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Tuesday, August 2, 2016

Gandhi-not a mahatama but ANti Hindu , anti Sanatan Dharma man

Shravan Krushna paksh, Amas, Kalyug Varsh 5118.
Jai Sri Krishna.
Gandhi, father of Paki and greatest Hindu traitor of all time. He was solely responsible as Hindu leader for most Hindu mass murders, mass rapes, mass looting of property and the tearing of Bharat Mata into 3 bloody pieces. No Sanatani in history of Bharat ever treated Hindu lives with as much contempt as he did. Each Hindu life is priceless. Gandhi always put, on each and every occasion concern about Mohammedan lives over Hindu lives.
Why do you think Christians make movies about him and Mohammedans have no objections about him?
What do you think King Vikramaditya's opinion would be about Hindu Gandhi? What do you think King Prithviraj Chauhan's opinion would be about Hindu Gandhi? What do you think Lord Ram's opinion would be of Hindu Gandhi? What do you think Lord Krishna's opinion would be about Hindu Gandhi?
Where in our holy literature is suicide encouraged? Where is mass suicide encouraged? Where is letting yourself be killed encouraged? Even plants turn their flowered faces to the sun. There is no animal, bird or insect that does not value it's own life. Even viruses and bacteria fight to live and multiply. Devil Incarnate Gandhi demanded Sanatanis let themselves be murdered. Gandhi asked living beings to care nothing about their God given life. To go against life is to go against the ways of the universe. To go against life is to go against God. Gandhi went against God. God only know how many billions of lives he'll be reborn paying in excruciating ways for the greatest sin of all, exhorting to let themselves be murdered by whoever, whenever, whatever.
God, Sanatani Bhagwan Ram, Sanatani Bhagwan Krishna. Sanatani Bhagwan Kalki (I use the term Sanatani because every other religion despises them and does not accept they exist) each and every one of our Sanatani Bhagwans were fierce warriors with multiple, lethal, divine weapons. Each of their life stories on earth was about an injustice that led to war. A war none of our Bhagwans shrunk from since that was sole reason for their birth on earth, in particular Bharat Mata..
The entire premise of Bhagavad Gita is complete and total war against injustice. Bhagwan Krushna scorched the earth with nuclear weapon for dharma.
What do you believe? Who do you believe? Our Bhagwans? Our Holy Scriptures? Because Gandhi went against everything Sanatana Dharma stands for yug after yug after yug. Without gandhi, we'd be singing Tulsidas's bhajan to Lord Ram as written instead of its treasonous mohammedan version by treacherous gandhi.
Just for singing Tulsidas's authentic version, instead of mohammedan version, my parents were labeled 'trouble makers' by other Sanatanis. Now I proudly follow in their footsteps and state this is only version of we have ever sung. Mohammedan version we could not even utter. This beautiful bhajan is about House of Raghupati and no one else. We also have original second version of this bhajan by Tulsidas. Pointless to post when Sanatanis ignore first.
RAGHUPATHI RAGHAVA RAJA RAM
PATHITAPAAVANA SITA-RAM
SUNDARA VIGRAHA MEGHASHYAM
GANGA TULSI SALAGRAM
BHADRA GIRISHWARA SITA-RAM
BHAKATHA JANAPRIYA SITA-RAM
JANAKI RAMANA SITA-RAM
JAI JAI RAGHAVA SITA-RAM
(JAI RAGHUNANDAN, JAI SIYA RAM
JAANAKI VALLABH SITA RAM)
Jai Hind.
Vande Mataram.

Monday, February 8, 2016

M K Gandhi decoded-गांधीः नैक्ड ऐंबिशन, Mahatma Gandi -Truth uncovered

अमृतसर के जलियाँवाला बाग़ गोली काण्ड (1919) से समस्त देशवासी आक्रोश में थे तथा चाहते थे कि इस नरसंहार के खलनायक जनरल डायर पर अभियोग चलाया जाए।
गान्धी ने भार...तवासियों के इस आग्रह को समर्थन देने से मना कर दिया।
2. भगत सिंह व उसके साथियों के मृत्युदण्ड के निर्णय से सारा देश क्षुब्ध था व गान्धी की ओर देख रहा था कि वह हस्तक्षेप कर इन देशभक्तों को मृत्यु से बचाएं, किन्तु गान्धी ने भगत सिंह की हिंसा को अनुचित ठहराते हुए जनसामान्य की इस माँग को अस्वीकार कर दिया। क्या आश्चर्य कि आज भी भगत सिंह वे अन्य क्रान्तिकारियों को आतंकवादी कहा जाता है।
3. 6 मई 1946 को समाजवादी कार्यकर्ताओं को अपने सम्बोधन में गान्धी ने मुस्लिम लीग की हिंसा के समक्ष अपनी आहुति देने की प्रेरणा दी।
4.मोहम्मद अली जिन्ना आदि राष्ट्रवादी मुस्लिम नेताओं के विरोध को अनदेखा करते हुए 1921 में गान्धी ने खिलाफ़त आन्दोलन को समर्थन देने की घोषणा की। तो भी केरल के मोपला में मुसलमानों द्वारा वहाँ के हिन्दुओं की मारकाट की जिसमें लगभग 1500 हिन्दु मारे गए व 2000 से अधिक को मुसलमान बना लिया गया। गान्धी ने इस हिंसा का विरोध नहीं किया, वरन् खुदा के बहादुर बन्दों की बहादुरी के रूप में वर्णन किया।
5.1926 में आर्य समाज द्वारा चलाए गए शुद्धि आन्दोलन में लगे स्वामी श्रद्धानन्द जी की हत्या अब्दुल रशीद नामक एक मुस्लिम युवक ने कर दी, इसकी प्रतिक्रियास्वरूप गान्धी ने अब्दुल रशीद को अपना भाई कह कर उसके इस कृत्य को उचित ठहराया व शुद्धि आन्दोलन को अनर्गल राष्ट्र-विरोधी तथा हिन्दु-मुस्लिम एकता के लिए अहितकारी घोषित किया।
6.गान्धी ने अनेक अवसरों पर छत्रपति शिवाजी, महाराणा प्रताप व गुरू गोविन्द सिंह जी को पथभ्रष्ट देशभक्त कहा।
7.गान्धी ने जहाँ एक ओर काश्मीर के हिन्दु राजा हरि सिंह को काश्मीर मुस्लिम बहुल होने से शासन छोड़ने व काशी जाकर प्रायश्चित करने का परामर्श दिया, वहीं दूसरी ओर हैदराबाद के निज़ाम के शासन का हिन्दु बहुल हैदराबाद में समर्थन किया।
8. यह गान्धी ही था जिसने मोहम्मद अली जिन्ना को कायदे-आज़म की उपाधि दी।
9. कॉंग्रेस के ध्वज निर्धारण के लिए बनी समिति (1931) ने सर्वसम्मति से चरखा अंकित भगवा वस्त्र पर निर्णय लिया किन्तु गाँधी कि जिद के कारण उसे तिरंगा कर दिया गया।
10. कॉंग्रेस के त्रिपुरा अधिवेशन में नेताजी सुभाष चन्द्र बोस को बहुमत से कॉंग्रेस अध्यक्ष चुन लिया गया किन्तु गान्धी पट्टभि सीतारमय्या का समर्थन कर रहा था, अत: सुभाष बाबू ने निरन्तर विरोध व असहयोग के कारण पदत्याग कर दिया।
11. लाहोर कॉंग्रेस में वल्लभभाई पटेल का बहुमत से चुनाव सम्पन्न हुआ किन्तु गान्धी की जिद के कारण यह पद जवाहरलाल नेहरु को दिया गया।
12. 14-15 जून, 1947 को दिल्ली में आयोजित अखिल भारतीय कॉंग्रेस समिति की बैठक
में भारत विभाजन का प्रस्ताव अस्वीकृत होने वाला था, किन्तु गान्धी ने वहाँ पहुंच प्रस्ताव का समर्थन करवाया। यह भी तब जबकि उन्होंने स्वयं ही यह कहा था कि देश का विभाजन उनकी लाश पर होगा।
13. मोहम्मद अली जिन्ना ने गान्धी से विभाजन के समय हिन्दु मुस्लिम जनसँख्या की
सम्पूर्ण अदला बदली का आग्रह किया था जिसे गान्धी ने अस्वीकार कर दिया।
14. जवाहरलाल की अध्यक्षता में मन्त्रीमण्डल ने सोमनाथ मन्दिर का सरकारी व्यय पर पुनर्निर्माण का प्रस्ताव पारित किया, किन्तु गान्धी जो कि मन्त्रीमण्डल के सदस्य भी नहीं थे ने सोमनाथ मन्दिर पर सरकारी व्यय के प्रस्ताव को निरस्त करवाया और 13 जनवरी 1948 को आमरण अनशन के माध्यम से सरकार पर दिल्ली की मस्जिदों का सरकारी खर्चे से पुनर्निर्माण कराने के लिए दबाव डाला।
15. पाकिस्तान से आए विस्थापित हिन्दुओं ने दिल्ली की खाली मस्जिदों में जब अस्थाई शरण ली तो गान्धी ने उन उजड़े हिन्दुओं को जिनमें वृद्ध, स्त्रियाँ व बालक अधिक थे मस्जिदों से से खदेड़ बाहर ठिठुरते शीत में रात बिताने पर मजबूर किया गया।
16. 22 अक्तूबर 1947 को पाकिस्तान ने काश्मीर पर आक्रमण कर दिया, उससे पूर्व माउँटबैटन ने भारत सरकार से पाकिस्तान सरकार को 55 करोड़ रुपए की राशि देने का परामर्श दिया था। केन्द्रीय मन्त्रीमण्डल ने आक्रमण के दृष्टिगत यह राशि देने को टालने का निर्णय लिया किन्तु गान्धी ने उसी समय यह राशि तुरन्त दिलवाने के लिए आमरण अनशन किया- फलस्वरूप यह राशि पाकिस्तान को भारत के हितों के विपरीत दे दी गयी।17.गाँधी ने गौ हत्या पर पर्तिबंध लगाने का विरोध किया
18. द्वितीया विश्वा युध मे गाँधी ने भारतीय सैनिको को ब्रिटेन का लिए हथियार उठा कर लड़ने के लिए प्रेरित किया , जबकि वो हमेशा अहिंसा की पीपनी बजाते है
.19. क्या ५०००० हिंदू की जान से बढ़ कर थी मुसलमान की ५ टाइम की नमाज़ ?????
विभाजन के बाद दिल्ली की जमा मस्जिद मे पानी और ठंड से बचने के लिए ५००० हिंदू ने जामा मस्जिद मे पनाह ले रखी थी…मुसलमानो ने इसका विरोध किया पर हिंदू को ५ टाइम नमाज़ से ज़यादा कीमती अपनी जान लगी.. इसलिए उस ने माना कर दिया. .. उस समय गाँधी नाम का वो शैतान बरसते पानी मे बैठ गया धरने पर की जब तक हिंदू को मस्जिद से भगाया नही जाता तब तक गाँधी यहा से नही जाएगा….फिर पुलिस ने मजबूर हो कर उन हिंदू को मार मार कर बरसते पानी मे भगाया…. और वो हिंदू— गाँधी मरता है तो मरने दो —- के नारे लगा कर वाहा से भीगते हुए गये थे…,,,
रिपोर्ट — जस्टिस कपूर.. सुप्रीम कोर्ट….. फॉर गाँधी वध क्यो ?
२०. भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव को 24 मार्च 1931 को फांसी लगाई जानी थी, सुबह करीब 8 बजे। लेकिन 23 मार्च 1931 को ही इन तीनों को देर शाम करीब सात बजे फांसी लगा दी गई और शव रिश्तेदारों को न देकर रातोंरात ले जाकर ब्यास नदी के किनारे जला दिए गए। असल में मुकदमे की पूरी कार्यवाही के दौरान भगत सिंह ने जिस तरह अपने विचार सबके सामने रखे थे और अखबारों ने जिस तरह इन विचारों को तवज्जो दी थी, उससे ये तीनों, खासकर भगत सिंह हिंदुस्तानी अवाम के नायक बन गए थे। उनकी लोकप्रियता से राजनीतिक लोभियों को समस्या होने लगी थी।
उनकी लोकप्रियता महात्मा गांधी को मात देनी लगी थी। कांग्रेस तक में अंदरूनी दबाव था कि इनकी फांसी की सज़ा कम से कम कुछ दिन बाद होने वाले पार्टी के सम्मेलन तक टलवा दी जाए। लेकिन अड़ियल महात्मा ने ऐसा नहीं होने दिया। चंद दिनों के भीतर ही ऐतिहासिक गांधी-इरविन समझौता हुआ जिसमें ब्रिटिश सरकार सभी राजनीतिक कैदियों को रिहा करने पर राज़ी हो गई। सोचिए, अगर गांधी ने दबाव बनाया होता तो भगत सिंह भी रिहा हो सकते थे क्योंकि हिंदुस्तानी जनता सड़कों पर उतरकर उन्हें ज़रूर राजनीतिक कैदी मनवाने में कामयाब रहती। लेकिन गांधी दिल से ऐसा नहीं चाहते थे क्योंकि तब भगत सिंह के आगे इन्हें किनारे होना पड़ता.|


गांधीजी की सेक्स लाइफ...
जी हां, महात्मा गांधी के सेक्स-जीवन को केंद्र बनाकर लिखी गई किताब “गांधीः नैक्ड ऐंबिशन” में एक ब्रिटिश प्रधानमंत्री के हवाले से ऐसा ही कहा गया है।

मशहूर ब्रिटिश इतिहासकार जैड ऐडम्स ने पंद्रह साल के अध्ययन और शोध के बाद “गांधीः नैक्ड ऐंबिशन” को किताब का रूप दिया है।
किताब में वैसे तो नया कुछ नहीं है। राष्ट्रपिता के जीवन में आने वाली महिलाओं और लड़कियों के साथ गांधी केआत्मीय और मधुर रिश्तों पर ख़ास प्रकाश डाला गया है।जैड ऐडम्स ने लिखा है कि गांधी नग्न होकर लड़कियोंऔर महिलाओं के साथ सोते ही नहीं थे बल्कि उनके साथ बाथरूम में “नग्न स्नान” भी करते थे।नई किताब यह खुलासा करती है कि गांधी उन युवा महिलाओं के साथ ख़ुद को संतप्त किया जो उनकी पूजा करती थीं और अकसर उनके साथ बिस्तर शेयर करती थीं|

ब्रिटिश हिस्टोरियन के मुताबिक महात्मा गांधी सेक्स के बारे लिखना या बातें करना बेहद पसंद करते थे। किताब के मुताबिक हालांकि अन्य उच्चाकाक्षी पुरुषों की तरह गांधी कामुक भी थे और सेक्स से जुड़े तत्थों के बारे में आमतौर पर खुल कर लिखते थे। अपनी इच्छा को दमित करने के लिए ही उन्होंने कठोर परिश्रम का अनोखा स्वाभाव अपनाया जो कई लोगों कोस्वीकार नहीं हो सकता।

किताब की शुरुआत ही गांधी की उस स्वीकारोक्ति से हुई है जिसमें गांधी ख़ुद लिखा या कहा करते थे कि उनके अंदर सेक्स-ऑब्सेशन का बीजारोपण किशोरावस्था में हुआ और वह बहुत कामुक हो गए थे। 13 साल की उम्रमें 12 साल की कस्तूरबा से विवाह होने के बाद गांधी अकसर बेडरूम में होते थे। यहां तक कि उनके पिता कर्मचंद उर्फ कबा गांधी जब मृत्यु-शैया पर पड़े मौत से जूझ रहे थे उस समय किशोर मोहनदास पत्नी कस्तूरबा के साथ अपने बेडरूम में सेक्स का आनंद ले रहे थे।
किताब में कहा गया है कि विभाजन के दौरान नेहरू गांधी को अप्राकृतिक और असामान्य आदत वाला इंसान मानने लगे थे। सीनियर लीडर जेबी कृपलानी और वल्लभभाई पटेल ने गांधी के कामुक व्यवहार के चलते ही उनसे दूरी बना ली। यहां तक कि उनके परिवार के सदस्य और अन्य राजनीतिक साथी भी इससे ख़फ़ा थे। कई लोगों ने गांधी के प्रयोगों के चलते आश्रम छोड़ दिया।
किताब में पंचगनी में ब्रह्मचर्य का प्रयोग का भी वर्णन किया है, जहां गांधी की सहयोगी सुशीला नायर गांधी के साथ निर्वस्त्र होकर सोती थीं और उनके साथ निर्वस्त्र होकर नहाती भी थीं।

किताब में गांधी के ही वक्तव्य को उद्धरित किया गया है। मसलन इस बारे में गांधी ने ख़ुद लिखा है, “नहाते समय जब सुशीला निर्वस्त्र मेरे सामने होती है तो मेरी आंखें कसकर बंद हो जाती हैं। मुझे कुछ भी नज़र नहीं आता। मुझे बस केवल साबुन लगाने की आहट सुनाई देती है। मुझे कतई पता नहीं चलता कि कब वह पूरी तरह से नग्न हो गई है और कब वह सिर्फ अंतःवस्त्र पहनी होती है।”

किताब के ही मुताबिक जब बंगाल में दंगे हो रहे थे गांधी ने 18 साल की मनु को बुलाया और कहा “अगर तुम साथ नहीं होती तो मुस्लिम चरमपंथी हमारा क़त्ल कर देते। आओ आज से हम दोनों निर्वस्त्र होकर एक दूसरे के साथ सोएं और अपने शुद्ध होने और ब्रह्मचर्य का परीक्षण करें।”

ऐडम का दावा है कि गांधी के साथ सोने वाली सुशीला, मनु और आभा ने गांधी के साथ शारीरिक संबंधों के बारे हमेशा अस्पष्ट बात कही।जब भी पूछा गया तब केवल यही कहा कि वह ब्रह्मचर्य के प्रयोग के सिद्धांतों का अभिन्न अंग है।

हत्या के बाद गांधी को महिमामंडित करने और राष्ट्रपिता बनाने के लिए उनदस्तावेजों, तथ्यों और सबूतों को नष्ट कर दिया, जिनसे साबित किया जा सकता था कि संत गांधी दरअसल सेक्स मैनियैक थे।

कांग्रेस भी स्वार्थों के लिए अब तक गांधी और उनके सेक्स-एक्सपेरिमेंट से जुड़े सच को छुपाती रही है। गांधीजी की हत्या के बाद मनु को मुंह बंद रखने की सलाह दी गई। सुशीला भी इस मसले पर हमेशा चुप ही रहीं।
बंगाली परिवार की विद्वान और ख़ूबसूरत महिला सरलादेवी चौधरी से गांधी का संबंध जगज़ाहिर है।
हालांकि गांधी केवल यही कहते रहे कि सरलादेवी उनकी “आध्यात्मिक पत्नी” हैं।

ऐडम्स ने स्वीकार किया है कि यह किताब विवाद से घिरेगी। उन्होंने कहा, “मैं जानता हूं इस एक किताब को पढ़कर भारत के लोग मुझसे नाराज़ हो सकते हैं लेकिन जब मेरी किताब का लंदन विश्वविद्यालय में विमोचन हुआ तो तमाम भारतीय छात्रों ने मेरे प्रयास की सराहना की, मुझे बधाई दी।” 288 पेज की करीब आठ सौ रुपए मूल्य कीयह किताब जल्द ही भारतीय बाज़ार में उपलब्ध होगी। 'गांधीः नैक्ड ऐंबिशन' का लंदन यूनिवर्सिटी में विमोचन हो चुका है। किताब में गांधी की जीवन की तक़रीबन हर अहम घटना को समाहित करने की कोशिश की गई है। जैड ऐडम्स ने गांधी के महाव्यक्तित्व को महिमामंडित करने की पूरी कोशिश की है। हालांकि उनके सेक्स-जीवन की इस तरह व्याख्या की है कि गांधीवादियों और कांग्रेसियों को इस पर सख़्त ऐतराज़ हो सकता है।
 

Monday, January 25, 2016

Netaji Subhash Chandra Files-Facts



मित्रों! नरेंद्र मोदी सरकार द्वारा नेताजी पर फाइलों को कांग्रेसियों द्वारा पिछ
ले 70 सालों से जो रहस्य बनाकर रखा गया था,हटा दिया गया है।अब सब कुछ सामने है। इनके अध्य्यन के साथ जो बड़ी चीज़ें निकल कर आएँगी।एक सीरीज में मैं आप लोगों के साथ शेयर करूँगा।बस आप शेयर करके औरों तक पहुचाएं।
साभार www.netajipapers.gov.in पोर्टल





मक्कार एैयाश नेहरु के अंग्रेज प्रधानमंत्री को लिखे इस पत्र से दो बाते तो साफ हो जाती है-
1. नेहरु अंग्रेज सरकार का एजंट था, जीसने अाझादी के पहले अंग्रेजो से साठगाठ कर रखी थी. उसिने दुसरे क्रांतिकारी जैसे भगत सिंह, चंद्रशेखर अाझाद, सुखदेव अादीयो को मरवाया. इसीके बदले मे अंग्रेजो ने भारत छोडते वक्त नेहरु को प्रधानमंत्री बनाया.
2. मक्कार नेहरु जब अंग्रेजो को लिखे पत्र मे कह रहा है की सुभाषचंद्र बोस 'युद्ध अपराधी' है, मतलब असलियत मे अंग्रेजो से युद्ध सुभाषचंद्र बोस ही कर रहे थे, ...अाैर नेहरू तो अंग्रेजो का दलाल खबरी था.
खबर यहा तक है, की सुभाषचंद्र बोस को भारत मे न आने देने मे एवं विदेश मे ही मरवाने मे मक्कार नेहरु का ही हाथ था, जिसमे गांधी का भी सहयोग था.
काँग्रेस ने लिखे इतिहास मे गांधी, नेहरु जैसे अंग्रेजो के दलाल ही अाजादि के हिरो बताये गये, अाैर असली अाझादी के विरो को अपराधी बताया गया. पर, अब मोदीराज मे सच्चायी सामने आकर ही रहेगी.


 


From Sanjay Dwivedi ji.

 

Wednesday, January 13, 2016

इस जाट राजा ने नेताजी से 28 साल पहले बना ली थी 'आजाद हिंद' सरकार! नोबेल के लिएहुआ था नॉमिनेट

25 दिसंबर 2015 का दिन था। दुनिया क्रिसमस मना रही थी, भारत में वाजपेयी जी का जन्मदिन मनाया जा रहा था तो पाकिस्तान में जिन्ना के साथ-साथ नवाज शरीफ की सालगिरह। पीएम मोदी रूस से सीधे पहुंचे अफगानिस्तान की राजधानी काबुल, उनकी नई संसद में अटल ब्लॉक का उद्घाटन किया और अफगानिस्तान की संसद को संबोधित किया। उसके बाद मोदी सीधे पहुंच गए पाकिस्तान।


इतिहास में ये तारीख हमेशा के लिए दर्ज हो गई है कि कैसे भारत का पीएम पाकिस्तान के पीएम की सालगिरह मनाने अचानक से उड़कर पाकिस्तान पहुंच जाता है। दोनों देशों की मीडिया के लिए ही नहीं दुनिया भर की मीडिया के लिए ये बड़ी खबर थी, लेकिन इस बड़ी खबर में ऐतिहासिक नजरिये से एक बहुत बड़ी खबर बताने से देश की मीडिया चूक गई और वो ये कि जिस व्यक्ति ने एक बार लोकसभा चुनावों में भाजपा के पहले प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी को करारी शिकस्त दी थी, भाजपा के दूसरे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने काबुल की संसद में उस व्यक्ति की जमकर, दिल खोलकर तारीफ की।


कौन था वो व्यक्ति, जिसने मोदी को काबुल की संसद में अपनी तारीफ करने पर मजबूर कर दिया, ये मोदी की मजबूरी थी या भाजपा का महापुरुषों को लेकर बदलता नजरिया, जैसा कि संघ को एक बार बैन करने वाले सरदार पटेल आज भाजपा के पसंदीदा महापुरुषों में गिने जाने लगे हैं? ये व्यक्ति थे उत्तर प्रदेश के जिला हाथरस के राजा महेंद्र प्रताप सिंह।


Mahendra


आमतौर पर हाथरस जिले का भारत के नक्शे पर कोई बहुत महत्वपूर्ण स्थान नहीं बन पाया, आम आदमी उसे काका हाथरसी की नगरी के तौर पर जानता है, या हींग, घी, रंग, रबड़ी जैसे कुछ उम्दा प्रोडक्ट्स केंद्र के तौर पर । उसकी वजह भी है कि सरदार पटेल की तरह राजा महेंद्र प्रताप के साथ भी कांग्रेस सरकार के इतिहासकारों ने नाइंसाफी की, इस इंटरनेशनल क्रांतिकारी का कद कई मायनों में गांधी और बोस के करीब है, ये वो व्यक्ति है जिसने देश के भावी पीएम को चुनावों में धूल चटा दी, ये वो क्रांतिकारी है जिसने 28 साल पहले वो काम कर दिया, जो नेताजी बोस ने 1943 में आकर किया। ये वो व्यक्ति है, जिसे गांधी की तरह ही नोबेल पुरस्कार के लिए नॉमिनेट किया गया और उन दोनों ही साल नोबेल पुरस्कार का ऐलान नहीं हुआ और पुरस्कार राशि स्पेशल फंड में बांट दी गई।


राजा महेंद्र प्रताप का सही से आकलन इतिहासकारों ने किया होता तो आज राजा को ही नहीं दुनिया हाथरस जिले को और उनकी रियासत मुरसान को भी उसी तरह से जानती, जैसे बाकी महापुरुषों के शहरों को जाना जाता है। आखिर कोई तो बात थी राजा में कि पीएम मोदी ने उदघाटन तो काबुल की संसद में अटल ब्लॉक का किया और तारीफ राजा महेंद्र प्रताप की की, वो भी तब जब राजा खुद को मार्क्सवादी कहते थे, यानी वामपंथी जो आरएसएस के सबसे बड़े विरोधी माने जाते हैं, लेनिन ने उनके क्रांतिकारों विचारों से प्रभावित होकर उन्हें रूस मिलने बुलाया था और राजा को अपनी जो किताब उपहार में दी, उसे वो पहले ही पढ़ चुके थे, टॉलस्टॉयवाद।


पहले ये जानिए पीएम मोदी ने काबुल की संसद में क्या स्पीच दी थी, मोदी ने कहा था,“Indians remember the support of Afghans for our freedom struggle; the contribution of Khan Abdul Gaffar Khan, revered as Frontier Gandhi; and, the important footnote of that history, when, exactly hundred years ago, the first Indian Government-in-Exile was formed in Kabul by Maharaja Mahendra Pratap and Maulana Barkatullah.King Amanullah once told the Maharaja that so long as India was not free, Afghanistan was not free in the right sense. Honourable Members, This is the spirit of brotherhood between us”।
फ्रंटियर या सीमांत गांधी को जानने वाले आज लाखों मिल जाएंगे, लेकिन राजा महेंद्र प्रताप का नाम कितने लोग जानते हैं, मोदी ने सीमांत गांधी के साथ राजा महेंद्र प्रताप का नाम लिया और उनके और अफगानिस्तान के किंग के बीच की बातचीत को भाईचारे की भावना का प्रतीक बताया।


महेंद्र प्रताप शुरू से ही आम शाही नवयुवकों की तरह नहीं थे। उनके पास मौका था कि वो भी राजाओं के बने संघ में शामिल होकर अंग्रेजों से अपने लिए बेहतर सुविधाओं की मांग करते और खुश रहते। लेकिन वो उनमें से नहीं थे, उनकी पढ़ाई मोहम्मडन एंग्लो ओरियंटल कॉलेज, अलीगढ़ में हुई, जो आज अलीगढ़ मुस्लिम यूनीवर्सिटी के तौर पर जाना जाता है। शुरू से ही अंग्रेज, मुस्लिम टीचर और मुस्लिम मित्रों के बीच रहने से राजा की सोच इंटरनेशनल हो गई। उनके अंदर क्रांति की लहरें हिलोरे मारने लगी। 1905 के स्वदेशी आंदोलन से वो इतना प्रभावित हुए कि अपने ससुर के मना करने के बावजूद वो 1906 के कांग्रेस के कोलकाता अधिवेशन में हिस्सा लेने चले गए।
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मार्क्सवादी होने के बावजूद उन्हें कांग्रेस के हिंदूवादी नेता बाल गंगाधर तिलक और विपिन चंद्र पाल पसंद आते थे। हालांकि 1902 में ही जींद की सिख राजकुमारी से उनकी शादी हो गई। लेकिन उनके अंतरमन की आग आसानी से बुझने वाली नहीं थी। एक बार तो छुआछूत के खिलाफ लोगों को साथ लाने के लिए उन्होंने अलमोड़ा में वहां की नीची जाति के परिवार के घर में खाना खाया, तो आगरा में भी एक दलित परिवार के साथ खाना खाया।


19वीं सदी के पहले दशक में एक जाट और राजा के परिवार में कोई ऐसा सोचने की भी हिम्मत नहीं कर सकता था। फिर विदेशी वस्त्रों के खिलाफ अपनी रियासत में उन्होंने जबरदस्त अभियान चलाया। बाद में उनको लगा कि देश में रहकर कुछ नहीं हो सकता। लाला हरदयाल, वीरेंद्रनाथ चट्टोपाध्याय, रास बिहारी बोस, श्याम जी कृष्ण वर्मा, अलग- अलग देशों से ब्रिटिश सरकार की गुलामी के खिलाफ उस वक्त भारत के लिए अभियान चला रहे थे। उस वक्त तक जर्मनी में रह रहे भारतीय क्रांतिकारी बर्लिन कमेटी बना चुके थे, प्रथम विश्वयुद्ध को वो एक मौका मान रहे थे, जब इंग्लैंड की विरोधी शक्तियों से हाथ मिलाकर भारत को गुलामी से मुक्ति दिलाई जा सके।


राजा महेंद्र का नाम तब तक इतना हो चुका था कि स्विट्जरलैंड में उनकी मौजूदगी की भनक लगते ही चट्टोपाध्याय ने लाला हरदयाल और श्याम जी कृष्ण वर्मा को उन्हें बर्लिन बुलाने को कहा। बाकायदा जर्मनी के विदेश मंत्रालय से कहा गया उन्हें बुलाने को। लेकिन राजा ने खुद जर्मनी के किंग से व्यक्तिगत तौर पर मिलने की इच्छा जताई, इधर जर्मनी के राजा भी उनसे मिलना चाहते थे, जर्मनी के राजा ने उन्हें ऑर्डर ऑफ दी रैड ईगल की उपाधि से सम्मानित किया। राजा जींद के दामाद थे और उन्होंने अफगानिस्तान की सीमा से भारत में घुसने के लिए पंजाब की फुलकियां स्टेट्स जींद, नाभा और पटियाला की रणनीतिक पोजीशन की उनसे चर्चा की।


जर्मन राजा से काफी भरोसा पाकर वो बर्लिन से चले आए। बर्लिन छोड़ने से पहले उन्होंने पोलैंड बॉर्डर पर सेना के कैंप में रहकर युद्ध की ट्रेनिंग भी ली। उसके बाद वो स्विट्जरलैंड, तुर्की, इजिप्ट में वहां के शासकों से ब्रिटिश सरकार के खिलाफ सपोर्ट मांगने गए, उसके बाद अफगानिस्तान पहुंचे। उन्हें लगा कि यहां रहकर वो भारत के सबसे करीब होंगे और ब्रिटिश सरकार के खिलाफ जंग यहां रहकर लड़ी जा सकती है।
Mahendra-2


आप जानकर हैरत में पड़ जाएंगे कि उस वक्त जब वो कई देश के राजाओं से अपने देश की आजादी के लिए मिल रहे थे, उनकी उम्र महज 28 साल थी और अगले 32 साल वो दुनिया भर की खाक ही छानते रहे..... दरबदर।


एक दिसंबर 1915 का दिन था, राजा महेंद्र प्रताप का जन्मदिन, उस दिन वो 28 साल के हुए थे। उन्होंने भारत से बाहर देश की पहली निर्वासित सरकार का गठन किया, बाद में सुभाष चंद्र बोस ने 28 साल बाद उन्हीं की तरह आजाद हिंद सरकार का गठन सिंगापुर में किया था। राजा महेंद्र प्रताप को उस सरकार का राष्ट्रपति बनाया गया यानी राज्य प्रमुख। मौलवी बरकतुल्लाह को राजा का प्रधानमंत्री घोषित किया गया और अबैदुल्लाह सिंधी को गृहमंत्री।


भोपाल के रहने वाले बरकतुल्लाह के नाम पर बाद में भोपाल में बरकतुल्लाह यूनीवर्सिटी खोली गई। राजा की इस काबुल सरकार ने बाकायदा ब्रिटिश सरकार के खिलाफ जेहाद का नारा दिया। लगभग हर देश में राजा की सरकार ने अपने राजदूत नियुक्त कर दिए, बाकायदा वो उन सरकारों से बतौर भारत के राजदूत मान्यता देने की बातचीत में जुट गए। लेकिन उस वक्त ना कोई बेहतर सैन्य रणनीति थी और ना ही उन्हें इस रिवोल्यूशरी आइडिया के लिए बोस जैसा समर्थन मिला और सरकार प्रतीकात्मक रह गई। लेकिन राजा की लड़ाई थमी नहीं उनकी जिंदगी तो हंगामाखेज थी।


दिलचस्प बात ये थी कि जिस साल में राजा ने भारत की पहली निर्वासित सरकार बनाई, उसी साल गांधी जी साउथ अफ्रीका से भारत वापस लौटे थे और प्रथम विश्व युद्ध के लिए भारतीयों को ब्रिटिश सेना में भर्ती करवा रहे थे, उन्हें भर्ती करने वाला सर्जेंट तक कहा गया था।


राजा के सिर पर ब्रिटिश सरकार ने इनाम रख दिया, रियासत अपने कब्जे में ले ली, और राजा को भगोड़ा घोषित कर दिया। राजा ने काफी परेशानी के दिन झेले। फिर उन्होंने जापान में जाकर एक मैगजीन शुरू की, जिसका नाम था वर्ल्ड फेडरेशन। लंबे समय तक इस मैगजीन के जरिए ब्रिटिश सरकार की क्रूरता को वो दुनिया भर के सामने लाते रहे। फिर दूसरे विश्व युद्ध के दौरान राजा ने फिर एक एक्जीक्यूटिव बोर्ड बनाया, ताकि ब्रिटिश सरकार को भारत छोड़ने के लिए मजूबर किया जा सके। लेकिन युद्ध खत्म होते-होते सरकार राजा की तरफ नरम हो गई थी, फिर आजादी होना भी तय मानी जाने लगी। राजा को भारत आने की इजाजत मिली। ठीक 32 साल बाद राजा भारत आए, 1946 में राजा मद्रास के समुद्र तट पर उतरे। वहां से वो घर नहीं गए, सीधे वर्धा पहुंचे गांधीजी से मिलने।


गांधीजी और राजा में अजीबो-गरीब रिश्ता था, बहुत कम लोगों को पता होगा कि हाथरस के इस राजा को नोबेल पुरस्कार के लिए नॉमिनेट किया गया था और एक तय वक्त के बाद नोबेल कमेटी के कमेंट्स को सार्वजनिक कर दिया जाता है।


राजा के बारे में नोबेल कमेटी ने उस वक्त क्या लिखा था ये पढ़िए, "Pratap gave up his property for educational purposes, and he established a technical college at Brindaban. In 1913 he took part in Gandhi's campaign in South Africa. He travelled around the world to create awareness about the situation in Afghanistan and India. In 1925 he went on a mission to Tibet and met the Dalai Lama. He was primarily on an unofficial economic mission on behalf of Afghanistan, but he also wanted to expose the British brutalities in India. He called himself the servant of the powerless and weak."।


सबसे खास बात थी कि नोबेल पुरस्कार समिति की इन्हीं लाइनों से ये पता चला कि वो गांधीजी के साउथ अफ्रीका वाले आंदोलन में भी हिस्सा लेने जा पहुंचे थे, इतना ही नहीं वो तिब्बत मिशन पर दलाई लामा से भी मिले थे। ऐसी इंटरनेशनल तबीयत के थे राजा महेंद्र प्रताप। उस साल किसी को भी नोबेल पुरस्कार नहीं दिया गया, सारी पुरस्कार राशि किसी स्पेशल फंड में दे दी गई। इसका गांधी कनेक्शन ये है कि बिलकुल ऐसा ही तब हुआ था, जब गांधीजी को 1948 में नोबेल पुरस्कार के लिए नॉमिनेट किया गया था, गांधीजी की हत्या होने के चलते बात आगे नहीं बढ़ी और उस साल भी नोबेल पुरस्कार के लिए किसी के नाम का ऐलान नहीं हुआ। सारा पैसा स्पेशल फंड में दे दिया गया।


नोबेल पुरस्कार समिति के कमेंट्स से ही पता चलता है कि गांधीजी ने एक बार राजा महेंद्र प्रताप की अपने अखबार यंग इंडिया में जमकर तारीफ की थी, गांधीजी ने लिखा था, “"For the sake of the country this nobleman has chosen exile as his lot. He has given up his splendid property...for educational purposes. Prem Mahavidyalaya...is his creation,"।


गांधीजी से उनके गहरे नाते की मिसाल देखिए, 32 साल बाद भारत आए तो सीधे उनसे मिलने जा पहुंचे, मद्रास से सीधे वर्धा। बावजूद इसके वो कांग्रेस में शामिल नहीं हुए। लेकिन उनकी हस्ती इस कदर बड़ी थी कि कांग्रेस तो कांग्रेस उस वक्त के जनसंघ के बड़े नेता और भावी पीएम अटल बिहारी वाजपेयी को भी लोकसभा के चुनावों में उन्होंने धूल चटा दी। वो 1952 में मथुरा से निर्दलीय सांसद बने और 1957 में फिर से अटल बिहारी वाजपेयी को हराकर निर्दलीय ही सांसद चुने गए। बिना किसी का अहसान लिए शान से राजा की तरह जीते रहे।


राजा महेंद्र प्रताप की उपलब्धियां यहीं कम नहीं होतीं, उनके खाते में भारत का पहला पॉलिटेक्निक कॉलेज भी है। अपने बेटे का नाम रखा उन्होंने प्रेम और वृंदावन में एक पॉलिटेक्निक कॉलेज खोला, जिसका नाम रखा प्रेम महाविद्यालय। राजा मॉर्डन एजुकेशन के हिमायती थे, तभी एएमयू के लिए भी जमीन दान कर दी।


देश की आजादी के बाद लोग मानते थे कि उनसे बेहतर कोई विदेश मंत्री नहीं हो सकता था, लेकिन उन्होंने किसी से कुछ मांगा नहीं और आमजन के लिए काम करते रहे। पंचायत राज कानूनों, किसानों और फ्रीडम फाइटर्स के लिए लड़ते रहे।


राजा जो भी काम करते थे, वो क्रांति के स्तर पर जाकर करते थे। हिंदू घराने में वो पैदा हुए थे, मुस्लिम संस्था में वो पढ़े थे, यूरोप में तमाम ईसाइयों से उनके गहरे रिश्ते थे, सिख धर्म मानने वाले परिवार से उनकी शादी हुई थी। लेकिन उनको लगता था मानव धर्म ही सबसे बड़ा धर्म है या सब धर्मों का सार ये है कि मानवीयता को, प्रेम को बढ़ावा मिलना चाहिए। राजा महेंद्र प्रताप ने तब वो कर डाला जो कभी मुगल बादशाह अकबर ने किया था, जैसे अकबर ने नया धर्म दीन ए इलाही चलाया था, वैसे भी राजा महेंद्र प्रताप ने भी एक नया धर्म शुरू कर दिया, प्रेम धर्म। इस धर्म के अनुयायियों का एक ही उद्देश्य था प्रेम से रहना, प्रेम बांटना और प्रेम भाईचारे का संदेश देना। हालांकि दीन ए इलाही की तरह प्रेम धर्म भी उसको चलाने वाले के साथ ही गुमनामी में खो गया।

Mahendra


मोदी ने अचानक से यूं ही उनका नाम नहीं लिया, अफगानिस्तान और भारत के संबंधों पर रिसर्च हुई होगी तो सबसे कद्दावर नाम इतिहास से राजा महेंद्र प्रताप का निकला, मार्क्सवादी होने के बावजूद उसे नजरअंदाज नहीं किया जा सकता था।


पिछले कुछ सालों से अलीगढ़ के स्थानीय बीजेपी नेता एएमयू में राजा महेंद्र प्रताप के एएमयू में योगदान के चलते कैंपस में उनकी जयंती मनाने को लेकर कोशिश करते आ रहे हैं। वैसे भी राजा के दामन में कोई दाग नहीं है और राजा को वो नहीं मिला, जिसके वो वाकई में हकदार थे। सबसे बड़ी बात ये कि उनके अपने शहर हाथरस में उन्हें जानने वाले युवा ढूंढे नहीं मिलेंगे।


उनकी मौत के बाद सरकार ने उसी साल एक डाक टिकट जारी करके इतिश्री कर दी। लेकिन क्या उनके कामों और योगदान को देखते हुए इंसाफ हुआ उनके साथ? आप खुद तय करिए। राजा महेंद्र प्रताप भी उन्हीं तमाम चेहरों में से हैं, जिनका आजादी के बाद इतिहासकारों ने सही ढंग से मूल्यांकन नहीं किया।  दुनिया भले ही नोबेल के लायक उनको मान ले, लेकिन सरकार उनकी जयंती तक मनाने लायक नहीं समझती आई और ये नाइंसाफी की मार केवल राजा महेंद्र प्रताप ने ही नहीं भुगती, उनके जिले हाथरस ने भी भुगती है।