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Tuesday, January 13, 2015

#CHARLIEHEBDO OF INDIA. PARIS LIKE TERRORISM HAPPENNING IN INDIA SINCE 700 YEARS

Read this book that was regarding satanic prophet that was written in  ""Download RangeelaRasul" in Hindi  back 200 years ago by an Indian Writer, and ultimately his publisher was murdered by ISLAMIC knife.
अंग्रेजी राज के काल में मुसलमानों ने अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का फायदा उठाते हुए सबसे पहले 1845 ई में हिन्दू धर्म की आलोचना करते हुए रद्दे हनूद (हिन्दू मत का खंडन) नामक किताब लिखी जिसका प्रतिउत्तर चौबे बद्रीदास ने रद्दे मुसलमान (मुस्लिम मत का खंडन) नामक पुस्तक लिख कर दिया। इसके बाद अब्दुल्लाह नामक व्यक्ति ने 1856 ई में हिन्दू देवी देवी-देवताओं की कठोर आलोचना और निंदा करते हुए तोहफतुल-हिन्द (भारत की सौगात) के नाम से उर्दू में प्रकाशित की। पंडित लेखराम जी के अनुसार इस पुस्तक से अनेक अज्ञानी हिन्दू मुसलमान बने। ऐसी विकट स्थिति में मुरादाबाद निवासी मुंशी इन्द्रमणि हिन्दू धर्म की रक्षा के लिए तोहफतुल-इस्लाम (इस्लाम का उपहार) के नाम से फारसी में दिया। सैय्यद महमूद हुसैन ने इसके खंडन में खिलअत-अल-हनूद नामक पुस्तक छापी। उसके प्रतिउत्तर में मुंशी जी ने पादाशे इस्लाम नामक पुस्तक 1866 में छापी।इसके तीन वर्ष पश्चात मुंशी जी ने एक मुसलमान द्वारा लिखी पुस्तक असूले दीने हिन्दू (हिन्दू धर्म के सिद्धांत) नामक पुस्तक का उत्तर देने के लिए असूले दीने अहमद (इस्लाम के सिद्धांत) के नाम से लिखी।






इस पर मुसलमानों ने अत्यंत अश्लील पुस्तक 'तेगे फकीर बर गर्दने शरीर' (दुष्ट व्यक्तियों की गर्दन पर फकीर की तलवार) और हदिया उल असलाम नामक पुस्तक छापी। इसके जवाब में मुंशी जी ने हमलये हिन्द(1863), समसामे हिन्द और सौलते हिन्द (1868) नामक तीन पुस्तकें मेरठ से छपवायीं।






इसके स्वरुप मुसलमानों में तीव्र प्रतिक्रिया हुई और एक मुस्लिम पत्र जामे जमशीद ने 16 मई 1881 के अंक में मुंशी जी के विरुद्ध मुसलमानों को उतेजित किया जिसके कारण सरकार ने मुंशी जी के खिलाफ़ वारंट निकाल दिया एवं कचहरी में मुकदमा चलाया गया। यद्यपि मुंशी जी द्वारा वकीलों द्वारा पूछे गए सभी प्रश्नों का सप्रमाण उत्तर दिया गया मगर फिर भी निचली अदालत ने 500 रुपये जुर्माना किया एवं उनकी पुस्तकों को फड़वा दिया। मुंशी जी ने उपरतली अदालत में अपील की। तत्कालीन आर्य समाचार मेरठ, आर्यदर्पण शाहजहाँपुर आदि में लेख लिखे। भारत सरकार, गवर्नर जनरल शिमला आदि को आवेदनपत्र भेजे। गवर्नर ने मुक़दमे की कार्यवाही शिमला मंगवाई मगर मामला विचाराधीन है कहकर जुर्माने की रकम को घटाकर 100 रुपये कर दिया गया और मुसलमानों द्वारा हिन्दुओं के विरुद्ध लिखी गई पुस्तकों को नजरअंदाज कर दिया गया। मामला हाई कोर्ट में गया मगर जुर्माना बहाल रखा गया। अंत में तीव्र आंदोलन होने पर मुंशी जी का जुर्माना भी क्षमा कर दिया गया। स्वामी दयानंद ने आर्यसमाज के पत्रों के माध्यम से मुंशी जी की धन से सहायता करने की अपील भी निकाली थी। मुंशी जी ने मेला चाँदपुर शास्त्रार्थ में स्वामी जी के साथ आर्यसमाज के पक्ष को प्रस्तुत किया था और आर्यसमाज मुरादाबाद के प्रधान पद पर भी रहे थे। स्वामी दयानंद पर इस मुक़दमे के कारण अंग्रेज सरकार की न्यायप्रियता एवं पक्षपात रहित सोच पर अनेक संशय उत्पन्न हो गए। सही पक्ष होते हुए भी मुंशी जी को तंग किया गया, उनकी पुस्तकें नष्ट की गई एवं मुसलमानों की पुस्तकों पर कोई कार्यवाही नहीं की गई। स्वामी जी शांत बैठने वालो में से नहीं थे। अपने लंदन में पढ़ रहे अपने शिष्य पंडित श्याम जी कृष्ण जी को लंदन की पार्लियामेंट में इस मामले को उठाने की सलाह अपने पत्र व्यवहार में दी जिससे की अंग्रेज सरकार द्वारा भारत में सामान्य जनता के विरुद्ध कैसा व्यवहार होता है इससे लंदन निवासी परिचित हो सके। अंग्रेजों द्वारा पक्षपात करने के कारण स्वामी दयानंद का चिंतन निश्चित रूप से स्वदेशी राजा एवं स्वतंत्रता की ओर पहले से अधिक प्रेरित होना कोई अतिश्योक्ति नहीं है।


अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के पक्षधर स्वामी दयानंद ने सत्यार्थ प्रकाश की रचना कर चिर काल से सो रही मानव जाति को जगाया। सत्यार्थ प्रकाश आरम्भ के दस समुल्लासों की बजाय अंत के चार समुल्लासों के कारण अधिक चर्चा में रहा है। सत्यार्थ प्रकाश के विपक्ष में इतना अधिक साहित्य लिखा गया कि एक वृहद पुस्तकालय ही बन जाये। इसका मूल कारण स्वामी जी के उद्देश्य को ठीक प्रकार से समझना नहीं था। स्वामी जी का उद्देश्य किसी की भावना को आहत करना नहीं अपितु सत्य का मंडन एवं असत्य का खंडन था और मनुष्य के जीवन का उद्देश्य भी यही है। स्वामी जी का कहना था कि मत-मतान्तर के आपसी मतभेद के चलते धर्म का ह्रास हुआ है एवं मानव जाति की व्यापक हानि हुई है और जब तक यह मतभेद नहीं छूटेगा तब तक आनंद नहीं होगा। पंडित गंगाप्रसाद उपाध्याय जी के अनुसार सत्यार्थ प्रकाश के माध्यम से स्वामी दयानंद ने रूढ़िवादी एवं असत्य मान्यताओं पर जो कुठाराघात किया वह सैद्धांतिक, पक्षपात रहित एवं तर्कसंगत था जबकि उससे पहले लिखी गई पुस्तकों में प्राय: भद्दी गलियां एवं अश्लील भाषा की भरमार अधिक होती थी। स्वामी जी सामाजिक चेतना के पक्षधर थे।

स्वामी दयानंद के पश्चात पंडित लेखराम द्वारा अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अंतर्गत आर्यमर्यादा का पालन करते हुए वैदिक धर्म के विरुद्ध प्रकाशित हो रही पुस्तकों का प्रतिउत्तर दिया। पंडित जी द्वारा रचित रिसाला जिहाद के विरुद्ध मुसलमानों ने 1892 में कोर्ट में केस किया था जिसकी पैरवी लाला लाजपत राय जी द्वारा बखूबी की गई थी। अनंतत जीत आर्यसमाज की हुई थी। अहमदिया जमात के मिर्जा गुलाम अहमद ने बरहीन अहमदिया नामक पुस्तक चंदा मांग कर छपवाई. पंडित जी ने उसका उत्तर तकजीब ए बरहीन अहमदिया लिखकर दिया। मिर्जा ने सुरमाये चश्मे आर्या (आर्यों की आंख का सुरमा) लिखा जिसका पंडित जी ने उत्तर नुस्खाये खब्ते अहमदिया (अहमदी खब्त का ईलाज) लिख कर दिया। अंत में धोखे से पंडित जी को पेट में छुरा मारकर क़त्ल कर दिया गया। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के लिए पंडित लेखराम जी का अमर बलिदान हुआ।

सन १९२३ में मुसलमानों की ओर से दो पुस्तकें "१९ वीं सदी का महर्षि" और “कृष्ण,तेरी गीता जलानी पड़ेगी ” प्रकाशित हुई थी। पहली पुस्तक में आर्यसमाज के संस्थापक स्वामी दयानंद का सत्यार्थ प्रकाश के १४ सम्मुलास में कुरान की समीक्षा से खीज कर उनके विरुद्ध आपतिजनक एवं घिनोना चित्रण प्रकाशित किया था जबकि दूसरी पुस्तक में श्री कृष्ण जी महाराज के पवित्र चरित्र पर कीचड़ उछाला गया था। उस दौर में विधर्मियों की ऐसी शरारतें चलती ही रहती थी पर धर्म प्रेमी सज्जन उनका प्रतिकार उन्ही के तरीके से करते थे। महाशय राजपाल ने स्वामी दयानंद और श्री कृष्ण जी महाराज के अपमान का प्रति उत्तर १९२४ में "रंगीला रसूल" के नाम से पुस्तक छाप कर दिया, जिसमे मुहम्मद साहिब की जीवनी व्यंग्यात्मक शैली में प्रस्तुत की गयी थी। यह पुस्तक उर्दू में थी और इसमें सभी घटनाएँ इतिहास सम्मत और प्रमाणिक थी। पुस्तक में लेखक के नाम के स्थान पर “दूध का दूध और पानी का पानी "छपा था। वास्तव में इस पुस्तक के लेखक पंडित चमूपति जी थे जो की आर्यसमाज के श्रेष्ठ विद्वान् थे। वे महाशय राजपाल के अभिन्न मित्र थे। मुसलमानों के ओर से संभावित प्रतिक्रिया के कारण चमूपति जी इस पुस्तक में अपना नाम नहीं देना चाहते थे। इसलिए उन्होंने महाशय राजपाल से वचन ले लिया की चाहे कुछ भी हो जाये,कितनी भी विकट स्थिति क्यूँ न आ जाये वे किसी को भी पुस्तक के लेखक का नाम नहीं बतायेगे। महाशय राजपाल ने अपने वचन की रक्षा अपने प्राणों की बलि देकर की पर पंडित चमूपति सरीखे विद्वान् पर आंच तक न आने दी। १९२४ में छपी रंगीला रसूल बिकती रही पर किसी ने उसके विरुद्ध शोर न मचाया फिर महात्मा गाँधी ने अपनी मुस्लिमपरस्त निति में इस पुस्तक के विरुद्ध एक लेख लिखा। इस पर कट्टरवादी मुसलमानों ने महाशय राजपाल के विरुद्ध आन्दोलन छेड़ दिया। सरकार ने उनके विरुद्ध १५३ए धारा के अधीन अभियोग चला दिया। अभियोग चार वर्ष तक चला। राजपाल जी को छोटे न्यायालय ने डेढ़ वर्ष का कारावास तथा १००० रूपये का दंड सुनाया गया। इस फैसले के विरुद्ध अपील करने पर सजा एक वर्ष तक कम कर दी गई। इसके बाद मामला हाई कोर्ट में गया। कँवर दिलीप सिंह की अदालत ने महाशय राजपाल को दोषमुक्त करार दे दिया। मुसलमान इस निर्णय से भड़क उठे। खुदाबख्स नामक एक पहलवान मुसलमान ने महाशय जी पर हमला कर दिया जब वे अपनी दुकान पर बैठे थे पर संयोग से आर्य सन्यासी स्वतंत्रानंद जी महाराज एवं स्वामी वेदानन्द जी महाराज वह उपस्थित थे। उन्होंने घातक को ऐसा कसकर दबोचा की वह छुट न सका। उसे पकड़ कर पुलिस के हवाले कर दिया गया, उसे सात साल की सजा हुई। रविवार ८ अक्टूबर १९२७ को स्वामी सत्यानन्द जी महाराज को महाशय राजपाल समझ कर अब्दुल अज़ीज़ नमक एक मतान्ध मुसलमान ने एक हाथ में चाकू ,एक हाथ में उस्तरा लेकर हमला कर दिया। स्वामी जी घायल कर वह भागना ही चाह रहा था की पड़ोस के दूकानदार महाशय नानकचंद जी कपूर ने उसे पकड़ने का प्रयास किया। इस प्रयास में वे भी घायल हो गए तो उनके छोटे भाई लाला चूनीलाल जी जी उसकी ओर लपके। उन्हें भी घायल करते हुए हत्यारा भाग निकला पर उसे चौक अनारकली, लाहौर पर पकड़ लिया गया। उसे चोदह वर्ष की सजा हुई ओर तदन्तर तीन वर्ष के लिए शांति की गारंटी का दंड सुनाया गया। स्वामी सत्यानन्द जी के घाव ठीक होने में करीब डेढ़ महीना लगा। ६ अप्रैल १९२९ को महाशय राजपाल अपनी दुकान पर आराम कर रहे थे। तभी इल्मदीन नामक एक मतान्ध मुसलमान ने महाशय जी की छाती में छुरा घोप दिया जिससे महाशय जी का तत्काल प्राणांत हो गया। हत्यारा अपने जान बचाने के लिए भागा ओर महाशय सीताराम जी के लकड़ी के टाल में घुस गया। महाशय जी के सुपुत्र विद्यारतन जी ने उसे कस कर पकड़ लिया। पुलिस हत्यारे को पकड़ कर ले गई और बाद में मुसलमानों द्वारा पूरा जोर लगाने पर भी इल्मदीन को फाँसी की सजा हुई। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता में यह निराला बलिदान था।

लाहौर में आर्यसमाज के पुस्तक विक्रेता वीर परमानन्द जी को जेठ की दोपहरी में उस समय मार दिया गया जब वह उर्दू सत्यार्थ प्रकाश की प्रतियोँ को लेने अपनी दुकान पर गए थे। मुसलमानों के लिए सत्यार्थ प्रकाश के १४ वे समुल्लास में कुरान की समीक्षा के उद्देश्य को मजहबी आक्रोश में हिंसा का रास्ता अपनाना दुर्भाग्यपूर्ण फैसला था।
अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की रक्षा की पंक्ति में वीर नाथूराम जी का बलिदान स्मरणीय है। वीर नाथूराम का जन्म 1 अप्रैल 1904 को हैदराबाद सिंध प्रान्त में हुआ था। पंजाब में उठे आर्य समाज के क्रांतिकारी आन्दोलन से आप प्रभावित होकर 1927 में आप आर्यसमाज में सदस्य बनकर कार्य करने लगे। उन दिनों इस्लाम और ईसाइयत को मानने वाले हिन्दुओं को अधिक से अधिक धर्म परिवर्तन कर अपने मत में सम्मिलित करने की फिराक में रहते थे। 1931 मेंअहमदिया (मिर्जाई) मत की अंजूमन ने सिंध में कुछ विज्ञापन निकल कर हिन्दू धर्म और हिन्दू वीरों पर गलत आक्षेप करने शुरू कर दिए। जिसे पढ़कर आर्यवीर नाथूराम से रहा न गया और उन्होंने ईसाईयों द्वारा लिखी गयी पुस्तक ‘तारीखे इस्लाम’ का उर्दू से सिन्धी में अनुवाद कर उसे प्रकाशित किया और एक ट्रैक लिखा जिसमे मुसलमान मौलवियों से इस्लाम के विषय में शंका पूछी गई थी। ये दोनों साहित्य नाथूराम जी ने निशुल्क वितरित की थी । इससे मुसलमानों में खलबली मच गई। उन्होंने भिन्न भिन्न स्थानों में उनके विरुद्ध आन्दोलन शुरू कर दिया। इन हलचलों और विरोध का परिणाम हुआ की सरकार ने नाथूराम जी पर अभियोग आरंभ कर दिया। नाथूराम जी ने कोर्ट में यह सिद्ध किया की प्रथम तो ये पुस्तक मात्र अनुवाद है इसके अलावा इसमें जो तर्क दिए गए है वे सब इस्लाम की पुस्तकों में दिए गए प्रमाणों से सिद्ध होते है। जज ने उनकी दलीलों को अस्वीकार करते हुए उन्हें 1000 रूपये दंड और कारावास की सजा सुनाई। इस पक्षपात पूर्ण निर्णय से सारे सिंध में तीखी प्रतिक्रिया हुई। इस निर्णय के विरुद्ध चीफ़ कोर्ट में अपील करी गई। 20 सितम्बर 1934 को कोर्ट में जज के सामने नाथूराम जी ने अपनी दलीले पेश करी। अब जज को अपना फैसला देना था। तभी एक चीख से पूरी अदालत की शांति भंग हो गई। अब्दुल कय्यूम नामक मतान्ध मुस्लमान ने नाथूराम जी पर चाकू से वार कर उन्हें घायल कर दिया जिससे वे शहिद हो गए। चीफ जज ने वीर नाथूराम के मृत देह को सलाम किया। बड़ी धूम धाम से वीर नाथूराम की अर्थी निकली। हजारो की संख्या में हिन्दुओ ने वीर नाथूराम को विदाई दी। अब्दुल कय्यूम को पकड़ लिया गया। उसे बचाने की पूरजोर कोशिश की गयी मगर उसे फांसी की सजा हुई।


आर्यसमाज के इतिहास में अनेक इस प्रकार की घटनाओं का उद्देश्य अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की रक्षा करना था मगर पाठकों को मन में एक शंका बार बार उठ रही होगी कि मकबूल फ़िदा हुसैन द्वारा हिन्दू देवी देवताओं की नग्न पेंटिंग के विरुद्ध जो प्रतिक्रिया हुई थी , 300 रामायण के नाम से रामानुजम द्वारा रचित निबंध जिसे दिल्ली के विश्वविद्यालय में पढ़ाने पर प्रतिक्रिया हुई थी, सीता सिंग्स थे ब्लूज (sita sings the blues) नामक रामायण पर आधारित तथ्यों से विपरीत जो फ़िल्म बनी थी, आमिर खान द्वारा अभिनीत pk जैसी फिल्में भी तो अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता है। फिर तो इनका विरोध करना मूर्खता है।

इस शंका का उत्तर अत्यंत स्पष्ट है। वह है इन सभी कार्यों को करने का उद्देश्य क्या है। किसी भी गलत तथ्य को गलत कहना सत्यता है जबकि किसी भी सही तथ्य को गलत कहना असत्यता है। आज जो ढोंग अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के नाम पर हो रहा है वह इसी श्रेणी में आता है। हिंदी देवी देवताओं की नग्न पेंटिंग के माध्यम से हुसैन कौन सा समाज सुधार कर रहे थे? रामानुजम की पुस्तक में लिखे एक तथ्य को पढ़िये। उसमें लिखा हे लक्ष्मण की सीता माता पर टेढ़ी दृष्टि थी जबकि वाल्मीकि रामायण कहती है लक्ष्मण जी ने कभी सीता माता का मुख नहीं देखा था। उन्होंने केवल उनके चरण देखे थे जिन्हें वे प्रतिदिन सम्मान देने के लिए छूते थे। रामायण पर आधारित फ़िल्म में रामायण में वर्णित मर्यादा, पिता-पुत्र, भाई-भाई में परस्पर प्रेम के स्थान पर प्रक्षिप्त रामायण के भागों को दिखाना कहां तक उचित है? pk फ़िल्म आस्था और श्रद्धा पर प्रश्न तो करती है मगर भटके हुओं को रास्ता दिखाने में असफल हो जाती है। जब आमिर खान यह कहता हैं कि मुझे ईश्वर के विषय में नहीं मालूम तब यह स्पष्ट हो जाता है कि फिल्म बनाने वाले को इसका उद्देश्य नहीं मालूम। इस प्रकार से यह फिल्म जिज्ञासु प्रवृति के व्यक्ति को असंतुष्ट कर नास्तिक बनने की प्रेरणा देती है और केवल धन कमाने का धंधा मात्र दीखता है।


अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता अत्यंत आवश्यक है मगर यह कार्य तभी संभव है जब इसे पक्षपात रहित विद्वान करे। पक्षपाती लोग अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता अन्यों के प्रति दुर्भावना के लिए जब जब करते है तब तब संसार का अहित होता है और होता रहेगा। पक्षपात रहित लोग समाज के कल्याण के लिए उद्घोष करते है तभी उन्हें समाज सुधारक की श्रेणी में गिना जाता है। आज देश को तोड़ने वाली शक्तियाँ, हिन्दू समाज में सामाजिक दूरियाँ पैदा कर उसे असंगठित करने के लिए अभिव्यक्ति के नाम पर उलटे सीधे प्रपंच कर समाज का अहित कर रही है। अभिव्यक्ति पर अंकुश होना दकियानूसी सोच है मगर अभिव्यक्ति का अनियंत्रित होना मीठे जहर के समान है। सदाचारी, पुरुषार्थी, धर्मात्मा मनुष्यों के हाथों में समाज का मार्गदर्शन होना चाहिए जिससे कि धर्मविरोधी, नास्तिक, भोग-विलासी, देशद्रोही ताकतों को अवसर न मिले। अंत में उन सभी महान आत्माओं को श्रद्धांजलि जिन्होंने समाज सुधार के लक्ष्य से अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के लिए अपने जीवन की आहुति दी।



डॉ विवेक आर्य
सम्पूर्ण विश्व में पेरिस में हुए हमले में शार्लि अब्दो पत्रिका के 10 कार्टूनिस्टों की हत्या की कड़े शब्दों में आलोचना की गई है एवं इसे अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर हमला बताया गया। निश्चित रूप से आतंकवादियों की हिंसक प्रतिक्रिया निंदनीय है। भारत का "सेक्युलर" मीडिया अपनी चिरपरिचित मनोवृति में आतंकी हिंसा को pk फिल्म के विरुद्ध हुई प्रतिक्रिया से तुलना करने में अपनी बड़ाई समझ रहा है। परन्तु अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के मूलभूत उद्देश्य से प्राय: सभी सेकुलरवादी अनभिज्ञ है। इस लेख का उद्देश्य अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के उद्देश्य को भारतीय इतिहास की सहायता से समझना है।

Wednesday, December 24, 2014

CHITTOR DESTRUCTION BY AKBAR AND ROLE OF UDAI AND MAN SINGH

स्वामी दयानंद अपने चित्तोड़ भ्रमण के समय चित्तोड़ के प्रसिद्द किले को देखने गए। किले की हालत एवं राजपूत क्षत्राणियों के जौहर के स्थान को देखकर उनके मुख से निकला की अगर ब्रह्मचर्य की मर्यादा का मान होता तो चित्तोड़ का यह हश्र नहीं होता। काश चित्तोड़ में गुरुकुल की स्थापना हो जिससे ब्रह्मचर्य धर्म का प्रचार हो सके।

स्वामी दयानंद के चित्तोड़ सम्बंधित चिंतन में ब्रह्मचर्य पालन से क्या सम्बन्ध था यह इतिहास के गर्भ में छिपा सत्य हैं। जिस समय चित्तोड़ का अकबर के हाथों विध्वंश हुआ उस समय चित्तोड़ पर वीर बप्पा रावल के वंशज, राणा सांगा के पुत्र उदय सिंह का राज था। समस्त राजपुताना में चित्तोड़ एक मात्र रियासत थी जिसने अपनी बेटी का डोलना मुगलों के हरम में नहीं भेजा था। अकबर के लिए यह असहनीय था की जब तक चित्तोड़ स्वतंत्र हैं तब तक भारत विजय का अकबर का स्वपन अधूरा हैं। राणा उदय सिंह वैसे तो वीर था मगर अपने पूर्वजों से महानता एवं दूरदृष्टि से विमुख था। उसमें भोग विलास की मात्र अधिक थी इसीलिए उसका जीवन उसकी दर्जनों रानियाँ और उनके अनेकों बच्चों में उलझा रहता था। यही कारण था की महाराणा प्रताप ने एक बार कहा था कि अगर दादा राणा सांगा जी के पश्चात मेवाड़ की गद्दी पर वह बैठते तो मुगलों को कभी इतना शक्तिशाली न होने देते। राजपुताना के बाकि राजपूतों की दशा भी कोई भिन्न न थी।
जब अकबर ने चित्तोड़ पर आक्रमण किया तब उदय सिंह ने उसकी रक्षा करने के स्थान पर भाग जाना बेहतर समझा। अभागा हैं वह देश जिसमें आपत्ति काल में उसका मुखिया साथ छोड़ दे। बारूद से शून्य किला बच सकता हैं मगर किलेदार से शून्य किला नहीं बच सकता। यहाँ तक कि चित्तोड़ के घेराव के समय भी उदय सिंह ने बाहर बैठकर कुछ नहीं किया। मगर चित्तोड़ राजपूताने मस्तक था, मान था। जयमल जैसे वीर सरदार अभी जीवित थे। एक ओर अकबर कि 25 हजार सेना, 3000 हाथी एवं 3 बड़े तोपखाने थे वही दूसरी ओर संसाधन रहित स्वाधीनता से प्रेम करने वाले 5000 वीर राजपूत थे। राजपूत एक ओर मुग़ल सेना से लड़ते जाते दूसरी ओर तोपों कि मार से दह रही दीवारों का निर्माण करते जाते। युद्ध 6 मास से अधिक हो चला था। एक दिन किले की दीवार के सुराख़ के छेद में से अकबर ने अपनी बन्दुक से एक तेजस्वी पुरुष को निशाना साधा। उस गोली से जयमल का स्वर्गवास हो गया। राजपूतों ने एक युवा पत्ता को अपना सरदार नियुक्त किया। पत्ता की मूछें भी ठीक से नहीं उगी थी मगर मातृभूमि पर प्राण न्यौछावर करने के लिए सभी राजपूत तैयार थे। आज अलग दिन था। सभी राजपूतों ने केसरिया बाना पहना, कमर पर तलवार बाँधी और युद्ध के लिए रवाना हो गए। राजपूतों ने जब देखा कि किले की रक्षा अब असंभव हैं तो उन्होंने अंतिम संग्राम का मन बनाया। किले के दरवाजे खोल दिए गए। मुग़ल सेना अंदर घुसते ही राजपूतों की फौलादी छाती से टकराई। उस अभेद्य दिवार को तोड़ने के अकबर ने मदमस्त हाथी राजपूतों पर छोड़ दिए। अनेक हाथियों को राजपूतों ने काट डाला, अनेक राजपूत स्वर्ग सिधार गए। अंत में पत्ता लड़ते लड़ते थक का बेहोश हो गया। एक हाथी ने उसे अपनी सूंड में उठा कर अकबर के सामने पेश किया। बहादुर पत्ता के प्राण थोड़ी देर में निकल गए मगर अकबर उसकी बहादुरी और देशभक्ति का प्रशंसक बन गया। इस युद्ध में 30000 आदमी काम आये, जिनमें लड़ाकू राजपूतों के अतिरिक्त चित्तोड़ की आम जनता भी थी। युद्ध के पश्चात मृत बहादुरों के शरीर से उतरे जनेऊ का तोल साढ़े सतावन मन था। उस दिन से राजपूताने में साढ़े सतावन का अंक अनिष्ट माना जाता हैं। किले के अंदर राजपूत क्षत्राणियों ने जौहर कर आत्मदाह कर लिया। अकबर ने यह युद्ध हाथियों कि दिवार के पीछे खड़े होकर जीता था। राजपूत चाहते तो आत्मसमर्पण कर देते मगर उनका लक्ष्य शहिद होकर सदा के लिए अमर होना था। युद्ध के इस परिणाम से महान आर्य रक्त की बड़ी हानि हुई।
यह हानि होने से बच सकती थी अगर राजपूतों की भोगवादी प्रवृति न होती। राजपूतों में न एकता थी और न ही दूरदृष्टी थी। अगर होती तो मान सिंह जैसे राजपूत अपनी सेनाओं के साथ अपने ही भाइयों से न लड़ते और अकबर के साम्राज्य की नीवों को मजबूत करने में जीवन भर प्रयत्न न करते। अगर होती तो उदय सिंह अपना ही राज्य छोड़कर जाने से अधिक लड़ते लड़ते मर जाना अधिक श्रेयकर समझता। शराब, अफीम एवं अनेक स्त्रियों के संग ने राजपूतों के गर्म लहू को यहाँ तक जमा दिया था कि बात बात पर मूछों को तांव देने वाले राजपूत अपनी बहन और बेटियों को मुग़लों के हरम में भेजने में भी परहेज नहीं कर रहे थे।

स्वामी दयानंद का चिंतन इसी दुर्दशा का ईशारा कर रहा था कि जहाँ पर भोग होगा, प्राचीन धार्मिक सिद्धांतों का अपमान होगा, ब्रह्मचर्य का अभाव होगा वहां पर नाश निश्चित हैं। इसीलिए चित्तोड़ के दुर्ग को देखकर सन 1567 में हुए विनाश का कारण स्वामी जी के मुख से निकला।आज हिन्दू समाज को अगर अपनी रक्षा करनी हैं तो उसे वेद विदित आर्य सिद्धातों का अपने जीवन में पालन अनिवार्य बनाना होगा अन्यता इतिहास अपने आपको दोहराने से पीछे नहीं हटेगा।
SOURCE-
डॉ विवेक आर्य

Monday, December 15, 2014

SWAMI DAYANAD SARASWATI AND PURIFICATION OF CONVERTED HINDUS BACK TO HINDUISM

आधुनिक भारत में "शुद्धि" के सर्वप्रथम प्रचारक स्वामी दयानंद थे तो उसे आंदोलन के रूप में स्थापित कर सम्पूर्ण हिन्दू समाज को संगठित करने वाले स्वामी श्रद्धानन्द थे। सबसे पहली शुद्धि स्वामी दयानंद ने अपने देहरादून प्रवास के समय एक मुस्लमान युवक की करी थी जिसका नाम अलखधारी रखा गया था। स्वामी जी के निधन के पश्चात पंजाब में विशेष रूप से मेघ, ओड और रहतिये जैसे निम्न और पिछड़ी समझी जाने वाली जातियों का शुद्धिकरण किया गया। इसका मुख्य उद्देश्य उनकी पतित, तुच्छ और निकृष्ट अवस्था में सामाजिक एवं धार्मिक सुधार करना था।

आर्यसमाज द्वारा चलाये गए शुद्धि आंदोलन का व्यापक स्तर पर विरोध हुआ क्यूंकि हिन्दू जाति सदियों से कूपमण्डूक मानसिकता के चलते सोते रहना अधिक पसंद करती थी। आगरा और मथुरा के समीप मलकाने राजपूतों का निवास था जिनके पूर्वजो ने एक आध शताब्दी पहले ही इस्लाम की दीक्षा ली थी। मलकानों के रीती रिवाज़ अधिकतर हिन्दू थे और चौहान, राठोड़ आदि गोत्र के नाम से जाने जाते थे। 1922 में क्षत्रिय सभा मलकानों को राजपूत बनाने का आवाहन कर सो गई मगर मुसलमानों में इससे पर्याप्त चेतना हुई एवं उनके प्रचारक गावं गावं घूमने लगे। यह निष्क्रियता स्वामी श्रद्धानन्द की आँखों से छिपी नहीं रही। 11 फरवरी 1923 को भारतीय शुद्धि सभा की स्थापना करते समय स्वामी श्रद्धानन्द द्वारा शुद्धि आंदोलन आरम्भ किया गया। स्वामी जी द्वारा इस अवसर पर कहा गया की जिस धार्मिक अधिकार से मुसलमानों को तब्लीग़ और तंज़ीम का हक हैं उसी अधिकार से उन्हें अपने बिछुड़े भाइयों को वापिस अपने घरों में लौटाने का हक हैं। आर्यसमाज ने 1923 के अंत तक 30 हजार मलकानों को शुद्ध कर दिया।
मुसलमानों में इस आंदोलन के विरुद्ध प्रचंड प्रतिकिया हुई। जमायत-उल-उलेमा ने बम्बई में 18 मार्च, 1923 को मीटिंग कर स्वामी श्रद्धानन्द एवं शुद्धि आंदोलन की आलोचना कर निंदा प्रस्ताव पारित किया। स्वामी जी की जान को खतरा बताया गया मगर उन्होंने "परमपिता ही मेरा रक्षक हैं, मुझे किसी अन्य रखवाले की जरुरत नहीं हैं" कहकर निर्भीक सन्यासी होने का प्रमाण दिया। कांग्रेस के श्री राजगोपालाचारी, मोतीलाल नेहरू एवं पंडित जवाहरलाल नेहरू ने धर्मपरिवर्तन को व्यक्ति का मौलिक अधिकार मानते हुए तथा शुद्धि के औचित्य करते हुए भी तत्कालीन राष्ट्रीय आंदोलन के सन्दर्भ में उसे असामयिक बताया। शुद्धि सभा गठित करने एवं हिन्दुओं को संगठित करने का स्वामी जी का ध्यान 1912 में उनके कलकत्ता प्रवास के समय आकर्षित हुआ था जब कर्नल यू. मुखर्जी ने 1911 की जनगणना के आधार पर यह सिद्ध किया की अगले 420 वर्षों में हिन्दुओं की अगर इसी प्रकार से जनसँख्या कम होती गई तो उनका अस्तित्व मिट जायेगा। इस समस्या से निपटने के लिए हिन्दुओं का संगठित होना आवश्यक था और संगठित होने के लिए स्वामी जी का मानना था कि हिन्दू समाज को अपनी दुर्बलताओं को दूर करना चाहिए। सामाजिक विषमता, जातिवाद, दलितों से घृणा, नारी उत्पीड़न आदि से जब तक हिन्दू समाज मुक्ति नहीं पा लेगा तब तक हिन्दू समाज संगठित नहीं हो सकता।

इसी बीच हिन्दू और मुसलमानों के मध्य खाई बराबर बढ़ती गई। 1920 के दशक में भारत में भयंकर हिन्दू-मुस्लिम दंगे हुए। केरल के मोपला, पंजाब के मुल्तान, कोहाट, अमृतसर, सहारनपुर आदि दंगों ने अंतर और बढ़ा दिया। इस समस्या पर विचार करने के लिए 1923 में दिल्ली में कांग्रेस ने एक बैठक का आयोजन किया जिसकी अध्यक्षता स्वामी जी को करनी पड़ी। मुसलमान नेताओं ने इस वैमनस्य का कारण स्वामी जी द्वारा चलाये गए शुद्धि और हिन्दू संगठन को बताया। स्वामी जी ने सांप्रदायिक समस्या का गंभीर और तथ्यात्मक विश्लेषण करते हुए दंगों का कारण मुसलमानों की संकीर्ण सांप्रदायिक सोच बताया। इसके पश्चात भी स्वामी जी ने कहा की मैं आगरा से शुद्धि प्रचारकों को हटाने को तैयार हूँ अगर मुस्लिम उलेमा अपने तब्लीग के मौलवियों को हटा दे। परन्तु मुस्लिम उलेमा न माने।
इसी बीच स्वामी जी को ख्वाजा हसन निज़ामी द्वारा लिखी पुस्तक 'दाइए-इस्लाम' पढ़कर हैरानी हुई। इस पुस्तक को चोरी छिपे केवल मुसलमानों में उपलब्ध करवाया गया था। स्वामी जी के एक शिष्य ने अफ्रीका से इसकी प्रति स्वामी जी को भेजी थी। इस पुस्तक में मुसलमानों को हर अच्छे-बुरे तरीके से हिन्दुओं को मुस्लमान बनाने की अपील निकाली गई थी। हिन्दुओं के घर-मुहल्लों में जाकर औरतों को चूड़ी बेचने से, वैश्याओं को ग्राहकों में, नाई द्वारा बाल काटते हुए इस्लाम का प्रचार करने एवं मुस्लमान बनाने के लिए कहा गया था। विशेष रूप से 6 करोड़ दलितों को मुसलमान बनाने के लिए कहा गया था जिससे मुसलमान जनसँख्या में हिन्दुओं की बराबर हो जाये और उससे राजनैतिक अधिकारों की अधिक माँग करी जा सके। स्वामी जी ने निज़ामी की पुस्तक का पहले "हिन्दुओं सावधान, तुम्हारे धर्म दुर्ग पर रात्रि में छिपकर धावा बोला गया हैं" के नाम से अनुवाद प्रकाशित किया एवं इसका उत्तर "अलार्म बेल अर्थात खतरे का घंटा" के नाम से प्रकाशित किया। इस पुस्तक में स्वामी जी ने हिन्दुओं को छुआ छूत का दमन करने और समान अधिकार देने को कहा जिससे मुस्लमान लोग दलितों को लालच भरी निगाहों से न देखे। इस बीच कांग्रेस के काकीनाडा के अध्यक्षीय भाषण में मुहम्मद अली ने 6 करोड़ अछूतों को आधा आधा हिन्दू और मुसलमान के बीच बाँटने की बात कहकर आग में घी डालने का कार्य किया।
महात्मा गांधी भी स्वामी जी के गंभीर एवं तार्किक चिंतन को समझने में असमर्थ रहे एवं उन्होंने यंग इंडिया के 29 मई, 1925 के अंक में 'हिन्दू मुस्लिम-तनाव: कारण और निवारण' शीर्षक से एक लेख में स्वामी जी पर अनुचित टिप्पणी कर डाली। उन्होंने लिखा
"स्वामी श्रद्धानन्द जी भी अब अविश्वास के पात्र बन गये हैं। मैं जानता हूँ की उनके भाषण प्राय: भड़काने वाले होते हैं। दुर्भाग्यवश वे यह मानते हैं कि प्रत्येक मुसलमान को आर्य धर्म में दीक्षित किया जा सकता हैं, ठीक उसी प्रकार जिस प्रकार अधिकांश मुसलमान सोचते हैं कि किसी-न-किसी दिन हर गैरमुस्लिम इस्लाम को स्वीकार कर लेगा। श्रद्धानन्द जी निडर और बहादुर हैं। उन्होंने अकेले ही पवित्र गंगातट पर एक शानदार ब्रहचर्य आश्रम (गुरुकुल) खड़ा कर दिया हैं। किन्तु वे जल्दबाज हैं और शीघ्र ही उत्तेजित हो जाते हैं। उन्हें आर्यसमाज से ही यह विरासत में मिली हैं।" स्वामी दयानंद पर आरोप लगाते हुए गांधी जी लिखते हैं "उन्होंने संसार के एक सर्वाधिक उदार और सहिष्णु धर्म को संकीर्ण बना दिया। "
गांधी जी के लेख पर स्वामी जी ने प्रतिक्रिया लिखी की "यदि आर्यसमाजी अपने प्रति सच्चे हैं तो महात्मा गांधी या किसी अन्य व्यक्ति के आरोप और आक्रमण भी आर्यसमाज की प्रवृतियों में बाधक नहीं बन सकते। "
स्वामी जी सधे क़दमों से अपने लक्ष्य की ओर बढ़ते रहे। एक ओर मौलाना अब्दुल बारी द्वारा दिए गए बयान जिसमें इस्लाम को न मानने वालो को मारने की वकालात की गई थी के विरुद्ध महात्मा गांधी जी कि प्रतिक्रिया पक्षपातपूर्ण थी। गांधी जी अब्दुल बारी को 'ईश्वर का सीदा-सादा बच्चा' और 'एक दोस्त' के रूप में सम्बोधित करते हैं जबकि स्वामी जी द्वारा कि गई इस्लामी कट्टरता की आलोचना उन्हें अखरती हैं। गांधी जी ने कभी भी मुसलमानों कि कट्टरता की आलोचना करी और न ही उनके दोषों को उजागर किया। इसके चलते कट्टरवादी सोच वाले मुसलमानों का मनोबल बढ़ता गया एवं सत्य एवं असत्य के मध्य वे भेद करने में असफल हो गए। मुसलमानों में स्वामी जी के विरुद्ध तीव्र प्रचार का यह फल निकला की एक मतान्ध व्यक्ति अब्दुल रशीद ने बीमार स्वामी श्रद्धानन्द को गोली मार दी उनका तत्काल देहांत हो गया।
स्वामी जी का उद्देश्य विशुद्ध धार्मिक था नाकि राजनैतिक था। हिन्दू समाज में समानता उनका लक्ष्य था। अछूतोद्धार, शिक्षा एवं नारी जाति में जागरण कर वह एक महान समाज की स्थापना करना चाहते थे। आज आर्यसमाज का यह कर्त्तव्य हैं कि उनके द्वारा छोड़े गए शुद्धि चक्र को पुन: चलाये। यह तभी संभव होगा जब हम मन से दृढ़ निश्चय करे की आज हमें जातिवाद को मिटाना हैं और हिन्दू जाति को संगठित करना हैं।

डॉ विवेक आर्य
स्वामी दयानंद फॉउन्डेशन, दिल्ली