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Monday, April 18, 2016

चक्रवर्ती सम्राट विक्रमादित्य



विक्रम संवत के प्रवर्तक चक्रवर्ती सम्राट विक्रमादित्य
सन् 2016 नव संवतसर 08 अप्रैल विक्रम 2073
विक्रम संवत के प्रवर्तक चक्रवर्ती सम्राट विक्रमादित्य
यो रुमदेशधिपति शकेश्वरं जित्वा गृहीत्वोज्जयिनी महाहवे |
आनीय संभ्राम्य मुमोचयत्यहो स विक्रमार्कः समस हयाचिक्र्मः||
(- 'ज्योतिविर्दाभरण ' नमक ज्योतिष ग्रन्थ २२/ १७ से .......)
यह श्लोक स्पष्टतः यह बता रहा है कि रुमदेशधिपति .. रोम देश के स्वामी शकराज ( विदेशी राजाओं को तत्कालीन भाषा में शक ही कहते थे , तब शकों के आक्रमण से भारत त्रस्त था ) को पराजित करके विक्रमादित्य ने बंदी बना लिया और उसे उज्जैनी नगर में घुमा कर छोड़ दिया था | यही वह शौर्य है जो पाश्चात्य देशों के ईसाई वर्चस्व वाले इतिहास करों को असहज कर देता है और इससे बच निकालनें के लिए वे एक ही शब्द का उपयोग करते हैं 'यह मिथक है '/ 'यह सही नहीं है'...| उनके साम्राज्य में पूछे भी कौन कि हमारी सही बातें गलत हैं तो आपकी बातें सही कैसे हैं ..? यही कारण है कि आज जो इतिहास हमारे सामनें है वह भ्रामक और झूठा होनें के साथ साथ योजना पूर्वक कमजोर किया गया इतिहास है | पाश्चत्य इतिहासकार रोम की इज्जत बचानें और अपनें को बहुत बड़ा बतानें के लिए चक्रवर्ती सम्राट विक्रमादित्य के अस्तित्व को भी नकारते हैं .., मगर हमारे देश में जो लोक कथाएं , किंवदंतियाँ और मौजूदा तत्कालीन साहित्य है वह बताता है कि श्री राम और श्री कृष्ण के बाद कोई सबसे लोकप्रिय चरित्र है तो वह सम्राट विक्रमादित्य का है ..! वे लोक नायक थे , उनके नाम से सिर्फ विक्रम संवत ही नहीं , बेताल पच्चीसी और सिंहासन बतीसी का यह नायक , भास्कर पुराण में अपने सम्पूर्ण वंश वृक्ष के साथ उपस्थित है | विक्रमादित्य परमार वंश के राजपूत थे उनका वर्णन सूर्यमल्ल मिश्रण कृत वंश भास्कर में भी है | उनके वंश के कई प्रशिद्ध राजाओं के नाम पर चले आरहे नगर व क्षेत्र आज भी हमारे बीच उपस्थित हैं ..!! जैसे देवास , इंदौर, भोपाल और बुन्देलखंड नामों का नाम करण विक्रमादित्य के ही वंशज राजाओं के नाम पर है|
दूसरी बात कई इतिहासकार चन्द्रगुप्त द्वितीय को भी विक्रमादित्य सिद्ध करनें कि कोशिस करते हैं .., यह भी गलत है , क्यों कि शकों के आक्रमण कई सौ साल तक चले हैं और उनसे अनेकों भारतीय सम्राटों ने युद्ध किये और उन्हें वापस भी खदेड़ा ..! बाद के कालखंड में किसी एक शक शाखा को चन्द्रगुप्त ने भी पराजित किया था, तब उनका सम्मान विक्रमादित्य के अलंकारं से किया गया था | क्यों कि उन्होंने मूल विक्रमादित्य जैसा कार्य कर दिखाया था | मूल या आदि विक्रमादित्य की पदवी तो शाकिर और सह्सांक थी | वे उज्जैनी के राजा थे |
विक्रम और शालिवाहन संवत
वर्तमान भारत में दो संवत प्रमुख रूप से प्रचलित हैं , विक्रम संवत और शक-शालिवाहन संवत | दोनों संवतों का सम्बन्ध शकों की पराजय से है | उज्जैन के पंवार वंशीय राजा विक्रमादित्य ने जब शकों को सिंध के बहार धकेल कर महँ विजय प्राप्त की थी , तब उन्हें शाकिर की उपाधि धारण करवाई गई थी तथा तब से ही विक्रम संवत का शुभारम्भ हुआ | विक्रमादित्य की मृत्यु के पश्चात शकों के उपद्रव पुनः प्रारंभ हो गए , तब उन्ही के प्रपोत्र राजा शालिवाहन ने शकों को पुनः पराजित किया और इस अवसर पर शालिवाहन संवत प्रारंभ हुआ , जिसे हमारी केंद्र सरकार ने राष्ट्रिय संवत मन है , जो की सौर गणना पर आधारित है |
सम्राट विक्रमादित्य
उज्जैनी के चक्रवर्ती सम्राट विक्रमादित्य के महान साम्राज्य क्षेत्र में वर्तमान भारत , चीन , नेपाल , भूटान , तिब्बत , पाकिस्तान , अफगानिस्तान, रूस , कजाकिस्तान , अरब क्षेत्र , इराक, इरान, सीरिया, टर्की , माय्मंर ,दोनों कोरिया श्री लंका इत्यादि क्षेत्र या तो सम्मिलित थे अथवा संधिकृत थे | उनका साम्राज्य सुदूर बलि दीप तक पूर्व में और सऊदी अरब तक पश्चिम में था |
"Sayar -UI -Oknu " Makhtal -e - Sultania / Library in Istanbul , Turky के अनुसार सम्राट विक्रमादित्य ने अरब देशों पर शासन किया है , अनेंकों दुर्जेय युद्ध लडे और संधियाँ की |
यह सब इस लिए हुआ कि भारत में किसी भी राजा को सामर्थ्य के अनुसार राज्य विस्तार की परम्परा थी , जो अश्वमेध यज्ञ के नाम से जानी जाती थी | उनसे पूर्व में भी अनेकों राजाओं के द्वारा यह होता रहा है ,राम युग में भी इसका वर्णन मिलता है | कई उदहारण बताते हैं कि विक्रमादित्य की अन्य राज्यों से संधियाँ मात्र कर प्राप्ति तक सिमित नहीं थी , बल्कि उन राज्यों में समाज सुव्यवस्था, शिक्षा का विस्तार , न्याय और लोक कल्याण कार्यों की प्रमुखता को भी संधिकृत किया जाता था | अरब देशों में उनकी कीर्ति इसीलिए है की उन्होंने वहां व्याप्त तत्कालीन अनाचार की समाप्त करवाया था | वर्त्तमान ज्ञात इतिहास में विक्रम जितना बड़ा साम्राज्य और इतनी विजय का कोई समसामयिक रिकार्ड सामनें आता है सिवाय ब्रिटेन की विश्व विजय के | सिकंदर जिसे कथित रूप से विश्व विजेता कहा जाता है , विक्रम के सामनें वह बहुत ही बौना था, उसने सिर्फ कई देशों को लूटा , शासन नहीं किया ..! उसे लुटेरा ही कहा जा सकता है एक शासक के जो कर्तव्य हैं उनकी पूर्ती का कोई इतिहास सिकंदर का नहीं है | जनश्रुतियां हैं की विक्रम की सेना के घोड़े एक साथ तीन समुद्रों का पानी पीते थे |
भारतीय पुरुषार्थ को निकला ...
विक्रमादित्य तो एक उदाहरण मात्र है , भारत का पुराना अतीत इसी तरह के शौर्य से भरा हुआ है | भारत पर विदेशी शासकों के द्वारा लगातार राज्य शासन के बावजूद निरंतर चले भारतीय संघर्ष के लिए येही शौर्य प्रेरणाएं जिम्मेवार हैं | भारत पर शासन कर रही ईस्ट इण्डिया कंपनी और ब्रिटिश सरकार ने उनके साथ हुए कई संघर्ष और १८५७ में हुई स्वतंत्रता क्रांति के लिए भारतीय शौर्य को ही जिम्मेवार माना और उससे भारतियों को विस्मृत करनें का कार्यक्रम संचालित हुआ ताकि भारत की संतानें पुनः आत्मोत्थान प्राप्त न कर सकें | एक सुनियोजित योजना से भारत वासियों को हतोत्साहित करने के लिए प्रेरणा खंडों को लुप्त किया गया , उन्हें इतिहास से निकाल दिया गया , उन महँ अध्यायों को मिथक या कभी अस्तित्व में नहीं रहे ..., इस तरह की भ्रामकता थोपी गई |
अरबी और यूरोपीय इतिहासकार श्री राम , श्री कृष्ण और विक्रमादित्य को इसी कारन लुप्त करते हैं कि भारत का स्वाभिमान पुनः जाग्रत न हो , उसका शौर्य और श्रेष्ठता पुनः जम्हाई न लेने लगे | इसीलिए एक जर्मन इतिहासकार पाक़ हेमर ने एक बड़ी पुस्तक ' इण्डिया - रोड टू नेशनहुड ' लिखी है , इस पुस्तक में उन्होंने लिखा है कि " जब में भारत का इतिहास पढ़ रहा हूँ लगता है कि भारत कि पिटाई का इतिहास पढ़ रहा हूँ ,- भारत के लोग पिटे ,मरे ,पारजित हुए ,यही पढ़ रहा हूँ ! इससे मुझे यह भी लगता है कि यह भारत का इतिहास नहीं है |" पाक हेमर ने आगे उम्मीद की है कि " जब कभी भारत का सही इतिहास लिखा जायेगा , तब भारत के लोगों में , भारत के युवकों में ,उसकी गरिमा की एक वारगी ( उत्प्रेरणा ) आयेगी |"
अर्थात हमारे इतिहास लेखन में योजना पूर्वक अंग्रजों नें उसकी यशश्विता को निकल बहार किया , उसमें से उसके पुरुषार्थ को निकल दिया ,उसके मर्म को निकल दिया , उसकी आत्मा को निकल दिया ..! महज एक मरे हुए शारीर की तरह मुर्दा कर हमें पारोष दिया गया है | जो की झूठ का पुलंदा मात्र है |
भारत अपने इतिहास को सही करे ..!
हाल ही में भारतीय इतिहास एवं सभ्यता के संदर्भ में अँतरराष्ट्रिय संगोष्ठी ११-१३ जनवरी २००९ को नई दिल्ली में हुई , जिसमें १५ देशों के विशेषज्ञ एकत्र हुए थे ,उँ सभी ने एक स्वर में कहा अंग्रेजों के द्वारा लिखा गया लिखाया गया इतिहास झूठा है तथा इस का पुनः लेखन होना चाहिए | इसमें हजारों वर्षो का इतिहास छूठा हुआ है , कई बातें वास्तविकता से मेल नहीं खाती हैं | उन्होंने बताया की विश्व के कई देशों ने स्वतन्त्र होनें के बाद अपने देश के इतिहास को पुनः लिखवाया है उसे सही करके व्यवस्थित किया है | भारत अपने इतिहास को सही करे ..!
बहुत कम है भारतीय इतिहास ....
भारत के नई दिल्ली स्थित संसद भवन ,विश्व का ख्याति प्राप्त विशाल राज प्रशाद है , जब इसे बनाए की योजना बन रही थी ; तब ब्रिटिश सरकार ने एक गुलाम देश में इतनें बड़े राज प्रशाद निर्माण के औचित्य पर प्रश्न खड़ा किया था| इतने विशाल और भव्य निर्माण की आवश्यकता क्या है ? तब ब्रिटिश सरकार को बताया गया कि ; भारत कोई छोटा मोटा देश नहीं है ; यहाँ सैंकड़ों बड़ी बड़ी रियासतें हैं और उनके राज प्रशाद भी बहुत बड़े बड़े तथा विशालतम हैं..! उनकी भव्यता और क्षेत्रफल भी असामान्य रूप से विशालतम हैं ! उनको नियंत्रित करने वाला राज प्रशाद कम से कम इतना बड़ा तो होना चाहिए कि वह उनसे श्रेष्ठ न सही तो कमसे कम सम कक्ष तो हो ..! इसी तथ्य के आधार पर भारतीय संसद भवन के निर्माण कि स्वीकृति मिली !
अर्थात जिस देश में लगातार हजारों राजाओं का राज्य एक साथ चला हो , उस देश का इतिहास महज चंद अध्यायों में पूरा हो गया ..? क्षेत्रफल , जनसँख्या और गुजरे विशाल अतीत के आधार पर यह इतिहास महज राई भर भी नहीं है !न ही एतिहासिक तथ्य हैं , न हीं स्वर्णिम अध्याय ,न हीं शौर्य गाथाएं ...! सब कुछ जो भारत के मस्तक को ऊँचा उठता हो वह गायव कर दिया गया ..!! नष्ट कर दिया गया !!
इस्लाम के आक्रमण ने लिखित इतिहास जलाये यह एक सच और निर्विवाद तथ्य है कि इस्लाम ने जन्मते ही विश्व विजय कि आंधी चलाई उससे अक तरफ यूरोप और दूसरी तरफ पुर्व एसिया गंभीरतम प्रभावित हुआ , जो भी पुराना लिखा था उसे जलाया गया ! बड़े बड़े पुस्तकालय नष्ट कर दिए गए | मगर जन श्रुतियों में इतिहास का बहुत बड़ा हिस्सा बचा हुआ था , जागा परम्परा ने भी इतिहास को बचा कर रखा था | मगर इतिहास संकलन में इन पर गौर ही नहीं किया गया | राजपूताना का इतिहास लिखते हुए कर्नल टाड कहते हैं कि " जब से भारत पर महमूद ( गजनी ) द्वारा आक्रमण होना प्रारम्भ हुआ , तब से मुस्लिम शासकों नें जो निष्ठुरता ; धर्मान्धता दिखाई ,उसको नजर में रखनें पर , बिलकुल आश्चर्य नहीं होता कि भारत में इतिहास के ग्रन्थ बच नहीं पाए ! इस पर से यह असंभवनीय अनुमान निकलना भी गलत है कि हिन्दू लोग इतिहास लिखना जानते नहीं थे | अन्य विकसित देशों में इतिहास लेखन कि प्रवृति प्राचीन कल से पाई जाती थी ,तो क्या अति विकसित हिन्दू राष्ट्र में वह नहीं होगी ?" उन्होंने आगे लिखा है कि "जिन्होनें ज्योतिष - गणित आदि श्रम साध्य शास्त्र सूक्ष्मता और परिपूर्णता के साथ अपनाये | वास्तुकला ,शिल्प ,काव्य ,गायन आदि कलाओं को जन्म दिया ,इतना ही नहीं ; उन कलाओं को / विद्याओं को नियम बध्दता ढांचे में ढाल कर उसके शास्त्र शुध्द अध्ययन कि पध्दति सामनें रखी , उन्हें क्या राजाओं का चरित्र और उनके शासनकाल में घटित प्रसंगों को लिखने का मामूली काम करना न आता ..? "
हर ओर विक्रमादित्य ...भारतीय और सम्बध्द विदेशी इतिहास एवं साहित्य के पृष्ठों पर , भारतीय संवत , लोकप्रिय कथाओं ,ब्राह्मण - बौध्द और जैन साहित्य तथा जन श्रुतियों , अभिलेख (एपिग्राफी ) , मौद्रिक ( न्युमीस्टेटिक्स ) तथा मालव और शकों की संघर्ष गाथा आदि में उपलब्ध विभिन्न स्त्रोतों तथा उनमें निहित साक्ष्यों का परिक्षण सिध्द करता है कि "ईस्वी पूर्व प्रथम शताब्दी में सम्राट विक्रमादित्य का अस्तित्व था , वे मालव गणराज्य के प्रमुख थे ,उनकी राजधानी उज्जैनी थी , उन्होंने मालवा को शकों के अधिपत्य से मुक्त करवाया था और इसी स्मृति में चलाया संवत विक्रम संवत कहलाता है | जो प्रारंभ में कृत संवत , बाद में मालव संवत ,सह्सांक संवत और अंत में विक्रम संवत के नाम से स्थायी रूप से विख्यात हुआ | "
धर्म युध्द जैसा विरोध क्यों ....
डा. राजबली पाण्डेय जो काशी हिन्दू विश्वविद्यालय में प्रोफ़ेसर तथा पुरातत्व विभाग के थे , उन्होंने एक टिप्पणी में कहा कि पाश्चात्य इतिहासकार और उनके भारतीय अनुचर विक्रमादित्य के नाम को सुन कर इस तरह से भड़क उठातें हैं कि जैसे कोई धर्मयुध्द का विषय हो ! वे इतनें दृढ प्रतिज्ञ हो जाते हैं कि सत्य के प्रकाशमान तथ्यों को भी देखना और सुनना नहीं चाहते | डा.पाण्डेय ने विक्रमादित्य पर अंग्रेजी में कई खोज परख लेख लिखे, जिस पर उन्हें राष्ट्रिय स्तर के सम्मान से भी पुरुस्कृत किया गया तथा एक अनुसन्धान परक पुस्तक " विक्रमादित्य" लिखकर यह साबित किया है कि विक्रमादित्य न केवल उज्जैन के सम्राट थे अपितु वे एशिया महाद्वीप के एक बड़े भूभाग के विजेता और शासक थे|
भविष्य पुराण में संवत प्रवर्तक
भविष्य पुराण में संवत प्रवर्तक विक्रमादित्य और संवत प्रवर्तक शालिवाहन का जो संक्षिप्त वर्णन मिलाता है , वह इस प्रकार से है "अग्निवंश के राजा अम्बावती नामक पूरी ( कालांतर में यही स्थान उज्जैन कहलाया ) में राज्य करते थे | उनमें एक राजा प्रमर (परमार) हुए , उनके पुत्र महामर (महमद) ने तीन वर्षें तक , उसके पुत्र देवासि ने भी तीन वर्षों तक ,उसके पुत्र देवदूत ने भी तीन वर्षों तक , उनके पुत्र गंधर्वसेन ने पचास वर्षों तक, राज्य कर वानप्रस्थ लिया | वन में उनके पुत्र विक्रमादित्य हुआ उसने सौ वर्षों तक , विक्रमादित्य के पुत्र देवभक्त ने दस वर्षों तक ,देव भक्त को सकों ने पराजित कर मार दिया , देवभक्त का पुत्र शालिवाहन हुआ और उसनें शकों को फिरसे जीत कर साथ वर्षों तक राज किया |" इसी पुराण में इस वंश के अन्य शासक शालिवर्ध्दन,शकहन्ता , सुहोत्र, हविहोत्र,हविहोत्र के पुत्र इन्द्रपाल ने इन्द्रावती के किनारे नया नगर वसाया (जो इंदौर के नाम से प्रशिध्द है ) , माल्यवान ने मलयवती वसाई, शंका दत्त , भौमराज , वत्सराज , भोजराज , शंभूदत्त , बिन्दुपाल ने बिंदु खंड ( बुन्देल खंड )का निर्माण किया | उसके वंश में राजपाल , महीनर , सोम वर्मा , काम वर्मा , भूमिपाल , रंगपाल , कल्प सिंह हुआ और उसने कलाप नगर वसाया ( कालपी ) उसके पुत्र गंगा सिंह कुरु क्षेत्र में निः संतान मरे गए |
४०० वर्षों का लुप्त इतिहास ...
ब्रिटश इतिहासकार स्मिथ आदि ने आंध्र राजाओं से लेकर हर्षवर्धन के राज्यकाल में कोई एतिहासिक सूत्र नहीं देखते | प्रायः चार सौ वर्षों के इतिहास को घोर अंधकार मय मानते हैं | पर भविष्य पुराण में जो वंश वृक्ष निर्दिष्ट हुआ है , यह उन्ही चार सौ वर्षों के लुप्त कल खंड से सम्बध्द है | इतिहासकारों को इससे लाभ उठाना चाहिए |
भारत में विक्रमादित्य अत्यन्त प्रसिध्द , न्याय प्रिय , दानी , परोपकारी और सर्वांग सदाचारी राजा हुए हैं | स्कन्ध पुराण और भविष्य पुराण ,कथा सप्तशती , वृहत्कथा और द्वात्रिश्न्त्युत्तालिका,सिंहासन बत्तीसी , कथा सरितसागर , पुरुष परीक्षा , शनिवार व्रत की कथा आदि ग्रन्थों में इनका चरित्र आया है | बूंदी के सुप्रशिध्द इतिहासकार सूर्यमल्ल मिश्रण कृत वंश भास्कर में परमार वंशीय राजपूतों का सजीव वर्णन मिलता है इसी में वे लिखते हैं "परमार वंश में राजा गंधर्वसेन से भर्तहरी और विक्रमादित्य नामक तेजस्वी पुत्र हुए, जिसमें विक्रमादित्य नें धर्मराज युधिष्ठर के कंधे से संवत का जुड़ा उतार कर अपने कंधे पर रखा | कलिकाल को अंकित कर समय का सुव्यवस्थित गणितीय विभाजन का सहारा लेकर विक्रम संवत चलाया |" | वीर सावरकर ने इस संदर्भ में लिखा है कि एक इरानी जनश्रुति है कि ईरान के राजा मित्रडोट्स जो तानाशाह हो अत्याचारी हो गया था का वध विक्रम दित्य ने किया था और उस महान विजय के कारण विक्रम संवत प्रारम्भ हुआ |
संवत कौन प्रारंभ कर सकता है
यूं तो अनेकानेक संवतों का जिक्र आता है और हर संवत भारत में चैत्र प्रतिपदा से ही प्रारम्भ होता है | मगर अपने नाम से संवत हर कोई नहीं चला सकता , स्वंय के नाम से संवत चलने के लिए यह जरुरी है कि उस राजा के राज्य में कोई भी व्यक्ति / प्रजा कर्जदार नहीं हो ! इसके लिए राजा अपना कर्ज तो माफ़ करता ही था तथा जनता को कर्ज देने वाले साहूकारों का कर्ज भी राज कोष से चुका कर जनता को वास्तविक कर्ज मुक्ति देता था | अर्थात संवत नामकरण को भी लोक कल्याण से जोड़ा गया था ताकि आम जनता का परोपकार करने वाला ही अपना संवत चला सके | सुप्रशिध्द इतिहासकार सूर्यमल्ल मिश्रण कि अभिव्यक्ति से तो यही लगता है कि सम्राट धर्मराज युधिष्ठर के पश्चात विक्रमादित्य ही वे राजा हुए जिन्होनें जनता का कर्ज (जुड़ा ) अपने कंधे पर लिया | इसी कर्ण उनके द्वारा प्रवर्तित संवत सर्वस्वीकार्य हुआ |
४००० वर्ष पुरानी उज्जनी ...अवंतिका के नाम से सुप्रसिध्द यह नगर श्री कृष्ण के बाल्यकाल का शिक्षण स्थल रहा है , संदीपन आश्रम यहीं है जिसमें श्री कृष्ण, बलराम और सुदामा का शिक्षण हुआ था | अर्थात आज से कमसे कम पांच हजार वर्षों से अधिक पुरानी यह नगरी है | दूसरी प्रमुख बात यह है कि अग्निवंश के परमार राजाओ कि एक शाखा चन्द्र प्र्ध्दोत नामक सम्राट ईस्वी सन के ६०० वर्ष पूर्व सत्तारूढ़ हुआ अर्थात लगभग २६०० वर्ष पूर्व और उसके वंशजों नें तीसरी शताव्दी तक राज्य किया | इसका अर्थ यह हुआ कि ९०० वर्षो तक परमार राजाओं का मालवा पर शासन रहा | तीसरी बात यह है कि कार्बन डेटिंग पध्दति से उज्जेन नगर कि आयु ईस्वी सन से २००० वर्ष पुरानी सिध्द हुई है , इसका अर्थ हुआ कि उज्जेन नगर का अस्तित्व कम से कम ४००० वर्ष पूर्व का है | इन सभी बातों से सवित होता है कि विक्रमादित्य पर संदेह गलत है |
नवरत्न ...
सम्राट विक्रमादित्य कि राज सभा में नवरत्न थे .., ये नो व्यक्ति तत्कालीन विषय विशेषज्ञ थे | संस्कृत काव्य और नाटकों के लिए विश्व प्रशिध्द कालिदास , शब्दकोष (डिक्सनरी) के निर्माता अमर सिंह , ज्योतिष में सूर्य सिध्दांत के प्रणेता तथा उस युग के प्रमुख ज्योतिषी वराह मिहिर थे, जिन्होंने विक्रमादित्य की बेटे की मौत की भविष्यवाणी की थी | आयुर्वेद के महान वैध धन्वन्तरी , घटकर्पर , महान कूटनीतिज्ञ बररुची जैन , बेताल भट्ट , संकु और क्षपनक आदि द्विव्य विभूतियाँ थीं | बाद में अनेक राजाओं ने इसका अनुशरण कर विक्रमादित्य पदवी धारण की एवं नवरतनों को राजसभा में स्थान दिया | इसी वंश के राजा भोज से लेकर अकबर तक की राजसभा में नवरतनों का जिक्र है |
वेतालभट्ट एक धर्माचार्य थे. माना जाता है कि उन्होंने विक्रमादित्य को सोलह छंदों की रचना "नीति -प्रदीप" (Niti-pradīpa सचमुच "आचरण का दीया") का श्रेय दिया है.
विक्रमार्कस्य आस्थाने नवरत्नानि
धन्वन्तरिः क्षपणको मरसिंह शंकू वेताळभट्ट घट कर्पर कालिदासाः। ख्यातो वराह मिहिरो नृपते स्सभायां रत्नानि वै वररुचि र्नव विक्रमस्य।।

अयोध्या,रामायण,श्री राम




अयोध्या अपने शाब्दिक अर्थ के अनुसार यह अपराजित है.. यह नगर अपने २२०० वर्षों के इतिहास मे अनेकों युद्धों व संघर्षो का प्रत्यक्ष दर्शी रहा है, अयोध्या को राजा मनु द्वारा निर्मित किया गया और यह श्री राम जी का जन्मस्थल है। इसका उल्लेख प्राचीन संस्कृत ग्रंथों जिसमे रामायण व महाभारत सम्मिलित हैं, में आता है। वाल्मिकि रामायण के एक श्लोक मे इसका वर्णन निम्न प्रकार है।
कोसलो नाम मुदितः स्फीतो जनपदो महान्। निविष्ट सरयूतीरे प्रभूत-धन-धान्यवान् ॥१-५-५॥
अयोध्या नाम नगरी तत्रऽऽसीत् लोकविश्रुता। मनुना मानवेन्द्रेण या पुरी निर्मिता स्वयम् ॥१-५-६॥
— श्रीमद्वाल्मीकीरामायणे बालकाण्डे पञ्चमोऽध्यायः
श्री ग्रिफैत्स जो 19 शताब्दी के आख़िर मे बनारस कॉलेज के मुख्य अध्यापक रहे... उन्होने रामायण मे अयोध्या के वर्णन को बड़ी सुंदरता से इस प्रकार अनुवादित किया, उनके शब्दों के अनुसार - " उस नगरी के विशाल एवं सुनियोजित रास्ते और उसके दोनो ओर से निकली पानी की नहरें जिस से राजपथ पर लगे पेड़ तरो ताज़ा रहें और अपने फूलो की महक को फैलाते रहें। एक कतार से लगे हुए और सतल भूमि पर बने बड़े बड़े राजमहल हैं, अनेक मंदिर एवं बड़ी बड़ी कमानें, हवा मे लहराता विशाल राज ध्वज, लहलहाते आम के बगीचे, फलों और फूलों से लदे पेड़, मुंडेर पर कतार से लगे फहराते ध्वजों के इर्द गिर्द और हर द्वार पर धनुष लिए तैनात रक्षक हैं। "
कौशल राज्य के नरेश राजा दशरथ राजा मनु के ५६ वंशज माने जाते हैं, उनकी ३ पत्नियां थी, कौशल्या, सुमीत्रा व कैकेयी, ऐसा माना जाता है श्री राम का जन्म कौशल्या मंदिर मे हुआ था, अतः उसे ही राम जन्म स्थल कहा जाता है. ब्रह्मांड पुराण में अयोध्या को हिंदुओं ६ पवित्र नगरियों से भी अधिक पवित्र माना गया है। जिसका उल्लेख इस पुराण मे इस प्रकार किया गया है -
अयोध्य मथुरा माया, काशी कांचि अवंतिका, एताः पुण्यतमाः प्रोक्ताः पुरीणाम उत्तमोत्तमाः
महर्षि व्यास ने श्री राम कथा का वर्णन उनके द्वारा रचित महाभारत के वनोपाख्यान खंड मे किया है, अयोध्या सदियों से अयोध्या वासियों द्वारा बारंबार निर्मित की गयी है, यह अयोध्या वासियोम की जिजीविषा ही है कि वह इस नगर को अनेकानेक बार पुनर्रचित कर चुके हैं। अलक्षेंद्र (सिकंदर) के लगभग २०० वर्ष बाद, मौर्य शासन काल के दौरान जब बौद्ध धर्म अपनी चरम सीमा पर था, एक ग्रीक राजा मेनंदार अयोध्या पर आक्रमण करनी की नीयत से आया, उसने बुद्ध धर्म द्वारा प्रभावित होने का ढोंग कर बौद्ध भिक्षु होने का कपट किया और अयोध्या पर धोखे से आक्रमण किया एवं इस आक्रमण मे जन्मस्थल मंदिर ध्वस्त हुआ, किंतु सिर्फ़ 3 महीने मे शुंग वंशिय राजा द्युमतमतसेन द्वारा मेनंदार पराजित किया गया और अयोध्या को स्वतंत्र कराया गया।
जन्म स्थान मंदिर की पुनर्रचना राजा विक्रमादित्य ने की, इतिहास मे 6 विक्रमादित्यो का उल्लेख आता है, इस बात पर इतिहासविद एक मत नही है कि किस विक्रमादित्य ने मंदिर का निर्माण किया। कुछ के अनुसार वो विक्रमादित्य जिसने शको को सन ५६ ई.पू. मे पराजित किया और जिसके नाम से शक संवत चलता है, तो कुछ कहते हैं स्कंदगुप्त जो स्वयं को विक्रमादित्य कहलाता था, उसने 5 वी शताब्दी के अंत मे मंदिर निर्माण किया। पी. करनेगी की किताब " ए हिस्टॉरिकल स्कैच ऑफ फ़ैज़ाबाद " मे कही बात साधारणतया सर्वमान्य है। उसमे वो कहते हैं, विक्रमादित्य के पुरातन शहर ढूँढने का मुख्य सूत्र यह है कि जहाँ सरयू बहती है और भगवान शंकर का रूप नागेश्वर नाथ मंदिर जहाँ है। ये भी माना जाता है की विक्रमादित्या ने करीब ३६० मंदिर अयोध्या मे बनवाए और इसके बाद हिंदुओं द्वारा श्री राम की पूजा निरंतर चलती रही.. इसकी पुष्टि नासिक स्थित सातवाहन राजा द्वारा बनाई पुरातन गुफा के शिला लेख मे मिलती है, बहुचर्चित संस्कृत नाटककार भास ने भगवान राम को अर्चना अवतार मे जोड़ा है।
नमो भगवते त्रैलोक्यकारणाय नारायणाय
ब्रह्मा ते ह्रदयं जगतत्र्यपते रुद्रश्च कोपस्तव
नेत्र चंद्रविकाकरौ सुरपते जिव्हा च ते भारती
सब्रह्मेन्द्रमरुद्रणं त्रिभुवनं सृष्टं त्वयैव प्रभो
सीतेयं जलसम्भवालयरता विश्णुर्भवान ग्रह्यताम
श्री राम को विष्णु अवतार मे पूजा जाने की परंपरा है, जिसका प्रमाण पुरानी दस्तकारी एवं शिला लेखों मे मिलते हैं। चौथी शताब्दी के रामटेक मंदिर की दस्तकारी, सन ४२३ ए.डी. का कंधार का शिलालेख, सन ५३३ ए.डी. का बादामी का चालुक्य शिलालेख, आठवीं शताब्दी (ए.डी) का मामल्लापुरम का शिलालेख, ११वीं शताब्दी में जोधपुर के नज़दीक बना अंबा माता मंदिर, ११४५ ए.डी. का रेवा जिले के मुकुंदपुर में बना राम मंदिर, ११६८ ए.डी. का हँसी शिलालेख, रायपुर जिले के राजीम मे बना राजीव लोचन मंदिर इनमे से कुछ हैं।
१२ शताब्दी में अयोध्या मे पांच मंदिर थे, गौप्रहार घाट का गुप्तारी, स्वर्गद्वार घाट का चंद्राहरी, चक्रतीर्थ घाट का विष्णुहरी, स्वर्गद्वार घाट का धर्महरी, और जन्मभूमि स्थान पर विष्णु मंदिर, इसके बाद जब महमूद ग़ज़नवी ने भारत पर आक्रमण किया तो उसने सोमनाथ को लूटा और वापस चला गया. किंतु उसका भतीजा सालार मसूद अयोध्या की ओर बढ़ा, १४ जून १०३३ को मसूद अयोध्या से ४० किलोमीटर दूर बहराइच पहुँचा, यहाँ सुहैल देव के नेतृत्व मे सेना एकत्र हुई और मसूद पर आक्रमण किया दिया, जिसमे मसूद की सेना परास्त हुई, और मसूद मारा गया. मसूद के चरित्रकार अब्दुल रहमान चिश्ती मिरात ए मसूदी मे कहते हैं,
" मौत का सामना है, फिराक़ सूरी नज़दीक है, हिंदुओं ने जमाव किया है, इनका लश्कर बे-इंतेहाँ है. नेपाल से पहाड़ों के नीचे घाघरा तक फौज मुखालिफ़ का पड़ाव है। मसूद की मौत के बाद अजमेर से मुज़फ्फर ख़ान तुरंत आया, पर वो भी मारा गया... अरब ईरान के हर घर का चिराग बुझा है।

Friday, February 6, 2015

King Vikramaditya Gold coin establishes truth

King Vikramaditya, or Vikram of the ‘Vikram and Baital’ fables, is a not historical figure, after all.
And behind this giant leap from fable to history is a little gold coin.
According to researchers of the Maharaja Vikramaditya Shodhpeeth in Ujjain, this coin is the first definitive archaeological evidence of the monarch.
There is a mention of Vikramaditya in the ancient text Bhavishya Puran that chronicles the names of Hindu dynasties. It says he ruled Malwa — which includes parts of present day western Madhya Pradesh and southeastern Rajasthan — from 57BC and Ujjain was his capital. But while stories about him abound, as the German philologist Max Mueller once said, there is no documentary evidence of his existence.

In December, a private collector brought this coin, found on the banks of the Kshipra in Ujjain, to Shodhpeeth for authentication.Shodhpeeth researchers claim that while terracotta and copper seals and coins with references to Vikramaditya have been found, this coin with a portrait of the king on one side and typical first century BC symbolisms on the other is nailing evidence. King Chandragupta Maurya defeated Seleucus Nicator of Persia . He took battles in to territory enemy's choice and defeated them in their own battlefields .No other King could repeat his feat of crossing Khyber for battles beyond.2.In 326 BC, Chandragupta Maurya was just a teenager when Alexander the Great of Macedonia invaded India through khyber pass . Facing stiff resistance all through what is now Pakistan, and hampered by the high Hindu-Kush Mountains, Alexander’s army won at the Battle of Jhelum (or Hydaspes River) and defeated Raja Puru (King Poros) near modern-day Bhera, Pakistan, through offensive use of the Macedonian cavalry’s horses . Alexander the great went back after defeat of Raja Puru. 3.Chandragupta Maurya was the first emperor and the last king to unify most of Greater India into one single entity . He ruled from 322 BCE until his voluntary abdication in 298 BC in favor of his son King Bindusara ( father of King Ashok )The Empire was hard fought in 322 BCE by Chandragupta Maurya, who had overthrown the Nanda Dynasty and rapidly expanded his power westwards across central and western India, taking advantage of the disruptions of local powers in the wake of the withdrawal westward byAlexander's Hellenic armies. By 316 BCE the empire had fully occupied Northwestern India, defeating and conquering the satraps left by Alexander the Great. 4..In 305 BCE, King Chandragupta decided to expand his Mauryan empire into Persia ruled by Seleucus I Nicator, founder of the Seleucid Empire, and a former general under Alexander. Chandragupta seized a large area in eastern Persia and defeated Seleucus. In the peace treaty that ended this war, Chandragupta got control of that land as well as the hand of one of Seleucus’s daughters in marriage. In exchange, Seleucus got 500 war elephants - which he put to good use at the Battle of Ipsus in 301 BCE.5.The Maurya Empire was one of the world's largest empires in its time, and the largest ever in the Indian subcontinent. At its greatest extent, the empire stretched to the north along the natural boundaries of the Himalayas, to the east into Assam, to the west into Balochistan (south west Pakistan and south east Iran) and the Hindu Kush mountains of what is now Afghanistan and parts of Persia .6.In 298 BCE, the emperor renounced his rule, handing over power to his son Bindusara. Chandragupta traveled south to a cave at Shravanabelogola, now in Karntaka. There, the founder of the Mauryan Empire meditated without eating or drinking for five weeks, until he died of starvation THROUGH sallekhana or santhara.7.King Ranjit Singh and Hari singh Nalwa ruled over Khyber pass but did not venture beyond it . It is should be noted that ,After a period of twenty three hundred years of unremitting defeats for the armies from India against every invading army, General Sam Manikshaw experienced the glow of a stunning victory against the Pakistan army in what is now Bangla Desh. It was a victory worthy to rank amongst the great victories and a campaign as brilliant as any in history.

Thursday, January 15, 2015

शूरवीर सम्राट विक्रमादित्य/ Great King Vikramaditya

******शूरवीर सम्राट विक्रमादित्य*****
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******शूरवीर सम्राट विक्रमादित्य*****

 अंग्रेज और वामपंथी इतिहासकार उज्जैन के सम्राट विक्रमादित्य को एतिहासिक शासक न मानकर एक मिथक मानते हैं।जबकि कल्हण की राजतरंगनी,कालिदास 
,नेपाल की वंशावलिया और अरब लेखक,अलबरूनी उन्हें वास्तविक महापुरुष मानते हैं।
उनके समय शको ने देश के बड़े भू भाग पर कब्जा जमा लिया था।विक्रम ने शको को भारत से मार भगाया और अपना राज्य अरब देशो तक फैला दिया था। 
उनके नाम पर विक्रम सम्वत चलाया गया। विक्रमादित्य ईसा मसीह के समकालीन थे और उस वक्त उनका शासन अरब तक फैला था। विक्रमादित्य के बारे में प्राचीन अरब साहित्य में वर्णन मिलता है।
इनके पिता का नाम गन्धर्वसेन था एवं प्रसिद्ध योगी भर्तहरी इनके भाई थे।
विक्रमादित्य के इतिहास को अंग्रेजों ने जान-बूझकर तोड़ा और भ्रमित किया और उसे एक मिथ‍कीय चरित्र बनाने में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ी, क्योंकि विक्रमादित्य उस काल में महान व्यक्तित्व और शक्ति का प्रतीक थे, जबकि अंग्रेजों को यह सिद्ध करना जरूरी था कि ईसा मसीह के काल में दुनिया अज्ञानता में जी रही थी। दरअसल, विक्रमादित्य का शासन अरब और मिस्र तक फैला था और संपूर्ण धरती के लोग उनके नाम से परिचित थे। विक्रमादित्य अपने ज्ञान, वीरता और उदारशीलता के लिए प्रसिद्ध थे जिनके दरबार में नवरत्न रहते थे। इनमें कालिदास भी थे। कहा जाता है कि विक्रमादित्य बड़े पराक्रमी थे और उन्होंने शकों को परास्त किया था।
विक्रमादित्य के समय ज्योतिषाचार्य मिहिर, महान कवि कालिदास थे। 
राजा विक्रम उनकी वीरता, उदारता, दया, क्षमा आदि गुणों की अनेक गाथाएं भारतीय साहित्य में भरी पड़ी हैं।
अधिकांश विद्वान विक्रमादित्य को परमार वंशी क्षत्रिय राजपूत मानते हैं। मालवा के परमार वंशी राजपूत राजा भोज विक्रमादित्य को अपना पूर्वज मानते थे।
जो भी हो पर इतना निर्विवाद सत्य है कि सम्राट विक्रमादित्य भारतीय इतिहास के सर्वश्रेष्ठ शासक थे।अंग्रेज और वामपंथी इतिहासकार उज्जैन के सम्राट विक्रमादित्य को एतिहासिक शासक न मानकर एक मिथक मानते हैं।जबकि कल्हण की राजतरंगनी,कालिदास ...
,नेपाल की वंशावलिया और अरब लेखक,अलबरूनी उन्हें वास्तविक महापुरुष मानते हैं।
उनके समय शको ने देश के बड़े भू भाग पर कब्जा जमा लिया था।विक्रम ने शको को भारत से मार भगाया और अपना राज्य अरब देशो तक फैला दिया था।
उनके नाम पर विक्रम सम्वत चलाया गया। विक्रमादित्य ईसा मसीह के समकालीन थे और उस वक्त उनका शासन अरब तक फैला था। विक्रमादित्य के बारे में प्राचीन अरब साहित्य में वर्णन मिलता है।
इनके पिता का नाम गन्धर्वसेन था एवं प्रसिद्ध योगी भर्तहरी इनके भाई थे।
विक्रमादित्य के इतिहास को अंग्रेजों ने जान-बूझकर तोड़ा और भ्रमित किया और उसे एक मिथ‍कीय चरित्र बनाने में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ी, क्योंकि विक्रमादित्य उस काल में महान व्यक्तित्व और शक्ति का प्रतीक थे, जबकि अंग्रेजों को यह सिद्ध करना जरूरी था कि ईसा मसीह के काल में दुनिया अज्ञानता में जी रही थी। दरअसल, विक्रमादित्य का शासन अरब और मिस्र तक फैला था और संपूर्ण धरती के लोग उनके नाम से परिचित थे। विक्रमादित्य अपने ज्ञान, वीरता और उदारशीलता के लिए प्रसिद्ध थे जिनके दरबार में नवरत्न रहते थे। इनमें कालिदास भी थे। कहा जाता है कि विक्रमादित्य बड़े पराक्रमी थे और उन्होंने शकों को परास्त किया था।


 विक्रमादित्य के समय ज्योतिषाचार्य मिहिर, महान कवि कालिदास थे।
राजा विक्रम उनकी वीरता, उदारता, दया, क्षमा आदि गुणों की अनेक गाथाएं भारतीय साहित्य में भरी पड़ी हैं।
अधिकांश विद्वान विक्रमादित्य को परमार वंशी क्षत्रिय राजपूत मानते हैं। मालवा के परमार वंशी राजपूत राजा भोज विक्रमादित्य को अपना पूर्वज मानते थे।
जो भी हो पर इतना निर्विवाद सत्य है कि सम्राट विक्रमादित्य भारतीय इतिहास के सर्वश्रेष्ठ शासक थे।

Friday, January 9, 2015

सम्राट विक्रम ने रोम के शासक जुलियस सीजर(juliyas seejar) को भी हराकर उसे बंदी बनाकर उज्जेन की सड़कों पर घुमाया था

सम्राट विक्रम ने रोम के शासक जुलियस सीजर(juliyas seejar) को भी हराकर उसे बंदी बनाकर उज्जेन की सड़कों पर घुमाया था
सम्राट विक्रम ने रोम के शासक जुलियस सीजर को भी हराकर उसे बंदी बनाकर उज्जेन की सड़कों पर घुमाया था.
टिपण्णी यह है कि ———————-
कालिदास-ज्योतिर्विदाभरण-अध्याय२२-ग्रन्थाध्यायनिरूपणम्-
श्लोकैश्चतुर्दशशतै सजिनैर्मयैव ज्योतिर्विदाभरणकाव्यविधा नमेतत् ॥ᅠ२२.६ᅠ॥
विक्रमार्कवर्णनम्-वर्षे श्रुतिस्मृतिविचारविवेकरम्ये श्रीभारते खधृतिसम्मितदेशपीठे।
मत्तोऽधुना कृतिरियं सति मालवेन्द्रे श्रीविक्रमार्कनृपराजवरे समासीत् ॥ᅠ२२.७ᅠ॥
नृपसभायां पण्डितवर्गा-शङ्कु सुवाग्वररुचिर्मणिरङ्गुदत्तो जिष्णुस्त्रिलोचनहरो घटखर्पराख्य।
अन्येऽपि सन्ति कवयोऽमरसिंहपूर्वा यस्यैव विक्रमनृपस्य सभासदोऽमो ॥ᅠ२२.८ᅠ॥
सत्यो वराहमिहिर श्रुतसेननामा श्रीबादरायणमणित्थकुमारसिंहा।
श्रविक्रमार्कंनृपसंसदि सन्ति चैते श्रीकालतन्त्रकवयस्त्वपरे मदाद्या ॥ᅠ२२.९ᅠ॥
नवरत्नानि-धन्वन्तरि क्षपणकामरसिंहशङ्कुर्वेतालभट्टघटखर्परकालिदासा।
ख्यातो वराहमिहिरो नृपते सभायां रत्नानि वै वररुचिर्नव विक्रमस्य ॥ᅠ२२.१०ᅠ॥
यो रुक्मदेशाधिपतिं शकेश्वरं जित्वा गृहीत्वोज्जयिनीं महाहवे।
आनीय सम्भ्राम्य मुमोच यत्त्वहो स विक्रमार्कः समसह्यविक्रमः ॥ २२.१७ ॥
तस्मिन् सदाविक्रममेदिनीशे विराजमाने समवन्तिकायाम्।
सर्वप्रजामङ्गलसौख्यसम्पद् बभूव सर्वत्र च वेदकर्म ॥ २२.१८ ॥
शङ्क्वादिपण्डितवराः कवयस्त्वनेके ज्योतिर्विदः सभमवंश्च वराहपूर्वाः।
श्रीविक्रमार्कनृपसंसदि मान्यबुद्घिस्तत्राप्यहं नृपसखा किल कालिदासः ॥ २२.१९ ॥
काव्यत्रयं सुमतिकृद्रघुवंशपूर्वं पूर्वं ततो ननु कियच्छ्रुतिकर्मवादः।
ज्योतिर्विदाभरणकालविधानशास्त्रं श्रीकालिदासकवितो हि ततो बभूव ॥ २२.२० ॥
वर्षैः सिन्धुरदर्शनाम्बरगुणै(३०६८)र्याते कलौ सम्मिते, मासे माधवसंज्ञिके च विहितो ग्रन्थक्रियोपक्रमः।
नानाकालविधानशास्त्रगदितज्ञानं विलोक्यादरा-दूर्जे ग्रन्थसमाप्तिरत्र विहिता ज्योतिर्विदां प्रीतये ॥ २२.२१ ॥
ज्योतिर्विदाभरण की रचना ३०६८ कलि वर्ष (विक्रम संवत् २४) या ईसा पूर्व ३३ में हुयी। विक्रम सम्वत् के प्रभाव से उसके १० पूर्ण वर्ष के पौष मास से जुलिअस सीजर द्वारा कैलेण्डर आरम्भ हुआ, यद्यपि उसे ७ दिन पूर्व आरम्भ करने का आदेश था। विक्रमादित्य ने रोम के इस शककर्त्ता को बन्दी बनाकर उज्जैन में भी घुमाया था (७८ इसा पूर्व में) तथा बाद में छोड़ दिया।। इसे रोमन लेखकों ने बहुत घुमा फिराकर जलदस्युओं द्वारा अपहरण बताया है तथा उसमें भी सीजर का गौरव दिखाया है कि वह अपना अपहरण मूल्य बढ़ाना चाहता था। इसी प्रकार सिकन्दर की पोरस (पुरु वंशी राजा) द्वारा पराजय को भी ग्रीक लेखकों ने उसकी जीत बताकर उसे क्षमादान के रूप में दिखाया है।

http://en.wikipedia.org/wiki/Julius_Caesar
Gaius Julius Caesar (13 July 100 BC – 15 March 44 BC) — In 78 BC, — On the way across the Aegean Sea, Caesar was kidnapped by pirates and held prisoner. He maintained an attitude of superiority throughout his captivity. When the pirates thought to demand a ransom of twenty talents of silver, he insisted they ask for fifty. After the ransom was paid, Caesar raised a fleet, pursued and captured the pirates, and imprisoned them. He had them crucified on his own authority.
Quoted from History of the Calendar, by M.N. Saha and N. C. Lahiri (part C of the Report of The Calendar Reforms Committee under Prof. M. N. Saha with Sri N.C. Lahiri as secretary in November 1952-Published by Council of Scientific & Industrial Research, Rafi Marg, New Delhi-110001, 1955, Second Edition 1992.
Page, 168-last para-“Caesar wanted to start the new year on the 25th December, the winter solstice day. But people resisted that choice because a new moon was due on January 1, 45 BC. And some people considered that the new moon was lucky. Caesar had to go along with them in their desire to start the new reckoning on a traditional lunar landmark.”
ज्योतिर्विदाभरण की कहानी ठीक होने के कई अन्य प्रमाण हैं-सिकन्दर के बाद सेल्युकस्, एण्टिओकस् आदि ने मध्य एसिआ में अपना प्रभाव बढ़ाने की बहुत कोशिश की, पर सीजर के बन्दी होने के बाद रोमन लोग भारत ही नहीं, इरान, इराक तथा अरब देशों का भी नाम लेने का साहस नहीं किये। केवल सीरिया तथा मिस्र का ही उल्लेख कर संतुष्ट हो गये। यहां तक कि सीरिया से पूर्व के किसी राजा के नाम का उल्लेख भी नहीं है। बाइबिल में लिखा है कि उनके जन्म के समय मगध के २ ज्योतिषी गये थे जिन्होंने ईसा के महापुरुष होने की भविष्यवाणी की थी। सीजर के राज्य में भी विक्रमादित्य के ज्योतिषियों की बात प्रामाणिक मानी गयी।

Thursday, December 4, 2014

RAJA VIKRAMADITYA

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अंग्रेज और वामपंथी इतिहासकार उज्जैन के सम्राट विक्रमादित्य को एतिहासिक शासक न मानकर एक मिथक मानते हैं।जबकि कल्हण की राजतरंगनी,कालिदास 
,नेपाल की वंशावलिया और अरब लेखक,अलबरूनी उन्हें वास्तविक महापुरुष मानते हैं।
उनके समय शको ने देश के बड़े भू भाग पर कब्जा जमा लिया था।विक्रम ने शको को भारत से मार भगाया और अपना राज्य अरब देशो तक फैला दिया था। 
उनके नाम पर विक्रम सम्वत चलाया गया। विक्रमादित्य ईसा मसीह के समकालीन थे और उस वक्त उनका शासन अरब तक फैला था। विक्रमादित्य के बारे में प्राचीन अरब साहित्य में वर्णन मिलता है।
इनके पिता का नाम गन्धर्वसेन था एवं प्रसिद्ध योगी भर्तहरी इनके भाई थे।
विक्रमादित्य के इतिहास को अंग्रेजों ने जान-बूझकर तोड़ा और भ्रमित किया और उसे एक मिथ‍कीय चरित्र बनाने में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ी, क्योंकि विक्रमादित्य उस काल में महान व्यक्तित्व और शक्ति का प्रतीक थे, जबकि अंग्रेजों को यह सिद्ध करना जरूरी था कि ईसा मसीह के काल में दुनिया अज्ञानता में जी रही थी। दरअसल, विक्रमादित्य का शासन अरब और मिस्र तक फैला था और संपूर्ण धरती के लोग उनके नाम से परिचित थे।  विक्रमादित्य अपने ज्ञान, वीरता और उदारशीलता के लिए प्रसिद्ध थे जिनके दरबार में नवरत्न रहते थे। इनमें कालिदास भी थे। कहा जाता है कि विक्रमादित्य बड़े पराक्रमी थे और उन्होंने शकों को परास्त किया था।
विक्रमादित्य के समय ज्योतिषाचार्य मिहिर, महान कवि कालिदास थे। 
राजा विक्रम उनकी वीरता, उदारता, दया, क्षमा आदि गुणों की अनेक गाथाएं भारतीय साहित्य में भरी पड़ी हैं।
अधिकांश विद्वान विक्रमादित्य को परमार वंशी क्षत्रिय राजपूत मानते हैं। कुछ उन्हें तंवर भी बताते हैं।मालवा के परमार वंशी राजा भोज विक्रमादित्य को अपना पूर्वज मानते थे।
वंश चाहे जो भी हो पर इतना निर्विवाद सत्य है कि सम्राट विक्रमादित्य भारतीय इतिहास के सर्वश्रेष्ठ शासक थे।
अंग्रेज और वामपंथी इतिहासकार उज्जैन के सम्राट विक्रमादित्य को एतिहासिक शासक न मानकर एक मिथक मानते हैं।जबकि कल्हण की राजतरंगनी,कालिदास 
,नेपाल की वंशावलिया और अरब लेखक,अलबरूनी उन्हें वास्तविक महापुरुष मानते हैं।
उनके समय शको ने देश के बड़े भू भाग पर कब्जा जमा लिया था।विक्रम ने शको को भारत से मार भगाया और अपना राज्य अरब देशो तक फैला दि
या था। 
उनके नाम पर विक्रम सम्वत चलाया गया। विक्रमादित्य ईसा मसीह के समकालीन थे और उस वक्त उनका शासन अरब तक फैला था। विक्रमादित्य के बारे में प्राचीन अरब साहित्य में वर्णन मिलता है।
इनके पिता का नाम गन्धर्वसेन था एवं प्रसिद्ध योगी भर्तहरी इनके भाई थे।


विक्रमादित्य के इतिहास को अंग्रेजों ने जान-बूझकर तोड़ा और भ्रमित किया और उसे एक मिथ‍कीय चरित्र बनाने में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ी, क्योंकि विक्रमादित्य उस काल में महान व्यक्तित्व और शक्ति का प्रतीक थे, जबकि अंग्रेजों को यह सिद्ध करना जरूरी था कि ईसा मसीह के काल में दुनिया अज्ञानता में जी रही थी। दरअसल, विक्रमादित्य का शासन अरब और मिस्र तक फैला था और संपूर्ण धरती के लोग उनके नाम से परिचित थे। विक्रमादित्य अपने ज्ञान, वीरता और उदारशीलता के लिए प्रसिद्ध थे जिनके दरबार में नवरत्न रहते थे। इनमें कालिदास भी थे। कहा जाता है कि विक्रमादित्य बड़े पराक्रमी थे और उन्होंने शकों को परास्त किया था।
विक्रमादित्य के समय ज्योतिषाचार्य मिहिर, महान कवि कालिदास थे।
राजा विक्रम उनकी वीरता, उदारता, दया, क्षमा आदि गुणों की अनेक गाथाएं भारतीय साहित्य में भरी पड़ी हैं।
अधिकांश विद्वान विक्रमादित्य को परमार वंशी क्षत्रिय राजपूत मानते हैं। कुछ उन्हें तंवर भी बताते हैं।मालवा के परमार वंशी राजा भोज विक्रमादित्य को अपना पूर्वज मानते थे।
वंश चाहे जो भी हो पर इतना निर्विवाद सत्य है कि सम्राट विक्रमादित्य भारतीय इतिहास के सर्वश्रेष्ठ शासक थे।