप वे अंत में भारतीय मुसलमानों के नेता के रूप में देश की राजनीति में उभड़े। मोहम्मद अली जिन्ना ने मुस्लिम लीग का पुनर्गठन किया और ‘क़ायदे आज़म’ (महान नेता) व पाकिस्तान के राष्ट्रपिता ‘अता पाकिस्तान’ के रूप में विख्यात हुए साथ ही अंग्रेज कूटनीति के कारण मुस्तफा कमाल पाशा भी ‘अता तुर्क’ बने और गांधी ‘जी’ को हम स्वयंभू “राष्ट्रपिता यानि अता हिंदुस्तान” के रूप में मानते ही हैं।
अब वापिस खिलाफत आंदोलन और उसके प्रमुख रहे अन्य लीडरों की और चलते हैं …!
बहुत से प्रबुद्ध पाठकों समेत आम जनता तक ने डॉ. मुख्तार अहमद अंसारी और चौधरी खलीक उज्जमां समेत अब्दुल रहमान सिद्दीकी आदि के बारे में नहीं सुना होगा …!
चलिये सिलेसिलवार हम अखिल भारतीय खिलाफत कमेटी / All India Khilafat Committee और मुस्लिम लीग के लीडरों से पाकिस्तान के जन्मदाता रहे “असल कांग्रेसी सहयोगियों ” से दो चार होते हैं-
1.) डॉ. मुख्तार अहमद अंसारी
आजकल के प्रचलित ‘सेक्यूलर’ किंतु वास्तविकता का गला घोंट चुके “लिखित इतिहास” में कहते हैं कि डॉ मुख्तार अहमद अंसारी –
एक भारतीय राष्ट्रवादी और राजनेता होने के साथ-साथ भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस और मुस्लिम लीग के पूर्व अध्यक्ष थे।
वे जामिया मिलिया इस्लामिया विश्वविद्यालय के संस्थापकों में से एक थे, 1928 से 1936 तक वे इसके कुलाधिपति भी रहे
किंतु वास्तविकता में डॉ. मुख्तार अहमद अंसारी खिलाफत कमेटी के प्रमुख सदस्य व जन्मदाताओं में से एक होने के अलावा कट्टर इस्लामी व्यक्ति थे जो कि तुर्की के खलीफा और उसके लोगों की मदद के लिये मालो असबाब समेत एक पूरा मेडिकल मिशन ले कर हिंदुस्तान से तुर्की गये थे जिसकी गवाह उपर लगी फोटो है और उसमें शानिल लोगों के बारे में आगे बताता चलूंगा …!
डॉ मुख्तार अहमद अंसारी का जन्म 25 दिसम्बर 1880 को नॉर्थ-वेस्टर्न प्रोविन्सेस (अब उत्तरप्रदेश ) के गाजीपुर जिले में यूसुफपुर-मोहम्मदाबाद शहर में हुआ था,,उन्होंने विक्टोरिया हाई स्कूल में शिक्षा ग्रहण की और बाद में वे और उनका परिवार हैदराबाद चले गए वहां जाने के बाद अंसारी ने मद्रास मेडिकल कॉलेज से चिकित्सा की डिग्री प्राप्त की और छात्रवृत्ति पर अध्ययन के लिए इंग्लैंड चले गए जहाँ उन्होंने एम.डी. और एम.एस. दोनों की उपाधियाँ हासिल की कहा जाता है कि वे एक उच्च श्रेणी के छात्र थे और उन्होंने लंदन में लॉक हॉस्पिटल और चैरिंग क्रॉस हॉस्पिटल में कार्य किया वे सर्जरी क्षेत्र में भारत के अग्रणी थे और आज भी लंदन के चैरिंग क्रॉस हॉस्पिटल में उनके कार्य के सम्मान में एक अंसारी वार्ड मौजूद है।
डॉ. अंसारी इंग्लैंड में अपने प्रवास के दौरान भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन में शामिल हुए. वे वापस दिल्ली आये तथा काँग्रेस व मुस्लिम लीग दोनों में शामिल हो गए,, 1916 की “लखनऊ संधि” की बातचीत में उन्होंने एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाई और 1918 से 1920 के बीच लीग के अध्यक्ष के रूप में कार्य किया।
डा.अंसारी खिलाफत आंदोलन के एक मुखर समर्थक थे और उन्होंने इस्लाम के खलीफा, तुर्की के सुल्तान को हटाने के मुस्तफा कमाल तथा ब्रिटिश राज के निर्णय के खिलाफ सरकारी खिलाफत निकाय, लीग और कांग्रेस पार्टी को एक साथ लाने और ब्रिटिश राज द्वारा तुर्की की आजादी की मान्यता का विरोध करने के लिए प्रमुख लीडर की तरह ही काम किया..!!
1927 के सत्र के दौरान वे भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के अध्यक्ष भी रहे. 1920 के दशक में लीग के भीतर अंदरूनी लड़ाई और राजनीतिक विभाजन और बाद में चौधरी खलीक उज्जमां, जिन्ना और मुस्लिम अलगाववाद के उभार के तथाकथित परिणाम स्वरूप डॉ॰ अंसारी महात्मा गांधी और कांग्रेस पार्टी के करीब आ गए लेकिन यह आधा सच है वास्तविकता यह है कि डॉ. अंसारी (जामिया मिलिया इस्लामिया की फाउंडेशन समिति) के संस्थापकों में से एक थे और 1927 में इसके प्राथमिक संस्थापक, डॉ.हाकिम अजमल खान की मौत के कुछ ही समय बाद उन्होंने दिल्ली में जामिया मिलिया इस्लामिया विश्वविद्यालय के कुलाधिपति के रूप में भी काम किया,, डा.अंसारी परिवार एक महलनुमा घर में रहता था जिसे उर्दू में दारुस सलाम या अंग्रेजी में एडोबे ऑफ पीस कहा जाता था, महात्मा गांधी जब भी दिल्ली आते थे, डा.अंसारी परिवार ही अक्सर उनका स्वागत करता था और यह घर कांग्रेस की राजनीतिक गतिविधियों का एक नियमित आधार था और डा. मुख्तार अहमद अंसारी महात्मा गांधी के बहुत करीबी थे जिस कारण गांधी व कांग्रेस ने धार्मिक आधार पर, Two Nation Theory / द्विराष्ट्रवाद सिद्धांत के तहत भारत विभाजन के बावजूद मुसलमानों को भारत में उनकी विलासी व आलीशान ‘विरासतों’ और धन संपत्ति से अलग नहीं होने दिया , कुल मिला कर खिलाफत आंदोलनों से लेकर पाकिस्तान निर्माण तक जिन मुसलमानों ने हिंदू खून की होली खेली वो तो यहाँ से गये ही नहीं जो गये भी वो अपने आधे से ज्यादा नाते रिश्तेदार यहीं छोड कर गये अपनी तथाकथित विरासत और “आजादी” की लडाई में अपने ‘योगदान’ गिनवाने को…!!
Choudhry Khaliquzzaman seconding the Lahore Resolution with Muhammad Ali Jinnah chairing the Lahore session
2.) चौधरी खलीक उज्जमां / Choudhry Khaliquzzaman (25 December 1889 – 1973)
ये साहब तो पाकिस्तानी बन गये थे और पाकिस्तान शब्द की मूल उपज का जरिया इनका दिमाग ही था,,,
चौधरी खलीक उज्जमां भी यूनाईटेड प्रोविंसेंसेज यानि आज के उत्तर प्रदेश के मिर्जापुर निवासी कट्टर सुन्नी मुस्लिम घराने के खानदानी जमींदार और 1916 में MAO College से BA,L.L.B. पढे हुऐ नामी वकील ही थे (तब और आज तक की सार्थक राजनैतिक परंपरा अनुसार)
ये भी अखिल भारतीय मु्स्लिम लीग तथा खिलाफत कमेटी के प्रमुख लीडरान में से एक थे,, ये डॉ. अंसारी के तुर्की गये मेडिकल मिशन के भी प्रमुख सदस्य थे, ये खिलाफत आंदोलन के दौरान तुर्की में जनसत्ता परिवर्तन के बाद बदला लेने की ख्वाहिशों के साथ मोहम्मद अली जौहर के साथ अफगानिस्तान में हिंदू व हिंदुस्तान के खिलाफ सेना बनाने के अभियान के मुख्य सूत्रधारों में से एक थे लेकिन जब अफगानियों ने 18000 से ज्यादा “भारतीय” मुसलमान ‘बिरादरान’ को लूटपाट कर कत्ल कर दिया तो इन्ही जनाब के नेतृत्व में बचेखुचे ‘भारतीय’ मुसलमानों ने भारत आकर मोपला दंगों सहित कई कत्लेआम तुर्की के खलीफा की खिलाफत के संबंध में किये थे और सेक्यूलर कांग्रेस व डरपोक सेक्यूलर भारत की जलील नींव रखी थी..!!
यानि कुल जमा बात यह है कि चौधरी खलीक उज्जमां खिलाफत आंदोलन के असफल हो जाने और हालिया मुस्लिम अत्याचारों के अपेक्षित होते जवाब को लेकर भारी दबाव में थे कि उनको तुरूप का इक्का मुहम्मद इकबाल नामक शायर के रूप में मिल गया और चौधरी खलीक फिर जी उठे ।
इकबाल के दादा सहज सप्रू हिंदू कश्मीरी पंडित थे जो बाद में सिआलकोट आ गए और मुसलमान बन गये,चौधरी खलीक उज्जमां के नेतृत्व काल में ही सर मुहम्मद इकबाल उर्फ अल्लामा इकबाल ने ही भारत विभाजन और पाकिस्तान की स्थापना का विचार सबसे पहले उठाया था।
1930 में इन्हीं के नेतृत्व में मुस्लिम लीग की पूरी कमेटी ने सबसे पहले भारत के विभाजन की माँग उठाई। इसके बाद चौधरी खलीक उज्जमां ने जिन्ना को भी मुस्लिम लीग में शामिल होने के लिए प्रेरित किया और उनके साथ पाकिस्तान की स्थापना के लिए काम किया इन्हें पाकिस्तान व पाकिस्तानी इतिहास निर्माण में बहुत सम्मानीय स्थान प्राप्त हैं, पाकिस्तान में चौधरी खलीक उज्जमां / Choudhry Khaliq-Uz-Zaman के नाम पर सडकें, स्कूल, चौक, पार्क व कॉलेज हैं, चौधरी खलीक उज्जमां की 11 अगस्त 1947 की स्पीच पाकिस्तान निर्माण की राह में मील का पत्थर मानी जाती है।
मोहनदास करमचन्द्र गाँधी (कुछ के लिए महात्मा ) उसे अनाधिकारिक रूप से तो भारत का राष्ट्रपिता (अता हिंदुस्तान) कहा जाता है परन्तु उस व्यक्ति ने भारत की कितनी और किस तरह से सेवा की थी इस सम्बन्ध में लोग चर्चा करने से भी डरते हैं या करना चाहते ही नहीं, गांधी के अनुयायी गांधी का असली चेहरा देखना व दिखाना ही नहीं चाहते हैं क्यूँ की वो इतना ज्यादा भयानक है उसे देखने के लिए गांधीवादियों व भारत को साहस जुटाना होगा , सभी गांधीवादी , महात्मा गांधी (??) को अहिंसा का पुजारी (??) मानते हैं जिसने कभी भी किसी तरह की हिंसा नहीं की परन्तु वास्तविकता तो यह है की बीसवी सदी के सबसे पहले हिन्दुओं के नरसंहार का तानाबाना बुनने और खिलाफत आंदोलन को भारत व्यापी हिंदू मुस्लिम एकता की आड़ में गांधी नेतृत्व की कांग्रेसी देन है, भारत में इस्लामी जिहाद और पहली बार ‘इस्लाम खतरे में’ सरीखे आत्मघाती नारे की इजाद का सहयोग और मुसलमानों में 1000 साल की तत्कालीन भारत पर रही हूकूमत का झूठा संहारी प्रचार भी इसी मोहनदास करमचन्द्र गांधी नेतृत्व की कांग्रेस ने ही किया था ..!!
हमारी इतिहास की किताबों (जो की कम्युनिस्टों / कांग्रेसियत ने ही लिखी हैं ) में खिलाफत आन्दोलन भी पढाया जाता है और यह बताया जाता है कि ये खिलाफत आन्दोलन राष्ट्रीय भावनाओं का उभार था जिसमे देश के हिन्दुओं और मुसलमानों ने कंधे से कन्धा मिलकर भाग लिया था परन्तु इस बारे कुछ नहीं बताया जाता है एक विदेशी शासन और वहां की सत्ता का संघर्ष का संघर्ष भारत के राष्ट्रीय भावनाओं का उभार कैसे हो सकता है ?
खिलाफत आन्दोलन एक विशुद्ध सांप्रदायिक इस्लामिक चरमपंथी आन्दोलन था जो की इस भावना से संचालित था की पूरी दुनिया इस्लामिक और गैर इस्लामिक दो तरह के राष्ट्रों में बंटी हुई है और पूरी दुनिया के मुस्लिमों ने, तुर्की के खलीफा के पद को समाप्त किये जाने को गैर इस्लामिक देश के इस्लामिक देश पर आक्रमण के रूप में देखा था जिसमें ब्रिटेन के साथ बडी संख्या में भारतीय गैर मुसलमान ही शामिल थे सो इस कारण ये खिलाफत आन्दोलन एक सुन्नी इस्लामिक आन्दोलन था जो की मुसलमानों के द्वारा गैर मुस्लिमों के विरुद्ध शुरू किया गया था और इसे भारत में अली बंधुओं , डा.अंसारी, चौधरी खलीक, जमीयत उल उलेमा समेत अखिल भारतीय खिलाफत कमेटी ने नेतृत्व प्रदान किया था ..और वकील मोहनदास करमचन्द गांधी जो की उस समय कांग्रेस का नेतृत्व कर रहे थे , उसने इस खिलाफत आन्दोलन को समर्थन देने की घोषणा की ध्यान रहे की खिलाफत आन्दोलन अपने प्रारंभ से ही एक हिंसक आन्दोलन था और इस अहिंसा के कथित पुजारी ने इस हिंसक आन्दोलन को अपना समर्थन दिया (ये वही अहिंसा का पुजारी है जिसने चौरी चौरा में कुछ पुलिसकर्मियों के मरे जाने पर अपना आंदोलन वापस ले लिया था, तथाकथित रूप से हिंसा का समर्थन ना करने की कह कर संपूर्ण आजादी की मांग कर रहे भगत सिंह, राजगुरू, सुखदेव को गोलमेज सम्मेलन के नाम पर फांसी चढाने में अप्रत्यक्ष सहयोग किया, दोनो विश्वयुद्धों में लाखों भारतीय अंग्रेज मदद हेतु स्वराज के झांसे दे कर मरवाये ) और इस गांधी के समर्थन का अर्थ कांग्रेस का समर्थन था इस खिलाफत आन्दोलन के प्रारंभ से इसका स्वरूप हिन्दुओं के विरुद्ध दंगों का था और गांधी ने उसे अपना नेतृत्व प्रदान करके और अधिक व्यापक और विस्तृत रूप दे दिया ..ताकि अंग्रेजों के खिलाफ एकत्रित होता असंतोष और सुनियोजित विद्रोह फलित ना होने पाये और अंग्रेज़ व अंग्रेजियत को सम्भलने का समय मिलता रहे उनका कोई नुकसान ना होने पाये।
जब अली भाइयों के नेतृत्व में संपूर्ण खिलाफत कमेटी ने कबाईलियों और अफगानिस्तान के अमीर को भारत पर आक्रमण के लिए आमंत्रित किया था तब इस कथित अहिंसक महात्मा ने कहा था कि –
“यदि कोई बाहरी शक्ति इस्लाम की प्रतिष्ठा की रक्षा के लिए और न्याय दिलाने के लिए आक्रमण करती है तो वो उसे वास्तविक सहायता न भी दें तो उसके साथ उनकी पूरी सहानुभूति रहेगी “(गांधी सम्पूर्ण वांग्मय – 17.527 – 528)
अब यह तो स्पष्ट ही है की वो आक्रमणकर्ता हिंसक ही होता और इस्लाम की परिपाटी के अनुसार हिन्दुओं का पूरी शक्ति के साथ कत्लेआम भी करता तो क्या ऐसे आक्रमण का समर्थन करने वाला व्यक्तिअ हिंसक कहला सकता है .. ??
बात इतने पर भी ख़त्म नहीं होती है , जब अंग्रेजों ने पूरी दुनिया में इस आन्दोलन को कुचल दिया और खिलाफत आन्दोलन असफल हो गया तो भारत के मुसलमानों ने क्रोध में आकर पूरी शक्ति से हिन्दुओं की हत्याऐं करनी शुरू कर दी और इसका सबसे ज्यादा प्रभाव मालाबार और दक्षिण संबंधी क्षेत्र में देखा गया था जब वहां पर मुसलमानों द्वारा हिन्दुओं की हत्याऐं की जा रही थीं तब इस मोहनदास करमचन्द गांधी ने कहा था कि –
“अगर कुछ हिन्दू मुसलमानों के द्वारा मार भी दिए जाते हैं तो क्या फर्क पड़ता है ??
अपने मुसलमान भाइयों के हाथों से मरने पर हिन्दुओं को स्वर्ग मिलेगा ….”
मुख्यतया भारत में अखिल भारतीय खिलाफत कमेटी ने जमियत-उल-उलेमा के सहयोग से खिलाफत आंदोलन का संगठन किया तथा मोहम्मद अली ने 1920 में खिलाफत घोषणापत्र प्रसारित किया राष्ट्रीय आंदोलन का नेतृत्व गांधी व कांग्रेस ने किया जो तथाकथित असहयोग आंदोलन था बाद में यह दोनों आंदोलन गांधी जी के प्रभाव में एक हो गए मई, 1920 तक खिलाफत कमेटी ने महात्मा गांधी की अहिंसात्मक असहयोग योजना का तथाकथित समर्थन किया दो कि वास्तविकता में किया ही नहीं, सितंबर 1920-21 में कांग्रेस के विशेष अधिवेशन ने असहयोग आंदोलन के दो ध्येय घोषित किए – “स्वराज्य तथा खिलाफत की माँगों की स्वीकृति”
जब नवंबर, 1922 में तुर्की में मुस्तफा कमाल पाशा ने सुल्तान खलीफा मोहम्मद चतुर्थ को ख़ारिज कर अब्दुल मजीद को पदासीन किया और उसके समस्त राजनीतिक अधिकार आपने पास ले लिए तब भारत से खिलाफत कमेटी ने 1924 में विरोधप्रदर्शन के लिए एक प्रतिनिधिमंडल तुर्की भेजा। राष्ट्रीयतावादी मुस्तफा कमाल ने उसकी हर बार उपेक्षा की और 3 मार्च, 1924 को उन्होंने खलीफा का पद समाप्त कर खिलाफत का अंत कर दिया इस प्रकार, भारत का खिलाफत आंदोलन भी अपने आप समाप्त हो गया था पर इसे ब्रिटेन ,यूरोपियन, सऊदों + वहाबियों की पुरजोर मदद हेतु भावी रणनीति व अर्थव्यवस्था की धुरी समेत धर्म आधारित राजनैतिक रूप देकर गाँधीवादी हिंदू अहिंसा व मुस्लिम जनित हक की हिंसा के जामे में परवान चढाया गया।
मोहम्मद अली और उनके भाई मौलाना शौकत अली ,शेख शौकत अली सिद्दीकी, डा. मुख्तार अहमद अंसारी, रईस उल मुहााजिरीन बैरिस्टर जनवरी मुहम्मद जुनेजो, हसरत मोहानी सैयद अता उल्लाह शाह बुखारी, मौलाना अबुल कलाम आजाद और जैसे अन्य मुस्लिम नेताओं के साथ शामिल हो गए डॉ. हाकिम अजमल खान ऑल इंडिया खिलाफत कमेटी और इस्लामी हकूक बुलंद करने को / बनाने के लिए,, मुसलमान कमेटी लखनऊ, भारत में हाथे शौकत अली, मकान मालिक शौकत अली सिद्दीकी के परिसर पर आधारित था वे सिर्फ मुसलमानों के बीच राजनीतिक एकता बनाने और खिलाफत की रक्षा के लिए अपने प्रभाव का इस्तेमाल करने के उद्देश्य से 1920 में खिलाफत घोषणापत्र के द्वारा, जो ब्रिटिश विरोधी आह्वान किया कि खिलाफत की रक्षा और भारतीय मुसलमानों के लिए एकजुट होना है और इस उद्देश्य के लिए ब्रिटिश, हिंदू जवाबदेह है प्रकशित हुआ ..!!
1920 में खिलाफत नेताओं और भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस राजनीतिक दल के बीच एक गठबंधन बनाया गया था कांग्रेस नेता मोहनदास गांधी हमेशा ही ब्रिटिश राज और खिलाफत नेताओं के लिए ही काम करते हैं और खिलाफत और स्वराज के कारणों के लिए एक साथ लड़ने का झांसेदार वादा गैर मुसलमानो से करते जाते हैं,, खिलाफत के समर्थन में गांधी और कांग्रेस के संघर्ष के दौरान हिंदू – मुस्लिम एकता को सुनिश्चित करने में मदद की जाने का ढोंग रचा जाता है पर मूल में ब्रिटिश सऊदी कूटनीति है यह सब कांग्रेसी नेता पचा जाते हैं।
इसका प्रत्यक्ष प्रमाण है कि जब भारत के लोग 1919 में महात्मा गांधी समर्थित और मौलाना महमूद हसन, मौलाना मुहम्मद अली जौहर, मौलाना हसरत मोहानी, मौलाना अबुल कलाम आजाद समेत कई मुसलिम नेताओं की अगुआई में हिजाज यानी मक्का और मदीना के पवित्र स्थल ब्रिटेन के हाथों में जाने के डर से खिलाफत आंदोलन चला रहे थे, अब्दुल अजीज इब्न सऊद ब्रिटेन के साथ मिल कर उस्मानिया खिलाफत और स्थानीय कबीलों को मार भगाने के लिए लड़ रहा था। अंग्रेजों के दिए हथियार और आर्थिक मदद से अब्दुल अजीज इब्न सऊद ने वर्तमान सऊदी अरब की स्थापना की और वर्षों से ‘वक्फ’ यानी ‘धर्मार्थ समर्पित सार्वजनिक स्थल’ वाले मक्का और मदीना के संयुक्त नाम ‘हिजाज’ को भी ‘सऊदी अरब’ कर दिया गया।
सोकल, कासोक और कालटैक्स के बाद अमेरिका की मर्जर कंपनी अरेबियन ब्रिटिश अमेरिकन आॅयल कंपनी यानी ‘आरामको’ ने व्यवस्थित रूप से 1943 में सऊदी अरब में तेल उत्पादन का कार्य शुरू किया। सैकड़ों तेल कुओं वाले सऊदी अरब को तरल सोने की खान के रूप में ‘घावर’ तेल कुआं मिला, जो दुनिया का सबसे बड़ा तेल उत्पादक कुआं है।
क्या यह सब देश दुनिया से जुडे विलासी बंगलों व कारागारों में रहते, ब्रिटेन व दुनिया घूमते ब्रिटिश व मुस्लिम लीग के परम मित्र ही रहे कांग्रेसियों और गांधी नेहरू को नहीं पता था…??
विश्वास करना मुश्किल है कि Discovery Of India लिखने वाला नेहरू तथा सत्य व ब्रह्मचर्य के प्रयोग वाला दूरंदेशी मोहनदास करमचंद गांधी इस सब कारणों व भविष्य से अंजान रहे होंगे…!!
असहयोग आन्दोलन का संचालन स्वराज की माँग को लेकर किया गया। इसका उद्देश्य सरकार के साथ प्रत्यक्ष सहयोग न करके कार्यवाही में अप्रत्यक्ष बाधा उपस्थित करना ही था, जो कि पूर्णतया आम जन विशेषकर हिंदुओं को मूरख बनाने व आजादी के सर्वोत्तम समय को भुलावे में डाल कर अंग्रेजियत की मदद करने का ही आंदोलन सरीखा था,जनता का मूल मुद्दों से ध्यान भटकाने वाला यह असहयोग आन्दोलन गांधी ने 1 अगस्त 1920 को ही आरम्भ किया था ।
कलकत्ता अधिवेशन में गांधी ने प्रस्ताव पेश करते हुए कहा कि, “अंग्रेज़ी सरकार शैतान है, जिसके साथ सहयोग सम्भव नहीं, अंग्रेजी सरकार को अपनी भूलों पर कोई दु:ख नहीं है, अत: हम कैसे स्वीकार कर सकते हैं कि नवीन व्यवस्थापिकाएँ हमारे स्वराज्य का मार्ग प्रशस्त करेंगी। स्वराज्य की प्राप्ति के लिए हमारे द्वारा प्रगतिशील अहिंसात्मक असहयोग की नीति अपनाई जानी चाहिए।”
गांधी जी के इस प्रस्ताव का विरोध करते हुए उस समय ही ऐनी बेसेंट ने कहा कि, “यह प्रस्ताव भारतीय स्वतंत्रता को सबसे बड़ा धक्का है।” गांधी जी के इस विरोध तथा समाज और सभ्य जीवन के विरुद्ध संघर्ष की घोषणा का सुरेंद्रनाथ बनर्जी , मदनमोहन मालवीय ,देशबंधु चितरंजन दास, विपिन चंद्र पाल, जिन्ना, शंकर नायर, सर नारायण चन्द्रावरकर ने प्रारम्भ में विरोध किया। फिर भी अली बन्धुओं एवं मोतीलाल नेहरू, जवाहरलाल नेहरू के समर्थन से यह प्रस्ताव “कांग्रेस” ने स्वीकार कर लिया यही वह क्षण था, जहाँ से भारत हेतु भयावह मुस्लिम व अंग्रेजियत के तुष्टिकारक ‘गांधी व नेहरू मिश्रित युग’ की शुरुआत हुई थी।
दिसम्बर1920 में नागपुर में आयोजित कांग्रेस अधिवेशन में असहयोग प्रस्ताव से सम्बन्धित लाला लाजपत राय एवं चितरंजन दास ने अपना विरोध वापस ले लिया तो गांधी ने नागपुर में कांग्रेस के पुराने लक्ष्य अंग्रेज़ी साम्राज्य के अंतर्गत ‘स्वशासनीय स्वराज’ के स्थान पर अंग्रेज़ों के अंतर्गत ‘स्वराज्य’ का नया लक्ष्य घोषित किया साथ ही गांधी जी ने यह भी कहा कि यदि आवश्यक हुआ तो स्वराज्य के लक्ष्य को अंग्रेज़ी साम्राज्य से बाहर भी प्राप्त किया जा सकता है तब जिन्ना और चौधरी खलीक उज्जमां के चेलों और मोहम्मद अली जौहर ने ‘स्वराज्य’ के उद्देश्य का विरोध इस आधार पर किया कि उसमें यह स्पष्ट नहीं किया गया था कि अंग्रेजी साम्राज्य से कोई सम्बन्ध बनाये रखा जायेगा या नहीं ,, ऐनी बेसेन्ट, मोहम्मद अली जौहर, जिन्ना एवं लाल, बाल, पाल सभी गांधी जी के प्रस्ताव से असंतुष्ट होकर कांग्रेस छोड़कर चले गए।
नागपुर अधिवेशन का ऐतिहासिक दृष्टिकोण से महत्त्व इसलिए है, क्योंकि यहाँ पर वैधानिक साधनों के अंतर्गत स्वराज्य प्राप्ति के लक्ष्य को त्यागकर सरकार के विरोध करने की बात रूपी झांसे को स्वीकार किया गया।
इसी बीच 5 फ़रवरी 1922 को देवरिया ज़िले के चौरी चौरा नामक स्थान पर पुलिस ने जबरन एक जुलूस को रोकना चाहा, इसके फलस्वरूप जनता ने क्रोध में आकर थाने में आग लगा दी, जिसमें एक थानेदार एवं 21 सिपाहियों की मृत्यु हो गई। इस घटना से गांधी जी स्तब्ध रह गए। 12 फ़रवरी 1922 को बारदोली में हुई कांग्रेस की बैठक में असहयोग आन्दोलन को समाप्त करने के निर्णय के बारे में गांधी जी ने यंग इंडिया (जी हाँ यंग इंडिया जो अब नई कंपनियों के मातहती में राहुल गांधी, प्रियंका गांधी व राबर्ट वाड्रे की व्यक्तिगत संपत्तियों में शुमार है और जिस की अचल संपत्तियों को लेकर उन पर एक मामूली व खबरों से जानबूझकर दूर रखा गया केस भी चल रहा है) में लिखा था कि-
“आन्दोलन को हिंसक होने से बचाने के लिए मैं हर एक अपमान, हर एक यातनापूर्ण बहिष्कार, यहाँ तक की मौत भी सहने को तैयार हूं। ”
(कितना बडा झूठ और कितना भयावह नाटक करके भारत व हिंदुओं को धोखा दिया गया, मोपला कांड पर हिंसक चुप्पी साधे हुऐ यह व्याभिचारी महात्मा 21 ब्रिटिशराज के सिपाहियों की मौत व थाने की आग पर हिल कर आंदोलन बंद कर दिया…??
नहीं,,, कारण तो वो थे जो मैनें आपको उपर बताये हैं, यह आंदोलन गले पड रहा था तो किसी ना किसी रूप से बंद करना ही था)
असहयोग आन्दोलन के स्थगन पर मोतीलाल नेहरू ने कहा था कि –
“यदि कन्याकुमारी के एक गाँव ने अहिंसा का पालन नहीं किया, तो इसकी सज़ा हिमालय के एक गाँव को क्यों मिलनी चाहिए।”
अपनी प्रतिक्रिया में नेताजी सुभाषचंद्र बोस ने कहा था कि –
“ठीक इस समय, जबकि जनता का उत्साह चरमोत्कर्ष पर था, वापस लौटने का आदेश देना राष्ट्रीय दुर्भाग्य से कम नहीं”
आन्दोलन के स्थगित करने का प्रभाव गांधी जी की लोकप्रियता पर पड़ा, 13 मार्च 1922 को गांधी जी को गिरफ़्तार किया गया तथा न्यायाधीश ब्रूम फ़ील्ड ने गांधी जी को असंतोष भड़काने के अपराध में 6 वर्ष की सुविधाओं सहित क़ैद की सज़ा सुनाई किंतु ‘स्वास्थ्य सम्बन्धी कारणों’ से उन्हें 5 फ़रवरी 1924 को रिहा कर दिया गया।

Thursday, September 18, 2014

WW3 after ISIL is finished

WW3- IS USA start
The restoration of Ukraine’s nuclear weapons could potentially be the match that lights the flames of World War 3, but many analysts believe the statement by the Ukrainian defense minister essentially amounts to hot air. There’s also some who believe an American conspiracy, and not Russia’s nuclear weapons, is the reason Ukraine has begun WMD saber-rattling.
World War Three has been predicted to happen for over a century. Conspiracy theorists have predicted a surprisingly detailed and shockingly accurate timeline of events. Are we finally entering the Third World War?
In a related report by The Inquisitr, when Russian tanks invaded Ukraine and Russian bombers potentially carrying nuclear weapons buzzed the U.S. coast, the response by Vladimir Putin was to dismiss the possibility of Russia causing World War 3 by their actions as “Russophobia propaganda.”
World War 3 A U.S. Conspiracy? Ukraine's Nuclear Weapons Alleged To Be An American PlotSome experts even allege the United States should be blamed for World War 3, and not Russia. For example, some people claim the United States space command is planning a nuclear weapons first strike scenario on both Russia and China in the event that WWIII starts. There’s even a Russian conspiracy theory that a CIA plot started the whole Ukraine crisis and a poll from earlier in 2014 shows that 25 percent of the world believes the United States is the greatest threat to world peace, with Russia not even breaking the top five of the worst threats.
Ukraine’s nuclear weapon stockpile was the third largest in the world after the fall of the Soviet Union. In December of 1994, Ukraine, Russia, the United States, and the United Kingdom signed the Budapest Memorandum, which was a diplomatic document under which the involved countries made promises to each other, including Ukraine promising to remove all Soviet-era nuclear weapons and sign the Nuclear Nonproliferation Treaty.
Ukraine kept those promises at the time, but after Russia’s annexation of Crimea some Ukrainians believe the Budapest Memorandum was rendered null and void even though it was not a formal treaty. Over the weekend, Minister of Defense of Ukraine Valerii Heletei declared Ukraine’s nuclear weapons programs could be restarted if they do not receive arms from NATO allies.
“I am drawing attention to Russia’s threatening Ukraine with the use of tactical nuclear weapons,” Heletei noted. “If we fail to defend Ukraine today, if the world does not help us, we will have to get back to the creation of such weapons, which will defend us from Russia.”
Speaking to Reuters, political commentator Daniel Patrick Welch said that if Ukraine’s nuclear weapons announcement is “real then it is suicidal. And if it is a threat then it is petulant.”
Walsh even went so far as to say many of the NATO allies are under the “jackboot of American control” and posited the idea that the Obama administration may have known in advance what Heletei was going to say before he said it.
“The Americans obviously put them up to everything they say. They know in advance. They know exactly what he is going to say…. The American political establishment wants to use Kiev as a spearhead against Russia. Make no mistake, this is exactly what is going on. Whether or not this particular statement was designed to increase tension and call Russia’s bluff or something remains to be seen.”
In general, much of the world has been dismissive about the real possibility of Ukraine restoring its nuclear capabilities. Dmitry Rogozin, Deputy Prime Minister of Russia said, “I’ve heard the one about a monkey and a hand grenade. But this is the first time I’ve heard of a monkey dreaming about a nuclear one.”
But if the threat becomes reality, Pyotr Topychkanov, coordinator of the Carnegie Moscow Center’s nonproliferation program, claims the world would treat Ukraine like North Korea.
“If Ukraine makes such a decision, it will essentially mean that its current political allies — the U.S., European Union and others — will have to abandon Kiev,” Topychkanov said. “Nobody will support Ukraine, not Europe or China. In practice it will be considered a rogue state, just like North Korea.”
Still, Ukraine’s nuclear weapons capabilities could not be easily rebuilt. The country has 15 nuclear power plants, uranium reserves, ICBM manufacturing plants, Soviet-era missile silos, and the scientific know-how. Even then, at best Ukraine’s WMD program could only hope to produce a functioning nuclear weapon within two years at the cost of $3.4 billion, although other experts consider a 10-year goal to be more likely. According to The Moscow Times, Ukraine could also create a dirty bomb with its available resources but it’s considered doubtful they’d want to go that route.
What do you think about the idea that the United States knew ahead of time about the threat of restoring Ukraine’s nuclear weapons program?

Read more at http://www.inquisitr.com/1482241/world-war-3-a-u-s-conspiracy-ukraines-nuclear-weapons-alleged-to-be-an-american-plot/#gXkOrHXB2DK1saf2.99
ed covert operation?